माया (उड़िया कहानी) : सरोजिनी साहू
Maya (Oriya Story) : Sarojini Sahu
“इस अधिकारी को वश में करना हमारे लिए बहुत ही मुश्किल काम है।”
“ऐसी बात नहीं है रतिकांत। वशीकरण क्रिया के अलग-अलग तौर तरीके होते हैं।”
हेना ने पति की बात का उत्तर दिया।
“उदाहरण के लिए किसी को रागानुराग भक्ति मार्ग पसंद आता है तो किसी को ज्ञानयोग का मार्ग। कोई तंत्र-साधना का सहज मार्ग अपनाता है, तो कोई भैरवी-तंत्र का क्लिष्ट मार्ग। उपर्युक्त साधनाओं के सफलीभूत होने से सृष्टि के अधिष्ठाता कृष्ण-कन्हैया से लेकर सृष्टि की अधिष्ठात्री छिन्नमस्ता बगलामुखी तक सभी वश में आ जाते हैं। तब यह अधिकारी किस खेत की मूली है? एक दिन जरूर वश में आएगा। चिंता मत करो।”
“वह कुलीन परिवार से हैं। उनके पिताजी मुख्य अभियंता के पद से सेवा-निवृत हुए हैं। वह समृद्ध परिवार से संबंध रखते हैं। आस्ट्रेलिया में अध्ययन करते समय उन्होंने वहाँ की कई सुंदर स्त्रियों को देखा होगा, इसलिए शायद यहाँ की औरतों की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखते हैं। उस दिन तुम घर पर नहीं थी, मैं क्लब गया था। सूर्य की भाँति देदीप्यमान तेजस्वी चेहरा है उनका। कोई सूर्य को छूने की हिम्मत कर सकता है? उनको प्रभावित करने के लिए मिसेज दत्ता ने अपने स्तर पर कई प्रयास किए थे, परन्तु सब निष्फल। यहाँ तक कि वह तो उनके प्रभा-मंडल तक को छू नहीं पाई थी। इस तरफ साहिब की कोई रुचि नहीं हैं। न तो उनको नाच-गाना पसंद हैं, न ही कोई खेलकूद। शाम को क्लब आकर वह न तो ताश खेलते हैं, न ही मदिरा का सेवन करते हैं। न ही ज्ञान-विज्ञान में अभिरूचि रखते हैं, न ही कुत्ते पालने का कोई शौक रखते हैं। वश में करने के लिए कोई नब्ज पकड़ में नहीं आ रही है।”
हेना ने उत्तर दिया,”आदमी आदमी ही होता है। सभी की कुछ न कुछ कमजोरी अवश्य होती हैं। आप तो उनके गुणों का इस तरह बखान कर रहे हैं कि मानो वह मनुष्य न होकर पारब्रह्म परमेश्वर हो।”
“अच्छा ठीक है। छोड़ो इन बातों को। अब जाकर सो जाओ, बहुत रात हो गई है।”रतिकांत ने जम्हाई लेते हुए कहा।
भले ही उसने अपनी पत्नी को सोने के लिए कह दिया था, मगर वह खुद भीतर ही भीतर अशान्त था। इस वजह से वह सो नहीं पा रहा था। वह सोचने लगा था कि इस बार बड़े ही अजीब किस्म के साहिब इस क्षेत्र में आए हैं। इनसे पूर्व जो साहिब थे, पक्के व्यवसायी प्रकृति के थे। भले ही, औरतों के मामले में दिलचस्पी नहीं रखते थे, लेकिन पैसों को तो बहुत महत्व देते थे। उनकी पत्नी दिखने में कुरूप थी, फिर भी वह अपने साथ हर जगह ले जाते थे। शुरू-शुरू में वह साहिब बहुत नियम-कानून दिखाते थे। रतिकांत इस धारणा में विश्वास करता था कि सभी अधिकारी एक ही श्रेणी के होते हैं। शुरुआत में कानून की कठोरता के बारे में उपदेश देते हैं, फिर वे स्वयं कानून की धज्जियाँ उडाने लगते हैं। सर्वप्रथम उन साहिब ने कामगारों के ओवरटाइम पर प्रतिबंध लगाकर ड्यूटी पाली में आठ घंटे अनिवार्य रूप से रहने के आदेश जारी कर दिए थे। इसके अतिरिक्त बीच-बीच में सरप्राइज निरीक्षण कर कर्मचारियों एवं कामगारों को आशंकित-सा कर देते थे। जिन्हें ओवरटाइम से ऊपरी कमाई होती थी, वे दुःखी हो गए थे। जिन्हें रिश्वत खाने की लत पड़ गई थी, वे लोग सिर पकडकर बैठ गए थे। चोर ठेकेदारों की भी खटिया खड़ी हो गई थीं। आलसी कामचोर कामगारों को भी पूरे आठ घंटे काम करना पड़ रहा था इसलिए वे मन-ही-मन अपने प्रभारी अधिकारियों को गाली देने लगे थे।
आखिरकार कई महीनों के उपरांत साहिब की कमजोर रग रतिकांत की पकड़ में आ गई थी। बाहर से साहिब भले आदमी प्रतीत होते थे, मगर भीतर से उनका दूसरा चेहरा था। वह बहुत बड़ा रिश्वतखोर था। परियोजना के हर विभाग द्वारा उन्हें कमीशन मिलता था। ऊपर से स्वच्छ छबि तथा कड़े स्वभाव वाले उस साहिब ने अपना जाल इस तरह फैला दिया था कि सौ रुपये की रिश्वत लेने वाला मामूली आदमी भी उनके हिस्से के पचहत्तर रूपए देकर चुपचाप पतली गली से सरक जाता था। उनकी ऊपरी आमदनी के तीन रास्ते थे। पहला, परियोजना में सामानों की खरीददारी, दूसरा उत्पाद के विक्रय-विपणन से तथा तीसरा बिचौलियों, आढ़तियों तथा ठेकेदारों के माध्यम से। कंपनी को सुचारू रूप से चलाने के लिए कलम से क्रेन तक सभी सामानों की जरूरत पड़ती थी। इन चीजों की खरीददारी से कुछ भाग साहिब के घर जाता था। उत्पाद के विक्रय-विपणन से भी कुछ आमदनी हो जाती थी। दिन में