मैं और मेरी कहानी : प्रकाश मनु

Main Aur Meri Kahani : Prakash Manu

कहानी के लिए दीवानगी तो शुरू से ही थी। बचपन में मुझे याद है, माँ और नानी की सुनाई गई कहानियाँ मुझे किसी और ही दुनिया में पहुँचा देती थीं। लगता था वह दुनिया मेरे आसपास की देखी-भाली दुनिया से काफ़ी अलग और कौतुक भरी है। उसमें हर क्षण कुछ न कुछ घटित होता था और मुझे लगता था, मैं बिना पंखों के उड़ रहा है, उड़ता जा रहा हूँ एक अंतहीन आकाश में और जीवन-जगत के एक से एक नए रहस्यों को जान रहा हूँ।

कहानी के जरिए बिना पंखों के उड़ने की कहानी शायद मेरे जीवन की सबसे अचरज भरी कहानी है, जिसने मुझे भीतर-बाहर से बदल दिया और जिस दुनिया में मैं था, जी रहा था, उसके मानी भी कुछ बदल गए। दुनिया वही थी जिसमें सब जी रहे थे, पर मेरे लिए वह दुनिया कुछ अलग हो गई थी।

मुझे याद है, बचपन में माँ से सुनी कहानियों में एक अधकू की कहानी भी थी, जो मुझे सबसे ज़्यादा अच्छी लगती थी। भला क्यों? इसलिए कि यह अधकू बड़ा विचित्र था। एक हाथ, एक पैर, एक आँख और एक कान...! सब कुछ आधा। ऐसा विचित्र था अधकू।...और मैं भी तो कुछ ऐसा ही था। एकदम दुबला-पतला, सींकिया सा। अगर घर में कोई कुछ कह देता तो माँ बरजतीं। बार-बार कहतीं, “मेरा कुक्कू ताँ अड़या-जुड़या होया तीला है। इन्नू कुज्झ न आक्खो!” यानी जैसे तिनते एक-दूसरे में अटके हों, वैसे ही मेरा कुक्कू तो बस किसी तरह जुड़ा हुआ है। हाथ लगते ही तिनके बिखर जाएँगे।...इसलिए इसे ज़रा भी छेड़ो मत।

अधकू ऐसा था, विचित्र। पर बड़ा हँसमुख था। ख़ुशमिजाज। हिम्मती और दिलेर भी और आसानी से हार मानने वाला नहीं थी।... उसकी सबसे बड़ी ताकत थी उसकी माँ, जो उसे बेइंतिहा प्यार करती थी। उसके भाई चोरी और डाका डालने का काम करते थे। वे उसे मारने को तैयार हो गए, यह सोचकर कि यह सींकिया तो किसी काम का नहीं। पर माँ ने चुपके से बता दिया अधकू को कि “अधकू, खबरदार! आज की रात सो मत जाना। तेरे भाई ही तेरा काल बन गए हैं।” तो अधकू चुपचाप लेटा रहा और बाक़ी छहों भाई पत्थर पर घिस-घिसकर छुरियाँ चमकाने लगे, ताकि एक ही बार में अधकू का काम तमाम हो जाए।

वे अधकू के सोने का इंतज़ार कर रहे थे। पर अधकू सो कहाँ रहा था? वह तो बस आँखें मींचे लेटा था और मन ही मन हँस रहा था। भाइयों को जोर-जोर से छुरियाँ चमकाते देखा तो मजे-मजे में बोला, “छुरियाँ ना चमका कि अधकू जागदा...!”

सुनकर भाइयों को बड़ा गुस्सा आया। उनमें से एक बोला, “मरे अधकू दी माँ कि अधकू जागदा...!”

आखिर माँ के बहुत समझाने पर वे उसे भी साथ ले जाने लगे। पर अधकू बड़ी होशियारी से कुछ न कुछ ऐसा करता कि वे मुसीबत में पड़ जाते और आख़िर भाग लेते। फिर एक बार वे राजा के यहाँ चोरी करने पहुँचे। अधकू के पास एक तूँ-तूँ बाजा था। एक तार का बाजा। अधकू की सबसे बड़ी दौलत। चलते-चलते अधकू ने उसे भी साथ ले लिया था। भाइयों ने पूछा, “तू इसका क्या करेगा रे अधकू!”

“अगर कोई मुसीबत हुई तो यह बाजा बजाकर आप लोगों को चेता दूँगा।” अधकू ने सिर हिलाते हुए कहा।

भाइयों ने मान लिया। बोले, “अच्छा, ठीक है सुकड़ू, ठीक...! तू अपना यह तूँ-तूँ बाजा भी ले ले।”

अधकू ने बड़ी ख़ुशी से सिर हिलाया और वह छोटा-सा तूँ-तूँ बाजा अपनी फेंट में कस लिया।

कुछ देर बाद जब राजा के महल में चोरी कर रहे थे उसके भाई, तो अधकू परेशान। सोचा, यह तो अच्छी बात नहीं है। उसने झट अपना तूँ-तूँ बाजा निकाला। उस बाजे को बजाते हुए उसने सोते राजा को चेताया कि “अरे ओ राजा, तू तो लंबी तानकर सो रहा है,/ जबकि तेरे महल में घुस गए चोर.../ इतने सारे चोर।/ जल्दी से जाग और अपना महल सँभाल,/ अरे ओ राजा!”

सुनते ही राजा हड़बड़ाकर उठा और अधकू के भाई पकड़े गए। राजा ने ख़ुश होकर अधकू को अपना मंत्री और मुख्य सलाहकार बना लिया। पर अधकू को अभी चैन कहाँ था? अगले दिन बेड़ियाँ पहने अधकू के भाई दरबार में लाए गए तो अधकू बोला, “महाराज, ये मेरे ही भाई हैं। ग़लते रास्ते पर भटक गए थे। इनके पास कोई काम नहीं था। आप कोई ढंग का काम दें तो भला ये चोरी क्यों करेंगे?”

तब राजा ने अधकू के छहों भाइयों को अपने दरबार में रख लिया। यों अधकू जो आधा था, अधकू जो सींकिया था, विचित्र भी, उसने जीवन में एक सम्मानपूर्ण जगह बनाई और अपने भाइयों को भी तार दिया।

इस कहानी में कुछ बात थी कि मैं उसे आज तक नहीं भूल पाया। क्यों भला? शायद इसलिए कि मुझे लगता था, मैं ही अधकू हूँ। औरों से बहुत अलग। इसलिए कि मुझमें शारीरिक ताकत ज़्यादा नहीं थी। दुनियादारी में कच्चड़। खेलकूद में कच्चड़... बहुत सारी चीजों में फिसड्डी। एकदम फिसड्डी। पर फिर भी लगता, कुछ है मुझमें कि मैं भी कुछ कर सकता हूँ। सारी दुनिया से कुछ अलग कर सकता हूँ।...

वह क्या चीज थी, जिस पर इतना भरोसा था मुझे? तब तो शायद बहुत साफ़ न रही होगी। पर आज जानता हूँ कि वह मेरी चुपचाप सोचते रहने की आदत थी और लिखने-पढ़ने की धुन, जो शायद पाँच-छह बरस से ही शुरू हो गई थी। वही धुन जो आगे चलकर मुझे साहित्य की खुली दुनिया में लाई।

माँ की सुनाई कहानियों में एक और कहानी थी। एक ऐसे राजकुमार की कहानी, जिसे सात कोठरियों वाले महल में क़ैद कर दिया गया था। उससे कहा जाता है कि वह छह कोठरियाँ तो देख ले, पर सातवीं न खोले, क्योंकि इससे उसका अनिष्ट हो सकता है।

राजकुमार ने पहली कोठरी खोली, दूसरी कोठरी खोली, तीसरी कोठरी खोली, एक-एक कर छह कोठरियाँ देख लीं। पर सातवीं कोठरी...? उसने सोचा, क्या सातवीं कोठरी भी खोलकर देखूँ? ज़रा देखना तो चाहिए कि उसमें ऐसा क्या है?

