मक्खी मुक्त (मक्खी घुमड़ा : कर्नाटक की लोक-कथा

Makkhi Mukt (Makkhi Ghumda) : Lok-Katha (Karnataka)

एक शहर था। वहाँ का एक राजा था। बड़ा ही धर्मात्मा था। गरीबों की, दुःखी लोगों की वह बहुत सहायता करता था, मगर उसे एक बात का दुःख था, वह यह कि उसके कोई संतान न थी। सभी देवी-देवताओं की पूजा की, व्रत रखा, फिर दूसरी औरत से शादी की, उससे भी कोई संतान नहीं। फिर क्या करता, किसी से तो उसे अपना दुःख बाँटना था। अपने मंत्री के आगे रोना रोया। तब मंत्री ने सलाह दी। इनसान होकर जो कुछ किया जा सकता था, वह सब आपने किया है। अब भगवान् को कृपा करनी है। उसकी कृपा से ही कुछ चमत्कार हो सकता है। इसलिए आप एक काम कीजिए कि जंगल में जाकर तपस्या कीजिए।

राजा मंत्री की मंत्रणा मानकर जंगल में तपस्या करने के उद्देश्य से जाता है। तपस्या शुरू करने से पहले ही उसे वहाँ एक वटवृक्ष के नीचे बैठा ऋषि दिखाई देता है। राजा उसको नमस्कार करता है, अपने जंगल आने का कारण बताता है। ऋषि उसके दुःख को समझता है। ऋषि राजा को वहाँ स्थित एक फलदार वृक्ष को दिखाकर उसमें से दो फल तोड़कर लाने को कहता है। उसे ले जाकर दोनों पत्नियों को एक-एक फल देने को कहकर राजा से एक वचन चाहता है। वचन यह है कि दोनों पत्नियों से होनेवाले बेटों में से बड़े बेटे को ऋषि को सौंपना होगा। राजा वचन देता है। फिर फल तोड़ने के लिए राजा पेड़ पर चढ़ता है। पेड़ पर बहुत सारे फल लगे थे तो राजा को लोभ हुआ। उसने सोचा, अधिक फल तोड़ने पर अधिक, यानी बहुत सारे बेटे पैदा होंगे, उसमें से बड़े बेटे को ऋषि को देने में दिक्कत नहीं होगी।

इस तरह राजा ने कई फल तोड़ लिये। फल तोड़कर जैसे ही राजा नीचे उतरता, हर बार उसके पास दो ही फल बचते। बाकी कहाँ लुप्त हो जाते, उसे पता भी नहीं चलता। अंत में वह बचे दो फल ही लेकर नीचे उतरा। अपने राज्य लौटकर उसने दोनों पत्नियों में वे फल बाँट दिए।

कालांतर में राजा की दोनों रानियों ने दो संतानों को जन्म दिया। एक अनहोनी बात यह थी कि राजा की बड़ी पत्नी ने इनसान की जगह एक शंख को जन्म दिया और दूसरी रानी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया था।

राजा को वैसे भी बड़ी रानी से बढ़कर छोटी रानी से ज्यादा प्रेम था। वह दूसरी रानी की संतान को ज्यादा दुलारता है। बड़ी रानी की उपेक्षा कर उससे बात करना भी छोड़ देता है।

वचन के अनुसार ऋषि अपना दाय माँगने आता है। बड़ी रानी ने शंख को जन्म दिया था, मगर उसी शंख के प्रति उसकी ममता थी। इसीलिए ऋषि जब अपना हक पेश करता है, रानी उसके आगे बहाना बनाकर विनती करती है, “बाबा, यह बेटा आखिर शंख है। वचन के हिसाब से इस पर आपका ही हक बनता है, मगर मेरी एक विनती है, वह यह कि इसको थोड़ा बड़ा होने दीजिए, उसके बाद आप ले जाइए।”

ऋषि उसकी बात मानकर लौट जाते हैं।

इधर ‘दिन दूना रात चौगुना’ शंख बड़ा होता, पलता रहता है। इस बीच एक अनहोनी घटना घटती है। अनहोनी, यानी रोज रात के समय रानी एक बरतन में दूध जमा करके रखती है, मगर सुबह होने पर दूध का बरतन खाली हो जाता। एक दिन रानी कौतूहलवश जागती रहती है। रात को बारह बजे के बाद वह एक विचित्र घटना देखती है। शंख जो उसका बेटा था, उसमें से एक सुंदर राजकुमार निकलता है, वहाँ रखा सारा दूध पीकर वह फिर से शंख में जाकर समा जाता है। यह क्रम कई दिनों तक चलता रहता है। एक दिन रानी भावुक होकर उसे उठाकर खूब प्यार करती है।

