मैंने किताबों से एक घर बनाया है : प्रकाश मनु
Maine Kitabon Se Ek Ghar Banaya : Prakash Manu
पिछले दिनों लिखी गई कविताओं में एक कविता अकसर मेरी स्मृतियों में दस्तक देती है और मैं एक और ही दुनिया में पहुँच जाता है। शायद इसलिए कि यह कविता तो है, पर साथ ही कहीं न कहीं मेरी आत्मकहानी भी है। मुझे लगता है, मुझे शुरुआत यहीं से करनी चाहिए। इस कविता की शुरुआती पंक्तियाँ हैं—
मैंने एक घर बनाया है
किताबों से,
किताबों से एक घर बनाया है मैंने
जिसके दरवाज़े किताबों के हैं,
खिड़कियाँ किताबों की
किताबें हैं जो एक कमरे से दूसरे
कमरे तक ले जाती हैं
और फिर दरवाजों में दरवाज़े
कमरों में से तमाम-तमाम कमरे खुलते हैं
और यह कोई तिलिस्म नहीं, हक़ीक़त की है दुनिया
जिसमें हर कमरे की है अलग रंगत, अलग ऊष्मा
हर कमरे की है एक दुनिया
जिसमें कोई अजब दीवाना सत्यखोजी अपनी खोज में जुटा है।
यह दीवाना सत्यखोजी कौन है, बताने की ज़रूरत नहीं है। पर इतना बताना ज़रूरी है कि मेरे बचपन में यह सत्यखोज पहले पहल निराला, दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त और बालकृष्ण शर्मा नवीन की कविताओं के जरिए ही शुरू हुई थी, जो मुझे उँगली पकड़कर खींचती हुई धीरे-धीरे साहित्य की उस अंतर्मुखी दुनिया की ओर ला रही थी, जो जल्दी ही मेरे लिए ज़िन्दगी का पर्याय बन गई।
कविता का और मेरा पुराना साथ है। कभी-कभी तो लगता है, जन्म-जन्मांतरों का। बचपन और किशोरावस्था की लटपट कोशिशों को छोड़ दें, तो सन् 1970 के आसपास बाकायदे कुछ न कुछ लिखने और नियमित लिखते रहने की शुरुआत हुई। तब मैं कोई बीस बरस का रहा होऊँगा। कविता मेरी एकमात्र सहयात्री थी। मेरी दोस्त और हमकदम भी और बरसों तक यही सिलसिला चलता रहा। कविता और मैं। मैं और कविता। एक अनंत सिलसिला था। बेछोर।
उन दिनों अपने गृहनगर शिकोहाबाद से मैं बी.एस-सी. कर रहा था। विज्ञान का विद्यार्थी, पर मन बार-बार उड़कर साहित्य की मायानगरी में पहुँच जाता। वहाँ निराला थे, जो मुझे बहुत मोहते थे। दिनकर और मैथिलीशरण गुप्त थे, जयशंकर प्रसाद और पंत भी और इनके साथ ही अज्ञेय, धर्मवीर भारती, गिरिजाकुमार माथुर, भवानीप्रसाद मिश्र, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे वगैरह-वगैरह। तब ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ पत्रिकाएँ एक नए युग की संदेशवाहक बनकर आती थीं और ये भी मुझे बार-बार उड़ाकर साहित्य की नगरी में ले जाती थीं, जिसका आकर्षण मेरे लिए निरंतर दुर्निवार होता जा रहा था।
फिर आगरा कॉलेज, आगरा से एम.एस-सी. करने गया, तब भी यही हालत। हाथ में विज्ञान के भारी-भरकम पोथे, पर मन कल्पनालोक में पता नहीं कहाँ-कहाँ मँडराता। कोई हाथ हिला-हिलाकर मुझे बुला रहा था, ‘आ जा, आ जा, आ जा...!’ यह कौन था, जो इतनी व्यग्रता से मुझे बुला रहा था और मेरी आत्मा को बेतरह व्याकुल बना रहा था? मैं अनगिनत छेदों वाला एक बाजा बन चुका था, जिसमें से हवा गुजरती तो अजीब-सा संगीत गूँजता था। एक आदिम संगीत। वह बार-बार मुझे सवालों के घेरे में डाल देता, मैं कौन हूँ...क्या करना चाहता हूँ...? मेरे जीवन की सार्थकता क्या है...? यह विचित्र संगीत था। मेरे होने का संगीत। मेरे अस्तित्व का संगीत। वह बार-बार मुझे अपने जीवन का मकसद खोजने के लिए कहता। मेरे भीतर उसकी गूँजें-अनुगूँजें भरती जातीं और मैं बेचैन-सा यहाँ-वहाँ डोलता।
मैं ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा था कि मेरे साथ यह हो क्या रहा है। पर शायद कुछ थोड़ा-थोड़ा समझ भी पा रहा था।
पर मैं क्या करूँ, क्या नहीं, यह मुझे कौन समझाता? चीजें अब भी उलझी हुई थीं।
आगरा कॉलेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. पास करते-करते चीजें साफ़ हो चुकी थीं। मुझे जैसे कुछ इल्हाम-सा हुआ कि प्रकाश मनु, तुम्हारा जन्म तो साहित्य के लिए ही हुआ है। तो तुम कब तक चक्की के दो पाटों के बीच पिसते रहोगे? क्या ज़िन्दगी भर...?
लगा कि अब निर्णय लेने का समय आ गया है।
मैंने घर वालों को बताया कि मैं अब नए सिरे से जीवन की शुरुआत करना चाहता हूँ। मैं हिन्दी साहित्य से एम.ए. करूँगा, फिर पी-एच.डी और एक बिल्कुल अलग-सा जीवन जिऊँगा। सुनकर हर कोई अवाक। भौचक्का। यह क्या पागलपन है?...पर मैं जीवन की फिर से नई शुरुआत करने का निश्चय कर चुका था।
जीवन अब बदल चुका था। जीवन की डगर भी। बहुत कुछ नया-नया-सा था। शायद मैंने कुछ-कुछ अपने आप को पहचान लिया था।
आत्मा पर पड़ी हुई बेड़ियाँ टूट रही थीं। हालाँकि अंदर बराबर एक धुकधुकी-सी बनी रहती। क्या मैंने सही निर्णय लिया है? क्या मैं किसी अनजानी राह में भटक तो नहीं जाऊँगा? मेरा क्या होगा, क्या नहीं?...
