मौत के साए में (ब्रिटिश कहानी) : एयरी नीव

Maut Ke Saye Mein (British Story) : Airey Neave

कोल्म के युद्धबंदी शिविर में 5 जनवरी को रात के ठीक नौ बजे खाने की घंटी बजी। बंदी और जर्मन अफसर अपनी-अपनी खाने की मेजों पर झपटे।

मारटिन ने जॉन की ओर इशारा किया। जॉन चुपचाप छाया की तरह उसके पीछे हो लिया। कुछ ही मिनटों में दोनों उस रंगमंच के नीचे थे, जहाँ कुछ दिन पहले बड़े दिन के मौके पर रंगारंग कार्यक्रम हुए थे।

कैश पीटर और हैनरी मोर वहाँ उनका इंतजार कर रहे थे। उन्होंने तुरंत जर्मन सैनिक वरदियाँ पहनीं, कुछ नक्शे, नोट, दिशासूचक यंत्र तथा अपने मित्रों के संबंधियों के पते लिये और शिविर से निकलकर भागने के लिए तैयार हो गए।

पीटर और मोर ने मंच के दो तख्ते हटाए। एक लंबा चोर रास्ता उनके सामने मुँह बाए पड़ा था। मारटिन ने दृढ़ता से पहला कदम बढ़ाया। तीनों उसके पीछे चल पड़े। यह तंग रास्ता एक सँकरे गलियारे में जाकर खत्म हुआ।

सामने लोहे के मजबूत दरवाजे पर एक मोटा जर्मन ताला लटक रहा था। पीटर ने उसमें मोटा तार फँसाया, लेकिन ताला खुल नहीं रहा था। पास में ही जर्मन संतरियों के बूटों की आवाज सुनाई पड़ रही थी। सबका दिल धक्-धक् करने लगा।

इसी भयंकर स्थिति में दस मिनट गुजर गए। तभी पीटर फुसफुसाया, ‘‘लो, हाथ मिलाओ। मुड़ के मत देखना।’’

दरवाजा खुल गया था। दोनों ने पीटर और मोर से बिदा ली। उन्होंने भीतर से ताला बंद किया और कुछ ही क्षणों में उनके पैरों की आवाज आनी बंद हो गई।

अब दोनों कैदी शिविर से बाहर थे। उन्होंने चारों ओर नजर घुमाई। किले की ऊँची दीवारें उनकी इस आजादी का मजाक उड़ा रही थीं। बर्फीली ठंडी रात में सर्चलाइटों की मद्धिम रोशनी में यहाँ-वहाँ खड़े जर्मन सैनिक पहरा दे रहे थे।

जॉन ने मारटिन के चेहरे पर नजर डाली। शांत, गंभीर और दृढ़ निश्चय का प्रतीक। उसे प्रेरणा मिली। अगले ही क्षण दोनों जर्मन अधिकारियों की तरह हिम्मत से आगे बढ़े जा रहे थे।

घंटाघर के नीचे जर्मन संतरी ने सलाम किया। अब दोनों विकेट-गेट पर थे। मारटिन ने दरवाजा खोला। दोनों दनदनाते बाहर आ गए। सामने एक सिपाही ने उन्हें रोका। जॉन का कलेजा काँप गया। मगर मारटिन ने शुद्ध जर्मन भाषा में उसे जोर से लताड़ा, ‘‘सलाम क्यों नहीं करते?’’

उसने सलाम किया और अफसराना जवाब देते हुए दोनों आगे बढ़ गए। उन्होंने बलूती घेराबंदी को पार किया और पेड़ों के झुरमुट में आ पहुँचे। पत्तियाँ बर्फ से ढकी हुई थीं। अब शिविर की सर्चलाइटें उन तक नहीं पहुँच सकती थीं।

सामने किले की दीवार बर्फ से सफेद हो रही थी। मारटिन ने जॉन को सहारा दिया। जॉन दीवार पर चढ़ गया। उसने दीवार पर पेट के बल लेटकर नीचे मारटिन को अपना हाथ पकड़ाया। मगर ठंड से अकड़ी हुई उसकी उँगलियाँ उसे ऊपर न खींच सकीं। जॉन ने अपनी उँगलियाँ बगल में दबाईं। कुछ अकड़ कम होने पर उसने अपना हाथ फिर नीचे बढ़ाया। एक ही झटके में मारटिन उसके पास दीवार पर था।

