मरे शेर का दाँत : आदिवासी लोक-कथा
Mare Sher Ka Daant : Adivasi Lok-Katha
सुकमा भू-भाग के एकदम आख़िरी सिरे पर एक छोटा-सा गाँव था। उस गाँव में भादू नाम का एक आदमी रहता था। भादू और उसकी पत्नी बाँस की टोकरियाँ बनाने का काम करते थे। पत्नी के गर्भवती होने पर भादू जंगल से बाँस लाने अकेले ही जाने लगा। वह जंगल से बाँस काट कर लाता और फिर अपने घर के आँगन में दोनों बैठकर टोकरियाँ बनाते। टोकरियाँ बन जाने पर भादू उन्हें ले जाकर हाट में बेंच आता।
भादू की पत्नी को गर्भ धारण किए नौ महीने से भी अधिक समय हो गया किंतु बच्चे का जन्म ही नहीं हुआ।
‘सुनो जी, मुझे गर्भ धारण किए नौ माह से ऊपर हो चले हैं किंतु प्रसव होने का नाम ही नहीं ले रहा है। तनिक गुनिया के पास जाकर इसका कारण तो पता करो।’ भादू की पत्नी ने एक दिन भादू से कहा।
‘ठीक है। मैं गुनिया से पूछ कर आता हूँ।’ भादू ने कहा।
भादू पत्नी के कहने पर गुनिया के पास पहुँचा। गुनिया ने भादू की समस्या ध्यान से सुनी और फिर मुर्गी के पंख से भूमि पर वृत्ताकार रेखा खींचते हुए कुछ देर चिंतन-मनन किया। भादू उत्सुकता से बैठा-बैठा गुनिया की ओर ताकता रहा। कुछ देर बाद गुनिया ने वृत्ताकार रेखाएँ खींचना बंद कर दिया।
‘आज से ठीक एक माह बाद तुम्हारी पत्नी एक पुत्र को जन्म देगी लेकिन...।’ गुनिया ने कहा।
‘लेकिन क्या, महाराज?’ भादू ने डरते-डरते पूछा।
‘लेकिन तुम्हारे होने वाले पुत्र पर एक शेर की छाया पड़ चुकी है। इसलिए जब तुम्हारा पुत्र युवा होकर विवाह करेगा और अपने लिए झोपड़ी बनाने के लिए बाँस काटने जंगल में जाएगा तब वह शेर तुम्हारे पुत्र को मार डालेगा।’ गुनिया ने कहा।
‘इस भविष्य को बदला नहीं जा सकता है क्या, महाराज? भादू ने गुनिया से पूछा।
‘डोंगर देव की इच्छा को कोई नहीं बदल सकता है। यह कहकर गुनिया ने अपनी आँखें बंद कर लीं और कोई मंत्रजाप करने लगा।
डोंगर देव उन लोगों के भगवान थे अत: भादू उनकी इच्छा को बदलने के बारे में कैसे कह सकता था? भादू ने गुनिया को प्रणाम किया और वापस अपने घर आ गया। उसने अपनी पत्नी को गुनिया की पूरी भविष्यवाणी नहीं बताई। उसने मात्र यही बताया कि महीना भर बाद उनकी संतान जन्म लेगी। यह जानकर भादू की पत्नी बहुत प्रसन्न हुई।
माह भर व्यतीत होते ही भादू की पत्नी को प्रवस-वेदना हुई और उसने एक सुंदर बालक को जन्म दिया। प्रत्येक शिशु जन्म लेते ही रोता है किंतु भादू का पुत्र जन्म लेते ही हँसने लगा। यह देखकर भादू को बड़ा आश्चर्य हुआ किंतु इसी बात पर उसने अपने पुत्र का नाम हँसवा रख दिया।
हँसवा बहुत तेज़ी से बढ़ने लगा। कुछ ही वर्षों में वह युवा हो गया। उसकी मूँछें निकल आईं। अपने पुत्र को युवा होते देखकर भादू की पत्नी ने भादू से कहा कि अब हँसवा का विवाह कर देना चाहिए।
‘सुनो जी, अब हमारा पुत्र युवा हो गया है। उसकी मूँछे भी निकल आईं हैं अत: अब हमें उसका विवाह कर देना चाहिए।’ भादू की पत्नी ने भादू से कहा।
‘तुम ठीक कहती हो। मैं आज ही हँसवा के योग्य कन्या ढूँढ़ना आरंभ करता हूँ।’ भादू ने पत्नी को उत्तर दिया। इसके बाद वह हँसवा के योग्य कन्या ढूँढ़ने निकल पड़ा।
