Meri Kavya Yatra (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

मेरी काव्य–यात्रा : रामधारी सिंह 'दिनकर'

एज़रा पौंड के किसी लेख में पढ़ा था कि चालीस पेज की भूमिका लिखने के बजाय चार पंक्तियों की कविता लिखना कहीं ज्यादा अच्छा काम है। लेकिन सन् 1956 ई. में जब मेरा काव्य–संग्रह ‘चक्रवाल’ निकला, मैंने भूमिका उसमें पचहत्तर पेज की लिखी थी। किताबों की बहुत लम्बी भूमिकाएँ जार्ज बर्नार्ड शॉ लिखा करते थे, मगर वे कवि नहीं, नाटककार थे। इसलिए मुमकिन है कि एज़रा पौंड की फब्ती शॉ पर लागू न की जा सके। लेकिन आज जो प्रसंग मेरे सामने उपस्थित है, उसका कुछ थोड़ा इतिहास मुझे बताना पड़ेगा। ‘चक्रवाल’ में मेरी ‘रेणुका’ से लेकर ‘नील कुसुम’ तक की चुनी हुई कविताओं का संकलन था। मगर नील कुसुम के बाद भी मेरी कई कविता की पुस्तकें प्रकाश में आयीं और यह आवश्यक हो गया कि चक्रवाल के ही वजन पर कोई दूसरा संग्रह तैयार किया जाए, जिसमें ‘रेणुका’ से लेकर ‘हारे को हरि नाम’ तक की चुनी हुई कविताओं का संकलन हो। ‘रश्मि लोक’ इसी दृष्टि से तैयार किया गया और इसी भाव से उसका प्रकाशन हो रहा है।

रेणुका को साहित्य के इतिहासकार मेरी प्रथम कृति मानते हैं। किन्तु बात सचमुच ऐसी नहीं है। रेणुका (1935 ई.) से पूर्व 1929 ई. में मेरा एक छोटा–सा खंड–काव्य ‘प्रण–भंग’ नाम से निकला था। संयोगवश इस पुस्तक पर आचार्य पंडित रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि पड़ी और उन्होंने अपने इतिहास में इस तुच्छ कृति का भी उल्लेख कर दिया। किन्तु, उससे भी एक वर्ष पूर्व यानी सन् 1928 ई. में मेरी ‘बारदोली–विजय’ नामक एक पुस्तिका निकली थी, जिसमें बारदोली–सत्याग्रह से प्रेरित दस–बारह गीत थे। प्रण–भंग की एक प्रति किसी तरह मेरे संग्रह में बची रही और अपनी प्रारम्भिक रचनाओं के साथ मैं उसे दुबारा छपवाना भी चाहता हूँ। किन्तु, ‘बारदोली–विजय’ की कोई भी प्रति अब मेरे पास नहीं है। याद करने पर केवल दो टुकड़े मन में गूँजते हैं। जगत्तारिणि, खद्दरधारिणि, वन्दे। विलसन–मद–मारिणि वन्दे। विलसन उस समय बम्बई का गवर्नर था। सरदार पटेल ने बारदोली का संग्राम विलसन के ही विरुद्ध जीता था।

तो फिर मैं अपने कवि–जीवन का प्रारम्भ कहाँ से मानूँ? रेणुका से, प्रण–भंग से या बारदोली विजय से? अथवा उससे भी पूर्व सन् 1924 ई. से, जब मेरी पहली कविता जबलपुर से निकलने वाले पाक्षिक (पहले वह मासिक था) पत्र छात्र सहोदर में छपी थी।

जब से उर्वशी काव्य पर मुझे ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है, लोग इस प्रश्न को विशेष रूप से रेखांकित करने लगे हैं कि वीर और श्रृंगार, इन दोनों रसों का निर्वाह मैंने कैसे किया है। यह सच है कि ख्याति मुझे देश–भक्ति की कविताओं के कारण प्राप्त हुई, किन्तु पुरस्कार मुझे उर्वशी के कारण मिला। किन्तु, यह मात्र संयोग की बात है। अन्यथा, आरम्भ से ही वीर और श्रृंगार, दोनों ही मुझे बारी–बारी से लुभाते रहे हैं। वैसे एक बार मैंने कहीं कहा भी था कि कीर्त्ति तो मुझे हुंकार से मिली, किन्तु आत्मा मेरी रसवन्ती में बसती है।

रेणुका, हुंकार, रसवन्ती और द्वन्द्वगीत, ये पुस्तकें निकलीं तो अलग–अलग समय पर, किन्तु, उनकी कविताएँ लगभग साथ–साथ लिखी जा रही थीं। उदाहरणार्थ, द्वन्द्वगीत के बहुत–से पद रेणुका के प्रथम संस्करण में ‘धूल के हीरे’ के नाम से निकले थे। हिमालय, तांडव, नयी दिल्ली, विपथगा और दिगम्बरी आदि कविताओं को पढ़कर लोगों ने मुझे क्रान्तिकारी कवि मान लिया था, गरचे मैं ब्रिटिश–सरकार की नौकरी में था। या सम्भव है, जनता का प्रेम मुझे इस कारण कुछ और अधिक प्राप्त हुआ कि मैं अंग्रेजों की नौकरी में रहकर भी देश–भक्ति और क्रान्ति की कविताएँ लिख रहा था। किन्तु क्रान्ति की कविताएँ लिखकर मुझे पूरा सन्तोष नहीं था। शेली, कीट्स और रवीन्द्रनाथ का प्रभाव जैसे पन्तजी और निरालाजी पर पड़ा था, वैसे ही वह मुझ पर भी था और मैं भी चाहता था कि गर्जन–तर्जन छोड़कर मैं भी कोमल कविताओं की रचना करूँ, जिनमें फूल हों, सौरभ हो, रमणी का सुन्दर मुख और प्रेमी पुरुष के हृदय का उद्वेग हो और ऐसी अनेक कविताएँ मैंने उस समय लिखी भी थीं, जो रेणुका, रसवन्ती और द्वन्द्वगीत में प्रकाशित हुईं। वही धारा उर्वशी में आकर बड़े जोर से फूटी। अतएव उर्वशी को देखकर चकित होना व्यर्थ है। सारी–की–सारी उर्वशी रेणुका के कवि के रक्त में प्रच्छन्न थी। भिन्न–भिन्न कवियों के हाथों में कलमें थमाकर प्रत्येक युग एक ही कविता की रचना करता है। इसीलिए वीर रस का कवि होने पर भी मैं भूषण नहीं, मैथिलीशरण और सुमित्रानन्दन पन्त के ही करीब हूँ। इसीलिए रहस्यवादिनी होने पर भी महादेवी जी मीरा नहीं, प्रसाद के ही समीप हैं।

इसी प्रकार प्रत्येक कवि जीवन भर में एक ही कविता लिखता है। उसकी भिन्न–भिन्न कविताएँ उसी एक कविता की विभिन्न कड़ियाँ होती हैं। यही कारण है कि मेरी कविताएँ बच्चन की कविताओं में फेंटी नहीं जा सकतीं, न बच्चन की कविता को देखकर किसी को यह भ्रम हो सकता है कि वह मेरी लिखी हुई है। छन्द, शब्द–प्रयोग, अर्थ, रस और अलंकार का निर्वाह कर देना काफी नहीं है। प्रत्येक कविता पर कवि की वैयक्तिकता की छाप होनी चाहिए। कवि कहलाने का अधिकार उसे प्राप्त होता है, जो प्राचीन और समकालीन, सभी कवियों से भिन्न है, जिसने अपने लिए कोई ऐसा रास्ता निकाला है, जो सभी रास्तों से कुछ–न–कुछ अलग है, जिसकी आवाज दूसरों की आवाजों में मिलकर लुप्त नहीं हो सकती।

