मिनी बस (कहानी) : प्रकाश मनु

Mini Bus (Hindi Story) : Prakash Manu

1

“लो आ गई वह!” उसने जैसे अपने आपको बताया। आध-पौन घंटे से बस स्टॉप पर खड़े-खड़े हालत यह हो गई थी, जैसे टाँगों में खून ही न हो। जैसे टाँगें टाँगें नहीं, दो बाँस की खपचियाँ हों, बेवजह शरीर का बोझा ढोती दो खपचियाँ।

‘आफिस टाइम...!’ वह हमेशा इस शब्द को टाइम बम से कन्फ्यूज कर जाता है। और गलत भी क्या है? भीतर ही भीतर बुदबुदाता है वह, यही वक्त है जब रोज दिल्ली में विस्फोट होता है, जनसंख्या विस्फोट! और पूरा शहर चेहराहीन चेहरों के हुजूम में बदल जाता है। लोग घरों से ऐसे छूट पड़ते हैं, जैसे कबूतरखाने से कबूतर।’

और एक कबूतर वह है—वह...दीपक वासवानी।

था नहीं, है। हो गया है। दिल्ली आने से पहले नहीं था। मरता-जीता, चीखता-चिल्लाता जो भी था, था तो आदमी। यहाँ तो होंठों पर सेलो टेप, हाँफती साँसें और टाँगें चकरघिन्नी। फिर भी सेलो टेप कभी-कभी उखड़ जाता है। खास तौर से जब टाँगों पर ज्यादा जोर पड़ता है या दिल-दिमाग पर...! नहीं, दिल तो रहा नहीं, सिर्फ दिमाग पर! उसने खुद को करेक्ट किया और हँसा। बेवजह। बेमतलब।

मिनी बस के रुकते ही कंडक्टर ने ‘भोगल, निजामुद्दीन, चिड़ियाघर...’ का चिरपरिचित गीत दु्रत-विलंबित लय में गाना शुरू किया और उसने भीतर जाना।

लेकिन उसे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। वह दरवाजे पर आया ही था कि भीड़ के एक रेले ने उसे भीतर दे पटका। हालाँकि पैर अभी हवा में हैं, हाथ भी। थैला वहीं किसी के कंधे से अटक गया है...

भीतर अजीब सी घुटन है। साँस लेना तक मुश्किल।

बाहर से अंदाज नहीं था, भीड़ वाकई इतनी ज्यादा है। नहीं तो यह बस छोड़ देता। नहीं, छोड़ कैसे देता? आखिर दफ्तर भी तो पहुँचना है। पहले ही लेट...!

पैर जमाते ही उसने पहला काम यह किया कि थैला जो अभी तक हवा में झूल रहा था, खींचकर साथ चिपका लिया। टटोला है—कि सब कुछ ठीक-ठाक है, कहीं कोई किताब गिरी-गिराई तो नहीं। दूसरा हाथ अदृश्य दिशा में बढ़ा दिया है। शायद कोई छड़। कोई सहारा! जैसे वक्त के कुएँ में गहरे धँसे-धँसे, कोई नियति की डोर तलाश रहा हो।

उनके पीछे उसी की तरह, बल्कि उससे भी अधिक बेसबरे पाँच-सात लोग और हैं। बुरी तरह धक्का दिए जा रहे हैं। खड़ा रह पाना मुश्किल।

उसने समझदारी यह की कि ड्राइवर की सीट के पीछे वाला डंडा कसकर पकड़ लिया। लेकिन पीछे से दबाव इतना पड़ रहा है कि लगता है, हाथ अब छूटा...अब छूटा। गिरफ्त ढीली पड़ती जा रही है।

उसने एक और टैक्टिस अपनाई है—कूल्हे थोड़ा पीछे खिसकाए हैं, हाथ आगे। कसकर और...और कसकर डंडा पकड़ा है। वह धनुषाकार हो गया है—एकदम।

लेकिन कोई भी उपाय अंतिम नहीं होता। खासकर जब एक छोटे दस्ताने में लोग भेड़ों की तरह ठुँसे हों और वह फटने-फटने को हो रहा हो। बचपन में पढ़ी, बल्कि चित्रों में देखी यह कहानी उसे बेतरह याद आ रही थी—कि एक आदमी जंगल में दस्ताना भूल गया। जानवरों ने उसे देखा और एक-एक कर उसमें घुसते चले गए। और फिर हुआ वही जो हाना था...दस्ताना फट गया। ओह, फट गया!