उसने धड़कते दिल से सातवीं कोठरी का दरवाज़ा खोला और उसे खोलते ही भीषण हलचल हुई, एक तेज बवंडर-सा आ गया। भूचाल...! जैसे सिर पर आसमान टूट पड़ा हो। एक से बढ़कर एक विपत्तियाँ आईं। कभी मौत के खेल सरीखा खौलता हुआ समंदर, कभी आग की ऊँची-ऊँची प्रचंड लपटें, कभी फुफकारते हुए बड़े-बड़े विशालकाय साँप...! यहाँ तक के अंगारों जैसी जलती हुई आँखों के साथ गरजते शेर, चिंघाड़ते हाथी और दूसरे हिंस्र जंगली जानवर भी। जैसे अभी झपट पड़ेंगे और मौत के गाल में पहुँचा देंगे।

एक के बाद एक सात समंदर भीषण आपदाओं के!...और राजकुमार का जी थर-थर, थर-थर, थर-थर। पर उसने बड़ी हिम्मत और दिलेरी से एक-एक कर सातों समंदर पार किए। बीच-बीच में डरा, काँपा, लेकिन जूझा भी हर एक विपत्ति से। फिर एक ऐसे द्वीप पर आ पहुँचा, जहाँ सोने जैसे बालों वाली सुंदर राजकुमारी सोनबाला क़ैद थी। उसकी आँखों में करुण याचना, जिसने राजकुमार को द्रवित कर दिया और फिर सोनबाला को कैदखाने से छुड़ाने की मुहिम ने उसे एक भीषण राक्षस के आगे ला खड़ा किया, जिसका भयानक अट्टहास ही धरती को कँपा देता था।

पर राजकुमार गया उस राक्षस की गुफा में और इतनी बहादुरी से भिड़ा कि राक्षस धड़ाम से गिरा...और एक ज़ोर की चीख के साथ ही उसका सारा तिलिस्म ख़त्म! कहानी का नायक राजकुमार राजकुमारी को लेकर लौटता है तो उसके चेहरे पर विजेता होने की जो चमक है, जान पर खेलकर भी कुछ हासिल करने की चमक, वह कहानी सुनते समय हमारे दिल और आँखों में भी एक ख़ुशी की कौंध भर देती थी और कहानी पूरी होने पर जो मीठा-सा सुकून मन में उपजता था, उसे भला मैं किन शब्दों में बताऊँ? कैसे बताऊँ...!

मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि कहानी सुनते हुए हर पल मेरी साँस अटकी रहती। लगता, आँधियों के बीच फँसा वह राजकुमार मैं हूँ। मैं ही हूँ। उसके साथ कुछ बुरा घटता तो मन बुरी तरह तड़पने लगता। मैं अंदर ही अंदर छटपटाता और उसकी बेहद-बेहद मुश्किलों से भरी किसी छोटी-सी जीत पर भी आँख में आँसू आ जाते। ऊपर आसमान की ओर हाथ जोड़कर कहता, “ओह, बच गया राजकुमार, बच गया...! हे राम जी, बड़ी कृपा है तुम्हारी। आख़िर तुमने उस सच्चे और हिम्मती राजकुमार को बचा ही लिया।”

यह कहानी थी। कहानी का जादू...! मेरा रोयाँ-रोयाँ उस समय कहानी की गिरफ्त में होता।

मैं कहानी सुन नहीं रहा होता था। उसके भीतर चला जाता था। कहानी में समा जाता था। बल्कि सच तो यह है कि मैं कहानी में और कहानी मुझमें समा जाती थी। उस समय आसपास की दुनिया और लोगों से बहुत ऊपर उठ जाता था मैं और देर तक हवा में चक्कर काटता रहता। बड़ी देर लगती थी मुझे वास्तविक ज़मीन पर पैर रखने में और सच पूछिए तो इसके लिए काफ़ी प्रयत्न करना पड़ता था और ये बड़े कष्टकर क्षण होते थे मेरे लिए।

यों एक नहीं, कई निराली और अबूझ दुनियाएँ मेरे आगे खुलती चली गईं और मैंने जाना—बड़े ही अचरज के साथ यह जाना कि जो दुनिया हमारे आसपास है और जिसे हम हर घड़ी देखते हैं, अकेली वही दुनिया नहीं है। बल्कि इस दुनिया के भीतर बहुत सारी दुनियाएँ हैं और उन दुनियाओं के भीतर और बहुत-सी दुनियाएँ। तमाम रंगों और रहस्यों और अबूझ जिज्ञासाओं से भरी दुनियाएँ, जिन्हें जाने बिना हम अधूरे ही रहते हैं।

यह मेरा पुनर्जन्म था। छल-छल भावना और संवेदना वाले कुक्कू का पुनर्जन्म। तभी पहलेपहल जाना कि दिल में गहरी संवेदना हो, तो वह भीतर एक टीस ही पैदा नहीं करती, कई बार तो कलेजा चीर जाने वाले तीर की तरह आपको घायल कर देती है और आप मछली की तरह तड़पने के लिए छूट जाते हैं।...

इस अनुभव को चाहूँ भी तो बाँट नहीं सकता। चाहूँ भी तो किसी को बता नहीं सकता। पर यही अनुभव था, जिसके कारण मैं अपने आप को औरों से अलग और भीतर-बाहर से भरा-भरा-सा महसूस कर रहा था।

क्या यही मेरे लेखक होने की पृष्ठभूमि नहीं थी?

आज सोचता हूँ, यह सब कैसे संभव होता, अगर राजकुमार सातवीं कोठरी का दरवाज़ा न खोलता तो...? बाक़ी छह कोठरियों के दरवाज़े तो हर कोई खोलता है, पर सातवीं कोठरी का दरवाज़ा कोई-कोई ही खोलता है और वही शायद अपने समय का नायक भी होता है।

मुझे याद है, बरसों पहले एक साहित्यिक मित्र ने मुझसे सवाल किया था कि “मनु जी, जिस परिवार के आप हैं, उसमें जन्म लेकर भी आप लेखक कैसे बने?”

मित्र का सवाल सुनकर मैं एक क्षण के लिए चुप रहा। फिर कहा, “भाई, इसका जवाब मैं बहुत जल्दी में, या दो-एक सतरों में नहीं दो सकता हूँ, इसलिए कि जवाब थोड़ा लंबा है।”

लेकिन सवाल मेरे भीतर गड़ गया और उस दिन से मैंने सोचना शुरू किया। सात भाई और दो बहनें। कुल नौ भाई-बहनों का बड़ा परिवार था हमारा। माता-पिता दोनों लगभग निरक्षर। मेरे परिवार में साहित्यकार होना तो दूर, कोई दूर-दूर तक भी साहित्य के निकट नहीं था। तो फिर मैं क्यों लेखक बना? कैसे...?

और जब मैं यह सोच रहा था, तो यही कहानी याद आ रही थी। मैं सोच रहा था, अगर इस कहानी का राजकुमार सातवीं कोठरी न खोलता तो जो रोमांचक चीजें उसके जीवन में घटित हुईं, वे कैसे होतीं? वह भी दूसरों की तरह एक सामान्य जीवन जीता और जीकर चला जाता। पर फिर कहानी कैसे बनती...? कहानी तो तभी बनती है, जब हम सारे ख़तरे उठाकर सातवीं कोठरी खोलते हैं और फिर एक से एक दिल को कँपा देनी वाली भीषण घटनाएँ घटती हैं, मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़ते हैं, मन लगातार एक भीतरी द्वंद्व के बीच से गुजरता है। बुरी तरह टूट-फूट। आत्मध्वंस...!

कई बार तो लगता है, अपने-पराए सब साथ छोड़ गए। अकेलापन, विवशता, लाचारी। कभी बुरी तरह पराजय और बेचारगी का अहसास भी। पर इन्हीं सब के बीच ही तो एक नवारुण प्रभात सूर्य की तरह जीवन का सत्य चमकता है और जीवन में वह आनंद भी महसूस होता है, जो किसी क़दर योगियों की समाधि से कम नहीं है और दुनिया की बड़ी से बड़ी दौलत के आगे भी जो हेठा नहीं पड़ता। यह मनुष्य का मनुष्य होना है, एक आदमकद मनुष्य...!

कभी-कभी लगता है, यही शायद मेरे लेखक और कहानीकार होने का भी सच है। याद पड़ता है, अपने छात्र-जीवन में मैं बहुत होशियार विद्यार्थी माना जाता है। हर क्लास के सबसे अच्छे दो-तीन विद्याथियों में मेरा नाम चमकता था। माता-पिता और परिवार के लोगों का सोचना था कि मैं इंजीनियर बनूँ। मोतीलाल नेहरू इंजीनियरिंग कालेज इलाहाबाद में इंजीनियरिंग में दाखिले के लिए चयन भी हो गया, पर मैंने बहाना बनाया कि नहीं, मैं प्रोफेसर बनूँगा। मुझे इंजीनियर नहीं होना। उसके बाद आगरा कालेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. पास की। पर यहाँ तक आते-आते लगा, जैसे मन के अंदर बैठा कोई कबीर कह रहा है, “साइंस के प्रोफेसर होकर तो तुम ज़िन्दगी भर चक्की के दो पाटों के बीच पिसते रहोगे, प्रकाश मनु। तो वह कब करोगे, जो करने के लिए तुम्हें भेजा गया है?”

