मैं बाँझ नहीं हूँ (कोंकणी कहानी) : शीला कोळंबकार

Main Baanjh Nahin Hoon (Konkani Story) : Sheela Kolambkar

सुबह-सुबह दरवाजे की घंटी बज उठी। दरवाजा खोलकर देखा तो पुलिस। मैं घबरा गई। भले-बुरे खयाल मन में आने लगे । बच्चे स्कूल गए थे और ये काम पर। मेरा दिल काँप उठा" "हे भगवान्! किसी को कुछ हुआ तो नहीं ? पर मैं कुछ बोल न पाई। मुँह से कोई शब्द ही नहीं निकल रहा था। मुँह खुला छोड़े मैं बस देखती रही। मेरी घबराहट को उस पुलिस इंस्पेक्टर ने भाँप लिया। उसने मुझसे पूछा, "आप.... ?"

“हाँ।" मैंने कहा।

"आप इंदु को जानती हैं ?"

"हाँ, उसे क्या हुआ ?"

"वह अस्पताल में है....। "

"क्या हुआ उसे?"

उसने खुद को जला लिया है, अस्पताल में है। अंतिम घड़ियाँ गिन रही है और बार- बार आप ही का नाम ले रही है, इसलिए अगर आप आ जाती तो अच्छा होता।"

"आप बैठिए, मैं अभी आई..."

"नहीं, मैं अंदर नहीं आऊँगा, यहीं बाहर जीप में ठीक हूँ। आप अगर जरा जल्दी आ जाएँ तो बेहतर होगा...।" उसने कहा और जूतों की खड़-खड़ आवाज करते हुए वह बाहर चला गया।

मेरी तो जैसे साँस ही रुक गई "इंदू ने खुद को जलाया या किसी और ने उसे जला डाला था ? मैंने जल्दी-जल्दी साड़ी लपेट ली और हाथ में चाबी लेकर बाहर आ गई। हमारे दरवाजे पर पुलिस को देखकर सब लोगों के दरवाजे फटाफट खुल गए थे। अंदर से आँखें संदेह से देख रही थीं। मैंने अपनी पड़ोसन से कहा, “मेरी सहेली इंदु, वही जो हमारे यहाँ आती हैं, उसे उसके घरवालों ने जला दिया है। वह मुझे बहुत याद कर रही है और यही बताने के लिए पुलिस आई है। स्कूल से बच्चे आएँ, तो उन्हें होटल से कुछ खाने के लिए लाकर दे दीजिएगा। उनका जरा खयाल रखना तथा घर का दरवाजा खुलवा देने के बाद चाबी अपने पास ही रख लेना। ये घर आएँ तो उन्हें बता देना कि यह सब हो गया है।" इससे शंका के बादल छंट गए। उनकी जगह करुणा ने ले ली।

"... पैसे नहीं चाहिए तुम्हारे बच्चों को मैं सँभाल लूँगी। उनकी चिंता तुम बिल्कुल मत करना। अब जल्दी जाओ।...."

मैं जाकर जीप में बैठ गई। उस स्थिति में भी मेरे पीछे बिल्डिंग की औरतों के बीच मचनेवाली खलबली पर मुझे मन-ही-मन हँसी आ गई।

"...इंदु ...इंदु ने खुद को जला लिया या उसे जलाया गया है?" मैंने इंस्पेक्टर से पूछा ।

"उसने बयान दिया है कि वह स्टोव जला रही थी। आँचल ने आग पकड़ ली और वह जल गई।"

"कितनी जल गई है ?"

"आज की रात काट पाएगी भी या नहीं, कह नहीं सकता। " इंस्पेक्टर चिंतित होकर बोल रहा था। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा । वह एकदम गुस्सा होकर बोल रहा था, मानो उसी का कोई करीबी जल गया था।

"मैं खास आपको लेने आया हूँ, क्योंकि वह आपको बहुत याद कर रही है। इसका मतलब है, आपसे उसका दिल का रिश्ता है। हो सकता है, आपकी बात सुनकर वह हमें सच्चाई बता दे और अगर ऐसा होता है तो हम उसकी सास और पति को अच्छा सबक सिखा सकते हैं।"

मैंने कहा, “आप जैसे इनसानियत से भरे, अन्याय होने पर आगबबूला हो उठनेवाले पुलिस अधिकारी अगर रहें तो इस तरह का हादसा कभी हो ही नहीं सकेगा, है न?"