मिनी बस चली, तो जो दरवाजे पर खड़े थे, उन्होंने पूरा दम लगाकर भीतर धक्का दिया। लोग जो थोड़ा बहुत एडजस्ट हुए थे, फिर लड़खड़ाए। फिर धक्का-मुक्की बुरी तरह। वह गिरते-गिरते बचा।

गिर जाता तो सामने मडगार्ड पर सिर से सिर मिलाकर बतियाती लड़कियों पर गिरता। इतनी भीड़ में भी जो निश्चिंत भाव से स्वेटर के फंदे डाल-उतार रही थीं। उनमें से एक जिसकी नाक तोते की-सी है और दाँत बड़े-बड़े, उसे घूरकर देखा है। देखा दूसरी ने भी है, लेकिन जरा मीठी नजरों से। वह लगती भी ऐसी है—शांत, मृदुल। बालों में सुर्ख गुलाब का फूल।

उसने गौर से देखा है। चौंका है। बात करते-करते हौले से मुसकराती है, तो वह फूल भी हँसता है—लाल, सुर्ख हँसी। लड़की का चेहरा तब बिलकुल गुलाब का फूल लगने लगता है।

तो यानी कि इतनी भीड़ में धँसे-धँसे भी मरा नहीं वह। जड़ नही हुआ सौंदर्य-बोध उसका? उसने जैसे खुद से कहा। उसे हँसी आने को हुई। उसने जबरन रोका है।

बस रुकी है। शायद भोगल आ गया। कंडक्टर की फिर वही सुपरिचित लय—“निजामुद्दीन, चिड़ियाघर, कनॉटप्लेस...!”

“अब कहाँ बैठाओगे सवारियाँ? हद है भई!”

“अब चलाओ भी यार।”

दो-एक मरी-मरी आवाजें उभरती हैं। डूब जाती हैं। जैसे खास बात नहीं, यह भी एक अपनी आदत-सी हो। लोग कह देते हैं। ड्राइवर सुन लेता है। और असल में कोई नहीं कहता, कोई नहीं सुनता।

“अब चला भी दीजिए सरदार जी।” उसने पनीली आवाज में ड्राइवर से याचना की है। पैंतीस-चालीस बरस के सरदार जी हैं। नीली पगड़ी वाले। चेहरा एकदम सख्त। आबनूसी। एक नजर उसे देखा, फिर बाहर की ओर देखने लगे।

पाँच-सात, सवारियाँ और चढ़ी हैं और पहले से ‘लबालब’ भरी बस में ठुँस गई हैं।

बस्स! अब तो बस्स!!...नहीं तो मर जाएँगे सबके सब यहीं। उलट जाएगी बस...या साँस घुटेगी या कुछ और! उसने सारी ताकत खुद को बचाने में लगा दी। और फिर चीखा। पूरा दम लगाकर चीखा है वह।

“अरे, कहाँ बैठाओगे भाई? साँस तक नहीं आ रही।”

सहसा उसे लगा, वाकई साँस रुक जागी। नहीं! साँस तो गई! वह चिल्लाया, “साँस...साँस नहीं आ रही। मेरी साँस रुक रही है।”

इसका एक फायदा हुआ। लोग थोड़ा इधर-उधर हुए हैं। करुणाद्र्र भाव उभर आया है चेहरों पर। वह थोड़ा खिड़की के पास खिसका है।

2

खिड़की के पास वाली सीट एक टाई बाबू के कब्जे में है—सलेटी सूट, टाई, चिकना चेहरा।

“प्लीज...थोड़ी खिड़की और खोल लीजिए।” उसने गिड़गिड़ाकर कहा है।

टाई बाबू ने ऐसे देखा, जैसे वह कोई चिड़ियाघर से छूटा जानवर हो। “हवा आती है—ठंडी हवा।” उसने तटस्थ भाव से कहा।

“हवा ही तो चाहिए। देखिए, कितनी भीड़ है—साँस तक नहीं!” उसकी आवाज लड़खड़ा रही है। लेकिन गुस्सा छिपता नहीं है।

“ऐसा तो रोज होता है...!”