तभी जैसे इलहाम हुआ, मुझे तो साहित्य करना है। एक लेखक का, साहित्यकार का जीवन जीना है और उसके लिए जो भी मुश्किलें आएँ, मुसीबतें आएँ, उन्हें मैं सहन करूँगा, लेकिन जीवन वही जिऊँगा, जो मेरे मन में है।

घर वालों से कहा तो उन्हें लगा, लड़का पागल हो गया है। इसलिए कि यह बिना कुछ आगा-पीछा सोचे, एक अथाह समंदर में कूद पड़ना था। वही एक क्षण था, जब लेखक होने का एक पूरा बिंब भीतर बना। लगा, अगर लेखक न हुआ तो जीना भी नहीं है। आधी रोटी ख़ाकर रहूँगा, पर बनूँगा लेखक ही।

बाद में हिंदुस्तान टाइम्स में आया तो हिन्दी के बड़े कहानीकार मटियानी जी से मुलाकात हुई और उनसे बहुत अंतरंगता भी हुई। वे जब भी मिलने आते, अपने बारे में बताते थे। बहुत-बहुत-सी बातें। बड़े दुख-दाह से भरी भी। तो उन दिनों उनकी अपनी कहानी ख़ुद उनके मुँह से सुनने को मिली। बहुत कठिन जीवन था उनका। एक अनाथ बच्चा, जिसके भीतर सपने थे। किशोरावस्था में कसाई का काम करना पड़ा। पर उन्हीं दिनों थोड़ा-थोड़ा लिखना भी उन्होंने शुरू कर दिया था। एक दिन कसाई की दुकान पर कीमा कूट रहे थे, तो बगल से गुजरते, किसी शख़्स ने बड़ा तीखा और काटने वाला व्यंग्य किया, “देखो, सरस्वती तक कीमा कूटा जा रहा है...!”

मटियानी जी तिलमिलाए। इतना गुस्सा आया कि लगा, दीवार से सिर दे मारें। भीतर गहरी छटपटाहट। उस रात सोने से पहले वे देर तक दीवार में अपना सिर मार-मारकर पुकारते रहे, “हे सरस्वती माँ, मुझे चाहे जितने दुख, चाहे जितनी तकलीफें देना, पर मुझे लेखक बनाना!...मैं बस, लेखक ही बनना चाहता हूँ, कुछ और नहीं।”

जितनी-जितनी उनकी ज़िन्दगी में मुसीबतें आतीं, उतनी ही उनके भीतर यह पुकार गहरी होती जाती। तरुणाई में उनके मुंबई प्रवास की तकलीफदेह कहानी पता नहीं कितनों ने पढ़ी है। पर वह एक समूची दिल दहला देने वाली गाथा है। उन्हें लगता, अच्छा है कि दुख और संकट मुझ पर टूट पड़े और एक के बाद एक तकलीफें आईं। अच्छा है कि मुझे भूखा रहना पड़ा और मैंने पुलिस के डंडे तक खाए। पर अच्छा है...! इसलिए कि जितनी ज़्यादा तकलीफें आएँगी, उतनी ही मेरे शब्दों में गहरी पुकार आएगी और मैं और-और अच्छा लिखूँगा।

और सच ही, मटियानी जी की कहानियों का असर कितना गहरा होता है, दिलों में उनकी कैसी गहरी गूँज पैदा होती है, यह आप देश के हर हिस्से में मौजूद उनके हजारों पाठकों से जान सकते हैं। प्रेमचंद के बाद हिन्दी का शायद ही कोई ऐसा साहित्यकार हो, जिसकी कहानियों को इतने पाठक मिले। पर क्या हम भूल सकते हैं कि मटियानी जी ने किन हालात में लिखा और वे क्या चीजें थीं, जो उन्हें लेखक बना रही थीं?

मैं जब मटियानी जी से उनकी कहानी सुन रहा था, उनके लेखक होने की कहानी, तो मुझे बचपन में माँ से सुनी कहानियाँ याद आ रही थीं। फिर-फिर अधकू याद आ रहा था। एक हाथ, एक पैर वाला अधकू, जिसने बड़े-बड़ों को चुनौती दी और अपनी दुनिया बदलकर दिखा दी।...मैं भी तो शरीर से दुबला-पतला-सा ही था। तिनके जैसा। पर मन बड़ा था। इसलिए अधकू मुझ पर छा गया। बाद में लिखना शुरू किया तो सोचता था कि लिखूँगा तो चीजें बदलेंगी। कुछ थोड़े से लोग तो होंगे जो पढ़ेंगे और अंदर तक महसूस करेंगे। बहुत ज़्यादा नहीं, तो दो-चार ही सही। बहुत है। किसी एक ने भी उसी भाव से पढ़ा, जो भाव कहानी लिखते समय आपके भीतर जनमा था, तो यही बहुत है।

और ऐसा होता है...! यही शायद सच्चाई की ताकत है। यही लेखन की ताकत और सार्थकता भी है।

पर बात तो कहानियों की हो रही थी।

मुझे याद है बचपन में अक्षर-ज्ञान के बाद जब क, ल और म को मिलाकर क़लम बना लेने का जादू मैंने जाना, उस दिन मेरी दुनिया में जैसे सबसे बड़ा चमत्कार हुआ था। कहीं भी अक्षर दिखाई देते, दीवार पर, अख़बार में, किताबों में, या दुकानों के आगे लगे बड़े-बड़े साइनबोर्डों पर, तो मैं उन्हें मिलाकर पढ़ने लगता। एक अतृप्त प्यास, जो एक बार भड़क गई, तो शांत होने का नाम ही नहीं ले रही थी। पढ़ना पढ़ना और पढ़ना...! इसके अलावा कुछ सूझता ही न था। लगता था, मैं पागल हो गया हूँ, अक्षर पागल...। एक अजब-सा दीवानी।

मुझमें पढ़ने-लिखने की रुचि देखी तो श्याम भैया मेरे लिए चंद्रशेखर आज़ाद , भगतसिंह और सुभाषचंद्र बोस की जीवनियाँ ले आए। मैंने उन्हें पढ़ा तो मन में एक अलग-सी भावना पैदा हुई। जीवन में कुछ कर गुजरने की भावना और यह भी कि कोई बड़ा उद्देश्य सामने हो तो आप अपना पूरा जीवन हँसकर दे देते हैं, देवता के चरणों में रखे गए किसी फूल की तरह और जब आप अपने को समूचा दे देते हैं, तो आप बड़े भी हो जाते हैं। एक महत्तर दुनिया का अंश। यह कितने आनंद की बात है। सचमुच, कितनी बड़ी बात!...

फिर एक दिन श्याम भाईसाहब मेरे लिए वे जो पुस्तक लाए, उसने तो मेरी ज़िन्दगी ही बदल दी। वह प्रेमचंद की कहानियों की किताब थी। किताब का नाम था, ‘प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ’। उसमें ‘ईदगाह’, ‘दो बैलों की कथा’ समेत कई कहानियाँ बड़ी रुचि और आनंद से पढ़ गया। पर जब ‘बड़े भाईसाहब’ कहानी पढ़ी तो मैं हक्का-बक्का। सचमुच अवाक! मैंने अपने आप से कहा, “अरे, यह तो मेरे श्याम भैया की कहानी है। भला पेमचंद को कैसे पता चली...?”

उस दिन और कुछ हुआ हो या नहीं, पर मैंने कहानी की ताकत ज़रूर जान ली। एक की लिखी कहानी किसी जादू-मंतर से सबकी कहानी हो जाती है। एक के दिल में कुछ उमड़ता हो और वह उसे वैसे ही ज़िंदा और दमदार शब्दों में ढाल दे, तो जितने भी उसे पढ़ते हैं, सबके दिल में वही घुमड़ता है। मुझे लगा, “अरे, यह तो दुनिया का सबसे बडा जादू है। महान करिश्मा! और यह साहित्य में घटित होता है, कहानी में। वाह, कैसा कमाल है?”

बाद में प्रेमचंद की और कहानियाँ पढ़ीं। उनके उपन्यास ‘गबन’, ‘निर्मला’, ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’ पढ़े, ‘गोदान’ पढ़ा, शरत, रवींद्रनाथ के उपन्यास पढ़े। उन दिनों हिंद पाकेट बुक्स से हिन्दी साहित्य की बड़ी अच्छी किताबें आती थीं। एक-एक रुपए में संक्षिप्त रूपांतरण मिल जाते थे। कोई-कोई दो रुपए में। तब यह भी समझ न थी कि प्रेमचंद हिन्दी के हैं, शरत, रवींद्र, बंकिम बंगला के। इसकी शायद कोई ज़रूरत भी न थी। सवाल तो कहानी का था, कहानी जो दिल को छूती है, हर किसी के दिल को छूती है—सभी सीमाओं से परे। दुनिया के तमाम देशों की सरहदों से परे। कहानी में भी कहानी थी, उपन्यास में भी कहानी थी। मैं पढ़ता था और रोता था, रोता था और पढ़ता था।

विश्व की इन महान और विलक्षण कृतियों में बीच-बीच में मनुष्य के भावनात्मक सम्बंधों के इतने करुण प्रसंग थे कि बिना रोए मैं पढ़ ही नहीं सकता था। हालाँकि कुछ समझ में आता था, कुछ नहीं। पर जो समझ में आता था, उसके सहारे जो चीज नहीं समझ में आती थी, उसके भी अर्थ खुलते जाते थे और हाथ में किताब लिए मैं जान लेना चाहता था कि आगे क्या हुआ, आगे क्या, आगे क्या...?

