मेरी जन्म भूमि, मेरा पहाड़ : श्याम सिंह बिष्ट

Meri Janmabhoomi Mera Pahad : Shyam Singh Bisht

आज मैंने अपनी मां को बोला मां मैं घर आ रहा हूं,मेरी मां इन दो शब्दों को सुनने के लिए न जाने कितने समय से इंतजार व मेरे घर आने के लिए टकटकी आंखों से मेरी राह देख रही थी ।
मेरी मां की खुशी का ठिकाना नहीं था और खुशी होती भी क्यों नहीं मेरे जन्म से लेकर जब तक मैंने अपना पहाड़ नहीं छोड़ा था,उसने अपने बेटे के सब रुप रंग देखे थे ।
आखिर वह कैसे भूल सकती थी- वह एक मां थी मेरा सारा वक्त तो उसकी आंखों के सामने ही व्यतीत हुआ था
जब मैं पैदा हुआ मेरे किलकारी मारते ही वह छाया की तरह मेरे साथ रही जैसे ही घुटने के बल चलने की उम्र हुई वह मुझे अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए हमेशा मेरा सहारा बनी ।
एक वही तो थी जिसने मुझे -मुझसे भी ज्यादा मुझे अपने करीब से जाना वह मेरी जिंदगी के हर रंग से वाकिफ थी, क्योंकि उसी ने मेरी जिंदगी में सारे रंग घोलै़े होते हुए थे ।
मेरा उठना-बैठना चलना मेरा लड़कपन हंसना -मनाना मेरी तौतलि -आवाज से लेकर सारी दुनिया भर के रिश्ते को पहचानना,रिश्तो की अहमियत रिश्तो की मर्यादा भले बुरे का ज्ञान मुझे अपनी मां से ही तो मिला था ।
हमें काबिल बनाने के लिए हमारी मातृ -भूमि का क्या कोई योगदान नहीं है । जो आज हम जीवन के इस पड़ाव में आकर अपनी जन्म -भूमि अपनी मां को ही दिन पर दिन भूलते जा रहे हैं । क्या हमारी जन्मभूमि हमारी मां नहीं है ?
फिर क्यों हम उस देवों को जन्म देने वाली जन्मभूमि को दिन पर दिन भूलते जा रहे हैं ? क्यों उन रिश्तो को पीछे छोड़ते जा रहे हैं जिन रिश्तो ने हमें रिश्ते बनाने की पहचान दिलाई ।
जिस जन्मभूमि ने हमें बनाने के लिए अपना सारा वक्त हमें दिया ।
क्या आज उस जन्मभूमि के लिए हमारे पास वक्त नहीं।
यदि हां है तो-- गांव आना -जाना जरूर करें ।
यदि नहीं तो - फिर भी मां है अपनों के आने की राह हमेशा देखती रहेगी ।

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