महाराणा प्रताप (उपन्यास) : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

Maharana Pratap (Hindi Novel) : Suryakant Tripathi Nirala

प्रथम परिच्छेद : राज-सिंहासन

मुसलमानों के शासनकाल में जिन वीरों ने अपने सर्वस्व का बलिदान करके अपनी जाति, धर्म, देश और स्वतन्त्रता की रक्षा की, उनमें अधिक संख्या राजपूत 'वीरों की ही देख पड़ती है, जैसे मुसलमानों की दुर्दम शक्ति का प्रतिरोध करने के लिए ही उन वीर राजपूतों की शक्ति रेखा विधाता ने खींची हो। देव के काल्पनिक क्रम के भीतर जितनी मात्रा में बहिजंगत को सत्य का प्रकाश मिलता है, उतनी ही मात्रा में आध्यात्मिक गौरव की उज्ज्वलता भी प्रस्फुटित होकर हमारी मानस-दृष्टि को आश्चर्यचकित और स्तब्ध कर देती है । स्वतन्त्रता की सिंहवाहिनी के इंगित मात्र से देश के बचे हुए राजपूत कुल-तिलक वीरों की आत्माहुति, जलती हुई चिताग्नि में अगणित राजपूत कुल-ललनाओं द्वारा उज्ज्वल सतीत्व रत्न की रक्षा तथा लगातार कई शताब्दियों तक ऐसे ही रक्तोष्ण शौर्य के प्रात्यहिक उदाहरण, इन सजीवमूर्ति सत्य घटनाओं के अनुशीलन से वर्तमान काल की शिरश्चरण विहीन, जल्पना मूर्तियाँ भारत के अशान्त आकाश में तत्काल विलीन हो जाती हैं और उस जगह वह चिरन्तन सत्यमूर्ति ही आकर प्रतिष्ठित होती है। तब हमें मालूम हो जाता है कि जातीय जीवन में साँस किस जगह चल रही है। वास्तव में उन वीरों के अमर आदर्श की जड़ भारतीय आत्माओं के इतने गहन प्रदेश तक पहुँची हुई है कि वहाँ उस जातीय वृक्ष को उन्मूलित कर, इच्छानुसार किसी दूसरे पौधे की जड़ जमाना बिलकुल असम्भव, अदूर-दर्शिता की ही परिचायक कहलाती है।

हम जिस समय का इतिहास लिख रहे हैं, उस समय भारत के सम्राट् " दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा' मुगल बादशाह अकबर थे। इनके पहले दिल्ली के सिंहासन पर जितने मुसलमान सम्राट् बैठे थे, उनकी नीति हिन्दुओं के प्रति खासकर वीर राजपूतों के प्रति मुसलमान स्वभाव के अनु कूल, प्रत्यक्ष विरोध करनेवाली थी, परन्तु सूक्ष्मदर्शी अकबर ने उस नीति को ग्रहण नहीं किया। साम्राज्य विस्तार की लालसा अकबर में उन लोगों की अपेक्षा बहुत बढ़ी चढ़ी थी, परन्तु ये उन लोगों की तरह दुश्मन को दबाकर न मारते थे, इनकी नीति थी मिलाकर शत्रु को अपने वशीभूत करना । इस नीति के बल पर इनको सफलता भी खूब मिली। प्रायः सम्पूर्ण राजपूताना इनके अधीन हो गया उस समय जिस वीर महापुरुष ने अकबर का सामना किया, हिन्दुओं की कीर्ति-पताका मुगलों के हाथ नहीं जाने दी, आज हम उसी लोकोज्ज्वल-चरित्र महावीर महाराणा प्रतापसिंह की कीर्ति गाथा अपने पाठकों को भेंट करते हैं ।

उस समय भारतवर्ष में जितने माननीय क्षत्रियवंश थे, उनमें 'सिसोदिया वंश' विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, आज भी इस वंश की इज्जत वैसी ही की जाती है। इस वंश में किसी प्रकार से कलंक की कालिमा नहीं लग पायी। मुसलमानों के छाया स्पर्श से भी इस वंशवालों को घृणा थी और वे अन्त तक दूध के धोये ही बने रहे।

महाराणा प्रतापसिंह के पिता उदयसिंह अपनी छोटी रानी को और-और रानियों से ज्यादा प्यार करते थे। इसका फल यह हुआ कि उन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मृत्यु के समय उदयसिंह ने उन्हीं के लड़के को राजगद्दी दी उनका नाम जगमल था उदयसिंह का यह कार्य नीति के खिलाफ हुआ। क्योंकि राजगद्दी के हकदार प्रतापसिंह थे ये जगमल से बड़े थे। उदयसिंह के इस कार्य की प्रजाजनों में बड़ी समालोचना हो चली और भीतर-ही भीतर वे लोग इस अनीति की निन्दा करने लगे। वास्तव में प्रेम के वशीभूत होकर दायित्वपूर्ण उत्तराधिकार-क्रम पर महाराणा उदयसिंह का इस तरह स्वेच्छाचार करना, राज-पद्धति के बिलकुल विपरीत हुआ था।

