Manushyata Ka Akaal (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand

मनुष्यता का अकाल (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद

हिन्दू-मुस्लिम एकता के बारे में इस वक्त मुसलमान कौम के बड़े लोगों ने बार-बार की उत्तेजना के बावजूद जो अच्छी रविश अख्तियार की है, और जिस सूझ-बूझ और दूरंदेशी का सबूत दिया है उस पर हिन्दूओं को शर्मिंदा होना चाहिए। अब तक उन्हें यह दावा था कि स्वराज्य के लिए हम जितनी कुर्बानियाँ कर सकते हैं, उतनी मुस्लिम संप्रदाय नहीं करता। वह हिन्दुस्तान में रहकर , हिन्दुस्तान का दाना पानी खाकर अरब और अजम के सपने देखा करता है। उसे स्वराज्य की उतनी फिक्र नहीं है जितनी पैन-इसलाम की। एक बार जब मौलाना शौकत अली ने किसी खिलाफत के जलसे में कहा था कि अगर मुसलमान को किसी कौमी काम के लिए एक रुपया देना मंजूर हो, तो वह चौदह आने खिलाफत को दे और दो आने कांग्रेस को, इस कौल को हिन्दू अखबारों ने बड़े निष्ठुर ढंग से बहुत ज्यादा महत्त्व दिया और उसने अपनी बात को प्रमाण के रूप में पेश किया। इस कौल का तकाजा तो यह था कि हिन्दू महाशय अपने दिल में लज्जित होते कि एक मुसलमान को जो अपना सब कुछ भारतमाता की नजर कर चुका हो, इस तरह दोनों में भेद करने की जरूरत पड़ी क्योंकि जाहिर है कि अगर हिन्दुओं ने खिलाफत के मसले को महात्मा गांधी की व्यापक दृष्टि से देखा होता तो मौलाना साहब को यह बात कहने का कोई मौका ही न था। मगर सच्चाई यह है कि हिन्दुओं ने कभी खिलाफत के महत्त्व को ही नहीं समझा और न समझने की कोशिश की, बल्कि उसको संदेह की दृष्टि से देखते रहे। मगर अब जिसे न्याय की दृष्टि मिली हुई हो, वह चाहे तो देख सकता है कि वही व्यक्ति हिन्दू-मुस्लिम एकता को, जा दूसरे शब्दों में स्वराज्य है, कितना महत्त्वपूर्ण समझता है और उसके लिए कितनी बड़ी कुर्बानियाँ करने के लिए तैयार है। हिन्दू कौम कभी अपनी राजनीतिक उदारता के लिए मशहूर नहीं रही और इस मौके पर तो उसने जितनी संकीर्णता का परिचय दिया है, उससे मजबूरन इस नतीजे पर पहुँचना पड़ता है कि इस कौम का राजनीतिक दीवाला हो गया वर्ना कोई वजह न थी कि सारी हिन्दू कौम सामूहिक रूप से कुछ थोड़े से उन्मादग्रस्त तथाकथित देशभक्तों की प्रेरणा से इस तरह पागल हो जाती। हम कहते हैं कि अगर हिन्दुओं में एक भी किचलू, मुहम्मद अली या शौकत अली होता तो हिन्दु-संगठन और शुद्धि की इतनी गर्मबाजारी न होती और इन हंगामों में काफी कमी हो जाती जो इस वैमनस्य के कारण दिखाई पड़ते हैं। मगर अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि कांग्रेस ने भी समग्र रूप से इन आंदोलनों से अलग-अलग रहने के बावजूद व्यक्तिगत रूप से उसमे शामिल होने में कुछ भी उठा नहीं रवखा। इतना ही नहीं, एक भी जिम्मेदार कांग्रेस नेता ने ऐलान करके इन आंदोलनों के खिलाफ आवाज बुलंद करने का साहस नहीं किया। पंडित मोतीलाल नेहरू, पं जवाहरलाल नेहरू, लाला भगवानदास, लाला श्रीप्रकाश इन आदमियों में, जिनसे ज्यादा नैतिक साहस से काम लेने की आशा की जा सकती थी, मगर इन सभी लोगों ने एक रोज अपने विरोध और अपनी आशंका