नियमपूर्वक रसीद काटकर उत्पाद संप्रेषित किया जाता था, जबकि रात में बिना रसीद काटकर। साहिब को भी अपनी नौकरी का डर था, इसलिए ऊपर से नीचे तक सभी को कुछ न कुछ कमीशन मिलता था। इस प्रकार ऊपरी आमदनी की कोई सीमा नहीं थी, फिर भी साहिब का प्रलोभन शांत नहीं होता था। पर्यावरण-सुरक्षा तथा किसी दूसरे जनहित-कार्यों के नाम पर भी पैसे बनाने से नहीं चूकते थे। उस समय रतिकात प्रशिक्षण संस्थान में कार्यरत था। नए-नए नियुक्ति पाए हुए कामगारों को प्रशिक्षित करना ही उसका मुख्य कार्य था। अक्सर किसी बीमार अथवा आलसी किस्म के कर्मचारी या अधिकारी की उस जगह पर नियुक्ति की जाती थी। वहाँ किसी भी प्रकार की अतिरिक्त आय का कोई स्रोत नहीं था। उस जगह को हीन-दृष्टि से भी देखा जाता था। बाजार अथवा अन्यत्र जगह जाने के लिए कंपनी की जीप भी नसीब नहीं होती थी। यहाँ तक कि प्रशिक्षण-केन्द्र के टॉयलेट साफ करने के लिए सेनिटेशन वालों से फिनाइल माँगने से भी नहीं मिलता था।
रतिकांत को लग रहा था जैसे वह किसी निर्वासित द्वीप का राजा हो। अप्रशिक्षित कामगारों से सिर खपाना ही उसका कार्य है। बड़े साहिब से उसका कोई संपर्क नहीं रहता था। भले ही, हेना अपने मुंह से कुछ बोलती नहीं थी परन्तु यह सोचती थी उसका पति किसी काम का आदमी नहीं है, यही वजह है जिसके लिए उनको प्रशिक्षण केन्द्र का कार्यभार सौंप दिया गया है। वह मन ही मन कहती थी, एक दिन उसको ही कुछ न कुछ करना पड़ेगा। रतिकांत पूर्णतया आश्वस्त था कि हेना जरूर एक दिन अपना रंग दिखाएगी। मगर उसके मन में यह विचार भी बार-बार कौंधता था कि एक धन-पिपासु अधिकारी को हेना किस प्रकार से संतुष्ट कर पाएगी? हेना के पास ऐसी क्या जड़ी-बूटी है जिसके प्रभाव से वह साहिब को अपने वश में कर सकेगी?
लेकिन बहुत ही कम दिनों में हेना ने साहिब की बीवी के दिल को जीत लिया था। वह उनकी एकदम घनिष्ठ बन गई थी। साहिब की पत्नी के साथ जीप में बैठकर घूमने भी लगी थी। उसने साहिब की बीवी के साथ मिलकर एक सौंदर्य-प्रतियोगिता का आयोजन भी करवाया था। बड़े अचरज की बात थी कि इस बार लेडीज-क्लब द्वारा आयोजित इस प्रतियोगिता में साहिब की बीवी ‘मिसेज रोज’ चयनित हुई थीं। उम्र के इस पड़ाव पर उनका ‘मिसेज रोज’ में चयन हो सकता था क्या? इतना ही नहीं, इस उम्र में इस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए तैयार होना भी हिम्मत की बात है ! जब साहिब की बीवी ने इस प्रतियोगिता में भाग लिया तो दूसरे प्रतियोगी कैसे ‘मिसेज रोज’ बन पाते। साहिब की बीवी को इस हेतु हिम्मत तथा प्रेरणा देने का कार्य हेना ने ही किया था।
एक दिन साहिब ने रतिकांत को अपने कार्यालय-कक्ष में बुलाया। रतिकांत ने पहले से ही तेज स्वभाव वाले साहिब से वार्तालाप करने के लिए अपने आपको मानसिक तौर पर तैयार कर लिया था। वह स्वयं जानता था कि उनके अधीनस्थ अधिकारी वर्ग भी उनके कक्ष में प्रवेश नहीं कर पाते थे। लेकिन वह दिन कुछ और ही था। रतिकांत साहिब के सम्मुख बैठा था। साहिब कहने लगे,
“रतिकांत, कलकत्ता के लिए एक प्रशिक्षण प्रस्ताव आया है। जाना चाहोगे? तुम तो जानते ही हो प्रशिक्षण मतलब घूमना-फिरना और इसके अतिरिक्त कुछ वित्तीय लाभ भी होता है।”
ऐसा कोई कारण नहीं था कि रतिकांत इस प्रस्ताव के लिए इन्कार कर देता। ऐसे प्रस्ताव पाने के लिए साथियों में होड़-सी मच जाती थी। यहाँ साहिब खुद बुलाकर रतिकांत को प्रशिक्षण-प्रोग्राम में जाने की सलाह दे रहे हैं। इससे बड़ी खुश खबरी क्या हो सकती है? किसी भी हालत में ऐसे अवसर छोड़े नहीं जा सकते हैं।
रतिकांत कोलकाता के लिए जब प्रस्थान कर रहा था, तब हेना ने उनसे कहा-”अपने घर के लिए कुछ सामान न लाने से भी चलेगा मगर मित्तल साहब के लिए कुछ न कुछ उपहार जरूर लाइएगा। यह बात बिल्कुल मत भूलिएगा। ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते हैं। सभी कुछ न कुछ उपहार उनके लिए लाते हैं। आप तो लोक-व्यवहार की बातों से अनभिज्ञ रहते हैं इसलिए मैं आपको समझा देती हूँ। साहिब के नजदीकी बने रहने के कई फायदे हैं। उनके कोप का भाजन भी नहीं होते हैं और बड़े लोगों के साथ कभी-कभी लंच, डिनर आदि करने के अवसर भी प्राप्त हो जाते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि रातोंरात आदमी का स्तर भी ऊँचा हो जाता है। सहकर्मी तथा अधीनस्थ कामगार भी सम्मान की दृष्टि से देखने लगते हैं।”
