मेरे लिए दुष्यंत : गुलशेर ख़ाँ शानी

Mere Liye Dushyant : Gulsher Khan Shaani

रात आधी और कमरे में अँधेरा था। उस ड्राइंगरूम-कम-स्टडी-कम-बेडरूम में बीचों-बीच दो चारपाइयाँ बिछी हुई थीं और हम दोनों अपनी-अपनी चारपाइयों पर लेटे सोने की कोशिश या उसका नाटक कर रहे थे। थोड़ी देर पहले हम दोनों बाहर से लड़कर आए थे और रास्ते में हमने एक-दूसरे से बिल्कुल बात नहीं की थी।
लड़ाई की शुरुआत एक साहित्यिक बहस से होती हुई एक-दूसरे के व्यक्तित्व पर आ गई थी या बार-बार लौटकर बहस की टेक उसी पर टूटने लगी थी। दरअसल, हम दोनों कमीनेपन के स्तर पर आकर बहस के बहाने एक-दूसरे को ज़्यादा-से-ज़्यादा आहत करने की कोशिश कर रहे थे। जाहिर है कि लौटते हुए हम दोनों के मन में आहत अहं का दर्द, एक-दूसरे को नंगा करने या होने की तकलीफ और वक्ती तौर से जबरदस्त नफरत आपस में गड्ड-मड्ड हो रही थी और मैं अन्दर-ही-अन्दर फैसला कर रहा था कि मुझे इस बेमुरव्वत, बेरहम और सख्तदिल आदमी से आगे कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए।
बहुत देर हो गई थी।
कमरे में आते ही उसने बत्ती बुझा दी थी और हम दोनों अपने-अपने बिस्तरों पर छत्तीस का आँकड़ा बनाए लेट गए थे। बड़ी देर तक चुप्पी रही थी। फिर एक-दूसरे की करवटें लेने या अपने-अपने तकियों की जगह बदलने की आवाजें अँधेरे में उभरती रहीं। फिर यह हुआ कि हम दोनों बिल्कुल बेआवाज हो गए, एकदम निश्चल!
मैं बहुत आहत था। पुंसत्वहीन क्रोध और नफरत ने मेरी आँखों को आर्द्र कर दिया था। अचानक मैंने महसूस किया कि अँधेरे में एक टटोलता हुआ हाथ मुझे छू रहा है। वह मेरा हाथ ढूँढ रहा था। एक क्षण बाद बहुत गर्म-जोशी से मेरा हाथ दबाकर उसने कहा-तू जानता है कि मेरी-तेरी लड़ाइयों की जड़ कहाँ है ?
न तो मैं जानता था और न मैंने कुछ कहा।
-असल में, यार, उसने भरे हुए कंठ से कहा-मैं तुझे थोड़ा-सा बुरा बनाना चाहता हूँ और तू मुझे थोड़ा-सा अच्छा, बस मेरी-तेरी कॉन्फ्लिक्ट इतनी ही है।
-यह कहकर उसने मेरा हाथ छोड़ दिया, करवट बदली और सो गया।
यह दुष्यन्त कुमार था। यह लगभग बारह वर्ष पहले की बात है और मैं ग्वालियर से आया हुआ उसका मेहमान था।
किसी ऐसे दोस्त के बारे में, जिससे आत्मीय दोस्ती और आत्मीय दुश्मनी का सिलसिला पन्द्रह-बीस बरस पीछे तक फैला हुआ हो, लिखना खासा जोखिम-भरा और मुश्किल काम है.खासकर तब और, जब उस लड़ाई के दौरान ही वह दोस्त अचानक गुजर जाए.यकबयक अनसोचे हुए ढंग से, बिल्कुल आपको चरका देकर!
दुष्यन्त कुमार के बारे में सोचते हुए आज मुझे यही लगता है। लगता है जैसे मेरे-उसके सम्बन्धों की महज दर्जीघर की असंख्य कतरनों से भरी हुई एक गठरी हो, जिसे ऐलानियाँ उठाकर मैंने एक दिन एक ओर रख दिया था और जिसे यकबयक खोलते हुए आज मुझे डर लगता है। वह गठरी हैरानी-भरी और बौखलाने वाली है। उसमें अनेक रंगों के मखमल हैं, रेशम हैं, खुरदरी-भद्दी कतरनें हैं और है किसी कुरूप कोने पर अटा हुए कूड़ा भी, जो सामान्यतः अशिष्ट कहा जाता है।एक हद तक अश्लील!