को व्यक्त करके दूसरे रोज उसका खंडन कर दिया और डंके की चोट पर यह कहा कि शुद्धि और संगठन के बारे में हमने जो खयाल जाहिर किया कि वह गलतफहमियों पर आधारित था। जब ऐसे-ऐसे लोग दबाव में आ जाएँ तो फिर इंसाफ की उम्मीद किससे की जाए। अगर मौलाना मुहम्मद अली और शौकत अली की तरह इन सज्जनों ने भी अपनी कौम को इन आंदोलनों के हानिकर और सांघातिक परिणाम बतलाए होते और उसके खिलाफ बाकायदा व्यवस्थित ढंग से प्रयत्न करते तो यकीनन आज हिन्दू-मुस्लिम संबंध इतने खिंचे हुए न होते। मगर जो राजनैतिक दूरदर्शिता सदियों से खत्म हो चुकी हो उससे और क्या हो सकता है। एक स्त्री ने सारे योरोप को दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर दिया। हिन्दूओं में ऐसे व्यक्ति पैदा करने के लिए अभी सदियाँ लगेंगी। आज कौन-कौन हिन्दू है जो हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए जी-जान से काम कर रहा हो, जो उसे हिन्दोस्तान की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या समझता हो, जो स्वराज्य के लिए एकता की बुनियादी शर्त समझता हो! कौम का यह दर्द, यह टीस, यह तड़प आज हिन्दुओं में कहीं दिखाई नहीं देती।

दस-पाँच हजार मलकानों को शुद्ध करके लोग फूले नहीं समाते, मानों अपने लक्ष्य पर पहुँच गए, अब स्वराज्य हासिल हो गया | हमें याद नहीं आता कि आज तक किसी हिन्दू ने वैसे पवित्र, ऊँचे, दैवी प्रेरणा के भाव व्यक्त किए हों जो इस रामलखून की जोड़ी ने जेल से निकलते ही रो-रोकर भोगी हुई आँखों से निकलती हुई दर्द की एक आवाज की तरह व्यक्त किए हैं। यह है वह राष्ट्रीय भावना जो राष्ट्रों के बेड़े पार करती है, उनकी नैया किनारे लगती है। यह कौमी मेल-जोल और एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता का चमत्कार है। हमारे पास वह शब्द नहीं है जो उस कृतज्ञता को ज्ञापित कर सके, जो हर एक देशभक्त हिन्दू के दिल में इन आदरणीय व्यक्तियों के लिए उबल रहा है।

हमको यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि इन दोनों संप्रदायों में कशमकश और संदेह और घृणा की जड़ें इतिहास में हैं। मुसलमान विजेता थे, हिन्दूविजित। मुसलमानों की तरफ से हिन्दुओं पर अक्सर ज्यादतियाँ हुईं और यद्यपि हिन्दुओं ने मौका हाथ आ जाने पर उनका जवाब देने में कोई कसर नहीं रखी, लेकिन कुल मिलाकर यह कहना ही होगा कि मुसलमान बादशाहों ने सख्त-से-सख्त जुल्म किए। हम यह भी मानते हैं कि मौजूदा हालात में अजान और कुर्बानी के मौकों पर मुसलमानों की तरफ से ज्यादतियां होती हैं और दंगों में भी अक्सर मुसलमानों ही का पलड़ा भारी रहता हैं। ज्यादातर मुसलमान अब भी ‘मेरे दादा सुल्तान थे’ नारे लगाता है और हिन्दुओं पर हावी रहने की कोशिश करता रहता है। तबलीग के मामले में ज्यादती मुसलमानों ने की और हिन्दुओं की रोज-ब-रोज घटती हुई संख्या का कारण भी किसी हद तक वही है। मगर इन सारे कारणों और दलीलों और घटनाओं के नजर के सामने रखते हुए हम यह कहना चाहते हैं कि हिन्दुओं को इससे कहीं ज्यादा राजनीतिक सहिष्णुता से काम लेने की जरूरत है। इतिहास से उत्तराधिकार में मिली हुई