यह जहर फैलता गया धार्मिक विचारों से तो राज्य के अधिकारी प्रतापसिंह ठहरते ही थे, इसके अलावा प्रजाजनों का प्रेम भी उनके ऊपर बहुत ही गहरा था। प्रतापसिंह का दिल लुभा लेनेवाला अकृत्रिम बर्ताव, प्रजाजनों को समदृष्टि से देखना, अपने को अपनी प्यारी प्रजा का सेवक समझना, देश और धर्म के नाम पर अपने सर्वस्व का त्याग, इस तरह के और भी अनेक सद्गुण उनमें थे। जगमल के राजगद्दी पाने पर और सभी लोगों को क्लेश हुआ, परन्तु दृढव्रत प्रताप के चेहरे पर शिकन भी न पड़ी। वे पूर्ववत् ही प्रसन्न रहते और जैसे स्नेह की दृष्टि से जगमल को पहले देखते थे, वैसे ही अब भी देखते ।

महाराणा उदयसिंह का कार्य जिन राजपूत सरदारों को खटकता था, उनमें झालवाड़ के महाजन और चन्दावत कृष्णजी प्रमुख थे। प्रताप झाला वाड़ महाराज के भानजे थे। अपने भानजे को अपने प्राप्य अधिकार से वंचित होते देखकर झालावाड़ नरेश से न रहा गया। उन्होंने कृष्णजी के साथ अन्यान्य और सरदारों को एकत्र कर सलाह की और फिर राज्य की प्रजा का रुख देखा । कुमार प्रतापसिंह को उनका उचित अधिकार देने के लिए सब लोग उतावले हो गये और सबने महाराणा उदयसिंह की दुर्बलता की निन्दा की । राज्य के सामन्त सदस्यों और प्रजा समष्टि की राय के अनुसार प्रताप सिंह को गद्दीनशीन करने की तैयारियाँ भीतर-ही-भीतर होने लगीं। जगमल का पक्षपात करनेवाले इने-गिने लोग ही थे।

इधर जिस मुहूर्त से राज्य का शासन भार जगमल के हाथ में आया, उसी मुहूर्त से उसे राजमद का भयंकर नशा हो गया । वह सीधे पैर न रखता था। स्वभाव का उद्दण्ड, राजनीति से अनजान, लोगों के स्वभाव से अपरि चित, लड़ाई के नाम से घबड़ानेवाला महामूर्ख जगमल सभासदों को सन्तुष्ट न कर सकता था । उसके रूखे और अमानुषिक बर्ताव से सब लोग तंग आ गये । उसने भी शासन की बागडोर अपने हाथ में पाते ही अनियन्त्रण का घोड़ा तेजी से बढ़ाया। फल यह हुआ कि अपने सवार को लेकर घोड़ा कुराह चलने लगा, कांटों और झाड़ियों में अड़ने लगा । जगमल की स्वतन्त्रता ने घोर अत्याचार का रूप धारण किया। उससे सभासद सरदार- राजपूतों के दिलों में सख्त चोट लगी । कुछ एक ने तो घबड़ाकर राज्य में ही रहना छोड़ दिया।

राज्य में इस तरह के उपद्रव देखकर स्वदेश के सहृदय भक्त प्रताप से न रहा गया। एक दिन वे जगमल के पास गये और बड़े स्नेहपूर्ण शब्दों में समझाते हुए कहा, "जगमल, ईश्वर की इच्छा से आज तुम विशाल जन-समूह के शासक हो । लाखों मनुष्यों के भाग्य विधाता हो। परन्तु तुम्हें स्मरण रखना चाहिए, अधिकार के माने से नहीं है-कि स्वेच्छाचार किया जाय, निरपराध मनुष्यों से तुम अपनी शक्ति की चाह तो देखो तो सही, तुम्हारे अनेक सभासद राज्य छोड़कर चले जा रहे हैं। क्या अत्याचार करके तुम अपनी प्रजा को सन्तुष्ट करोगे ? तुम्हें अपना स्वभाव बदलना चाहिए। समय बड़ा नाजुक है। अगर तुम नहीं सुधरे तो तुम्हारा और तुम्हारे राज्य का भविष्यफल बड़ा विषमय होगा ।"

प्रताप की संवेदनासूचक उक्तियों से मदान्ध जगमल होश में नहीं आया, बल्कि उसने इसे अपनी राजसी शान के खिलाफ अपमान समझा। कड़ककर उसने कहा, "तुम मेरे बड़े भाई हो सही. परन्तु तुम्हें स्मरण रहे कि तुम्हें मुझे उपदेश देने का अधिकार नहीं है। तुम मेरी आज्ञा के अनुचर हो। मैं नादान नहीं हूँ और न किसी बनिये के घर से उठाकर लाया हुआ, महाराणा उदयसिंह का गोद लिया लड़का ही हूँ। राजा-महाराजाओं के यहाँ का बर्ताव, उनके कार्य मुझे न सिखलाओ, पिताजी ने कुछ समझकर ही मुझे राजगद्दी दी है।

प्रताप - "जगमल ।"

जगमल - "प्रताप, तुम महाराणा की शान के खिलाफ पेश आये हो । तुम्हें मैं इसका यथोचित दण्ड दूँगा। तुम आज ही मेरे राज्य की सीमा से बाहर हो जाने का प्रबन्ध करो। "

एक प्रकार के सम्मान के ज्ञान ने प्रताप की आँखों को बरबस झुका दिया । वे चुपचाप वहाँ से चल दिये। उस समय इधर-उधर से कुछ नौकर प्रताप और जगमल की बातों को कान लगाये सुन रहे थे। जगमल की कठोर दण्डाज्ञा को सुनकर सब चौंक उठे। यह सबको बुरा लगा। वे आपस में जगमल की नीचता की समालोचना करने लगे। धीरे-धीरे फैलती हुई बात सरदारों के कानों तक पहुँची। उधर प्रताप ने किसी दूसरे से कुछ भी न कहा जैसे कुछ हुआ ही न हो परन्तु उनकी मुखाकृति उत्तरोसर गम्भीर होती गयी, जैसे प्रभात के सूर्य-रश्मि पर मेघों की छाया आ पड़ी हो। प्रताप अपने

