मानव विकास : परंपरा के संदर्भ में (निबंध) : महादेवी वर्मा

Manav Vikas : Parampara Ke Sandarbh Mein (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

परंपरा एक क्रमबद्धता का पर्याय होने के कारण मानव जीवन के अंतः बाह्य दोनों पक्षों का स्पर्श करती है। विकास के अनादि क्रम में मनुष्य, केवल कर्म की दृष्टि से ही नहीं, अपने दर्शन, चिंतन, आस्था आदि की दृष्टि से भी किसी ऐसी परंपरा की सुनहरी कड़ी है, जिसका एक छोर अतीत में और दूसरा भविष्य में अलक्ष्य रहता है। इस क्रमबद्धता के अभाव में मानव का मूल्यात्मक परिचय संभव नहीं होता। यह एक रागात्मक तथा बौद्धिक दृष्टि से विशृंखलित व्यक्ति के लिए भी सत्य है, एवं बुद्धि तथा हृदय की दृष्टि से सर्वथा विकासशील व्यक्ति के लिए भी ।

जब विचार, दर्शन, संवेदन तथा क्रिया एक विशेष क्रम के साथ आवर्तित संवर्तित होते हैं, तभी उनसे सामान्य निष्कर्ष रूपरेखा पाते हैं ।

उदाहरण के लिए अपने कठोर कर्म की निरंतरता से निष्ठुर व्यक्ति भी किसी क्षण द्रवित या कोमल हो सकता है, परंतु इस एकाकी घटना के कारण हम उसे कोमल नहीं मान लेंगे। जब ऐसे क्षणों की आवृत्तियाँ सामान्य हो जाएँगी, तभी वे उसकी स्वभावगत विशेषता बन कर उसके व्यक्तित्व का परिचय दे सकेंगे। मानव जीवन क्रम में बहुत कुछ ऐसी ही स्थिति परंपरा की रहती है ।

अंतर केवल यही है कि किसी चिंतन, दर्शन या आस्था को किसी मानव समूह की विशेषता बनने में अनेक युग लग जाते हैं।

मानव-जाति का विकास-क्रम इतना जटिल और संघर्षमय रहता है कि उसे युग विशेष में सीमित करके देखना अनेक भ्रांतियों को जन्म दे सकता है।

अमुक जाति शांतिप्रिय है, ऐसी सामान्य जान पड़नेवाली धारणा के लिए अनेक युगों की गतागत पीढ़ियों के विचार, चिंतन, मनोराग तथा कर्म ही प्रमाण हो सकते हैं और ये प्रमाण परंपरा - सापेक्ष ही रहेंगे।

प्रत्येक मानव या मानव-समूह विशेष परिवेश और परिस्थितियों में जन्म तथा विकास पाता है और उसकी जीवन-पद्धति तथा मूल्यात्मक मान्यताएँ कुछ परंपरित और कुछ स्वार्जित होती हैं। परंतु सभी जीवन मूल्यों की स्थिति के लिए आवश्यक धरती, मानव की अनेकता ही रहेगी, क्योंकि शून्य में रहनेवाले एकाकी मानव को इनकी आवश्यकता नहीं होगी।

विविध तथा विकासशील होने पर भी न प्रकृति को मूल्यात्मक विशेषता की आवश्यकता है, न मानवेतर जीवजगत को ।

प्रकृति एक व्यापक ऋत् या नियम से संचालित है, परंतु उसमें स्वतंत्र संकल्प-विकल्प न होने के कारण उचित-अनुचित, सत्य-असत्य, अच्छा-बुरा आदि द्वंद्वों की स्थिति संभव नहीं ।

पशु-पक्षि-जगत प्रकृतिदत्त सहज चेतना से ही क्रमबद्ध कार्य की क्षमता पाता है। उसे भी मानव के समान संकल्प-विकल्प की अपेक्षा नहीं है।

