मेहनत (कहानी) : मलयाट्टूर रामकृष्णन

Mehnat (Malayalam Story in Hindi) : Malayattoor Ramakrishnan

राजू! तुम्हारा और सुषमा का खत आए अब महीनों गुजर गए हैं। इससे मुझे कोई शिकायत नहीं, क्योंकि शिकायत तो तुम दोनों को ही करनी चाहिए। मेरे इस खयाल में अब जरा भी सच नहीं रह गया है कि मैंने जिंदगी भर तुम दोनों की भलाई के लिए भरसक मेहनत की है।

ओह! मेहनत! कैसी मेहनत!!

राजू! क्या वहाँ बारिश हो रही है?

इधर मंत्रियों व पत्रकारों का कहना है कि अबकी बार यहाँ बारिश कम हुई है, किंतु बेटा! तेरे बाप को ऐसा नहीं लगता। पिछले बारह बरसों से इस घर में जिस मात्रा में बारिश हुई है, उसी मात्रा में अब भी बारिश हो रही है। इस साल भी सारी दीवारें पानी में सराबोर हो चुकी हैं। इन दीवारों में आखिरी बार किस रंग की पुताई कब हुई थी, कौन सा रंग लगा था, याद नहीं। अब तो दीवारों में खिंची सभी लकीरें बुरी तरह फैल गई हैं। कतिपय लकीरों के अंतिम भाग सूजन भरी उँगलियों के पोरों के समान फूल गए हैं। सर्वे विभाग में नौकरी करते वक्त मैं शहर और गलियों का नक्शा बनाया करता था। यही कारण होगा कि ये दीवारें मेरे लिए किसी शहर के ‘टूरिस्ट गाइड—माप’ की भाँति ही हैं।

न जाने क्यों मैंने इसे ‘टूरिस्ट—माप’ कहा।

टूरिस्ट तो आने—जाने वाले होते हैं, किंतु तू और सुषमा ऐसे आने—जानेवाले ही हैं?

आने पर ही तो जाना होता है न? तुम्हारा कोई कसूर नहीं। इसलिए मैं तुमसे शिकायत भी नहीं करता। शिकायत तो मुझे अपने प्रति है।

पहले, खपरैल का घर बनाकर वाकई मैंने बड़ी भूल की थी। तब ठेकेदार ने कहा था कि मजबूत लकड़ियों से ही छत बनाई गई है, किंतु अब मुझे ऐसा नहीं लगता। सचमुच वह कोई खोटी, घटिया लकड़ी रही होगी। कपड़े हिल—डुलकर ढीले पड़े होंगे। छत के तख्तों पर कीड़ों ने छिद्र बनाए होंगे। जो भी हो, अब घर के भीतर पानी टपकता है। अपनी पुरानी खाट के चारों ओर मैंने चार—पाँच बरतन रखे हैं—टपकते पानी को सचित करने को। पानी नीचे फर्श पर गिरे और बह जाए तो कौन है इधर झाड़ू लगाने तथा पोंछकर साफ करने को? अब कड़ी सर्दी है। सर्दी से बचने के लिए अब भी मैं वही पुराना ऊनी स्वेटर पहनता हूँ, जिसे तूने मुझे पहले भेंट किया था। उसमें कई छेद हो गए हैं, किंतु अब भी उसमें छेदों की अपेक्षा ऊन की मात्रा ही ज्यादा है।

छेदों से भरे उस स्वेटर को देखते वक्त मेरी यादें ‘अद्भुत जगत् की आलीस’ शीर्षक उस कहानी—पुस्तक की ओर अकस्मात् खिंच जाती हैं, जिसे बचपन में मैंने तुझे दिया था। उसमें एक बिल्ली है—चेषयर बिल्ली—क्या, तुम्हें उसकी याद है? देखते—ही—देखते वह बिल्ली दृष्टि से ओझल हो जाती है, आखिर वह बिल्ली पूर्ण रूप से दिखाई ही नहीं पड़ती। फिर सिर्फ उसकी हँसी रह जाती है। धीरे—धीरे वह भी विलीन हो जाती है।

मेरे स्वेटर की भी क्या यही गति होगी, क्या किसी—न—किसी दिन इस स्वेटर की सारी ऊन में भी छेद बन जाएँगे और यह स्वेटर ही पूर्ण रूप से ओझल हो जाएगा?