लीक–लीक गाड़ी चलै, लीके चलै कपूत,
लीक छाड़ि तीनैं चलैं, शायर, सिंह, सपूत।

‘प्रण–भंग’ को देखकर कोई मुझे कवि क्यों मानता? वह तो जयद्रथ–वध का अनुकरण मात्र था और जब रेणुका के बाद मैं कवि मान लिया गया, तब मेरे भीतर एक नया द्वन्द्व शुरू हो गया। कविता का प्रयोजन क्या है? क्या वह ज्ञान के लिए है अथवा आनन्द के लिए? वह मनुष्य को प्रसन्न करके छोड़ देती है या उसे कर्म की ओर भी प्रेरित करती है? मेरा गुरु कौन है? रवीन्द्र या इकबाल? कविता युग के अनुसार चलती है अथवा वह सार्वयुगीन है? हमारे युग को आवश्यकता बिहारीलाल की है या भूषण और कबीर की?

अब ये प्रश्न मुझे कुछ–कुछ बेहूदे–जैसे लगते हैं। किन्तु, उन दिनों (यानी 1930 ई. से 1945 ई. तक) अस्पष्ट रूप से ऐसे ही प्रश्न मुझे व्याकुल किए रहते थे। मेरी व्याकुलता का कारण यह भी था कि बहुत–से आलोचक यहाँ तक कह डालते थे कि ये कविताएँ क्षण–स्थायी हैं तथा दिनकर में कला की बारीकी जरा कम है। ऐसे लाँछन सर इकबाल पर भी लगाए गए थे और उत्तर में उन्होंने कहा भी था कि हाँ भाई, मैं कवि नहीं हूँ। मगर मेरे भीतर कुछ बातें हैं, जो कविता में ही कही जा सकती हैं। अतएव कविता का उपयोग मैं अपनी बातें कहने के लिए कर रहा हूँ।

कविता का उपयोग मैं भी अपनी बातें (यानी अंग्रेजी राज का विरोध, समता का प्रचार, क्रान्ति की प्रेरणा, विद्रोह का प्रचार) कहने के लिए कर रहा था, किन्तु, इकबाल की तरह मैं संतुष्ट नहीं था। कल्पना का विलास–कुंज मुझे भी लुभाता था, सितारों के बीच निरुद्देश्य घूमने की इच्छा मुझे भी बेचैन करती थी और धरती की हलचल से ऊपर उठकर मैं भी शून्य में विहार करना चाहता था। हुंकार में मेरी एक कविता है जिसका नाम ‘हाहाकार’ है। उस रचना में मैंने उन कविताओं के प्रति ईर्ष्या व्यक्त की है, जो धरती की हलचल से दूर हैं और जिनके रचयिता स्वप्न की मायापुरी में विहार कर रहे हैं।

वही धन्य, जिनको लेकर हम
बसी कल्पना के शतदल पर।
जिनका स्वप्न तोड़ पाती है
मिट्टी नहीं चरण–तल बजकर।
मेरी भी यह चाह विलासिनि,
सुन्दरता को सीस झुकाऊँ।
जिधर–जिधर मधुमयी बसी हो,
उधर वसन्तानिल बन जाऊँ।

फिर मैंने यह इच्छा व्यक्त की है कि जनारण्य से ऊपर उठ कर मैं भी आकाश में अपनी कुटी बना कर बसूँ, जिससे पृथ्वी का आर्त्तनाद सुनकर मुझे अपना कलेजा न फाड़ना पड़े। किन्तु, यह काम मुझसे हो नहीं पाता। दुनिया की हलचल से ऊपर उठ तो जाता हूँ, किन्तु आकाश में ठहरना मेरे लिए मुश्किल काम है।

रह–रह पंखहीन खग–सा मैं
गिर पड़ता भू की हलचल में।
झटिका एक बहा ले जाती
स्वप्न–राज्य आँसू के जल में।

इसी द्वन्द्व का चित्रण हुंकार की पहली कविता ‘असमय आह्वान’ में भी हुआ है। इस कविता में देशमाता को मैंने अपनी स्वामिनी कहा है और अपने को उनका अनुचर। दिन–भर धूप में खटने के बाद रात के समय नौकर–चाकर भी ऊँघने लगते हैं, आराम करने लगते हैं। सितारों की ओर देखना, नारी–मूर्त्ति की कल्पना में विभोर हो जाना और फूल–फूल नर तितली बनकर मँडराते फिरना, यह सब ऊँघना और नींद ही तो है। जब अनुचर इन कोमल और मीठे सपनों का स्वाद ले रहा है, तभी माता के मन्दिर से पुकार आ जाती है और उसे स्वामिनी के आह्वान पर सब कुछ छोड़ कर मन्दिर की ओर भागना पड़ता है।

गया दिन घूलिघूम के बीच
तुम्हारा करते जयजयकार।
देखने आया था इस साँझ
पूर्ण विधु का मादक श्रृंगार।
एक पल सुधा–वृष्टि के बीच
जुड़ा पाए न क्लान्त मन–प्राण।
कि सहसा गूँज उठा सब ओर
तुम्हारा चिर–परिचित आह्वान।

भ्रम अथवा कच्ची दृष्टि के कारण मैं सच्चे मन से मानता था कि केवल मैं ही नहीं, देश के सभी कवि देशमाता के अनुचर हैं, किन्तु वे सोए हुए हैं (यानी आनन्द और सौन्दर्य की कविताएँ लिख रहे हैं)। सोना तो मैं भी चाहता हूँ, किन्तु स्वामिनी मुझे सोने नहीं देगी।

अन्य अनुचर सोए निश्चिन्त
शिथिल परियों को करते प्यार।
रात में भी मुझ पर ही पड़ा
द्वार–प्रहरी का गुरुतर भार।
तुम्हारी भरी सृष्टि के बीच
एक क्या तरल अग्नि ही पेय?
सुधा–मधु का अक्षय भांडार
एक मेरे ही हेतु अदेय?

