मैं कौन हूँ (तेलुगु कहानी) : पी. सत्यवती

Main Kaun Hoon (Telugu Story) : P. Satyavathi

गृहणी बनने से पहले वह एक लड़की थी । सुशिक्षित , चतुर , व्युत्त्पन्नमति । साथ ही चपल और लावण्यमयी भी ।

उस लड़की का सौन्दर्य और बुद्धिकुशलता और उस के पिता द्वारा दिया गया दहेज खूब पसंद आए तो एक नवयुवक ने उस लड़की के गले में मंगलसूत्र धारण करा कर उसे एक घर की गृहणी बनाया और बोला , ‘देखो मेरी प्यारी ! यह तुम्हारा घर है । ‘उस गृहणी ने झट से पल्लू कमर में कस लिया , सारे घर को खूबसूरती से लीपा – पोता और रंगोली बनाई । नवयुवक ने फ़ौरन गृहणी के सराहना करते हुए कहा , ‘घर को लीपने – पोतने में तुम बड़ी कुशल हो । रंगोली बनाने में तो और भी ज्यादा । शाबाश ! कीप इट अप । ‘और अंग्रेजी में भी एक बार और प्रशंसा कर के उसका कंधा थपथपाया ।

गृहणी फूली नहीं समाई और घर को लीपने-पोतने को ही अपना लक्ष्य बना कर जीवन बिताने लगी । वह हमेशा घर को एकदम सफाई से लीपती-पोतती और रंगोली के रंग-बिरंगे डिजाइनों से सजाती ।इस तरह उस का जीवन पोंछनों और रंगोली की पिटारियों से भरा-पूरा रहा । लेकिन एक दिन घर लीपते – पोतते हुए , उस ने अचानक सोचा , ‘मेरा नाम क्या है ? ‘और एकदम चौंक पड़ी । हाथ का पोंछना और रंगोली की पिटारी फेंक कर वह खिड़की के पास खड़ी हो गई और सिर खुजाती हुई लगातार सोचती रही । ‘मेरा नाम क्या है ? मेरा नाम क्या है?’ सामने के मकान पर टँगे नामपट्ट पर लिखा था – श्रीमती एम. सुहासिनी , एम.ए.,पी-एच.डी., प्रिंसिपल ‘एक्स’ कॉलेज । हाँ , इसी तरह मेरा भी कोई नाम होना चाहिए न ?सोच कर वह परेशान हुई । मन में बेचैनी भर गई ।उस ने किसी तरह उस दिन का लीपना-पोतना ख़त्म किया । इतने में कामवाली औरत आ गयी । शायद इस को याद हो , यह सोच कर उसने पूछा, ‘क्यों री लड़की! मेरा नाम जानती है ? ‘

‘आप यह क्या पूछ रही हैं अम्मा ! मालकिनों के नाम से हमें क्या मतलब ? आप हमारे लिए मालकिन हैं – फलाने सफ़ेद मकान के निचले हिस्से में रहने वाली मालकिन का मतलब – आप ।’ उस लड़की ने जवाब दिया ।
‘ठीक है , तुझ बेचारी को कहाँ से पता होगा ? ‘गृहणी ने सोचा ।

दुपहर को बच्चे खाना खाने स्कूल से आए – गृहणी ने सोचा – बच्चों को शायद याद हो । उस ने पूछा, ‘बच्चो ! मेरा नाम क्या है, जानते हो ? ‘बच्चे चकित हो कर बोले , ‘तुम माँ हो – तुम्हारा नाम माँ ही है । जब से हम पैदा हुए हैं , तब से हम यही जानते हैं । पिताजी के नाम से चिट्ठियाँ आती हैं । उन को सब लोग नाम से बुलाते हैं , इसलिए हम उन का नाम जानते हैं । तुम ने अपना नाम हमें बताया ही कब है ? तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ भी तो नहीं आतीं ! ‘वह फिर सोच में पड़ गयी – हाँ , ठीक ही तो है , मुझे छिट्ठी लिखता ही कौन है ? माँ और बाबूजी हैं तो , लेकिन वे एक या दो महीने में फ़ोन करते हैं । छोटी और बड़ी बहनें भी हैं तो , लेकिन वे भी अपने अपने घर को लीपने-पोतने में लगी रहती हैं । कभी शादी या महिला-कार्यक्रमों में मिलती हैं , तो रंगोली के नये डिजाइनों या फिर नए पक़वानों के बारे में ही बात करती हैं । चिट्ठी-पत्री कुछ नहीं ।गृहणी निराश हो गयी ।मन में व्याकुलता और बढ़ी । इतने में पड़ोसिन , महिलाओं के किसी कार्यक्रम के लिए न्योता देने आई । कम से कम इसको तो याद होगा , यह सोच कर उस से पूछ तो वह खी-खी करती बोली :

‘बात यह है कि न मैं ने कभी आप का नाम पूछा न आप ने बताया । दाईं ओर के सफ़ेद मकान वाली या दवाइयों की कंपनी के मैनेजर की बीवी या फिर गोरी और लंबी वाली औरत – इस तरह आपस में हम आपके बारे में बात करते हैं । बस । ‘

अब कोई फायदा नहीं । बच्चों के दोस्त भी क्या बतायेंगे ? वे यही जानते हैं कि मैं मैं कमला की माँ हूँ या आंटी हूँ । अब एक पतिकी शरण में जाना पड़ेगा – उन को याद होना चाहिए…….
रात को खाना खाते समय उसने पति से पूछा , ‘सुनिए , मैं अपना नाम भूल गयी हूँ । आप को तो याद होगा , बताइए न ?’