अश्वागार में गये और घोड़े को कसने की आज्ञा दी। इधर सरदारों को जगमल की निष्ठुर आज्ञा का हाल मालूम होते ही सबके सब प्रताप को खोजने लगे। प्रताप नगर को पारकर कुछ दूर चले गये थे। उस एकान्त स्थान में चन्दावत कृष्ण ने प्रताप को पीछे से पुकारा, प्रताप ने भी घोड़े को रोक लिया। बहुत समझाने पर चन्दायत कृष्ण के साथ वे लौटे।

प्रायः सभी सरदार जगमल से नाराज थे, प्रताप के लौटने पर चन्दावत कृष्ण ने जगमल की नीचता का प्रमाण पेश करते हुए उसे राज्य संचालन करने के अयोग्य ठहरा, गद्दी से उतार उस पवित्र सिंहासन पर सिसोदिया कुल-सूर्य, पावन चरित्र महाराणा प्रतापसिंह को बैठाया और उनकी अधीनता में रहकर राज्य का संचालन और अपनी जाति, धर्म और देश की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की। सब सरदारों ने एक स्वर से महाराणा प्रतापसिंह की जय घोषणा की। महाराणा प्रतापसिंह के शासन-भार ग्रहण करने का संवाद पा राज्य की समस्त प्रजा को हर्ष हुआ। सब लोग अपने नवीन महाराणा को अनेक प्रकार की भेंट देते हुए अपने हृदय की निश्चल सेवा की सूचना देने लगे। महाराणा प्रताप के राजसिंहासन पर बैठते ही मानों राज्य के शरीर में एक नवीन जीवन का संचार हो गया, चारों ओर सजीव स्फूर्ति का कलरव होने लगा ।

द्वितीय परिच्छेद : शक्तिसिंह

शक्तिसिंह प्रताप के ही छोटे भाई थे। परन्तु शक्तिसिंह और प्रतापसिंह की प्रकृति में जमीन-आसमान का अन्तर था। दोनों एक ही वायुमण्डल में पले और एक ही पिता के पुत्र थे, फिर भी अलक्ष्य अदृष्ट की माया से दोनों स्वभाव में एक-दूसरे के बिलकुल विपरीत थे। प्रताप की उदार और गम्भीर प्रकृति पाठकों को मालूम हो ही चुकी है। शक्तिसिंह उद्दण्ड, हठी, खूनी स्वभाव के मनुष्य थे । प्रतिहिंसा का सजीव पुतला इन्हें कहिए तो अति शयोक्ति न होगी। इनमें दोष जो था वह यही था, अन्यथा वीर वे प्रताप की ही तरह थे। भय किस चिड़िया का नाम है, यह वे न जानते थे। कठिन-से कठिन संकट में भी उन्हें कभी घबराहट नहीं हुई ।

जब ये भूमिष्ठ हुए तब इनकी जन्मकुण्डली तैयार करनेवाले पण्डित ने इनके स्वभाव में एक बहुत बड़ा दोष बतलाया। कहा कि इनमें स्वजन-घात आ लगा है। कभी-न-कभी सगे-सम्बन्धियों से इनका बैर होगा और उस शत्रुता का परिणाम इनके कारण बड़ा भयानक होगा। ये उसके पीछे अपने धर्म को, जाति और अपने देश को भी भूल जायेंगे।

पण्डित की यह उक्ति सुनकर महाराणा उदयसिंह और उनके सभा सद बहुत घबराये बालक के भविष्य का हाल सुनकर सब मनमानी तरह-तरह की कल्पनाएँ करने लगे। लोगों ने यह निश्चय किया कि इस समय हम राजपूतों से मुसलमानों की जैसी चल रही है और दूसरे-दूसरे कुलांगार राजपूत जिस तरह अपने धर्म और स्वदेश-प्रेम से सम्बन्ध तोड़ अपनी बेटियों की भेंट लेकर मुसलमानों से मिल रहे हैं, अपने देश का सत्यानाश करते हुए जरा भी संकोच नहीं करते, अपने स्वाधीन राजाओं से लड़कर मुसलमानों के गुलाम बना रहे हैं, अपनी-सी हालत सबकी कर देने पर तुले हुए हैं, यह सब देखते हुए जान पड़ता है कि पीड़ित मेवाड़ के साथ यह शक्तिसिंह भी वैसा ही बर्ताव करेगा। यह सोचकर सरदार राजपूत बहुत घबराये । अभी तक सैकड़ों बार भीषण कष्ट झेलकर भी मेवाड़ की कीर्तिपताका भू-लुण्ठित नहीं हुई थी। चित्तौड़ का ध्वंस हो चुकने पर भी विजयलक्ष्मी वीर राजपूतों के हो हाथों में रही थी। सैकड़ों वर्षों से लगातार युद्ध करते हुए भी राज पूतों की बाँहें कमजोर न पड़ी थीं। वे शत्रु से न घबराते थे, पर घर की फूट से उन्हें बड़ा भय था, कारण कि वे धोखा देना न जानते थे, इसलिए धोखा खाना भी उन्हें प्रकृति के खिलाफ जंच रहा था ।