"हूँ!" उसने कहा और वह चुप रहा।

इंदु मेरे बचपन की सहेली गोरी सी गोल-मटोल सी लंबे, पर पतले बाल। उसे देखते ही नजर में भर जाती थी, उसकी बड़ी-बड़ी आँखें " एकदम भयभीत" "हम उसे 'डरपोक खरगोश' बुलाते थे "एक था खरगोश " ऐसा डरपोक पत्ता भी गिरे तो डरे "

उसके इस तरह डरपोक होने के पीछे कारण था इंदु का जन्म हुआ और प्रसूतावस्था में ही माँ चल बसी। यह बच गई। पिता ने दूसरी शादी कर ली और इंदु मामा के घर में ही रह गई। पहले नानी के, फिर मामी के ताने सुनते-सुनते वह बड़ी हो गई। सभी से डरते-डरते दिन बिता रही थी। कोई ऊँची आवाज में बात करता तो वह एकदम डर जाती । कोई उस पर गुस्सा होता तो एकदम ढीली पड़ जाती। कभी-कभी उसका मजाक उड़ाने के लिए हम उसे एकटक देखते रहते "वह एकदम नर्वस हो जाती। बिल्कुल सीधी- सादी लड़की थी वह। जरा सी बात पर आँखों में पानी लानेवाली । शायद दाई ने उसकी आँखों को सेंका ही नहीं था। मैट्रिक के बाद वह घर में ही रही । सिलाई-कढ़ाई का काम सीखा। फिर मामा जिस लड़के का रिश्ता लाया था, उसने उसी से शादी की। शादी के बाद मुंबई आ गई। मामा ने भी शायद 'यह बला दूर रहे तो अच्छा ही है, ' यह सोचते हुए जान-बूझकर मुंबई का लड़का देखा हो "पता नहीं। मैं कॉलेज में पढ़ रही थी। लेकिन फिर भी हमारी दोस्ती वैसी ही थी। 'आषाढ़ पावली' (आषाढ़ में नववधुओं के मायके जाने की प्रथा) के लिए वह घर आई थी, पर वह बिल्कुल पहले जैसी ही थी। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। नई-नई शादी हुई लड़कियों के साथ जब उनकी सहेलियाँ हँसी-मजाक करती हैं, तब उनके चेहरे का रंग कितना बदलता रहता है, लेकिन यह तो एकदम निर्विकार लगती। उस समय मुझे इस बात का एहसास नहीं हुआ। उसके बाद मैं अपनी कॉलेज की जिंदगी में इतनी व्यस्त हो गई कि अगले तीन सालों में वह एक बार भी मैके नहीं आई, इस बात की ओर मेरा ध्यान ही नहीं गया। मेरी शादी तय हो गई। लड़का मुंबई का रहनेवाला हैं, यह पता चलते ही मन अपने आप मुंबई में रहनेवाले रिश्तेदारों, सहेलियों के बारे में सोचने लगा। तब खयाल आया, अरे, इंदु भी तो मुंबई में है। मुझे बहुत बड़ा सहारा महसूस हुआ।

मुंबई जाने के बाद अपने पति को साथ लेकर मैं खासकर उसके घर गई। उसका घर अच्छा था। घर में उसकी सास थी। ननद की शादी हो गई थी। उसका पति स्वभाव से शांत दिखा। मन में कहा, 'चलो अच्छा हुआ। इंदु का पति वैसा ही है, जैसा उसे मिलना चाहिए था।' हमारा चाय-नाश्ता हो गया। इंदु को मैंने अपना पता दे दिया और उसे हमारे घर आने का न्योता देकर हम घर वापस आ गए।

एक दिन अचानक इंदु हमारे घर आ गई। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा मुझे भी अपना सुख, अपनी बातें, घर छोड़कर दूर आने के कारण हुए बिछोह का दुःख किसी के साथ तो बाँटना ही था। मैं अपनी ही धुन में उससे बातें करती रही। वह ऊँ...ऊँ करती हुई सुन रही थी। क्या बताऊँ और क्या न बताऊँ, ऐसा मुझे हो गया था और इंदु किसी शून्य में नजर लगाए बैठी हुई है, इस बात की ओर मेरा ध्यान ही नहीं गया और जब इस ओर मेरा ध्यान गया, तब मुझे एकदम गुनहगार जैसा लगने लगा "वैसे देखें तो मैंने उसकी कोई खबर ही नहीं ली थी। उसका हाल-चाल पूछे बिना बस ऐसे ही बड़बड़ाती रह गई थी...