पति ने ठहाका मार कर कहा , ‘क्या बात हो गई भई ! जो बात कभी नहीं पूछी , वह आज क्यों पूछ रही हो ? जब तुम से शादी की है , तब से तुम को ” ऐ सुनो ” कह कर पुकारने की आदत हो गई है । तुम ने कभी नहीं कहा कि ‘ऐसे मत पुकारिए , मेरा नाम नहीं है क्या ? ‘इसलिए मैं भी भूल गया हूँ । अब क्या हो गया ? सब लोग तुमको मिसेज मूर्ती कहते हैं तो ? ‘ ‘मिसेज मूर्ती नहीं , मुझे अपना असली नाम चाहिए । अब क्या करूँ ? ‘उस ने परेशान हो कर कहा ।
‘इस में कौन-सी परेशानी है ? कोई भी नया नाम रख लो बस !’ पति ने सलाह दी।
‘आप भी खूब हैं ।जब आप का नाम सत्यनारायण मूर्ती हो और आप से कोई शिवराव या सुंदरराव नाम रख लेने को कहे तो आप रख लेंगे ? मुझे अपना ही नाम चाहिए ।’ गृहणी ने हठ किया ।
‘तुम तो अजीब हो ! पढ़ी-लिखी हो न ? सर्टिफ़िकेट देख लो । उन पर तो नाम होगा ही। इतना भी कॉमनसेंस न हो तो कैसे चलेगा ? देखो जा कर ।’ उन्होंने फिर सलाह दी ।

गृहिणी सर्टिफ़िकेट ढूँढ़ने में जी-जान से लग गई । अलमारी में रेशमी , शिफॉन, सूती और वाइल की साड़ियाँ , मैचिंग ब्लाउज़ , पेटीकोट , चूड़ियाँ , मनके , पिन , मोती , कुमकुम की डिब्बियाँ , चंदन की कटोरियाँ , चाँदी के थाल , सोने के गहने , सब तो व्यवस्थित ढंग से रखे मिले । लेकिन सर्टिफ़िकेटों का अतापता नहीं था । हाँ , याद आया, शादी के बाद जब मैं यहाँ आई , तब लाई ही नहीं थी । उसने सोचा ।
‘जी हाँ, मैं उन को यहाँ ले कर नहीं आई थी – अपने गाँव जा कर सर्टिफिकेट ढूँढूँगी और अपने नाम का पता लगा कर दो दिन में लौट आऊँगी । ‘उस ने पति से कहा ।

‘बड़ी अजीब बात है ! नाम के लिए गाँव जाओगी क्या ? तुम गाँव जाओगी तो दो दिन घर की लिपाई-पुताई कौन करेगा ?’ पति परमेश्वर ने कहा । हाँ बात सही है – मैं ही सब से अच्छी तरह लीपती – पोतती हूँ न ! इसलिए – इतने दिन यह काम मैं ने यह काम किसी को करने नहीं दिया । हरेक का अपना-अपना काम है तो ! उन को नौकरी – बच्चों की पढ़ाई-बेचारे वे क्यों परेशान हों-यह सोच कर खुद यह काम करती आई हूँ । उन से यह सब होता नहीं है न !
फिर भी नाम जाने बगैर जिएँ भी तो कैसे ? इतने दिन यह बात याद नहीं आई,इसलिए चल गया । आब याद आने के बाद तकलीफ़ होने लगी है ।
‘दो दिन किसी तरह परेशानी उठाइए । जा कर अपने नाम का पता कर के लौट बग़ैर ज़िन्दा रहना मुश्किल हो रहा है । ‘मिन्नत कर के गृहिणी बाहर निकल पड़ी ।
‘क्यों बेटी , ऐसे एकाएक कैसे चली आई? ‘कह कर माँ और बापू ने स्नेहपूर्वक हालचाल पूछा ।फिर भी वे कुछ सशंक से लगे ।असली काम याद आया तो वह बोली :
‘माँ , मेरा नाम क्या है , बताओ तो ? गृहिणी ने चिन्ता से पूछा ।
‘यह क्या पूछ रही हो ? तुम हमारी बड़ी बेटी हो । तुम को बी.ए. तक पढ़ाया और पचास हजार दहेज दे कर शादी कर दी – दो प्रसव कराए- हर बार अस्पताल के खर्चे हम ने ही उठाए- तुम्हारे दो बच्चे हैं ।तुम्हारे पति की अच्छी नौकरी है-वे बहुत अच्छे हैं-तुम्हारे बच्चे होनहार हैं ।’
मुझे अपना इतिहास नहीं , अपना नाम चाहिए माँ – कम से कम यह तो बताओ कि मेरे सर्टिफ़िकेट कहाँ रखे हैं । ‘