उन दिनों भारत शस्त्र- कानून का शिकार न हुआ था। उस पराधीन हालत में भी लोग तलवार, भाला, बरछी आदि तेज हथियार बड़ी शान से बाँधते थे। लोगों को सैनिक शिक्षा भी काफी दी जाती थी। पटेबाजी और तलवार-भालों की मार हरएक को सिखलायी जाती थी। क्षत्रिय तो कभी बचते ही न थे, बल्कि अपनी बहू-बेटियों और अपनी प्यारी जन्मभूमि की रक्षा के लिए ब्राह्मणों ने भी वेद-पाठ और शास्त्राध्ययन को छोड़कर तलवार ग्रहण करना उचित और अपना परम धर्म समझा था। उस संघर्षकाल में, जबकि मुगल राज्य के शासित प्रदेशवाले ब्राह्मण भी अस्त्र-शिक्षा अपना धर्म मानते थे, जो बीर चिरकाल से अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करते आ रहे थे, उन राजपूत क्षत्रियों की शस्त्र-शिक्षा के सम्बन्ध में तो अधिक लिखना ही व्यर्थ है । वे बाल्यकाल से सब प्रकार के शस्त्रों का प्रयोग सीखते थे। बालक गोरा अपनी अद्भुत सूरता के लिए इतिहास में प्रसिद्ध ही है। अस्‍त्र-शिक्षा, स्वजातीय- कौशल, बचपन से ही प्रताप और शक्तिसिंह को सिखलाया गया था।

जब शक्तिसिंह की उम्र पाँच साल की थी, उस समय एक नयी घटना हुई, जिसे देखकर उदयसिंह और उनके दरबार के सामन्त सरदार काँप गये । बात यह थी कि उस समय एक नयी तलवार बनवायी गयी । तलवार विशेष आज्ञाक्रम के अनुसार बनी थी। यानी बाजारों में बिकनेवाली उन दिनों की तलवारों से उसमें विशेषता थी। जब वह बन गयी, तब उसकी धार की 1 मामूली परीक्षा करने की बातचीत होने लगी। किसी ने कहा- सूत का लच्छा काटकर धार की परीक्षा ली जाय किसी ने कहा- नहीं, एक बड़ी-सी मछली रस्सी से बाँधकर लटका दी जाय और तब परीक्षा हो कि तलवार के एक ही वार से मछली कटती है या नहीं। किसी ने कहा- नहीं, गैंडे के पुट्ठे पर वार करके देखा जाय। किसी ने कहा- यह भी ठीक नहीं, लोहे का सींखचा काटकर देखिए। वीरों में परस्पर जब इस तरह की कल्पनाएँ लड़ रही थीं, उस समय महाराणा उदयसिंह की बगल में पाँच वर्ष का बालक शक्तिसिंह भी खड़ा यह कौतुक देख रहा था। उसकी नसों में उत्तेजित रक्त धारा बह चली। बालक की मुखाकृति गुस्से से बदल गयी। आवेश में आकर उसने कहा-सूत के लच्छे आदि काटने की क्या जरूरत है? यह देखो- तलवार की अभी मैं परीक्षा करता हूँ। इतना कहकर उसने तलवार उठा ली और अपनी एक अंगुली पर एक ऐसा निर्मम वार किया कि अंगुली कट गयी, उससे खून का फौव्वारा छूटने लगा । लोगों ने देखा कि इतने कष्ट में भी बालक शक्तिसिंह के मुख पर कष्ट के भाव की झलक न आयी । औरों की तरह वह भी चुपचाप अपनी अंगुली से बहते हुए खून की ओर एक दृष्टि से देख रहा था। महाराणा उदयसिंह तो स्तब्ध रह गये, जैसे काठ मार गया। और लोग भी देखकर दंग रह गये। बच्चे की जन्मकुण्डली की बात प्रत्यक्ष चित्र की तरह लोगों के सामने आ गयी । यद्यपि शक्तिसिंह का यह कार्य उसकी वीरता का द्योतक था, तथापि प्रसन्नता के बदले, भविष्य के किसी कठोर कार्य का स्मरण करके उनके मुखमण्डल मलिन पड़ गये । महाराणा उदयसिंह ने बालक के वध की आज्ञा दी। राजाज्ञा की प्रतिकूलता अथवा शक्तिसिंह को बचाने के लिए कुछ कहने की किसी की हिम्मत न पड़ी। सब लोग चित्र की तरह खड़े देखते रहे। जब घातक शक्तिसिंह को वध भूमि की ओर ले चलने पर तैयार हुआ, तब सालुम्बा सरदार के हृदय में शक्तिसिंह को देखकर दया आ गयी। उन्होंने हाथ जोड़कर महाराणा से प्रार्थना की-"महाराज, बालक निर्दोष है। परन्तु मैं महाराज की आज्ञा की प्रतिकूलता नहीं करना चाहता केवल एक प्रार्थना है, महाराज उसे पूरा करें। अब तक महाराजा की छत्र-छाया में रहकर अनेक प्रकार के सुखोपभोग मैंने किये हैं मेरी कोई भी इच्छा महाराज की कृपा से अपूर्ण नहीं रही, आज एक और अभिलाषा हृदय में उठ रही महाराज उसे भी पूरा करें ।"

उदयसिंह कुछ देर तक एक दृष्टि से सालुम्ब्राधिपति को देखते रहे, उस करुण मुहूर्त में सालुम्बाधिप जैसे उनके प्रिय पात्र किस अभिलाषा की पूर्ति के लिए प्रार्थना कर रहे हैं, यह उनकी समझ में न आया। स्नेहपूर्ण शब्दों में उन्होंने कहा, "सालुम्बाधिप, इतनी उलझनदार प्रार्थना किस कोटि की होगी यह सोचकर भी न समझ पाया, आप खुलकर कहें, आप जैसे राज्य के शरो मणि सरदार की प्रार्थना अवश्य ही पूरी की जायेगी।"

