मौत आखिर टली : लोक-कथा (मध्य प्रदेश)

Maut Aakhir Tali : Lok-Katha (Madhya Pradesh)

मालवा के राजा विक्रम रोज आधी रात में भेष बदलकर अपनी प्रजा का दुख-सुख जानने के लिए निकल जाया करते थे। वे अपनी प्रजा को हमेशा सुखी देखना चाहते थे।

एक रात वे घूमते-घूमते गरीबों की बस्ती में जा पहुँचे। अचानक उन्हें किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनाई दी। उन्होंने सोचा कि जरूर कोई बहुत दुखी है जो इस अँधियारी रात में रो रही है। वे झट उसी तरफ मुड़ गए। थोड़ा आगे बढ़ने पर उन्हें एक झोपड़ी दिखाई दी। पास जाने पर उन्होंने देखा कि एक झोपड़ी में दो बूढ़ी औरतें माथे पर हाथ रखे रो रही हैं। राजा ने भीतर जाकर उनसे पूछा, “माताजी, तुम्हें ऐसा कौन-सा दुख है कि इस तरह आधी रात में रो रही हो?"

एक बूढ़ी औरत ने सिर उठाकर कहा, “बेटा, हमें कोई दुख नहीं, यहाँ तो विक्रम सरीखा राजा का राज है। इस राज में भला कौन दुखी हो सकता है?"

राजा बूढ़ी औरत की बात सुन अचरज में पड़ गए। उन्होंने पूछा, "तो फिर तुम दोनों रो क्यों रही हो?"

इसपर औरत बोली, "बेटा, हम रोएँ नहीं तो और क्या करें? हमारा ऐसा प्रजापालक राजा विक्रम आज मर जाएगा। तब तो हम अनाथ हो जाएँगे।"

इतना कहने के बाद दोनों फिर रोने लगीं। राजा गरीब से गरीब प्रजा का अपने प्रति ऐसा प्रेम देखकर गदगद हो उठे। उन्होंने उन औरतों से पूछा, “क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे राजा की मौत टल जाए?"

औरत बोली, "बेटा, विधना माता ने जो माथे पर लिख दिया है वह भला कभी मिटता है? मगर देखो, राजा अगर इन चार बातों पर अमल करे तो शायद बच जाए।"

भेष बदले हुए राजा विक्रम ने पूछा, “वे चार बातें कौन-सी हैं माताजी?"

बूढ़ी औरत बोली, “सुन बेटा, चार बातें ये हैं-नमकीन भोजन नहीं, रात में सोना नहीं, नाते-रिश्ते दूर, बैरी का आदर-सत्कार । राजा को इन्हीं बातों पर अमल करते हुए रहना है। समझ गए ना बेटा?"

राजा ने कहा, “हाँ माताजी, मैं अच्छी तरह समझ गया।" इतना कहने के बाद उन्होंने दोनों बूढ़ी औरतों को धीरज बँधाया और राजमहल लौट गए।"

राजा ने महल में प्रवेश करते ही छत्तीस तरह के पकवान बनवाए और बत्तीस तरह की साग-भाजी भी तैयार करवाई, मगर किसी में भी नमक नहीं डलवाया। पूरे महल को जल्दी-जल्दी अच्छी तरह सजाया गया। पूरा महल प्रकाश से जगमगाने लगा। राजा ने अपने सभी नातेरिश्तेदारों को दूर भेज दिया और नगर के द्वार को खुला ही छोड़ दिया।

आधी रात जब बीत गई तब ठीक उसी समय विधना माता धम-धम करती आ गईं। राजा उनका स्वागत करने के लिए तैयार थे। उन्होंने बड़े आदर से विधना माता का स्वागत किया और उनके पैर छूकर प्रणाम किया। उनको आसन पर बिठाकर हीरे-मोती जड़ा शाल ओड़ा दिया।

ऐसा स्वागत देखकर विधना माता चकित रह गई। उन्होंने कहा, “राजा विक्रम, मैं तो तुझे लेने आई हूँ।"

राजा विक्रम हाथ जोड़कर बोला, “मैं हाजिर हूँ माताजी, आपके साथ चलूँगा ही, मगर मेरी एक विनती है, आप पहले भोजन कर लें, फिर हम चले चलेंगे।"

विधना माता भोजन करने के लिए राजी हो गईं। राजा ने उनके लिए छत्तीस तरह के पकवान और बत्तीस तरह की साग-भाजी तैयार करवाई थी। वह सब उनके सामने परोस दिया। विधना माता ने सारी चीजें चखीं। नमक बिना वे फीकी लगी। विधना माता सारी बातें समझ गईं। वे मुस्कुराते हुए बोली, "जरा नमक तो ले आ।" राजा ने नमक भी उनके सामने रख दिया। माता ने बड़े प्रेम से भोजन किया।

खाने-पीने के बाद विधना माता बोली, "राजा, तूने तो अपनी खातिरदारी से मेरा हृदय जीत लिया। मैंने तेरी जान बख्श दी। भोजन में नमक का जो स्थान होता है वही स्थान इस राज्य में तेरा है। तेरे बिना यह राज्य बिना नमक के भोजन की तरह हो जाएगा। अब तू बेखटके राज कर और अपनी प्रजा को सुख दे।"

इतना कहकर विधना माता छम-छम करती वापस चली गईं। मगर जाते-जाते राजकुमार को साथ लेती गई।

स्वर्ग में चित्रगुप्त ने जब उस राजकुमार को देखा तो बोला, “यह , तो विक्रम का बेटा है! लाना तो राजा को था। इस राजकुमार का समय तो अभी नहीं आया। इसको पृथ्वी पर वापस भेज दें।"

उसी समय पृथ्वी पर राजकुमार जी उठा। उसने सबको स्वर्ग का हाल बता दिया। राजा का काल टल गया था। यह जानकर प्रजा बहुत आनंदित हुई और राजा की जय-जयकार करने लगे।

दोनों बूढ़ी औरतें भी राजा की मौत टल जाने पर राजा को बधाई देने के लिए महल पहुँच गईं। राजा को देखते ही वे पहचान गई। बूढ़ी औरत दूसरी बूढ़ी के कान में फुसफसाई, “अरे उस रात जो हमारी झोपड़ी में आया था, वह तो हमारा राजा ही था।" राजा विक्रम भी उन दोनों को पहचान गए थे। उन्होंने हँसते हुए दोनों को ढेर सारा इनाम देकर उन्हें विदा किया।

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