इस बुरे आदमी से मेरी मुलाकात लगभग बीस बरस पहले दिल्ली में हुई थी। तब वह रेडियों में काम करता था और ‘सूर्य का स्वागत’ का चर्चित कवि था। परोक्ष साहित्यिक परिचय तो था ही, गायबाना आत्मीय परिचय राजेन्द्र यादव ने करा रखा था। यह मुलाकात सरसरी तौर की हड़बड़ी से भरी हुई थी, लेकिन यह सिर्फ संयोग नहीं है कि उससे पहली बार मिलते ही उसकी यह कविता मेरे भीतर कौंध गई थी।
रात के घने काले समय में
मेरी हथेली पर
तुमने बनाया है जो सूरज
-मेहँदी से
कहीं सुबह तक रचेगा।
लाल होगा।
आखिर सुबह हुई, मेहंदी रची और लाल भी हुई, लेकिन इसमें थोड़ा वक्त लग गया। पहले जब मैं जगदलपुर में रहा करता था तो साल-डेढ़ साल में मुलाकात होती थी, लेकिन ग्वालियर आने के बाद दूरी का वक्फा कम होता गया। सन् 1965 में जब मैं भोपाल आया, तो मेरे लिए भोपाल आना दुष्यन्त कुमार के घर आना था.मेरी उसी अनुभूति के तहत कि अक्सर शहर एक या दो लोगों के कारण प्रिय या अपना लगता है। आप उन एक या दो लोगों से मिलकर समूचे शहर में रहने का एहसास करते हैं या यह कि एकाध साथ इतना महत्त्वपूर्ण, सन्तोषदायी और पूरा होता है कि बाकी सब गौण हो जाते हैं। भोपाल के आरम्भिक दौर में दुष्यन्त कुमार से मिलते-जुलते हुए मुझे लगा, उसकी सूक्ष्म संवेदना वाली काव्य-प्रतिभा से मैं प्रभावित तो था ही, नजदीक आने पर मुझे लगा कि उसके व्यक्तित्व में जबरदस्त सम्मोहन है। यह सम्मोहन उसके पुरुषोचित सौन्दर्य, वाक्चातुर्य, बैलौस मस्ती, लाउबालीपन और अक्खड़ किस्म की फक्कड़ियत का आकर्षक तालमेल था। वह सिर्फ मिलता नहीं था, मिलने वाले की आँखों को चौंधिया देता था। वह बोलता नहीं था, सुनने वाले के भीतर यकबयक उतरकर जज़्ब हो जाता था। यह उस किस्म की जज़्बियत थी, जिसका पता व्यक्ति के होते तो नहीं, उसके जाने के बाद तिलमिलाहट की शक्ल में धीरे-धीरे उभरता और आपको देर तक बेचैन करता है।
तब मैं बेहद भीरू, संकोची, आत्मतल्लीन और बहुत-सी हीनग्रन्थियों का मारा हुआ एक ऐसा युवा लेखक था, जिसकी पूरी-की-पूरी ‘स्टेक्स’ साहित्य में हों। मैंने किताबी जीवनियों से एक लेखकीय प्रतिमा उठा रखी थी और उसे आठों पहर हवा में रखकर वही बनना चाहता था। मामूली नौकरी, तंगदस्ती या जिन्दगी के छोटे-मोटे कचोकों से निर्लिप्त मैंने अपने आसपास के उस क्रूर यथार्थ से आँखें मूँद रखी थीं, जो दीमक के खोल की तरह मुझ पर चढ़कर धीरे-धीरे मुझे और मेरे परिवार को खाए जा रहा था। कभी-कभी उस क्षय को मैं पहचानता भी था, लेकिन शायद भीतर कहीं से उसे एक शहीदाना रंग दे रखा था। यह बात इसलिए भी और दिलचस्प है कि तब मैं ठीक-ठीक यह भी नहीं जानता था कि अपने लेखन से मैं दरअसल क्या चाहता हूँ और क्यों?