अदावतें मुश्किल से मरती हैं, लेकिन मरती हैं, अमर नहीं होतीं। दुनिया के इतिहास में इसकी मिसालें न मिलती हों, ऐसी बात नहीं है और अगर न भी मिलती हों तो कोई वजह नहीं कि हम इसे तावीज की तरह अपने गले में लटकाए रहें। हिन्दुओं के त्योहारों और जुलूसों के मौके पर अक्सर मुसलमानों की तरफ से यह तकाजा होता है कि मस्जिदों के सामने नमाज के मौके पर बाजा और शादियाने न बजाये जायें। यह बहुत ही स्वाभाविक माँग है। शोर- गुल से निश्चय ही उपासना में विघ्न पड़ता है और अगर मुसलमान इस शोर-गुल को बन्द करने पर जोर देते हैं तो हिन्दुओं को चाहिए कि वह उनकी दिलजोई करें। यह तो हिन्दुओं का उनके आग्रह के बिना भी, भगवान के प्रति सम्मान की दृष्टि से ही कर्त्तव्य है, न कि जब कोई उन्हें उनका कर्त्तव्य याद दिलाए तो उससे लड़ने के लिए तैयार हो जाएँ। हिन्दू कहेंगे कि हमारे मंदिरों के सामने से मुसलमानों के जुलूस भी बाजे बजाते न निकलें। ऊपरी दृष्टि से तो यह बात बिल्कुल न्याय की मालूम होती है लेकिन व्यवहार में इसका यह परिणाम होना संभव है कि शहरों में बाजे कतई बन्द कर दिए जाएँ क्योंकि मंदिरों की संख्या इतनी अधिक है कि किन्हीं-किन्हीं शहरों में तो हर एक घर के बाद मंदिर दिखाई पड़ता है। फिर हिन्दुओं की संध्या-हवन तो एकांत में होती है लेकिन देवताओं की पूजा अक्सर घंटे और घड़ियाल के साथ हुआ करती है। तो जब वह उपासना के लिए स्वयं भी मौन आवश्यक नहीं समझते तो किस मुँह से मुसलमानों से इस चीज की माँग कर सकते हैं। तो भी हम यह कह देना उचित समझते हैं कि जब उपासना एक ही परमात्मा की है और केवल उसके बाह्य रूप में भेद है तो हिन्दू लोग क्यों इसकी राह देखें कि जब मुसलमान हमारे धर्म का आदर करेंगे तो हम भी उनके धर्म का आदर करेंगे। अगर धर्म का आदर करना अच्छा है तो हर हालत में अच्छा है। इसके लिए किसी शर्त की जरूरत नहीं। अच्छा काम करने वाले को सब अच्छा कहते हैं। दुनियावी मामलों में दबने से आबरू में बट्टा लगता है, दीन-धर्म के मामले में दबने से नहीं। हम यह कल्पना नहीं कर सकते कि हम किसी के धर्म का आदर करें और वह हमारे धर्म का अपमान करे। थोड़ी देर के लिए यह भी सुन लें। अगर मुसलमानों का आम गैर-जिम्मेदार तबका हमारे बाजों को मस्जिदों के सामने बन्द होते देखकर तालियाँ बजाएगा और बड़ी शान के साथ कहेगा ‘दब गए, दब गए’ तो इतना सुन लेने में क्या बुराई है। निश्चय ही मुसलिम लीडरान इस हालत को ज्यादा अर्से तक कायम न रहने देंगे। यह किसी मजहब के लिए शान की बात नहीं है कि वह दूसरों की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाए। गौकुशी के मामले में हिन्दुओं ने शुरू से अब तक एक अन्यायपूर्ण ढंग अख्तियार किया है। हमको अधिकार है कि जिस जानवर को चाहें पवित्र समझें, लेकिन यह उम्मीद रखना कि दूसरे धर्म को मानने वाले भी उसे वैसा ही पवित्र समझें, खामखाह दूसरों से सर टकराना है। गाय सारी दुनिया में खाई जाती है, इसके लिए क्या आप सारी दुनिया को गर्दन मार देने के काबिल समझेंगे? यह किसी खूं-खार मजहब के लिए भी शान की बात नहीं हो सकती कि वह सारी दुनिया से