ओह! कोई फिकर नहीं। जब तक मैं जिंदा रहूँ तब न।

मैं हमेशा ही तुम्हारी और सुषमा की याद किया करता हूँ।

यह सोचकर मैं खुश हुआ करता था कि तुम दोनों अलग—अलग स्थान पर ही सही, बिना गरीबी के जी रहे हो। अब तक यह सोचकर मैं अपने को धन्य महसूस करता था कि मैंने मेहनत करके, तकलीफें सहकर त्याग और ईमानदारी के साथ अपनी जिंदगी बिताई और तुम दोनों को ठिकानों पर पहुँचाया।

किंतु अब मुझे उस पर अफसोस ही महसूस हो रहा है।

मैंने मेहनत की! कैसी मेहनत!! क्या, मैंने तुम्हारे लिए कोई घर बनवा दिया, क्या कोई मोटर—गाड़ी खरीद दी, क्या कोई बैंक—बैलेंस दिया?

मेरे उपदेशों ने, जो मुझसे सदैव ही तुम्हें सहज ही उपलब्ध होता था, तुम्हें भी मेहनती बना दिया; पेट काटकर जीनावाले निम्न मध्यवर्ग का ईमानदार नागरिक बना दिया।

क्या, कभी तुम एक घर बना पाओगे? एक टूटा—फूटा पानी टपकता घर ही सही!

नहीं!

क्या, तुम्हारे बच्चे पब्लिक—स्कूल में पढ़ पाएँगे, क्या वे कभी किसी अच्छे विश्वविद्यालय में प्रवेश पा सकेंगे?

नहीं!

तुम्हारे बाप ने तुम्हें बुद्धू बना डाला; मेहनती बना डाला!

फिलहाल ये सारी बातें तभी मुझे सूझने लगीं, जब अकस्मात् मेरी भेंट वासवानी से हुई थी।

वर्षों पहले वासवानी और मैं मुंबई के एक उपनगर—ठीक—ठीक बताऊँ तो डोंबिविल्ली में एक साथ पढ़ते थे। मेरे पिता (तुम्हारे जन्म से पहले जो स्वर्ग सिधारे थे) उन दिनों शहर के किसी इंजीनियरिंग कंपनी में मजदूर थे। वासवानी के पिता भी उसी कंपनी में मजदूर थे। हम एक ही गंदी—सड़ी गली में रहते थे।

तब वासवानी उतना होशियार नहीं था। मैट्रिक भी पास नहीं कर सका था। अब तो हाय! कितने साल गुजर गए। फिलहाल मैंने वासवानी की तसवीर ‘मातृभूमि’ दैनिक में देखी।

शहर में वासवानी का हार्दिक स्वागत। मोटे—मोटे घुटनों तक लटके हार पहनकार नेता वासवानी हँसता हुआ खड़ा है। वह चित्र मैंने ‘मातृभूमि’ में देखा।

मैंने उसे पहचान लिया। क्या यह वही पुराना वासवानी है, यह नया वासवानी तो नहीं? पुराने वासवानी का एकदम नया अवतार। फिर भी आँखें नहीं बदली हैं, वे ही सँकरी आँखें।

वही बाल। माथे पर बिखरे अनुशासनहीन बाल सफेद हो गए हैं, किंतु हैं पहले जैसे।

चेहरा तो बेहद मोटा हो गया है। ठोड़ी और गले में झुर्रियाँ पड़ गई हैं।

उसी दिन के किसी दूसरे समाचार—पत्र में वासवानी के खिलाफ एक लघु लेख भी पढ़ने को मिला, तो सहसा मेरे मन में वासवानी से मिलने की इच्छा पैदा हुई।

‘दिल्ली डवलपमेंट अथॉरिटी’ के कानूनों का साफ उल्लंघन कर, सरकारी भूमि पर अनधिकार प्रवेश करके पाँच सितारोंवाला होटल बनवानेवाला वासवानी।

भारत भर के कैबरे—नृत्य और व्यभिचार का संचालन करनेवाले ‘भारत माफिया’ का सूत्रधार वासवानी!

बीसों मुकदमों में मुद्दालेह होने के बावजूद जिसका एक बाल भी बाँका नहीं हुआ, बिना सजा के बचनेवाला वासवानी।

इस पुण्य भूमि में, जहाँ—जहाँ शराब पीने से लोगों की आँखें फूट जाती हैं; जहाँ—जहाँ लोग मृत्यु के घाट उतारे जाते हैं, तहाँ—तहाँ वासवानी के ‘बोटलिंग यूनिट्स’ काम करते हैं।

लाखों लँगड़ों की कसक के पीछे जो केसरी दाल का किस्सा जुड़ा है, उसके व्यापार का नियंत्रण वासवानी के अधीन का व्यावसायिक संघ ही करता है।

मेरा पुराना दोस्त—डोंबिविल्ली की गंदी—सड़ी गली में मेरे साथ जो जिंदगी काटता था, वही मेरा जाना—पहचाना वासवानी; अब!...

