मालकिन (पंजाबी कहानी हिन्दी में) : ख़ालिद फ़रहाद धारीवाल

Malkin (Punjabi Story in Hindi) : Khalid Farhad Dhariwal

बहुत दिनों से बीमार हूं। बिस्तर से लगी पड़ी हूं। चारपाई पर लेटी-लेटी ही नौकरानी को काम बताती जाती हूं। वह करती जाती है।

‘बीबी जी, कपड़े धो दिए, अब?’ मेरी नौकरानी गोगी मेरे पास आकर पूछती है।

‘साहब वाला कमरा झाड़ पोंछ दे।’ मैं उससे कहती हूं।

‘क्या वो आ रहे हैं आज?’ उसके पूछने का ढंग, यदि मैं बीमार न होती तो कभी भी अच्छा न लगता।

‘हूं…।’ मैं आहिस्ता से कह देती हूं। मेरी आवाज़ में न तो उमंग है और न ही ऊब। गोगी मेरे घर के कामों को बड़ी जिम्मेदारी से करती है। उसकी जवान-जहान देह में कहीं थकान का नामोनिशान नहीं। सवेरे से शाम तक अंदर आंगन में बिल्ली की भांति घूमती रहती है। मुझे संभालने के अलावा, सुबह बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, अंदर आंगन की सफ़ाई और किचन-लाॅन्डरी का काम…- ये सब अब उसके ही हाथ में हैं।

अधरंग के इस नामुराद रोग के बाद भला हो इसका, जिसने मेरा घर संभाल लिया है। मेरा क्या लेती है बेचारी? महीनावार ढाई-तीन हज़ार रुपया, दो वक्त की रोटी और कभी कोई उतरा पुराना लीड़ा-लत्ता। तड़के आती है और रात हुए लौटती है। हमें पका, खिलाकर जाते समय अपने लिए भी ले जाती है।

पौह माह के दिन थे। सुबह-सुबह मैं बाथरूम में से नहाकर निकली तो देह फड़कने लगी थी। मेरे साथ वाले बिस्तर पर सोये हुए अपने खाविंद अफ़जल को मैंने जगाया। उसने समझा, पाले से कंपकंपी छूट रही होगी। उसने हीटर जलाकर बिस्तर के नीचे रख दिया था। मेरे ऊपर एक और कंबल डाल दिया था। गरमाइश पहुंची, पर अंग सोने लगे थे। जीभ को बल पड़ गया था। अब मैं बोलकर भी कुछ नहीं बता सकती थी। घड़ीभर बाद जब अफ़जल मुझसे ठंड के बारे में पूछने लगा तो मेरे मुंह से कोई शब्द ही नहीं निकल रहा था। शब्द जीभ की पकड़ में ही न आते थे। सिर्फ़ ‘गूं-गां’ की आवाज़ ही निकलती रही। बोलने की कोशिश एक फूंक जैसी निरर्थक आवाज़ों में बदल जाती थी। शायद, मुझे लकवा ही मार गया था। अफ़जल ने तुरंत मुझे अस्पताल पहुंचाया। दायीं बांह और नीचे का धड़ सोया पड़ा था। डॉक्टरों ने छूकर देखा। न मुझे हाथ का स्पर्श महसूस होता था, न सुई के चुभने का दर्द। डॉक्टरों ने बताया, मुझे अधरंग हो गया है। डेढ़ महीना अस्पताल में दाख़िल रही। फिजियोथेरैपी करवाई। कई तरह के टीके लगवाए। गोलियां खाईं। चलने-फिरने योग्य तो न हुई, पर ठीक तरह से बोलने लग पड़ी। घर आकर भी इलाज जारी रखा। कई हकीमों के तेल की मालिश होती रही, कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा। नीचे के धड़ ने काम करना छोड़ दिया था। कूल्हे से पैरों तक मानो देह मुर्दा हो गई थी। बायीं बांह के आसरे करवट बदल लेती थी। कभी सिरहाने की टेक लगाकर बिस्तर से उठकर भी बैठ जाती थी।

टी.वी. देखते हुए मैं काम करती गोगी पर पर नज़र रखती रहती, कुछ न कुछ कहती रहती, ‘ऐसे नहीं, वैसे कर। यह चीज़ यहां नहीं, वहां रख।’

‘बीबी जी, आज क्या पकाना है?’ किचन में से जूठे बर्तन मांजकर लौटती हुए गोगी ने आवाज़ दी है।