“रोज होता है—क्या मानी इसका? रोज होने से कोई बात ठीक हो गई।” गुस्से में उसके दाँत भिंच गए हैं, होंठ विकृत। अजीब मुल्क है यह! कितने लोग कितना कुछ देखते, सहते हैं—क्योंकि रोज होता है, इसलिए होना ठीक है। अजीब उलटबाँसी है ससुरी। यह बाबू भी खड़ा होता तो साले के चेहरे से इतनी निश्चिंतता न टपकती, न बेशर्मी। तब समझ में आता कि साँस चाहिए! जब दम घुट रहा हो, तो साँस चाहिए, साँस...! गुस्से में दाँत किटकिटाएँ हैं।

“पर याद दीपक वासवानी, जो वह बोल रहा है वह उसका सच है और जो तुम कह रहे हो वह तुम्हारा सच। भँवर में फँसे आदमी और किनारे पर खड़े आदमी का सच एक नहीं होता। बड़ा फर्क है भाई!” उसके भीतर किसी ने कहा है।

पर नहीं—उसे स्वीकार नहीं। “क्या वह भी सच है? किनारे पर खड़े आदमी का सच भी सच है? नहीं, मैं इतना उदार नहीं, न हिप्पोक्रेट!” यानी कि वह खुद से भी लड़ने की मुद्रा में आ गया।

जोश ही जोश में उसने थोड़ा और जोर लगाया। खिसककर खिड़की के और पास आ गया है। नाक कुछ और ऊपर उठा दी है—खिड़की की ओर। पतली-सी झिरी से थोड़ी हवा आ रही है।

अब ठीक है, काफी ठीक...लेकिन पैर हवा में उठ गए हैं।

वह भी देखेंगे, लेकिन...? लेकिन पीछे वाला आदमी उसके कूल्हों पर...!

छि:! वह एक तरफ हुआ है। पैर अब जमीन को छू रहे हैं।

निजामुद्दीन पर जब कुछ और सवारियाँ ठूँसी जाने लगीं, तो उसका धैर्य जवाब दे गया। चीखा है पूरे जोर से, “आदमी और जानवरों में कोई फर्क नहीं! अजीब शहर है। अच्छा-खासा आदमी दिल्ली में जानवर हो जाता है।”

किसी ने सुना है, किसी ने नहीं। किसी ने जान-बूझकर नहीं सुना। कोई एकाध हँस रहा है।

टाई बाबू के हाथ उसकी टाई पर चले गए हैं।

लड़कियों ने ध्यान से देखा है—अकल्पनीय आश्चर्य से! कोई यों चीखे सरेआम दिल्ली में? इस पर शायद उन्हें हैरानी हुई है। उनके हाथों की सलाइयाँ क्षण भर के लिए रुकी है। आँखों की पुतलियाँ भी। बातें भी। वे उसके चेहरे को देख रही है। नहीं, चेहरे में देख रही हैं। जाने क्या? वह नर्वस हो गया।

पागल? नहीं, पागल तो नहीं वह।

लड़कियाँ फिर बातों में लग गई है। सलाइयाँ चल पड़ी हैं। पुतलियाँ भी।...क्या मिल गया उन्हें वह, जो वे ढँूढ़ रही थी? उसे हैरानी हुई।

“अच्छा, क्या बातें कर रही हैं लड़कियाँ?” भीड़ में फँसे-धँसे इस ओर कान लगाना उसे अच्छा लगा।

गुलाब जैसे चेहरे वाली लड़की कह रही है, “वह चोपड़ा है न...सुनील चोपड़ा। जानती है तोशी? अच्छा नहीं लगता, बार-बार आकर बैठ जाता है मेरे पास। मैंने तो मना किया...!”