उदयसिंह को इस प्रकार वचनबद्ध होते हुए देखकर सालुम्बाधिप को पूर्ण विश्वास हो गया प्रार्थना की जो रुकावटें थीं वे भी न रहीं। उन्होंने विनीत शब्दों में कहा, "महाराज, आपकी कृपा से मुझे सब प्रकार का सुख और सब प्रकार की सम्पत्तियाँ प्राप्त हैं। धन, जन, बल, वैभव, प्रभुता सब मुझे मिल चुकी है, कमी केवल एक बात की थी, जिसकी पूर्ति अब

ईश्वर की इच्छा पर ही थी, परन्तु आज महाराजा स्वयं ईश्वर के आसन से मेरी उस अपूर्णता को पूर्ण कर रहे हैं। मैं सविनय निवेदन करता हूँ कि दुर्भाग्यवश मेरे कोई सन्तान नहीं है। आज जिस राजकुमार शक्तिसिंह को प्राणदण्ड की आज्ञा दी गयी है, उसे ही मुझे पुत्र के रूप में महाराज दान देने की कृपा करें। चन्द्रावत गोल का दीपक गुल हो रहा है, इस बालक के द्वारा महाराज उसकी ज्योति बढ़ावें, मैं इसे ग्रहण कर पूर्वजों की पिण्डोदक-क्रिया की रक्षा करूँगा।"

उदयसिंह सालुम्बाधिप की प्रार्थना का अनुमान भी नहीं कर सके थे उनके शब्दों को सुनते ही इनके हृदय को बड़ा क्षोभ हुआ। जिस काँटे को राजपूतों के सिसोदिया वंश-वृक्ष से निकाल देने के लिए उन्होंने अपनी राज सत्ता का सबसे बलवान प्रयोग किया था, वह काँटा रह ही गया। क्षत्रियों का सर्वस्व चाहे नष्ट-भ्रष्ट हो जाय परन्तु वे अपने अमूल्य शब्दों की अवश्य रक्षा करते हैं। यह धार्मिक विचार महाराज की राजशक्ति का विरोध कर हृदय में प्रबल भावी विपद् की सूचना देने लगा। महाराज सहम गये। परन्तु लाचार थे, तत्काल उन्होंने दण्डाज्ञा वापस ली, शक्तिसिंह के प्राणों की रक्षा हुई। उन्हें सालुम्बाधिप अपने यहाँ ले गये और धर्मपुत्र की तरह उनका पालन-पोषण बड़े आदर यत्न से करने लगे ।

विधाता की प्रगति का निर्णय करना बड़ा हो कठिन है। उसी की इच्छा से वृद्ध सालुम्बाधिप के एक पुत्र हुआ। जब से इस बालक का जन्म हुआ तब से ये एक विशेष चिन्ता में पड़ गये। इनकी सम्पत्ति पर धार्मिक दृष्टि से उस सद्यःप्रसूत बालक का ही अधिकार था, उधर शक्तिसिंह को विख्यात महाराणा के वंश से अपने पुत्र के रूप में वे पहले ही ले चुके थे, यदि पुत्र को सम्पत्ति का अधिकारी बनाया जाय तो शक्तिसिंह को साधारण-सी सम्पत्ति का कितना अंश देना उचित होगा, उतने में शक्तिसिंह को सन्तोष होगा या नहीं, इस तरह की भावना में उनकी मानसिक परिस्थिति चंचल रहा करती थी। दूरदर्शी प्रतापसिंह को भी सालुम्बाधिप के मानसिक विक्षेप का कारण मालूम हो गया, शक्तिसिंह के सम्बन्ध में उनके जन्मपत्रिका काल में जो कुछ कहा गया था, उसे भी जानते थे, परन्तु इस स्थल में उन्होंने शक्तिसिंह के गृह-विरोध की चिन्ता नहीं की, सालुम्‍ब्राधिप के मन की चंचलता को दूर करने के लिए उन्होंने शक्तिसिंह को अपने पास बुला लिया। दोनों भाई आनन्दपूर्वक एक ही महल में रहने लगे।

तृतीय परिच्छेद : बन्धु-विवाद

देखते-ही-देखते विजयादशमी आ गयी, उसी दिन भगवान् रामचन्द्र की शक्ति की साधना सफल हुई थी। उस दिन भारतवर्ष के प्रत्येक शहर, नगर और प्रत्येक ग्राम में पूर्ण उपचारों से महोत्सव की रचना की जाती है। हिन्दुओं के त्योहारों में यह एक प्रधान त्योहार है। भगवान् रामचन्द्र की विजय- तिथि को भारतवासी अपनी विजय तिथि मानते हैं और उसी विचार से उसका स्वागत भी करते हैं। यह साधारण श्रेणी के हिन्दुओं की बात है, राजपूतों की नहीं। राजपूत क्षत्रिय और उनमें भी जिन्हे सूर्यवंशी क्षत्री कह लाने का गर्व है, इस त्योहार को बड़े ठाट से मनाते हैं। अपने प्रचलित उपचारों में वे इसे विजय का ही रूपक कर दिखाते हैं। इस दिन वे अहेरिया खेलते और उस शिकार में अपने भाग्य की विजय परीक्षा करते हैं। आज राजपूताने में भी उसी विजय की प्रभाती स्वर्ण-किरण फैली हुई है, आज बाहरी प्रकृति के स्वागत-सौन्दर्य में राजपूत वीरों के हृदय में एक प्रकार की नवीन स्फूर्ति, नवीन संजीवनी-शक्ति का संचार हो रहा है। दूर तक फैली हुई हरियाली, उससे सप्रेम लिपटी हुई किरणें, सुविस्तृत प्रान्त का गगन चुम्बन, सरोवर और क्षुद्र नदियों की हलकी हिलोरें, राजप्रासादों की दिव्य सजधज और सबसे पहले राजपूत बालकों की चहल-पहल देखने ही लायक हो रही है। कहीं वीरों के स्फीत वक्ष से गवं सूचित हो रहा है, कहीं शिकार के लिए शूरों की क्षिप्रता, उतावलापन, कोषस्थ असि की झनकार, कहीं बालकों का सदलवल आह्लाद, कहीं नारियों का सानन्द-श्रृंगार।

