मेरा देश कहाँ (कहानी) : प्रतिभा बसु
Mera Desh Kahan (Bangla Story in Hindi) : Pratibha Basu
बिंदुवासिनी अब सचमुच बेहद परेशान थी। संत्रास की हवा बह चली है। अब यहाँ रहना मुश्किल है। सुन रहे हैं कि ‘‘पासपोर्ट नाम का कागज बन रहा है। अब कोई पाकिस्तान छोड़ भारत जा नहीं सकेगा। जलियाँवाला बाग के नक्शे-कदम पर लघु संप्रदायी जितने हिंदू हैं, सबके सब मार डाले जाएँगे।’’
‘‘सच ऐसा होगा क्या?’’
‘‘सच है, पाकिस्तानी संख्या लघुओं के खून सूखने लगे थे, फिर तो न कोई आगे देखा, न पीछे। वन, जंगल, खेत, माठ, नदी, तालाब लाँघते हुए दौड़ते-गिरते-पड़ते सब भागने लगे। कोई माथे पर बोरिया-बिस्तर बाँधे तो कोई दो बच्चों को कमर से बाँधे या तो कोई अकेले ही, जहाँ से बन पड़ा, भागते रहे। जिंदगी के डर से साँस रोककर किसी तरह सरहद पार पहुँचना ही उनका मकसद था। गाल पर हाथ धरे बिंदुवासिनी सोचने लगी थी। अब वह क्या करेगी? इससे परे रहना भी मुमकिन नहीं है। पर कहाँ जाएगी। कौन है अपना, कहाँ है? खुद अकेली जान तो है नहीं। विधवा पुत्रवधु और उसकी दो बेटियाँ हैं। एक जवान लड़का साथ होता तो भी भरोसा बनता। यहाँ की कोठी में उसको सुख-सुविधा की कोई कमी तो है नहीं। अभी भी कम होते और खोते हुए भी चालीस तौला सोने के गहने, बनारसी साडि़याँ, दो सेट चाँदी के बरतन, काँसा, पीतल और ताँबे के बरतन, सभी संदूक में भरे पडे़ हैं। सीमेंट, चूना और रंग उतरने के बाद भी इस कोठी में कितनी रईसी नजर आती है। पाँच बडे़-बडे़ कमरों में आठ लंबे-चौडे़ पलंग, जिनके पैरों पर सिंह का मुख बना हुआ है। रेशमी चादर पलंग पर बिछी है। बड़ी-बड़ी दरियाँ, गलीचे उत्सवों में बिछाने के लिए सफेद चादर भी है। बिलायती झाड़, लंठन गैस बत्ती, सभी तोषखाने में स्मृति बनकर अंधकार में पडे़ हैं, जिन्हें मालकिन साल में तीन बार बाहर निकालकर झाड़ती, साफ करती और धूप लगाकर पुनः सँभालकर रखवा देती हैं।
वंश का एकमात्र माथे का टीका, इकलौता बेटा नीरदवरण की शादी में ये सारे सामान बाहर निकाले तथा इस्तेमाल किए गए थे। दो बडे़-बडे़ सिंहासन और कुरसियाँ, जिन पर प्रतिष्ठित मेहमानों को बिठाया गया था। झाड़दानों में डेढ़ सौ मोमबत्ती जलाई गई थीं। पूरे गाँववालों को गलीचे पर बिठाकर भरपेट दावत खिलाई गई थी तथा बहू के मायकेवाले दूल्हे के अमीर घराने की प्रशंसा करते थकते नहीं थे, पर सारी रौशनाई, चमक-धमक अचानक ही अंधकार में दुबक गई। बेटा और बाप एक साल के अंदर ही आगे-पीछे गुजर गए। समय बीतने पर बिंदुवासिनी घर का शोक भूल चुकी थी, पर इस देश का बँटवारा बहुत भारी पड़ने लगा था। देखते-ही-देखते गाँव-के-गाँव सूने हो गए थे। खून-खराबी, राहजनी, लूटपाट, डकैती क्या-क्या नहीं देखना पड़ा था बिंदुवासिनी की दो आँखों को। रात-रात भर पलकें नहीं झपका पाई थी। मुँह में भात का कोर