“देखना, एक दिन...तेरी ही बदनामी होगी, उसका क्या जाएगा?”

“अभी परसों...क्या हुआ कि मैं खाना खा रही थी लंच में। आया और मेरे लंच बॉक्स में से खाने लगा। साथ ही बोलता जा रहा था, बढ़ा-चढ़ाकर तारीफ—वाह, मटर-पनीर क्या बढ़िया बना है, और पराँठे क्या खूब!...गोभी के पराँठे थे, अच्छे ही थे। मगर मुझे बड़ा खराब लगा। शर्म भी आई, पर इतने लोगों के बीच क्या कहती...?”

“कह देती, मुझे यह पसंद नहीं है।”

“नहीं कहा जाता तोशी...नहीं कहा जाता, आखिर एटीकेट्स...!”

लेकिन तभी चिड़चिड़ी, कर्कश आवाजों के एक धक्के से, प्रेम-अप्रेम के तारों के बीच फँसी यह कहानी बिखर गई।

“ठीक से खड़े रहो, ठीक से। जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं दिल्ली में!”

“मैं ठीक से हूँ—और बीस बरस से हूँ दिल्ली में। अपनी देख...”

पहले वाले ने स्वर बदला, “हद है, लोगों को मैनर्स तक नहीं आते।”

“देख, मैनर-फैनर तो बोल नहीं, नहीं तो काढ़ दूँगा इब्बी। ज्यादा मैनर आते हों तो स्कूटर में चला कर।” दूसरा जो हरियाणवी था, ठीक महाभारत के भीम वाली मुद्रा में आ गया।

यह मौका था। वह अचानक कृष्ण बन गया (और अर्जुन भी)—“सुनो दीपक वासवानी, सुनो! यह शायद रोज की बातचीत है...रोज के झगड़े। शब्द बदल जाते हैं, उन्हें उच्चारित करने वाले होंठ भी। मगर हालात वही होते हैं, मिनी बस भी वही और उन हालात में होंठों पर खुद-ब-खुद चिपक जाती है झगड़ालू कटुता, कड़वाहट! हमें ऐसे हालात में जीने के लिए विवश कर दिया जाता है। ऊपर से ‘सत्यमेव जयते’ और ‘अहिंसा’! बड़े बड़े नारे। यह साजिश है, साजिश...!”

3

अगले स्टॉप पर दो-एक लोग उतरे, मगर चार-छै और चढ़े हैं। फिर धक्का-मुक्की। हलचल, विप्लव। जो पहले ही सहमे, सिकुड़े खड़े थे, कुछ और सिकुड़ने की कोशिश में लग जाते हैं। गरज यह कि आदमियों के बीच कहीं कोई स्पेस नहीं। जितने चिपक सकते हैं, चिपके हुए हैं।

वह एकदम धनुषाकार खड़ा है और आगे को ओर झुकता जा रहा है। सीधा खड़ा होना चाहता है, लेकिन हो नहीं पा रहा। कंधों पर बोझ बढ़ता जा रहा है। पीछे का पैर उठ गया, आगे के पैर पर ही सारा वजन है। उसने ध्यान से देखा, दूसरे भी ऐसे ही हैं—शुतुरमुर्ग।

इतने सारे शुतुरमुर्ग—एक साथ!

(हो-हो-हो-हो...हा-हा—मजा आ गया, सच!)

एक मूँछों वाला लाला टाइप मोटा आदमी है। एक दफ्तर का गोरा अधेड़ बाबू। चार-छै नौकरीपेशा युवक हैं। सबके हाथ में चमड़े का बैग, उसमें लंच बाक्स। दो-तीन कालेज के छोकरे हैं। कुछ मजदूर (मजबूर?)...इनमें से कोई भी बोलता क्या नहीं है? उसे हैरानी हुई। और फिर इससे भी बढक़र हैरानी इस बात पर—कि देखो, लोग किस कदर एडिक्ट हो जाते हैं। एक ही चीज को रोज-रोज देखकर भावशून्य, प्रतिक्रियाविहीन। जैसे यह तो होना ही है—होगा ही। जैसे अफीम की आदत पड़ जाती है, स्मैक की, वैसे ही मुश्किलों की भी। और...और फिर बड़ी से बड़ी हाय-हत्या आदमी बिना विचलित हुए सह जाता है।