एक दिन की बात है। राजकुमार शंख से बाहर निकलकर जैसे ही दूध पीकर लौटने लगता है, देखता क्या है कि माँ ने शंख को वहाँ से हटा दिया है। विवश होकर वह माँ से कहता है, माँ आपने शंख को क्यों हटा दिया? मुझे अभी उसी में रहकर बढ़ना था, मगर उस हालत में कुछ नहीं किया जा सकता था। वह आगे माँ के पास रहकर ही बढ़ता रहता है।

वह ऋषि अब फिर से राजा के पास आ जाता है। राजा को उसका वचन याद दिलाता है। इस बीच राजमहल में जो बात घटी थी, शंख राजकुमार के रूप में परिवर्तित हुआ था, इस बात की राजा को कोई जानकारी नहीं थी।

ऋषि राजकुमार को लेकर निकल जाता है। जब रानी रोने लगती है, राजकुमार खुद आगे बढ़कर अपनी माँ को समझाकर शांत कराता है।

ऋषि लौटती बार जंगल-मैदान-पहाड़ आदि मार्ग से चलकर अंत में एक बड़ी गुफा के पास पहुँचता है। वह राजकुमार को उस गुफा के अंदर ले जाता है। वहाँ अंदर एक देवी माँ की मूर्ति रहती है। ऋषि रोज उस मूर्ति की पूजा करता रहता है। एक दिन वह राजकुमार को बुलाकर कहता है, ‘मैं जाकर नदी में नहा करके लौटता हूँ। मेरे लौटने तक तुम यहाँ पर झाड़ू लगाकर कपड़े से पोंछकर जगह को साफ-सुथरा कर रखो।’ इतना कहकर वह नदी की तरफ निकल जाता है।

राजकुमार को यह पहली बार अकेले रहने का अवसर मिला था। वह यह सोचकर कि अपने पास काफी समय है, थोड़ी देर के लिए मैं गुफा की प्रदक्षिण कर आऊँ, घूमना शुरू करता है। गुफा के दाईं तरफ एक कोने पर एक इनसान के प्रवेश करने योग्य छेद उसे दिखाई देता है।

बालक सहज कौतूहल से उसके अंदर घुस जाता है। अंदर जाने पर उसे जो दिखाई देता है, उसे खुद अपनी आँखों पर विश्वास नहीं होता। उस तल भाग की छत पर चारों तरफ कई मुंड, यानी गले के ऊपरी भाग छड़ों की तरह लटकते रहते हैं। राजकुमार को देखकर वे मुंड अट्टहास कर हँसना शुरू कर देते हैं। राजकुमार अंदर से जरूर डर जाता है, फिर भी हिम्मत कर वह पूछता है, “तुम लोग इस तरह क्यों लटके हुए हो, तुम लोगों का धड़ कहाँ गया, मुझे देखो, मैं कैसा लगता हूँ?”

जवाब में वे मुंड बोलते हैं, “तुम्हें देखकर हमें दया आ रही है। तुम्हें धोखा हुआ है। हमें भी यह ऋषि धोखा देकर इसी तरह ले आया था। हमें यहाँ लाकर काली माँ के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए उसने हमारी बलि दी थी। इसी तरह सौ राजकुमारों की बलि चढ़ाने की उसकी प्रतिज्ञा है। तुम्हारा सौवाँ नंबर है। उसका कहना है कि सौवीं बलि पर काली माँ दर्शन देकर उसकी माँग की पूर्ति करती हैं।”