"इंदु, इंदु, तू सुन रही है न?"

“हाँ बाबा, तू बता रुकना मत। "

"नहीं, अब तू बता, कैसी है तू ? तेरी शादी को तो चार साल हो गए न? अभी तक तुम्हारे यहाँ बच्चा कैसे नहीं हुआ ? कहीं पंचवर्षीय योजना तो नहीं है न ?"

“अरे, ऐसा कुछ नहीं है।"

तो फिर ?"

"फिर क्या ? बच्चा होने के लिए पहले पति-पत्नी के बीच संबंध तो होना चाहिए कि नहीं ?"

"मतलब ?"

"मतलब, तुम्हारा सिर" यह कहकर वह मुझपर भड़क उठी। मुझे उसपर तरस आ गया। मैंने उसे अपने पास खींच लिया। मेरे अपनेपन की आँच पाकर वह फूट-फूटकर रोने लगी। मैंने उसे थपथपाया और जी भरकर रोने दिया। बाद में उसने मुझे जो बताया, वह सुनकर मुझे तो धक्का ही लगा ।

इंदु शादी करके मुंबई आ गई थी। उसकी आँखों में सुखी संसार का सपना था। मुंबई जैसे शहर में एक बड़ी जगह उन्हें मिल गई थी। उसकी सास माँ की तरह उसे प्यार करती। पति भी उससे बहुत प्यार करता था, लेकिन रात होते ही सास उसके और पति के बीच खुद का बिस्तर लगा देती और सो जाती।

"क्यों ?"

“उसे एक ज्योतिषी ने बताया था कि इस साल अगर गर्भ रह गया तो जन्म लेनेवाला बच्चा घर परिवार का सत्यानाश कर देगा।"

“अगर ऐसा था तो उसने बेटे की शादी ही क्यों की उस साल ?"

ज्योतिषी ने ही उस साल शादी करने के लिए कहा था, पर यह भी कहा था कि बच्चा होने न दिया जाए। "

"लेकिन दूसरे और बहुत से उपाय थे न ?"

"कोई फायदा नहीं था। ज्योतिषी ने जैसे कहा था, उसी के अनुसार सबकुछ होना चाहिए था। पति मुझपर गुस्सा करता, मुझे भला-बुरा कहता, पर अपनी माँ से कभी कुछ न कहता। ऐसे ही एक साल बीत गया । "

"और तू चुप रही ?"

"और क्या करती ?"

"फिर?"

फिर क्या ? फिर साल खत्म होते ही ज्योतिषी के कहने पर वह हमें साथ रहने देने लगी। अब तुझे कैसे बताऊँ ? ...लेकिन इतना सच है कि एक साल तक मेरी सास ने कुछ नहीं कहा, वह चुप रही। फिर डॉक्टर के पास ले गई। डॉक्टर ने कहा कि दोनों की जाँच करनी पड़ेगी। फिर व्रत-उपवास... किसी की बताई हुई दवाइयाँ...दो-तीन बार क्युरेटिंग...वह ये सब मुझे करने के लिए कहती थी और मैं करती थी। "

"लेकिन क्यों ?"