हेना की सलाहों का अनुपालन करने से रतिकांत साहिब के काफी नजदीक आ गया था। परन्तु जब वह साहिब का अंतरंगी हो गया था, उसी दौरान मुख्यालय से उनके स्थानांतरण के आदेश पारित हो चुके थे। नए स्थान पर पदस्थापन होने से पूर्व आशीर्वाद स्वरूप साहिब ने रतिकांत को प्रशिक्षण केन्द्र से हटाकर भंडार-गृह का प्रभारी बना दिया था। कंपनी के भंडार-गृह का तो कहना ही क्या, आलपिन से लेकर एलीफेन्ट तक की सभी चीजें उपलब्ध थीं। हर रोज क्रय-विक्रय का सिलसिला बना रहता था। अब रतिकांत प्रसन्नचित्त था। लेकिन उसकी प्रसन्नता ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाई क्योंकि पुराने साहिब के स्थान नए साहिब का पदार्पण हो गया था। उनका स्वभाव एकदम विचित्र था। रतिकांत को टोह लेते हुए एक महीने से ज्यादा समय हो चुका था, पर नए साहिब की रुचि, अभिरूचि व अतिरिक्त गतिविधियों के बारे में कुछ भी नहीं जान पाया था। वह तो उसे पत्थर की मूरत नजर आते थे, जिस पर किसी बाहरी चीजों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।
रतिकांत बीस साल पुरानी बातें याद करने लगा। उसे याद आ गया वह दिन जब वह अपना डिप्लोमा कोर्स पूरा करके अप्रेंटिस ट्रेनिंग लेने के लिए इस जगह पर आया था। तब वह अपने पुराने मित्रों रवि, संतोष, पदमनाभ तथा हरे कृष्ण के साथ एक छोटे से क्वार्टर में रहता था। रवि, पदमनाभ तथा रतिकांत की इस जगह पर नौकरी लग गई थी, पर संतोष और हरेकृष्ण की दूसरी जगह पर। रवि स्वभाव से प्रतिक्रियावादी था। उसको इस जगह का प्रबंधन रास नहीं आया। पुरातन सामंतवादी ठर्रे से हो रहे काम को देखकर वह मन ही मन क्षुब्ध हो जाता था। वरिष्ठ अधिकारी खाली निर्देश देने का काम करते थे, जबकि कनिष्ठ अधिकारियों को रातदिन पुरानी जंग लगी हुई मशीनों पर काम करने के लिए विवश कर देते थे। यह बात रवि बहुत खलती थी। यही नहीं, साहिब के पक्षपातपूर्ण रवैये तथा अधीनस्थ कर्मचारियों के प्रति दुर्व्यवहार उसे तनिक भी बर्दाश्त नहीं होता था। इस वजह वह साहिब को फूटी कौड़ी नहीं सुहाता था। वह अच्छी तरह जानता था कि साहिब गलत ढंग से पैसे कमाने के लिए अधीनस्थ कर्मचारियो को परेशान करते हैं। उनके कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं। तभी से उसके मन में साहिब के प्रति विद्रोह की भावना भभक उठी। एक दिन उसने साहिब के विरोध में एकदिवसीय हड़ताल का भी आह्वान किया।
“फूट डालो और राज करो”की नीति का अनुसरण करते हुए साहिब ने रतिकांत को बुलाकर सामान्यपाली का प्रभारी बना दिया। सामान्तया सामान्य पाली की ड्यूटी नए कर्मचारियों को नहीं मिल पाती थीं, उन्हें प्रायः द्वितीय अथवा रात्रि पाली में ही काम करना पड़ता था। रतिकांत मन ही मन सोच रहा था कि शायद साहिब उसके काम से खुश है, इसलिए साहिब ने सोच समझकर सामान्य पाली का प्रभारी बनाया है। वह इस बात को नहीं समझ पाया था कि उसको रवि का दुश्मन बनाने के लिए साहिब ने यह नाटक रचा है। उठना, बैठना, खेलना और खाना सब साथ-साथ होता था, परन्तु एक साहिब का दायाँ हाथ, तो दूसरा साहिब का परम शत्रु।
रतिकांत के माध्यम से रवि की कमजोरी पता कर एक दिन साहिब ने रवि को अपने कार्यालय-कक्ष में बुलाकर उसको छोटी-सी गलती पर खूब डाँटा और दूसरे ही दिन अपने कार्यालय से उसके नाम निलंबन-पत्र जारी कर दिया। उस दिन रवि बहुत उदास था। दिन-भर बिस्तर में पड़ा रहा था। तरह-तरह के विचारों की उधेड़-बुन में खोया रहा। देखते-देखते उसे नींद आ गई। जब वह नींद से जागा तो उसने देखा उसके कई दोस्त सहानुभूति प्रकट करने के लिए उसके क्वार्टर में आए हुए थे। रवि ने किसी से कुछ भी नहीं बोला। वह खुद जानता था कि उसी के किसी न किसी मित्र ने मेस में होने वाली बातों को अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए साहिब तक पहुँचाया है। नहीं तो, साहिब को उन गुप्त बातों की जानकारी कैसे होती? गुस्से से लाल-पीला होते हुए कमरे की दीवार को लात मारते हुए कहने लगा,”साला ! ऐसी तुच्छ नौकरी को मैं लात मारता हूँ और आज से ही तिलांजलि देता हूँ।”
दूसरे ही दिन रवि नौकरी छोड़कर चला गया। ढ़ाई साल के बाद उन साहिब का भी उस जगह से स्थानांतरण हो गया। तब तक रतिकांत एक प्रमोशन पा चुका था और इस अनुभव से वह अधिकारीवर्ग की नस-नस पहचानना सीख चुका था। परन्तु इस बार नए साहिब के बारे में वह पुरी तरह समझ नहीं पाया था।