दुश्मनी करना सिखाए, न कि हिन्दू जैसे दार्शनिक, व्यापक और सुसंस्कृत के लिए जिसका सबसे पवित्र सिद्धांत हो ‘अहिंसा परमो धर्म:’ अगर हिन्दुओं को अभी यह जानना बाकी है कि इंसान किसी हैवान से कहीं ज्यादा पवित्र प्राणी है, चाहे वह गोपाल की गाय हो या ईसा का गधा, तो उन्होंने अभी सभ्यता की वर्णमाला भी नहीं समझी। हिन्दुस्तान जैसे कृषि-प्रधान देश के लिए गाय का होना एक वरदान है, मगर आर्थिक दृष्टि के अलावा उसका और कोई महत्त्व नहीं है। लेकिन गोरक्षा का सारे हो-हल्ले के बावजूद हिन्दुओं ने गोरु क्षा का ऐसा कोई सामूहिक प्रयत्न नहीं किया जिससे उनके दावे का व्यावहारिक प्रमाण मिल सकता। रक्षणी सभाएँ कायम करके धार्मिक झगड़े पैदा करना भी गोरक्षा नहीं है। इस सूबे में अधिकांश जमींदार हिन्द हैं। उन्होंने गोचर जमीन का कोई इंतजाम किया या जहाँ पहले से इंतजाम था वहाँ उसे खत्म नहीं कर दिया? जिस मुल्क में तंबाकू और चाय और नील और रबर की खेती के लिए काफी जमीन हो वहाँ मौजों में गोचार का न होना आर्थिक खींच-तान की दलील हो सकती है, गोरक्षा की दलील हरगिज नहीं हो सकती। जब हम देखते हैं कि बैलों के लिए चारा मयस्सर नहीं तो गायों के लिए (वह भी जब बुड्ढी, मरियल, कमजोर हो जाएँ ) चारा इकट्ठा करते की दिक्कत का हाल किसी किसान से पूछिए। वह गायों को भूख से एड़ियाँ रगड़-रगड़कर मरने के बदले उन्हें कसाई के हवाले कर देना ज्यादा अच्छा समझता है।

रहा तबलीग का मसला। इसमें दो रायें नहीं हो सकती, क्योंकि हर मजहब को इसका काफी अख्तियार है बशर्ते कि उद्देश्य सच्चे अर्थों में धर्म का संस्कार और सिद्धांतों का प्रचार हो। जब उसमे कोई राजनीतिक उद्देश्य छिपा होता है तो वह फौरन एक सियासी मामले की सूरत अख्तियार कर लेता है। दुर्भाग्य से वर्तमान समय में धर्म विश्वासों के संस्कार का साधन नहीं, राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि का साधन बना लिया गया है। उसकी हैसियत पागलपन की-सी हो गई है जिसका वसूल है कि सब कुछ अपने लिए और दूसरों के लिए कुछ नहीं। जिस दिन यह आपस की होड़ दूसरे से आगे बढ़ जाने का खयाल धर्म से दूर हो जाएगा , उस दिन धर्म-परिवर्तन पर किसी के कान न खड़े होंगे।

गरज कि जिन कारणों का ऊपर जिक्र हुआ उनमें एक भी ऐसा नहीं है जो हिन्दुओं के लिए ‘हमारी जान खतरे में है’ की हांक लगाने को उचित ठहरा सके । इस खास मौके पर हिन्दू संगठन की पुकार ने हिन्दू-मुस्लिम एकता को जो ठेस पहुँचाई है, उसका बुरा असर अगर दूर भी होगा तो बहुत दिनों में होगा। हिन्दू और मुसलमान न कभी दूध और चीनी थे , न होंगे और न होने चाहिए। दोनों की अलग-अलग सूरतें बनी रहनी चाहिए और बनी रहेंगी। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि उनके नेताओं में परस्पर सहिष्णुता और उत्सर्ग की भावना हो। आमतौर पर हमारे नेता वह सज्जन होते हैं जो अपने संप्रदाय की मुसीबतों और शिकायतों का हमेशा बहुत सरगर्मी से रोना रोया करते हैं। वह अपने संप्रदाय के लोगों की दृष्टि में लोकप्रिय बनने के लिए उसकी भावनाओं को उकसाते रहते हैं और समझौते के मुकाबिले में, जो उनके उस विलाप को बन्द कर देगा, झगड़े को कायम रखना ज्यादा जरूरी समझते हैं। हिन्दुओं में इस वक्त सहिष्णु नेताओं का अकाल है। हमारा नेता वह होना चाहिए जो गंभीरता से समस्याओं पर विचार करे। मगर होता यह है कि उसकी जगह शोर मचाने वालों के हिस्से में आ जाती है जो अपनी ज़ोरदार आवाज से जनता की गंदी भावनाओं को उभाड़कर उन पर अपना अधिकार जमा लिया करते हैं। वह कौम को दरगुजर करना नहीं सिखाता, लड़ना सिखाता है, उसका फायदा इसी में है। कोई आदमी ऐसी उल्टी बुद्धि का नहीं हो सकता कि उसे इस नाजुक मौके पर दोनों संप्रदायों की आपसी खींच-तान के नतीजे न दिखाई दें और अगर है तो हमें उसकी नीयत में संदेह है। इस संदेह की पुष्टि इस कारण से और भी होती है कि इस आंदोलन के शुरू करने वाले और कार्यकर्ता अधिकतर वह लोग हैं जो राजनीतिक मामलों में हिस्सा लेने से कावा काटते रहते हैं या उसमे हिस्सा लेते भी हैं तो आबरू बचाए हुए वर्ना हिन्दू संगठन के बनारस में आयोजित जलसे में जमींदारों और राजाओं की इतनी बड़ी संख्या न दिखाई देती। जिधर देखिए राजे-महाराजे और सेठ-महाजन ही नजर आते थे। उनके पीछे चलने वालों में अधिकतर वह लोग थे जिनका पुश्तैनी पेशा गुलामी है, जिन्हें शुरू से यह शिकायत हे कि मुसलमान सरकारी नौकरियाँ हड़प कर जाते हैं और हमारा हाल पूछने वाला कोई नहीं है, जिनके लिए एक मुसलमान सब-इंसपेक्टर या कुर्क अमीन की नियक्तिु चीन के इंकलाब या तुर्की की फ़तह से ज्यादा बड़ी घटना है।

हमारे रईसों ने जन-आंदोलनों की तरफ़ अब तक जो रवैया अख्तियार किया उसने उन्हें एक नापने का आला बना दिया है जिससे हुक्काम के हथकंडों का साफ साफ पता चलता है। हिन्दू-मुस्लिम एकता हुक्काम की नजरों में कांटे की तरह खटकती थी, इसलिए जब धनी-मानी लोग किसी ऐसे आंदोलन का उत्साह से स्वागत करें जिससे एकता को नुकसान पहुँचने का यकीन हो तो जाहिर है कि उनका उसमे शरीक होना उनके अपने मन की बात नहीं, बल्कि किसी की प्रेरणा से होने वाली बात है। वरन जिन लोगों ने सख्त कानून पास करने में गवर्नमेंट का साथ दिया वह हिन्दू संगठन के जलसे में इस जोर-शोर से हरगिज शरीक न होते। मगर यहाँ तो यकीन था कि हमारी कोशिशें ऊपर वालों की दुनिया में कब्र की निगाहों से देखी जा रही हैं। तो फिर क्यों न हाथों से पुण्य लूटें, कौम रहे या मिटे, इसकी क्या फिक्र। यह एक सच्ची बात है कि हुक्काम ने भी हिन्दू संगठन के आंदोलन से हमदर्दी दिखलाई। इसलिए रईसों का उसमे जोर-शोर से बड़ी संख्या में शरीक होना जरूरी था। उनके योगदान पर खुशी जाहिर करना घटनाओं से अपनी नादानी जाहिर करना है।

इन धार्मिक आवेशों को भड़काने का इल्जाम सबसे ज्यादा कौंसिलों की माँग करने वालों की गर्दनों पर है। चाहे वह हिन्दू हों या मुसलमान। कांग्रेस ने लिबरल नेताओं का पर्दाफ़ाश कर दिया था। रईस और ताल्लेदार भी जनता की नजरों से गिर चुके थे। वह हजरात जिन्होंने देशभक्ति के अपने तमाम दावों के बावजूद वकालत या सरकारी नौकरी न छोड़ी थी, पब्लिक की निगाहों में अपनी प्रतिष्ठा खो बैठे थे। इस बहुसंख्यक जमात के लिए अपनी खोई हुई आबरू हासिल करने का, अपनी