वस्तुतः मानव ही को कर्म के चुनाव की शक्ति प्राप्त है, अतः वही परंपरा का सचेतन संग्राहक हो सकता है।

मानव जीवन का संचालक ऋतू युगयुगांतर से उसके पूर्वजों की मूल्यात्मक उपलब्धियों से निर्मित होता आ रहा है। और इस विराट ऋत् की युगविशेष में निर्मित रूपरेखा का परिचय परंपरा ही देती है। इसी कारण हर युग में मानव अपने पूर्वगामी अग्रजों की, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, साहित्य, कला आदि में अर्जित उपलब्धियों को अपनी मानकर अग्रसर होता आया है।

शिल्पी जब एक विशाल प्रस्तर- खंड को सामने रख उसमें अपनी मानवी प्रतिमा को रूपायित करने बैठता है, तब उसे एक ही दिन में पूर्णता तक नहीं पहुँचा पाता; प्रत्युत् वह प्रतिदिन क्रम से कुछ तराशता, कुछ बनाता हुआ अनेक दिनों में उसे सर्वांगपूर्ण कर पाता है।

यदि शिल्पी अपने निर्माण क्रम में एक दिन आँकी हुई अंशाकृति को दूसरे दिन तराश कर फेंक दे, तो मूर्ति का प्रश्न तो समाप्त हो ही जाएगा, प्रस्तर-खंड भी कणों में बिखर कर अपना महत्त्व खो देगा।

बहुत कुछ ऐसी ही स्थिति मानवता की होगी, यदि एक युग की उपलब्धियों को दूसरा युग नष्ट करता चले। नदी से नहरें निकाली जा सकती हैं, किंतु उसके प्रवाह को खंड-खंड में बाँटना, उसका नदीत्व समाप्त करना है।

परंपरा जीवन-पद्धति के बाह्य रूप के साथ जीवन-मूल्यों तथा उपलब्धियों के अंतर्निहित तत्त्वों को वहन करती हुई युग-युगांतरों का संक्रमण करती है। यह निर्विवाद है कि प्रत्येक युग की विशेष समस्याएँ तथा विशेष समाधान होते हैं और युग विशेष की जीवन-पद्धति में इनका प्रतिफलित होना स्वाभाविक ही नहीं अनिवार्य है।

भिन्न परिस्थितियों वाले युग, यदि इसी प्रतिफलन को अपनी जीवन-पद्धति बनाना चाहें तो यह परंपरा और युग दोनों के साथ अन्याय होगा ।

बीज का कुछ अंश मिट्टी में नष्ट हो जाता है और कुछ अंश अंकुर में परंपरित होता हुआ, इसी क्रम से फल की परिणति तक पहुँचता है।

इसी प्रकार परंपरा का युग सीमित अंश क्षरित होकर ही उसे संचरणशीलता देता है।

मानव जीवन की परंपरा, विकास और ह्रास का लेखा-जोखा या इतिवृत्त मात्र नहीं होती। वह तो मानव के चिंतन, जीवनदृष्टि तथा रागात्मक विस्तार का ऐसा संयोजन है जो जीवन को ऊर्ध्व से ऊर्ध्वतर, सुंदर से सुंदरतर बना सकता है।

इस प्रकार परंपरा के अंतर्निहित तत्त्व भिन्न-भिन्न युगों में स्थिति ही नहीं रखते, उन्हें अनेक प्रयोगों की अग्नि परीक्षा भी पार करनी पड़ती है।

इन प्रयोग रूपों में सत्य का युग सीमित अंश भी रहता है और युग निरपेक्ष सर्वकालीन अंश भी। उन्हें वहन कर लाने वाली जीवन-पद्धति युग सापेक्ष हो सकती है, परंतु इससे तत्त्वगत महार्घता में अंतर नहीं पड़ता। आभूषणों के रूपांतरण के कारण स्वर्ण की महार्घता घट नहीं जाती ।