रतिकांत अपना अतीत याद करने लगा। वह एक छोटे से कस्बे में रहने वाले एक निर्धन किसान का बेटा था। गाँव के विद्यालय से दसवीं कक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के कारण वह अपने गाँव का गर्व समझा जाता था। शहर भेजकर आगे पढाने के लिए उसके पिताजी ने अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। परन्तु गाँव के विद्यालय के प्रधानाध्यापक द्वारा काफी समझाने के बाद पिताजी ने अपनी जमीन गिरवी रखकर उसे शहर के डिप्लोमा स्कूल में दाखिला दिलवा दिया था। वहाँ वह ट्यूशन भी करने लगा था। ट्यूशन से मिलने वाली धनराशि से वह अपने खाने एवं किताबें खरीदने का खर्चा निकाल देता था। इस प्रकार जिंदगी के उस संघर्षों ने उसे पूरी तरह कमजोर कर दिया था कि वह किसी भी परिस्थिति में किसी के विरोध में अपनी आवाज नहीं उठा पाता था। जिंदगी के अनुभवों से धीरे-धीरे बहुत कुछ सीख चुका था। माँ-बाप उसकी शादी के लिए योग्य वधू भी नहीं ढूंढ पाए थे। उसके दोस्त अरिंदम ने उसके लिए लड़की खोजी थी। अरिंदम डिग्री होल्डर था, मगर उन्हीं के साथ मेस में खाना खाता था। एक दिन वह रतिकांत को एक लड़की का फोटो दिखाकर कहने लगा-
“देखो, यह लड़की तुम्हें पसंद है अथवा नहीं। अगर तुम्हें पसंद है तो मुझे बताना। बाकी सारा काम मैं सँभाल लूँगा।”
फोटो बहुत ही सुंदर लडकी का था। रतिकांत ने कभी भी यह नहीं सोचा था कि इतनी सुंदर लड़की से वह शादी कर पाएगा। हेना दिखने में सुंदर ही नहीं बल्कि स्मार्ट भी थी। रतिकांत के लिए ऐसी लड़की मिलना उसके परम सौभाग्य की बात थी। बिना कुछ सोचे-समझे रतिकांत ने हामी भर दी। काफी समय बीतने के बाद उसे पता चला कि वह अरिंदम की पूर्व प्रेमिका थी।
किन्हीं कारणों की वजह से उनका विवाह नहीं हो पाया था इसलिए अरिंदम ने उसे रतिकांत के गले बाँध दिया था।
शुरू-शुरू में रतिकांत को सब-कुछ ठीक लग रहा था। बाद में वह अपने आपको अपमानित अनुभव करने लगा। परन्तु हेना के मधुर व्यवहार और सौन्दर्य से वह अपमान के घूंट मन ही मन पीकर भी हेना पर मंत्र-मुग्ध रहने लगा। हेना के जीवन-साथी बनने के बाद रतिकांत नौकरी के प्रति और गंभीर हो गया। उसे लगने लगा था कि सुंदर स्त्री भी एक प्रकार की प्रतिष्ठा का प्रतीक है। हेना ने उसकी जीवनचर्या को पूरी तरह से बदल दिया था। खाने-पीने का ढंग, वस्त्र पहननेका सलीका यहाँ तक कि मित्रों का चयन भी हेना द्वारा तय होता था। रतिकांत अपने पुराने मित्रों जैसे पदमनाभ, हरेकृष्णा आदि से दूर रहने लगा। पहले मोटा चेक शर्ट पहना करता था, पर अब हेना के पसंद के ब्रांडेड शर्ट उपयोग में लाने लगा था। होटलों में तरह-तरह के व्यंजन खाने का शौकीन हो गया था, जिनके बारे में पहले वह बिल्कुल नहीं जानता था। बीच-बीच में हेना रतिकांत को अपने से जूनियर स्टॉफ से दोस्ती नहीं करने की शिक्षा देती थी। वह कहा करती थी,”जूनियर स्टॉफ तुम्हारे समतुल्य नहीं हैं, उनसे दूरी बनाकर रखना ही अच्छा है।”यही नहीं, वह रतिकांत को प्रोन्नति के लिए विभागीय परीक्षा देने के लिए प्रेरित करती। वह कहा करती थी कि विभागीय परीक्षा देने से वह भी एक्सक्यूटिव बन जाएगा। रतिकांत को दिनभर का कामकाज करने के बाद रातभर जागकर पढ़ाई करना बहुत मुश्किल लगता था।
सही समय पर उसने वह परीक्षा भी उत्तीर्ण की। उसके दोस्तों ने भी वह परीक्षा दी थी, पर वे सब फेल हो गए थे। रतिकांत एक लंबी छलाँग लगाकर अपने दोस्तों से आगे निकल चुका था। वह इस चीज को अनुभव कर रहा था कि अगर हेना उसके जीवन में नहीं आती तो यह सब कैसे संभव हो सकता था। शायद वह उस परीक्षा को देने के बारे में भी नहीं सोचता।
परीक्षा पास होने की खुशी में साहिब ने रतिकांत को क्लब में पार्टी देने के लिए कहा। रतिकांत की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। आज तक वह ऑफिसर क्लब के चारों तरफ घूम रहा था। अब वह भी इस क्लब का एक अधिकृत सदस्य बन गया। आफिसर्स क्लब की सदस्यता ग्रहण करने के लिए न्यूनतम योग्यता, आफिसर होना अनिवार्य होता है। अब रतिकांत के लिए कोई रूकावट न थी। अभी तक उसने क्लब की गतिविधियों के बारे में जितनी चर्चाएँ सुन रखी थीं, वे सब उसकी कल्पना के परे थीं। उसने सुन रखा था ‘रोज डे’, ‘हसबेंड नाईट’, ‘मूनलाइट नाईट’, ‘मेड़ फॉर इच अदर पार्टी’, ‘सावन-उत्सव’, ‘बोट-पार्टी’ आदि कार्यक्रमों का रंगारंग आयोजन। इन प्रोग्रामों के अलावा ‘होली’, ‘दीपावली’ के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम कुछ अलग ही होती थीं। रतिकांत ने भव्य दावत का आयोजन किया था। क्लब की सुंदरियो को कल वह दूर से देखा करता था, अब उसे नजदीक से देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा।
