मन पवित्र तो ईश्वर भी आपका मित्र : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Man Pavitra To Ishwar Bhi Aapka Mitra : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
बात उस समय की है जब उड़ीसा समुद्री व्यापार के लिए काफी प्रसिद्ध था। उड़ीसा के व्यापारी बाली, जावा और सुमात्रा जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में अपना माल बेचने के लिए कार्तिक माह में जाया करते थे।
यह कहानी सत्यजीत नाम के एक व्यापारी की है। कई देशों में उसका लेन-देन था। सत्यजीत को अपने धनी होने का ज़रा भी घमंड नहीं था। मानवता के लिए उसके हृदय में पूरी श्रद्धा थी। वह दानवीर था। उसका अपना परिवार नहीं था। जो लोग उसके यहां काम करते थे, उन्हें ही वह अपना सगा-संबंधी मानता था। ईश्वर में उसकी आस्था थी। अपने साथियों से प्रायः वह कहता रहता था, "मन पवित्र तो ईश्वर भी आपका मित्र।"
एक दिन सत्यजीत ने अपना जहाज़ माल से भरा और शुभ समय देखकर अपनी मंज़िल की ओर प्रस्थान कर लिया। हवाओं का रुख बिलकुल अनुकूल था। सत्यजीत को उम्मीद थी कि वह समय पर अपनी मंज़िल तक पहुंच जाएगा। अभी सफर आधा भी पूरा नहीं हुआ था कि काले बादलों ने अपशकुन के बादल ला खड़े किए थे। देखते-ही-देखते प्रचंड तूफान के साथ मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। खराब मौसम ने समुद्री तूफान का रूप ले लिया। सत्यजीत का विशालकाय जहाज़ समुद्री लहरों पर कागज़ की नाव की तरह हिचकोले खाने लगा। सत्यजीत और उसके साथी घबराने लगे। जहाज़ में छेद हो गया और उसमें पानी भरने लगा। भार कम करने के लिए चालक दल ने माल समुद्र में फेंकना शुरू कर दिया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जहाज़ डूबने लगा सत्यजीत ने अपने साथियों को समुद्र में कूदने को कहा और स्वयं भी कूद गया।
कुछ क्षणों बाद सत्यजीत के सभी साथी उसकी नज़रों से ओझल हो चुके थे। जैसे-तैसे उसके हाथ लकड़ी का एक तख्त लग गया। वह उससे चिपक गया और लहरों के थपेड़े खाता रहा। आखिरकार तूफान थम गया। बारिश कम हुई। समुद्र की लहरें भी सामान्य होने लगीं। तभी सत्यजीत को किसी के चिल्लाने की आवाजें सुनाई पड़ीं। उसने चारों तरफ देखा। उसका नौकर रघु भी लकड़ी के एक बहुत बड़े टुकड़े को थामे लहरों पर तैर रहा है। उसे देख सत्यजीत की जान-में-जान आ गई। रघु तैरता हुआ अपने मालिक के पास पहुंचा और दहाड़ें मार-मारकर चीखने लगा, "सब लुट गया मालिक। जहाज़ भी डूब गया और हमारा भाग्य भी।"
"चिंता मत करो रघु, मन पवित्र तो ईश्वर भी आपका मित्र।"
पूरी रात वे लहरों के साथ संघर्ष करते रहे। अंधेरे में किसी मछली ने सत्यजीत पर हमला बोल दिया और उसकी आंखों की रोशनी चली गई।
सुबह मालिक की आंखों से खून बहता देख रघु चिल्ला उठा, "लगता है आपको किसी जीव ने गंभीर चोट पहुंचाई है मालिक। अब क्या होगा?"
सत्यजीत को दर्द तो हो रहा था, लेकिन वह दुखी नहीं था। वह बोला, "अंधा हो गया हूं, पर जीवित तो हूं। देख लो, भगवान मेरे साथ है या नहीं? रघु भाई, किसी ओर किनारा नज़र आ रहा है क्या?"
