मैं, हिम-पक्षी और वह काला कुत्ता (कश्मीरी कहानी) : बशीर अतहर

Main Him-Pakshi Aur Vah Kala Kutta (Kashmiri Story) : Bashir Athar

दिसंबर का महीना। ठंड का प्रकोप। सुबहें और शामें और भी ज़्यादा ठंडी। मैं अभी भी बिस्तर में पड़ा था।

साढ़े ग्यारह होने को थे और अभी काम पर भी जाना था। देर तो हो ही गई, पर दफ्तर जाने की मजबूरी थी। बड़ी बेदिली से उठा और तैयारी में जुट गया। बाथरूम की ओर जैसे ही जाने लगा, बाहर बच्चों का कोलाहल सुनाई दिया। वापस मुड़ा। बाहर झाँका। आँगन में बच्चे घेरा डाले खड़े थे और कुहराम मचा रहे थे।

अपनी चोंच धरा पर घरे वह इस दुनिया से कूच करनेवाला था। थोड़े-थोड़े अंतराल में वह हिचकी भरता और बच्चों के शोरगुल से भयत्रस्त हो उड़ने की निष्फल चेष्टा करता। गज़-भर की उड़ान के बाद ही वह धम से नीचे गिर पड़ता। इस बीच मेरी पत्नी ने भी नीचे का यह दृश्य देखा। हम दोनों आए और बच्चों के झुंड में शामिल हो गए। वह भूमि पर अपनी चोंच टिकाए लगातार हिचकता रहा।

आकाश मेघों की चादर ओढ़े चुप था। मकानों की छतें, पल्लवविहीन पेड़ और टेकड़ियाँ सब कुहासे में डूबे थे। आँगन में खड़े हम सब ऐसे खिन्न थे जैसे वह हमारे ही परिवार का कोई सदस्य हो। याद आया कल जब बादलों के बीच से घूप की एक हल्की किरण फूट पड़ी थी तो यह हिम-पक्षी बर्फ़ को बुलाते हुए पी! पी!! पी!!! अपनी रागिनी गाने लगता था। तब अनायास ही में इसे कोसने लगा था-'जा तुझे फ़ालिज हो जाए!'

अब उसकी हिचकियों में तेजी आ गई थी और पंख भी निष्क्रिय होने लगे थे। तभी मैंने देखा कि एक काला-सा भयानक कुत्ता सामने से इसे ताक रहा है। उसकी आँखों में भय झलकता था या स्नेह-यह मैं दावे से तो नहीं कह सकता, पर उसकी नीयत में खोट साफ़-साफ़ नजर आ रहा था। शायद वह हमारे वहाँ से जाने की प्रतीक्षा में था। उसे देखते ही मेरा खून खौल उठा। मैंने एक कंकड़ उठाया और उसे भगाने लगा। थोड़ी दूर जाकर वह फिर लौटा; अपनी पिछली टाँगों के सहारे जीभ बाहर को निकाले हुए पूर्वस्थान पर बैठ गया। मैंने सोचा-यदि ड्यूटी पर गया और बच्चे भी खेल में मस्त हो गए, तब क्या होगा? फिर लगा कि मेरी चिन्ता निर्मूल है। वैसे भी यह पक्षी पस्त हो रहा है और वह पशु भी इसे छोड़ने का नही, फिर क्यों? पर नहीं, अभी तो वह जीवित है, क्यों इसे उसका आहार होने दूं?

कुहासा अभी भी मकानों की छतों, पेड़ों और पहाड़ियों से लिपटा था। शायद कुछ देर में छंट जाए! हिम-पक्षी छटपटा रहा था और हम असहाय खड़े उसे देख रहे थे। जाड़ा शुरू होते ही यह अपनी पी! पी!!' से शीतकाल के आगमन की सूचना देता है। सभी लोग तब इसे कितना कोसते हैं। पर इस समय कसा शब्दहीन पड़ा है!

मनहूस माना जाने वाला यह नभचर, अनगिनत लोगों के कोप का शिकार होते हुए भी हर सुबह बड़े चाव से अपना राग अलापता और मस्ती में झूमता था, पर आज अपने दमखम पर जरा भी नहीं इतरा पाया। कालगति को पहचानते हुए वह अचेत पड़ा था, जैसे कई युगों का अभिशप्त आज अनंत आकाश से भू पर नतमस्तक पड़ा हो। आज वह मेरे या अन्य किसी के लिए मनहूस नहीं था, बल्कि एक लाचार और बीमार जंतु था।

कोहरा छंटने लगा था। अब मकानों की छतें और पेड़ साफ़-साफ़ नज़र आ रहे थे। लेकिन पहाड़ियों अभी भी कुहासे से टैंकी थीं। शायद कहीं से कोई हल्की-सी धूप की किरण फूट पड़े। चारों दिशाओं में धूप-ही-धूप हो। कड़ाके की ठंड से छुटकारा हो और फिर कभी जाड़ा न आए।

कुत्ता टकटकी बाँधे देख रहा था और हम पक्षी के आसपास मातम मनाते हुए खड़े थे। मैं तय नहीं कर पा रहा था कि क्या करूँ। एक तरफ तो उसकी हिचकियों में तेजी आ रही थी और दूसरी तरफ़ वह काला चौपाया हिलने का नाम ही नहीं ले रहा था। ड्यूटी पर जाने की लाचारी, सो अलग। मैं सोच रहा था-कितना निष्ठुर पशु है। इसके तो प्राण निकल रहे हैं और वह चटखारे लेने को आतुर है। परंतु इसमें उसका भी क्या दोष! यह सब तो ऐसे ही चलता है।

तभी लगा-अच्छा ही है जो मर रहा है। सभी जाड़े के उत्पीड़न से मुक्त तो हो जाएंगे। पर क्या यह संभव है कि उसके जाने के साथ ही शीत का आना भी बंद हो? मैं ऐसे ही कई प्रश्नों के उत्तर स्वयं ही खोजने लगा। जब मैं किसी भी उत्तर को पाने में असफल रहा तो मेरी समझ में यही आया कि मुझे इस पक्षी को उस कुत्ते से बचाना चाहिए। मगर इसे रखूँ कहाँ? इसी उधेड़बुन में कुछ समय बीत गया। अंततः यही निर्णय लिया कि इसे अपने ही कक्ष में ले जाऊँगा। वही इसके लिए एक सुरक्षित स्थान हो सकता है। में उसके समीप गया। उसे हाथों में उठाया और चलने लगा। पर यह क्या! एक ही हिचकी में उसका दम छूट गया। मेरे आसपास खड़े सभी जैसे पत्थर हो गए। मैंने आकाश की ओर देखा। कुहासा अब नीचे उतर आया था...बर्फ गिरने लगी थी।

(अनुवादक : गौरीशंकर रैणा)

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