नहीं डाल पाई थी। डर के मारे सबकुछ बटोरकर जाने की तैयारी करने लगी थी, तभी मुसलमान प्रजा लोगों ने रोक दिया। ‘जहाँ जाएगी, वहाँ भी डर का अभाव नहीं है। मालकिन, आप चार नारियों के लिए कहीं भयहीन यात्रा हो सकती है? यहाँ तो आपका अपना ताल्लुक है। जमींदारी, पूजापाठ, खेत और अपनी ही वसूली भी है। बस डर है तो मुसलमानों का। भय है, इसी में आप भलीभाँति सालों से गुजारा कर रही हैं। यही सब बातें बार-बार सोचते हुए बिंदुवासिनी ने प्रिय प्रजा जमीर मियाँ को बुला भेजा।
‘‘भाईजान अबतक आपने भरोसा दिया। आज चुप क्यों हैं?’’ फिर भी जमीर चुप ही रहा। बिंदुवासिनी घबरा गई। जमीर काफी देर बाद मुँह उठाकर बोला, ‘‘माँ, आप शाम को बशीर, कालू शेख और जलालुद्दीन को भी बुलवा भेजें।’’
‘‘क्यों जमीर, तुम तो बराबर अकेले ही सौ के समान रहे हो। मैं तो तुम्हारे ही भरोसे में...।’’
अपनी कच्ची-पक्कीदाढ़ी पर हाथ फेरते हुए जमीर बोला, ‘‘अल्लाह की मरजी, सब अल्लाह की मरजी। पर विश्वास मानिए, मुझमें न पैसे का लोभ जनमा है, न उन लोगों की बड़ी-बड़ी लैक्चरबाजी का प्रभाव।’’ जमीर मेहँदी लगी दाढ़ी को वैसे ही सहलाता रहा। बिंदुवासिनी के दाँतों से दाँत जकड़ने लगे।
‘‘माँ, बडे़-बडे़ मियाँ लोग बाहर से पधारे हैं। वे कहते हैं, लूटो-काटो, कुछ न मानो।’’
‘‘पर तुम्हारा क्या मकसद है?’’
‘‘मेरा? मैं तो अब मनुष्यों में गिना जाने लायक नहीं रहा। बहुत बडे़-चढे़ होशियार लोगों से माहौल भर गया है। यहाँ तक कि बडे़ से बडे़ मौलवी उनके दल में चले गए हैं। गाँव-शहर के पंद्रह आने लोगों को पैसों से खरीद लिया गया है। मेरी तो सलाह है, आप लोग आज ही रवाना हो जाएँ। चारों औरतें बच्चियाँ सयानी हो गई हैं। बहूरानी तो कुछ ही दिनों पहले घूँघट काढे़ आई।’’ कहकर लुंगी से जमीर ने अपनी गीली आँखें पोंछी। उसने सलाह दी, ‘‘साथ में कुछ भी लेंगी तो सर्च के समय सब छीन लिया जाएगा। बस, जहाँ तक हो सके, गहने छुपाकर पहन लें।’’
सास-बहू फिर भी रातभर जागकर पोटलियाँ बाँधती रहीं, जो कि जमीर ने स्टेशन की भीड़-भाड़ में किसी के संदूक छिन जाने की बात कही तो कितने पैदल भागे हैं या कितने पुलिस द्वारा छीन लिये गए हैं और कितने बेइज्जत हुए हैं। सरहद को पार करने में, ऐसे ही बहुत कुछ भयानक क्षणों का और भयंकर घटनाओं के वर्णन सुनाने लगा था। सरकार ने दोनों तरफ रस्सी बाँधकर रवाना होने का रास्ता बना दिया था। उसी रास्ते में से दोनों नातिनों और बहू को लेकर बिंदुवासिनी रवाना हो गई। हजारों की संख्या में उस रस्सी बँधे रास्ते से गुजरते हुए लोग पिस रहे थे, धक्के खा रहे थे, गर्भवती औरतों का पेट दबा जा रहा था। कमर में खोंसी हुई धनराशि छीन ली जा रही थी। कोई-कोई मर्द हिंदू लड़कियों को पंक्ति से बाहर खींचना चाह रहे थे। किसी-किसी जनानियों के खुले अंगों पर दुष्ट मर्द