ठंडी बर्फीली हवा में एक मिनट साँस लेने के बाद दोनों दीवार से कूदे। बारह फीट ऊँचाई जरूर थी, पक्की जमीन पर गिरने से कुछ चोटें भी आईं, पर उन्हें सहलाने का समय कहाँ था।

उनको पूर्व की ओर लीसनिंग शहर जाना था, जो वहाँ से छः मील दूर था। रात के दस बजे थे। वे ठिठुरते हुए लीसनिंग की ओर जानेवाली सड़क पर बढ़ रहे थे। अचानक सामने कार की रोशनी दिखाई दी। दोनों झटपट बर्फ पर लेट गए। कार फर्राटे से निकल गई।

अब उन्होंने अपनी जर्मन वरदियाँ उतार दीं और वे हॉलैंड के बिजली मिस्तरी बन गए। उनके पास लीपजिंग से उल्म जाकर काम करने का परमिट था। लीपजिंग कोल्म से बाईस मील दूर था। वहाँ पहुँचने के लिए उन्हें लीसनिंग से पहली गाड़ी पकड़नी थी, जो मजदूरों को लेकर पाँच बजे प्रातः लीपजिंग के लिए रवाना होती थी।

उन्हें मालूम हुआ था कि लीपजिंग में हजारों विदेशी मजदूर हैं और उनमें से कुछ को दक्षिण-पश्चिम जर्मनी में उल्म आदि नगरों में भेजा जा रहा है। वे इसी बात का फायदा उठाकर उल्म जाना चाहते थे, जहाँ से जर्मन सीमा को पार करके स्विट्जरलैंड में प्रवेश करना संभव था।

किंतु उनके पास लीपजिंग तक जाने का परमिट नहीं था। खैर, लीसनिंग तक छः मील की दूरी तय करने में उन्हें बहुत समय नहीं लगा। पाँच बजने में अभी काफी देर थी। वे लीसनिंग रेलवे स्टेशन से कुछ दूरी पर पेड़ों के झुरमुट में दुबककर बैठ गए। ठंड इतनी थी कि बोलने की भी हिम्मत नहीं थी। वैसे भी पराए देश में इस स्थिति में बातचीत करना खतरे से खाली नहीं था।

तीन घंटे तीन दिन की तरह गुजरे। रेल इंजन की नारंगी रोशनी दूर से दिखाई दी। वे उठे और स्टेशन पर पहुँचकर जर्मन मजदूरों की भीड़ में मिल गए। मारटिन ने आगे बढ़कर दो टिकट खरीदे। गाड़ी प्लेटफॉर्म पर लगी और वे भी औरों के साथ एक छोटे से डब्बे में घुस गए।

डब्बा क्या था, कबाड़खाना था। तरह-तरह के मजदूर, औरतें और मर्द, एक-दूसरे से सटकर पाटियों पर बैठ गए। गाड़ी ने तीखी सीटी दी और चल पड़ी। हवाई हमले की आशंका से डब्बे में रोशनी बहुत मंद थी। खिड़कियाँ बंद थीं, इसलिए ठंडी हवा से बचाव था। गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी और मुसाफिर एक-दूसरे के कंधे पर लटके हुए ऊँघने लगे। जॉन को एक अधेड़ मजदूरिन का कंधा मिला। हारा-थका वह कुछ गरमाहट पाकर खर्राटे लेने लगा।

दूसरे ही क्षण जॉन के टखने पर जोर से ठोकर लगी। आँख खुली तो सामने मारटिन को खड़ा पाया। वह उसकी ओर मोटी-मोटी आँखों से घूर रहा था। जॉन को अपनी गलती का अहसास हुआ। आदतन वह नींद में अंग्रेजी में बड़बड़ा रहा था। शुक्र था कि बाकी सभी मुसाफिर भी उसकी तरह नींद में बेहोश थे, सिवा मारटिन के जो अपने निकल भागने की इस योजना को जी-जान से पूरा करने की कोशिश में था।