कई बार तो पढ़ते-पढ़ते ऐसे करुण प्रसंग आ जाते कि आँखों से लगातार गंगा-जमुना बहती। एक हाथ में किताब पकड़े, दूसरे से मैं आँसू पोंछता जाता और आगे पढ़ता जाता। पढ़ते-पढ़ते कई बार ज़ोर से रोना छूट जाता, पर तब भी किताब के पन्ने पलटता जाता, क्योंकि यह जाने बिना निस्तार न था कि आगे क्या हुआ, आगे...?

उन दिनों घर में बिजली न थी। लालटेन जलाई जाती। पर पूरे घर में दो-तीन ही लालटेनें होती थीं। तो मैं जो छत पर पढ़ रहा होता, अकसर रात की स्याही गहराने तक, जब तक अक्षरों का अनुमान लगा सकता था, पढ़ता...पढ़ता और पढ़ता ही रहता, क्योंकि कहानी का डंक मुझे चुभ गया था और जितना अधिक पढ़ता, नशा और गहराता जाता। उसकी गिरफ्त और-और तेज होती जाती।

और शायद यही क्षण थे, जब जाने-अनजाने में मैं लेखक हुआ। भले ही उसका पता थोड़ा आगे चलकर लगा हो।

पर बात तो कहानियों की हो रही थी।...

मुझे याद है बचपन में अक्षर-ज्ञान के बाद जब क, ल और म को मिलाकर क़लम बना लेने का जादू मैंने जाना, उस दिन मेरी दुनिया में जैसे सबसे बड़ा चमत्कार हुआ था। कहीं भी अक्षर दिखाई देते, दीवार पर, अख़बार में, किताबों में, या दुकानों के आगे लगे बड़े-बड़े साइनबोर्डों पर, तो मैं उन्हें मिलाकर पढ़ने लगता। एक अतृप्त प्यास, जो एक बार भड़क गई, तो शांत होने का नाम ही नहीं ले रही थी। पढ़ना पढ़ना और पढ़ना...! इसके अलावा कुछ सूझता ही न था। लगता था, मैं पागल हो गया हूँ, अक्षर पागल...। एक अजब-सा दीवानी।

मुझमें पढ़ने-लिखने की रुचि देखी तो श्याम भैया मेरे लिए चंद्रशेखर आज़ाद , भगतसिंह और सुभाषचंद्र बोस की जीवनियाँ ले आए। मैंने उन्हें पढ़ा तो मन में एक अलग-सी भावना पैदा हुई। जीवन में कुछ कर गुजरने की भावना और यह भी कि कोई बड़ा उद्देश्य सामने हो तो आप अपना पूरा जीवन हँसकर दे देते हैं, देवता के चरणों में रखे गए किसी फूल की तरह और जब आप अपने को समूचा दे देते हैं, तो आप बड़े भी हो जाते हैं। एक महत्तर दुनिया का अंश। यह कितने आनंद की बात है। सचमुच, कितनी बड़ी बात!...

फिर एक दिन श्याम भाईसाहब मेरे लिए वे जो पुस्तक लाए, उसने तो मेरी ज़िन्दगी ही बदल दी। वह प्रेमचंद की कहानियों की किताब थी। किताब का नाम था, ‘प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ’। उसमें ‘ईदगाह’, ‘दो बैलों की कथा’ समेत कई कहानियाँ बड़ी रुचि और आनंद से पढ़ गया। पर जब ‘बड़े भाईसाहब’ कहानी पढ़ी तो मैं हक्का-बक्का। सचमुच अवाक! मैंने अपने आप से कहा, “अरे, यह तो मेरे श्याम भैया की कहानी है। भला पेमचंद को कैसे पता चली...?”

उस दिन और कुछ हुआ हो या नहीं, पर मैंने कहानी की ताकत ज़रूर जान ली। एक की लिखी कहानी किसी जादू-मंतर से सबकी कहानी हो जाती है। एक के दिल में कुछ उमड़ता हो और वह उसे वैसे ही ज़िंदा और दमदार शब्दों में ढाल दे, तो जितने भी उसे पढ़ते हैं, सबके दिल में वही घुमड़ता है। मुझे लगा, “अरे, यह तो दुनिया का सबसे बडा जादू है। महान करिश्मा! और यह साहित्य में घटित होता है, कहानी में। वाह, कैसा कमाल है?”

बाद में प्रेमचंद की और कहानियाँ पढ़ीं। उनके उपन्यास ‘गबन’, ‘निर्मला’, ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’ पढ़े, ‘गोदान’ पढ़ा, शरत, रवींद्रनाथ के उपन्यास पढ़े। उन दिनों हिंद पाकेट बुक्स से हिन्दी साहित्य की बड़ी अच्छी किताबें आती थीं। एक-एक रुपए में संक्षिप्त रूपांतरण मिल जाते थे। कोई-कोई दो रुपए में। तब यह भी समझ न थी कि प्रेमचंद हिन्दी के हैं, शरत, रवींद्र, बंकिम बंगला के। इसकी शायद कोई ज़रूरत भी न थी। सवाल तो कहानी का था, कहानी जो दिल को छूती है, हर किसी के दिल को छूती है—सभी सीमाओं से परे। दुनिया के तमाम देशों की सरहदों से परे। कहानी में भी कहानी थी, उपन्यास में भी कहानी थी। मैं पढ़ता था और रोता था, रोता था और पढ़ता था।

विश्व की इन महान और विलक्षण कृतियों में बीच-बीच में मनुष्य के भावनात्मक सम्बंधों के इतने करुण प्रसंग थे कि बिना रोए मैं पढ़ ही नहीं सकता था। हालाँकि कुछ समझ में आता था, कुछ नहीं। पर जो समझ में आता था, उसके सहारे जो चीज नहीं समझ में आती थी, उसके भी अर्थ खुलते जाते थे और हाथ में किताब लिए मैं जान लेना चाहता था कि आगे क्या हुआ, आगे क्या, आगे क्या...?

कई बार तो पढ़ते-पढ़ते ऐसे करुण प्रसंग आ जाते कि आँखों से लगातार गंगा-जमुना बहती। एक हाथ में किताब पकड़े, दूसरे से मैं आँसू पोंछता जाता और आगे पढ़ता जाता। पढ़ते-पढ़ते कई बार ज़ोर से रोना छूट जाता, पर तब भी किताब के पन्ने पलटता जाता, क्योंकि यह जाने बिना निस्तार न था कि आगे क्या हुआ, आगे...?

उन दिनों घर में बिजली न थी। लालटेन जलाई जाती। पर पूरे घर में दो-तीन ही लालटेनें होती थीं। तो मैं जो छत पर पढ़ रहा होता, अकसर रात की स्याही गहराने तक, जब तक अक्षरों का अनुमान लगा सकता था, पढ़ता...पढ़ता और पढ़ता ही रहता, क्योंकि कहानी का डंक मुझे चुभ गया था और जितना अधिक पढ़ता, नशा और गहराता जाता। उसकी गिरफ्त और-और तेज होती जाती।

और शायद यही क्षण थे, जब जाने-अनजाने में मैं लेखक हुआ। भले ही उसका पता थोड़ा आगे चलकर लगा हो।

अलबत्ता अपनी कोई चालीस बरस लंबी कथा-यात्रा पर निगाह डालता हूँ तो मन में संतोष के साथ ही एक विस्मयजनक आह्लाद का भाव उपजता है। इसलिए भी कि मेरी कहानियाँ कहानी के बने-बनाए रास्ते पर चलने से एकदम शुरू से ही इनकार करती रही हैं। यह दीगर बात है कि जब ये कहानियाँ छपकर आईं—चाहे पत्र-पत्रिकाओं में या मित्रो विजयकिशोर मानव और देवेंद्रकुमार के साथ निकाले गए साझे संग्रह ‘दिलावर खड़ा है’ में, तो इन्हें सराहने वाले पाठक कहाँ-कहाँ मिले, उनकी अलग-अलग ढंग की उत्तेजक प्रतिक्रियाएँ कैसी थीं, इसकी चर्चा शायद ख़ुद एक कहानी बन जाए।

हाँ, इन प्रतिक्रियाओं में एक बात आश्चर्यजनक रूप से मिलती-जुलती और साझी थी कि इनमें से सभी को लगा था कि ये कहानियाँ एकदम सच्ची हैं। इन कहानियों के पात्र एकदम सच्चे हैं और ये कहानियाँ मेरी आत्मकथा के अनलिखे पन्नों में से चुपके-चुपके निकलकर आई हैं।

बहुत-से मित्रो और पाठकों ने तो इन कहानियों को मेरे जीवन में सच-सच इसी रूप में घटित हुआ मानकर, उन पात्रों के बारे में और भी बहुत-सी बातें दरियाफ्त करनी चाहीं। मसलन, “मनु जी, अरुंधती क्या आपको फिर कभी मिली?... क्या वह अब भी उसी तरह दुख और अकेलेपन का बोझ ढो रही है?” “सुकरात क्या सचमुच उसी तरह कुरुक्षेत्र में रेल की पटरियों पर कटा हुआ पाया गया था, जैसा आपने लिखा है?... क्या आपको उसके बारे में कुछ और पता चला कि वह क्यों इतने गुस्से में हरदम गालियाँ बकता रहता था और कहाँ से आया था?”...