किनारा अधिक दूर नहीं था। बिना खतरे के वे किनारे पर पहुंच गए।
अपनी जेब से हीरे की एक अंगूठी निकालकर सत्यजीत रघु से बोला, "यह लो रघु, इस अंगूठी को यहां के किसी जौहरी के पास बेच आओ। इसका अच्छा दाम मिल जाएगा। इनमें से कुछ रुपयों से भोजन की व्यवस्था करो और बाकी घर वापस जाने में काम आ जाएंगे।"
रघु अंगूठी लेकर वहां से निकल लिया। उसे बाज़ार में बेचकर रघु को काफी रुपया मिल गया। लालच के कारण वह लौटकर गया ही नहीं।
बेचारा सत्यजीत भूखा-प्यासा बैठा रघु की प्रतीक्षा करता रहा, पर वह नहीं आया। सौभाग्यवश वहीं से गुज़र रहे एक सज्जन पुरुष ने देखा कि एक नेत्रहीन व्यक्ति वहां बैठा है। बदहाल हो चुके सत्यजीत को वह राजा के पास ले गया। राजा ने उसकी त्रासदी को सुना और दुख प्रकट किया। दयालु राजा ने उसे महल में रहने के लिए आमंत्रित किया।
कुछ देर सोचकर सत्यजीत राजा से बोला. "हे राजन! आपके इस प्रस्ताव के लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूं, लेकिन मैं यहां हमेशा अतिथि बनकर नहीं रह सकता। मैं चाहता हूं कि आप सलाहकार के रूप में मेरी सेवाएं लें। आपके सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर मैं उचित परामर्श दे पाऊंगा।"
सत्यजीत के बड़प्पन और आत्मविश्वास से राजा काफी प्रभावित हुआ। उस दिन से सत्यजीत राजा के मंत्रिमंडल में शामिल हो गया।
कुछ महीनों बाद किसी दूर-देश से हीरों का एक व्यापारी राजा के महल में आया। उसके दिखाए आभूषणों में से रानी को हीरे की एक अंगूठी पसंद आ गई और राजा ने सत्यजीत से सलाह लिए बिना अंगूठी खरीद ली। सत्यजीत को जब इस बारे में पता चला तो वह राजा के पास जाकर बोला, "आपने अपना वचन नहीं निभाया। मैं अब यहां नहीं रुक पाऊंगा।"
राजा ने इसके लिए क्षमा मांगी और सत्यजीत को अंगूठी थमाते हुए वह बोला, “यह रही अंगूठी अब ज़रा देखो और बताओ कैसी है?"
हीरों को परखने के लिए सत्यजीत को आंखों की ज़रूरत नहीं थी। उसने अंगूठी पर अपनी उंगलियां फेरी और चिल्लाया, “यह तो नकली है। आप चाहो तो इसे किसी विश्वसनीय जौहरी को दिखा लो।"
जौहरी को बुलवाया गया। उसने भी अंगूठी और उस पर लगे हीरे देखे और बताया कि इनका कोई मोल नहीं। ये तो पत्थर हैं।
सत्यजीत को धन्यवाद देते हुए राजा बोला, "आज के बाद मुझसे ऐसी गलती नहीं होगी। मैं तुमसे सलाह लेना कभी नहीं भूलूंगा।"
कुछ दिनों के बाद एक युवक को दरबार में पेश किया गया। लंबा-चौड़ा शरीर, हृष्ट-पुष्ट पहलवान और योद्धाओं जैसी उसकी चाल थी।
"कौन हो तुम और क्या चाहते हो?" राजा ने पूछा।
"मेरा नाम उग्र है। मैं आपके सबसे बड़े शत्रु राजा भिबूति के राज्य से हूं। मैंने भिबूति की सेना के प्रमुख के पद पर दस वर्षों तक काम किया। फिर एक दिन मैंने उसके सामने आपकी प्रशंसा करने की गलती कर दी। इस पर क्रोधित होकर भिबूति ने मुझे निकाल बाहर कर दिया। अब मैं जाता तो कहां जाता? इसीलिए मैं आपकी शरण में आया हूं।"
"मुझसे क्या चाहते हो?" राजा ने पूछा।
"मैं आप जैसे महान शासक की सेवा करना चाहता हूं," युवक ने कहा। राजा ने सत्यजीत से पूछा, "हां सत्यजीत, तुम्हारा क्या कहना है?"
"एक दशक तक राजा भिबूति के यहां एक उच्च पद पर काम करने के बाद भी अगर यह युवक उसके साथ विश्वासघात कर सकता है तो यह किसी को भी धोखा दे सकता है।"
राजा ने उग्र का प्रस्ताव अस्वीकार करके उसे विदा कर दिया। सुबह होते ही राजा ने सत्यजीत को बुलवा भेजा। "मित्र, मैं किन शब्दों में आपका धन्यवाद करूं," सत्यजीत को गले लगाकर वह बोला। "क्या हुआ महाराज?"