उसे अच्छा लगे इसलिए, क्योंकि यहाँ रहने के लिए मेरे पास घर था । प्यार करनेवाली सास थी, दो बार का खाना मिलता था। मामा बुलाने आए तो वह मुझे भेजती नहीं थी। 'जन्म लेते ही माँ को खा गई, अब हमें खा', ऐसे ताने नहीं सुनने पड़ते। बस, एक ही बात थी, बच्चा नहीं हुआ था और दो साल गुजरते ही सास का रवैया बदलने लगा। 'बाँझ-बाँझ' कहकर वह मुझे ताने देने लगी। पति को देखकर मैं चुप रह जाती। वह मुझे कुछ भी नहीं कहता था। शायद दोष उसी में है, इस बात का उसे एहसास था, पर जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, वैसे-वैसे पति भी बदलने लगा। उसे अपनी माँ का कहना ही सच लगने लगा। उसे भी लगने लगा कि पुरुष भी कभी दोषी हो सकता है भला? कभी नहीं । दोष तो हमेशा स्त्रियों में ही होता है और उसे इस तरह होना ही चाहिए। डॉक्टर बकवास कर रहा है। अब वह भी मुझे 'बाँझ - बाँझ' कहकर बुलाने लगा। दूसरों के सामने भी यह कहने में उसे शर्म नहीं आती। उलटे सबके सामने पत्नी को 'बाँझ' कहते ही जब मेरा चेहरा उतर जाता, तब उसे अपने पौरुष पर गर्व महसूस होता। मेरा कोई दोष नहीं है, फिर भी मैं यह सब सहन कर रही हूँ, क्योंकि सबकुछ छोड़ अगर कहीं जाने की सोचूँ भी तो माँ नहीं है। पिता होकर भी न होने के बराबर । भाई-बहन नहीं हैं। अपने पैरों पर खड़ी होकर जिंदगी गुजारने की सोचूँ तो उतनी हिम्मत नहीं है। जान देकर जिंदगी खत्म करने का साहस मुझमें नहीं है। जान देने गई और मर गई तो ठीक है, बचकर अपाहिज बन गई तो मेरा हाल पूछने कुत्ता भी पास नहीं फटकेगा। "

इतना कह वह रो पड़ी, बहुत रोई, दिल खोलकर रोई । अपने अंदर अब तक जो दुःख दबाकर रखा था, उससे उसका दम घुटने लगा था। अब उसका मन जरा हलका हो गया। मैंने उससे कहा, “अभी भी देर नहीं हुई है। तुम्हारे पति को मैं समझाती हूँ। तुम्हारी सास को कानोकान खबर नहीं होगी। हम किसी दूसरे डॉक्टर के पास चले जाएँगे। आजकल तो विज्ञान कहाँ से कहाँ पहुँच गया है "कितने ही सारे उपाय आ गए हैं। देखते हैं, क्या होता है...!"

लेकिन अगले साल बच्चा होने में उसकी मदद करना तो दूर ही रहा, मैं खुद अपनी प्रसूति के लिए गोवा चली गई। वह साल खाली चला गया। मुझे बेटी हुई और उसे लेकर मैं घर आ गई। इंदु को खबर होते ही वह आ गई। उसे बच्चों से बहुत प्यार था। मेरी बेटी को वही सँभालती। उससे लाड़-प्यार करती। मेरी बेटी भी उसे अच्छी तरह पहचानती। मेरी दूसरी प्रसूति इंदू ने ही सँभाली, यह कहूँ तो ज्यादती न होगी। वह सुबह अपने घर के काम निपटाती और फिर हमारे घर चली आती और शाम को वापस चली जाती। इंदु की सास मुझसे कहती, "अरी, यह तो बाँझ है, बाँझ! इसके पास अपने बच्चों को क्यों छोड़ती हो ? उन्हें कुछ भी हो सकता है।"

मैं कहती, “किस बात के आधार पर आप उसे बाँझ कह रही हैं? कुछ औरतों को जरा देर से ही बच्चे हो जाते हैं। उसके भी होंगे। और अगर नहीं भी हो तो भी ठीक है। कुछ भी हो, आखिर वह मेरी सहेली है, मेरे बच्चों की मौसी कहते हैं न 'माँ मरे और मौसी जिंदा रहे।' मेरे बच्चों को कुछ भी नहीं होगा।"

लेकिन इन दिनों इंदु बदल गई थी। काफी खुश रहती थी। ज्यादातर बन-सँवरकर रहती, पर अपने ही भीतर खोई हुई-सी इतना खुश मैंने उसे कभी नहीं देखा था। मैंने उससे पूछा भी, “क्यों, क्या हुआ है ?"

"ऐसा कुछ नहीं है, बाबा! बताऊँगी फिर कभी।"

"फिर कभी क्यों? अभी क्यों नहीं ?"