कोई भी महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध जब सारी औपचारिकताओं को पार कर मैत्री की दहलीज पर पहुँचता है तो जैसे एक निर्णायक बिन्दु पर पहुँचता है, यहीं पर पहली लड़ाई के साथ फैसले होते हैं। आप या तो मित्र बनते हैं या फिर अलग हो जाते हैं। मैं दुष्यन्त कुमार का मित्र बन गया, क्योंकि वह बेहद बेमुरौव्वत आदमी था और अक्सर उसकी बेमुरव्वती की ओट में मुहब्बत से छलछलाती हुई एक नदी बहती थी।
मैं आज भी पूरी तरह नहीं जानता कि किसी भी मैत्री के मूल में क्या होता है अथवा वह कौन-सी बुनियाद है, जो दो लोगों को एक-दूसरे का चहेता बना देती है, खासकर तब और जब दोनों के व्यक्तित्व एक-दूसरे के विपरीत और आपस में काटनेवाले हों। फिर जोड़ने वाला पुल क्या होता है साहित्य साहित्येतर लाउबालीपन अखरने वाली सारी अच्छाइयों और बुराइयों के बावजूद एक-दूसरे के व्यक्तित्व में छिपी हुई कोई कौंध पता नहीं। हाँ, इन मनःस्थिति को छूने वाली उसकी एक कविता जरूर है-
तुम्हारे साथ
देखते-देखते…
समुद्र पर पुल बन गया है,
ऊँचे गिरिशिखरों तक सड़क
जन-संकुल नगरों से दूर निकल आया हूं।
हाथों में थामे तुम्हारा हाथ!
(जलते हुए वन का वसन्त, पृ. 73)
दुष्यन्त कुमार एक अच्छे खाते-पीते घराने का सुविधा-सम्पन्न आदमी था, लेकिन उसके कवि ने असुविधाओं में धकेलकर उसे महत्त्वाकांक्षा से मार दिया। गाँव में उसके व्यक्ति को तो सुविधाएँ थीं, लेकिन कवि को असुविधा। अपनी घरेलू परम्परा से अलग और समानान्तर उसने कवि और व्यक्ति दोनों की जिन्दगी का एक शहरी स्वप्न-पैटर्न बुन रखा था और सारा वक्त वह उसी के लिए लड़ता रहता था.घर से, समाज से, व्यवस्था से, अपने से, मुझसे। हाँ, मुझसे भी अक्सर-
तेज़ हवा को रोक
कि ये ठहराव फाड़ दे
शीत घटा
या मन के अँगारे उघाड़ दे
दो खण्डों में बाँट न
यह व्यक्तित्व अधूरा
ईश्वर मेरे
मुझे कहीं होने दे पूरा।
(आवाजों के घेरे, पृ. 57)

अथवा
मेरे दोस्त!
