मिजबान : बुंदेली लोक-कथा

Mijban : Bundeli Lok-Katha

एक परबार में पति-पत्नी रहत थे। दोई बड़े प्रेम से अपनो जीबन बिता रए थे। एक बार का भओ - बिनके घर मिजबान आए, मिजबान आए तो दोई बड़े खुस भए । बिनको सुआगत करो। कई, “भोत दिना बाद आप आए हैं।" मिजबान हे जलपान करबाओ ।

दिन डूबे बे जान लगे तो पति-पत्नी ने कई, “ऐसे केंसे जे हो ! बिना रोटी खाए हम नई जान दें।” भोजन के बिन्हें रोक लए। मिजबान बड़े खास थे, जासे बिनके लाने एक से एक पकबान बने। बिन्हें जित्ती भी खाबे की चीजें पसन्द बिन में सबसे जादा पसन्द थे पापड़! भोतई जादा ! ! अति से जादा !!! अदि खाबे में पापड़ मिल जाएँ तो बे बड़े खुस ।

थारी परस दई तो मिजबान हाथ-मों धोके खाबे बेठ गए। थारी में पापड़ नई देखके बिन्हें लगो की बाद में पापड़ परस हैं। पर जब पति ने हाथ जोड़के कई, “चलो भइया जेबो सुरू करो,” तो मिजबान को मन बेठ गओ । काय से पापड़ बने थे, पापड़ों की थारी बिन्हें चोंका में धरी दिख भी रई थी, पर बे सरम के मारे कछु बोले नई | पति-पत्नी सुइ पापड़ परसबो भूल गए थे। पति भोजन परसन लगो ओर पत्नी ताती ताती रोटी बनान लगी । मिजबान भोजन करन लगे पर ले देके बिनको ध्यान पापड़ों पेई चलो जाए। सिंके पापड़ चूल्हे के पास धरे थे, बे ऊँचे-ऊँचे फुले-फूले दिख रए थे।

मिजबान ने बड़े रूचके सब चीजें खाईं - भजिया, बरफी, लड्डू, खीर-पुड़ी; मगर बिनको ध्यान ले देके पापड़ों पेई जाए। बे सोचें अदि में पापड़ नईं खा पाओ तो काहे की मिजबानी ? बो मनई-मन सोच रओ, फिकर कर रओ की भइया - भोजी हे पापड़ परसबे की अब ध्यान में आहे तब ध्यान में आहे । जिनने धीरे-धीरे खाओ। पर जब समझ में आई, बिन्हें याद नई आ रई तब बाने जुगत लगाबे की सोची, जासे पापड़ खाबे मिल जाएँ । बाने कई,

“एक बात तो बताबोई भूल गओ...” पति-पत्नी ने कई, "कोन सी बात ?"

मिजबान बोलो, “भोतई जरूरी बात! कल तो भइया भगबान नेई मोहे बचाओ। अदि भगबान मेरी रक्षा नई करतो, तो में मर जातो। फिर आज काँ मोहे जे भोजन-ओजन करबे मिलतो । में तो कल्लई खतम हो जातो। भओ का में गेल से जा रओ थो। इत्ते में सर्राके एक करिया नाग आ गओ । का बताऊँ भइया! इत्तो... लम्बो साँप थो, झाँ... से लेके बे पापड़ धरे माँ... तक लम्बों ।"

जो बाने हाथ से इसारो करो पापड़ की थारी तक, तो पति-पत्नी एक साथ बोले, “अरे अपन पापड़ परसबो तो भूल गए ।” मिजबान ने कई, “अब रहन दो ।" पति-पत्नी बोले, “ऐसे केसे रहन दें ? जे तो खानेई पड़हें ।” मिजबान ने कई, “अच्छा तो अब पापड़ों की थरिया लेई आओ।”

(साभार : प्रदीप चौबे, महेश बसेड़िया )

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