सवालों पर सवाल। कुछ सख्त, कठोर, कुछ धुँधले। धुँधुआते से। एक अनिश्चितता भरा जीवन मेरे आगे था और मैं नहीं जानता था कि वह कहाँ जाएगा, कहाँ नहीं।
इस सबका एक ही जवाब बार-बार मेरे अंदर से आता कि मैं पूरी नहीं, आधी रोटी खाऊँगा, या फिर भूखा ही रह लूँगा, पर जिऊँगा साहित्य के लिए ही।
इससे पहले आगरा छोड़ते-छोड़ते ‘रोशनी के बीज’ कविता-संकलन मैंने निकाला था। तब मैं प्रकाश मनु नहीं, चंद्रप्रकाश रुद्र हुआ करता था। तो यह चंद्रप्रकाश रुद्र के संपादन में ही निकला था, जिसमें रामविलास शर्मा, पद्मसिंह शर्मा कमलेश, घनश्याम अस्थाना, सुखराम सिंह सरीखे आगरा के पुराने कवियों के साथ ही बहुत से नए कवि भी थे, जिनकी कविताओं के ताप को मैंने नज़दीक से महसूस किया था और मन हुआ कि इन्हें सामने आना चाहिए।
मेरे आगरा प्रवास की यह अंतिम निशानी थी। सिग्नेचर ट्यून।
और अब तो पूरा जीवन ही इसी डगर पर बीतना था। यही मेरे जीने-मरने की राह थी। जी गया तो ठीक, नहीं तो जो भी होता—हो सकता था, मुझे मंजूर था।
फिर तो लिखना, लिखना, निरंतर लिखना...! लिखना और पढ़ना। पढ़ना और लिखना। जीवन का मकसद तय हो चुका था।
रात-दिन पढ़ाई। मैंने अपने आपको शब्दों की दुनिया के लिए समर्पित कर दिया। जैसे मेरा जीवन बिना गंध वाला एक जंगली फूल हो और मैंने उसे पूरी भावाकुलता के साथ साहित्य देवता के चरणों में अर्पित कर दिया हो और अब मेरा अपना कुछ न बचा हो।
तब मैं साहित्य की दुनिया का अनाड़ी यात्री था। कुछ कच्चा और बौड़म भी। पर दिल में उत्साह था और शब्दों में सच्चाई। वही मुझे आगे, आगे और आगे ले जा रही थी। गहरे, गहरे और गहरे। मैं शब्दों के जरिए और-और गहरे तल तक जाने की कोशिश करता था, ताकि शब्दों के जरिए पूरी मार्मिकता और बेधकता के साथ वह सच कह सकूँ, जो मेरे भीतर हलचल मचा रहा है।
मगर उन दिनों साहित्य माने कविता, कविता और कविता ही थी। या तो कविता, या फिर कविता की बात। कविता का जीवन, या कहें कवितामय जीवन।...और कविता के सबसे बड़े प्रतिमान तो निराला ही हो सकते थे। तो फिर निराला। निराला की कविताएँ, निराला का गद्य, निराला का जीवन। या फिर निराला पर बातें, बातें और बातें।
उन्हीं दिनों निराला पर रामविलास जी की दोनों पुस्तकें पढ़ीं। पहले ‘निराला’, फिर ‘निराला की साहित्य साधना’ के तीनों खंड और मैं बावला-सा हो गया। हर क्षण निराला से मिलने या उनके नज़दीक होने का अहसास। लगता, निराला से मेरी बातें होती हैं। अहर्निश बातें। मैं कहीं आता-जाता तो लगता, निराला मेरे साथ-साथ चल रहे हैं।
उन्हीं दिनों निराला पर ‘विषपायी निराला’ खंडकाव्य लिखना शुरू किया, जो काफ़ी कुछ लिखा गया था। वह शायद अब भी मेरे पुराने पन्नों में कहीं मिल जाएगा।
एक छोटे से कसबे की अपनी सीमा थी। बहुत कुछ नया वहाँ नहीं मिल पाता था। पर ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ पत्रिकाएँ साहित्य के नवदूतों की तरह मेरे पास आतीं और जितना कुछ उनके जरिए मैं साहित्य की दुनिया में पैठ सकता था, मैं पैठने, सीखने और रमने की कोशिश करता। एम.ए. करते हुए नारायण कॉलेज, शिकोहाबाद का पुस्तकालय जैसे मेरा स्थायी अधिवास हो गया। एम.ए. की कक्षाएँ लगतीं सुबह सात से दस-साढ़े दस बजे तक। उसके बाद पूरा दिन खाली था। कक्षाएँ ख़त्म होने के बाद शाम को पाँच बजे तक पुस्तकालय में बैठकर किताबें पढ़ना—यह तकरीबन रोज़ का सिलसिला था। जितना सहित्य वहाँ उपलब्ध था, पढ़ा।
फिर शहर में आर्य समाज का पुस्तकालय भी कुछ ठीक-ठाक ही था। वहाँ से लेकर बहुत पुस्तकें पढ़ीं। खासकर धर्मवीर भारती की ‘कनुप्रिया’, चंद्रदेव सिंह द्वारा संपादित बेजोड़ नवगीत संग्रह ‘पाँच जोड़ बाँसुरी’, अज्ञेय का ‘बावरा अहेरी’ और ‘हरी घास पर क्षण भर’ और भी बहुत चीजें। शायद धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ भी उन्हीं दिनों पढ़ा गया। पर मुझ पर छाई रही ‘कनुप्रिया’, बरसोंबरस छाई रही। कविता यह भी हो सकती है, मैं चकित। हैरान। पुस्तक की पूरी धज ही बेहद कलात्मक थी। जगदीश गुप्त के छायाँकनों ने जैसे भारती जी की संवेदनशील नायिका कनुप्रिया को साकार कर दिया हो!
उन दिनों चीजों की प्रतिक्रिया बहुत ज़्यादा होती थी। इतनी कि मैं पगला-सा जाता। वाल्मीकि रामायण में राम द्वारा सीता के परित्याग की कथा उन्हीं दिनों पढ़ी तो मन तड़प उठा। यह कैसे राम, जिन्होंने गर्भवती सीता का अकारण परित्याग कर दिया! यह कैसा आदर्श, जो सीता जैसी महिमामयी स्त्री को भी निष्कासित कर सकता है?...मेरा मन वन में अकेली छूट गई सीता के लिए रोता था। राम के लिए एक तरह का क्रोध और तिरस्कार का भाव मन में उठता था, जिन्होंने इतना बडा अन्याय किया। हम सभी के साथ न्याय करें, हर किसी के छोटे से छोटे सुख-दुख की चिंता करें, पर इसके लिए अपनों को इतनी बड़ी यातना दें—इतना बड़ा अन्याय, तो क्या यह अन्याय न होगा? भला कौन इसे उचित ठहरा सकता है?
