Mili-Juli Sanskriti (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar
मिली-जुली संस्कृति : रामधारी सिंह 'दिनकर'
यह देखकर मुझे बेहद खुशी हुई कि मॉरिशस के हिन्दुओं में अपने धर्म और संस्कृति के लिए पूरा उत्साह है। वे भारत से बाहर रहने पर भी भारत को नहीं भूले हैं। वे यह भी चाहते हैं कि भारत से साधु और संन्यासी, कवि, लेखक, पंडित और कलाकार बराबर मॉरिशस आते रहें, जिससे भारत के साथ मॉरिशस का सांस्कृतिक सम्बन्ध बना रहे और वह दिनोंदिन मजबूत होता जाए।
यह बहुत अच्छा हुआ कि मझे मॉरिशस आकर अपने बिछुडे हुए भाइयों और बहनों से मिलने का मौका मिला। इस मौके का लाभ उठाकर मैं यहाँ के हिन्दुओं और मुसलमानों की सेवा में यह निवेदन करना चाहता हूँ कि भारत की संस्कृति, तहजीब, तमदुन या कल्चर का असली रूप क्या है।
भारत की संस्कृति किसी एक जाति या धर्म की संस्कृति नहीं है। वह मिली-जुली संस्कृति है और हिन्दुस्तान में हम उसे सामासिक संस्कृतिक या कम्पोजिट कल्चर कहते हैं।
जब आर्य भारत आए, उससे पहले भारत में अनेक जातियों के लोग रहते थे, जिनमें द्रविड़ों की सभ्यता प्रधान थी। भारत आने पर आर्यों ने वहाँ पहले से रहनेवाले लोगों के साथ विवाह-सम्बन्ध किया और सभी जातियों को आपस में मिलाकर उन्होंने विशाल हिन्दू-संस्कृति की रचना की। आर्यों की भाषा संस्कृत थी। जब आर्य भारत आए, उनकी भाषा यानी संस्कृत भाषा का प्रभाव भारत की सभी भाषाओं पर पड़ा। लेकिन, भारत में जो शब्द पहले से प्रचलित थे, उनमें से भी बहुत-से शब्द संस्कृत में घुस गए और संस्कृत भाषा ने उन शब्दों को अपना लिया। पंडितों का विचार है कि पूजा, पंडित, कुन्तल, कक्ष, और ऐसे अनेक शब्द द्रविड़ भाषा से निकलकर संस्कृत में आए थे। मगर ये शब्द संस्कृत में इस तरह घुल-मिल गए हैं कि अब हम उन्हें संस्कृत के ही शब्द समझते हैं।
भक्ति-मार्ग के विषय में भी विद्वानों का विचार है कि भक्ति द्रविड़ों के बीच जन्मी और विकसित हुई थी। बाद को वह सारे भारत में फैल गई। श्रीमद्भागवत में भक्ति ने नारदजी से कहा है :
उत्पन्ना द्राविड़े चाऽ हम कटि वृद्धिमागता
स्थिता किंचिन्महाराष्ट्रे, गजर जीर्णतां गता।
अर्थात् मेरा जन्म द्रविड़ देश में हुआ था, कर्णाटक में मैं फूली-फली, महाराष्ट्र में मैंने विहार किया और गुजरात पहुंचकर मैं बूढ़ी हो गई।
इसका दूसरा प्रमाण वह दोहा है, जो साधु-समाज में बहुत दिनों से प्रचलित रहा :
भक्ति द्राविड़ ऊपजी, लाए रामानन्द,
परगट कियो कबीर ने, सात द्वीप नौ खंड।
हिन्दुओं को यह याद रखना चाहिए कि भक्ति-आन्दोलन के सभी आचार्य दक्षिण भारत में जन्मे थे। शंकराचार्य, रामानुज, वल्लभाचार्य, मध्वाचार्य-ये सभी सन्त दक्षिण में जन्मे और उत्तर में उनके मतों का प्रचार हुआ। स्वामी रामानन्द प्रयाग में जन्मे थे। मगर साधना उन्होंने भी दक्षिण जाकर रामानुजाचार्य के आश्रम में की थी।
शिक्षा यह कि उत्तर और दक्षिण भारत में कोई भेद नहीं है। तमिल, तेलुगू, मराठी, बंगला और हिन्दी बोलनेवाले सभी हिन्दू एक हैं और आपस में उन्हें हमेशा एक रहना चाहिए।