अचानक साहिब का कंपनी मुख्यालय से बदली-आदेश आ गया। रतिकांत पर मानो दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा हो। पुराने साहिब के बदले में नए उड़िया-बंगाली साहिब का पदार्पण हुआ था। उड़ीसा के जलवायु में पले बढ़े थे। उड़ीसा के विद्यालयों और महाविद्यालयों से शिक्षा ग्रहण की थी। कविता लेखन तथा क्रिकेट खेलना उनकी मुख्य अभिरूचि थी। रतिकांत बड़े असमंजस की स्थिति में था कि वह उनका काव्य-क्षेत्र में साथ दें अथवा क्रिकेट खेलने में। रतिकांत की अभी तक यही धारणा थी कि समस्त साहिब एक ही प्रकार के होते हैं क्योंकि कहीं पर उसने पढ़ा था, ‘बॉसेज आर आलवेज अलाइक’। दूसरी बात नौकरी पाने से लगाकर अभी तक उसने एक ही बॉस के अंदर में काम किया था, जो कि धन-पिपासु प्रवृति के थे। साथ-ही-साथ आने वाली परिस्थितियों को भी शीघ्रता से भाँप लेते थे। उनकी छत्र-छाया में आराम से रहा जा सकता था, परन्तु अगर किसी ने उनके खिलाफ विरोध किया तो उसकी अवस्था भी रवि के समान हो जाती थी।
एक दिन साहिब के निजी सचिव ने बताया कि साहिब जब कविता लिखने के मूड़ में होते हैं तब उनके चैम्बर में किसी को भी जाने की अनुमति नहीं होती है। वह साहिब का अपना व्यक्तिगत समय है। अत्यंत जरूरी कार्य होने पर ही किसी को अंदर आने की अनुमति देते हैं। टेलिफोन की घंटी बजने से झुँझला उठते हैं। पूर्वाह्न में फाइलों का मूवमेंट रुक जाता था। बहुत ही कम दिनों में साहिब की कविताएँ सुनने-समझने के लिए कुछ श्रोतागण मिल गए थे। रतिकांत इस बात से अनभिज्ञ था कि वे श्रोतागण भी काव्य-रचना करते हैं अथवा नहीं। परन्तु उसने कभी कविता नहीं लिखी थी। शायद वह जानता था कि कवि होने के लिए व्यक्ति में भाव-प्रवीणता का होना आवश्यक है, जिसकी उसमें कमी थी। अभी तक कभी भी उसने कविता लिखने के लिए कागज-कलम नहीं उठाया था।
कविता कहने से उसे याद हो जाती थी बचपन की रटी हुई पंक्तिया,”दया कर दान भक्ति का, हमें परमात्मा देना। हमारे ध्यान में आओ, प्रभु आँखों में बस जाना।।।”बस ! रतिकांत को और कुछ मालूम नहीं था। वह यह भी नहीं जानता था कि साहिब की कविताओं के शीर्षक क्या हैं? वे कौन-कौनसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं? साहिब का ध्यानाकर्षण करने के लिए उसने अखबार तथा अन्य पत्रिकाओं से कविताएँ पढ़ना शुरु किया। उत्साहित होकर कलम लेकर वह कविता लिखने बैठ गया
“आह ! कैसी सुन्दर है चाँदनी रात, उड़कर जा रहे हैं”
कविता को पूर्ण करने के लिए शेष शब्द नहीं मिल पा रहे थे। क्रिकेट के बारे में भी उसे विशेष जानकारी नहीं थी। न तो वह विदेशी खिलडियों के नाम जानता था, न ही क्रिकेट खेल के नियम-कानून। इतना होने पर भी वह क्रिकेट देखने का ऐसा स्वाँग भरने लगा मानो वह एक अनुभवी खिलाड़ी हो। यह सब इसलिए जरुरी था कि साहिब के साथ बातचीत करने में बीच-बीच में क्रिकेट की बातें भी आ जाती थी। नए साहिब को खुश करने के लिए हेना ने उनके समक्ष क्लब में राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलन के आयोजन का प्रस्ताव रखा। कवि सम्मेलन के सारे प्रबंधन का दायित्व हेना ने अपने ऊपर लिया। हेना कवयित्री नहीं थी। क्या कवि सम्मेलन का आयोजन करने के लिए कवि होना जरुरी होता है? हेना ने ‘दुर्गा-पूजा विशेषांक’ पत्र-पत्रिकाओं को पढ़कर विख्यात कवियों के नाम की एक लिस्ट बना ली। उसके बाद और कोई काम रुकने वाला नहीं था।
आद्यौगिक शहर में इस तरह के आयोजन आसानी से सफलता पूर्वक सम्पन्न हो जाते हैं। हेना का यह कवि-सम्मेलन भी धूमधाम से सम्पन्न हुआ। रतिकांत पूर्णरूपेण आश्वस्त था। वह इस बात को समझ भी नहीं पाया कि इतनी आसानी से वह साहिब के नवरत्नों में शामिल हो जाएगा। धीरे-धीरे हेना और रतिकांत साहिब के विशिष्ट नजदीकी बन गए थे। इस बार भारत और श्रीलंका के बीच कोलकाता में आयोजित एक दिवसीय क्रिकेट मैच की श्रृंखला को देखने के लिए हेना, रतिकांत और साहिब के लिए केवल तीन टिकट खरीदे गए। हेना कहने लगी कि, जितना भी कहो दूरदर्शन में क्रिकेट देखना तथा स्टेडियम में क्रिकेट देखना, दोनों में रात-दिन का अंतर है। रतिकांत कभी-कभी इस बात का अनुभव करता था कि बनना हो तो बड़ा साहिब बनना चाहिए नहीं तो एकदम निम्न श्रेणी