मेरा गाँव सुन्दर है, लेकिन उसे कुछ भी याद नहीं (निबंध) : केदारनाथ सिंह
मेरा गाँव गंगा और सरयू (घाघरा) के बीच में है - दोनों से कोई तीन या चार किलोमीटर की दूरी पर ! पहले जब बाढ़ आती थी तो दोनों नदियाँ मिल जाती थीं और बीच का सारा अन्तराल लगभग समुद्र बन जाता था। दोनों को मिलानेवाला एक बड़ा-सा नाला था (जो अब भी है, पर जलकुम्भियों ने उसे पूरी तरह ढँक लिया है), जिसके बारे में मान्यता थी कि वह सूखे के दिनों में गंगा का सन्देश सरयू तक और सरयू का गंगा तक पहुँचाता है। प्रकृति का संचार तन्त्र इसी तरह काम करता है। पर मनुष्यों की सूचना - क्रान्ति के इस दौर में प्रकृति का सूचना - तन्त्र थोड़ा छिन्न-भिन्न हो गया है। अब शक होता है कि गंगा का सन्देश सरयू तक या बादलों का सन्देश चींटियों तक उसी तरह पहुँच जाता होगा, जैसे कभी वह ठीक समय पर निर्बाध पहुँच जाया करता था । अब धूप घड़ी कहीं दिखाई नहीं पड़ती और सूर्य की दिशा या नक्षत्रों को देखकर समय बतानेवाली अनुभवी आँखें भी लगभग मुँद चुकी हैं। गाँव अब घड़ियों से भरा है और घड़ियाँ- बेकार युवकों की निरन्तर बढ़ती संख्या के कारण - लबालब समय से । जब काम हाथों के पास इतना समय होगा कि काटे न कटे तो फिर उस पूरे परिवेश में वह सब भी होगा, जो नहीं होना चाहिए। इस बीच हिंसा बढ़ी है और उसी अनुपात में असुरक्षा भी। सामूहिक जीवन के धागे जर्जर हो गए हैं और चुनाव से परिवर्तन । आएगा, यह स्वाधीनता आन्दोलन के जमाने के बचे-खुचे लोगों का एक स्वप्न है, जो कब का खंडित हो चुका है। इसका एक भयावह परिणाम यह हुआ है कि राजनीति से सामान्य जन का विश्वास पूरी तरह उठ चुका है ।
किसानों के बीच बढ़ती हुई बेचैनी एक अखिल भारतीय वास्तविकता है। पुराने किसानों का कहना है कि ऐसी लाचारगी तो अंग्रेजों के समय में भी नहीं थी। आज किसानों की स्थिति निराला की उस पंक्ति की तरह है, जिसे एक शब्द हटाकर मैं इस तरह कहना चाहूँगा - 'अन्न बाजार में है, भाव नहीं। जैसे लड़ने को खड़े, दाँव नहीं ।' सचाई यह है कि आज भारतीय किसान वैश्वीकरण के अदृश्य पहलवान से लड़ने के लिए अखाड़े में खड़ा तो है, पर उसके पास कोई दाँव नहीं है ।
समाजशास्त्रियों का कहना है कि पहले हमारे गाँव काफी हद तक आत्मनिर्भर या परनिरपेक्ष होते थे । यह परनिरपेक्षता अपने आपमें शायद अच्छी चीज रही हो, पर इसके कारण किसान के मनोलोक में जो एक खास तरह की परिवेश से कटाव या बेखबरी पैदा हुई, वह शायद कहीं बहुत गहरे जाकर बैठ गई है। कुछ समय पहले जब मैं 'बाबरनामा' पढ़ रहा था तो उसमें कई दिलचस्प सूचनाएँ मिलीं। बाबर ने मेरे गाँव का तो नहीं, पर मेरे गाँव के आसपास के कई गाँवों या परगनों का उल्लेख किया है, जो आज भी हैं और उसी नाम से जाने जाते हैं। वर्णन से पता चलता है कि मुगल फौज ठीक मेरे गाँव की बगल से होकर गुजरी थी और वहाँ तक गई थी, जहाँ गंगा और घाघरा का संगम था । यह बताना अप्रासंगिक न होगा कि बाबर की फौज ने उसी संगम के तट पर पूर्णिमा की रात में अपनी जीत का जश्न मनाया था और जब विजेता जश्न मनाएगा तो जाहिर है, उसकी कीमत (फिर वह चाहे जिस शक्ल में हों) उस इलाके की जनता को ही चुकानी पड़ेगी। पर गंगा- घाघरा के बीच के उस भूभाग की स्मृति में यह घटना कहीं दर्ज नहीं है-न कहानियों में, न लोकगीतों में, न ही किसी प्राचीन पोथी या किसी कविता के टुकड़े में। कभी-कभी सोचता हूँ, यह सबकुछ को भूल जाने की कूबत कहाँ से पैदा हुई मेरे क्षेत्र की जनता में ? सिर्फ सुदूर अतीत को ही नहीं, आसन्न अतीत की घटनाओं को भी लोग आसानी से भूल जाते हैं। मैंने कुछ समय पहले यह जानने की कोशिश की कि सन् 42 की घटनाएँ, लोगों की स्मृति में वह त्रासदी, जिसमें अकेले मेरे थाने पर पटापट बाईस युवक गोलियों से भून डाले गए थे, सिर्फ एक ईंट-पत्थर से निर्मित बेजान शहीद स्मारक बनकर रह गई है।