‘दाल-चावल।’ मैंने उसे बताया है।

घर के काम गोगी को ही करने होते हैं, पर मर्जी मेरी ही चलती है। यूं मैं बड़ी परेशान थी। बीमारी से अधिक मुझे घर की चिंता थी। छोटे-छोटे बच्चे हैं, क्या होगा? अफ़जल की और मेरी यह लव-मैरिज़ है। उसने यह रिश्ता अपने घरवालों की मर्ज़ी के खिलाफ़ किया था। मैं शुरू से ही अपनी ससुराल से अलग रह रही हूं। सास-ननदों को मेरे घर की चिंता क्या होगी? उन्होंने तो कभी मेरा हाल भी नहीं पूछा। बीमार पड़ी तो मेरी मां ने मुझे सहारा दिया। बच्चे संभाले, घर की देखभाल की। मेरे अस्पताल से घर आने पर कुछ देर बाद मां को मेरा भाई आकर ले गया था। बेटों के होते दामाद के घर रहने को मां भी अच्छा नहीं समझती थी, इसलिए चली गई।

मां जितनी देर यहां रही, मुझे बिस्तर पर पड़ी को हमेशा तरसभरी नज़रों से देखती रही। ईश्वर के आगे मेरा घर बसते रहने की अरदासें करती रहती। उसकी लाडली बेटी लाचार हो गई थी। मेरा जोबन कुम्हला गया था। खिली हुई कपास पर जैसे ओले पड़ गए हों। मां के मन में कई तरह की आशंकाएं पैदा होती रहतीं। मेरे माता-पिता ने अपनी बेटी के बहाने एक गरीब व्यक्ति का घर भर दिया था। मां का मुझे यूं देखना मुझसे सहा नहीं जाता। मेरी ख़ैर-ख़बर लेने आईं स्त्रियां मेरी बीमारी को देखकर कम और मेरे घर के बारे चिंता अधिक ज़ाहिर करतीं। मर्दों की बेवफाई के किस्से सुना-सुनाकर हम दोनों मां-बेटी को डराती रहतीं। उनकी बातें सुनकर अफ़जल पर से मेरा भरोसा तिड़कने लगता। घर आई औरतों को झांकती उसकी नज़रों में मैं वो पुरानी भूख खोजती रहती। शक मेरे अंदर फुंफकारता रहता, पर मैं हर बार इसका फन कुचल देती। अफ़जल पर दृढ़ भरोसा होने के बावजूद कोई डर कहीं मेरे अंदर बैठ गया था।

मां के चले जाने के बाद मुझे बड़ी मुश्किल पेश आई। घर की साफ़-सफ़ाई के लिए हफ्ते बाद एक नौकरानी आती थी, पर अब तो दिनभर काम करने वाली किसी नौकरानी की ज़रूरत थी। कोई भरोसेमंद नौकरानी मिलनी भी कहां आसान है। अफ़जल मुझसे कहता, घर के कामों के लिए अपने किसी रिश्तेदार की लड़की को बुला लूं। मैं बहन को एक बार कहती तो वह अपनी बेटी को भेज देती, पर मन के अंदर के खौफ़ के चलते मैंने अफ़जल को टाल दिया।

गोगी आई तो घर चल पड़ा। अब घर के कामों के लिए मैं इसकी मोहताज हूं। मैं जो किसी नौकरानी को बहुत समय तक टिकने नहीं देती थी, बीमारी के हाथों मजबूर हूं। अफ़जल ने घर पहले ही मुझ पर फेंक रखा था। घर में क्या लाना है, क्या नहीं लाना, कौन-सी वस्तु मौजूद है, कौन-सी खत्म हो गई – इससे उसको कोई वास्ता न होता। इन बखेड़ों में वह पड़ता भी नहीं था। शुरू से ही महीनावार बंधा हुआ खर्चा मुझे देकर वह घर की जिम्मेदारी से आज़ाद हो जाता रहा है, पर मेरी बीमारी के बाद उसने घर में पूरा ध्यान दिया है। बच्चों की ओर बहुत ख़्याल रखा है। बीमारी के बावजूद मैंने भी अपनी हस्ती और हैसियत दिखाए रखी है। अपने आप को कभी भी उपेक्षित नहीं होने दिया। रिश्तेदारों से भी टूटी नहीं। स्वयं कहीं जाने योग्य नहीं रही तो क्या हुआ? रिश्तेदार खुद आकर मिल जाते हैं। किसी के लिए यह घर उसकी भतीजी का है और किसी के लिए बहन का। इस घर की मालकिन से जुड़े रिश्ते वाला मोह और नौकरानी के हाथ की बनी चाय का स्वाद मेहमानों को यहां खींच लाता है।