जब मैंने वासवानी विषयक वह लघु लेख पढ़ा, तब मैंने अपनी जिंदगी का मूल्यांकन किया और तभी मेरे मन में वासवानी से मिलने की इच्छा उभर आई।

दूसरे दिन समाचार—पत्र में ‘आज के कार्यक्रम’ वाले स्तंभ में मैंने वासवानी का कार्यक्रम पढ़ा— ‘मस्कट होटल’ में शाम को साढ़े पाँच बजे श्री वासवानीजी का भाषण, विषय है—‘मूल्य शोषण तथा धर्मच्युति।’

मैं गया।

भाषण सुना।

महात्माजी के बारे में, दरिद्र नारायणों के बारे में, मेहनत की जरूरत के बारे में, सीधी—सादी जिंदगी के बारे में तथा इक्कीसवीं सदी की नूतन संस्कृति के बारे में वासवानी ने जोरदार भाषण दिया।

वह उसी होटल में ठहरे थे। रिसेप्शनिस्ट की मदद से मैंने उनके कमरे में फोन किया। जवाब मिला। शायद वासवानी या उनके पी.ए. ने जवाब दिया होगा। मुझे साक्षात्कार के लिए पाँच मिनट का मौका मिल गया।

कमरे में पहुँचा तो पहले—पहल वासवानी ने मुझे नहीं पहचाना। मुझे पूरा इत्मीनान था कि यह वही पुराना वासवानी है। मुझे एक उपाय सूझा। मैंने उससे कहा, ‘‘मिस्टर वासवानी तुम्हारे दाएँ हाथ में मोर का गोदना।’’

सुनकर एकदम वह चौंक पड़ा। साथ वाला पी.ए. भी चौंक गया।

मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। उसके खद्दर के कुरते की दाईं आस्तीन को ऊपर की ओर मोड़ने लगा तो वह निश्चेष्ट खड़ा ही रहा। मैं बोल उठा—

‘‘ओह! वही मोर का गोदना!’’

‘‘तुम यह कैसे समझ गए?’’ वासवानी ने मुझसे ऐसे आदरभाव से पूछ लिया, मानो मैं दिल्ली का कोई संत हूँ।

मैंने भी अपने कुरते की दाईं आस्तीन को ऊपर की ओर किया और हाथ पर अंकित मोर की मुद्रा दिखा दी।...

‘‘वासवानी! डोंबिविल्ली में रहते वक्त एक दिन हमने अपने हाथों पर मोर गुदवाए थे। याद है क्या?’’

तुरंत उसने मुझे पहचान लिया। बोला, ‘‘राम, तुम...मेरे पुराने दोस्त... राम! तुम बिल्कुल बदल गए हो।’’

‘‘तुम तो ज्यादा नहीं बदल गए हो।’’

‘‘किंतु राम! मेरे बाल तो पूरे के पूरे पक गए हैं न? मेहनत के लिए कितना बड़ा मूल्य चुकाना पड़ा। ओह! जानते हो मेहनत करनेवाले कितनी जल्दी बूढ़े हो जाते हैं।’’

कलाईवाली घड़ी देखकर पी.ए ने कहा, ‘‘जी, मुख्यमंत्री का डिनर...!’’

वासवानी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। बोला, ‘‘राम! तुम्हारे साथ ज्यादा समय बिताने की इच्छा है, किंतु...’’

‘‘कोई बात नहीं। मुझे मालूम है कि तुम बड़े ही व्यस्त आदमी हो।’’

राजू!

मेहनत के बारे में मैंने पहले जो कुछ भी कहा था, तुम और सुषमा दोनों सब भूल जाना।

मैं सुषमा को भी ऐसी ही चिट्ठी लिख रहा हूँ।

घर के भीतर पानी टपक रहा है। दीवारें पानी में सराबोर हैं।

सर्दी लग रही है।

वही पुराना ऊनी स्वेटर मैंने पहन रखा है, जिसे तुमने मुझे पहले भेंट किया था।

उसमें कई छेद बने हैं।

किंतु आज भी उसमें छेदों की अपेक्षा ऊन की मात्रा ही ज्यादा है।

तुम्हारा

पिता

पुनश्चः तुम्हारी माँ मेरे पास ही है, खाँस रही है। बेचारी की तबीयत बहुत खराब है।