प्रेम, प्रकृति और नारी–मूर्त्ति के चिंतन में जो रस है, वह रस मैंने इस द्वन्द्व की कविता में ही प्राप्त कर लिया। फिर लाचार होकर मैं इस नतीजे पर आता हूँ कि भावना का सुख मेरे लिए नहीं है। मेरे लिए तो कर्तव्य ही प्रधान है।

फेंकता हूँ लो, तोड़–मरोड़
अरी निष्ठुरे, बीन के तार।
उठा चाँदी का उज्ज्वल शंख
फूँकता हूँ भैरव हुंकार।

लोग मुझे चारण और वैतालिक कहने लगे थे, युग का ढिंढोरिया और जागरण का दूत कहने लगे थे। कोई–कोई मित्र आज भी इस प्रकार का विरुद देकर मुझे मेरी सीमा का ज्ञान कराना चाहते हैं। किन्तु, इस विरुद को मैं अस्वीकृत क्यों करूँ? मैंने तो हुंकार के आमुख में ही मान लिया था,

अमृत–गीत तुम रचो कलानिधि, बुनो कल्पना की जाली।
तिमिर–ज्योति की समरभूमि का मैं चारण, मैं वैताली।

द्वन्द्वगीत के बाद लगभग छह वर्ष तक मेरी कोई भी पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई। तब सन् 1946 ई. में कुरुक्षेत्र निकला, जिसे मैं भावना नहीं, कर्तव्य का काव्य मानता हूँ।

कुरुक्षेत्र काव्य का आरम्भ सन् 1941 ई. में सीतामढ़ी में हुआ था, जहाँ मैं सब–रजिस्ट्रार था और पूर्ण वह सन् 1946 ई. में पटने में हुआ, जहाँ मैं युद्ध–प्रचार–विभाग में काम कर रहा था। कई लोगों को भ्रम है कि कुरुक्षेत्र की रचना मैंने इसलिए की कि संसार में द्वितीय महायुद्ध चल रहा था और सरकार ने मेरा तबादला युद्ध–प्रचार–विभाग में कर दिया था। ये दोनों बातें सच हैं, किन्तु वे कुरुक्षेत्र काव्य की प्रेरणा नहीं थीं। अहिंसा को विफल होते मैंने 1921 में भी देखा था और सन् 1931 ई. में भी। फिर भी अहिंसा पर मेरी थोड़ी–सी श्रद्धा बनी हुई थी (जैसी वह आज भी है)। सन् 1941 ई. में स्थिति यह थी कि गांधीजी आन्दोलन छेड़ने में हिचकिचा रहे थे और युवक समझते थे कि आन्दोलन छेड़ा भी गया, तो वह कुचल दिया जाएगा। इस स्थिति में मुझे वही चिन्तन शुद्ध दिखाई दिया, जो कुरुक्षेत्र में है। अहिंसा अगर परम धर्म है, तो हिंसा को आपद्धर्म मानना ही पड़ेगा। और इस मान्यता से भी निस्तार नहीं है कि जिसका आपद्धर्म नष्ट हो गया, उसका परम धर्म भी नहीं बचेगा। जिन दिनों कुरुक्षेत्र की रचना हुई, उन दिनों मेरे नजदीकी दोस्त वे नौजवान थे, जो बाद को चल कर साम्यवादी अथवा समाजवादी बन गए। ये सभी लोग गांधीजी की अहिंसा को धर्म नहीं, नीति मानते थे।

कुरुक्षेत्र की रचना आरम्भ करने से ठीक पूर्व मैंने ‘कलिंग–विजय’ नामक कविता लिखी थी, जो अहिंसा का काव्य है, जिसमें विजयी अशोक के पश्चात्ताप का चित्रण हुआ है। किन्तु, उन्हीं दिनों मेरा सम्पर्क एक प्रेतात्मा से हुआ, जो जर्मन थीं और अपना नाम रोजा लक्जमबर्ग (सोशलिस्ट रोजा नहीं) बताती थीं। अहिंसा की कविता सुनकर उन्होंने मुझे बेतरह लथेड़ा तथा अहिंसा के विषय में मुझे जो सन्देह था, उसे उन्होंने कुछ और मजबूत कर दिया। उनका उपदेश सुनकर जब मैं सीतामढ़ी लौटा, मैंने पाँच कबित्त लिखे, जिनके इर्द–गिर्द कुरुक्षेत्र काव्य की रचना हुई है। इन पाँच कबित्तों में से चार तो कुरुक्षेत्र काव्य के तीसरे सर्ग में गए हैं, किन्तु पाँचवाँ कबित्त आज तक अप्रकाशित रहा है। वह इस प्रकार है–

शोणित में घोल निजि अश्रु करुणा से भरे
कल्पना बिलपती फिरी कलिंग–रण से।
कवि था प्रसन्न, हुई लेखनी पवित्र, अब
युद्ध का कलुष उठ जाएगा भुवन से।
इतने में कौंध गयी दामिनी प्रचंड एक,
श्रुति में पड़ी आ ध्वनि गूँजती गगन से।
भीम रूप देख भीत होता है मनुष्य कोई
वाणी से विरागी औ कदर्य तन–मन से।

यह घटना घटी थी, इसलिए मैंने इसका उल्लेख कर दिया, वरना कुरुक्षेत्र–जैसी कोई चीज मैं तब भी लिखता, यदि मैं रोजा लक्जमबर्ग के सम्पर्क में न आया होता। कुरुक्षेत्र उन सभी भावनाओं का परिपाक है, जो मुझे आरम्भ से ही आन्दोलित करती आ रही थीं। जो विचार मैंने अपनी स्फुट कविताओं में बिखरे थे, कुरुक्षेत्र में उनका समन्वित दार्शनिक रूप प्रकट हुआ है। विश्व–शान्ति की स्थापना की चिन्ता मुझे कुरुक्षेत्र में कम थी। अपने देशवासियों की विचार–दिशा बदलने की भावना से आन्दोलित होकर ही मैंने इस काव्य की रचना की थी। कुरुक्षेत्र में महात्मा गांधी के विचारों का प्रतिनिधित्व युधिष्ठिर करते हैं, किन्तु जो नवयुवक गांधी जी की अहिंसा को धर्म के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे, उनके प्रतिनिधि अथवा प्रतीक भीष्म हैं।

कोई कविता लिख लेने के बाद यह बताने की कोशिश करना कि यह कविता मैंने क्यों लिखी, बड़ा ही मुश्किल काम है। कुरुक्षेत्र के बाद मैंने जो दूसरा खंडकाव्य (रश्मिरथी) लिखा, उसका नायक कर्ण है। युधिष्ठिर और भीष्म के बाद कर्ण पर मेरी दृष्टि क्यों गई, इसके कुछ–न–कुछ मनोवैज्ञानिक कारण रहे होंगे। जब यह काव्य प्रकाशित हुआ, डॉक्टर धर्मवीर भारती ने किसी लेख में संकेत किया था कि कदाचित दिनकर जी ने अपने जीवन में उपेक्षा के दंश का अनुभव किया है। उसी का प्रतिबिम्ब हम कर्ण के चरित्र में देखते हैं। सम्भव है कि यह अनुमान सत्य हो। किन्तु अधिक सत्य प्रेरणा इस जिज्ञासा से आयी थी कि कुमारी माता के गर्भ से उत्पन्न सन्तान को समाज में गुणोपयुक्त स्थान मिलना चाहिए या नहीं। रश्मिरथी का कवि बिहार प्रान्त का निवासी है, जहाँ सबसे बड़ा प्रश्न यह नहीं है कि तुम विद्वान हो या मूर्ख, ईमानदार हो या बेईमान, बल्कि यह कि तुम्हारी जात कौन–सी है। रश्मिरथी काव्य इन्हीं दो प्रश्नों को लेकर समाप्त नहीं होता। उसमें और भी बातें हैं, जिन्हें लोगों ने बहुत पसन्द किया है। ऐसे पाठक भी हैं, जो रश्मिरथी को ही मेरी सर्वोत्कृष्ट रचना मानते हैं। बिहार में और बिहार के बाहर मुझे ऐसे अनेक युवक मिले हैं, जिन्हें रश्मिरथी के सर्ग के सर्ग कंठस्थ हैं। अब तो ऐसे भी कवि हैं, जिनकी कविताएँ अगर अनपढ़ लोग समझ लें, तो वे कवि शर्म से गड़ जाएँगे (कम–से–कम वे अपनी भावभंगी से यही जताते हैं,) किन्तु, अपढ़ किसानों और मजदूरों को रश्मिरथी काव्य का पाठ सुनकर झूमते देखकर मुझे लज्जा नहीं, गौरव का ही बोध हुआ है।