ऐसे और भी सवाल। कुछ बेहद तीखे भी और कुछ बेहद दिलचस्प! इनमें से बहुतों के जवाब में सिर्फ़ हँसकर रह जाना ही काफ़ी था, क्योंकि उन्होंने इन कहानियों के नायक को हटाकर पूरी तरह मुझे वहाँ फिट कर दिया था और अब वे हर चीज की कैफियत मुझसे चाहते थे। जबकि सच तो यह है कि वे आत्मकथात्मक कहानियाँ भले ही हों—और मेरी आत्मकथा के पन्ने किसी न किसी शक्ल में वहाँ ज़रूर फड़फड़ा रहे थे—पर ये कहानियाँ पूरी तरह आत्मकथा न थीं, हो भी नहीं सकती थीं। तो भी ये कहानियाँ पाठकों को एकदम सच्ची और जीवन में ठीक-ठीक ऐसे ही घटित होती हुई लगीं, इसे इन कहानियों की एक अलग खासियत तो मान ही सकता हूँ।

मेरे कथा-गुरु दिग्गज कथाशिल्पी देवेंद्र सत्यार्थी ने शुरुआती दौर की लिखी मेरी ‘यात्रा’ कहानी सुनने के बाद जिस तरह मुग्ध और अभिभूत होकर आशीर्वाद दिया था और कहानियाँ लिखने की अपनी ही लीक पर चलते रहने का जो बल दिया था, उसे भूल पाना असंभव है। साथ ही उन्होंने कहानी को लेकर कबीर की उलटबाँसी की तरह जो बड़ी कमाल की बात कही, वह मुझे आज भी कहानी के बड़े से बड़े शास्त्रीय सिद्धांतों से बड़ी लगती है कि—“याद रखो मनु, कहानी सिर्फ़ तुम ही नहीं लिखते, बल्कि कहानी भी तुम्हें लिखती है। इसीलिए कहानी लिखने के बाद तुम वही नहीं रहते, जो कहानी लिखने से पहले थे।”

जितना-जितना इस कथन के बारे में सोचता हूँ, उतना ही भीतर उजाला-सा होता जाता है। जैसे कुछ अंदर की गहरी, बहुत गहरी सच्चाइयाँ सामने आ रही हों। कोई बड़ी बात कही जाती है, तो कैसे चीजों के नए-नए अर्थ खुलते हैं, यह मैंने सत्यार्थी जी के इस कथन के साथ-साथ बहुत बार भीतरी नदी की यात्राएँ करते हुए जाना।

ईशावास्योपनिषद् का एक प्रसिद्ध मंत्र है, जो मुझे किशोर वय से ही बहुत आकर्षित करता रहा है—

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम,
तत् त्वम् पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रष्टये।

अर्थात—सत्य का मुख सोने के पात्र से ढका हुआ है। हे तेजस्वी सूर्य, मुझ सत्य और धर्म के साधक के लिए तू आवरण हटाकर, मुझे सत्य के दर्शन करा।

आश्चर्य, सत्यार्थी जी की बात पर विचार करता हूँ तो ईशावास्योपनिषद् का यह मंत्र मुझे बार-बार याद आता है। पर यह तो किसी सत्यसाधक का आत्मकथन है। तो क्या कहानी का सत्य भी सृष्टि के महासत्य से अलग नहीं? और वह क्यों हो! आख़िर कहानी भी तो एक सृष्टि ही है न। एक विलक्षण कथासृष्टि...! तो क्या उसका सत्य भी हिरण्मयेन पात्र से ढका रहता है और कथागुरु देवेंद्र सत्यार्थी सरीखा कोई बड़ा शख्स, कोई बड़े कद का कथाकार अपने किसी बड़े अनुभव को शब्दों में बाँधता है, तो वह परत-दर-परत खुलने लगता है।

इससे पहलेपहल यह भी जाना कि कोई कहानी भी, अगर वह सच में कहानी है, तो अपने आप में एक खोज है। भाषा और अनुभव के स्तर पर एक बड़ी खोज और वह सबसे पहले तो ख़ुद लेखक को ही समृद्ध करती है। शायद इसीलिए कहा था मेरे गुरु और कथाशिल्पी सत्यार्थी जी ने कि कहानी लिखने के बाद आप ठीक-ठीक वही नहीं रहते, जो कहानी लिखने से पहले थे। आप भीतर-बाहर से बहुत कुछ बदल चुके होते हैं।

कुछ भी हो, सत्यार्थी जी के इस महा कथन ने मुझे बहुत सारी विलक्षण अंतर्यात्राओं से जोड़ दिया और हर यात्रा मेरे लिए कुछ बड़ी और गहन उपलब्धियाँ लेकर आई।

इसी तरह सत्यार्थी जी ने मुझे कहानी के एक और विराट सत्य का दर्शन कराते हुए कहा, “अगर तुममें कहानी को देखने की दृष्टि है, तो तुम देखोगे मनु, तुम्हारे सब ओर कहानियाँ ही कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं। बस, उन्हें तुम्हारी क़लम के स्पर्श की प्रतीक्षा है। तुम उन्हें प्यार से उठाओ और लिखना शुरू कर दो। वे देखते ही देखते तुम्हारे सामने हँसते-बोलते, चहचहाते या फिर उदास रंगों वाले जीवित संसार में बदल जाएँगी।”

बेशक सत्यार्थी जी की यह बात भीतर उत्साह पैदा करती थी और लगातार मुझमें एक आत्मान्वेषण चल पड़ा था।

हालाँकि सत्यार्थी जी से भी बहुत पहले वल्लभ जी ने मेरे कथा-संसार को बड़े प्रेम से सींचा था। बड़े ही पढ़ाकू और उस्ताद कहानीकार वल्लभ सिद्धार्थ, जिनकी कहानियों की उन दिनों धूम थी, मुझ पर छा गए थे।...असल में जिन दिनों मैं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोध कर रहा था, वल्लभ जी अकसर हमारे विश्वविद्यालय में आया करते थे और हम रिसर्च स्कालर्स के छात्रावास, टैगोर हॉस्टल में ही वे ब्रजेश भाई के साथ रुकते थे। तब पहलेपहल उन्हें जाना और उनकी कहानियों के जरिए ही बहुत यात्राएँ भीतर-बाहर की हुईं। घंटों उनके रचनात्मक संग-साथ से अंदर बहुत कुछ प्रकाशित होता चला गया।

कहानियाँ लिखता तो पहले से ही था, पर वल्लभ जी से मिलने के बाद खुद-ब-खुद बहुत कुछ बदलता चला गया और फिर कुछ अरसा बाद तो अंदर से कहानियों का जैसे एक सोता ही फूट पड़ा। मेरा शोध पूरा होने के बाद भी, जब मैं कुरुक्षेत्र में किराए के मकान में रहता था, वल्लभ जी से निरंतर मुलाकातें होती रहीं और मेरी कहानियों को वे खासी रुचि से देखते थे। अपनी विस्तृत राय भी बताते।

याद पड़ता है, बरसों बाद—जब मैं हिंदुस्तान टाइम्स में आ चुका था, फिर तेजी से कहानियाँ लिखने का सिलसिला चला। मेरा पहला कहानी-संग्रह ‘अंकल को विश नहीं करोगे’ छपा, तो मैंने वह वल्लभ जी को भिजवाया। कुछ अरसे बाद संग्रह की शीर्षक कथा ‘अंकल को विश नहीं करोगे’ पढ़कर उन्होंने जो पत्र लिखा था, उसे पढ़कर मैं रोमांचित हो उठा था। उन्होंने लिखा था, ‘अंकल को विश नहीं करोगे’ उन्हें इस बुरी तरह बेचैन करने वाली पाँच-सात कहानियों में से एक है और—“मनु, तुमने कम से कम एक ‘बड़ी’ कहानी लिखी है!”