जॉन को बहुत अफसोस हुआ। वह शर्मिंदा था। उसमें मारटिन से आँख मिलाने की हिम्मत नहीं थी। मगर मारटिन का हाथ जॉन के कंधे को थपथपाकर उसका हौसला बढ़ा रहा था।

छः बजते-बजते गाड़ी लीपजिंग जंक्शन पर पहुँच गई। नई जगह थी। मगर वे दोनों और यात्रियों के पीछे-पीछे प्लेटफॉर्म से बाहर आ गए। सामने चाय की दुकान थी। गरम-गरम कॉफी पीने से कुछ जान आई। पूछताछ करने पर पता चला कि उल्म को जानेवाली गाड़ी तो रात साढ़े दस बजे ही मिलेगी।

पूरा दिन सामने था। कैसे बिताएँ? थोड़ी देर मुसाफिरखाने में बैठे। अनायास ही जॉन का हाथ जाकेट के भीतर गया और चॉकलेट की एक लंबी पट्टी बाहर खींच लाया। ज्यों ही जॉन ने उसका एक सिरा अपने मुँह में डाला, सैकड़ों ललचाई आँखें एक साथ उसपर टिक गईं। बेचारों ने दो-तीन सालों से चॉकलेट के दर्शन नहीं किए थे।

नजर घुमाई तो देखा कि मारटिन उसे तेज नजरों से घूर रहा था। उसने इशारा किया। दोनों तुरंत मुसाफिरखाने से बाहर थे। चॉकलेट के कारण लोगों को उनपर शक होने लगा था।

दोनों सीधे एक तिकोने पार्क में पहुँचे और एक बेंच पर बैठ गए। अचानक एक जर्मन षोडशी जॉन की बगल में आ बैठी। उसने ताबड़तोड़ दो-तीन प्रश्न कर दिए। मारटिन ने जॉन का हाथ दबाया। वहाँ भी वे चैन से नहीं बैठ सके।

वे बाहर बड़ी सड़क पर आ गए। सैनिक गाडि़याँ इधर-उधर दौड़ रही थीं। युवक लोग प्रसन्न थे। पर बूढ़ों के चेहरों पर उदासी की रेखाएँ खिंची हुई थीं।

शत्रुदेश में भगोड़े सैनिक के लिए छिपने की सबसे बढि़या जगह सिनेमाघर होती है। मारटिन दो टिकट खरीद लाया। वे एक घटिया-से सिनेमाघर में सबसे नीचे की श्रेणी में जाकर बैठ गए। वहाँ जर्मन सिपाहियों की भीड़ थी।

रोशनी गुल होते ही खबरों का सिलसिला शुरू हुआ। जर्मन फौजों की फतह के दृश्य दिखाए गए। उसके बाद नाजी गाने शुरू हुए, ‘‘हम इंग्लैंड के विरुद्ध बढ़े जा रहे हैं...’’

यहाँ जॉन से फिर एक भारी भूल हो गई। सारे दर्शक रेकार्ड की धुन में धुन मिलाकर गाना गा रहे थे, मगर जॉन चुप था। मारटिन ने फिर ठुड्डा मारा। जॉन जैसे नींद से जागा और अन्य लोगों के साथ सुर में सुर मिलाने लगा।

फिल्म देखकर जब दोनों बाहर निकले तो एक पुलिस सिपाही उनके पीछे हो लिया। वे उसे गच्चा देकर सिनेमाघर में घुस गए। फिर वही खबरें, वैसा ही प्रचार, वे ही नाजी गाने।

वहाँ से निकलकर पुलिस की नजरों से बचते-बचाते दोनों फिर रेलवे स्टेशन पर आ गए। मुसाफिरखाना गरीब जनता से खचाखच भरा हुआ था। नाजी शासन के काले कारनामों से पीडि़त लोगों का बुरा हाल था। सेना के जवान उन्हें ठुड्डे मारते हुए रोब से इधर-उधर घूम रहे थे।