मैट्रिक पास करने तक मैं गाँव में था। तब कालेज की शिक्षा के सिलसिले में चार वर्ष मुझे पटने में रहने का सुयोग मिला। उसके बाद सन् 1933 ई. से लेकर 1943 ई. तक फिर नौकरी के सिलसिले में मुझे गाँवों में ही रहना पड़ा। अतएव इन दस वर्षों में अंग्रेजी की अच्छी किताबें मेरे हाथ में कम ही आ सकीं। सब–रजिस्ट्रारी में अवकाश मुझे अधिक रहता था, मगर किताबें मेरे पास बहुत थोड़ी थीं। कालिदास और भवभूति को मैंने कई बार पढ़ा। इन दिनों बँगला में रवीन्द्रनाथ की चयनिका और संचयिता, काजी नजरुल इस्लाम की संचिता और सत्येन्द्रनाथ दत्त का काव्य– संचयन, ये ग्रन्थ बराबर मेरे साथ रहते थे। सब–रजिस्ट्रारी के दिनों में एक अच्छा काम मैंने यह किया कि मौलवी रखकर सर इकाबल की बाँगेदरा, बाले–जिबरईल, और जरबे कलीम, ये तीन पुस्तकें नोट लेकर मैंने बड़े ध्यान से पढ़ डालीं। किन्तु, सन् 1943 ई. में जब सरकार ने तबादला करके मुझे पटना भेज दिया, मैं धीरे–धीरे विश्व–साहित्य की धारा से परिचित होने लगा, जिसकी थोड़ी–सी झाँकी मैंने कालेज के दिनों में पटना कालेज के पुस्तकालय में पायी थी।

पटना आने पर यूरोपीय भाषाओं के उपन्यास और कहानियाँ मैंने इस उत्साह से पढ़ीं, मानो, जनम का भूखा आहार पा गया हो। इस दौर में मैंने कविताएँ और दर्शन भी बड़े चाव से पढ़ा। उस समय सबसे बड़ा प्रभाव मुझ पर इलियट, नीत्से और बरट्रेंड रसल का पढ़ा। परम्परा और धर्म से प्राप्त जिन अनेक आस्थाओं को मैं हृदय से लगाए हुए था, नीत्से और रसल ने उनके बारे में मुझे शंकालु बना दिया। लगभग ऐसा ही प्रभाव मुझ पर इलियट का भी पड़ा। कविता किसे कहते हैं, यह बात मैंने रवीन्द्र और इकबाल से सीखी थी। किन्तु, इलियट की कविताएँ देखकर मुझे ऐसा लगा कि मैं जहाँ खड़ा हूँ, कविता उससे बहुत आगे निकल गई है। रवीन्द्र और इकबाल पर मेरी श्रद्धा में कमी तो बिलकुल नहीं आयी, किन्तु नवीनता का रस लेने के लिए मैं इलियट–जैसे नये कवियों की कविताएँ खोज–खोज कर पढ़ने लगा।

विभिन्न भाषाओं की कविताएँ (अंग्रेजी के माध्यम से ही) पढ़ते–पढ़ते पता मुझे यह चला कि कविता में वास्तविक क्रान्ति सन् 1870 ई. के आस–पास फ्रांस में हुई थी और उस क्रान्ति के तीन पुरोधा–कवि वादलेयर, रेम्बू और मेलार्मे थे। किन्तु अंग्रेजों को इस क्रान्ति से प्रभावित होने में लगभग आधी शताब्दी का विलम्ब हो गया। अतएव यह स्वाभाविक था कि भारत को नयी कविता तक पहुँचने में दस–बीस साल और लग जाएँ। नयी कविता क्या होती है, इसका ज्ञान भारतवासियों को इलियट की कविताएँ देखकर हुआ और वह भी सन् 1922 ई. में नहीं, बल्कि 1940 के आस–पास आकर, जब इलियट के अनुयायी संसार के प्रत्येक देश में उत्पन्न हो चुके थे।

अब मेरी चेतना की दशा विचित्र हो गई। जन्म और संस्कार से मैं ग्रामीण था। शिक्षा–दीक्षा से मैं तुलसी, कबीर, रवीन्द्र, इकबाल, कालिदास, भवभूति, शेली और कीट्स का भक्त था। इन सभी संस्कारों के मेल से मेरे भीतर जो आर्केस्ट्रा पैदा हुआ था, उसके सुरों से जनता बेहद प्रसन्न थी। हाँ, ऐसे आलोचक उस समय भी थे, जो निन्दा अथवा कचोट के स्वर में कह उठते थे, काश, दिनकर के सुर जरा और मीठे, जरा और महीन होते। मगर मीठे और महीन सुरों के लिए मुझ में तनिक भी लोभ नहीं था। वे सुर मेरे लिए यथेष्ट थे, जिनसे आग जलती है और हवा गर्म हो जाती है। फिर भी इलियट, बादलेयर, रेम्बू, मेलार्मे, नीत्से और रिल्के का इतना प्रभाव अवश्य पड़ा कि मेरे आर्केस्ट्रा का गर्जनवाला यन्त्र शिथिल हो गया, समुद्र का फेन लुप्त हो गया, आग की लपट खत्म हो गई, केवल अँगारे बच गए, जो क्षारहीन और निर्धूम थे। नील कुसुम में कई कविताएँ हैं, जिनकी रचना इसी मनोदशा में हुई थी। इन कविताओं में झाग और फेन नहीं है। जो कुछ है, वह शुद्ध, चमकदार, निर्मल वारि है।

वर्षा का मौसम गया, बाढ़ भी साथ गई।
जो बचा शेष, वह स्वच्छ नीर का सोता है।
अब चाँद और तारे इसमें निज को देखें।
आसिन का जल बिलकुल दर्पण–सा होता है।

झाग और फेन, उद्वेलन और विस्फोट, पच्चीकारी और रंगीनी, ये सत्य को सजाते हैं, उसे खूबसूरत बनाते हैं, कभी–कभी बलवान भी बनाते हैं। किन्तु ये सत्य को आँखों से थोड़ा ओझल भी कर देते हैं। ओपेक (opaque) और पारदर्शी में से श्रेष्ठ काव्य कौन है? ओपेक काव्य चाहे जितना भी रंगीन और चित्रमय हो, पारदर्शी काव्य से वह हीन होता है। कविता चित्रों के कारण भी अन्धी हो जाती है, रंग और सजावट के कारण भी उसकी आत्मा परदे में चली जाती है। केवल पारदर्शी काव्य को ही देख कर यह पता चलता है कि कवि कितनी गहराई में से बोल रहा है।

सच्चाई की पहचान कि पानी साफ रहे,
जो भी चाहे, ले परख जलाशय के तल को।
गहराई का वे भेद छिपाते हैं केवल,
जो जानबूझ गंदला करते अपने जल को।