"क्योंकि अगर तुम्हें पता चला तो तुम मुझे दरवाजे पर भी खड़ी होने न दोगी।"

“बस भी करो ! कुछ भी कह लेती हो। "

"अरे, मैं तो मजाक कर रही थी।"

वह आती, बच्चों के साथ खेलती और चली जाती। अपनी ही धुन में रहती । जब नहीं आती, तब बच्चे उससे नाराज हो जाते। उसे खुश देखकर ही मैं खुश थी, इसलिए उसके पीछे पड़कर इस बारे में कुछ पूछें, ऐसा नहीं लगा।

और अब देखें तो यह कहानी ! बच्चों को यह सब कैसे बताऊँगी ? मेरे बच्चों को उससे काफी लगाव था। अगर इसे कुछ हो गया तो ?

इतने में हम अस्पताल पहुँच गए।

मैं जल्दी-जल्दी इंदु के पास चली गई। वह पूरी तरह जल गई थी। सिर्फ चेहरा ही सही-सलामत था। जब जलन का दर्द असहनीय हो जाता, तब वह चीख पड़ती ...रोती...। लेकिन मुझे देखते ही मुसकरा उठी।

आ गई तू ? आ।" यह कहते हुए उसने मेरा हाथ पकड़ा। उसके हाथ की चमड़ी मेरे हाथ से चिपक गई। मेरा शरीर सिहर उठा और एकदम मैं रो पड़ी। "...नासपीटी कहीं की ऐसा कौन सा भूत तुझ पर सवार हो गया तो तूने खुद को जला डाला ? तुझे मरना ही था तो मुझे कह देती। मैं तुझे अपने हाथों से ट्रेन के नीचे धकेल देती और एक झटके में ही तू मर जाती, यह सोच तुझे देख तो लेती। इस तरह पल-पल मरते हुए तू अपनी मौत से हमें क्यों मार रही है ?"

"पगली कहीं की!" अब इंदु मुझे समझा रही थी, “मैंने खुद को नहीं 'जलाया..."

"तो फिर ?"

"माँ और बेटे ने मिलकर मुझे जलाया।"

"सच कहती हो? तो फिर पुलिस से तूने झूठ क्यों कहा? सच्चाई पुलिस को क्यों नहीं बताई ?"

"लेकिन तुझे उन्होंने जलाया ही क्यों ? तूने क्या गुनाह किया था ? बच्चा नहीं हो सका, बस यही न ?"

"नहीं, उससे भी बड़ा गुनाह था ।"

"कैसा गुनाह ? "

"माँ और बेटा 'बाँझ - बाँझ' कहकर मुझे चिढ़ाते थे। इसी बीच मेरी सास ने अपने बेटे की दूसरी शादी करने का निश्चय किया। मुझे इस बात का पता लग गया। मैंने जाकर लड़की के घरवालों को सबकुछ बता दिया । दोष मुझमें नहीं, उसमें है। तब वे उन्हें डॉक्टर के पास लेकर चले गए। डॉक्टर ने उन्हें सच्चाई बता दी और वह रिश्ता टूट गया। अब मैं जरा सतर्क हो गई थी, क्योंकि अब वे दोनों मुझे बताए बिना चुपचाप रिश्ता देखकर शादी करने की तैयारी में लगे हुए थे। कुछ तो करना चाहिए था, पर क्या करूँ, यह समझ में नहीं आ रहा था। और फिर अचानक मेरे दिमाग में एक खयाल आया। मेरी जान-पहचान का एक आदमी था। वह हमेशा मुझसे कहता, इस नर्क में क्यों रहती हो? वहाँ से बाहर निकलो और अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ। चाहो तो मैं तुम्हारे लिए कोई नौकरी ढूँढ़ देता हूँ.."

“उसने तुझे ऐसा कहा ? अगर तू घर छोड़कर चली आती तो क्या वह तुझ से शादी कर लेता ?"

"कैसे करता ?"

"मतलब ?"

"वह शादीशुदा या, उसके बच्चे भी थे। "

"फिर ?"