शीघ्र ही उसे अपने गाँव में ही हँसवा के योग्य एक सुंदर कन्या मिल गई। भादू ने उस कन्या से हँसवा का विवाह करा दिया। हँसवा अपनी पत्नी सहित अपने माता-पिता के साथ एक ही झोपड़ी में रह रहा था। किंतु एक दिन हँसवा की पत्नी ने उससे कहा कि अब उन्हें अपने लिए एक अलग झोपड़ी बना लेनी चाहिए। हँसवा को भी अपनी पत्नी की बात उचित लगी। उसने अपने पिता से अलग झोपड़ी बनाने के लिए बाँस काटकर लाने की अनुमति माँगी।
हँसवा की बात सुनकर भादू को गुनिया की भविष्यवाणी याद आ गई।
‘बेटा, अलग झोपड़ी क्या करोगे? ये झोपड़ी भी तो तुम्हारी ही है।’ भादू ने कहा।
‘आप ठीक कहते हैं पिता जी, किंतु कल को मेरे बच्चे होंगे तो ये झोपड़ी छोटी पड़ने लगेगी। इसलिए मैं और मेरी पत्नी चाहते हैं कि हम इसी झोपड़ी की बग़ल में अपने लिए एक झोपड़ी बना लें।’ हँसवा ने कहा।
‘ठीक तो कह रहा है हँसवा।’ भादू की पत्नी ने हँसवा का समर्थन किया।
अब भादू अपने पुत्र की संभावित मृत्यु के बारे में अपनी पत्नी या अपने पुत्र को भला कैसे बताता? अत: उसने मन मारकर अपने पुत्र को बाँस काटने के लिए जंगल जाने की अनुमति दे दी।
‘लेकिन मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।’ भादू ने हँसवा से कहा। हँसवा को भला क्या आपत्ति होती? उसने अपने पिता को अपने साथ लिया और निकल पड़ा जंगल की ओर।
जंगल पहुँचकर हँसवा बाँस काटने लगा जबकि भादू बाँस काटने का बहाना करके झाड़ियों में छिप गया। अभी हँसवा ने दो-चार बाँस ही काटे थे कि वही शेर आ पहुँचा जिसकी छाया हँसवा पर पड़ने के बारे में गुनिया ने बताया था। शेर हँसवा की ओर लपका। उसी समय भादू झाड़ियों से बाहर निकल आया और उसने शेर के सिर पर कुल्हाड़ी से वार किया। कुल्हाड़ी की चोट से शेर मर गया। शेर को मरा हुआ देखकर भादू बहुत प्रसन्न हुआ। उसे लगा कि अब गुनिया की भविष्यवाणी का प्रभाव समाप्त हो गया। उसने अपने पुत्र को गले लगाया और उसे गुनिया की भविष्यवाणी के बारे में सच-सच बता दिया। हँसवा अपने पिता के प्रेम और साहस को देखकर बहुत प्रभावित हुआ।
पिता-पुत्र मरे हुए शेर को लेकर अपने गाँव पहुँचे। हँसवा ने अपने पिता के साहस के बारे में सबको बताया। साथ ही उसने गुनिया की भविष्यवाणी के बारे में भी सभी को जानकारी देते हुए कहा कि आख़िर मेरे पिता ने होनी को टाल दिया। गाँव में प्रसन्नता का वातावरण छा गया।
‘हँसवा, ये शेर तुम्हारे प्राण लेने वाला था लेकिन अब यह स्वयं मारा गया। अत: तुम्हें इसकी कोई निशानी स्मरण के लिए रखनी चाहिए।’ हँसवा के मित्र ने हँसवा से कहा।
हँसवा को यह बात जंच गई। उसने सोचा कि इस शेर के एक दाँत को ताबीज़ की भाँति पहनूँगा। यह विचार आते ही हँसवा ने मरे हुए शेर का मुँह खोला और उसके मुँह में हाथ डालकर उसका एक दाँत उखाड़ने का प्रयास करने लगा। उसी समय हँसवा का हाथ कुछ इस प्रकार फिसला कि शेर का एक दाँत उसकी कलाई में चुभ गया। दाँत कलाई में चुभते ही कलाई से रक्त बहने लगा और कुछ ही पलों में हँसवा के प्राण पखेरू उड़ गए।
अपने पुत्र की मृत्यु देखकर भादू बिलख उठा। वह समझ गया कि डोंगर-देन जो निर्धारित कर दें वह होकर रहता है। जिस शेर के द्वारा हँसवा की मृत्यु सुनिश्चत थी उस शेर के मर जाने पर भी उस मरे हुए शेर के दाँत ने हँसवा के प्राण ले लिए। कुछ समय बाद हँसवा की पत्नी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया जिसे भादू ने हँसवा का पुनर्जन्म मान लिया और उसका लालन-पालन करने लगा।
(साभार : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं, संपादक : शरद सिंह)