वल्लभ जी की तरह ही मेरे बहुत-से कहानीकार मित्रो को यह कहानी इस क़दर प्रिय है कि बरसों बाद मिलने पर आज भी कहीं न कहीं, कभी न कभी इसकी चर्चा छिड़ ही जाती है। मेरे साहित्यिक मित्रो में श्रवणकुमार और डा. माहेश्वर भी इस कहानी की बहुत प्यार से चर्चा करते थे। श्रवणकुमार ने मेरी कहानी ‘एक सुबह का महाभारत’ का अंग्रेज़ी में तर्जुमा किया था। फिर उन्हीं के संपादन में यह अंग्रेज़ी के एक कथा-संचयन में भी आई।

मेरी लंबी कहानी ‘टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की कहानी’, याद पड़ता है, डॉ. माहेश्वर और श्रवणकुमार जैसे प्यारे लेखक-मित्रों के बीच हिंदुस्तान टाइम्स की कैंटीन में पढ़ी गई, तो कहानी सुनते हुए डॉ. माहेश्वर के आँसू छलछला आए थे। कहानी बीच में रोकनी पड़ी थी और एक अंतराल के बाद वह फिर शुरू हुई। इस लंबी कहानी के पूरे होते-होते रात घिर आई थी। मैंने डॉ. माहेश्वर और श्रवणकुमार दोनों मित्रो से क्षमा माँगते हुए कहा, “माफ करें, कहानी बहुत लंबी थी। इस वजह से आपको देर हो गई।”

इस पर डॉ. माहेश्वर ने एक सीझी हुई हँसी के साथ कहा था, “दोस्त, यही तो तुम्हारी अदा है कि जिस चीज का भी वर्णन करते हो, तुम उसके इतने बारीक से बारीक डिटेल्स देते जाते हो कि सुनने वाला ताज्जुब में पड़ जाता है। कितने लेखक हैं, जिनमें अपने पात्रों के भीतर इतनी गहराई में उतरने का धीरज है, तो तुम अपनी कहानी के लंबे होने से क्यों परेशान हो? प्रकाश मनु ऐसी कहानियाँ नहीं लिखेगा तो कौन लिखेगा?”

इसी तरह ‘अरुंधती उदास है’, ‘सुकरात मेरे शहर में’, ‘अपराजिता की सच्ची कहानी’, ‘कुनु’, ‘प्रतिनायक’, ‘जिंदगीनामा एक जीनियस का’—ये सभी अलग-अलग मूड्स की कहानियाँ हैं। कहीं न कहीं मेरी आत्मकथा के पन्ने इनमें फड़फड़ा रहे हैं और इन पर अब भी इतनी ऊष्माभरी और अलग-अलग क़िस्म की प्रतिक्रियाएँ मिलती हैं, तो पता लगता है, एक लंबे अरसे तक ‘भूमिगत’ रही, अंदर ही अंदर बहती मेरी कथा-यात्रा अकारथ तो नहीं गई। यों यह बात अपनी जगह सही है कि ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यासों की जबरदस्त चर्चा के कारण मेरे बहुत-से निकटस्थ मित्रों-लेखकों का ध्यान इस ओर न जाता, तो यह कथा-यात्रा अभी तक भूमिगत ही रहती।

अलबत्ता इसे मैं अपनी ख़ुशकिस्मती ही मानता हूँ कि ज़िन्दगी की टूटन, तल्ख़ी और हादसों के बीच अलग-अलग शक्लों में सामने आई मेरी इन कहानियों पर समय-समय पर पाठकों की बड़ी आत्मीय और भावुक कर देने वाली प्रतिक्रियाएँ मिलती रहीं। बहुत-से पाठकों का कहना था, “आपकी कहानियों का अनौपचारिक अंदाज़ हमें पसंद है। आप अपने साथ बहा ले जाते हैं और एक बार पढ़ने के बाद आपकी कहानियाँ हमेशा के लिए हमारे साथ हो लेती हैं।”

ऐसे ही ‘एक सुबह का महाभारत’, ‘कुनु’, ‘नंदू भैया की कहानी’, ‘एक बूढ़े आदमी के खिलौने’ पढ़कर लिखे गए पत्रों में उस भावनात्मक संवाद के अक्स मिले, जिसमें आत्म और पर के बीच के फासले ग़ायब हो जाते हैं और कुछ अरसा पहले ‘साहित्य अमृत’ में छपी ‘जोशी सर’ कहानी पढ़कर जो भावुक कर देने वाले पत्र मिले, उनमें सभी का कहना था, “मनु जी, आपने हमारे बहुत प्यारे अध्यापक की याद दिला दी...!” कुछ ने तो बड़ी संजीदगी से अपने उन प्रिय अध्यापक के बारे में लिखकर भी भेजा, जिसे ‘जोशी सर’ कहानी पढ़कर उन्होंने बेतरह याद किया।

मेरी बहुचर्चित लंबी कहानियों में ‘मिसेज मजूमदार’ भी है, जिसमें एक बंगाली स्त्री की विचित्र क़िस्म की रुक्षता और निर्ममता है, जिससे पड़ोस का परिवार करीब-करीब आक्रांत हो उठता है। उसे मिसेज मजूमदार एक ऐसी मोटी खाल वाली स्त्री लगती है, जिसके भीतर करुणा और संवेदना का नामोनिशान नहीं है। तिस पर उसकी अजीब-सी सनकें और कर्कशता उसे मोहल्ले में लगभग सभी की घृणा का पात्र बना देती है। पर कहानी के अंत में उसकी दीनता और असहायता की जो अचीन्ही छवियाँ उभरती हैं, उससे एक और ही मिसेज मजूमदार सामने आती है, जो सचमुच करुणा की पात्र हैं।

कहानी का अंत आते-आते मिसेज मजूमदार के दुख, करुणा और असहायता का चित्रण करते हुए, ख़ुद मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी और किस पीड़ा और वेदना से भरकर मैंने डबडबाई आँखों से उसे आखिरी छोर तक पहुँचाया था, इसकी याद आज फिर मुझे भावुक बना रही है।

‘गंगा चौकीदारनी की कथा’ भी एक ऐसे स्त्री पात्र पर लिखी गई कहानी है, जिसको दर्जनों बार बहुत पास से देखा। हर बार कुछ न कुछ अलग और बदला हुआ उसका रूप। कुछ-कुछ अबूझ, रहस्यपूर्ण और मायावी भी। लेकिन कुछ ऐसा भी था, जो कभी नहीं बदला और उसी के भीतर से उसकी तरह-तरह की शक्लें और अक्स प्रकट हो जाया करते थे। हर बार कुछ-कुछ विमूढ़ और हतप्रभ करते हुए। पर उसकी कथा में एक ऐसी अबूझ करुणा का बारीक-सा धागा है, जो निरंतर चलता जाता है और उसके साथ ही नए-नए पड़ावों से गुजरती गंगा चौकीदारनी की कथा नई-नई भंगिमाओं में आगे बढ़ती जाती है और एक ‘अंतहीन अंत’ तक पहुँचती है।

यों उस स्त्री की ज़िन्दगी में बहुत पड़ाव आए, अच्छे-बुरे सब तरह के। पर हर हाल में उसकी दीनता प्रकट हुए हुए बिना न रहती और मेरी यह लंबी कहानी कमोबेश उसी से बावस्ता है और उसी ने मन में यह कहानी लिखने की तड़प पैदा की।

‘तुम कहाँ हो नवीन भाई’, ‘प्रतिनायक’ और ‘अंधी गुफा का मसीहा’ कहानियाँ साहित्यिक दुनिया के भीतरी अँधेरों की कहानियाँ हैं और अपने कुछ अलग और विशिष्ट ढंग से उन शक्लों को उजागर करती हैं, जो शायद बहुतों के लिए अनजानी और विस्मयजनक होंगी। थोड़ी चौंकाने वाली भी। स्वयं मेरे लिए इन कहानियों को लिखना बेहद तकलीफ भरी, काली अँधेरी सुरंग से गुजरने जैसा मर्मांतक अनुभव था। जो दुनियादारी में कामयाब हैं, वे कैसे साहित्य और कलाओं की दुनिया में भी झटपट सफलताओं के शिखर पर पहुँचते हैं और जीवन भर ख़ुद से और हालात से जूझने वाले लेखक के हिस्से यहाँ भी उपेक्षा, असफलता और नाकामयाबी ही आती है। यह चीज एक मनुष्य और कहानीकार के रूप में बार-बार मुझे विदग्ध करती है। तब भीतर से जो एक अज्ञात कराह और हाहाकार-सा फूटता है, उसे शब्दों का जामा पहनाना निस्संदेह बहुत दारुण पीड़ा भरे अनुभवों को फिर-फिर जीना था।

जाहिर है, यह तकलीफ बहुत तोड़ने वाली थी और इन कहानियों को बहुत अंदर तक टूट-फूटकर ही लिखा गया। लिहाज़ ा इन कहानियों को पढ़ना आज भी मुझे भीतर-बाहर से थरथरा देता है।

‘तुम याद आओगे लीलाराम’ मेरी आत्मकथात्मक कहानी है, जिसमें गर्दिश के दिनों की ऐसी तकलीफें हैं, जिन्हें कभी किसी से कहा या बाँटा नहीं जा सका। मेरे समय और जीवन का बहुत कुछ जो अभी तक अनकहा है, वह न जाने कैसे इस कहानी में खुद-ब-खुद ढलता चला गया और यह ऐसी कहानी है, जिसके बारे में मैं कह सकता हूँ कि इसमें आपको मेरी आत्मकथा के बहुत करुण पन्ने फड़फड़ाते मिलेंगे। मेरी आत्मकथा का यह भाग अभी सामने आया नहीं है, पर ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ में कुरुक्षेत्र के दिनों के दारुण कष्टों की तसवीर आप शायद बहुत विश्वसनीय रूप से देख पाएँगे।