स्पष्ट ही, यह शिक्षा मैंने नीत्से और रसल से ली थी। उलझी–से–उलझी बात को भी सुलझाकर कैसे कहा जाए, यह कला भी मैंने रसल से ही सीखी है।

ज्यों–ज्यों मैं संसार की नई कविताओं से परिचित होता गया, मेरी अपनी कविताओं की अदाएँ बदलने लगीं। इन परिवर्तित भंगिमावाली कविताओं में से कई तो ‘नील कुसुम’ में संगृहीत हैं और अधिकांश का संकलन ‘कोयला और कवित्व’ में हुआ है। किन्तु, मेरा खयाल है, ये नई भंगिमावाली कविताएँ पढ़ी कम गई हैं। शायद नई कविताओं को लोकप्रियता कभी नहीं मिलेगी। अगर मेरी यह शंका निर्मूल नहीं है, तो फिर शंका यह भी हो सकती है कि कविता केवल थोड़े–से लोगों की चीज रह जाएगी। अथवा जो रौशनी अभी थोड़े–से घरों में कैद है, उसे आम बन जाना पड़ेगा।

नये काव्य–आन्दोलन का जो प्रभाव ‘नील कुसुम’, ‘कोयला और कवित्व’ तथा ‘हारे को हरिनाम’ पर है, उस प्रभाव के प्रमाण उर्वशी–काव्य में भी हैं। मगर ये प्रभाव मेरे आर्केस्ट्रा में पच–खपकर मेरी अपनी शैली के अंग बन गए हैं। संसार की नई कविताओं का सम्यक् अध्ययन किए बिना यह बताना कठिन है कि उर्वशी में जो नवीनता है, वह कहाँ–कहाँ से आकर एकत्र हुई है। जब उर्वशी–काव्य की रचना हो रही थी, यह रहस्य मुझे मालूम था कि स्मृति के किस खजाने से कौन रत्न आकर कविता में गुम्फित हो रहा है। लेकिन अफसोस की बात है कि इस रहस्य पर प्रकाश डालने में अब मैं भी असमर्थ हूँ। अनुभव से मैं केवल यही बता सकता हूँ कि काव्य–कृति में नवीनता और समृद्धि लाना प्रतिभा और स्मृति, दोनों का काम है। प्रतिभा दीवार पर बैठा हुआ राजमिस्त्री है। ईंट, गारा और सीमेन्ट जुटाने का सारा काम स्मृति ही करती है। किन्तु, प्रतिभा में यह भी शक्ति होती है कि स्मृति के खजाने से किसी रत्न को उठाकर वह उसे बिलकुल नया रूप दे दे।

‘सीपी और शंख’ तथा ‘आत्मा की आँखें’, मेरी ये दो पुस्तकें ऐसी हैं, जिन्हें मैं अनूदित कविताओं के संग्रह कहता हूँ। किन्तु, इन दो पुस्तकों को भी चुनी हुई कविताएँ रश्मि–लोक में संकलित किया गया है। इसके कारण दो हैं। एक तो यह कि मेरी काव्य–यात्रा में ‘सीपी और शंख’ तथा ‘आत्मा की आँखें’ का बड़ा महत्त्व है। ‘हारे को हरिनाम’ में मैंने जिस शैली का प्रयोग किया है, उसकी मँजाई इन्हीं दो पुस्तकों में हुई थी। नई कविताओं के अध्ययन से मेरी जो मनोदशा बनी, उसका काव्यगत रूप पहले–पहल इन्हीं दो पुस्तकों में प्रकट हुआ।

दूसरा कारण यह है कि इन कविताओं को, एक हद तक, मैं चिरागों के स्पर्श से जले हुए नए चिराग मानता हूँ। अनुवाद की पद्धतियाँ दो हैं। एक पद्धति का अनुसरण रवि बाबू ने अपनी गीतांजलि के अनुवाद में और निकोलसन ने इकबाल की कविताओं के अनुवाद में किया है। यह पद्धति अनुवाद को मूल के अधिक–से– अधिक निकट रखने का आग्रह करती है और सच पूछिए तो अनुवाद की सही प्रणाली यही मानी जानी चाहिए। इससे भिन्न पद्धति वह है, जिसका अनुसरण करके फिटजेराल्ड ने उमर खैयाम का तथा एज़रा पौंड ने चीनी कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी में किया। यह पद्धति मूल के प्रति कठोर सच्चाई को अनुवाद का कोई बड़ा गुण नहीं मानती। इस पद्धति के अनुवादक मूल के भाव अथवा भावों से प्रेरणा तो लेते हैं, किन्तु रचना के समय वे स्वयं मौलिक हो उठते हैं और मूल के भाव को चमकाने के लिए अनुवाद में ऐसे–ऐसे नए चित्रों की सृष्टि कर डालते हैं, जो मूल में नहीं थे, किन्तु जिन्हें लाए बिना अनुवाद में मौलिकता का पूरा आनन्द नहीं लाया जा सकता था। यह पिछली पद्धति ही मुझे पसन्द है और मैं अनुवाद को मौलिक कविता के समान आनन्ददायी बनाने में सन्तोष मानता हूँ।

मूल के प्रति वफादार न रहना, है तो अवगुण की बात, किन्तु एक स्थान पर वह मेरा गुण मान लिया गया। रूसी भाषा में मेरी कविताओं का जो अनुवाद–ग्रन्थ छपा है, उसका नाम ‘सिनिज लोटोस’ यानी नील कमल है। ‘सीपी और शंख’ को मैं खुद अनूदित कविताओं का संग्रह मानता हूँ, किन्तु ‘सिनिज लोटोस’ में चार–पाँच कविताएँ सीपी और शंख से भी ली गई हैं। इस बात को लेकर जब मैंने स्वेतलानाजी से चर्चा की, उन्होंने कहा कि ‘‘हमारे देश के कवियों ने ‘सीपी और शंख’ से ली गयीं कविताओं को मूल अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, स्पैनिश तथा चीनी कविताओं से मिलाकर देखा था, मगर उनकी राय यह हुई कि ‘सीपी और शंख’ की कविताएँ मूल से केवल प्रेरणा लेकर चली हैं। बाकी वे सब–की–सब दिनकर जी की अपनी कल्पना से तैयार हुई हैं। इसलिए हम अगर उन्हें मौलिक रचनाएँ मानकर चलें, तो इसमें कोई दोष नहीं है।’’

उर्वशी काव्य की रचना का आरम्भ मैंने सन् 1953 ई. में किया था और समाप्त वह 1 जनवरी, 1961 को रात में हुआ। वह काव्य जिस प्रकार का बन गया, उसे वैसा बनाने की मेरी कोई योजना नहीं थी। विक्रमोर्वशीयम् को मैंने बड़े ही चाव से पढ़ा था। रवि बाबू की उर्वशी कविता जैसे सबको प्यारी है, वैसे ही वह मुझे भी पसन्द थी। और मैंने जब श्री अरविन्द की उर्वशी पढ़ी, तब मुझे इस कथा का आध्यात्मिक आयाम भी झलक गया था। फिर भी उर्वशी को लेकर मैं कोई सरल–सा ही काव्य लिखना चाहता था। सच पूछिए तो उर्वशी का प्रथम अंक श्री कर्तारसिंह दुग्गड़ के आग्रह पर आकाशवाणी के लिए लिखा गया था। किन्तु उसके बाद इस कथा के भीतर मुझे अनेक गहराइयों का आभास मिलने लगा। अतएव मैंने दुग्गड़ जी से कहा कि अब यह काव्य आकाशवाणी की दृष्टि से मैं नहीं लिखूँगा। रेडियो की अपनी सीमाएँ हैं और उन सीमाओं के भीतर रहकर मैं वे सारी बातें नहीं कह सकता, जो मुझे इस कथा के भीतर दिखाई देती हैं।