राजकुमार घबराकर उन्हीं मुंडों से सलाह माँगता है कि अपने को बचाने के लिए मुझे अब क्या करना होगा? अब मुंड बोलते हैं, “तुम हम लोगों पर विश्वास करो, हमारा कहना मानो, हम तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे। सुनो, वह अभी यहाँ आकर तुमसे झाड़ू लगाने को कहेगा। तुम कहो कि मुझे नहीं आता, आप एक बार झाड़ू लगा दो तो मैं सीख लूँगा। वह झाड़ू लगाकर तुम्हें पोंछा करने को कहेगा। तुम पहले की तरह कहो कि मैं पोंछा करना नहीं जानता, आप एक बार करके दिखा देना, फिर में सीख लूँगा। वह पोंछा करता रहेगा, तब तुम काली माँ के हाथ से तलवार छीनकर ऋषि का गला काट देना। काली माँ तब तुमको ही दर्शन देंगी।

राजकुमार मुंडों से कहता है कि मैं बिल्कुल वैसा ही करूँगा।

ऋषि नदी में नहाकर लौटते समय पूजा के लिए फूल लेकर आता है, राजकुमार उसके आने तक दीवार के सहारे खड़ा रहता है। इस पर ऋषि को गुस्सा आता है। वह लड़के से झाड़ू लगाने को कहता है।

राजकुमार कहता है, “मैं झाड़ू लगाना नहीं जानता, आप एक बार करके दिखा दो, फिर मैं झाड़ू लगाऊँगा। विवश होकर मुनि झाड़ू लगाता है। फिर लड़के से कहता है, देखो मैंने झाड़ू लगा दी, अब तुम्हें पानी से पोंछा करना है।”

लड़का कहता है, “मैं पोंछा करना नहीं जानता, आप करके दिखा दो, फिर मैं पोंछा करना सीख लूँगा।”

लड़के की बातों से मुनि को गुस्सा तो आता है, मगर फिर भी अपने गुस्से को निगलकर पोंछा करना शुरू करता है। राजकुमार भी सही समय की ताक में था। वह तुरंत काली माँ के हाथ से तलवार खींचकर मुनि के सिर पर मार देता है। ऋषि का सिर धड़ से अलग हो जाता है।

तब काली माँ प्रत्यक्ष दर्शन देकर राजकुमार से पूछती है, “बेटा, मैं तुम्हारी सेवा से संतुष्ट हूँ। माँग, तुझे क्या चाहिए? मैं दूँगी।”

राजकुमार काली माँ से कहता है, “माँ, सबसे पहले तुम इन निन्यानबे राजकुमारों को पुनर्जीवित कर दो।” देवी कहती हैं, “ऐसा ही होगा।” काली माँ के वैसा कहते ही वे सब सप्राण हो उठते हैं। वे सब राजकुमार का आभार जताकर प्रणाम करते हैं, अपने-अपने देश के लिए रवाना होते हैं।

काली माँ उससे कहती हैं, “बेटा, तुम्हें, दूसरा कौन सा वर चाहिए, माँग?”

उस पर राजकुमार विनम्र होकर काली माँ से कहता है—

“माँ, मुझे ऐसा वर दो कि मैं जब भी तुम्हें देखना चाहूँ, आप मेरे आगे प्रत्यक्ष होकर दर्शन दोगी।”

काली माँ कहती हैं, “ठीक है, ऐसा ही होगा।”

काली माँ अब अदृश्य होती हैं।

राजकुमार अब ऋषि की त्वचा को उधेड़कर उसे स्वयं पहनता है, फिर गुफा के आगे एक भिखमंगे की तरह बैठ जाता है। उसके ऊपर ओढ़े इस अजिन की गंध से आकर्षित होकर उस पर मक्खी घुमड़ती हैं, तब जो भी इनसान उधर से गुजरता है, वह ‘मक्खी चिपका’, ‘मक्खी चिपका’ कहता जाता है।

इस बीच, पड़ोसी राज्य के राजा की सात लड़कियाँ होती हैं। सभी जवान, शादी की उम्र की होती हैं। राजा एक दिन उन सातों लड़कियों को अपने पास बुलाकर उनसे पूछता है कि तुम लोगों को मायका पसंद रहेगा या ससुराल?