इतने युगों के समुद्र पार कर आने पर भी हमारे विश्व बंधुता, पंचशील, सह-अस्तित्व, शांति आदि शब्दों में अंतर्निहित परंपरा, जीवन की मूल्यात्मक दीप्ति से उज्ज्वल है।

विज्ञान ने हमें अपने परंपरागत जीवन-मूल्यों के उपयोग के लिए और भी विस्तृत क्षेत्र तथा विराट मानव-परिवार दे दिया है। अतः आज यदि हम परंपरा के बाह्य और गुरु-सापेक्ष रूपों में ही अपने आपको बंदी न बना लें, तो हमारे दर्शन, साहित्य, कला, ज्ञान-विज्ञान सब मानव समष्टि को समृद्ध करेंगे।

अतीत का इतिवृत्तात्मक लेखा इतिहास है, अतः तटस्थता उसका विशेष गुण मानी जाएगी। परंपरा के समान इतिहास मनुष्य के रागात्मक तथा बौद्धिक दोनों तटों को स्पर्श करता हुआ प्रवाहित नहीं होता, परंतु जिन घटनाओं को वह प्रस्तुत करता है, वे किसी भूमि खंड तथा मानव समूह से संबद्ध होने के कारण विशेष प्रकार के संस्कार तथा स्मृति-मंडल से घिरी रहती हैं।

घटनाएँ शून्य में घटित नहीं होतीं, वरन उनके घटने में मानव जीवन की अनेक सरल जटिल परिस्थितियाँ कारण रूप रहती हैं। उक्त परिस्थितियों से देश-विशेष में विकसित जीवित मानव- - समष्टि के स्मृति - संस्कार अविच्छिन्न संबंध में इस प्रकार बँधे रहते हैं कि एक घटना ही नहीं, एक शब्द का उल्लेख भी, अनेक मनोरागों को जगा सकता है।

कुरुक्षेत्र, पानीपत जैसे शब्द एक भारतीय को जिन भावनाओं से अभिभूत कर सकते हैं, वे अन्य देशवासियों के निकट अपरिचित ही रहेंगी ।

इस स्मृति मंत्र को खंडित करने के लिए ही विजेता जातियाँ, विजित जातियों के इतिहास को अपने मिथ्यावाद से खंडित करती रही हैं

वस्तुतः जिन युग तक इतिहास का आलोक नहीं पहुँच जाता, उसे भी मानव ने अपनी प्रगति - गाथा की संपूर्णता के लिए, अपने अनुमान और कल्पना से रेखा-रंगों में साकार कर लिया है।

भारत के इतिहास में स्वर्ण युग भी आए हैं और अंधकार के युग भी । उसमें साम्राज्यों की गाथा भी है और गणराज्यों की कथा भी ।

परंतु यह इतिहास अपने घटित इतिवृत्त की विविधता और विस्तार से हमारी बौद्धिक उपलब्धियों के कोष को ही अधिक समृद्ध बनाता है। परंपरा के समान जीवन की गति को प्रगति अथवा अगति बनाने की क्षमता उसमें संभव नहीं । अक्षय से अक्षय ज्ञान, बुद्धि के किसी कोने में निष्क्रिय पड़ा रह सकता है, परंतु क्षणिक से क्षणिक अनुभूति भी हृदय की सीमा पार कर जीवन को उद्वेलित करने में समर्थ है।

परंपरा हृदय की स्वीकृति होने के कारण अनुभूति में गतिशील रहती है, अतः उसका परिणाम अधिक सृजन या ध्वंसमूलक होकर ही फलित हो सकता है।

स्वतंत्र भारत को नवीन वैज्ञानिक युग के आलोक में अपनी परंपरा तथा इतिहास की उपलब्धियों का पुनः परीक्षण निरीक्षण करना चाहिए। इससे उसकी सर्वांगीण प्रगति का पथ प्रशस्त से प्रशस्ततर होगा ।

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