उर्वशी के जो गूढ़ प्रसंग हैं, उनकी विवेचना का दायित्व मैं विश्वासपूर्वक नहीं उठा सकता। यह इस कारण कि कविता हमेशा लिखी ही नहीं जाती। कभी–कभी वह आपसे आप लिख जाती है। तब कवि केवल निश्चेष्ट माध्यम होता है, तब कविता कहीं से बहकर कागज पर, आप से आप, उतर जाती है।

एक आत्मा से दूसरी आत्मा का गहन सम्पर्क अध्यात्म की भूमि बन सकता है, यह उर्वशी काव्य का गुणीभूत व्यंग्य है। इससे ब्रह्मचर्य की महिमा का खंडन नहीं होता। प्रकृतित: लोग खाते भी हैं और उपवास भी करते हैं। किन्तु प्रकृति स्वयं न तो खाने को कहती है, न वह उपवास की ही शिक्षा देती है। उपवास की तरह ब्रह्मचर्य भी न्याय्य कृत्य है, अगर शक्ति लिबिडो से निकलकर किसी अन्य दिशा में काम करे। केवल धार्मिक कृत्य मानकर ब्रह्मचर्य धारण करने वाले का दोष यह है कि काम को वह अध्यात्म का विरोधी मान लेता है, मानो, ईश्वर और प्रकृति दो हों, मानो, आदमी ईश्वर और प्रकृति में से किसी एक को ही पा सकता हो।

प्रेम ने अपना सम्पूर्ण मार्ग अभी नहीं देखा है। मनुष्यता जैसे–जैसे आगे बढ़ती है, प्रेम का मार्ग और भी विस्तीर्ण होता जाता है। प्रेम नहीं हो, तो काम कुछ नहीं है। काम की सारी सार्थकता प्रेम को लेकर है, क्योंकि प्रेम ही काम को पवित्रता प्रदान करता है। कोई भी शारीरिक मिलन काम है, किन्तु सभी शारीरिक मिलन प्रेम के पर्याय नहीं हैं। प्रेम वहाँ है, जहाँ शरीर, मन और आत्मा, तीनों ही धरातलों पर नर और नारी एकाकार हैं।

काम केवल प्राणिशास्त्रीय कृत्य नहीं है, वह आध्यात्मिक भी हो सकाता है। नर और नारी का मिलन प्रकृति केवल प्रजावृद्धि के लिए ही नहीं करवाती है, उसका उद्देश्य दोनों का आध्यात्मिक प्रसार भी होता है। प्रेम सन्तानोत्पादन के साथ–साथ आनन्द का उत्कर्ष भी है, वह शारीरिक होने के साथ–साथ रहस्यवादी अनूभूति भी है।

उर्वशी की रचना का समय वह है, जब ललित कला उपयोगी कला से बहुत दूर हो गई है। इसलिए आज सन्तानोत्पत्ति काम का ध्येय नहीं रहा। काम का उपयोगी पक्ष गौण, उसका ललित पक्ष ही प्रधान है। अब ज्यादातर लोग विवाह इसलिए नहीं करते कि वे सन्तान चाहते हैं अथवा नारी के बाँझपन को दूर करना चाहते हैं, बल्कि इसलिए कि उनका ध्येय प्रेम है। ज्यों–ज्यों सभ्यता आगे बढ़ती है, काम के भीतर से ज्योति और आनन्द के अनेक स्तर खुलते जाते हैं और वह अपनी सार्थकता आप सिद्ध करता जाता है। प्राउस्ट का विश्वास था कि प्रेम चाहे जैसे भी व्यक्तियों के बीच उत्पन्न हो, वह शारीरिक थरथराहट के अलावे एक अलौकिक सुख का भी आभास देता है, जो शरीर से उत्पन्न होने पर भी शारीरिक सुखों से भिन्न है।

काम मानवीय प्रेम के लिए जमीन तैयार करता है, किन्तु इतने से ही नर या नारी को प्रेम का स्वाद नहीं मिलता। प्रेम की जड़ें तो लहू और मांस में अवश्य गड़ी होती हैं, किन्तु शाखाएँ उसकी आकाश तक जाती हैं। काम के स्पर्श से नया जन्म पाने वाले व्यक्ति ही प्रेम के प्रकाश में स्नान करते हैं। किन्तु शारीरिक प्रेम से वह प्रकाश स्वत: नहीं फूटता, जो मनुष्य को दिव्य धरातल पर ले जाता है। इसीलिए पुरूरवा की दृष्टि ऊपर की ओर जाती है, इसीलिए वह उर्वशी के शरीर का अतिक्रमण करना चाहता है। किन्तु पुरूरवा जो कुछ चाहता है, वह ध्येय ईश्वरानुग्रह के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता। ईश्वर की कृपा के बिना प्रकृति अपने को उस धरातल तक नहीं ले जा सकती, जो उसकी सीमा के पार है। पुरूरवा ईश्वरानुग्रह की महिमा को जानते हैं। इसीलिए उर्वशी जब सुख के श्रृंग पर खड़ी अर्धचेतन अवस्था में पुरूरवा से यह पूछती है कि–

अन्तर्नभ का यह प्रसार, यह परिधि–भंग प्राणों का!
सुख की इस अपार महिमा को कहाँ समेट धरें हम?

तब पुरूरवा उत्तर देता है–

उस अदृश्य के पद पर जिसको दयासिक्त मृदु स्मृति में
हम दोनों घूमते और क्रीड़ा–विहार करते हैं।
नारी बन जो स्वयं पुरुष को उद्वेलित करता है
और वेधता पुरुष–कान्ति बन हृदय–पुष्प नारी का।

लोगों ने मुझ से अकसर पूछा है कि क्या पुरूरवा तुम्हारी कल्पना का आदर्श पुरुष है? पुरूरवा आदर्श नहीं, एक विशेष प्रकार का पुरुष है, जो लोक और परलोक, दोनों चाहता है। लोक तो उसे पूर्ण रूप से प्राप्त हुआ। परलोक की बात मुझे मालूम नहीं, क्योंकि राज–भवन से उसे वन में भेज कर मैंने उसकी कोई खोज–खबर नहीं ली है। हाँ, यदि वह आदर्श पुरुष होता, तो नेपथ्य से (यानी पुरूरवा के ही हृदय से) यह आवाज नहीं आती–

चिन्तन कर यह जान कि तेरी क्षण–क्षण की चिन्ता से
दूर–दूर तक के भविष्य का मनुज जन्म लेता है।
उठा चरण यह सोच कि तेरे पद के निक्षेपों की
आगामी युग के कानों में ध्वनियाँ पहुँच रही हैं।

अवश्य ही, पुरूरवा ने कुछ ऐसे काम किए हैं, जिनके लिए उसकी आत्मा उसे चेतावनी दे रही है।