उसके इस प्रश्न का जवाब पहली छह लड़कियाँ अपने को ‘पीहर ही पसंद’ कहकर देती हैं, मगर सातवीं बेटी का जवाब अलग होता है। वह लड़की कहती है कि अपने माता-पिता सभी के सुखी रहते उसे अपनी ससुराल ही अच्छी लगेगी। राजा को सातवीं बेटी का जवाब बहुत खराब लगता है, उसे गुस्सा भी आता है। कहता है, “मैंने इतना ज्यादा प्यार देकर तुम्हें पाला, मगर तुम कृतघ्न निकला। अब मैं तुम्हें दंडित करूँगा तो ही मायके का महत्त्व समझ पाओगी।” इतना कहकर चुप होता है, साथ ही वह अपने मंत्री को बुलाकर पहली छह लड़कियों के लिए सुंदर-सुंदर रिश्ते ढूँढ़ लाने को कहता है। सातवीं लड़की के बारे में कहता है कि तुम उसके लिए एक ऐसे दूल्हे को तलाशना, जो एक-एक पैसे को मुँहताज हो और यह भी कि राजमहल की सेविकाएँ खुद वैसे दूल्हे को तलाशें, मंत्री नहीं।

सेविकाएँ ऐसे इनसान को तलाशने निकलती हैं। बहुत तलाशने के बाद अंत में उन्हें यही मक्खी घुमड़ा इनसान दिखाई देता है। वह एक पेड़ के नीचे बैठकर सूखा-बासी, जो भी मिलता था, उसे खाता बैठा रहता है। राजा की इच्छा के मुताबिक इसी इनसान को छोटी लड़की के अनुकूल ठहराकर दासियाँ उसी को पकड़कर राजा के पास लाकर खड़ा कर देती हैं। राजा भी उसी को अपनी बेटी के अनुकूल मानकर उसके साथ अपनी छोटी बेटी की शादी रचा देता है। पहली छह लड़कियों की शादी

धूमधाम से होती है और वे सब राजमहल में ही ऐशो-आराम करती रहती हैं। यह मक्खी घुमड़ा मात्र अपनी पत्नी को लेकर शहर से बाहर थोड़ी दूर एक झोंपड़ी बनाकर रहने लगता है। बड़ी लड़कियाँ रेशम के कपड़े, मोती-मूँगे की मालाएँ, हीरे के हार आदि पहनती हैं, छोटी मात्र पुरानी, फटी सूती साड़ी पहने रहती है। इसकी बड़ी बहनें, जीजा लोग सभी उसकी हालत पर हँसते हैं। उससे पूछते हैं कि अब तो बता, पीहर अच्छा है या ससुराल? मगर छोटी का जवाब पहले जैसा ही, ‘ससुराल ही अच्छी’ होती है।

इसी तरह कुछ और दिन बीतते हैं। एक दिन राजा के छहों दामाद एक साथ शिकार करने जंगल में निकलते हैं। निकलने से पहले इसकी सूचना में ढिंढोरा पिटवाते हैं। यह खबर मक्खी घुमड़े को भी पता चलती है। वह अपनी पत्नी को बुलाकर कहता है, “सुनो, मेरे छहों साढ़ू भाई शिकार करने जंगल के लिए निकले हैं। उनके साथ जाने की मेरी भी इच्छा हो रही है, अपने पिता के पास जाकर इसके लिए जरूरी सब चीजें माँग लाओ।” पति की बात वह टाल नहीं पाती, इसलिए पिता के घर जाकर वह एक खंभे के सहारे खड़ी हो जाती है। उसका बाप उससे पूछता है, “कैसे आई बता?” वह अपने आने का उद्देश्य बताती है।

राजा मंत्री को बुलाकर एक लँगड़ा घोड़ा, एक जंग लगी तलवार देकर भेजने को कहता है। उसे देख उसकी बड़ी बहनें और जीजा लोग मजाक करते हैं। छोटी को इससे बहुत दुःख पहुँचता है। फिर भी वह उनके समाने ही वह लँगड़ा घोड़ा और जंग लगी तलवार लेकर अपनी झोंपड़ी में लौट आती है। अगले दिन वे छह दामाद अपने परिवार को साथ लेकर जंगल के लिए निकलते हैं। उनके परिजन भी कितने सारे थे। राजमहल से जंगल तक लोग ही लोग खड़े थे। मक्खी घुमड़ा भी पत्नी से कहकर लँगड़े घोड़े पर चढ़ हाथ में जंग लगी तलवार लेकर निकलता है। पत्नी को उसे इस हालत में भेजते डर लगता है। वह अंदर-ही-अंदर ऐसा सोचकर घुलती रहती है कि वे लोग तो इतने बड़े परिवार को साथ लेकर गए हैं। मेरा पति बिल्कुल अकेला है। कुछ विपदा आई क्या होगा? मगर पति के सामने खुशी जाहिर करती हुई उसे भेज देती है।