मैं तुम्हें खूब जानता हूँ।
तुम टी.टी. नगर के एक बँगले में
सुख और सुविधा का जीवन
बिताने की कल्पना किए हो
तुम शासन की कुर्सी पर बैठे हुए
अपने हाथों में मुझे
एक ढेले की तरह लिए हो,
और बर्र के छत्तों में फेंककर मुझे
मुसकरा सकते हो,
मौका देखकर
कभी भी
मेरी पहुँच से बहुत दूर जा सकते हो।
(जलते हुए वन का वसन्त, पृ. 25)

हाँ, यह सही है। शायद इससे भी ज़्यादा सही यह कि उसके कवि और व्यक्ति दोनों ने एक-दूसरे को अपने-अपने हाथ में ढेले की तरह ले रखा था और अक्सर बर्र के छत्तों में फेंककर एक-दूसरे की पहुँच से दूर चले जाया करते थे।
आज जबकि वह नहीं है और मैं पीछे लौटकर अपने-उसके सम्बन्धों का जायजा लेता हूँ तो लगता है जैसे हम दोनों आरम्भ से ही एक-दूसरे के दुश्मन थे, जैसे दोस्ती की बुनियाद में ही दुश्मनी हो। हम दोनों एक-दूसरे को एक-दूसरे से छीन लेना चाहते थे, मानो आपस में चुनौती और प्रतिद्वन्द्विता हो।
दुष्यन्त कुमार ने जिस लड़ाई को अच्छे और बुरे की कॉन्फ्लिक्ट निरूपित करते हुए उस रात छुट्टी पा ली थी, दरअसल, गंजे वक्तव्य की तरह वह वैसी या उतनी नहीं थी। अपने आसपास की भयावह सच्चाई और भद्दे यथार्थ से डराकर वह मुझे रियलिस्टिक और दुनियादार आदमी बनाना चाहता था.दोस्ती के नाते! लेकिन उन रास्तों से मुझे वहशत होती थी, चुनाँचे मैं अपने ही गढ़े हुए किले में बन्द था और नहीं चाहता था कि कोई उसमें आए। बाहर न जाने के मेरे अपने तर्क थे, जो दुष्यन्त कुमार के सामने मुझे अक्सर झूठे लगने लगते थे। मैंने अपनी वैयक्तिक कायरता को छिपाने के लिए लेखन का कवच पहन रखा था, जिसे अवसर पाते ही भेदकर आहत करना दुष्यन्त का पहला फर्ज होता था। वह इतना महत्त्वाकाँक्षी था कि बिना महत्त्वाकांक्षा वाले दूर के लोग भी उसे मरे हुए लगते थे, फिर मैं तो उसका दोस्त था।
जोड़-तोड़, गुणा-बाकी और हिसाब-किताब में वह माहिर था, और तब मेरा दम घुटता था। नेता-अफसर, अखबारनवीस, मन्त्री-सन्तरी, सभी का उसके नजदीक इस्तेमाल था। कभी अपने लिए, कभी दोस्त के लिए, कभी किसी परिचित के लिए और कभी यूँ ही, क्योंकि इससे ग्लैमर-वैल्यू बनती है। एक ओर तो वह पद, अधिकार और प्रभाव चाहता था, दिन-रात उसकी योजनाएँ बनाकर तुक-ताल भिड़ाता रहता था, नए-से-नए दरवाजे और चोर-दरवाजे खटखटाता था तो दूसरी ओर उन्हीं के विरुद्ध कविताएँ लिखता और कुछ विशिष्ट मूल्यों के लिए लड़ने वाला जुझारू साहित्यकार था।
.अगर नाटक करने से कुछ बात बन जाती है तो इसमें मेरा क्या घटता है? वह कहा करता था.मैं अपने व्यक्ति और कवि को घर छोड़कर बाहर निकलता हूँ और नाटक का एक पात्र बन जाता हूँ.इस दोगली समाज-व्यवस्था में संघर्ष के लिए।
संघर्ष यानी तथाकथित सफलता की लड़ाई जो उसे इस सबके बावजूद आखिर तक नहीं मिली, हालाँकि मैं जानता हूँ कि मिल जाती तो भी वह उसकी बेचैनी का इलाज नहीं थी। बहुत मुमकिन है कि मिलने के अगले क्षण ही वह बच्चों की तरह उसकी ओर से बिल्कुल उदासीन हो जाता, अपनी आन्तरिक बेचैनी के धारे को किसी अगले चरण की ओर मोड़ देता और बेपरवाही से कहता.यार, उसमें कोई दम नहीं था।
जल्दी, बेचैनी, खुलापन, बेलौस मस्ती, बेसब्री और अधैर्य-जनित अन्तर्द्वन्द्व कविता ही नहीं, उसकी जिन्दगी का भी मिजाज था।