साख जमाने का, अपनी कौमपरस्ती का सबूत देने का, और ऐसे मौके पर जब कौंसिलों का चुनाव पास था, इससे बेहतर और कौन मौका हाथ आ सकता था? ‘हिन्दू कौम खतरे में है’ का नारा मारकर वह लोग हिन्दुओं केु हितैषी बनना चाहते थे। मुसलिम जमात में भी उनकी तादाद कम न थी। धार्मिक पक्षपातों को भड़काना शुरू किया गया। राय साहब और खान साहब अपने गुप्त स्थानों से निकल पड़े और जनता की दोस्ती का दम भरने लगे। एक तरफ से आवाज आई, हिन्दुओं को खिलाफत के आंदोलन से सावधान रहना चाहिए क्योंकि यह उनकी हस्ती को मिटा देगा। दूसरी तरफ नारए -तकबीर बुलंद हुआ, हिन्दू हम पर हावी होते जा रहे हैं , स्वराज्य से दूर रहना हमारा कर्त्तव्य है। कहीं किसी म्यनिुसिपैलटी ने कानूनन गौकशी बन्द की। बावेला मच गया। शोर मचाने बालों की कमी न थी। जेल जाना था, तब शांतिपूर्वक अपने-अपने कोनों में दुबके बैठे थे। अब जेल का डर नहीं, इज्जत बढ़ने की उम्मीद थी। फिर क्यों चुप रहें। सवाल-जवाब शुरू हुआ। रोज-ब-रोज लहजा सख्त होता गया। इधर ‘लीडर’ था तो उधर ढेरों उर्दू अखबार ऐंग्लो-इंडियन अफसरों के निर्देशानुसार मैदान में आ खड़े हुए। युद्ध की घोषणा हो गई। जो इस हंगामे को ठंडा कर सकते थे वह जेल में थे। उनकी जगह लिबरल हजरात ने ली। नतीजा जो कुछ हुआ, जाहिर है। वह कौम के दोस्त साबित हो गए। सरकार से भी वाहवाही मिली। फूट का बीज बोया गया, कांग्रेस की जड़ खोदने के लिए। उसकी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिलाने के लिए। उसे पब्लिक की नजरों में जलील करने के लिए। और चूंकि कांग्रेस का एक हिस्सा खुद ही लिबरल सज्जनों के से स्वार्थ वाला था, उसने भी इस चिनगारी को भड़काया कि कहीं हम अपना भरम न खो बैठें। कांग्रेस के लीडरों ने भी अपराधियों जैसे मौन से काम लिया। यह है उस खींचतान का भेद जो इस वक्त कौम का सबसे नाजुक मसला बना हुआ है। यह सारी आग लगाने की कोशिशें या तो महज कौंसिलों में वोट हासिल करने के लिए की गई या सरकार को खुश करने के लिए। बस! लेकिन इसका असर लक्ष्य-सिद्धि के बाद बरसों तक कायम रहेगा। सितम यह है कि अब भी हिन्दू कौम के अलमबरदार एकता के महत्त्व को समझने में असमर्थ हैं। चुनांचे कौंसिलों में जाने वालों की कमी नहीं है, हिन्दू संगठन तो ताकत पहुँचाने वालों की कमी नहीं है, ऐतिहासिक विद्वेषों के मुर्दे उखाडने वालों की कमी नहीं है – कमी है तो एकता के लिए अपने को समर्पित कर देने वालों की, एकता के लिए मिट जाने वालों की। मुसलमानों में अली बिरादरान, मौलाना अबुलकलाम आजाद, डॉक्टर किचलू एकता के लिए अपने को समर्पित कर चुके हैं। हिन्दुओं में यह कतार खाली है। कितने शर्म की बात है कि जिस एकता को महात्मा गांधी ने स्वराज्य की पहली सीढ़ी करार दिया हो उसके लिए एक प्रभावशाली हिन्दू बुजुर्ग पूरी तरह तैयार नहीं हैं। अगर यही रफ्तार है तो स्वराज्य मिल चुका और अगर हलवाई की दुकान परदादे का फातिहा पढ़ा जाना मुमकिन हो तो हमें स्वराज्य के नाम पर फातिहा पढ़ लेना चाहिए।

[उर्दू मासिक पत्रिका ‘जमाना’, फरवरी, 1924]

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