उदयपुर के आनन्द महासागर में जैसे चारों ओर से आनन्द के स्रोत आकर सम्मिलित हो रहे हों। राजपुरी में सहस्र- सहस्र वीर राजपूत एकत्र हो हार्दिक हर्ष सूचित कर रहे हैं। एक-दूसरे का सप्रेम आलिंगन कर रहे हैं। अहेरिया के लिए प्रत्येक के मुख पर उत्सुकता झलक रही है। उनकी साज सज्जा भी उनके जातीय गर्व और वीरता की व्यंजना कर रही है। उनकी प्रसन्नता, उनकी स्वतन्त्रता और आत्मबल के भावों को प्रोत्साहित करती, उन्हें मूर्तिमान हर्ष बना रही है।

कुछ ब्राह्मण जल से पूर्ण विस्तीर्ण स्वच्छ सरोवर में स्नान कर सूर्यदेव को अंजलि दे शिवालय के द्वार पर वन्दनाएँ कर रहे हैं। उधर क्षत्रिय मृगया के लब्ध पशु से देवी को बलि-प्रदान कर सन्तुष्ट करने का संकल्प कर रहे हैं। कुछ लोग मित्रों के साथ इधर-उधर टहलते हुए राजपूतों के गत गौरव की कीर्ति-गाथा स्मरण कर रहे हैं। कोई बप्पारावल की वीरता और उनकी गजनी - विजय का प्रसंग छेड़े हुए हैं। कोई महाराणा समरसिंह की क्षत्रिय रूप में परशुरामत्व की कथा उठाये। हुए है। कोई कह रहा है कि यदि संग्रामसिंह के साथ सम्पूर्ण राजपूत जाति सहयोग देती तो गुलाम बादशाहों के बाद दिल्ली के सिंहासन पर मुगलों की जगह राजपूत ही दृष्टिगोचर होते। कोई कह रहा है कि "भाई, हम लोगों पर बड़ी-बड़ी आपत्तियाँ आयीं, ईश्वर की क्या इच्छा है, कुछ समझ में नहीं आता। देखो, नीच मुसलमानों ने हमारी सती-नारियों पर भी दृष्टि डाली। अहा ! पद्मिनी ! वह सती- शिरोमणि; सौन्दर्य की देवी, अन्त तक अपने उज्ज्वल सतीत्व के साथ चिता की राख हो गयी, और उसके साथ कितने वीर! ओह ! कितनी नारियां ! स्मरण आता है तो नसों में बिजली दौड़ जाती है, कितना बड़ा महाप्रलय हुआ था चित्तौड़ में ! भाई ! मुसलमानों ने हमारी स्वतन्त्रता छीनने का ही इरादा नहीं किया, उन लोगों ने हमारी सती कुलवधुओं पर भी दृष्टि डाली है। शिव ! शिव ! हम राजपूत ही इसका बदला चुकायेंगे, हमी अपना घाटा पूरा करेंगे।" कोई कहता, "भाई, आज भी हमारा दुश्मन भारत के सम्राट् पद पर बैठा राज्य कर रहा है। अकबर ! चित्तोड़ की सुन्दरता के अन्तिम शत्रु राजपूत चाप लूसों की सहायता लेकर तुमने हमारा सर्वस्व छीन लिया। परन्तु याद रखना, राजपूत सर्प से भी अधिक जहरीला काल से भी अधिक क्रूर और प्रलय से भी जीवण भयंकर है। राजपूत जाति तुम्हें सुख की नींद न सोने देगी। अहा ! सहस्र- सहस्र वीर समर की ज्वाला में भस्म हो गये। माता देवी !"

महाराणा के आगमन का स्वागत-वाद्य बजने लगा। लोग सजग होकर महाराणा के आने की बाट जोहने लगे। कतार बाँधकर सलामी देने के लिए सुसज्जित राजपूत सेना खड़ी हो गयी। महाराणा अपने महल से उतरे। वीरताव्यंजक दिव्य देह से एक अपूर्व नैसर्गिक ज्योति निकल रही है। प्रशस्त ललाट, प्रसन्न शान्त मुख-मण्डल, प्रलम्बबाहु, उन्नत वक्षस्थल, संकीणं कटि, मुख पर दृढ़ता का भाव, आंखों में प्रतिज्ञा, चिबुक में दृढ़ता, कपोलों में प्रसाद । जैसे ईश्वर की इच्छा से किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन्द्र अवतीर्ण हुए हों। धीर शान्त गति से महाराणा नीचे उतरकर खड़े हो गये। सरदारों ने सलामी दी। एकसाथ सहस्र कण्ठों से जयध्वनि हुई, "महाराणा की जय !" "राजपूत - कुल-कीर्ति गौरव महाराणा प्रतापसिंह की जय !" "हिन्दुओं के मध्याह्न भास्कर महाराणा की जय !" महाराणा के उतरने से पहले ही शक्तिसिंह महल के द्वार पर उतरकर प्रतीक्षा कर रहे थे। महाराणा के आते ही वे भी पास आ प्रणाम कर उनके साथ हो लिये ।