हाथ डालकर उन्हें गुदगुदा रहे थे। इज्जत लूटने की फिकर में थे। दो-तीन दिनों बाद ऐसी ही हजारों परेशानियाँ झेलकर बिंदुवासिनी जैसे लोगों ने पाकिस्तान की सरहद पार की थी। हिंदुस्तान की मिट्टी पर उनके पैर पडे़ थे। बिंदुवासिनी ने गिनकर देख लिया कि वे कुल चार जनी हैं। कोई खोया नहीं और मरा भी नहीं। सभी थककर मुरदा बन चुकी थीं। पक्की सड़क पकड़कर अब दस-बारह अपने ही गाँव के रिफ्यूजी परिवार के संग मिलकर वे आगे बढ़ती जा रही थीं। उनको छोड़कर प्रायः अधिकतर भीड़ बडे़-छोटे किसानों के परिवारों की थीं। सबसे पहले वनगाँव नामक स्टेशन पर रिफ्यूजियों ने अपना डेरा-डंडा उतारा था और रात को ठहरे थे।
दूसरे ही दिन कुछ-एक भूँईफोड़ जैसे गुंडे अचानक आ गए, जिन्होंने धक्का-मुक्की में सबको हटाने की कोशिश की। इसी तरह सब लोग आगे बढ़ते रहे। काफी बड़ा सा आम का बगीचा सामने मिला, जहाँ पहुँचकर पूरा दल रुक गया। लग रहा था कि यहाँ कभी मिलिटरी छावनी रही होगी। चबूतरा ऐसा बड़ा सा बना हुआ था, जो कुछ भी हो, सामान साथ जो लाए थे, उसी चबूतरे पर उतारकर अपना-अपना इलाका गढ़ने में सब व्यस्त हो गए। बिंदुवासिनी ने भी अपना ट्रंक उतारा। दोनों नतनियों की आँखें रो-रोकर सूज रही थीं। बहू बोली, ‘माँ, अब तो मेरे पैर जवाब दे गए।’’
‘‘बेटा, किसी तरह हिंदुस्तान पहुँचने दो। देखना, सारे दुःख खत्म हो जाएँगे। कितने स्वयंसेवक और स्वेच्छा सेवा के केंद्र हैं, जहाँ पहुँचते ही सारे दुःख और विपदा के अंधकार भाग खडे़ होंगे।’’
उत्तरा बहू ने अपने आँचल से आँसू पोंछते हुए कहा, ‘‘चाचाजी को पत्र लिखा था? वे तो झामापुकुर कलकत्ता में रहते हैं। उस पत्र का उत्तर तो नहीं आया।’’
कार्तिक के महीने में साँझ ढलते ही काफी जाड़ा पड़ रहा था, शरीर बरफ सा ठंडा हो रहा था। बाहर रिफ्यूजी परिवार के अड़तालीस बच्चे थे। जो अपनी-अपनी माँओं को कसकर पकडे़ हुए थे। सीने में मुँह छुपा रहे थे। छोटे बच्चे दूध के लिए चिल्ला रहे थे। माँओं के स्तन नोच-नोचकर घाव बनाए दे रहे थे। स्तनों की सूखी चमड़ी चूस-चूसकर उन्हें परेशान कर रहे थे। स्त्री-पुरुषों की देह थककर कटी हुई बकरियों जैसी जमीन पर धड़ाम-धड़ाम करके गिर रही थी। उत्तरा बहू बोली, ‘‘इससे तो हम घर में पडे़-पडे़ मर भी जाते तो भी भला था।’’ छोटी नातनी, जो दस साल की थी। दादी से लिपटकर सोना चाह रही थी। दादी ने बदन छूकर देखा तो बुखार से तप रहा था। देह से साँस नहीं, आग सी निकल रही थी। डर के मारे बुलू को उत्तरा ने आँचल में छिपा लिया। दूसरी लड़की मीनू, जो नींद में किसी दूसरे मर्द के बिस्तर की ओर लुढ़क गई थी, पर ऐसा नहीं था। वह दूसरा पुरुष मीनू को नींद में खींचकर अपने बिस्तर पर लेने की कोशिश कर रहा था, जिसने कड़ा-गठीला-रोएँदार हाथ अचानक खिसका लिया गया। दूसरे दिन रिलीफ के लोग आए थे, नाम और पता दर्ज कर ले गए थे।
