माता की वेदना : तिब्बती लोक-कथा

Mata Ki Vedna : Tibetan Folk Tale

पूरी दुनिया के लोग किसी न किसी प्रकार की पावन एवं पवित्र वस्तु मंदिर पहाड़ एवं नदियों की परिक्रमा करते हैं। यह सृष्टि के रचियता की आराधना एवं उसका सत्कार करने का एक प्राचीन तरीका है। तिब्बती भाषा में किसी स्तूप, मूर्ति, नदी और पर्वत की परिक्रमा को कोरा कहा जाता है।

तिब्बत के स्वायत प्रांत के न्गारी अंचल में खांग रिम्पोचे नाम का पवित्र पर्वत स्थित है जो किसी भी व्यक्ति की स्मृति से कहीं पुराना पवित्र स्थल है। विभिन्न धर्मों को मानने वाले इस पर्वत की परिक्रमा करने के लिए यहां की यात्रा करते हैं जिसे कैलास और मेरू पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। यह पावन पर्वत हिंदुओं, बौद्धों, सिखों, जैनियों, बोनपो और भी कई धार्मिक परम्परा को मानने वाले लोगों के लिए समान रूप से आदरणीय है। बोन लोग यह कोरा घड़ी की सुई की विपरीत दिशा में करते हैं जबकि बाकी लोग घड़ी की सुई की दिशा में करते हैं। बौद्धों की यह मान्यता है कि खांग रिम्पोचे के तेरह कोरा करने से अधिक पुण्य प्राप्त होता है। आखिर यह मान्यता कैसे प्रारम्भ हुई।

तिब्बत के पूर्व में स्थित खाम प्रदेश में एक धार्मिक एवं तपस्वी औरत रहती थी जिसने एक पुत्र को जन्म दिया था। वह पुण्य प्रापत करने की अभिलाषा से अभिभूत थी। उसने मन ही मन सोचा, ‘कहते हैं कि खांग रिम्पोचे का कोरा करने से सर्वाधिक पुण्य प्राप्ति होती है अतः मैं अपने पुत्र को साथ लेकर जाऊंगी ताकि हम दोनों को ही पुण्य प्राप्ति हो और हमें भगवान का आर्शीवाद मिले।

अपने परिवार वालों ओर मित्रों को प्रणाम करके वह निकल पड़ी और कई महीनों तक अपने पुत्र के साथ चलती रही। उन लोगों को ठंडे व सूखे मरुस्थलीय और घने घास के मैदानों को पार करना था जहां जंगली गधे झुंडों में दौड़ते थे। वहां काली गर्दन वाले सारस का समूह आसमान में कुड़कुड़ाता रहता था और हिरण घुटनों तक ऊंची-ऊंची घास पर छलांग लगाते थे। उन्हें अपनी यात्रा के दौरान कभी-कभी राह में मुस्कराते हुए और मंत्रों का जाप करते हुए कई धमयात्री भी मिले। बोन ऊं मा त्री मू ये सा ले दू का जाप करते थे और बौद्ध ऊं मणी पद्मे हुं का जाप करते थे। हिमालय के दक्षिणी भाग से आए हुए हिंदु सन्यासी ऊं नमः शिवाय का जाप करते थे। किसी-किसी दिन उन मां-पुत्र को मैदानों में तेज गति से भागते जंगली कुत्तों के अलावा कोई नजर नहीं आता था।

कई महीनों पश्चात आखिरकार वे दोनों खांग रिम्पोचे पहुंच ही गए। माता ने अपने पुत्र को अपनी पीठ पर दुशाला में सुरक्षापूर्ण तरीके से बांधा और अपना कोरा प्रारम्भ किया। जैसे ही वह पहाड़ पर पहुंची तो उसे भूख व प्यास का अनुभव होने लगा परन्तु वह जानती थी कि द्रोल्मा मार्ग कोरा के लिए सबसे ऊंचा स्थान था, अतः उसकी चढ़ाई सम्पन्न करने के पश्चात उसे सांस लेने व सुस्ताने के लिए पहाड़ के दूसरी तरफ आसानी होगी।

अपने पुत्र को अपने सीने से चिपकाकर वह अपनी हर सांस के साथ ओम् मानी पद्मे हम का जाप करती रही और अपनी चढ़ाई को आगे बढ़ाते रही। अंततः उसने द्रोल्मा पास की चढ़ाई सम्पन्न की और अपनी प्रार्थना व धन्यवाद अर्पित किया। उसे बहुत प्यास लग रही थी परंतु वहां पीने के लिए पानी नहीं था और उसके आसपास जमा बर्फ की पतली परत कीचड़ से लथपथ थी। उसे उस जगह से नीचे देखने पर कुछ छोटे तालाब दिखाई दे रहे थे परंतु वे उस रास्ते से लगभग पचास मीटर दूर थे।

माता जानती थी कि ये तालाब डाकिनी के स्नान करने के लिए बने तालाब है। डाकिनी एक देवी थी जिसका स्वभाव अच्छे लोगों के लिए बहुत अच्छा और बुरे लोगों के प्रति क्रोधित होता था। हिंदू उसी तालाब को गौरी जो कि भगवान शिव की पत्नी हैं, के नहाने का कुंड कहते हैं। तिब्बत में डाकिनी को खादरोमा के नाम से जाना जाता है। धर्मशास्त्र आए प्यासे श्रद्धालु ये जानते थे कि किसी के भी द्वारा डाकिनी के घर की शांति को भंग करना डाकिनी को बिल्कुल नहीं भाता था। परंतु अपनी प्यास को सहन कर पाने में असमर्थ वह माता अपने आप को रोक नहीं पायी और तालाब के पास नीचे की ओर उतर कर आई एवं पानी पीने के लिए नीचे झुकी।