‘पता नहीं बेटी ! कुछ दिन पहले अलमारी में से पुराने काग़ज़ , फ़ाइलें वग़ैरह निकाल कर उसमें शीशे का सामान रखवाया है ।थोड़ी-सी जरूरी फ़ाइलों को अटारी पर डाल दिया है। कल ढुँढवा देंगे । अभी कौन-सी जल्दी है? आराम से नहा कर खाना खा लो बेटी ! ‘माँ ने कहा। गृहिणी ने आराम से नहा कर भोजन तो किया लेकिन उसको नींद नहीं आई । उस ने कभी नहीं सोचा था कि हँसते-गाते , घर को लीपते और रंगोली बनाते-बनाते नाम भूल जाने से इतनी सारी मुसीबते खड़ी होंगी ।

सवेरा हुआ । लेकिन अटारी में सर्टिफिकेट ढूँढने का काम पूरा नहीं हुआ । इस बीच जो भी सामने पड़ा, उस से गृहिणी ने पूछा- पेड़-पत्तों से, बॉबी से,तालाब से,अपने स्कूल और कॉलेज से, सब से पूछ कर,चीख़ कर चिल्ला कर अंत में एक सहेली से मिलकर उस ने अपना नाम पा ही लिया । उस सहेली ने उसी की तरह , उसी के साथ पढ़-लिख कर उसी की तरह शादी की थी ।लेकिन वह हमारी गृहिणी की तरह घर को लीपने-पोतने को ही जीवन न मान कर उसे जीवन का एक हिस्सा भर मानती थी और अपना नाम और अपनी सहेलियों के नाम याद रखती थी । वह सहेली इसको देखते ही चिल्ला उठी, ‘ऐ शारदा ! मेरी प्यारी शारदा!’और गले से लग गई ।जैसे लू से झलसे , प्यास से सूखे और मरणासन्न व्यक्ति को कोई नई सुराही का पानी चम्मच से मुँह में डाल कर जीवनदान दे, वैसे ही उस सहेली ने इसे जीवनदान दिया । ‘

‘तुम शारदा हो । तुम अपने स्कूल में दसवीं कक्षा में प्रथम आई थीं । कॉलेज की संगीत प्रतियोगिता में भी प्रथम थीं । बीच-बीच में अच्छी तसवीरें भी बनाती रहती थीं । हम सब दस थीं । उन सब से मिलती ही रहती हूँ । हम एक दूसरे को चिट्ठी भी लिखती रहती हैं । बस, तुम्ही से नाता टूट गया है। बताओ ऐसा अज्ञातवास क्यों कर रही हो ? ‘सहेली ने जवाब तलब किया ।

‘हाँ, प्रमिला ! तुम्हारी बात सही है। मैं शारदा हूँ।तुम्हारे बताने तक मुझे याद ही नहीं आया। मेरे दिमाग के सारे खाने तो लीपने -पोतने से ही भरे हुए हैं और किसी बात की वहाँ गुंजाइश ही नहीं रही । तुम नहीं मिलती तो मैं पगला जाती ।’ शारदा नामधारी उस गृहिणी ने कहा । शारदा सीधी घर गई, अटारी पर चढ़ी और पुरानी फ़ाइलों की छानबीन करके अपने सर्टिफिकेट ,अपनी बनाई हुई तसवीरें ,पुराना अलबम ,सब कुछ ढूँढ़ लाई ।स्कूल और कॉलेज में जीते पुरस्कार भी उस ने ढूँढ लिए ।

अपने घर बाग़-बाग़ लौट आई ।’तुम नहीं थीं-घर को देखो कैसा हो गया है-सराय लगने लगा है । जय भगवान तुम आ गईं । हमारे लिए तो अब त्योहार ही समझो भई !’ पति ने कहा ।’घर को लीपने-पतने से ही त्योहार हो जाता । हाँ,एक बात और।आज से आप मुझे “ऐ,ओय” कह कर मत बुलाइए । मेरा नाम शारदा है ।”शारदा” कह कर बुलाइए।ठीक है न ?’ कह कर वह गुनगुनाती हुई अंदर चली गई।किस कोने में धूल है,कहाँ सामान बेक़रीने से रखा है, यह जानने के लिए घर भर सूँघती फिरती शारदा दो दिन की गर्द समेटे सोफ़े पर फैल कर बैठी , बच्चों को अपने लाए खिलौने दिखा रही थी। (अनुवाद- जे.एल.रेड्डी)

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