गाँवों के जीवन में, पिछले कुछ वर्षों के भीतर सबसे बड़ी दुर्घटना यह घटित हुई है कि वहाँ प्राथमिक शिक्षा की संरचना पूरी तरह व्यर्थ हो गई है। प्राइमरी स्कूल हैं, अध्यापकों को काफी हद तक आर्थिक सुरक्षा भी मिली हुई है, सिर्फ पढ़ाई नहीं होती है । इस अभाव को भरने के लिए असंख्य छोटे-छोटे प्राइवेट स्कूल खुल गए हैं, जो किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होते। पर विडम्बना यह है कि बच्चों के अभिभावक जब कोई बेहतर विकल्प नहीं ढूँढ़ पाते हैं तो फिर उन्हीं अनुत्तरदायी प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चों को भेजकर निश्चिन्त हो जाते हैं। आज ग्रामीण युवक के निर्माण के मार्ग की यह सबसे बड़ी बाधा है, जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं। शुरू में प्राथमिक शिक्षा के इस विघटन के खिलाफ लोग थोड़ा मुखर हुए थे, पर धीरे-धीरे भूलने की अपनी उसी पुरानी कूबत के चलते, विघटन के उस दंश को भी भूल गए। यही अक्सर चुनाव के समय भी होता है । पाँच साल तक तो गुस्सा उबलता रहता है, पर जब मतदान का समय आता है तो किसान-मन उसे भी आसानी से भूल जाता है। गाँव आज सड़कों के जाल और आवागमन के बढ़ते हुए साधनों के कारण फैला जरूर है और बृहत्तर दुनिया से उसके रग - रेशे भी जुड़े हैं, पर कई बार मुझे लगता है कि गाँव का मन अभी न तो अपनी भूलने की आदत से मुक्त हुआ है, न ही वह इस सचाई के साथ अपनी संगति ही बैठा सका है कि वह अपनी चौहद्दी में सिमटा अब एक निस्संग गाँव नहीं है ।
जहाँ तक गाँव की सांस्कृतिक बनावट का सवाल है, उसका सबसे बड़ा निर्धारक तत्त्व आज मीडिया है - खासतौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया । वाचिक परम्परा धीरे-धीरे खत्म हो रही है और गम्भीर साहित्य से रिश्ता लगभग पूरी तरह टूट चुका है। प्रेमचन्द और किसी हद तक मैथिलीशरण गुप्त भी शायद अन्तिम आधुनिक रचनाकार थे, जो गाँव की स्मृति का थोड़ा-बहुत हिस्सा बन सके थे । मेरा खयाल है कि अब स्मृति का वह कोना भी खाली हो चुका है। गाँव और आज के लेखन के बीच एक खौफनाक अन्तराल आ गया है, जिसके लिए दोनों जिम्मेवार हैं। जो तुरन्त और तात्कालिक है तथा जो निकट और स्थानीय है, गाँव का मन उसका अतिक्रमण कम ही कर पाता है। आसपास जो अनेक उच्च शिक्षा के केन्द्र उभर आए हैं, वे इस स्थिति के विरुद्ध हस्तक्षेप कर सकते थे। पर उनकी स्थिति और भी शोचनीय है ।
कोई दो साल पहले मैं अपने क्षेत्र के एक जाने-माने शिक्षा संस्थान में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। स्वागत भाषण के क्रम में वक्ता ने जनपद की सांस्कृतिक विशेषताओं की सूचना गिनाई और मैं साँस रोककर प्रतीक्षा करता रहा कि हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम कब आता है। वह अन्त तक नहीं आया तो मेरी चिन्ता बढ़ी और मैंने वक्ता को याद दिलाया कि आचार्य द्विवेदी इसी जनपद में पैदा हुए थे और इस मिट्टी ने अब तक उनसे बेहतर कुछ नहीं पैदा किया। यह एक छोटी-सी घटना थी, पर उससे जो अर्थ निकलता था उसके बारे में सोचकर मैं हिल गया। मैं अपने गाँव को प्यार करता हूँ, पर सोचता हूँ कि यदि कोई उसका इतिहास लिखना चाहे तो उस खालीपन का क्या करेगा, जो लोगों की स्मृति में यहाँ से वहाँ तक सपाट फैला है ?
('कब्रिस्तान में पंचायत' में से)