जितना-जितना मैं इस बारे में सोचता, मेरे अंदर कुछ धधकता-सा था। किसी भी तरह राम का यह रूप मैं स्वीकार नहीं कर पा रहा था। बचपन से तुलसी का रामचरित मानस पढ़ता आया हूँ। तो उनकी एक ऊँची, बहुत ऊँची प्रतिमा मन में थी। पर उनका यह व्यवहार तो उसके अनुरूप न था। लगता था, वह मूर्ति खंडित हो रही है। आज सोचता हूँ, क्या तुलसी ने इसी लिए अपने राम-काव्य को राम के राज्याभिषेक और रामराज के महिमागान तक ही समेट लिया। लवकुश कांड उन्होंने नहीं लिखा। शायद उन्हें यक़ीन न हो कि उनके आराध्य राम ऐसा कर सकते हैं। या फिर वे स्वयं भी इसे उचित न ठहरा पा रहे हों। अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘मानस का हंस’ में तुलसी और रत्नावली की बड़ी अद्भुत मुलाकात का चित्रण है। तब तक तुलसी मानस लिख चुके थे और उनकी काफ़ी ख्याति हो चुकी थी। यहाँ भी रत्नावली और तुलसी की बातों में यह प्रसंग उठता है और तुलसीदास का उत्तर बड़ा मार्मिक है।
जिन दिनों यह सारा बवंडर मन में चल रहा था, मुझे बार-बार ‘संपूर्ण रामायण’ की याद आ रही थी। बचपन में पूरे परिवार के साथ ‘संपूर्ण रामायण’ फ़िल्म देखी थी, जिसने बहुत विचलित किया था। उसके दृश्य फिर-फिर मन में ताज़ा होने लगे और खासकर लव-कुश का यह चुनौती भरा गीत, “हे राम तुम्हारी रामायण तब तक होगी संपूर्ण नहीं, हे राम...हे राम...हे राम...!” मेरे भीतर इसने गूँजों पर गूँजें पैदा कर दी थीं। लगता था, कोई मुझे भीतर-बाहर से बुरी तरह मथ रहा है। दोनों हाथों से पकड़कर झिंझोड़ रहा है।
मेरी विचित्र हालत थी। जैसे अपना गुस्सा, अपना आवेश ख़ुद ही सँभाल न पा रहा होऊँ। उन्हीं दिनों ‘रघुवंश में विद्रोह’ खंडकाव्य लिखा गया, जिसमें लव-कुश बड़े होने पर राम को चुनौती देते हैं और सारा जन-मानस उनके साथ है। लव-कुश वीर हैं। उनके तीर अग्नि बरसते हैं, पर शब्द उससे भी ज्यादा। यह नई पीढ़ी का विद्रोह है, जो अपनी माँ के साथ हुए अपमान को सह नहीं पाती और क्षुब्ध है, नाराज।...
सीता उन्हें बरजती है, पर लव-कुश अपनी बात कहे बगैर नहीं रहते। अंत में राम अपनी भूल स्वीकार करते हैं। वे सीता को पत्नी के रूप में फिर से स्वीकार करना चाहते हैं, पर सीता का इनकार। अयोध्या के महलों की रानी होने के बजाय वह महामानवी भूमिपुत्री बन जाती है। जन-जन की सेवा ही उसका आदर्श बन जाता है और अपना पूरा जीवन वह इसी के लिए समर्पित कर देती है।...
‘रघुवंश में विद्रोह’ पूरा न हो सका। कहीं बीच में ही अटक गया। पर उन दिनों का अपना सच्चा क्रोधावेश मुझे याद है। वह रात-दिन मुझे मथता था। जलाता था। मैं पागल-सा काव्य के ताने-बाने जोड़ता था और नई-नई कल्पनाओं की दुनिया में विचरता था। मैं कुछ ऐसा लिखना चाहता था, जो स्तब्धकारी हो। नए ज़माने का आदर्श उसमें आए। पर शायद उतनी तैयारी अभी न थी। मैं कविता की दुनिया का एक कच्चा खिलाड़ी था। तो ‘रघुवंश में विद्रोह’ बीच में ही छूट गया। पर उसके जरिए मैंने अपने आप को भीतर तक मथा, शायद यही बड़ी बात थी। तो क्या उसके बहाने आगे की कविताओं के लिए ज़मीन तैयार हो रही थी? शायद हाँ।
फिर एम.ए. करने के बाद शोध करने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में गया तो वहाँ ब्रजेश कृष्ण मिले, जो जल्दी ही मेरे प्यारे ब्रजेश भाई हो गए। उनका मिलना मेरे जीवन की एक बड़ी घटना थी। ब्रजेश भाई अच्छी कविताएँ लिखते थे, बहुत कुछ नया पढ़ा भी था। बहुत परिष्कृत साहित्यिक रुचियों वाले ब्रजेश भाई ने मेरे लिए समकालीन साहित्य के द्वार खोल दिए। उन्होंने नए साहित्य से मेरा परिचय करवाया और बहुत सारी बेड़ियाँ तोड़कर, एक नई राह दिखाई। अगर वे न होते तो सच मानिए, आज प्रकाश मनु कहीं न होता, कुछ न होता!
ब्रजेश भाई ने मुक्तिबोध, धूमिल, विष्णु खरे, कैलाश वाजपेयी, ज्ञानेंद्रपति, अशोक वाजपेयी, जितेंद्र कुमार, कमलेश समेत बहुत से कवियों से मिलवा दिया था, जिनकी प्रतिभा का आलोक मुझे बेचैन कर रहा था। इनमें सभी को किसी न किसी रूप में मैंने पसंद किया। लेकिन मुक्तिबोध, धूमिल और विष्णु खरे तो मुझ पर छा गए थे। हालाँकि इनमें सबसे ऊपर थे मुक्तिबोध। वे जैसे मेरे व्यक्तित्व के भीतर धँस गए थे। मेरे पोर-पोर में समा गए थे। मेरे लिखने-पढ़ने, बोलने-चालने सबमें वे थे। यहाँ तक कि साँस लेने में भी। निराला के बाद पहली बार किसी कवि को मैंने अपने ऊपर इस क़दर छाते हुआ देखा कि मैं हर पल उनकी कविताओं के भीतर आवाजाही कर रहा होता था। राह चलते भी।...
