मरना एक मामूली आदमी का (निबंध) : केदारनाथ सिंह

Marna Ek Mamuli Aadmi Ka (Hindi Nibandh) : Kedarnath Singh

आज एक चिट्ठी आई, जिससे मालूम हुआ-जगन्नाथ नहीं रहा। आप उसे नहीं जानते । जानने का कोई कारण भी नहीं है। अगर कोई परिचय देना ही हो तो कहूँगा - वह भारत की भीड़ का सबसे अन्तिम नागरिक था जिसे शास्त्र की भाषा में अन्त्यज कहा जाता है। मैं ठीक-ठाक कारण तो नहीं बता सकता, पर इस 'शास्त्र' शब्द से मुझे डर लगता है - शायद इसलिए कि उसमें एक शासक की-सी ध्वनि है। जगन्नाथ की यह खुशकिस्मती थी कि वह शास्त्र-पुराण से बिल्कुल अछूता था। इसलिए बेलाग और निर्भय था और अपने हजार दुखों के बीच भी गर्दन झुकाकर नहीं चलता था। और वह मर गया। पर यहाँ एक छोटी-सी भूल-सुधार कर लूँ। मैं जिसे जगन्नाथ कह रहा हूँ, वह गाँव के लोगों की जबान पर असल में 'जगरनाथ' था यानी तत्सम से गिरा हुआ एक धूलसना तद्भव। आगे मैं उसे इसी नाम से पुकारूँगा। हमारी भाषा में वर्ण व्यवस्था की जड़ें किस तरह घुसी हुई हैं, इस पर प्रायः विचार नहीं किया गया है। कभी किया जाएगा तो 'जगरनाथ' जैसे असंख्य मामूली जनों के नामों के भीतर से एक ऐसी दुनिया झाँकती दिखाई पड़ेगी, जिसका सामना करने के लिए अतिरिक्त साहस की जरूरत होगी ।

अब कुछ बातें उस व्यक्ति के बारे में जो कि जगरनाथ था। वह मेरा बचपन का मित्र था । यह मित्रता तब तक कायम रही, जब तक हम बाग-बगीचों में खेलते रहे । पर मुझे याद है कि जिस दिन मैंने गाँव की पाठशाला में प्रवेश किया उसी दिन हमारे रास्ते अलग हो गए। जगरनाथ तो वहीं बाग-बगीचों में छूट गया और मैं स्कूल से कॉलेज और कॉलेज से विश्वविद्यालय के गलियारों में आ गया। मैं आज भी इस प्रश्न का उत्तर खोजने में अपने को असमर्थ पाता हूँ कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था क्या उस प्रक्रिया का नाम है जो आदमी को आदमी से और अन्ततः स्वयं को स्वयं से अलग करती है। बहरहाल, जो भी हो, एक बार कच्ची उम्र में ही जगरनाथ ने जो हल की मूठ पकड़ी तो फिर जीवन-भर वह उसके हाथ से न छूटी। और फिर एक दिन उसने चुपचाप दम तोड़ दिया और यह कोई खबर नहीं थी, जिसे कोई अखबार छापे। इस देश के मानस के सबसे बड़े व्याख्याता कालिदास कह गए हैं कि मरना प्रकृति है और जो प्रकृति है वह बस है और उसके लिए किसी से गिला शिकवा क्या ? पर चूँकि मैं उस जगरनाथ नामधारी जन को निकट से जानता हूँ, इसलिए उसके जीवन के नेपथ्य में जिस त्रासदी का पूर्वाभ्यास बरसों से चल रहा था, उसे भी थोड़ा-बहुत जानता हूँ। इस समय जबकि ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, उस त्रासदी के कई देखे - अनदेखे दृश्य मेरी आँखों के सामने घूम रहे हैं। बाकी बातें छोड़कर उनमें से सिर्फ कुछ का यहाँ जिक्र करना चाहूँगा ।

कोई सात-आठ साल पहले की बात है। बड़े दिन की छुट्टियों में गाँव गया तो बाहर सिवान पर ही जगरनाथ से भेंट हो गई । दुआ सलाम के बाद मैंने साग्रह उससे कहा कि फुर्सत हो तो कल सुबह मेरे घर आ जाए। आग्रह का यह स्वर उसे अटपटा लगा - शायद थोड़ा अविश्वसनीय भी। फिर भी वह आया । आते ही कहा- 'बताइए, क्या काम है ?' मैंने कहा 'भाई, किसी काम से नहीं, बस यों ही बुला लिया था।' मैंने देखा, उसके चेहरे पर अविश्वास का वह साँवला रंग थोड़ा और गहरा हो गया - जैसे उसकी आँखें कह रही हों, 'मुझे तो जब भी कहीं बुलाया जाता है, हमेशा किसी काम से बुलाया जाता है। यह यों ही बुलाना क्या हुआ ?' वह अनमना सा बैठा रहा। कुछ देर घर-बार की बातें होती रहीं—जैसे उसका बेटा विक्षिप्त हो गया है, कुछ दिनों पहले उसकी बकरी मर गई और यह कि उसके पेट में एक ऐसा दर्द अक्सर उठता है, जिसका कोई इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं । मैं चुपचाप सुनता रहा और भीतर कहीं क्षत-विक्षत होता रहा। फिर वह उठा और चला गया। यह वह जगरनाथ नहीं था, जिसे मैं बरसों से जानता था। मैंने देखा, जब वह जा रहा था तो उसकी खुरपी उसके हाथ में थी - उसके जीवन-संग्राम का वह हथियार, जिससे वह दुखों से लड़ता था ।