का मजदूर। बीच में साहिब बनना बड़े दुःख की बात है। बारबार गिरगिट की तरह रंग बदलना पड़ता है। इस क्षेत्र में वह क्रिकेट व कविता प्रेमी साहिब मात्र तीन साल तक रहे। उनके ढीले रवैये की वजह से उत्पादन ठीक ढंग से नहीं हो पाया था। अतः इस कारण से अभियोग पत्र के साथ उनका दूसरी जगह स्थानांतरण हो गया। उनके जगह पर दूसरे उत्तर भारतीय साहिब की नियुक्ति हुई। उनका परिवार दिल्ली में रहता था। परिवार वाले दिल्ली छोड़कर इस वीरान जगह पर नहीं आना चाहते थे। साहिब के लिए सुबह की चाय उनके बगीचे की देखभाल करने वाले माली या दरबान बना देते थे। वह गेस्ट हाऊस में खाना खाते थे। रसोईया रखकर वह अनावश्यक झमेला बढ़ाना नहीं चाहते थे। उनकी कार्य-शैली बड़े ही विचित्र ढंग की थी। हर पाँच-सात महीने में कामगारों एवं कर्मचारियों का इधर से उधर स्थानांतरण कर देते थे। सभी तो ठहरे बाल-बच्चे वाले गृहस्थी आदमी। किसी के लकवाग्रस्त पिताजी अस्तपताल के बिस्तर पड़े हुए थे। किसी की पत्नी स्कूल की शिक्षिका थी। किसीने अपनी नौकरी के अलावा पार्श्व-व्यवसाय खोल रखा था। असमय स्थानांतरण होने से सभी को तरह-तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता था। इसलिए सहायतार्थ साहिब के निजी सचिव के शरण में जाते थे तथा बदली-आदेश निरस्त करने की गुहार लगाते थे। रिश्वतखोर निजी सचिव स्पष्ट कहता था कि जितना भी आप दे रहे हैं, उनमें से मुझे कुछ मिलता है। ये बात पूर्णतया गलत है। वह पूरा का पूरा चट जाता है। इनका लड़का विदेश में पढता है, इसलिए उसकी भरपाई के लिए किसी भी गलत रास्ते से आने वाली कमाई जायज है।
किसी-किसी कर्मचारी का तो तीन-चार बार स्थानांतरण इधर से उधर किया जा चुका था। मनचाही रिश्वत मिल जाने से साहिब उस बदली-आदेश को निरस्त कर देते थे। वह कूटनीतिज्ञ व राजनीतिज्ञ भी थे।
इसी श्रृंखला में रतिकांत का भी स्थानांतरण के लिए नम्बर आ गया था। वह बहुत दुःखी था क्यों कि उसने अपने छोटे भाई के नाम पर कंपनी में माल ढुलाई के लिए एक बड़ा दस पहिये वाला ट्रक खरीदकर काम में लगा दिया था। वह चिंतामग्न हो गया था कि उसका अन्यत्र बदली हो जाने से ट्रक के कारोबार व रख-रखाव का काम कौन देखेगा? उसके ऋण की मासिक किश्त कैसे चुका पाएगा? यहीं सोच-सोचकर रतिकांत के आखों की नींद हमेशा के लिए गायब हो गई थी। हेना कहने लगी कि न तो वे अन्यत्र जगह पर ट्रांसफर जाएँगे और न ही ट्रांसफर रुकवाने के लिए रिश्वत देंगे। वह खुद साहिब के पास जाएगी और इस बाबत पूछेगी कि इस सब तमाशा के पीछे राज क्या है?
रतिकांत के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। वह बोलने लगा,
“तुम साहिब के पास जाओगी?”
“क्यों? क्या मुश्किल है? वह क्या शेर है जो खा जाएगा?”
हेना ने एक सुन्दर-सा गिफ्ट-पैक तैयार किया। फिर हेना ने रतिकांत के साथ साहिब के बंगले की ओर प्रस्थान किया। रतिकांत मन ही मन डर रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि साहब को क्या जवाब देगा अगर उन्होंने यहाँ आने के उद्देश्य के बारे में पूछा। रतिकांत अनमने भाव से बंगले की तरफ जा रहा था। परन्तु साहिब ने गिफ्ट पैक के साथ हेना को उसने साथ वहाँ देखा तो मन ही मन बहुत खुश हो गए। साहिब प्रसन्नतापूर्वक उनसे बातें करने लगे तथा गिफ्ट पैक को सहर्ष स्वीकार कर लिया। बातचीत के दौरान साहिब ने अपना दुख भी जताया कि उन्हें सुबह एक कप अच्छी चाय नसीब नहीं होती है। बस, हेना को तुरंत उनकी कमजोरी का भान हो गया। दूसरे ही दिन हेना सजधजकर प्रातः-वेला में साहिब के बंगले की तरफ चल पड़ी वहाँ से जब वह लौटी तो उसने देखा रतिकांत ऑफिस जाने के लिए तैयार होकर बैठा था। हेना ने रतिकांत को कहा कि वह आज से कैन्टीन में नाश्ता कर लेने से बेहतर होगा। उसके बाद हेना की यह रोजमर्रा की आदत बन गई।
पता नहीं क्यों, रतिकांत के मन में एक अनजान भय व्याप्त होने लगा। कहीं ऐसा तो नहीं हो कि हेना उसको छोड़कर कहीं दूर चली जाए। हेना उसे छोड़ देगी? मन यह पूछने के लिए बार-बार चेष्टा करता था कि साहिब तो अतिथि-भवन में अल्पाहार व भोजन करते हैं, पर वह उनके घर में इतने समय तक क्या करती है। मगर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। हेना ने अगर पलटकर जवाब दिया कि वह उसको संदेह की दृष्टि से देख रहा है। अभी तक आँखे बंद कर रखी थी। किस मुँह से इन बातों का जवाब देगा? बहुत ही कष्टकारी क्षण थे उसके लिए !