यों अब राहों पर राहें खुलने लगी थीं और मैं कभी इधर दौड़-दौड़कर जाता, कभी उधर। मैं ज़िन्दगी की पूरी सूरत टटोलना चाहता था कविता में। मैं अपने और आसपास के पूरे जीवन को परिभाषित करना चाहता था कविता में।...कविता के हर्फों में अपने जीने और मरने के मानी खोजना चाहता था।
शुरुआत हो चुकी थी। फिर अपने शोध के दौरान नई कविता के साथ-साथ समकालीन कवियों को बहुत गहराई से पढ़ने और समझने का अवसर मिला। रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, भवानीप्रसाद मिश्र, भारतभूषण अग्रवाल, गिरिजाकुमार माथुर, केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण, रामदरश मिश्र, जगदीश चतुर्वेदी, राजकमल चौधरी, श्रीकांत वर्मा सरीखे अलग-अलग स्वभाव और रुचियों के बहुत समर्थ और प्रतिभावान कवियों की उपस्थिति समकालीन कविता की शक्ति और व्यापकता साबित करने के लिए काफ़ी थी।
इन्हीं दिनों अज्ञेय द्वारा संपादित तीनों सप्तक भी पढ़े। उसमें एक से एक बड़े और समर्थ कवियों को पढ़ने का अवसर मिला। सबकी कविताओँ का आस्वाद अलग-अलग। कविता गढ़ने का ढंग और मुहावरा भी। इन कवियों में धर्मवीर भारती, गिरिजाकुमार माथुर, प्रभाकर माचवे, केदारनाथ सिंह, रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर की छाप कुछ अधिक गहरी पड़ी। हालाँकि आश्चर्य, सप्तक के कवियों में मुझे सबसे अधिक आकर्षित किया मदन वात्स्यायन और कीर्ति चौधरी ने, जो अपेक्षाकृत कम जाने गए कवि थे। पर उनकी कविताओं की सहजता ने मुझे बहुत प्रभावित किया।
मुझे लगा, अनायास बड़ी बात कह जाना ही बड़ी कविता है। शायद यही कारण है कि उन दिनों पढ़ी गई मदन वात्स्यायन और कीर्ति चौधरी की कविताएँ आज भी मेरे भीतर बसी हुई हैं और मन में एक पुकार-सी उठाती हैं। अच्छी कविताएँ कैसी होती हैं और खासकर मेरे मन को भाने वाली कविताएँ कौन-सी हैं, मुझे समझ में आने लगा था।
इसी दौरान बाद की पीढ़ी के कवियों को भी पढ़ा। इनमें दिविक रमेश के पहले कविता-संकलन ‘रास्ते के बीच’ की मुझे अच्छी तरह याद है और उसने मेरे भीतर काफ़ी उथल-पुथल पैदा कर दी है। इन कविताओं को मैंने कई बार पढ़ा और हर बार वे मुझे अच्छी लगीं। मुझे लगा, इनमें सच्ची आग है और आम आदमी की गहरी तकलीफ भी। कुछ भी ओढ़ा हुआ नहीं। बस, सीधे-सादे ढंग से अपनी राह खोजती कविता। कहीं न कहीं मुझे लगता था कि कविता का आगे का रास्ता तो यह हो सकता है।
अब तक मेरी कविता के सफ़र में सुनीता भी जुड़ गई थी, जो कुछ अरसा पहले ही मेरे जीवन में आई थी। वह भी कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से समकालीन कविता में शोध कर रही थी। हमें लगा, हमारी रुचियाँ मिलती हैं, मन भी। सीधे-सरल और बेबनाव ढंग से जीवन जीने का ढब भी। हम यों ही साथ-साथ जीवन गुज़ारें और अपना एक अलग-सा घर बनाएँ, यह सपना उसका भी था, मेरा भी। हम लोग साथ-साथ कविताएँ पढ़ते थे, उन पर बात भी करते थे। अकसर सुनीता ही पुस्तकालय से समकालीन कवियों के नए-नए कविता संकलन खोजकर लाती थी, जिन्हें हम मिलकर पढ़ते और उन पर अपनी राय प्रकट करते थे। यों दिविक जी से मिलवाने का श्रेय भी सुनीता को ही है। वही और कवियों के साथ-साथ उनका संकलन ‘रास्ते के बीच’ ढूँढ़कर लाई थी। पर बाक़ी सारे कविता-संकलन कैसे पीछे छूट गए और ‘रास्ते के बीच’ कैसे साथ-साथ चलता गया, कहना मुश्किल है। कहना चाहिए, ‘रास्ते के बीच’ से मेरी खासी दोस्ती हो गई थी। शायद उन कविताओँ में कुछ बात थी कि उनका जादू आज भी मुझ पर तारी है।
बहरहाल पढ़ना और लिखना, लिखना और पढ़ना जारी था। बस, यही मेरा जीवन था। इस बीच अचानक किसी गहरे भावावेश के साथ एक लंबी कविता ‘भीतर का आदमी’ लिखी गई। शायद मैं जिन तकलीफों से गुजर रहा था, उन्होंने ही मुझे ठेलकर उस कविता के करीब पहुँचा दिया था। असल में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में मैं डा. रामेश्वरलाल खंडेलवाल जी के निर्देशन में ‘छायावाद एवं परवर्ती काव्य में सौंदर्यानुभूति’ विषय पर शोध कर रहा था। डा. खंडेलवाल हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे। बड़े अच्छे और संवेदनशील व्यक्ति थे। अपने विषय के बड़े विद्वान भी। पर विभाग में मुझसे ईर्ष्या करने वाले कम न थे। उन्हीं में से किसी ने मेरी कोई बात अपने रंग में रँगकर उन तक पहुँचाई। खंडेलवाल जी नाराज हुए और बड़ी त्रासदायक स्थितियाँ बनती गईं। मेरी कविता ‘भीतर का आदमी’ में वह सब एक बड़े व्यापक कैनवास पर आया था।
उन्हीं दिनों कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा परिषद का एक विशाल सम्मेलन हुआ। उसमें कवि सम्मेलन भी था। मैंने मंच पर बड़े ही आविष्ट ढंग से ‘भीतर का आदमी’ कविता पढ़ी तो एक सन्नाटा-सा खिंच गया। जगदीश गुप्त भी उस कार्यक्रम में उपस्थित थे। मेरे कविता-पाठ से वे बेहद प्रभावित हुए। मंच पर आकर कहा, “इस तरुण कवि ने मुझे मुक्तिबोध की याद दिला दी।” बाद में जगदीश गुप्त ने मुझसे ‘त्रयी’ के लिए कविताएँ भेजने का आग्रह किया। मैंने हामी भर ली। पर पता नहीं क्यों, मैंने कविताएँ भेजी नहीं।
यों कुरुक्षेत्र में मेरा पुनर्जन्म हुआ, मेरी कविताओं का भी और हाँ, एक बात और। कुरुक्षेत्र में ही मैं चंद्रप्रकाश रुद्र से प्रकाश मनु हुआ। एक दिन अचानक लगा, जैसे चंद्रप्रकाश रुद्र नाम अब ठीक नहीं है। नाकाफी या अनफिट। जो मैं हूँ, उसका सही प्रतिनिधित्व नहीं करता। जो मैं हूँ, वह उसमें ध्वनित नहीं होता।...तो उसे निरर्थक क्यों ढोया जाए? और फिर अचानक जैसे कोई बड़ा कायिक परिवर्तन होता है, आत्मिक परिवर्तन होता है, ऐसे ही यह नाम बदलने का भी सिलसिला हुआ। एक दिन शाम के समय मैं देर तक नाम लिख-लिखकर देखता रहा। कोई दर्जनों बार लिखा गया, ‘प्रकाश मनु...प्रकाश मनु’। नाम मुझे जँच गया और उसी दिन मैं चंद्रप्रकाश रुद्र नहीं रहा, प्रकाश मनु हो गया।
यों सच पूछिए तो मुझे प्रकाश मनु बनाने का श्रेय जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ को है। ‘कामायनी’ मुझे बहुत प्रिय थी। उसमें श्रद्धा और मनु की कथा मुझे बेतरह मोहती थी। आज भी मोहती है। साथ ही, श्रद्धा और मनु के व्यक्तित्व भी। मनु में बहुत सारी अच्छाइयाँ हैं तो कमजोरियाँ भी। कुछ-कुछ आज के मनुष्यों की तरह। वे सबल हैं, महत्त्वाकांक्षी हैं, पर टूटते भी हैं। अंत में उन्हें राह दिखाती है श्रद्धा, जो स्त्री है, कोमल है, पर मन से कहीं ज़्यादा मज़बूत भी। ‘कामायनी’ के अंत में आगे-आगे श्रद्धा, पीछे-पीछे मनु चलते दिखाई देते हैं। वे एक अनंत यात्रा में हैं। चल रहे हैं, बस चलते जा रहे हैं हिमाच्छादित पर्वत शिखर की ओर।...
