मणजी भील : आदिवासी लोक-कथा
Manaji Bhil : Adivasi Lok-Katha
झाबुआ के एक छोटे से गाँव में एक भील युवक रहता था। उसका नाम था मणजी। उसे खेतों, जंगलों और पक्षियों से प्यार था। वह बड़ा होकर अच्छा किसान बनना चाहता था। उसका पिता भी यही चाहता था कि मणजी ख़ूब फसल उगाए और ख़ूब धन कमाए। लेकिन होनी में कुछ और ही लिखा था।
एक साल एक बूँद पानी नहीं बरसा और भीषण अकाल पड़ा। खेत सूख गए। कुएँ का पानी सूख गया। अब किसानी कोई करे तो कैसे? पिता इस स्थिति से इतना दुखी हुआ कि दुख के कारण उसकी मृत्यु हो गई। गाँव वालों ने कहा कि पिता की आत्मा की शांति के लिए मृत्यु-भोज देना होगा। मणजी ने सोचा कि यदि वह मृत्यु-भोज देगा तो उसके पास का रहा-सा धन भी समाप्त हो जाएगा और फिर उसे और उसकी माँ को दाने-दाने के लिए तरसना होगा। मणजी ने यह बात अपनी माँ से कही किंतु माँ ने उसे समझाया कि गाँव, समाज के रीत-रिवाज़ तो मानने ही होंगे।
मणजी को धन का अपव्यय करने का मन नहीं हो रहा था किंतु मृत्यु-भोज करने के लिए उसे चारों ओर से कहा जा रहा था। एक दिन वह सोच-विचार करता हुआ सो गया कि सपने में उसे अपने पिता दिखाई दिए। उसने अपने पिता का हाल-चाल पूछा। पिता ने मणजी से कहा कि ‘बेटा मैं तुझसे किसी मूर्खता की आशा नहीं रखता हूँ अतः तू धन का अपव्यय मत करना। जो पैसा लगाना है वह खेत और कुएँ में लगाना।’
‘किंतु पिता जी आपकी आत्मा की शांति?’ मणजी ने पूछा।
‘किसान की आत्मा उसके खेत में बसी होती है। यदि खेत लहलहाता है तो किसान की आत्मा को अपार शांति मिलती है। समझे?’
'हाँ पिता जी, समझ गया।’ मणजी ने कहा।
सुबह होने पर माँ ने मणजी से कहा कि मृत्यु-भोज के लिए सारे गाँव को आमंत्रण दे देना।
‘माँ मैं आमंत्रण देने तो जा रहा हूँ लेकिन गाँववालों को नहीं बल्कि कुआँ खोदने वालों को।’ यह कहकर मणजी घर से चल पड़ा।
गाँव वालों ने मणजी का विचार सुना तो वे उसके विरोधी हो गए। उन्होंने कुआँ खोदने वाले मज़दूरों को डरा-धमका कर भगा दिया। किंतु मणजी घबराया नहीं। कहते हैं न कि जहाँ चाह है वहाँ राह है। मणजी ने अकेले ही फावड़ा उठाया और अपने सूखे कुएँ में उतर गया।
दिन-रात की मेहनत रंग लाई। सूखे कुएँ को और गहरा करते ही उसमें पानी का स्रोत निकल आया और कुआँ लबालब भर गया। मणजी ने उस पानी से अपने खेत को सींचा और नए बीज बो दिए। कुछ ही दिन में नई फसल के अंकुर फूट पड़े।
जब गाँव वालों को इस बात का पता चला तो वे अपने किए पर बहुत लज्जित हुए और उन्होंने मणजी से क्षमा माँगी तथा मृत्यु-भोज जैसी फिजूलखर्ची न करने का निर्णय लिया।
(साभार : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं, संपादक : शरद सिंह)