उसे झुँझलाहट हुई है। बहुत कड़वा मुँह बनाकर पास वाले आदमी से कहा है, “ऐसे ही बढ़ती रही दिल्ली की आबादी तो देखना, इक्कीसवीं सदी में दुनिया का सबसे बड़ा नरक होगा दिल्ली, सबसे बड़ा नरक!”

और लोगों ने भी सुना है। सुनें। सबको सुनाने के लिए ही उछाली है चेतावनी उसने। साथ में यह और जोड़ दिया, “और फिर—फिर क्या होगा, जानते हो? गिनीज बुक आफ रिकॉड्र्स में नाम आ जाएगा दिल्ली का। दुनिया का सबसे बड़ा नरक कहाँ है—दिल्ली में।”

पीछे से एक दुबली-पतली आवाज आई है, “चलो, कहीं कुछ तो नाम होगा। अच्छों में नहीं, तो बुरों में सही।”

“नाम ही करना है, तो काहे का टोटा है भई? आगे बढ़ो, तुम भी कर लो नाम! लाओ एक बम, उड़ा दो इसे। उड़ा दो यह मिनी बस जो लोगों को जानवरों की तरह ठूँसती है, नाम तुम्हारा भी हो जाएगा।” वह जैसे आपे में नहीं है। कुछ न कुछ तोड़ने, लड़ने-मरने को आमादा।

ड्राइवर ने नुकीली नजरों से घूरकर देखा है। कहा कुछ नहीं। साफ जाहिर है, चेहरे के भीतर कहीं कुछ...बहुत-कुछ कड़वाहट पी गया है। उसके चेहरे पर हलका-सा विचलन का भाव अच्छा लगा दीपक वासवानी को।

कंडक्टर अब भी चीख रहा है, “जल्दी...जल्दी, चिड़ियाघर, कनॉटप्लेस, करोलबाग...!”

पीछे एक ने कहा, “कहाँ बिठाएगा भाई?”

“ऊपर बालकनी में—पूरी की पूरी खाली है।” फिर वह चिल्लाने लगा, “जिस-जिस को बालकनी में बैठना हो, जल्दी आगे आ जाओ।”

चार-छै लोग आगे आए हैं—तेजी से। भीड़ भरी बस को देख रहे हैं, रुक गए हैं। आँखों में लाचारी उग आई है। लालच और लाचारी एक साथ गड्डमड्ड। जैसे बराबर-बराबर आकर्षण और विकर्षण। लोग अपनी-अपनी जगह पर ठिठक गए हैं। न आगे, न पीछे। अजीब से चाबी के खिलौने।

“यह सरकार डबल डेकर मिनी बसें क्यों नहीं चलाती? डबल डेकर मिनी बस! फिर बालकनी की जरूरत नहीं रहेगी। देखने में भी अच्छा लगेगा, मजेदार...!”

“आइडिया अच्छा है—किसी को सूझा ही नहीं!”

“सिवा आपके।”

लोग हँस रहे हैं।

इतने में चिड़ियाघर आ गया।

“किसी को उतरना है चिड़ियाघर? कोई नहीं है चिड़ियाघर वाला? उतरो जल्दी!”

“सबको उतार दे भाई, सबको। सभी चिड़ियाघर के जानवर हैं, पालतू बबुआ।” कहते-कहते उसे खुद ही शर्म आई है। गुस्सा उतरा है।

उसने ठंडी साँस ली है। भीड़ और आदमी। आदमी और भीड़, आदमियों की भीड़ में कहाँ रह जाता है आदमी?