यह कथा मेरे मन पर छा गई थी। मुझे लगा, मैं भी तो मनु ही हूँ, अपनी कुछ संभावनाओं और तमाम कमजोरियों के साथ भी। तो मैं मनु क्यों नहीं हो सकता? चंद्रप्रकाश मनु नाम मुझे अटपटा लगा। इतना लंबा नाम क्यों? तो मैं प्रकाश मनु हो गया।
उन दिनों बहुत लघु पत्रिकाएँ निकलती थीं। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में वे अकसर देखने को मिल जातीं। मैं उन्हें प़ढ़ता तो अपने सरीखे बहुत से और कवियों से परिचित हुआ। फिर लघु पत्रिकाओं में छपने के लिए मैं अपनी कुछ कविताएँ भी भेजने लगा। धीरे-धीरे लघु पत्रिकाओँ में मेरी कविताएँ छपने का सिलसिला शुरू हो गया। वर्षों यह चला। फिर तो बहुत पत्रिकाएँ मेरे पास आने लगीं। मेंरी कविताओं ने मुझे साहित्य की दुनिया का नागरिक बना दिया था। मैं धीरे-धीरे अपने दौर के कवियों से परचने लगा और वे मुझसे। यह एक नया और सुकून देने वाला अनुभव था।
कलकत्ते से अशोक जोशी एक अखबारनुमा साहित्यिक पत्रिका निकालते थे, ‘आने वाला कल’। यह एक अच्छी और स्तरीय पत्रिका थी, जिसमें एक पूरे पन्ने पर वे बहुत सम्मान से कविताएँ छापते। याद पड़ता है, मंगलेश डबराल समेत कई अच्छे कवियों की कविताएँ मैंने उसमें पढ़ी थीं। धीरे-धीरे मेरी कविताएँ भी उसमें छपने लगीं। अशोक जोशी मेरी कविताओं के इस क़दर मुरीद थे कि पत्रिका के हर दूसरे-तीसरे अंक में मेरी कविता छपती थी। उनके पत्र बराबर मेरे पास आते थे। एक दफ़ा कविता के साथ मैंने अपने जीवन की विडंबनाओं पर एक मार्मिक पत्र उन्हें लिखा। इस पत्र ने उन्हें इस क़दर बेचैन किया कि वे मुझे बिना बताए ही, मुझसे मिलने कुरुक्षेत्र आ गए। हो सकता है कि वे यात्रा में हों और कुरुक्षेत्र बीच में पड़ा तो सोचा कि मिलते चलें। पर मैं उन दिनों वहाँ नहीं था। लौटकर उन्होंने पत्र में सारा हाल लिखा। मुझसे मिलने की उत्कट इच्छा भी प्रकट की। उनकी इस करुणा से मैं विह्वल था। हालाँकि दुर्भाग्य, कुछ समय बाद ही अशोक जोशी असमय चले गए। ‘आने वाला कल’ बंद हो गया, पर उन्हें भूल पाना मेरे लिए आसान नहीं था।
ऐसे ही ‘लहर’ अपने दौर की बहुत चर्चित पत्रिका थी, जिसे एक बड़े कद के संपादक प्रकाश जैन निकालते थे। बहुत ही प्यारे और सहृदय व्यक्ति। युवा लेखकों को आगे बढ़ाने में उनका कोई सानी न था। लेकिन साथ ही उन्हें चीजों की पहचान थी। अपनी पत्रिका में उन्हें क्या छापना है, क्या नहीं, वे जानते थे और बहुत आग्रह कर-करके लेखकों से उम्दा रचनाएँ मँगवाते थे। प्रकाश जैन को मैंने एक पत्र के साथ अपनी कुछ कविताएँ भेजीं, तो उनका प्रेम जैसे बहने लगा। बहुत प्रेम, बहुत अपनत्व मुझे उनसे मिला।
अकसर बड़ी सुंदर लिखाई में उनके पत्र आ जाते थे। ज्यादातर पोस्टकार्ड ही। कुछ ही पंक्तियाँ, पर उनमें उनका बड़ा स्नेह झलकता। वे बड़े आग्रह के साथ मुझे लिखते रहने और अपनी नई रचनाएँ भेजने के लिए प्रेरित करते। उन्होंने ‘लिखूँ’, ‘छूटता हुआ घर’, ‘सुनें श्रीमान’ सरीखी मेरी कई कविताएँ प्रकाशित की थीं। ज्यादातर वे ही कविताएँ, जो ख़ुद मेरी भी बहुत प्रिय कविताएँ थीं। कविता की सही परख करना वे जानते थे और सहृदयता उनमें आकंठ भरी थी। बाद में ‘छूटता हुआ घर’ नाम से मेरा कविता संग्रह निकला, जिस पर मुझे पहला गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार मिला। ये ऐसे क्षण थे, जब प्रकाश जैन का बिन देखा स्नेहमय चेहरा बार-बार मेरी स्मृतियों में कौंधता रहा।
‘जमीन’ भी उस दौर की चर्चित पत्रिका थी, जिसे उज्जैन से पवनकुमार मिश्र निकालते थे। बहुत सादा ढंग से निकलने वाली ‘जमीन’ की लघु पत्रिकाओं में एक अलग ही पहचान थी। याद पड़ता है, उसका आवरण एकदम सादा बाँसी काग़ज़ का होता था, जिस पर सीधे-सादे ढंग से पत्रिका का नाम लिखा होता था। साथ ही शायद कोई रेखांकन भी। संभवतः ज़मीन के दसवें अंक में मेरी एक लंबी कविता निकली थी, ‘नंगा सच’। बाद में भाई ज्ञानरंजन जी का एक स्नेहपूर्ण पत्र मुझे मिला, जिसमें उन्होंने बड़े ऊष्मिल ढंग से ज़िक्र किया था कि अभी कुछ अरसा पहले ‘जमीन’ पत्रिका में मैंने आपकी एक लंबी कविता पढ़ी है, जिसमें एक अलग तरह की सृजनात्मक बेचैनी आपकी पता चलती है।
ऐसी बहुत सारी और भी स्मृतियाँ हैं, जिन्हें पहले कभी छेड़ने का साहस ही नहीं हुआ। लेकिन कविता की बात चली, तो बहुत कुछ एकाएक याद आता चला गया। उनमें से कुछ को यहाँ दर्ज करना मुझे ज़रूरी लगा।
सचमुच यही मेरी कविता की दुनिया थी, जिसमें मैं आकंठ डूबा था। शायद मैं ग़लत कह गया। यही मेरी अपनी दुनिया थी। कविता की दुनिया ही असल में मेरी अपनी, नितांत अपनी दुनिया बन गई थी। मैं उसी में जीता। उसी में हँसता-रोता और कभी अंदर ही अंदर सुबकने भी लगता। पता नहीं, क्या-क्या था, जो उस समय मेरे अंदर मचल रहा था और जब-तब मुझे एकबारगी झिंझोड़ देता।
कविता ने सच ही, मुझे बड़े ही मार्मिक अनुभवों वाला जीवन दिया था।