सब बच्चों को छटाँक भर दूध दिया गया और बड़ों को चिउड़ा और गुड़। किसी-किसी ने करुणा की दृष्टि उन पर डाली तो किसी ने धमकाया भी। कोई-कोई आँखों में बेहद लालसा लिये हुए दिखा। भिखारी के जैसे कटोरी हाथ में थामे उत्तरा तथा बिंदुवासिनी दोनों मानो भीख के दानों के लिए खड़ी थीं। भूख ऐसा ही दानवी रूप लिये थी कि कोई लज्जा महसूसने का अवसर भी नहीं था। बुलू दिन भर बुखार में कराहती रही। मिलू ने रो-रोकर दिनभर अपनी नाक को टमाटर जैसा लाल बना लिया था। दूसरे सहयात्री भी इसी परिस्थिति में थे, जिससे जैसा बन पड़ा, खडि़या से अपनी सीमाएँ आँक रहे थे और कड़ाही व पतीली निकालने में व्यस्त हो रहे थे। छोटे बच्चों के खेल-कूद, तमाशे बरकरार थे। आम के बगीचे में एक आनंद का माहौल गूँज रहा था। बालिकाएँ और अन्य कुछ औरतें एक-दूसरे के सिर छानते तथा जूएँ-लीख बीनते हुए मस्त थीं। कहीं से लकड़ी बीन-चुनकर लाए तो आग जलाकर खिचड़ी बना ली, जिनकी गाँठ में कुछ रुपए भी बचे थे, ऐसे मर्द इधर-उधर से ढूँढ़कर चावल-दाल खरीदकर ला रहे थे। उनमें से कुछ लोग काम-धंधा खोजने के मकसद से निकल पडे़ थे। जिनके पास रिफ्यूजी सर्टिफिकेट था, वे कैंप की सुविधा खोजने लगे थे। जो खेतिहर प्रमाण-पत्र साथ ला पाए थे, वे खेत पाने को सरकारी दलालों की खुशामद में व्यस्त थे। कुछ रिफ्यूजी जो लुहार, कुम्हार, बढ़ई के काम-धंधे में जम गए तो कुछ जवान औरतें गृहस्थ के घरों में नौकरानी या बँधी नहीं तो छुट्टी दैया के काम में बहाल हो गई थीं। कुछ छोटे बालक पान-बीड़ी, चाय की दुकानों में खटने लगे। अल्यूमीनियम की कटोरी थामे भिखमंगों की पंक्तियों में कुछ बच्चियाँ फटे-गंदे फ्रॉक पहने, सिर में जूँ और लीख लिये हुए खड़ी दीख पड़ रही थीं।
पर बिंदुवासिनी को अपने परिवार के लिए कुछ भी नहीं मिला। कई सुबह-शाम और रात ऐसे ही सरकारी रिलीफ के छटाँक भर मटमैले दूध, गुड़ मोटे-मोटे चिउडे़ से ही पेट की आग बुझाई। उसी बीच अचानक एक स्थूल, सामने के निकले हुए दाँतवाला कोई गेरुआधारी संन्यासी रिलीफवालों के साथ आया था, उसने बिंदुवासिनी को देखा। वह आदमी करुणा और ममता भरी दृष्टि से सबको निहारने लगा था। जो धीरे-धीरे और भी प्रेममय तथा करुणा का सागर बनता हुआ बुलू के पास पहुँचा और उसकी तपती देह को छुआ व सहलाया। दुःखी होकर मुख से चुस-चुस आवाज भी निकाली। इस थोड़ी सी सहानुभूति ने बिंदुवासिनी की आँख छलका दीं। सब कहने लगे कि रिफ्यूजियों के पीछे इस संन्यासी ने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। सेवा ही उनका धर्म है। उन्होंने एक सुंदर आश्रम की प्रतिष्ठा भी की है। सारी बातें उसी भीड़ में फैलते-सुनते बहू उत्तरा और सास ने भी सुनी और बोली, ‘‘माँ, आप उनसे हमारे लिए भी कुछ पूछिए।’’ सास को बात जँच गई।