ये साहिब भी चले गए। अभी नए साहिब पदभार ग्रहण किए हैं। जिनकी नब्ज टटोली नहीं जा रही है। उनकी जीवनशैली, खान-पान, रहन-सहन, पसंद-नापसंद, रुचि-अभिरुचि, सोच-विचार अपने-पराए किसी की भी जानकारी नहीं मिल पाई थी। मानो साहिब एक अंधेरी गुफा हो, जिसके भीतर प्रवेश करने के सारे दरवाजे बंद हो। कोई भी ऐसा दरवाजा खुला नहीं था, जिसके माध्यम से उनकी तह तक पहुँचा जा सके।
हेना की सोच सही थी। कठोर साधना के द्वारा दैवीय शक्ति भी वश में आ जाती है तब यह साहिब तो एक मामूली-सा आदमी है। दूसरे मनुष्यों की भाँति उनमें भी हजारों दुर्बलताएँ हैं।
आजकल हेना का चेहरा मुरझाया हुआ दिख रहा था। गुलाब के फूल की तरह खिला-खिला रहने वाला चेहरा निस्तेज हो चुका था। वह दिनभर तरह-तरह के विचारों की उधेड़ बुन में लगी रहती थी। बहुत समय पहले किसी ने उसको सलाह दी थी”और समय बर्बाद मत करो, समय तेजी से चला जा रहा है, इस समय तक तो उनके आंगन में नन्हें-नन्हें पैर दौड़ने चाहिए थे, ड्रेसिंग टेबल और बेड-शीट में पाउडर और सिंदूर के डिब्बे खुलने चाहिए थे।”
बीती बातों को याद कर, दीर्घश्वास छोडते-छोडते हेना फफक-फफककर रोने लगी।
“बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधी लेई”की तर्ज पर वह फिर विचारों की दुनिया में खो गई। इस दौरान ऐसा तो कुछ भी घटित नहीं हुआ है, फिर भी वह उदास क्यों थी? आजकल वह योग-ध्यान भी नहीं करती थी। व्यायाम करना भी बंद था। पेट पर चर्बी भी जमने लगी थी। अब तक वह कुंवारी लडकी की भाँति चंचल व चपल दिखती थी। वह चंचलता व चपलता अब खत्म हो चुकी थी। एक परिपक्व औरत की तरह गंभीर मुद्रा धारण किए हुए दिखने लगी थी।
जो हुआ क्या जरुरी था? रतिकांत अपने आप से सवाल करने लगा तथा खुद ही उत्तर देने लगा। हेना का इस तरह सक्रिय होना आवश्यक था। साहिब को वश में करना था, साथ ही साथ धन-दौलत जोड़ना तथ मान-सम्मान की जिंदगी जीना भी जरुरी था। दस पहिए वाले ट्रक की मासिक किश्त चुकाने के लिए रुपए पैसों की भी जरुरत थी। ट्रक की कीमत 12 लाख रुपए थी। बेरोजगार भाई को काम पर लगाने के लिए उसने यह ट्रक खरीदा था। परन्तु जब भाई को नौकरी मिल गई तब वह कहने लगा कि ट्रक लगाकर माल-ढुलाई का काम सभ्य लोगों का व्यवसाय नहीं है। ट्रक बिक्री करने की बात करने लगा था। दस पहिए वाला वह ट्रक वेताल की भाँति उसके कंधे पर चिपक गया था।
सोचते-सोचते रतिकांत इधर-उधर देखने लगा। उसने देखा कि हेना नींद के आगोश में निÏश्चतता के साथ सोई हुई थी। परन्तु उसकी आँखों में नींद कहाँ? क्लब में नए साहिब के बारे में कोई बता रहा था। शाम को अभी तक साहिब क्लब में नहीं आए थे। कोई अगर उनके घर बुलाने भी जाता है तो बरामदे से ही लौटा देते थे। ऐसी परिस्थिति में रतिकांत उनसे कैसे मिल पाएगा। क्या फाइलों में ही सब-कुछ होता है? ऐसा लग रहा है मानो साहिब का इस जगह पर मन नहीं लग रहा है। किसी मजबूरी वश यहाँ टिके हुए हैं। अन्य कर्मचारियों की तरह रतिकांत भी सुनहरे अवसर की तलाश में था। इस संदर्भ में हेना ने एक दिन क्लब में उनकी शादी की वर्षगाँठ की पार्टी के आयोजन के बारे में विचार प्रकट किए थे। इस आयोजन के उपलक्ष में साहिब को आमंत्रित कर अपनी घनिष्ठता भी बढ़ाने का सुअवसर मिलता। हेना के इस सुझाव के कारण रतिकांत उसके दिमाग की दाद देना नहीं भूलता था। पूर्व निश्चित योजना के अनुसार पार्टी का भव्य आयोजन किया गया। हेना ने अपने आपको खूब अच्छी तरह से सजाया था। क्लब में बहुत भीड़ थी। हौजी व रमी का खेल चल रहा था। स्वादिष्ट व्यंजन बनने की महक से मुँह में पानी आना शुरु हो गया था। परन्तु अभी तक साहिब नहीं आए थे। आशंकित मन से रतिकांत और हेना प्रतीक्षा करने लगे। इतनी भव्य-पार्टी के आयोजन के पीछे उनका मूल उद्देश्य धूमिल होते नजर आने लगा।
रात्रि के दस बज चुके थे। टकटकी लगाकर वे साहिब का इंतजार कर रहे थे। कुछ ही क्षणों में साहिब क्लब में आए। रतिकांत और हेना के अभिनंदन को हँसते हुए स्वीकार कर चुपचाप खाना खाकर उन्हें शुभरात्रि कहते हुए अपने बंगले की तरफ चल पड़े। इतने अल्प समय में रतिकांत और हेना साहिब के घनिष्ठ होने का मौका कैसे खोज पाते? उस रात सोते समय हेना ने अपने पति को कहा था कि साहिब क्या गौतम बुद्ध है या हिटलर।
सांसारिक आकर्षणों के प्रति बिल्कुल अनासक्त हैं या स्वयं के अतिरिक्त दूसरे किसी को भी आदमी की श्रेणी में नहीं देखते हैं।