बरसों बाद मैं हिंदुस्तान टाइम्स की बाल पत्रिका ‘नंदन’ में आया तो महसूस हुआ कि शायद पैरों के नीचे अब धरती है। अभी तक तो जैसे उठाईगीर वाला जीवन था। नौकरी वगैरह के सिलसिले में मैं जहाँ कहीं भी जाता, तो काग़ज़ों का एक बड़ा-सा पुलिंदा मेरे साथ जाता। इन्हीं में लघु पत्रिकाएँ भी थीं, जिनमें मेरी कविताएँ छपी होतीं। साथ ही वे मोटे-मोटे रजिस्टर भी, जिनमें मैंने साफ़ लिखाई में अपनी कविताएँ लिखी थीं।
‘नंदन’ पत्रिका में आया मन हुआ कि किसी बहुत-बहुत आत्मीय मित्र की तरह मेरे दुर्दिनों में साथ निभाती आई इन कविताओं का एक संकलन आ जाए तो शायद उस पुराने दौर को फिर से जी लूँगा। देवेंद्र कुमार मेरे वरिष्ठ सहयोगी थे। कहानियाँ बहुत अच्छी लिखते थे। कविताएँ उनकी ज़्यादा नहीं छपी थीं। पर मैंने उनकी कविताएँ देखीं, तो मुझे उन्होंने आकर्षित किया। उनमें कुछ अलग-सी बात थी। मेरी कविताएँ ज़्यादा बोलती और उबलती हुई कविताएँ थीं, पर उनकी कविताएँ अपेक्षाकृत शांत। बिना ज़्यादा बोले, बहुत कुछ कहने वाली। अंदर कहीं उनमें दुख का गहरा ताप भी था। लेकिन वे अधिक वाचाल कविताएँ नहीं थीं। मुझे लगा, देवेंद्र और मैं कहीं न कहीं एक-दूसरे के पूरक हैं।
मैंने देवेंद्र जी से बात की कि क्यों न हम लोग कविताओं का एक साझा संकलन निकालें? देवेंद्र जी को बात जँच गई। आख़िर सन् 1990 में मेरी और देवेंद्र जी की कविताओं का एक साझा संकलन निकला, ‘कविता और कविता के बीच’। जल्दी ही साहित्य जगत में इसकी एक अलग-सी पहचान बन गई।
बहुत से साहित्यकारों के पते खोजकर उन्हें यह पुस्तक हम लोगों ने भेजी थी। उनमें से कई साहित्यिकों की बहुत अच्छी प्रतिक्रियाएँ मुझे मिलीं। जगदीश चतुर्वेदी ने संकलन पढ़ा तो बहुत प्रभावित हुए। वे ‘इंडियन पोएट्री’ संस्था के अध्यक्ष थे। जगदीश जी ने अपनी संस्था के एक कार्यक्रम में मुझे और देवेंद्र कुमार को कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया। हिमाचल भवन में हुई वह गोष्ठी कई कारणों से मेरे लिए एक यादगार गोष्ठी बन गई। उसमें मैंने लंबी कविता ‘नंगा सच’ का पाठ किया, जो बरसों पहले ‘जमीन’ पत्रिका में छपी थी। यह ऐसी कविता थी, जिसे सुनकर वाह-वाह नहीं किया जा सकता था। शायद रघुवीर सहाय की कविता की पंक्ति है, ‘सन्नाटा खिंच जाए जब मैं कविता पढ़ूँ...!’ यह कुछ-कुछ वैसी ही कविता थी। बाद में कई कवियों ने उसे सराहा।
गोष्ठी में एक सुप्रसिद्ध कवयित्री भी थीं। अगले दिन वे ‘नंदन’ के दफ़्तर में आईं। बहुत स्नेह और अपनत्व से मिलीं। बोलीं, “आपकी कविता सुनकर रहा नहीं गया।...कल तो मैं सबके बीच बता नहीं पाई। पर मुझे लगा, मैं ख़ुद चलकर आपको बताऊँ। वह एक अद्भुत कविता थी, जिसे एक बार सुनने के बाद उसके प्रभाव से मुक्त होना कठिन है। आपने उसे पढ़ा भी बहुत अच्छी तरह...!” फिर काफ़ी देर तक बातें हुईं। कविता से एक अलग पहचान मुझे मिली थी। यह मेरे लिए सुख की बात थी।
विनोद शर्मा उन दिनों इंडो-बल्गारियन क्लब के सचिव थे। उन्होंने ‘कविता और कविता के बीच’ संकलन पर रघुवीर सहाय सरीखे बड़े कवि की अध्यक्षता में एक कवि गोष्ठी आयोजित की। उसमें भाई दिविक रमेश जी ने संकलन में शामिल मेरी और देवेंद्र जी की कविताओं पर बड़ा विस्तृत परचा पढ़ा था। सहाय जी समेत सभी ने खुलकर अपने विचार प्रकट किए। इसी गोष्ठी के सिलसिले में रघुवीर सहाय से मेरी बहुत अद्भुत मुलाकात हुई थी। उन्हें मैं घर पर ‘कविता और कविता के बीच’ पुस्तक भेंट करने गया था। पर वहाँ उनसे ऐसी यादगार मुलाकात होगी, मुझे अंदाजा न था। बाद में रघुवीर सहाय पर लिखे गए भावपूर्ण संस्मरण में मैंने विस्तार से इसका ज़िक्र किया है।
इसके थोड़े ही समय बाद ‘छूटता हुआ घर’ नाम से मेरा कविता-संकलन निकला। मेरे लिए यह कम अचरज की बात नहीं थी कि इस कविता-संकलन पर मुझे पहला गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार देने की घोषणा हुई। एक प्रसन्नता की बात यह भी थी कि इसके निर्णायक-मंडल के तीनों सदस्य बड़े ही सम्मानित और जाने-माने साहित्यकार थे, रामदरश मिश्र, जगदीश चतुर्वेदी और अजित कुमार। तीनों अपने ढंग के विशिष्ट कवि, जिनकी कविताओं और काव्य-विवेक को साहित्य जगत में सम्मान की नजरों से देखा जाता है।
त्रिवेणी सभागार में श्यामाचरण दुबे जी की अध्यक्षता में हुए एक भव्य कार्यक्रम में यह पुरस्कार दिया गया। पुरस्कार डा. कर्ण सिंह ने दिया। रामदरश जी और जगदीश चतुर्वेदी ने मेरी कविताओं पर बोलते हुए जो आत्मीयता से छलछलाते शब्द कहे, वे आज भी मेरे मानस में खुदे हुए हैं। लगा, मुझे एक राह मिल गई है। मेरे जीवन भर का समर्पण अकारथ नहीं गया। बाद में श्यामाचरण दुबे जी ने बहुत विनोद भरे ढंग से इन कविताओं के साथ-साथ मेरे औघड़ कवि-व्यक्तित्व पर भी बात की और वातावरण में रस घोल दिया था।
उस कार्यक्रम में मुझे भी अपना वक्तव्य देना था। मैंने कविता और अपने लंबे संग-साथ पर कुछ शब्द कहे। फिर थोड़े आविष्ट स्वर में कहा, “सहृदय मित्रो, मेरे साथ लिखने वाले बहुत कवि हैं, जिनकी कविताओं का ताप मैं बहुत नज़दीक से महसूस करता हूँ। इनमें मुझे पुरस्कार मिल गया तो मन में बार-बार यह बात आती है कि क्या उन कवियों की कविताएँ मुझसे हेठी या कमतर हैं? शायद नहीं। बल्कि शायद उनमें मुझसे अच्छा लिखने वाले कवि भी हैं। पर दुर्भाग्य से उनका कोई संकलन अभी तक नहीं निकला। तो मैंने निश्चय किया है कि पुरस्कार की राशि को मैं एक ऐसा संकलन निकालने के लिए लगाऊँगा, जिसमें ऐसे समर्थ कवियों की कविताएँ एक साथ सामने आएँ।”