घोड़ा चेतक सजा हुआ था अपने मालिक को देखते ही हिनहिनाता हुआ अपनी श्रद्धा प्रकट करने लगा। महाराणा चेतक की ओर देखकर मुस्कुराये। टापों से मिट्टी खोदता हुआ चेतक अपनी स्फूर्ति में चंचल हो रहा है। महाराणा ने एक दृष्टि उस जनसमुद्र पर फेरी और सबको अपनी हार्दिक प्रसन्नता सूचित करते हुए बढ़कर चेतक की लगाम थाम ली साईस अलग हो गया। महाराणा घोड़े पर चढ़े। साथ-साथ शक्तिसिंह और दूसरे दूसरे सामन्त सरदार तथा सिपाही शरीर-रक्षक आदि भी घोड़ों पर सवार हो जंगल की ओर चले ।

इस विजयादशमी के दिन राजपूत वीर शिकार खेलकर अपने भाग्य की परीक्षा करते हैं। जिन्हें शिकार मिल जाता है, वे समझते हैं कि उनका वह साल बड़ी प्रसन्नता से बीतेगा, जिन्हें नहीं मिलता वे अपने भविष्य को दुर्दैव के अन्धकार में ढका हुआ समझकर विशेष चिन्ता से युक्त रहते हैं।

घोड़ा बढ़ाते हुए वीर राजपूत जंगल में पहूँचे। वहाँ महाराणा ने अपने वीरों को स्वच्छन्द भाव से बिखरकर शिकार खेलने की आज्ञा दी। वीर राजपूत अपने-अपने साथियों को लेकर जंगल में तितर-बितर हो गये। एक ओर महाराणा ने भी अपना घोड़ा बढ़ाया। उनके साथ सिर्फ शक्तिसिंह और कुछ चुने हुए उनके शरीर रक्षक ही रह गये । चेतक जंगल में झाड़ियों को पार करता हुआ क्रमशः उस जगह जा पहुंचा, जहाँ एक-दूसरे से सटे हुए बड़े-बड़े पेड़ों की घनी छाया के नीचे दिन में भी पूरा अन्धकार रहा करता था। जंगल में चारों ओर जानवरों का राज्य था, और खासकर उस जंगल में बराहों की अधिकता थी। देखते-देखते एक बराह कुछ दूर पर दिखायी दिया। महाराणा प्रताप और शक्तिसिंह दोनों ने उसके पीछे घोड़े बढ़ाये। सूअर भी जान लेकर भागा । परन्तु ये छोड़नेवाले कब थे, ये पीछा करते गये। कुछ नजदीक पहुँच कर दोनों ने अपने-अपने बछ से वार किया। एक निशाना अचूक बैठा और उसी से बराह का दम निकल गया। बराह को गिरते हुए देखकर दोनों भाई घोड़े बढ़ाकर उसके पास पहुँचे ।

निशाना एक ही लगा था, देखकर शक्तिसिंह की चंचल प्रकृति अपनी स्वाभाविक उत्तेजना और यशोलिप्सा के कारण अनर्थ कर बैठी । शक्तिसिंह ने कहा, "देखा भैयाजी, मेरा निशाना कैसा अचूक बैठा है ?" बराह को देखकर, "बच्चू बिल्कुल बेहोश हो गये हैं-अरे ! शायद जान भी नहीं रह गयी। बराह थका था ?"

प्रताप मुस्कुराये और चुप हो गये शक्तिसिंह को प्रताप का मुस्कुराना अच्छा नहीं लगा। वे प्रताप से अपने लक्ष्य वध की प्रशंसा सुनना चाहते थे । अतः आवेश में आकर कहा, "क्यों भैयाजी, आप मुस्कुराये कैसे? जान पड़ता है मेरी बात पर आपको विश्वास नहीं हुआ ।"

इस बार प्रताप को कुछ क्रोध आ गया, परन्तु अपने भाव को उन्होंने भरसक छिपाने की चेष्टा की। मुंह फेर लिया और वैसे ही चुप हो रहे । अपने सेवकों की तरफ फिरकर उन्होंने गम्भीर भाव से कहा, "इसको उठा लो, हमारा मनोरथ भगवती की कृपा से पूरा हो गया है। अब यहाँ से चलना चाहिए।"

प्रतापसिंह के शब्दों की ध्वनि शक्तिसिंह की भी समझ में आ गयी । इससे उनके हृदय में अपमान का भाव जाग्रत हो गया। रूखे स्वर में उन्होंने कहा, "तो क्या महाराणा, इसे अपना शिकार समझते हैं ?"

प्रताप (वज्र गम्भीर ध्वनि से ) - "शक्तिसिंह !" राजसी दृष्टि से शक्तिसिंह को देखते हुए ।

"मैं त्योरियों से दबकर चापलूसी न करूंगा महाराणा, घुड़कियों से डर जानेवाले कोई और क्षत्रिय होंगे, क्या आपने मुझे भी जगमल समझ लिया है ?" तमतमाकर शक्तिसिंह ने कहा।

"संभल जाओ, शक्तिसिंह अब भी खेर है।"

"मुझे महाराणा के व्यर्थ शब्दों की बिल्कुल चिन्ता नहीं, शिकार मेरा है।"

"झूठ है, हमारा है।"

"सुबूत ?"