मारटिन उल्म के टिकट ले आया। गाड़ी प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी। गाड़ी में बैठने के बजाय बाहर खड़े रहना उनके लिए ज्यादा हितकर था। ज्यों ही गाड़ी चली, दोनों एक डब्बे में सवार हो गए और एक गलियारे में अँधेरे में जाकर खड़े हो गए।

गाड़ी चल पड़ी। उन्होंने देखा, एक भारी-भरकम वरदीधारी अफसर उनके पास खड़ा है। उसने बड़ी शालीनता के साथ पूछा, ‘‘क्या तुम यहूदी हो?’’

‘‘नहीं, हम हॉलैंडवासी हैं,’’ मारटिन ने बड़े अदब के साथ जर्मन में उत्तर दिया।

‘‘अच्छा, वहाँ क्यों खड़े हैं? आइए, हमारे पास बैठिए। यहाँ बहुत जगह है।’’

दोनों बैठ गए, पर जॉन का कलेजा काँप रहा था।

‘‘कहाँ तक जाएँगे?’’ उसने पूछा।

‘‘उल्म।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘हम बिजली मिस्तरी हैं। वहाँ हमारा तबादला हो गया है।’’

मारटिन ने बड़ी होशियारी से सारी स्थिति सँभाल ली थी। अगर जॉन से हॉलैंड के बारे में ज्यादा पूछताछ होती तो मामला गड़बड़ हो जाता। वे बारी-बारी से सोते-जागते चल रहे थे। अचानक सेना पुलिस के दो सिपाही आ गए। उन्होंने उनके कागज-पत्र देखे। ज्यादा पूछताछ उनके कागज-पत्र देखे। ज्यादा पूछताछ करते, मगर उस वरदीधारी अफसर ने कह दिया कि ये तो हॉलैंड के रहनेवाले हैं और काम पर आगे जा रहे हैं।

चार बजे गाड़ी रुकी। जॉन ने खिड़की से बाहर झाँका - रीजेनबर्ग का स्टेशन था । यहाँ उन्हें उल्म के लिए गाड़ी बदलनी थी। इसलिए वे वरदीधारी अफसर को नमस्कार करके प्लेटफॉर्म पर उतर आए।

दोनों मुसाफिरखाने में जाकर एक बेंच पर बैठे ही थे कि उनकी नजर एक सिपाही पर पड़ी। वह शक की नजरों से उन्हें घूर रहा था। वे तुरंत वहाँ से उठे और बाहर प्लेटफॉर्म पर आकर और मुसाफिरों की भीड़ में नीचा सिर करके बैठ गए।

उल्म जानेवाली गाड़ी जल्दी ही आ गई। वे एक डब्बे में जाकर बैठ गए। सवेरे जब आँख खुली तो उनकी गाड़ी बवेरिया के देहाती इलाके से गुजर रही थी ।

उनके पलायन के दूसरे दिन यानी 6 जनवरी को सुबह नौ बजे गाड़ी उल्म पहुँच गई। वे टिकट खिड़की पर पहुँचे। मारटिन ने बड़े शांत भाव से टिकट देनेवाली लड़की से सिंजन और स्विस सीमांत के लिए दो टिकट माँगे । वह गुर्राई । जॉन का दिल बैठने लगा। उसने कागज पत्र माँगे। उन्होंने दिखला दिए। उसे संतोष नहीं हुआ । झटपट सिपाही बुला लाई । सिपाही ने एक बार तो उन्हें छोड़ दिया, पर दूसरे ही क्षण उन्हें बुलाकर जर्मन रेलवे पुलिस के लेफ्टिनेंट के पास ले गया। उसने भी उनके जाली दस्तावेजों को देखा, पर उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ा। उसने उन्हें श्रम कार्यालय भेज दिया।

वे आगे-आगे चल रहे थे और हाथ में रिवाल्वर लिये हुए एक सिपाही उनके पीछे-पीछे। थोड़ी दूर चलने पर मारटिन ने खामोशी तोड़ी। उसने बढ़िया जर्मन भाषा में उल्म नगर का मार्मिक चित्रण किया, जिसे सुनकर सिपाही बहुत खुश हुआ।