"हम करीब आ गए। स्वर्ग सुख का अनुभव तब मैंने किया। और तुझसे सच कहूँ? चोरी-छुपे किए गए प्यार का मजा ही कुछ और होता है"

जलन असहनीय होने के कारण एक तरफ वह रो रही थी और दूसरी तरफ हँसते-हँसते मुझे सब बता रही थी।

मैंने कहा, "बस, अब तू और कुछ मत कह। "

"अब मैं आखिरी बार तुझसे बात कर रही हूँ। मैं जो कह रही हूँ, उसे सुन ले ...मुझे रोकना मत। मेरे भोगे हुए सुख के सामने यह दुःख कुछ भी नहीं है ...जानती हो, मैं तुम्हारे घर आती, तुम्हारे बच्चों में रम जाती। थोड़ा-थोड़ा मातृत्व मैंने तुम्हारे घर में ही भोग लिया। पत्नी बन पति के घर ठाठ से रही... और ...और पुरुष का सुख...मेरा प्रेमी था जिसने मुझे सबकुछ दे दिया। मेरी सास जानती थी कि मैं तुम्हारे घर आती रहती हूँ। तुम्हारे यहाँ मेरे आने से उसे कोई एतराज न था । इन दिनों मैं तुम्हारे घर जाने का बहाना करके उससे मिलने जाती थी। ...उससे मिलकर फिर मैं तुम्हारे घर पहुँचती और तुम्हारे यहाँ से अपने घर चली जाती एक दिन पता चला कि मैं माँ बननेवाली हूँ! मैं बहुत खुश हुई। मुझे लगा कि वह भी खुश होगा, पर नहीं। वह डर गया... कहने लगा, डॉक्टर के पास चलते हैं। मैंने नहीं माना। उसके बाद उसने मुझसे मिलना बंद कर दिया। अब मुझे भी उसकी जरूरत नहीं थी। मुझे तो केवल माँ बनना था। अब मुझे 'बाँझ' कहकर कोई नहीं चिढ़ा सकता था ...रोज की तरह जब सास ने मुझे 'बाँझ' कहा, तब मैंने कहा, मैं बाँझ नहीं हूँ...मैं माँ बननेवाली हूँ...वे मुझे डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर ने कहा कि यह सच है। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें...? वे मुझसे उस आदमी का नाम पूछने लगे, पर मैंने नहीं बताया। तब उन्हें गुस्सा आया और उन्होंने मुझ पर पेट्रोल डालकर मुझे जला दिया और फिर यहाँ लाकर फेंक दिया।"

तो फिर ? ...तू अभी पुलिस को जो सच है, वह बता दे। उन्हें ऐसा सबक सिखाएँगे..."

“नहीं रे, वे जमाने को धोखे में रख सकते हैं, पर खुद को कैसे धोखा देंगे? उन्होंने जमाने से कहा कि स्टोव जलाते समय मैं जल गई, पर क्या वे जानते नहीं कि खुद उन्होंने ही मुझे जलाया है ? उनका मन ही उन्हें कचोटता रहेगा। जानती हो, मैं बाँझ नहीं हूँ ...मैं माँ बननेवाली थी ...तीन महीने हुए थे मुझे ...मुझे तुझसे मिलना था। तुझे मेरे सुख के बारे में बताना था, इसलिए मेरी जान अटकी हुई थी। अब मुझे अच्छा लग रहा है। अब तू सबको बताना । बताना कि मैं बाँझ नहीं थी। मैं माँ बननेवाली थी ...पर नसीब ने धोखा दे दिया ...एक्सिडेंट हुआ और मर गई ...सबको बताना ...मैं बाँझ..न..."

यह कह हँसते-हँसते उसने आखिरी साँस ले ली। अब वहाँ रहने का कोई मतलब नहीं था। ऐसा लगा कि मरकर एक तरह से वह आजाद हो गई है। उसकी वह छटपटाहट, ...उसका वह चीखना ...उसका वह हँसना ...उसका वह भयानक दिखना ...उसका वह बोलना ...जलन सहन करते हुए भी उसके चेहरे पर छाई हुई वह माँ बनने की खुशी ...मेरे लिए यह सब सहनशीलता के परे था ।

मैं घर जाने के लिए बाहर आ गई। सुबह से जो कुछ हुआ, जो कुछ देखा, जो कुछ सुना, उसके बारे में सोचकर मन सुन्न सा हो गया था। मुझे कहाँ जाना है, यह भी मेरी समझ में नहीं आ रहा था।

नीचे, सुबह मुझे लेकर आनेवाला इंस्पेक्टर था। उसने कहा, “चलिए, मैं आपको घर छोड़ देता हूँ।"

"नहीं, मैं अकेली ही चली जाऊँगी।"

उसने मेरी बात अनसुनी कर दी और मुझे जबरदस्ती जैसे खींचकर ले जाते हुए जीप में बिठा दिया। कुछ कहने करने से पहले ही उसने जीप स्टार्ट की और सीधे एक होटल के सामने लाकर खड़ी कर दी और जीप में बैठे- बैठे ही कॉफी और सैंडविच मँगा लिये।

मैंने गुस्से में ही पूछा, "यह क्या है ?"