धीरे-धीरे मानो कुँहासा हटने लगा। साहिब के बंगले में मेसन मिस्त्री, कारपेन्टर तथा इलेक्ट्रीशियन इत्यादि जाने लगे। साफ जाहिर था साहिब का परिवार बंगले में रहने शीघ्र ही आएगा। देखते ही देखते कुछ दिनों के बाद उनका परिवार वहाँ रहने आया था। साहिब की बीबी के पास अधीनस्थ अधिकारियों की औरतों का ताँता लगने लगा। परन्तु साहिब की बीबी अस्थायी तौर पर वहाँ आई थीं। वह अपने प्रदेश में प्लास्टिक सर्जन के पद पर कार्यरत थीं, कुछ ही दिनों की छुट्टी मिली थी। तब उन्होंने साहिब की बीबी से बातें करके साहिब की अभिरुचियों का पता लगा लिया था। साहिब को तैरना बहुत पसंद था। क्लब के एक कोने में सूखा स्विमिंग पूल था, जो निकसन साहब के जमाने का था। देश आजाद होने के बाद वे अपनी कंपनी बेचकर स्वदेश चले गए थे। तब से किसी ने भी स्विमिंग पूल की तरफ ध्यान नहीं दिया। ऐसा लग रहा था मानो वह सदियों पुराना एकदुर्ग कुंड हो, जिसमें काई सूखकर आवरण के रूप में आच्छादित हो गई थीं। जितने भी पाईप लगे हुए थे, जंग लगने की वजह से सड़ गए थे। इस स्विमिंग पूल का जीर्णोद्धार एक कठिन काम था। किसी सज्जन ने प्रस्ताव दिया था कि कॉलोनी में जल-वितरण के लिए जो कृत्रिम झील बनी हुई है, उसी को तैरने व गोता लगाने के काम में लाया जा सकता है। पहले तो उस कृत्रिम झील में तैरने व गोता लगाने का किसी का भी साहस नहीं होता था। यह बात दूसरी थी कि उस कृत्रिम झील में ‘नाव-पार्टी’ का आयोजन अवश्य होता था। झील के चारों तरफ एक सुन्दर-सा उद्यान था। झील के प्रवेश द्वार की तरफ सीमेन्ट का चबूतरा व सीढ़ी बनी हुई थीं। कुछ आराम-कुर्सी भी लगी हुई थीं। वह झील सचमुच में पाँच-सितारा होटल के स्विमिंग-पूल की तरह दिखती थी। झील को देखकर साहिब के अधरों पर मुस्कराहट आगई, जबकि रतिकांत के होठ शुष्क होने लगे। यद्यपि वह गाँव का लड़का था, परन्तु पानी देखने से उसे भय लगता था। एक बार बचपन में उसके साथ हादसा भी हुआ था। गाँव के किसी तालाब में डूबते-डूबते बचा था। उस दिन से वह पानी देखकर कतराने लगता था। घर के बगीचे में सिंचाई हेतु पिताजी ने ‘पेंडा’ की व्यवस्था की थी, वहीं पर वह स्नान कर लेता था। शहर जाने के बाद उसने कभी भी तालाब नहीं देखा था।
इधर हेना दिन-ब-दिन कमजोर दिखने लगी। उपचार के लिए रतिकांत उसे डॉक्टर के पास ले गया। चिकित्सकीय रिपोर्ट के आधार पर उसका रक्तचाप सामान्य था, हीमोग्लोबिन भी ठीक था, लीवर फंक्शन टेस्ट भी सही आ रहे थे। पेट की अल्ट्रासाउन्ड़ रिपोर्ट भी ठीक थी। बीमारी का कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था। डॉक्टर ने ऐसे ही ताकत के लिए दो-चार टॉनिक लिख दिए थे। रतिकांत संतुष्ट नहीं था। कुछ समय बाद उसने हेना को फिर किसी मनोरोगी डॉक्टर के पास दिखाया। डॉक्टरी जाँच के आधार पर इस बार भी कोई बीमारी पकड़ में नहीं आई। रतिकांत समझ नहीं पा रहा था कि कैसे उसके दुर्दिन आ गए। एक तरफ दस पहिए वाले ट्रक की तीन किश्तें बाकी थीं। जिसके वेतालरूपी ऋण से दबकर वह विचलित हो रहा था। दूसरी तरफ हेना की बीमारी व निस्पृहता। इस बार रतिकांत लाचार था। उसे ही कुछ करना पड़ेगा। अपनी सारी जड़ता व भय से मुक्त होकर पानी में तैरना होगा। मगर कैसे?
एक दिन वह झील की तरफ घूमने गया। उसने झील में सिंह, चन्द्रशेखर तथा रावल को तैरते देखा। साहिब आरामकुर्सी में लेटे हुए पत्रिका पढ़ रहे थे। रतिकांत का पुराना प्रतिद्वन्दी राउत सीढ़ी चढ़कर पानी के अंदर कूदने जा रहा था। रतिकांत सोचने लगा कि साहब को पाने की दौड़ में वह काफी पिछड़ गया है। उसे छोड़कर सभी लोगों को तैरना आता हैं। उसे लगने लगा मानो हेना कह रही हो कि अपनी समस्या का निदान स्वयं करो, उससे रत्ती भर भी उम्मीद मत करना, वह और कुछ नहीं कर पाएगी।
दूसरे दिन भ्रमण करते समय रतिकांत झील को खाली देखकर उसके प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ने लगा। वहाँ कोई भी आदमी नहीं था। झील की गहराई के बारे में सोचते-सोचते वह सीढ़ी चढ़ने लगा। तरह-तरह के विचार उसके मन में आ रहे थे कि लोग कैसे तैरते हैं, अपने शरीर को हल्का बनाकर पानी की सतह पर किस तरह अपना संतुलन बनाते हैं, क्या उनके नाक-कान में पानी नहीं घुसता हैं, क्या पानी में उनका दम नहीं घुटता हैं इत्यादि-इत्यादि। यही नहीं, साहिब की स्फूर्ति का क्या कहना, मछली की तरह तैरना जानते हैं। रतिकांत सीढ़ी के ऊपर चढ़ गया था, वहाँ से वह नीचे की तरफ देखने लगा। जैसे ही उसने नीचे देखा तो उसका सिर चक्कर खाने लगा। तुरन्त उसने लोहे के पाईप को पकड़ लिया। वह समझ गया था पानी में कूदना उसके बस की बात नहीं है। उसे लगने लगा था कि जैसे ही वह झील में कूदेगा वह मर जाएगा। लेकिन साहिब के नजदीक पहुँचने का और कोई रास्ता भी तो नहीं था। इधर उसके प्रमोशन का समय आ गया था। उसका वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन भी लिखा जाने वाला था। इस बार वह पूर्णतया लाचार था। क्या करेगा, क्या नहीं करेगा? हेना को कहेगा तो क्या कहेगा? रतिकांत एक बार फिर नीचे झील को देखने लगा। नीचे विस्तीर्ण जलराशि को देखकर उसे अपनी मौत नजर आने लगी। उसका सिर फिर तेजी से चकराने लगा। लग रहा था अभी वह झील में गिर जाएगा।
(अनुवादक : दिनेश कुमार माली)