नतिनी बुलू को तपते हुए गोद से जमीन पर लिटाते हुए कुछ एकांत में बिंदुवासिनी चली गई, उस साधु के पास जाकर अपने सारे दुखडे़ पलभर में आँखें बंद किए साधु बाबा को सुना दिए। वह दिन तो बीता। दूसरे ही दिन दोपहर के दो बजे एक जीप आ खड़ी हुई, आमतला की कच्ची सड़क के किनारे। सब बच्चे भीड़ में खडे़ देखने लगे। बुलू को तेज बुखार के साथ छाती में दर्द भी था, उसके मुँह से हिचकियाँ निकल रही थीं।
न जाने कौन सी नई रोशनी और आशा की किरण सास-बहू को दिखी; जिससे बेटियों को साथ लिये दोनों नारियाँ उस जीप गाड़ी में जा बैठीं। दिन ढलकर शाम हो चली। वनगाँव नामक स्थान के हजारों आम, जामुन और कटहल बरगद के महामूल्यवान जंगलों में से धूप-छाँह भरी पीच डले चौडे़ रास्ते से पार होकर, अब एक उर्वर धान खेत भुट्टे से भरे तो कभी पाट के खेतों के बीच से गुजरने लगीं। हरित बंगभूमि के ग्राम-नगरों की शोभा दिखाते हुए जीप गाड़ी कलकत्ता तक पहुँच गई। पता नहीं, यह कलकत्ता की कौन सी दिशा थी। आश्रम आ पहुँचे थे। सामने डेढ़ हाथ की दूरी पर पतितपावनी गंगा बह रही थी। जिसकी शीतल बयार ने शरणार्थियों के पथ के सारे क्लेश क्षणभर में दूर भगा दिए थे। संन्यासी की वही विनय नम्रवाणी और करुणा दृष्टि। वह बोला, ‘यही मेरा आश्रम है। कुछ दिन यहाँ ठहरें। अच्छा लगे तो फिर देखा जाएगा।’ कृतज्ञता से बिंदुवासिनी की जीभ हिली, आँखें सजल हो उठीं। छोटी नतिनी बुलू को किसी तरह आश्रम के बिस्तर पर सुला दिया। बिंदुवासिनी ने कहा, ‘महाराज थोड़ी सी दवाई?’ साधु तुरंत डॉक्टर को ले आया। जाँच-पड़ताल के बाद डॉक्टर दवा देकर चला गया। आमतला के निराश्रय दिन-धूप और रात की ठंड से तथा भूख से परेशान चार प्राणों के लिए यह कोठी सुख के स्वर्ग जैसी लगी। अतः उनकी आँखें नींद से मुँदने लगीं। दवाई से छोटी बिटिया भी सो गई थी। सुबह जब कौवे काँव-काँव करने लगे, तभी सास-बहू की नींद खुली, तुरंत दोनों ने एक साथ बुलू के हृदय पर हाथ रखा। नहीं, वह शांत थी। दोनों समझ गई थीं कि बुलू अब चिरनिद्रा में चली गई है ईश्वर के पास। उत्तरा की एक आर्तनाद भरी चीख से मिलू भी जाग उठी। सास ने नतिनी के शरीर-दाह के बाद गंगा दर्शन किया और सिर में पानी डाला।
आज सातवाँ दिन बीत रहा था। साधू, जिसे आश्रमवासी केशवानंद कहकर पुकार रहे थे, वे आए और बोले, ‘‘लीजिए माताजी, आपके कान के बुंदे बेचकर तीस रुपए मिले हैं। पर माँ इस थोडे़ से रुपयों से अब काम नहीं चलेगा। भला होगा, अगर आप बहू को कहीं काम में लगा दें।’’
बिंदुवासिनी, ‘‘साधु बाबाजी, मेरी बहू न तो लिखी-पढ़ी है, न बाहर कभी निकली है। गृहस्थी सँभालने के अलावा वह कुछ नहीं जानती है।’’
केशवानंद, ‘‘हाँ एक अति भद्र जन एक संभ्रांत महिला की तलाश में है। बिन माँ की दो छोटी बच्चियों की देखभाल का काम है।’’
बिंदुवासिनी, ‘‘घर की नौकरानी का काम?’’