एक और भेंट याद आ रही है, जिसमें उसका एक बिल्कुल अलग चेहरा मैंने देखा था। उसके सिर पर घास का गट्ठर था और बगल में उसकी बकरी। उसने गट्ठर एक तरफ रख दिया और पूछा- 'भैया सुना है, आप गाना बनाते हैं, कविता लिखते हैं - यह पूछने का कोई दूसरा ढंग उसके पास था भी नहीं। फिर उसने आग्रह किया कि कभी मैं उसे कुछ सुनाऊँ। मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। असल में कोई उत्तर मेरे पास था भी नहीं। पहली बार एक जीते-जागते आदमी के सामने एक अपराधी की तरह मैं खड़ा था - अपनी सारी कविताई और अपने सारे आधुनिक सौंदर्य-बोध के साथ। उस अपराध-बोध से आज तक उबर नहीं पाया हूँ। मेरा खयाल है कि हमारे समय के अधिकांश श्रेष्ठ लेखन को, उसके ऊपर का छिलका उतारकर देखा जाए तो उसके नीचे इस अपराध-बोध के एक-आध रेशे जरूर दिखाई पड़ेंगे।

पर उससे जो अन्तिम भेंट हुई, उसकी स्मृति अधिक पीड़ादायक है। वह अपने घर, जो कि असल में एक झोंपड़ी थी, के सामने बैठा था। मैंने देखा - वह बहुत दुर्बल हो गया था - लगभग अपनी हड्डियों में चिपका हुआ। पूछने पर पता चला, उसके पेट का वह रहस्यमय दर्द इधर और बढ़ गया है और यह कि डॉक्टर जो दवा बताता है, उसे खरीदना उसके बस के बाहर है। दवाएँ महँगी हो गई हैं और निरन्तर और महँगी होती जा रही हैं, यह मैं जानता था । पर जिस तथाकथित उदारीकरण का यह परिणाम था, उसे उसको समझा सकूँ - मुझे लगा, ऐसी भाषा मेरे पास नहीं है।

हमारी भाषा एक ठेठ आदमी के सामने इतनी लाचार क्यों हो जाती है, इस पर अलग से सोचने की जरूरत है । पर उस दिन उस जर्जर अवस्था में भी उस आदमी में मैंने एक अद्भुत चुहल देखी। वह वोट का समय था । बोला- 'भैया, वोट तो चोट है, इसलिए मैंने आज तक वोट दिया ही नहीं। फिर वह अपना पेट सहलाने लगा, जहाँ दर्द शायद तेज हो गया था। थोड़ा-बहुत जो उस समय किया जा सकता था, मैंने किया और उसे उसके रहस्यमय दर्द के साथ वहीं छोड़कर दिल्ली आ गया ।

और अब मेरे हाथ में वह चिट्ठी है, जिसमें लिखा है कि जगरनाथ नहीं रहा । ब्रह्म की तरह उसका दर्द अन्त तक रहस्यमय ही बना रहा। यह लिखते समय मेरे सामने आज का अखबार है। प्रथम पृष्ठ पर एक खबर है कि प्रधानमन्त्री के इलाज के लिए अमरीका से एक डॉक्टर को बुलाया जा रहा है। मुझे लगा, हमारे जनतन्त्र के ये दो छोर हैं। एक ओर जगरनाथ था, जिसके दर्द को अन्त तक नहीं पहचाना जा सका, इसलिए वह 'रहस्यमय' था ।

दूसरी ओर सत्ता के सर्वोत्तम आसन पर विराजमान एक व्यक्ति है, जिसके दर्द की पहचान के लिए सात समुन्दर पार से डॉक्टर बुलाया जा सकता है। बेशक जो प्रधानमन्त्री है, उसकी रक्षा जरूरी है। पर जो गौण है- इतना गौण कि दिखाई भी नहीं पड़ता, उसकी रक्षा कौन करेगा ? जाहिर है, उसे इलाज के लिए लन्दन या अमरीका नहीं भेजा जा सकता। पर अपने देश में जो चिकित्सा - सुविधा सुलभ है, वह उसे मिल सके, इसकी गारंटी क्यों नहीं दी जा सकती ? जगरनाथ का वह रहस्यमय दर्द, जो अन्त तक रहस्य बना रहा, हमारी सारी व्यवस्था पर एक सख्त टिप्पणी है और शायद यह भयावह संकेत भी कि रहस्यवाद साहित्य में चाहे पुराना पड़ चुका हो, किसी चोर दरवाजे से मानो जीवन में लौट रहा है।

('कब्रिस्तान में पंचायत' में से)

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