ड्राइवर की मूँछें थोड़ी-सी फड़फड़ाई हैं। होंठों पर बड़ी ही छिपी, शातिर मुसकान भी है—कई अर्थ वाली। क्या सोच रहा होगा वह? कुछ अंदाज नहीं लग पा रहा।

4

और अंदाजा तो वह उस उथल-पुथल का भी नहीं लगा पा रहा, जो उसके भीतर चल रही है। कई चीजें कई कोणों पर टकरा रही हैं। टकराकर फिर टकराती हैं, चिनगारियाँ। अचानक चिल्ला पड़ा वह, “दिल्ली की मुश्किलों का कोई इलाज नहीं, सिवाय एक बम...! एक बम गिरेगा और सब ठीक हो जाएगा। या फिर भूकंप। रूस में आ सकता है भूकंप तो हिंदुस्तान में क्यों नहीं! दिल्ली में क्यों नहीं?”

लोगों के चेहरे पर अब खीज है। या फिर गुस्सा, परेशानी। यह भाषणबाजी वे झेल नहीं पा रहे। एक तो मुश्किलें जो हैं सो हैं, ऊपर से यह आदमी...!

गुलाबी चेहरे वाली लड़की की आँखों में कातरता है। पर कुछ कह नहीं रही। कुछ कह नहीं पा रही। एकदम हक्की-बक्की है। बड़े दाँतों वाली ही बोली है, “ऐसा मत कहिए। घर पर हो सकता है, आपकी बीवी, बच्चे इंतजार कर रहे हों।”

लोग हँसे हैं। ठहाका मारकर। टाई बाबू मुसकरा रहा है।

वह और चिढ़ गया है। वैसे वह भी शायद मुसकरा देता या चुप लगा जाता, मगर यह साला टाई बच्चा...शुतुरमुर्ग की दुम। लालीपॉप कम निरोध सभ्यता की नाजायज औलाद! इस उजबक को बताओ इसकी औकात—कि साले, जैसे मैं चूहा हूँ वैसे ही तू भी चूहा है...! लेकिन फर्क क्या पड़ता है? वह चीखा है, “जैसे मैं मरूँ गा वैसे ही वे, बीवी-बच्चे जो भी हों! मुझे यह मिनी बस मार डालेगी तो उन्हें कोई और, क्या फर्क पड़ता है? दिल्ली में मिनी बसों की कोई कमी तो है नहीं। और फिर डी.टी.सी. की अनंत बेलगाम बसें हैं। मैं, तुम, ये सब, साले मरने के लिए ही पैदा होते हैं। जैसे मैं मरूँगा, वैसे मेरा बेटा, बेटे का बेटा...!”

इस पर एक ठहाका लगा। नाटक का सबसे बेहतरीन पार्ट लगा लोगों को। जैसे ‘मेरा नाम जोकर’ का सीन—वाह, भई वाह! एकदम चटख। गरमागरम।

उसकी आँखों में आँसू हैं। शायद। उसने चुपके से आँखें पोंछी हैं।

“ऐसा न बोलिए, ऐसा न बोलिए भाईसाहब...शुभ-शुभ बोलिए!” बड़े दाँतों वाली लड़की ने टोका है। झट भर के लिए उसका चेहरा सहानुभूति से आद्र्र हो आया है। कर्कशता दब गई है।

गुलाब जैसे चेहरे वाली देख रही है, देखे जा रही है। बस, एकटक! समझ नहीं पा रही, क्या जीवन सचमुच इतना कठोर है या कि वाकई बन रहा है यह आदमी?

और उसने आँखें बंद कर ली हैं। थोड़ी देर के लिए, “चुप हो जाओ दीपक वासवानी, चुप हो जाओ। बहुत हो चुका!” उसने अपने आपसे कहा है।

“सरकार चालान क्यों नहीं करती इन कंबख्तों का? क्या इनके लिए कोई कानून नहीं है? कितने ही लोगों को ठूँस-ठाँस लें। आखिर एक हद होती।” कॉलेज स्टूडेंट बोला है।

“लेकिन लोगों को जल्दी होती है। ऐसी ही बात है तो लोग चढ़ते ही क्यों हैं, कोई जबरदस्ती तो नहीं बैठाता?”