‘तुम याद आओगे लीलाराम’ कहानी ही है, आत्मकथा नहीं। पर बेशक वह मेरी आत्मकथा से बहुत सटकर निकलती कहानी है। मेरे जीवन का यह वह दौर था, जब बहुत रोना आता था और आप रो भी नहीं पाते थे। अंदर-अंदर रुदन दबाकर जीना और इस हालत में भी मजबूती से क़लम पकड़े रहना, यह उस दौर की एक ऐसी खब्त है, जिसे मैं ताजिंदगी नहीं भूल सकता। उन दिनों इस हालत में भी जो कुछ लिखा गया, वह एक जलती भट्ठी के बीच बैठकर लिखने से कम न था।

अपने उस गर्दिशों भरे दौर को याद करता हूँ तो मानसिंह की काफ़ी याद आती है। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोध के दौरान हिन्दी विभाग के पीयन भाई मानसिंह का प्यार, अपनत्व और दिलासे भरा साथ हमें निरंतर मिला। हमें, यानी मुझे और सुनीता को। रात-दिन काम और काम के बीच मानसिंह ने कड़क चाय पिलाकर हमें जीवंत रखा था। इससे भी अधिक उसके किस्से और कहानियाँ की अविरल वाग्धारा ने, जिनमें जीवन बोलता था। कहने को मानसिंह पीयन ही था। ज़्यादा पढ़ा-लिखा भी नहीं। पर उसकी चेतना मुझे बहुतेरे कथित भद्र जनों और दिन-रात किताबें घोकने वालों पढ़ाकुओं से कहीं अधिक उजली नज़र आई।

ऐसे मानसिंह की एक उजली-सी छवि मेरी कहानी ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ में कहीं उतर आई है। कहानी में आते-आते बहुत कुछ बदल गया है। पर वह बुनियादी तौर से मानसिंह के चरित्र का विकास ही है और कहानी में मानसिंह को पहचानना मुश्किल नहीं है।

हिंदी के जाने-माने लेखक और प्रोफेसर शशिभूषण सिंहल भी उन दिनों कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में ही थी। कोई तीन बरस पहले ‘साहित्य अमृत’ में यह कहानी छपी तो उनका फ़ोन आया। कहानी की देर तक प्रशंसा करने के बाद उन्होंने कहा, “मानसिंह को हमने भी देखा तो था। पर उसका चरित्र इतना बड़ा है, यह तो मनु जी, पहली बार आपकी कहानी पढ़कर ही पता चला।”

अब मैं उनसे क्या कहता और कैसे समझाता कि अगर वे मेरी जगह खड़े होकर देखते, तभी समझ सकते थे कि मानसिंह क्या था। उनकी नज़र में वह एक पीयन था और मेरी नजरों में सोने के दिल वाला एक खरा इनसान। देखने के अलग-अलग ‘फ्रेम ऑफ रेफरेंस’ ने सब कुछ बदल दिया।

आज मानसिंह नहीं है, पर उसके लिए मन में जो गहरी कृतज्ञता का भाव है, उसे शब्दों में कैसे व्यक्त करूँ, मैं नहीं जानता। आज वह जिंदादिल शख़्स नहीं है, पर उसकी स्मृति को तो मैं प्रणाम कर ही सकता हूँ। उसकी निकटता में मैंने जीवन के जो गहरे पाठ पढ़े, उन्हें आज भी भूला नहीं हूँ और शायद कभी भूलूँगा भी नहीं।

‘आप कहाँ हैं जित्ते सर’ में मेरे मलोट के दिनों के अनुभव हैं और जो मुझे थोड़ा निकट से जानते हैं, वे जित्ते सर की चिंताओं और कशमकश में कहीं न कहीं ख़ुद मेरी व्यथा और बेचैनी ढूँढ़ ही लेंगे। कहानी का करुण अंत एक लेखक की उस त्रासदी को सामने रखता है, जिसमें एक ईमानदार, धुनी और जेनुइन लेखक अंत में एकदम अकेला होता जाता है। पूरी दुनिया में अकेला और बेतरह प्रेम करने वाले कुछ निकटस्थ जनों और अंतेवासी लोगों के सिवा कोई नहीं जान पाता कि वह कैसी परिस्थितियों में निरंतर टूटता चला गया। हालाँकि उसकी खुद्दारी, ज़िद और स्वाभिमान तब भी कम नहीं होता। उसे टूट-टूटकर मरना पसंद है, पर बहुत से दुनियादार लेखकों की तरह दूसरों की शर्त पर जीना और सफल होना नहीं।

‘एक और मोचीराम’ मेरी लंबी कहानियों में शायद सबसे अलग है, जिसमें मोचीराम का चरित्र खासा दिलचस्प भी है, ज़िन्दगी और जिंदादिली से लबरेज भी। इस कहानी के बारे में सिर्फ़ इतना कहना है कि जिस मोचीराम की यह कहानी है, उसकी भीतरी-बाहरी शक्लें मैंने बहुत करीब से देखी हैं। वह सिर्फ़ एक जूते ठीक करने वाला इनसान नहीं था, सच में एक कलाकार था, अभिनेता भी। इस कहानी में वह थोड़ा-थोड़ा उभरा है।

यों ‘एक और मोचीराम’ सिर्फ़ लंबी कहानी ही नहीं है, बल्कि उसमें एक सुर है, भीमसेन जोशी जैसा शास्त्रीय संगीत का एक अलग-सा और गहरा-गहरा-सा सुर, जिसके आरोह-अवरोह और आलोपों में कहीं न कहीं मेरी अपनी ज़िन्दगी और परिवेश की कशमकश भी जुड़ गई है। लिहाज़ ा इस कहानी में भी स्वभावतः मेरी आत्मकथा के पन्ने बिखरे हुए नज़र आ सकते हैं।

अंत में इधर लिखी गई अपनी ताज़ा कहानी ‘भटकती ज़िन्दगी का नाटक’ की चर्चा करने का मन है। मेरे बहुत प्रिय कवि विष्णु खरे जब हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष बने, तो उन्होंने ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ का कहानी विशेषांक निकालने की योजना बनाई। इस विशेषांक के लिए उन्होंने आग्रहपूर्वक कहानी माँगी तो मैंने उन्हें बताया कि “मेरे पास अधलिखी कुछ कहानियाँ हैं। उनमें से एक कहानी मैं जल्दी ही पूरी करके भेजता हूँ।”

विष्णु जी का आग्रह, “प्रकाश जी, कहानी आज ही चाहिए।”

उनके आग्रह की अवहेलना भला मैं कैसे कर सकता था? लिहाज़ ा सुबह से लेकर रात कोई बारह बजे तक इस कहानी से जूझता रहा। तब कहीं यह पूरी हुई। रात में ही मैंने विष्णु जी को कहानी भेजी और आश्चर्य, रात में ही उन्होने इसे पढ़ भी लिया और सुबह पाँच बजे मैं उठा तो देखा, मोबाइल में उनका संदेश था। कहानी उन्हें बेहद पसंद आई थी और बड़ी प्रमुखता से उन्होंने इसे ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ में छापा।

तब से दर्जनों फ़ोन इस इस पर प्रशंसा के आ चुके हैं और इनमें नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से निकले तीन नाट्यकर्मी भी हैं। थोड़े-थोड़े अंतराल बाद उनके फ़ोन आए और तीनों ने ही इस कहानी के नाट्य रूपांतरण की अनुमति देने की गुज़ारिश की। वे इसे रंगमंच पर लाने के लिए उत्सुक थे।

मेरे जीवन का यह पहला और विलक्षण अनुभव था कि किसी एक कहानी की नाट्य संभावनाएँ इतने संभावनाशील रंगकर्मियों को लगभग एक साथ ही नज़र आई। मेरी कई कहानियों में खासा नाटकीय तत्व है, यह तो मैं जानता था, पर वे रंगकर्मियों को भी इस क़दर मोह लेंगी, मैंने सोचा न था।

मैं नहीं जानता कि यह अच्छा और वरेण्य है या नहीं, पर इधर मेरी कहानियों में आत्मकथा के हरफ ज़्यादा से ज़्यादा उतरते गए हैं। इसकी वजह क्या है, यह ख़ुद मेरे लिए एक पहली से कम नहीं है। हालाँकि देश भर में फैले मेरे पाठकों ने इसे पसंद किया और इन कहानियों के साथ एक गहरा नाता और जुड़ाव महसूस किया, यह स्वयं मेरे लिए कम सुकून और तसल्ली की बात नहीं है। पाठकों की अपरंपार स्नेहमय चिट्ठियाँ और फोन-वार्ताएँ मेरे लिए कितने बड़े सुख का खजाना हैं, मैं बता नहीं सकता। कई बार लगता है, मेरे पास यह ऐसी अकूत दौलत है, जिसका मुकाबला किसी से नहीं हो सकता। बड़े से बड़े अमीरों की अमीरी और राजे-महाराजाओं के सिंहासन भी इसके आगे पोच हैं।