उर्वशी काव्य का उद्देश्य क्या है, इस प्रश्न को लेकर एक समय काफी चर्चा चलायी गई थी। उद्देश्य, सन्देश या शिक्षा उर्वशी काव्य से भी निकाली जा सकती है, किन्तु मैंने किसी भी ध्येय को सामने रख कर इस काव्य की रचना नहीं की है। सौन्दर्यबोध नैतिकता और उपयोग के वृत्त के भीतर भी हो सकता है और वह उसके बाहर भी जा सकता है। सौन्दर्य–बोधात्मक आनन्द एक ऐसे सन्तोष की स्थिति है, जिसका कोई भी निश्चित लक्ष्य नहीं होता, जो एक प्रकार से तटस्थ और प्रयोजनहीन होता है। एमर्सन ने कहा था कि मैं सभी चीजों के भीतर हलचल मचा दूँगा, किन्तु पक्ष मैं किसी का भी नहीं लूँगा। उर्वशी के कवि के सामने भी प्रश्न और उत्तर अनेक हैं, किन्तु वह किसी भी उत्तर को रेखांकित करना नहीं चाहता। उसका यह भाव है कि शायद सभी उत्तर सही हैं, शायद सभी उत्तर गलत हैं। उर्वशी किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए नहीं, प्रेम की अतल गहराई का अनुसन्धान करने के लिए लिखी गई है। शुद्ध प्रेम से उठने वाली तरंग मन और कल्पना के दूर–दूर तटों का स्पर्श करती है और मनुष्य क्षण–भर के लिए अरूप जगत में जाकर खो जाता है। उर्वशी में इसी अरूप लोक का वर्णन है। उर्वशी धर्म नहीं, प्रेम की अतीन्द्रियता का आख्यान है और यही आख्यान उसका आध्यात्मिक पक्ष है। काम या प्रेम के द्वारा मुक्ति, यह विषय उर्वशी का प्रतिपाद्य नहीं है। प्रेम में भी अध्यात्म को निस्सीमता है, इसे ही हम उसका प्रतिपाद्य मान सकते हैं। उर्वशी में प्रेम की मादकता और उसके रहस्यवादी रूप का चित्रण करने पर भी दिखलाया यही गया है कि पुरूरवा अपने कर्मों का भार वहन करने में असमर्थ हो गए। इससे ध्वनित यही होता है कि काम मुक्ति का मार्ग नहीं है। मनुष्य मुक्त तभी होता है, जब अपने आप पर उसका पूरा अधिकार हो जाता है।

उर्वशी की रचना करने के बाद मुझे ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ भी लिखनी पड़ेगी, इस बात का अन्देशा मुझे तनिक भी नहीं था। गर्जन–तर्जन, हाहाकार और हुंकार को छोड़कर मैं अपेक्षाकृत शान्त मनोदशा में आ गया था। किन्तु शान्ति और सुकुमारता की जो वाटिका मैंने लगायी थी, उसमें अचानक ही हुंकार और कुरुक्षेत्र का कठोर कवि कूद पड़ा। जैसे कुरुक्षेत्र–काव्य अंग्रेजों को डराने के लिए नहीं, प्रत्युत भारतवासियों के ही चिंतन को स्वच्छ और उत्तप्त बनाने के लिए लिखा गया था, उसी प्रकार परशुराम की प्रतीक्षा भी चीन की निन्दा करने के लिए नहीं, भारतवासियों को यह सिखाने के लिए लिखी गई थी कि हिंसा के सभी रूप निन्द्य नहीं हैं। विशेषत: आत्मरक्षा में उठाया गया शस्त्र कभी भी पाप का यन्त्र नहीं होता। भारत ने सन्त अधिक, वीर कम उत्पन्न किए हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि बुद्ध, अशोक, गांधी और जवाहरलाल ने ऊँची मनुष्यता का जो ध्येय हमारे सामने रखा, वह प्राप्त करने के योग्य है। किन्तु ऊँची मनुष्यता का निवास पर्वत की चोटी पर है। और नीचे समतल से जो राह ऊपर की चोटी की ओर जाती हैं, उस रास्ते में अनेक बाघ और सिंह बैठे हुए हैं। ये हिंस्र जन्तु साधुओं को भी क्षमा नहीं करते, चोटी पर पहुँचने के पूर्व ही उन्हें चट कर जाते हैं। भारत की दृष्टि शस्त्रों पर कम, शास्त्रों पर अधिक रही है। और इसमें कोई सन्देह नहीं कि संसार भारत के इसी स्वभाव के लिए उसकी प्रशंसा करता रहा है। किन्तु यह भी सच है कि शस्त्रों की उपेक्षा करने के कारण ही भारत को बार–बार पराधीन बनना पड़ा है। गांधी जी अहिंसा की जिस विरासत को ताजा करके गए थे, जवाहरलाल उस विरासत को सारे संसार में चमका रहे थे। किन्तु, चीन ने जब हमें पराजित कर दिया, सब की आँखों के साथ मेरी आँखें भी खुल गईं और मैं भारत के अहिंसा–दर्शन पर बेरहमी से टूट पड़ा। इस कविता में हिंसा का अन्ध–समर्थन कई स्थानों पर किया गया है। चीनी आक्रमण के समय समग्र भारत पर जो प्रचंड कोप बढ़ा, वैसा कोप सम्पूर्ण देश पर इतिहास में और कभी नहीं चढ़ा था। सारा देश क्रोध से आपाद–मस्तक हिल रहा था। ऐसे में मुझ पर यह सनक सवार हो गई कि मैं इस राष्ट्रव्यापी मन्यु को सम्पूर्ण और निर्भीक वाणी दूँगा, जिससे आगे की संततियाँ यह समझ सकें कि भारतवर्ष कभी आसेतु– हिमाचल प्रज्वलित कोप से एक साथ दहक उठा था। इस कविता में एक पंक्ति आती है–

छागियो, करो अभ्यास रक्त पीने का।

जब श्री लक्ष्मीचन्द्र जी जैन ने इसे देखा, उन्होंने मुझे सलाह दी, ‘कम–से–कम इस पंक्ति को हटा दीजिए। नहीं तो मुमकिन है कि आपको इसके लिए पछताना पड़ेगा।’ मैंने उनसे निवेदन किया कि पछताना तो अनेक पंक्तियों के लिए पड़ सकता है, किन्तु, इस पंक्ति को निकाल देने से राष्ट्र के क्रोध की सम्यक् अभिव्यक्ति नहीं हो सकेगी। जिस तरह सारा देश क्रोध से पागल हो रहा है, उसी प्रकार मैं भी होश में नहीं हूँ और अभी मेरा होश में नहीं रहना ही स्वाभाविक है। हमारा सारा राष्ट्र एक विचित्र उन्माद से ग्रस्त है। मैं उस उन्माद को जुगा कर साहित्य में रख देना चाहता हूँ, जिससे इतिहास उसे याद रख सके। मुझे इसकी जरा भी चिन्ता नहीं है कि विश्व–साहित्य के पारखी मुझे राष्ट्रीयता की सीमा से बद्ध तामसिक कवि समझ कर मेरा उपहास करेंगे।