श्रम कार्यालय आते ही सिपाही उन्हें ऊपर जाने का आदेश देकर संतरी से बात करने लगा। वे ऊपर गए और दूसरे जीने से नीचे उतरकर पीछे के रास्ते से उल्म की गलियों में पहुँच गए।

मारटिन ने किताबों की एक छोटी दुकान से आसपास के इलाके का नक्शा खरीदा। उसी के आधार पर वे लौपहीम नगर की ओर तेजी से बढ़ चले। वहाँ पहुँचे तो शाम हो चुकी थी। स्टेशन पर पहुँचकर स्टोकाक तक के टिकट लिये। यह गाँव स्विस सीमा के बिल्कुल पास था। गाड़ी आते ही एक डब्बे में घुस गए। वे इतने थके हुए थे कि गाड़ी चलने का इंतजार भी नहीं किया और तत्काल सो गए। फुलनडर्फ का छोटा स्टेशन नींद में ही गुजर गया और लगभग नौ बजे वे स्टोकाक पहुँच गए।

स्टोकाक के स्टेशन मास्टर ने उनकी ओर शक-भरी नजरों से देखा । मगर उसकी परवाह न करते हुए वे सीमा से लगे हुए सिंजन नगर की ओर पैदल ही चल पड़े। जब वहाँ पहुँचे तो चाँद डूब चुका था और सीमांत प्रदेश अँधेरे की चादर में लिपट गया था।

सड़क जंगल के बीच से होती हुई उन्हें ऊँचाई की ओर ले जा रही थी। सड़क के दोनों ओर बर्फ की चादर बिछी हुई थी। वे लगातार बढ़ते जा रहे थे। रात को दो बजे वे ऐसे स्थान पर पहुँचे, जहाँ से सड़क नीचे सिंजन नगर की ओर जाती थी ।

वे ढलान में उतरते जा रहे थे। मगर उनकी मंजिल अब भी उनसे दूर थी । 8 जनवरी को सवेरे पाँच बजे सिंजन की रोशनियाँ दूर से दिखाई देने लगी थीं।

अचानक चार लकड़हारे सामने आ निकले। एक बोला, “क्या तुम दोनों पोलैंडवासी हो?”

"हाँ, " मारटिन ने जवाब दिया।

"नहीं, यह बिल्कुल नहीं हो सकता," दूसरा बोला।

जॉन की तो घिग्घी बँध गई। पैर मन-मन-भर के हो गए। सोचने लगा, 'देखो, इतनी दूर तो किसी तरह निकल आए, क्या अब पकड़े जाएँगे?'

जॉन ने मारटिन की ओर देखा । उसने इशारे से समझाया कि अब तो भाग जाने में ही भलाई है। और दोनों इतनी तेजी से दौड़े कि लकड़हारे उन्हें देखते ही रह गए । दौड़ते-दौड़ते उनकी साँस फूल गई थी। इतनी तेज सर्दी में भी पसीना आने लगा था। पैर जवाब देने ही लगे थे कि सामने एक छोटा-सा घर दिखाई दिया, जिसके सब दरवाजे बंद थे, सिर्फ एक खिड़की खुली थी।

दोनों खिड़की के रास्ते घर में घुसे। चक्कर लगाया । वहाँ कोई व्यक्ति नहीं था। कमरे में एक पलंग बिछा था। आव देखा न ताव, दोनों उसी पर लेट गए। पास पड़ा एक पुराना कंबल ओढ़ लिया और घोड़े बेचकर सो गए। जब उठे तो तीसरा पहर हो चुका था । इस बीच काफी बर्फ गिर चुकी थी। उनके पैरों के निशान बर्फ से ढक गए थे। इसलिए डरने की कोई बात नहीं थी ।

वे रसोईघर में घुसे । खाने को तो कुछ नहीं था, पर एक कोने में फावड़े व बेलचे पड़े थे और किवाड़ के पीछे दो सफेद लंबे कोट लटके हुए थे। जाहिर था कि यह घर किसी मधुमक्खियाँ पालनेवाले का था ।