वह थोड़ी दूर जाकर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर काली माँ का स्मरण करता है—काली माँ तुरंत दर्शन देती हैं। वह उनसे कहता है, “माँ, मुझे आसमान में उड़नेवाला एक घोड़ा और एक वज्रायुध चाहिए।” काली माँ कहती है, “स्वीकार है।” दोनों चीजें उसे देती हैं। उसके बाद वह कहता है, “इस जंगल के सभी जीव-पशु-पक्षी मेरे सामने आकर खड़े हो जाएँ।” काली माँ “स्वीकार है” कहकर अदृश्य होती हैं। तब राजकुमार उस ऋष्याजिन को अपने तन से उतारकर पास ही एक पेड़ पर रख देता है। आसमान में उड़नेवाले घोड़े पर चढ़कर, वज्रायुध को हाथ में पकड़कर निकल पड़ता है। आसमान में उड़कर बीच जंगल में आ खड़ा होता है, उसके चारों तरफ जंगल के सभी जानवर घुमड़कर खड़े होते हैं।

उधर छहों दामाद जंगल में खूब घूमकर थके-माँदे आ खड़े होते हैं। उनके हाथ एक मामूली सा मच्छर भी नहीं लगा था। तब उन्हें उस सीमा तक अपमान लगता है कि अपना झुका माथा वे सीधा नहीं कर पाते। अपने परिवार को एक तरफ भेजकर वे दूसरी तरफ से घूमकर आते हैं। यहाँ आकर इस दृश्य को देखते हैं। उन्हें आश्चर्य होता है। उसे देखकर वे भ्रमित होते हैं। उसे उस जंगल का राजा समझकर प्रणाम करते हैं। तब वह उनसे पूछता है कि आप लोग कैसे आए? वे जवाब देते हैं कि हम लोग शिकार खेलने के उद्देश्य से आए थे, मगर उसका यह नतीजा निकला। उनसे वह कहता है कि ठीक है। मैं जो चीज माँगूँगा, उसे तुम लोग दे दो तो मैं तुम्हें शिकार खेलने दूँगा। वे लोग उसकी बात मान लेते हैं। वह उन छह लोगों से राज-पाठवाली अँगूठी देने को कहता है। वे लोग उसकी बात मानकर अँगूठी उतारकर उसे देते हैं। उसे पहनकर उन्हें छह बाघ पकड़कर देता है। तब वे लोग घमंड का दिखावा करते हुए, मानो खुद शिकार खेल चुके हों, उन बाघों को लेकर अपने यहाँ लौटते हैं। वह फिर भी पेड़ के पास, जहाँ उसने ऋष्याजिन छिपाकर रखा था, आता है और उसे पेड़ के ऊपर से उतारकर पहनता है। बाकी सबसे छिपाकर रखता है, फिर एक बगीचा-छिपकली पकड़कर लौटता है। “ले, यह अपने बाप को दिखलाया,” कहकर पत्नी के हाथ में उसे देता है। वह उसकी बात को टाल नहीं पाती। “ठीक है,” कहकर उसे ले जाती है। वहाँ सभी बड़े संभ्रमित होकर उत्सव मनाते रहते हैं। वह वहाँ जाकर एक खंभे की आड़ में खड़ी हो जाती है। उसे देखकर सभी उसकी हँसी उड़ाते हैं। इससे वह अपने को बहुत अपमानित महसूस करती है। घर लौटकर अपने पति को सविस्तार घटना का वर्णन करती है।

कुछ दिन बाद राजा के छहों दामाद दोबारा शिकार के लिए निकलते हैं। जंगल में आकर देखते हैं कि वहाँ कोई जानवर ही नहीं है। पिछली बार जैसा ही होता है। फिर से उन पर एक शर्त लगाकर वह अपनी पसंद का जानवर पकड़कर ले जाने को कहता है। इस बार वे लोग अपने-अपने हाथ की छोटी उँगली काटकर उसे सौंप देते हैं और एक-एक शेर को पकड़कर राजधानी लौटते हैं। फिर इसके बाद अगली बार भी, यानी तीसरी बार भी इसी तरह होता है। इस बार वह उन सभी लोगों के कपड़े उतरवाकर, उनकी पीठ पर गरम सलाख से जलाकर छह हाथी पकड़कर देकर उन्हें भेजता है। राजा के ये सब दामाद इस तरह दिखावा करते हुए, जैसे उन्हीं ने हाथियों का शिकार किया हो, बाजे बजवाते, जलसा मनाते घर लौटते हैं।