केशवानंद, ‘‘नहीं, नौकरानी क्यों भला? इसे शहर में गवर्नस कहते हैं। अंग्रेजी सीखी महिलाएँ यह काम करती हैं। ऊँचे स्तर का काम है।’’
बिंदुवासिनी फिर भी दुविधा में पड़ी रही।
उत्तरा अब लपककर सामने आकर बोली, ‘‘माँ अब आप कुछ न बोलें। मैं यह काम जरूर कर लूँगी। आप क्यों दुःखी हो रही हैं। काम अच्छा है। वेतन भी अच्छा मिलेगा। यह तो सम्मान की जिंदगी होगी।’’ एक दिन सचमुच केशवानंद के साथ उत्तरा काम के लिए जीप पर सवार होकर चली गई। लौटते वक्त केशवानंद अकेले ही लौटे। बिंदुवासिनी परेशान होकर बोली, ‘‘मेरी बहू उत्तरा नहीं आई, वह कहाँ है?’’
केशवानंद, ‘‘बहुत अच्छी नौकरी है, वेतन भी बहुत है, वह आज ही से काम में बहाल हो गई। याद आया, उन्होंने आपको अग्रिम यह रुपए दिए हैं। बहुत अच्छे दिल की है, तभी तो...’’
विंदुवासिनी, ‘‘आपको अब कैसे धन्यवाद दूँ।’’ कृतज्ञता से झुककर वह बोली। पास ही आ खड़ी हुई मिलू बोली, ‘‘माँ का पता बता दीजिए।’’
केशवानंद, ‘‘ओह! माँ के लिए मन दुःखी हो रहा है, घबराओ मत। मैं परसों तुम्हें तुम्हारी माँ के पास ले जाऊँगा या उन्हें ले आऊँगा। गाड़ी पर झटपट बैठकर माँ से मिलकर आना, फिर दादी के गलबाँह लगकर उनकी खुशी की कहानी कहती रहना। फिर देखना, मेरा यह आश्रम छोड़कर तुम दोनों उन्हीं के पास चली जाना चाहोगी।’’ कहकर ठहाके मारकर स्वयं ही अपने व्यंग्य पर हँस पडे़। फिर गंभीर होकर बोले, ‘‘बहू के बाप की उम्र के व्यक्ति हैं वे। नाम राजीव लोचन है। मेरे जैसे साधारण व्यक्ति को बड़ा उन्होंने ही बनाया है। पहले २४ रुपए महीने का मैं साधारण कर्मचारी था। अब आश्रम गाड़ी, बडे़-बडे़ मंत्रियों से पहचान; सब उन्हीं के कारण हुआ।’’ मन-ही-मन सोचते रहे। इस अबला विधवा आश्रम के बैंक में लाख-लाख रुपए हैं।
राजीव लोचन के घर पहुँचते ही मानो चींटी ने उत्तरा को काट खाया, ऐसा प्रतीत हुआ। विवेक का एक दंश फिर सबकुछ बिल्कुल शांत। रोना-धोना, भय-त्रास सब समाप्त। आँखों का पानी भी सूखने को मजबूर। राजीव लोचन अस्त-व्यस्त से बने तकिये की टेक लगाए बैठे थे। शरीर पर सिल्क की लुंगी और ऊपर एक बनियान। परदा हटाकर ऐसी नारियाँ उनके पास हर रात आती हैं। केशवानंद ही उनका जुगाड़ करता है। यहाँ रिफ्यूजियों ने जब से आना शुरू किया, तब से और भी सुविधा हो गई है। उनका भोलापन और गरीबी, बँगलादेशियों की बेवकूफी बड़ी आसानी से उनको मूर्ख बनाकर काम हासिल कर लेते हैं। उनकी मूर्खता निर्बोध होने के कारण यही दशा होनी चाहिए।
उत्तरा को ही देख लें। इकत्तीस वर्ष की गठीली साँवली है, पर उसके चेहरे में कितनी लुनाई है। मानो उन्नीस की जवानी नहीं बीती।
राजीव लोचन के चले जाते ही बाएँ हाथ की हथेली से आँख पोंछती हुई, पिताजी कहकर दाहिना हाथ राजीव लोचन के हाथ में, बेबाक थी उत्तरा। उधर केशवानंद विवेक के किसी भी दंश बिना सावधानी से राजीव लोचन के पास उत्तरा को कामना के यज्ञ में बलि चढ़ाकर बकरी को जैसे शेर के मुँह में डाला जाता है, उसी प्रकार निकल भागे केशवानंद। वह अपने ऑफिस में लौट आए। तभी ‘पाराबत’ फिल्म के परिचित दोस्त शशिशेखर को फोन किया। शशिशेखर तुरंत भागा-भागा अबला बोध आश्रम के दफ्तर में आया। कत्थई रंग की पंजाबी, मुँह में पान खाए बाल को सँवारते हुए बीड़ी फूँकने लगे। उनकी हाजिरी के साथ-साथ केशवानंद ने मुँह चिढ़ाकर व्यंग्य भरे स्वर में पूछा, ‘फिल्म वास्तुहारा की दुःखी नायिका मिली?’ उतना ही बदसूरत मुँह बनाकर शशिशेखर बोला, ‘सब अपने को गुलाब सुंदरी समझती हैं। छोटी बच्ची नायिका मिल ही नहीं रही है।’
‘मैं दे सकता हूँ।’
‘अरे बहादुर दोस्त, सच कहता है?’