सभी ने बड़ी प्रसन्नता से इसका स्वागत किया। इस कार्यक्रम में अग्रिम पंक्ति में बैठे सत्यार्थी जी की उपस्थिति बहुत विशिष्ट थी। कार्यक्रम के बाद दुबे जी बड़े आदर से उनसे गले मिले। फिर मुझसे कहा, “आप कभी सत्यार्थी जी को हमारे घर लाइए। वहाँ मेरी पत्नी भी इनसे मिलने के लिए उत्सुक हैं। वे भी मेरी तरह सत्यार्थी जी की बहुत प्रशंसक हैं।”
इसके बाद जल्दी ही इंद्रप्रस्थ प्रकाशन से ‘सदी के आखिरी दौर में’ कविता-संकलन आया, जिसमें ब्रजेश कृष्ण, हरिपाल त्यागी, देवेंद्र कुमार, रमेश तैलंग, विजयकिशोर मानव, संजीव ठाकुर, महाबीर सरवर, शैलेंद्र चौहान, श्याम सुशील और रमेश आज़ाद के साथ-साथ मेरी भी कुछ नई कविताएँ शामिल थीं। इस कविता-संकलन पर इंडो-रशियन क्लब में एक कवि-गोष्ठी हुई, जिसमें डा. माहेश्वर और विष्णु खरे बहुत उत्साह के साथ संकलन में शामिल कविताओं पर बोले थे। यह एक यादगार कार्यक्रम था। खासकर विष्णु खरे ने एक-एक कवि पर जिस तरह विस्तार से अपनी बात कही, उससे हम सब अभिभूत थे।
कुछ अरसे बाद नमन प्रकाशन ने कविता पुस्तकों की एक शृंखला निकाली। उसमें रामदरश जी सरीखे वरिष्ठ कवि के साथ-साथ कुछ युवा कवियों के कविता-संकलन एक साथ सामने आए। मेरा नया संकलन भी उसमें शामिल था, ‘एक और प्रार्थना’, जिसमें मेरी नई और कुछ अलग ढंग की कविताएँ थीं। कई पत्र-पत्रिकाओं ने बहुत सुंदर कलेवर में निकले इस संकलन का नोटिस लिया। मित्रो और साहित्यकारों की सुखद प्रतिक्रियाएँ तो मिलीं ही।
अब तक मेरी सृजन धारा का पाट काफ़ी चौड़ा हो चुका था। खासकर बीसवीं सदी का आखिरी दशक तो मेरे लिए उपन्यास-लेखन की गहमागहमी से भरा था। एक ऐसा दौर, जिसमें उपन्यास ही मेरे मन-मस्तिष्क में छाए रहे। उसी में जीना, उसी में साँस लेना। एक के बाद एक ‘यह जो दिल्ली’ है, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यास लिखे गए, जिन्होंने साहित्य जगत में एक हलचल-सी पैदा की। इसके साथ ही हिन्दी के दिग्गज साहित्यकारों के साक्षात्कार लेने की मुहिम भी। बाद में हिन्दी के मूर्धन्य लेखकों से लिए गए ये साक्षात्कार ‘मुलाकात’ पुस्तक में संगृहीत हुए। इसी तरह आलोचना में कुछ बड़े काम करने की बेचैनी मैंने महसूस की। विश्वनाथप्रसाद तिवारी जी के संपादन में गोरखपुर से निकलने वाली सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘दस्तावेज’ में कहानी और उपन्यास पर लिखे गए मेरे लंबे लेख छपे। ऐसे लेख, जो निरंतर कई अंकों तक चले।
फिर ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’ और ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ सरीखे ग्रंथों पर मैंने काम करना शुरू कर दिया, जिन्हें लिखने में बहुत श्रम ही नहीं, बहुत वक़्त की भी दरकार थी। इनमें ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’ तो सन् 2003 में मेधा बुक्स से छपकर आ गया था, पर ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ तो मेरी कोई बीस बरस लंबी तपस्या से ही संभव हो पाया। अभी कोई दो बरस पहले ही, सन् 2018 में यह प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित हुआ।
पर कविता...? बेशक ‘एक और प्रार्थना’ के बाद मेरा कोई और कविता-संकलन सामने नहीं आया, पर कविताएँ तो निरंतर लिखी ही जाती रहीं। आख़िर कविता के जरिए ही मैंने सबसे पहले साहित्य की ज़मीन को टटोला था। ख़ुद को और अपने आसपास की दुनिया को पहचानने की कोशिश की थी। यहाँ तक कि मैंने कहानियाँ लिखीं, उपन्यास, आलोचना और गद्य की दूसरी चीजें लिखीं, तो भी उनमें कहीं न कहीं कविता की उपस्थिति तो थी ही। अगर कोई ग़ौर से ‘यह जो दिल्ली है’ उपन्यास पढ़े तो लगेगा, यह उपन्यास की शक्ल में लिखी गई कविता ही है। कोई साढ़े तीन सौ सफे की कविता। यही बात ‘कथा सर्कस’, ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यासों के बारे में भी कह सकता हूँ और अपनी कहानियों के बारे में भी। वे निस्संदेह एक कवि द्वारा लिखी गई कहानियाँ और उपन्यास हैं और यह बात उन्हें औरों से अलग बनाती है।
तो कविता मेरे लिए सिर्फ़ कविता नहीं, वह जीवन जीने का एक ख़ास ढंग था। भला मैं उससे दूर कैसे रह सकता था?
पिछले कुछ वर्षों में तमाम कार्यों की व्यस्तता के बीच मेरी मित्र और सहयात्री सुनीता का निरंतर आग्रह, “चंदर, तुम्हें अपनी कविताओं को भी सामने लाना चाहिए। उनमें कुछ अलग बात है...!”
ब्रजेश भाई से भी जब-जब मिलना होता, वे बराबर याद दिलाते, “कवि भाई, तुम्हारी कविताओं का संकलन भी आना चाहिए। आख़िर सब कुछ के बावजूद तुम्हारी अपनी पहचान तो वही है।”
और रामदरश जी तो फ़ोन पर बातें करते-करते अचानक कुरेद देते, “मनु जी, आपकी कविताओं की एक अलग ही रंगत है, आपको कविताएँ और लिखनी चाहिए... !”