कुलबुलाती चेतना के लिए
सारी सृष्टि निर्जन
और कोई जगह ऐसी नहीं
सपने जहाँ रख दूँ
दृष्टि के पथ में तिमिर है
और हृदय में छटपटाहट
जिन्दगी आखिर उठाकर
कहाँ रख दूँ, कहाँ फेंकूँ।
यह सिर्फ एक कविता नहीं, उसके सम्पूर्ण कविता-संसार का चारित्रिक बिम्ब है या सिर्फ कविता-संसार का ही नहीं, उसकी आन्तरिक दुनिया का भी, जिसका पता उसके नजदीकी लोगों को भी नहीं था।
ईश्वर पर उसे विश्वास नहीं था, भाग्य को वह मानता नहीं था और सिर्फ अपने पर भरोसा करता था। या तो निराशा, अवसाद, व्यर्थता-बोध, हताशा आदि का उसके यहाँ कोई गुजर नहीं था या फिर ये उसके भीतर इतने गहरे थे, जैसे चुनौती बन गए हों। हाँ, चुनौती, जो उसे चारों ओर से लगती रहती थी और उसे जिन्दगी दिए हुए थी। कई बार चुनौती नहीं होती तो अपनी ओर से गढ़कर वह उससे लड़ने में जुट जाता था.चाहे वह समाज से आए, सरकार से आए, दोस्त से आए या किसी सुन्दर स्त्री से…
वह नहीं जानता था कि उसका सामर्थ्य सीमित है या अगर जानता था तो स्वीकार करते हुए उसे शर्म आती थी। दरअसल उसकी व्यावहारिक बुद्धि, शक्ति और सामरिक दृष्टि का जलाशय छोटा था, लेकिन इर्द-गिर्द उसने बहुत बड़ी बाड़ लगा रखी थी। बाड़ के खम्भों पर पत्रियाँ चिपकी हुई थीं ताकि सूरज निकलने पर वे चमकें और यह भ्रम पैदा करें कि जलाशय का जल चमक रहा हैण्ण्ण्इसी के चलते वह चलता था, लोकप्रिय था, दोस्त बनता था और उनके दुश्मन हो जाने पर उन्हें नेस्तनाबूद कर देने की डींगें हाँका करता था।
यह मेरा दुभाग्य है कि मेरी, उसकी दोस्ती सही ढंग से शुरू नहीं हुई और गलत ढंग से खत्म हो गई। अगर वह सही ढंग से आरम्भ हुई होती तो बराबरी के स्तर पर जाकर यूँ न टूटती। दुर्भाग्यवश, वह हल्के संरक्षण भाव से शुरू हुई थी, लिहाजा बराबरी पर आते ही वह दुष्यन्त कुमार को चुनौती-सी लगने लगी और यकबयक चटख गई। हाँ, वह टूटी नहीं थी, सिर्फ चटख गई थी, क्योंकि कोई भी आत्मीय मैत्री, जो बरसों पुरानी हो और जिसमें लड़ाई का मुद्दा अपना-अपना स्वाभिमान ही हो, कभी नहीं टूटती। वह सिर्फ मौके की तलाश करती रहती है, किसी ऐसे मौके की, जो दोनों की खुद्दारी के बन्द ढीले कर सके और जरा-सा कसाव कम होते ही दोनों एक-दूसरे से लिपट जाएँ।
लेकिन दुष्यन्त कुमार जल्दी में था और ऐसा मौका कभी नहीं आया। उसकी जिन्दगी में हम दोनों डरे हुए थे या शायद मैं उससे कहीं ज़्यादा डरा हुआ था। चार्ल्स लैंब को एक बार जब किसी से मिलने लाया जा रहा था तो उसने साफ मना कर दिया था। उसने कहा था.नहीं, नहीं, मैं उससे नहीं मिलूँगा क्योंकि मैं उससे घृणा करते रहना चाहता हूं..
पिछले दिनों मेरी यही कैफियत थी। मैं दुष्यन्त कुमार से नफरत करते रहना चाहता था, हालाँकि मेरा डर अपनी जगह बना हुआ था और अन्दर-ही-अन्दर मैं जानता था कि कभी भी किसी भी वक्त वह मौका आ सकता है।
तब क्या होता? वह कसकर गले लगा लेता और भरे हुए कण्ठ से मुझे गालियाँ देता-हरामजादे, कुत्ते…बहुत अकड़ता था!
-दोनों अकड़ते थे, मैं जैसे-तैसे कहता-लेकिन प्यारे, तुझे तो खुश होना चाहिए। देख, आखिर मैं ही हार गया। देख, जो कुछ तेरी दोस्ती न कर सकी, वह तेरी दुश्मनी ने मुझसे करा लिया है!

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