“मैं तो ठीक समय पर घर से निकलता हूँ। सिर्फ आधा घंटा पहले—लाजपत नगर। वहीं से बस चलती है, कभी लेट नहीं होता।” टाई बाबू ने अपनी समझदारी बयान की है।

उसका मन हुआ, मुक्का मारकर थोबड़ा फोड़ दे साले का, “कुत्ते, हरामी के पिल्ले...! साले मैं क्या करूँ, अगर मेरा घर बस टर्मिनल की बगल में नहीं? तेरे को मालूम है, मैं पौन घंटे से एक टाँग पर खड़ा इंतजार कर रहा था बस का? साले बन रहा है, सीट मिल गई है इसी से! तेरे जैसों को तो भिगो-भिगोकर जूते...!”

“लेकिन सरकार भी क्या कर रही सकती है? या तो वो ज्यादा बसें चलाए, नहीं तो ये तो मनमानी करेंगे ही। लोगों को तो आखिर आफिस पहुँचना ही है, चाहे बैठकर, खड़े होकर या लटककर...?”

“और एक दिन नहीं, रोज...!”

रोज यही क्रम।

उसकी आँखें फट रही हैं। सोचता है तो सोचता चला जाता है।

छुट्टियाँ भी कहाँ हैं? प्राइवेट दफ्तरों में तो लोग लोग नहीं, पिल्ले होते हैं। जुटे रहो, पिले रहो। सुबह से शाम तक जलाओ खून...और खाने को जूठन, मैला, मल।

और फिर अपना दफ्तर याद आया उसे जहाँ 15 अगस्त को भी छुट्टी नहीं। बदले में फिर कभी ले लो। और वह ‘फिर कभी’ आए ना आए, बॉस की मर्जी। सारे देश को आजादी है, लेकिन तुम साले पिले रहो क्योंकि पत्रकार हो तुम! अभिव्यक्ति की आजादी, देश की आजादी के रखवाले! अजीब आजादी है यह ससुरी, जो आदमी को आदमी के हाथों चिरवाती है, मरवाती है। हत्याओं की कतार लगा देती है। और फिर जय तिरंगा, जय भारत—बोलो बोलो पिस्सुओ, जय तिरंगा, जय भारत! मिनी बस में घुटे-घुटे, पिसे-पिसे, कहीं भी किसी भी मिनी बस में टँगे, घुटी-घुुटी साँसों में बोलो—जय तिरंगा जय भारत, जय हे जय हे जय...!

“सच तो यह है कि यह पूरा महादेश देश नहीं, एक मिनी बस है, जिसमें जानवरों की तरह लोग ठुँसे हैं। लोगों के ऊपर लोग बैठे हैं, लोगों के पैरों के नीचे लोग लेटे हैं। कुछ हैं जो ऐश कर रहे हैं, आसमान में हैं, कुछ हैं जो हवा-पानी के लिए भी तरस रहे हैं।” टाई कालर वाले आदमी की ओर इंगित करते हुए उसने कहा है।

“क्यों भाईसाहब, अभी आपको हवा नहीं मिली? क्या हाल हैं अब आपके?” पीछे से आवाज आई है।

“इतनी तो मिल रही है भइए, कि जिंदा रहें। जिंदा है!” उसने टाई कॉलर वाले की ओर देखकर मुँह बिचका दिया है। टाई कॉलर परेशान। समझ नहीं पा रहा कि इस गँवार का क्या करे?

5

स्टॉप आया तो लड़कियाँ उतरी हैं। वह उचककर खिड़की के पास खिसक आया। खिड़की खोल दी है—एकदम पूरी। यह एक चुनौती है।

टाई कॉलर फड़कता है, फड़फड़ाता है—मगर कुछ बोल नहीं पाता।

अब हवा आ रही है। खुल्लम-खुल्ला हवा आ रही है। वह चैन से है, चाहे दबा फँसा खड़ा है, तब भी।

अब वह सोच पा रहा है। दफ्तर। लोग। दफ्तर के काम। बॉस—चिड़ीमार।

घड़ी में देखा। साढ़े ग्यारह, आधा घंटा लेट। अभी तो तिलक ब्रिज भी नहीं आया। दस मिनट तो और आगे लगेंगे ही—कम से कम।

ससुरा गंजा फिर आज देखेगा कंजी नजरों से। उससे बर्दाश्त नहीं होगा। जी में आएगा, जबड़ा तोड़ दे साले का। लेकिन फिर...