मक्खी घुमड़ा भी मामूली, पिछली बार की तरह ऋष्याजिन पहनकर घर लौटता है। अपनी पत्नी से कहता है कि मैं बहुत थका हुआ हूँ। पानी गरम कर दो तो नहा लूँगा। वह पानी गरम कर देती है। फिर वह नहाने जाता है। वह आदतन नहाते समय किसी को भी अंदर आने नहीं देता था। आज उसकी पत्नी को कुछ शक होता है। वह आज उसके पीछे का राज जानने का मन बनाती है और उसके नहाते वक्त वह एक छेद से देखती है। देखती क्या है कि पति राजकुमार की तरह शानदार चमक रहा है। उस अजिन को खोलकर उसने बगल में ही रख लिया था। वह सोचती है कि किसी तरह ऐसा करना चाहिए कि यह अजिन उसके हाथ न लग सके। मक्खी घुमड़ा जब बालों में शिकाकाई लगा रहा था, उसकी आँखें बंद थीं। उस अवसर का लाभ उठा वह उस अजिन को उठाकर जलते चूल्हे में डाल देती है। नहा चुकने के बाद मक्खी घुमड़ा अजिन को पहनने के उद्देश्य से अपने चारों तरफ देखता है, मगर वह तो आग की आहुति बन चुका था। अब राख मात्र उसे दिखाई देती है।

हालाँकि यह सब उसे बहुत खराब लगता है, वह अपने आपको समझाकर चुप ही रहता है, पत्नी से सारी बातें कहता है, “अब क्या किया जा सकता है? ऐसा करो कि तुम कुछ दिन अपने पिता के यहाँ रहो। मैं बाद में आ जाऊँगा।” पति की बात मानकर वह राजा के यहाँ जाती है। उसके मायके लौटने पर उसकी दीदियाँ, जीजा लोग सभी मिलकर उसकी खिल्ली उड़ाते हैं। तब तक मक्खी घुमड़ा आकाश मार्ग से उड़ते घोड़े पर चढ़कर वहाँ, जहाँ पर छोटी को वे लोग नीचा दिखाते रहते हैं, आ उतरता है। ये छह लोग अपना राज खुल जाने के डर से काँपने लगते हैं। उनको वह राजछापवाली अँगूठियाँ दिखाकर कहता है, “ये लो, पहली बार तुम लोगों को बाघ पकड़कर दिया था न, तब जो अँगूठी तुम लोगों से ली थी”, कहते हुए अँगूठी देता है। फिर दूसरी बार शिकार खेलने तुम लोग जब आतुर थे, तब तुम लोगों से जो छोटी उँगली ली थी, वह लो और तीसरी बार मैंने तुम लोगों को जो शिक्षा दी थी, वह तुम लोगों के कपड़े, ये भी लो।” कहकर उन्हें देता है।

वह छहों दामाद और उनकी पत्नियाँ बिना बोले किसी एक कोने में जाकर छिपकर बैठ जाते हैं।

तभी मक्खी घुमड़े के किए कार्यों से संतुष्ट होकर उसकी पत्नी आकर उसके गले लग जाती है। सभी लोगों को यह पता लग जाता है कि यह और कोई नहीं, छोटी का पति है, सभी अपमानित सा अनुभव करते हैं। राजा तो शर्म से अपना सिर भी नहीं उठा पाता।

फिर वह आकाश में उड़नेवाले घोड़े पर चढ़कर अपनी पत्नी को साथ बिठाकर अपने राज्य में लौटता है। वहाँ पर उसके माता-पिता संतुष्ट होकर उनका स्वागत करते हैं। वे सब एक साथ रहकर सौ वर्षों तक राज्य करते सुखी जीवन बिताते हैं।

(साभार : प्रो. बी.वै. ललितांबा)

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