बिस्तर पर लेटी-लेटी भी रिश्तेदारी निभाये जाती हूं। सभी रिश्तेदार मुझसे खुश हैं। एक अफ़जल ही कुछ खीझा-खीझा रहने लगा है। मेरी बीमारी के बाद हम दोनों के रिश्ते में एक दरार-सी आ गई है। उसको कोई थोड़ी-सी कमी रहने लगी है। मेरी यह मुर्दा देह। मैं उसके बराबर पूरी कैसे उतरूं? आग के सामने आग होकर कैसे टकराऊं? सुलगती आग बर्फ़ को छूकर ठंडी हो जाती है। फिर घर में एक अनबन-सी रहने लगी। मैं अफ़जल की टोह में रहने लगी थी। मैंने गोगी पर नज़र रखनी शुरू कर दी थी। कहीं यह मेरी चोर तो नहीं? बच्चे रोज़ पड़ोसियों के यहां ट्यूशन पढ़ने जाते हैं। उस दिन भी गए हुए थे। अफ़जल के बेडरूम में से गोगी की हंसी सुनाई दी। वह खिलखिलाकर हंस रही थी मानो उसको कोई गुदगुदी कर रहा हो। मैंने अफ़जल की ख़बर ली तो क्लेश बढ़ गया। उसने मुझे गालियां निकालीं और बेवजह बच्चों को पीटा। मां को पता लगा तो वह दौड़ी आई। उसने मुझे समझाया। मां को हमारे रिश्ते के बीच की दरार का पता था। उसने रिवाजी रिश्तों और सामाजिक बंधनों के बारे में कई बातें कीं। उस दिन पहली बार मैंने जन्मजात और बनावटी रिश्तों के भीतर के फर्क़ को गहराई में जाकर देखा। जन्मजात रिश्ते ही अटूट हैं, यह मैंने जाना। कहीं दो पक्षों में से एक पक्ष द्वारा संबंध-विच्छेद करने के बावजूद उन दोनों के बीच का रिश्ता मौजूद रहता है? मेरे मामों की मिसाल मेरे सामने थी। उनसे लड़ाई-झगड़ा होने के बावजूद वे हमसे मां के मायके को ननिहाल-घर कहने का हक़ नहीं छीन सके थे। जन्मजात रिश्तों में इतनी मजबूती? मैं हैरान थी। और सामाजिक रिश्ते एक दम कच्ची तांत जैसे। थोड़ा-सा खिंचने पर ही टूट जाने वाले। अफ़जल के साथ सारे मोह के बावजूद मैं डर गई। मैं सोचने लगी, जो व्यक्ति एक औरत की ख़ातिर अपने जन्मजात रिश्ते छोड़ सकता है, वह किसी दूसरी औरत के लिए इस रिवाजी रिश्ते को भी तोड़ सकता है। कुछ दिन यह मर्द-औरत का रिश्ता मुझे बड़ा कच्चा लगा। सोचा, अगर आज मैं इस घर की मालकिन हूं तो सिर्फ़ समाज द्वारा मंजूर किए गए रिश्ते के कारण ही। मेरे तगड़े पीहर के डर से अफ़जल मुझे तलाक न दे सके, फिर भी मेरे पर सौतन तो ला ही सकता है। मां ने भी मुझे यही चेतावनी दी।

फिर भयभीत मां मुझे समझाने लगी, ‘भूखे भेड़िये को छेड़कर अपना घर उजाड़ना चाहती है? शोर मचाने की क्या ज़रूरत है? सियानी बन! ऐसा करने से वह कोई उसकी बीवी नहीं बन जाएगी। शुक्र कर तेरा ही बोझ उठा रखा है। भला हो उसका जिसने घर के चूल्हे के साथ छप्पर को भी संभाल रखा है।’ मां मुझे सुनाती जा रही थी। अब जब यह पता लगा है तो मैं चिंतामुक्त हो गई हूं।

‘बाहर मुंह मारने से तो अच्छा है, घर में ही जरूरत पूरी होती रहे उसकी। बेटी! अब तुझे सौतन का कैसा डर? जियें तेरे बच्चे, बसता रहे तेरा घर। तू मालकिन है।’

मां दो दिन रहकर चली गई थी। लाउंज में पड़ी फ्रिज में से कोई शै लेने आई गोगी की ओर मैंने देखा है। उसने नहाकर साफ़ कपड़े पहन लिए हैं। अपने दफ्तरी काम से दूसरे शहर गया अफ़जल जब घर लौटेगा, ये गोगी किसी सस्ती-सी लिपिस्टिक से होंठ भी रंग लेगी।

बेडरूम में से आने वाली आवाज़ों से बचने के लिए मैं टी.वी. का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ के करीब कर लेती हूं। ज़रूरत पड़ने पर, किसी भी म्यूजिक चैनल का वोल्यूम तेज़ करने के लिए।

(अनुवाद : सुभाष नीरव)

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