"पता भी है कितने बज गए हैं?"

"नहीं।"

रात के साढ़े ग्यारह । "

“ऊँ!”

“सुबह से आपके पेट में क्या गया है ?" उसने पूछा। और अचानक मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मुझे बड़े जोर की भूख लग गई है और प्यास भी। सुबह आठ बजे मैंने एक कप चाय और एक रोटी खाई थी। उसके बाद पेट में कुछ भी नहीं गया था, पानी तक नहीं। मैं पेट को जैसे भूल ही गई थी। उसने जो कॉफी मँगाई, वह मैंने पी ली और जब सैंडविच खा रही थी, तब उसने जीप फिर से स्टार्ट की मैं सोचने लगी, 'मैं भूख-प्यास भूल गई थी, बच्चों को भूल गई थी और पति को भी ..."

"बच्चे क्या कर रहे हैं, भगवान् जाने!" मैंने आधी अपने आपसे और आधी उससे बात करते हुए कहा ।

उनकी फिक्र मत कीजिए। मैंने आपके पति को फोन करके सब बता दिया। वे जल्दी से छुट्टी लेकर घर चले गए और अब बच्चों के साथ हैं। हर एक- दो घंटों में मैं उन्हें यहाँ की खबर फोन से देता रहा हूँ और अब उन्हीं के कहने पर आपको घर छोड़ने जा रहा हूँ"

उसने जो बताया, उसमें से 'बच्चे पिता के साथ हैं', इतना ही मेरी समझ में आया। फिर से मेरा दिमाग इंदु के आसपास घूमने लगा। बेचारी इंदु ! छूट गई बेचारी । " आप जानते हैं, हम उसे 'डरपोक खरगोश' बुलाते थे। पर वही डरपोक खरगोश परिस्थिति के चलते शेरनी बन गई। इंदु इतनी आगे बढ़ जाएगी, ऐसा सोचा नहीं था, लेकिन आखिर तक उसने अपना प्रेमी कौन है, यह नहीं बताया। आमतौर पर वह मुझसे कुछ भी छुपाकर नहीं रखती थी। सबकुछ बताती थी, फिर उसने यही बात क्यों नहीं बताई ? इतनी पराई हो गई मैं इसके लिए? कौन होगा उसका प्रेमी ? क्या इसकी मौत का उसे पता चल गया ? क्या करता होगा वो ? उस बेचारे पर भी मुझे तरस आने लगा । अपना दुःख वह किसे बताता ? और किस मुँह से कहते हैं, चोर की माँ दिल ही दिल में रोती है वैसे ही वह भी अंदर-ही-अंदर रोता होगा क्या ? उसे दुःख हुआ होगा या बिना किसी झंझट के छूट गया, यह सोचकर खुश हो रहा होगा ? इंदु ने मुझसे यही बात क्यों छुपाई ? वैसे तो वह सबकुछ मुझे बताती थी।"

"मैं जानता हूँ"

"क्या ?"

यही कि वह आपसे कुछ भी नहीं छुपाती थी ! अपना राज वह आपको कल बतानेवाली थी। क्योंकि कल आपका जन्मदिन था..."

"पर...पर...ये सब आप कैसे जानते हैं?"

"...!"

मैं भी कितनी पागल हूँ! इसने मेरे पति को ऑफिस में फोन किया फिर हमारे घर फोन किया ...मुझे कॉफी पसंद है, इसलिए कॉफी मँगाई, चाय नहीं दी ...मतलब वह सब जानता था ...उसे यह सब कैसे पता चला ? ...मतलब इंदु ने ...अब सब साफ-साफ समझ में आने लगा ...मैंने कहा, "मतलब...मतलब...!"

उसने सिर हिलाया। जोर से ब्रेक दबाकर जीप रोक दी और स्टियरिंग व्हील पर सिर रखकर सुबक सुबककर रोने लगा ...और अब क्या करूँ, यह समझ में न आने से मैं पागलों की तरह उसे देखती रह गई ...देखती ही रह गई... !

(अनुवाद : रमिता गुरव)

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