और तभी लगता है, मैं एक फक्कड़ लेखक सही, पर ऐसा फक्कड़ बादशाह हूँ, जिससे बड़ी बादशाहत इस दुनिया में कोई और नहीं।

देश में दूर-दूर तक फैले असंख्य पाठकों का यह अकूत स्नेह-सम्मान मैंने अपने रचे साहित्य के जरिए पाया, खासकर कहानियों और उपन्यासों के जरिए, यह उपलब्धि कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। अपने बड़े से बड़े दुख और मुश्किलें तब मुझे हलके जान पड़ते हैं। लगता है, इन दुखों का हार पहनकर जीना भी कम गौरव की बात नहीं। आख़िर यही तो एक सच्चे लेखक की विभूति हैं। एक शाश्वत, कालजयी और अपार्थिव विभूति...!! और मेरे साहित्य का तो उत्स ही यही है।

क्या मैं बताऊँ कि ऐसे क्षण ही मेरे जीवन के सबसे बेशकीमती, यादगार और भावुक कर देने वाले पल-छिन हैं, जब मन में यह अहसास उपजता है कि शायद थोड़ा-सा तो मैं अपनी इस यात्रा में सफल हुआ और तब अनायास ही, अपने अंतर्मन में बैठे देवता के लिए हाथ जुड़ जाते हैं। ये मेरे जीवन के ऐसे आनंद के क्षण हैं, जब आँखें भीगती हैं और आप निःशब्द रह जाते हैं। इसलिए कि आख़िर तो कोई भी कहानी, कहानी से पहले ज़िन्दगी का एक टुकड़ा है...एक धड़कता हुआ टुकड़ा, जो अपने आप में मुकम्मल भी है।

सच पूछिए तो जीवन के बहुत से कोमल-कठिन अनुभवों और यातनाओं की गवाह बनी ये कहानियाँ मुझे जीने के मानी भी देती हैं। शायद इसीलिए उपन्यास, कविता, लेख, संस्मरण जैसी विधाओं में बहुत लिखने के बावजूद कहानियों से मेरा कुछ अलग रिश्ता है, जो कई बार संजीदा कर देता है। हो सकता है, इन कहानियों में कहीं न कहीं मेरा कवि, उपन्यासकार और संस्मरणकार भी छिपा हो, जो विधाओं की शुद्धता का कायल न होकर उनकी ताज़गी और जिंदादिली में रस लेता हो!

अलबत्ता मेरी कोई चालीस बरस लंबी कथा-यात्रा में स्वभावतः लिखी गई इन कहानियों में मेरी कुछ गहरे सुर और लय-ताल वाली लंबी कहानियाँ भी शामिल हैं, जिनमें कहीं न कहीं मैं अपनी आत्मा का संगीत पाता हूँ।...इनमें से एक-एक कहानी को लिखने में महीनों नहीं, कभी-कभी तो बरसों तक भटकना पड़ा। तब लगा कि हाँ, अब कुछ बना-सा है।

एक गहरी अंतःपुकार के साथ लिखी गई लंबी कहानियों को, जिन्हें आजकल ‘लघु उपन्यास’ कहने का चलन है, मैंने कहानी कहना ही पसंद किया। हालाँकि मेरी लंबी कहानियाँ सिर्फ़ आकार में ही बड़ी नहीं हैं, बल्कि इनमें कुछ ऐसी कसक और पीड़ा है जो मन में देर तक और दूर तक बहती है। दर्जनों बार इन्हें लिखना और काटना-छाँटना पड़ा, एक गहरी असंतुष्टि और व्याकुलता के साथ। ताकि इन कहानियों के अनुभव क्षणों में भीतर आत्मा की जो कुरलाहट थी, वह ठीक-ठीक उसी लय और अंदाज़ में शब्दों में उतर आए। इन्हें लिखने के बाद के तृप्ति-क्षणों में मुझे हमेशा लगा कि ये केवल लंबी कहानियाँ ही नहीं, कुछ अपेक्षाकृत गहरे सुर-ताल की कहानियाँ हैं, जो पढ़ते समय भीतर आत्मा को रोशन करती हैं और देर तक उनकी गूँज हमारा पीछा करती है। मैंने इन कहानियों के लेखक और पहले पाठक होने का सुख लिया है और बता नहीं सकता कि हर बार इनके निकट आना मुझे कैसे अचीन्हे शिखरों की ओर ले जाता रहा है।

ये वे कहानियाँ हैं, जिनकी सतरों के बीच की खाली जगहों में मेरे जीवन की कही-अनकही वह मर्मकथा भी समाई है, जो शायद सीधे-सीधे कही ही नहीं जा सकती थी।

आज ये सतरें लिखते समय मुझे बेहद याद आ रहे हैं अपने कथागुरु सत्यार्थी जी, जिन्होंने पहलेपहल मेरी कहानियों को सुनकर दीवानगी की हद तक उनकी प्रशंसा की थी। मेरे भीतर अपनी कहानियों को लेकर आत्मविश्वास जगाने का काम सबसे पहले सत्यार्थी जी ने ही किया था और बिना कुछ कहे, मुझे किस्सागोई के उस तार से जोड़ दिया था, जिससे मेरे तीनों बहुचर्चित उपन्यास ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा-सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ तो सिरजे ही गए, एक के बाद एक कहानियों का अनंत सिलसिला भी चल निकला।

सत्यार्थी जी उन्हें सुनते तो आनंदित होते और मीठे शब्दों की ऐसी थपकियाँ देते, जिससे भीतर की सारी टूटन, व्यग्रता और थकान काफूर हो जाती और मैं एक अलग ही दुनिया में पहुँच जाता, जहाँ कहानियों की बारिश में भीगने का एक विरल और कुछ-कुछ अलौकिक-सा अहसास मुझे हुआ।

अपने मित्र और वरिष्ठ कथाकारों डा. माहेश्वर, श्रवणकुमार और वल्लभ सिद्धार्थ, की भी इस समय बहद याद आ रही है, जिन्होंने मुझे और मेरे भीतर बैठे कथाकार को अपने अनन्य प्रेम से नहलाया। इनमें वल्लभ जी के विलक्षण उत्साह भरे फ़ोन तो अब भी आ जाते हैं। डा. माहेश्वर और श्रवणकुमार अब नहीं रहे। पर मेरे भीतर तो वे अब भी उसी जीवंतता और जिंदादिली के साथ मौजूद हैं। हिंदुस्तान टाइम्स में उनके साथ हुई अनवरत मुलाकातें याद आती हैं, तो मन भीगता है। जब हम तीनों होते तो कहानियों, कहानियों और बस कहानियों की बारिश होती और हमारे शब्दों की दीवानगी हवाओं पर भी तारी होने लगती।

वे अजब कशिश भरे दिन थे, जब बहुत कहानियाँ लिखी गईं और लिखूँ या न लिखूँ, हर वक़्त कहानियों की एक दुनिया मेरे साथ चलती थी। मेरे अंदर-बाहर उसी का पसारा था, बल्कि हर पल वह मेरे साथ-साथ साँस लेती थी।

बहुत से जाने-अनजाने पाठकों ने फ़ोन पर या चिट्ठियों के जरिए गहरी तन्मयता के साथ मेरी इन लंबी और कुछ अलग लय-सुर में लिखी गई कहानियों की बड़ी शिद्दत से चर्चा और तारीफ की। पाठकों के ऐसे दीवानगी भरे फ़ोन अब भी आ जाते हैं और मेरा वह दिन कुछ अलग-सा हो जाता है। उनके शब्दों का आवेग मन को रोमांच से भर जाता है। इनमें से एक उम्रदराज पाठक, जो पिछले चालीस बरसों से बड़ी उत्कटता से कहानियों को जी रहे थे—ने मेरी एक लंबी कहानी ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ की चर्चा करते हुए, गुलेरी जी की ‘उसने कहा था’ कहानी से उसकी तुलना की और उसे हिन्दी की कुछ महानतम कहानियों में शुमार किया तो कुछ देर के लिए मैं अवाक-सा रह गया।

बरसों तक उनके फ़ोन आते रहे और हर बार वे कुछ नए अंदाज़ में, मगर उसी शिद्दत से मेरी कहानी ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ की चर्चा करते रहे। उनका कहना था कि “मनु जी, आपकी कहानी ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ पढ़ने के बाद इधर पढ़ी हुई तमाम कहानियों मुझे बहुत फीकी और बेजान लगती हैं। बार-बार ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ उनके आगे आकर खड़ी हो जाती है। कोई महान कहानी तो ऐसी ही होती है। उससे मन को इतनी तृप्ति मिल जाती है कि बहुत अरसे तक फिर कुछ और पढ़ने का मन ही नहीं करता।

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