उसे इतनी अधिक प्यास लगी थी कि वह तालाब में नीचे झुक कर पानी पीने लगी। अचानक ही उसका पुत्र जिसे उसने अपनी दुशाला की सहायता से अपनी पीठ पर बांध रखा था वह फिसल कर तालाब के बर्फ जितने ठंडे पानी में जा गिरा।

‘नहीं, नहीं, नहीं, नहीं! वह चिल्लाई। उसने घबराते हुए तेजी से अपने पुत्र को बाहर खींचने का प्रयास किया परंतु तालाब के अत्यंत ठंडे पानी के कारण उस बच्चे की मृत्यु हो गयी।

उस माता का हृदय शोक में डूब गया। वह अपने चेहरे को नोचने लगी और अपनी छाती पीटते हुए बिलख-बिलख कर रोने लगी। अपने बालों में मिट्टी में डालकर वो विलाप करते हुए भगवान से अपने पुत्र को पुनर्जीवित करने की विनती करने लगी। परंतु देवताओं ने उसे पुनर्जीवित नहीं किया। तत्पश्चात उसने अपने पुत्र को कस कर अपने सीने से लगा लिया परंतु उसके हृदय की धड़कन भी उसके पुत्र के हृदय की धड़कन को ना जगा पाई। माता के आंसुओं को गरम धार उस बच्चे के चेहरे पर पड़ रही थी परंतु फिर भी उसके शरीर में ताप उत्पन्न नहीं हुआ।

खांग रिंपोचे की परिक्रमा के फलस्वरूप मिलने वाले पुण्य को अर्जित करने वह वहां आयी थी परंतु एक ही क्षण की लापरवाही ने उससे उसका सब कुछ छीन लिया था। एक पुत्र की मृत्यु का कारण उसकी मांग हो इससे बड़ा अपराधबोध किसी मां के लिए और क्या हो सकता है।

पूरी रात वह औरत अपने बच्चे के शोक में रोती रही व विलाप करती रही। सुबह के समय जब रो-रो के उसका गला दर्द करने लगा व उसकी आंखों के आंसू सूखने लगे तब पश्चाताप करने के उद्देश्य से उसने निर्णल लिया कि उसे अपना कोरा पूरा करना चाहिए ताकि उसके द्वारा घटित पाप का पश्चाताप हो सके। वह पर्वत के आगे प्रार्थना करने लगी, ‘ओ खांग रिम्पोचे! मैं तुमसे अनुरोध करती हूं मेरे पापों को क्षमा कर दो और इस असहनीय विपत्ति से मुझे बचा लो। जब तक मुझे ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि तुमने मुझे क्षमा कर दिया है, मैं तुम्हारे चारों ओर यूं ही चक्कर लगाती रहूंगी। अब या तो मुझे पूर्ण रूप से पाप से मुक्ति नहीं तो मृत्यु ही अब मुझे यहां से दूर कर सकती है।

अतः अपने हृदय के बोझ को हल्का करने हेतु उसने कोरा करना आरम्भ किया। उसने प्रार्थना करते हुए पूर्व तीर्थ यात्रियों के स्वयं के शरीर द्वारा मापित बावन किलोमीटर की लम्बाई वाला रास्ता पार किया। गुफाओं में योग और साधना करने वाले लम्बे बालों वाले सन्यासियों को पीछे छोड़ते हुए वह अपनी यात्रा पर आगे बढ़ती रही। उसने किसी से भी खाने या पीने के लिए कुछ नहीं मांगा। जब-जब वह द्रोल्मा पास पर चढ़ाई करती थी तब तब वह अभिलाषा एवं तृष्णा भरी आंखों से उस तालाब की ओर देखती थी जहां उसने अपने पुत्र को खोया था।

उसने सात, दस, बारह कोरा सम्पन्न किए परंतु अभी भी अपराध बोध से मुक्ति के कोई संकेत नहीं मिल रहे थे। उसने सभी पवित्र पर्वतों की परिक्रमा की परंतु अपने तेरहवें कोरा तक वह थक कर चूर हो चुकी थी और खुली आंखों से एक और कदम आगे बढ़ा पाने में असमर्थ थी। अतः वह झपकी लेने के लिए वहीं पास एक चट्टान पर लेट गयी।

जब उसकी आंख खुली तो उसने पाया की जिस चट्टान पर वह लेटी थी वहां उसके हाथ, पैर और शरीर के गहरे निशान बने हुए थे। उसे समझते देर ना लगी कि खांग रिम्पोचे ने उसे क्षमा कर दिया था और उसके दुःख व विषाद को दूर कर दिया था। चट्टान पर बने निशान इस बात के सूचक थे। उसने पर्वत को प्रणाम किया और नए सिरे से जीवन की शुरूआत करने के उद्देश्य से अपने गांव आमदो की ओर रवाना हुई।

जो भी तीर्थयात्री खांग रिम्पोचे अथवा कैलास पर्वती की यात्रा पर जाते है वे अभी भी हाथ पैरों के निशान उस चट्टान पर देख सकते हैं जो कि उस माता के हैं जिसने अपने पुत्र को खो दिया था और उसी दुःख में उसने तेरहवां कोरा किया था। चट्टान पर बने निशानों के कारण ही बौद्ध लोगों की यह मान्यता है यदि तेरहवां कोरा दक्षिणावर्त दिशा में किया जाए तो उसके परिणामस्वरूप अधिक पुण्य प्राप्त हो। (चंद्रेशा पाण्डेय)

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