जब मुसलमान भारतवर्ष में आए, आरम्भ में हिन्दुओं के साथ उनकी थोड़ी खट-पट रही। मगर मुगलों के आने के बाद हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे को ज्यादा समझने लगे। वैसे हिन्दू-मुस्लिम एकता का आन्दोलन पठानों के समय ही शुरू हो गया था। हिन्दुस्तान के इतिहास में हिन्दू-मुस्लिम एकता के बड़े नेता तीन हुए हैं। उनमें से पहले का नाम महात्मा कबीरदास, दूसरे का सम्राट अकबर और तीसरे का महात्मा गांधी था। कबीरदास समझते थे कि हिन्दू और मुसलमान-दोनों-के-दोनों । गलत रास्तों पर हैं। धर्म मूल में एक ही होता है। डालों पर जाकर वह अलग-अलग हो जाता है। इसलिए, दोनों को चाहिए कि वे डालों से उतरकर मूल पर आवें।
डार तजौ, सब मूल गहौ।
हिन्दुस्तान के लिए हिन्दू और मुसलमान की एकता जरूरी है। वे अगर एक नहीं होंगे, तो हिन्दुस्तान कमजोर हो जाएगा। वे अगर आपस में मिलकर रहेंगे, तो हिन्दुस्तान की ताकत बहुत बड़ी हो जाएगी। कबीर के शिष्य स्वामी दादूदयाल ने आज से चार सौ साल पहले कहा था :
दोनों भाई हाथ पग, दोनों भाई कान।
दोनों भाई आँख हैं हिन्दू-मुसलमान।
18वीं सदी में जब यूरोप भारतवर्ष पहुँचा, तब भारतीय सभ्यता ने एक बार फिर करवट बदली। यूरोप के साथ साइंस था, बुद्धिवाद था और एक नया धर्म भी उसके साथ आया था। उस समय यूरोप से आनेवाले लोगों ने हिन्दू धर्म और इस्लाम, दोनों पर प्रहार किया और अपनी रक्षा के लिए दोनों धर्मों ने नए-नए नेता पैदा किए। इस्लाम के भीतर से सर सैयद अहमद खाँ, चिराग अली, हाली और इकबाल पैदा हुए, जिन्होंने हिन्दुस्तान में यूरोपीय संस्कृति के कुप्रभाव को बढ़ने से रोकने की कोशिश की। इसी तरह हिन्दू-धर्म के भीतर से पहले राममोहन राय और केशवचन्द्र पैदा हुए। फिर उस धर्म ने रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य तिलक, रवीन्द्रनाथ, श्री अरविन्द, महर्षि रमण और गांधी को जन्म दिया। इन नेताओं की शिक्षा थी कि यूरोपीय सभ्यता में जो अच्छाइयाँ हैं, उन्हें हम स्वीकार करेंगे। लेकिन भारतीय संस्कृति में जो अच्छाइयाँ हैं, उन्हें भी हम मिटने नहीं देंगे।
भारत में हम आज भी उसी मार्ग पर चल रहे हैं। हमने यूरोप से साइंस लिया है, कल-कारखाने लिये हैं, प्रजातन्त्र अथवा डेमोक्रेसी का नया रूप लिया है और समाज-सुधार की भी बहुत-सी शिक्षाएँ ली हैं। किन्तु, धर्म हमने अपना ही रखा है, संस्कृति के क्षेत्र में हमने अपनी विरासत को नहीं छोड़ा है तथा रामायण और महाभारत आज भी हमारे साहित्य के मूल स्रोत बने हुए हैं।
हिन्दू किसी भी धर्म से द्वेष नहीं करता है। वह आरम्भ से ही सभी धर्मों का आदर करता रहा है और सभी धर्मों को शरण देता रहा है। ईसाइयत यानी क्रिश्चियनिटी भारत में उस समय पहुँच गई थी, जब इंग्लैंड के लोग क्रिस्तान नहीं हुए थे। यहूदी धर्म भी बहुत प्राचीन काल से भारत में मौजूद रहा है। जरथुस्त्र-धर्मी यानी पारसी लोग पहले ईरान में रहते थे। मगर जब ईरान पर मुसलमानों का कब्जा हो गया, तब पारसी जाति ईरान से भागकर हिन्दुस्तान चली आई। तब से पारसी लोग भारत में रहकर अपने धर्म की साधना करते रहे हैं। भारत सभी धर्मों को अपना ही धर्म समझता है और वह सभी के अधिकारों की रक्षा करता है।