"कल रात सुरक्षाकर्मियों ने मेरे कक्ष में घुस रहे एक व्यक्ति को धर-दबोचा। यह व्यक्ति उग्र था। उसने स्वीकारा कि मेरी हत्या करने के लिए उसे दुष्ट भिबूति ने ही भेजा था। अच्छा किया जो तुमने इसे यहां न रखने की सलाह दी।"
***
इस घटना के बाद राजा सत्यजीत का आभारी हो गया। उसने सत्यजीत को सुविधा-संपन्न घर और ढेर सारा धन दिया। अब क्योंकि संचय करना सत्यजीत के व्यवहार में नहीं था, वह सादा जीवन जीता और अपना सारा धन पुण्यार्थ कार्यों में खर्च कर देता था।
एक दिन सत्यजीत निर्धनों को भोजन करा रहा था, तभी उसे एक परिचित आवाज़ सुनाई दी। उस व्यक्ति का हाथ पकड़कर वह बोला, "रघु! तुम?"
"जी...जी मालिक!"
"क्या हुआ तुम्हें? तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?"
"अपनी हालत क्या बताऊं मालिक! आज आपको यहां देख रहा हूं तो आपके वे शब्द स्मरण हो आए कि मन पवित्र तो ईश्वर भी आपका मित्र। मालिक, आप सच में देवता हो। और मुझे देखिए, आपके साथ रहकर भी मैं उन मूल्यों को आत्मसात् नहीं कर पाया। मैंने आपको धोखा दिया तभी मेरा ये हाल है। आपसे क्षमा याचना करने का साहस भी नहीं है मुझमें। चोरी के आरोप में आप मुझे कालकोठरी में भिजवा दीजिए।"
"रघु, तुम अपने पापों का प्रायश्चित कर चुके हो।"
सत्यजीत रघु को घर ले गया। उसके हाथ में एक पोटली पकड़ाते हुए वह बोला, “ये लो रघु, अपना काम शुरू करो। निष्कपट भाव से खूब परिश्रम करो और मेरी उस बात को हमेशा ध्यान में रखना।"
रघु विनम्रता से बोला, "कभी नहीं भूलूंगा मालिक।"
सत्यजीत के पांव छुकर वह निकल पड़ा।
दो वर्ष बीत गए। एक दिन सत्यजीत अपने घर में बैठा पूजा-पाठ कर रहा था, तभी एक आवाज़ उसके कानों में गूंजी।
"मालिक, कहां हैं आप? देखिए मैं आपके लिए क्या लाया हूं?"
"अरे रघु, तुम? कहां थे इतने दिन?" सत्यजीत हैरान होते हुए बोला।
"मालिक, मैं आपके हर प्रश्न का उत्तर दूंगा। पहले आप लेट जाइए।"
रघु ने सत्यजीत की आंखों में हरे रंग की एक औषधि की तीन-तीन बूंदें डालीं। जलन के मारे उसका बुरा हाल हो गया, लेकिन कुछ ही पलों में उसकी यह पीड़ा ठंडक में बदल गई। सत्यजीत ने आंखें बंद रखीं।
काफी देर बाद रघु बोला, "मालिक, अब धीरे-धीरे आंखें खोलिए।"
सत्यजीत ने जैसे ही अपनी आंखें खोलीं, वह चिल्ला उठा। वह रघु को, अपने कक्ष को, अपने घर को, सबको देख पा रहा था। अपनी आंखें मलते हुए वह बोला, "मैं सपना तो नहीं देख रहा? मेरी आंखों की रोशनी लौट आई है? कहां से ले आए ये जादुई औषधि?"
"आपकी दी गई राशि से मैंने अपना एक छोटा-सा व्यापार शुरू किया। एक व्यापारिक यात्रा के दौरान मुझे एक सज्जन व्यक्ति मिला जो जड़ी-बूटियों से औषधि बनाने में निपुण था। उसकी बनाई औषधियां कई असाध्य रोगों में कारगर है। यह औषधि मैं उसी से लेकर आया हूं।"
खुशी के मारे सत्यजीत ने रघु को गले से लगा लिया और आशीर्वाद दिया, “ईश्वर सदा तुम्हारे साथ रहें।"