‘कई शर्त हैं।’ और नीची आवाज में शर्तें रखीं।
‘लड़की तो दिखाओ।’ लड़की देख खुशी से कूदता हुआ शशि शेखर आश्रम से निकल गया। दूसरे दिन मिलू का वादा पूरा करना था माँ से मुलाकात का। ‘एक दिन मेरे पास बहू को ले आओगे?’ विंदुवासिनी ने विनती करते हुए कहा।
‘जरूर लाऊँगा, हो सके तो आज ही।’
नीलू जामुन रंग की ताँत की साड़ी पहने थी। गोरे रंग के मुख पर छोटी सी काँच की बिंदी। लंबे बालों को वेणी में बाँध जूड़ा बनाया था। दादी उसे देखकर निहाल हो रही थी। कृतज्ञता से नीलू की आँखें डबडबाने लगीं।
खुली छतवाली जीप गाड़ी आश्रम के सामने से नीलू को लेकर कलकत्ते के बडे़-से-बडे़ रास्ते पर न जाने कहीं गुम हो गई। लाखों-करोड़ों की भीड़वाले शहर, चारों तरफ रोशनाई, जुगनुओं जैसे बत्तियों का जादू देखती, तरह-तरह के वाहनों को इधर-उधर से आते-जाते देखती नीलू हैरान होने लगी। इतना सुंदर शहर देखने के बाद गाड़ी जब गली में पहुँची तो नीलू अवाक् रह गई। सोचने लगी, इतनी गंदी, बदसूरत, बदबूदार जगह में मेरी माँ रहती है? सीढ़ी से टूटे-फूटे अँधेरे लंबे बरामदे से होकर आखिरी कमरे तक पहुँची तो पान के थूक, पेशाब की बदबू साथ ही सस्ती सेंट की गंध से मीनू को उलटी आने लगी। जब बह कमरे में घुसी तो शशिशेखर को अविन्यस्त से बैठे अधलेटे हुए देखा।
शशिशेखर, ‘अरे यार, बैठो यार।’ नीलू रोने लगी, ‘मेरी माँ कहाँ है, वह नहीं दिख रही हैं।’
केशवानंद, ‘तुम यहीं बैठो बेटी, माँ को बुलाकर लाता हूँ।’ और उसके चौखट लाँघते ही लपककर शशिशेखर ने दरवाजे की चिटकनियाँ चढ़ा दीं। नीलू डरकर द्वार पर धक्का मारती रही और माँ-माँ चीखती रही। शशि ने बाएँ हाथ से उसका मुँह बंद किया और दाहिने हाथ से नीलू की छाती दबा ली। तीन दिनों के लिए किराए का कमरा था। इस इलाके में पहले साँप का जहर उतारा जाता है, जंगली आदतों को दुरुस्त किया जाता है। यह ट्रेनिंग समाप्त होने पर नीलू को ठीक जगह पर ले जाएँगे। कितनी नीलूओं को फिट कर चुकी हैं यहाँ की औरतें।
बिंदुवासिनी राह देख रही थी मुलाकात करने के लिए। शायद बेटी के साथ आज माँ लौटकर आएगी। एक बार छत पर घूम आई, जितनी दूर तक देख सकी, आँखें ढूँढ़ती रहीं। आँखें नीलू को कहीं नहीं ढूँढ़ पाईं। तेजी से जीप चलाते हुए केशवानंद सोच रहे थे कि इन दो औरतों को ठिकाने लगाने में इस बुढ़िया को बैठे-बैठे खिलाना पड़ा। अब इस बुढ़िया से भी हाथ झाड़ना है। तब जाकर मेरी छुट्टी होगी।
मुख्य द्वार से चिल्लाते हुए केशवानंद आ रहे थे, ‘कहाँ हो माताजी, आपकी बहू और उसके पिता आपके लिए अधीर हैं। मेरे संत हृदय में आप लोगों के लिए मोह पैदा हो गया है। चलिए, जल्दी चलिए।’
विंदु, ‘कहाँ चलना है मुझे?’