उन्होंने अपना नक्शा खोला। वे एक जंगल के बीच में थे, जहाँ से सिंजन नगर दो-तीन मील दूर था | सिंजन के पश्चिम-दक्षिण की ओर जंगलों के बीच से सड़क व रेललाइन थी, जो स्विट्जरलैंड में शाफहासन तक ले जाती थी ।

8 जनवरी की शाम को पाँच बजे उन्होंने अपने कंधों पर फावड़े उठाए और बगल में दोनों कोट दबाकर सिंजन की ओर रवाना हो गए।

कोई एक मील चले होंगे कि उन्होंने एक बाइसिकल की रोशनी को अपनी ओर बढ़ते देखा । अचानक आवाज आई, "रुक जाओ! "

बाइसिकल की रोशनी में उन्होंने देखा कि 'हिटलर युवा बल' की वरदी में दो युवक लाठी लिये हुए सामने खड़े थे। जॉन उनसे बिल्कुल नहीं घबराया। सोने से थकान मिट चुकी थी । एक युवक बोला, "तुम लोग कौन हो? कहाँ जा रहे हो?'

मारटिन ने कहा, "हम वेस्टफेलिया के निवासी हैं। सिंजन में अपने घर लौट रहे हैं। "

मगर उनको शक हो गया। उन्होंने कहा, "दो ब्रिटिश कैदी फरार हो गए हैं। हम उन्हीं की तलाश में हैं। शायद तुम लोग..."

मारटिन जब उनसे उलझ रहा था तो जॉन के दिमाग में एक ही बात आ रही थी कि ये दोनों लड़के ही उनकी आजादी में बाधक हो सकते हैं।

जॉन ने मारटिन को इशारा किया और दोनों ने अपने फावड़े से उनको मौत के घाट उतार दिया।

वे रात के अँधेरे में सिंजन नगर को आसानी से पार कर गए और अपने दिशासूचक यंत्र की सहायता से सीमा की ओर बढ़ने लगे।

9 जनवरी को तड़के दो बजे वे शाफहासन की सीमा चौकी के पास पहुँच गए। ठंडी सुहावनी रात थी। पूरनमासी का चाँद अपनी चाँदनी बिखेर रहा था। उन्होंने मधुमक्खी पालकों के कोट पहने, ताकि उन्हें कोई पहचान न सके। सामने बड़ी सड़क थी, जिसपर दौड़ती हुई मोटरकारों की रोशनियाँ दिखाई दे रही थीं।

दोनों सड़क के पास खड्डे में दुबककर बैठ गए। उनसे सिर्फ चालीस गज की दूरी पर संतरी पहरा दे रहा था। यहाँ उन्होंने अपनी बची हुई चॉकलेट खाई और ऊपर से कुछ बर्फ निगल गए।

चाँद काले बादलों में छिप गया था और तेज हवाओं के कारण सर्दी बढ़ गई थी। जर्मन संतरी ने सर्दी से परेशान होकर अपने ओवरकोट के बटन ऊपर से नीचे तक बंद कर लिये थे और सीमांत नाके के पास चक्कर लगा रहा था ।

उनके सामने सड़क के उस पार बर्फ का सपाट मैदान था, जो दूर-दूर तक पेड़ों से घिरा हुआ था। यही वह मध्यवर्ती क्षेत्र था, जिसपर जर्मनी या स्विट्जरलैंड किसी का कोई अधिकार नहीं था। और इसके उस पार आजादी थी, जिसे उन्हें प्राप्त करना था ।

सवेरे साढ़े चार बजे संतरी उन लोगों से काफी दूर चला गया था। उसकी पदचाप सुनाई देनी बंद हो गई थी।

"अब क्या विचार है?" मारटिन ने कहा ।

"बस, यही मौका है।" जॉन फुसफुसाया।

दोनों हाथों-घुटनों के बल बच्चे की तरह रेंगते हुए खड्डे से बाहर आए और इसी तरह सड़क तथा मैदान को पार करते हुए स्विट्जरलैंड में घुस गए। अब वे पूरी तरह आजाद थे।

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