फिर सब्र कर जाएगा दीपक वासवानी। सोचेगा—थोड़े दिन हैं, फिर जाएँगे। मगर क्या सचमुच...?

“भई, कितनी देर में आएगा कनॉटप्लेस?” अकुलाहट से पूछता है वह।

“यही कोई पंद्रह मिनट।”

“तब तो आज की तारीख में आ जाएगा।” उसकी खीज व्यंग्य में बदल गई है।

6

कनॉट प्लेस!

कभी कनॉटप्लेस एक खूबसूरत नाम, एक खूबसूरत जगह हुआ करती थी उसके जेहन में। ख्याल आते ही एक ताजगी-सी तिर आती थी। और अब...? एक कसैला धुआँ है वह। उबकाई भर आती है। और मन होता है जैसे थूक दे, थूक दे सब कुछ पर—पिच्च! मगर वह जबरन थूक गुटकता है। जी खराब हो जाता है, जैसे अभी उलटी आएगी।

ड्राइवर, कंडक्टर दोनों समझ गए हैं, इस आदमी का स्कू्र थोड़ा ढीला है। बगावत का पाठ पढ़ाता रहेगा लोगों को, जब तक नहीं उतरेगा। सो इससे छुट्टी पाना बेहतर है।

मिनी बस की स्पीड बढ़ी है—और तेज, और तेज। बीच में दो-एक स्टॉप आए हैं, लेकिन आवाज लगाना बंद हो गया है। और फिर आखिर बाराखंभा रोड...।

7

मिनी बस से उतरा तो थोड़ी राहत मिली। उसने दो-तीन लंबी-लंबी साँसें ली हैं। पहली अनुभूति यह हुई—साँस आ रही है। यानी वह जिंदा है। सब-कुछ के बावजूद जिंदा, कहीं कुछ नहीं बिगड़ा। जैसे रेप के बाद की औरत जिसे बलात्कारी जीवित सड़क पर छोड़ गए हैं।

लेकिन एक क्षण—यह सिर्फ एक क्षण का एहसास था। फिर दफ्तर याद आया और सिर भारी होने लगा।

पौन घंटा लेट। साला गंजा घूरेगा आज फिर! वह हाँफता हुआ तेज-तज चलने लगा।

लेकिन दिमाग है कि घूम रहा है, खोपड़ा है कि फटा जा रहा है। और वह सोच रहा है, बहुत ही बुरी शुरुआत हुई आज के दिन की। लगता है, दिन भर परेशानियाँ, मुसीबतें ही झेलनी पडे़ंगी।

दफ्तर!...अचानक उसे लगा, दफ्तर भी तो मिनी बस है। एक मिनी बस से उतरने के बाद दूसरी में जा रहा है वह खुद-ब-खुद अपने पैरों से चलकर।

और बीच की जो चिंता, उद्वेग, खिंचा हुआ माथा? अब भी तो मिनी बस में है वह!

तो यानी कि पूरा देश ही मिनी बस है! उतरते हुए चढ़ते हुए, जीते हुए, मरते हुए। कहीं भी छूट पाना मुश्किल। और अजीब है यह मिनी बस, जहाँ चमगादड़ और शुतुरमुर्ग और कबूतरों की फड़फड़ाहट...पिल्लों की चिल्ल-पों!

‘छिर्र...!’ तभी कीचड़ के छींटे उस पर पड़े हैं। कोई डी.टी.सी. की बस, नहीं, मिनी बस ही गुजरी है। पैंट गंदी हो गई है—एकदम।

“कुत्ता, साला...!”

वह चीखा है। रुककर घूरता रहा मिनी बस को। पिच्च से थूका है और तेज-तेज कदमों से दफ्तर की और बढ़ चला है।

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