केशवानंद, ‘क्यों अपनी बहू के पास, बूढे़ राजीव लोचन खुद आपके पास आ रहे थे। मैंने उन्हें रोका। उनके पास एक कोठे में खाली कमरा पड़ा है, आपको किराया नहीं देना है। वहीं आप रहेंगी। नतिनी और बहू को हरदम पास पाएँगी। आप के मन में शांति बनी रहेगी।’
सबकुछ सुनकर बिंदु ने उचित समझा और जल्दी-जल्दी साथ चलने के लिए तैयार होकर गाड़ी के पीछे की सीट पर बैठने लगी तो केशवानंद हँसकर बोले, ‘पीछे क्यों, मेरे पास बैठिए।’ ठीक दोपहर के ग्यारह बजे कत्थई रंग की जीप झलमलाती धूप में लंबे-लंबे रास्ते से पार होने लगी, बिंदुवासिनी अवाक् होकर सोच रही थी कि कितना बड़ा शहर है कलकत्ता। जब तक दिन की रोशनी रही, चारों तरफ शहर देखती रही, पर धीरे-धीरे टेक लगाकर बैठी सीट पर फुरफुरी हवा में उसे झपकी सी आने लगी। बस, फिर तो वह गहरी नींद में सो गई। अब उन्हें पता भी नहीं चला कि शहर के रास्ते-बस्ती सब छोड़कर गाड़ी जंगल की निर्जनता में आ गई है। ऊँचे-नीचे खँडहर और झाड़ियों में से कूदती हुई अचानक गाड़ी को धक्का लगा और उसी के साथ बिंदुवासिनी को भी धक्का मारकर मानो किसी ने गिरा दिया। उनकी नींद उचट गई। प्राण बचाने की इच्छा से दोनों हाथ केशवानंद की ओर फैलाते हुए वे चीखीं, पर गाड़ी के इंजन की भीषण आवाज में उनकी चीख दब गई। एक बडे़ से कठोर पत्थर से उनका माथा टकराया। कपाल से ताजा खून निकलने लगा। वर्षों से पुराने धूलि धूसर पडे़ पत्थरों से भरी भूमि को वे भूरे रंग से गीली करती रहीं। एक-एक चित्र उनके सामने फिल्म जैसा आता रहा। पहले हाल ही में मरी, नातनी मिलू, फिर अपने पति को, फिर पुत्र को सामने देखा मरते हुए। उत्तरा को, नीलू को देखा और चीखने लगी, ‘मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा है।’ क्रमश आँखें भी धुँधलाने लगीं। कुछ देर बाद जंगली कुत्ते ने आकर खून सूँघा और चाटने लगा। फिर चला गया।
कुछ समय बाद सूरज भी डूब गया, धीरे-धीरे चींटियों से भर गई बिंदुवासिनि की जख्म भरी देह। फिर धीरे-धीरे उनके कान, नाक में भी मानो चींटियों का एक पहाड़ थी वह। घंटों पहले शब्द या शोर नाम की वह आवाज समाप्त हो चुकी थी। अब केवल चींटियों का काला अंधकार, पहाड़ और निस्तब्धता चारों ओर दूर-दूर तक फैली थी।
(अनुवाद : जलज भादुड़ी)