धर्म को लेकर आपस में झगड़ा करना मूर्खता का काम है। मन्दिर, मस्जिद, गिरजे और गुरुद्वारे धर्म के बाहरी रूप हैं। ये शाखाएँ हैं, वृक्ष की बाहरी डालियाँ हैं। असल में वृक्ष की जड़ एक है। धर्म बहुवचन होकर झूठा हो जाता है। एकवचन रहकर वह सत्य रहता है। रवीन्द्रनाथ ने कहा था, धर्म को पकड़े रहो, धर्मों को छोड़ दो। जो आदमी यह समझता है कि धर्म अनेक हैं, वह अभी धर्म के मार्ग पर नहीं आया है। जो भी आदमी धर्म की राह पर आ जाएगा, वह सभी धर्मों को एक ही धर्म समझेगा।
धर्म को लेकर झगड़ना जितना बड़ा बेहूदापन है, उससे बड़ी मूर्खता यह है कि लोग जात-पात को लेकर आपस में मनमुटाव पैदा करें। इस मामले में मॉरिशस के हिन्दुओं को बहुत ही सतर्क रहना है। उनका भला इसमें है कि वे जात-पाँत को लेकर आपस में नहीं टूटे। वे अपने मूल केन्द्र से छूटकर एक टापू में जी रहे हैं। उनके भीतर अगर एकता का भाव मजबूत नहीं रहा, तो वे बिखर जाएँगे और हम जिस आशा से मॉरिशस की ओर देख रहे हैं, वह आशा अधूरी रह जाएगी।
मॉरिशस का टापू हिन्द महासागर का हीरा है। मॉरिशस के हिन्दू भारत के शरीर के अंश भले ही न हों, मगर वे भारत की आत्मा के अंश हैं। हमारी आत्मा का यह अंश अगर उजागर रहेगा, तो उससे केवल मॉरिशस की नहीं, हिन्दुस्तान की भी इज्जत बढ़ेगी।
भारत में भगवान एक नया प्रयोग कर रहे हैं। संसार एक इसलिए नहीं हो पा रहा है कि संसार में धर्म अनेक हैं, भाषाएँ अनेक हैं और जातियाँ भी अनेक हैं। ये सारी बातें भारत में भी हैं। तब भी भारत एक देश होकर जी रहा है। भारत की एकता अगर काफी मजबूत हो गई, तो उसी का अनुकरण करके कभी सारी दुनिया भी एक हो जाएगी। और जो साधना भारत के पचास करोड़ लोग कर रहे हैं, उसी साधना में मॉरिशस को भी लगना चाहिए, क्योंकि मॉरिशस का टापू भी छोटे पैमाने पर भारतवर्ष का ही नमूना है। मॉरिशस की सफलता का प्रभाव भारत पर पड़ेगा और भारत की सफलता से मॉरिशस को प्रेरणा मिलेगी।
आदमी जहाँ भी रहे, उसे एकता के साथ रहना चाहिए। एकता ताकत है, अनेकता कमजोरी है। भारत गुलाम इस वजह से हो गया था कि उसकी एकता कमजोर हो गई थी। जब गांधीजी ने भारत की एकता को मजबूत बना दिया, भारत तुरन्त गुलामी की जंजीर तोड़कर दुनिया के सामने शान से खड़ा हो गया। भारत आजाद हो गया। ईश्वर की ऐसी कृपा है कि मॉरिशस की आजादी भी अब दूर नहीं है। किन्तु भारत हो या मॉरिशस, दोनों ही देशों में रहनेवाले को हमेशा यह याद रखना चाहिए कि एकता ही हमारी सारी तरक्की की कुंजी है। अगर गफलत में आकर हमने एकता को खिड़की की राह से जाने दिया, तो हमारी स्वतन्त्रता सदर दरवाजा खोलकर भाग जाएगी। मॉरिशस के निवासियो! हिन्दुस्तान के इतिहास से शिक्षा लो, जैसे भी बने, अपनी आपसी एकता को मजबूत रखो। एकता तुम्हारा अमृत है। एकता तुम्हारी जान है। हिन्दू-धर्म की पाचनशक्ति में विश्वास रखो। भगवान ने तुम्हारे बाप-दादों को भारत से निकालकर इस टापू में किसी बड़े काम के लिए एकत्र किया था। तुमने बड़ी-बड़ी मुसीबतें झेली हैं, बहुत अपमान सहा है, इस टापू को खूबसूरत बनाने के लिए बड़ी-बड़ी कुर्बानियाँ दी हैं। अब भगवान के द्वारा निश्चित घड़ी आन पहुँची है। यह वह वक्त है, जब तुम्हें पहले से भी ज्यादा एकजुट रहकर काम करना है। हिन्द महासागर का यह टापू हिन्दू-हिन्दू की एकता का नमूना पेश कर, हिन्दू-मुस्लिम-एकता का छोटा-सा गढ़ बने तथा पूरब और पश्चिम के बीच सेतु या पुल का काम दे, यही भगवान की इच्छा है।
मॉरिशस
27-7-67
('मेरी यात्राएँ' पुस्तक से)