इस पर मेरा जवाब, “डाक्साब, कविताएँ लिखी तो जा रही हैं, पर देखिए कब सामने आ पाती हैं...?”
“तो आप पत्र-पत्रिकाओं को क्यों नहीं भेजते अपनी कविताएँ? बहुत अरसा हो गया, अब आपका नया संकलन भी आना चाहिए।” रामदरश जी खासी कशिश से कहते, तो मैं थोड़ा शर्मिंदा हो जाता।
इस बीच ‘हंस’, ‘आजकल’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘साक्षात्कार’, ‘साहित्य अमृत’, ‘उद्भावना’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘परिकथा’, ‘सनद’, ‘समावर्तन’, ‘सचेतक’, ‘कल के लिए’, ‘बरोह’ समेत कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ आईं, पर संकलन फिर भी नहीं निकल सका। हर बार हाथ में कोई न कोई काम होता। सोचता, ‘बस, यह काम पूरा होते ही अपनी नई और पसंदीदा कविताओं का संकलन तैयार करने में जुट जाऊँगा।’
इस बीच हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास पूरा हुआ तो मैं आत्मकथा पूरी करने में जुट गया। आत्मकथा का पहला खंड ‘मेरी आत्मकथा : रास्ते और पगडंडियाँ’ पिछले बरस आया, तो फिर कुछ तात्कालिक कामों का दबाव। बीच में थोड़ा अवकाश मिला, तो भीतर फिर से कविताओं की टेर शुरू हो गई। मन कह रहा था, ‘प्रकाश मनु, इस बार तुम्हें अपनी कविताओं का संकलन तैयार करना ही है।’
पिछले बरस हिन्दी अकादमी के नाट्य समारोह में मेरी कहानी ‘भटकी हुई ज़िन्दगी का नाटक’ का नाट्य रूपांतरण बड़ी ही प्रतिभावान नाट्यकर्मी मीता मिश्र ने प्रस्तुत किया तो कविताओं की यह आकुल पुकार और तेज हो गई। असल में मीता ने इस नाटक के साथ बीच-बीच में मेरी कविताओं का भी इस्तेमाल किया था। वे कविताएँ किस तरह के उतार-चढ़ाव के साथ पढ़ी जाएँ, अभिनेताओं को इसकी तैयारी कराने का जिम्मा ख़ुद मैंने ओढ़ लिया और सचमुच वे क्षण मेरे लिए यादगार बन गए।
नाटक के जरिए मेरी कविताओं की गूँज हवाओं में फैल रही थी, तो साथ ही मेरे भीतर भी उनकी गूँजों पर गूँजें उठ रही थीं। मैं जो कि चुप-चुप कविताएँ लिखता और एकांत में पढ़ता था, अपनी कविताओं का एक अलग ही प्रभाव देख रहा था। फिर जब यह नाटक मंचित हुआ, तो सभागार में उपस्थित दर्शकों के भीतर अलग-अलग मनःस्थितियों में लिखी गई मेरी कविताएँ जिस तरह अपनी जगह बना रही थीं और दर्शकों ने जितनी शिद्दत से उस नाटक को सराहा, उसे भूल पाना मेरे लिए मुश्किल था।
यह ऐसा नाटक था, जिसमें मेरी कहानी थी, कविता थी और नाटक भी। पहली बार मेरे तीनों रूप इतनी बड़ी संख्या में दर्शकों के आगे आ रहे थे और वे आनंदविभोर थे। वही आनंद मेरे अंतःकरण में भी बरस रहा था और मैं कुछ-कुछ सम्मोहित-सा था।
बस, तभी पक्का निश्चय कर लिया कि अब के सारे काम-काज छोड़कर बस, कविता-संकलन की ही तैयारी करनी है। यों होते-होते फिर भी इसमें थोड़ा समय लग गया, पर इस बीच पिछले कुछ बरसों में लिखी गई कविताएँ बार-बार मेरे भीतर उमड़ती-घुमड़ती रहीं और यह गूँज बराबर बनी रही कि कविता-संकलन तैयार करना है और वह कुछ ऐसा हो, जिससे मुझे पूरी तसल्ली हो। पिछले दिनों अचानक ही रामदरश जी, डा. शेरजंग गर्ग, राही जी और भाई दिविक रमेश पर कुछ अलग बहाव में छंदबद्ध कविताएँ लिखी गईं तो लगा, सच ही कविता में बहने का सुख सबसे अलग है। वह जब भी आती है तो मुझ पर पूरी तरह छा जाती है। यह अनुभव ही कुछ अलग है।
और अंततः कविता-संकलन ‘ऐसा ही जीवन मैंने स्वीकार किया है’, तैयार हुआ, जिसमें पिछले इक्कीस वर्षों की लंबी अवधि में लिखी गई कविताओं में से मेरी सर्वाधिक प्रिय और चुनिंदा कविताएँ एक साथ आ रही हैं। आदरणीय रामदरश जी के साथ-साथ मेरे अनन्य मित्र ब्रजेश भाई और सुख-दुख की सहयात्री सुनीता का इतना आग्रह न होता तो यह संकलन कभी आ न पाता।
शायद इसलिए कि अपनी कविताओं को लेकर एक अजब-सा गोपन भाव मेरे मन में है, जिसे ठीक-ठीक समझना और कह पाना आज भी मेरे लिए कठिन है। जैसे कविता नहीं, मेरे बहुत-बहुत मार्मिक सुख-दुखों की कोई अंतर्कथा हो, जिसे मैंने सबसे छिपाकर अपने हृदय के भीतरी प्रकोष्ठ में रख छोड़ा हो। शायद इसीलिए इन कविताओं के बीच-बीच में पाठकों को मेरी आत्मकथा के पन्ने भी खुलते जान पड़ें, तो कोई अचरज न होगा।
सच पूछिए तो मेरी कविताएँ एक अर्थ में कविता के हर्फों में लिखी गई मेरी आत्मकथा और समय-कथा भी है। वे ऐसी क्यों है? क्या इससे भिन्न भी हो सकती है कविता, मैं नहीं जानता। शायद कविता का यही रूप मुझे प्रिय है और इसी रूप में मैंने उसे भीतर तक महसूस किया है। उसके सहारे मैंने आपबीती और जगबीती को समझा है और जीवन का अर्थ टटोला है।
मेरे लिए सबसे बड़े सुख और आनंद की बात है कि निसफ सदी की इस लंबी यात्रा में ऐसे बहुत से संवेदनशील लेखक और पाठक हैं, जो इन कविताओं के मर्म तक पहुँचे, इनके पीछे छिपे सुख-दुख और तकलीफों को समझा और बहुत मुश्किल दौर में उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया। मैं उनके प्रति गहरी कृतज्ञता व्यक्त किए बिना नहीं रह सकता। इससे लिखने की शक्ति तो मिली ही, आगे कुछ नए रास्ते भी खुलते गए।