‘परशुराम की प्रतीक्षा’ से हिन्दी प्रदेश की जनता उमंग में आ गई, मानो, राष्ट्रीय पराजय विजय में परिवर्तित हो गई हो। किन्तु कई प्रकार के लोग उस कविता से नाराज भी हुए। इस नाराजगी का सबूत मुझे सन् 1969 ई. तक मिलता रहा, जब कोशिश करके लोगों ने इस पुस्तक को एक विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में से निकलवा दिया, जबकि छात्र उसे बड़े उत्साह से पढ़ रहे थे। इस कविता के लिए दंड मुझे कुछ और भी मिले हैं। किन्तु इस रहस्य का ज्ञान केवल मुझे है अथवा उन लोगों को जिन्होंने मुझे दंडित किया है।

किन्तु इतना कुछ होने पर भी पश्चात्ताप मुझे कभी नहीं हुआ। चीनी आक्रमण की घड़ी अपूर्व संकट की घड़ी थी। मुझे सन्तोष है कि उस समय मैंने अपने कवि–धर्म का पालन किया और यह बात मैं बिलकुल भूल गया कि मैं कांग्रेस का मेम्बर और संसद का सदस्य भी हूँ।

जब मैं बच्चा था, मेरे गाँव में भागवत की कथा बार–बार होती थी, किन्तु, महाभारत की कथा कोई नहीं करवाता था। लोगों की धारण यह थी कि जभी महाभारत की कथा कहवायी जाएगी, गाँव में या यजमान के गृह में कलह छिड़ जाएगा। परशुराम की प्रतीक्षा जनवरी, 1963 में प्रकाशित हुई और उसी महीने की 25 तारीख को भगवान ने मुझे नोटिस दे दी कि अब तुम्हारी मानसिक शान्ति छीन ली जाएगी और तुम्हें सम्मिलित परिवार का सुख भोगने नहीं दिया जाएगा, न वे बच्चे तुम्हारे पास रहने दिए जाएँगे, जिन्हें प्यार करके तुम जीवन का अमृत पी रहे हो। फिर तो चार वर्षों तक भगवान ने आग में मुझे इस प्रकार भुरेरा जैसे हम भुरभुरी आग में भुट्टे को भुरेरते हैं। चार वर्षों के कलह का परिणाम यह हुआ कि मेरे ज्येष्ठ पुत्र का देहान्त हो गया और मेरी विपत्ति ने एक दूसरा रूप ले लिया। इन चार वर्षों में मैंने जो दर्द भोगा, जो अपमान और प्रहार सहे, जो निराशा झेली और जिस आग में मैं तपा, वह सब–का–सब सचमुच अवर्णनीय है। आश्चर्य की बात यह है कि उस विपत्ति के आघात से मेरी मृत्यु क्यों नहीं हो गई। जो किसी भी चोट से नहीं मरता, बिहार में उस जीव को अस्सब कहते हैं। मेरा ख्याल है, सभी जीवों में अस्सब जीव मनुष्य ही है। और मैं अपने आपको सबसे अस्सब मनुष्य मानता हूँ।

इन चार वर्षों में कविताएँ नहीं के बराबर लिखीं। हाँ, गद्य में कुछ थोड़ा काम मैं जरूर करता रहा। ये चार वर्ष मैंने साहित्य लिखकर नहीं, महर्षि रमण का साहित्य पढ़कर और उन्हीं का फोटो देखकर गुजारे। किस्मत ने मेरे सिर पर इतनी ठोकरें मारीं, भगवान ने दर्द के हथौड़े से मुझे इस कदर पीटा कि मैंने जीवन के सामने, जगदीश के सामने, अपने भाग्य के सामने हार मान ली। लॉजिक और पुरुषार्थ का मैं बड़ा भारी समर्थक रहा था, किन्तु इस चैथेपन में आकर दोनों के प्रति मेरा विश्वास उठ गया। शरीर कर्म से उत्पन्न हुआ है, अतएव कर्म उसका स्वभाव है। किन्तु आदमी के किए कुछ भी नहीं होता। हम मिट्टी के ढेले हैं। ढेले को आदमी जब फेंक देता है, वह दूर तक जाता है। यदि ढेले के भीतर चेतना होती, तो वह भी यही समझता कि मैं अपने ही जोर से आकाश में दौड़ रहा हूँ।

साहित्य में यह नहीं होता कि कवि ने सड़क पर एक थप्पड़ खाया और घर में आकर वह उसकी कविता बनाने लगा। जिन घटनाओं से कवि का जीवन–दर्शन बदलता है, जो दर्द आदमी की देखने की दिशा बदल देता है, उसे कविता बनने से पूर्व कवि के रक्त में घुलने के लिए समय चाहिए। जब यह दर्द मेरे अणु–अणु में फैल गया, मैं एक विचित्र प्रकार की कविताएँ लिखने लगा। ‘हारे को हरि नाम’ में इन्हीं कविताओं का संग्रह है। इन कविताओं से, और विशेषत:, इस नाम से मेरे अनेक मित्रों और प्रशंसकों को निराशा हुई है और मुझे उनकी निराशा पर आश्चर्य हुआ है, क्योंकि ये सभी मित्र जानते हैं कि मैं हारा हुआ आदमी हूँ, टूटा हुआ आदमी हूँ, वह आदमी हूँ, किस्मत ने जिसके शीराजे बिखेर दिए हैं। ऐसे व्यक्ति के सामने इसे छोड़कर और कौन उपाय है कि वह ‘गरीब नेबाज श्री रामचन्द्र’ के चरणों पर गिर जाए और आर्त्त स्वर में पुकारे कि प्रभो, मुझे क्षमा करो और जो भी मुसीबतें मेरे ऊपर आने वाली हैं, वे आज ही एक साथ हमला बोल दें।

‘हारे को हरि नाम’ लिखकर मैंने आशा की थी कि मेरी विनय–पत्रिका पूरी हो गई। किन्तु, लगता है, अभी मेरी रामायण ही अधूरी है और उसका उत्तर कांड अब आरम्भ हुआ है।

उत्तर कांड यानी राम का राज्यारोहणय उत्तर कांड यानी सीता का पाताल–प्रवेशय उत्तर कांड यानी राम का प्राण–विसर्जन।

क्या राम चाहते, तो रामायण का उत्तर कांड रोका जा सकता था? मेरे जीवन की शिक्षा है कि किसी भी प्रकार नहीं।

कविता ने मुझे मित्र दिए, कीर्त्ति दी, सम्मान दिया, बड़े लोगों की संगति, जनता का आशीर्वाद और एक बड़ा पुरस्कार भी प्रदान किया। बदले में जीवन–भर मैंने भी उसे अपने हृदय का रक्त पिलाने में कोताही नहीं की। किन्तु, लगता है, मैंने सरस्वती के लिए उतना त्याग नहीं किया, जितना मुझे करना चाहिए था। वह बकाया सरस्वती मुझसे वसूल करने पर अब तुली हुई है।

कविता सब से बड़ा तो नहीं,
फिर भी अच्छा वरदान है।
मगर मालिक की अजब शान है।
जिसे भी यह वरदान मिलता है,
उसे जीवन–भर पहाड़ ढीला पड़ता है।
एक नेमत के बदले
अनेक नेमतों से हाथ धोना पड़ा है।

—रामधारी सिंह ‘दिनकर’
नयी दिल्ली,
6 जनवरी, 1974 ई.

कहानियाँ और अन्य गद्य कृतियाँ : रामधारी सिंह दिनकर

संपूर्ण काव्य रचनाएँ : रामधारी सिंह दिनकर