"सुबूत है शक्तिसिंह।"

"यह घोर अन्याय है, अधिकार के मद में इस तरह का स्वेच्छाचार मेवाड़ के किसी भी नरेश ने आज तक नहीं किया था।" "साथ ही, मेवाड़ के स्वतन्त्र नरेशों की इस तरह की समालोचना का फल भी तुम्हें स्मरण होगा शक्तिसिंह ?"

"मुझे फल का मय नहीं दिखाइये वार वार, मैं किसी भी तरह स्वीकार नहीं कर सकता कि शिकार मेरा नहीं; आपका है।"

"तुम्हारे बर्छे की पहचान ?" प्रताप की आँखें खून हो रही थीं।

" बर्छे की पहचान मैंने नहीं की।" अवज्ञा से।

"हमारे वर्षों का फलक तीरनुमा है।"

"शिकार के पास आकर आपने बर्छे की नोक देख ही ली होगी ? मुझे अपने निशाने पर पूरा विश्वास है।"

क्रोध की भीषणता से प्रताप की मूर्ति बड़ी भयावनी होती थी, उधर शक्तिसिंह के अन्दर भी उतनी ही अवज्ञा और घृणा का भाव जाग्रत हो रहा था और चारों ओर सन्नाटा था, जैसे हवा में भी शब्द करने का साहस न रहा हो। नौकर चुपचाप त्रस्त भाव से खड़े हुए प्रताप और शक्तिसिंह के मुख की ओर ताक रहे थे, कुछ बोलने की उन्हें भी हिम्मत नहीं पड़ती थी । रह-रहकर दोनों राजपूत वीरों का उत्तेजना से भरा हुआ स्वर अरण्य की शान्ति भंग करता, उसे क्षुब्ध कर देता।

केवल एक मनुष्य से यह बन्धु-विरोध न देखा गया। वे जाति के ब्राह्मण और राजकुल के पुरोहित थे। ब्राह्मण के उदार हृदय पर सख्त चोट लगी । क्षत्रियत्व को इस तरह कलंकित होते हुए देखकर दर्द से उनका हृदय भर आया । जिस राज्य के वे पुरोहित थे, सदैव जिसकी उन्नति चाहते थे, जिन राजकुमारों की श्रीवृद्धि और सुख ही उनकी तपस्या का प्रथम लक्ष्य था, उस राज्य के उन्हीं राजपुत्रों को इस प्रकार एक साधारण से विषय को लेकर क्रोधान्ध होते हुए देखकर शान्तिप्रिय ब्राह्मण से न रहा गया। प्रताप और शक्ति के सामने उपस्थित होकर ब्राह्मण ने बड़ी ही दीनता से कहा, "ईश्वर के लिए अब बस करो, बहुत हो चुका, सिसोदिया वंश के गौरव को धूल में न मिलाओ । मैं आप लोगों का पूज्य कुल-पुरोहित हूँ, मेरे वंशवालों के उचित शब्दों की राजवंशवालों ने सदा ही रक्षा की है, इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि इतना बहुत हो चुका, अब बस करो।"

परन्तु ब्राह्मण की प्रार्थना पर किसी का ध्यान न गया, उसी तरह दोनों एक-दूसरे को छेड़े हुए शेर की तरह देख रहे थे। पहले-पहल प्रताप ने जितनी सहनशीलता दिखलायी थी, उस समय शक्तिसिंह की उद्दण्डता के कारण वह उतने ही क्रोध में बदल रही थी। उधर शक्तिसिंह तो प्रताप के बड़प्पन को पहले ही से भूले हुए थे ।

प्रताप, "शक्तिसिंह, इसका परिणाम अच्छी तरह सोच लो ।"

शक्तिसिंह, "मैं कह चुका हूँ कि त्योरियों पर बल देखकर डर जाने वाला कोई और होगा । व्यर्थ का घमण्ड क्यों करते हो, प्रताप, शिकार मेरा है।"

क्रोधान् शक्तिसिंह का हाथ बार-बार तलवार के कब्जे में जा रहा था, यह देखकर प्रताप के धैर्य का बांध टूट गया। उन्होंने भी कब्जे में हाथ लगाया । तत्काल दोनों की तलवारें म्यान से मुक्त होकर वायुमण्डल में बिजली की तरह चमकने लगीं। नौकर सहम गये, नजर झुलस गयी, वस्त होकर सबने आँखें मीच ली

प्रताप और शक्तिसिंह की नजर एक थी, दोनों भाई एक-दूसरे को सगे शत्रु की निगाह से देख रहे थे। यह भयानक दृश्य राजकुल के पुरोहित उदार ब्राह्मण से न देखा गया। जिनकी छाया में उनके वंशजों ने अनेक प्रकार का सुखोपभोग करते हुए तपस्या और ईश्वरोपासना में अपना समय पार किया, इस समय भी जिस राजवंश की बदौलत ब्राह्मण की शक्ति और स्वतन्त्रता में कोई विघ्न नहीं, आज विपत्ति के समय उस वंश की किस प्रकार रक्षा हो, यह एकाएक उनके मस्तिष्क में न आया, उनका हृदय आवेश से क्षुब्ध हो रहा था। प्रतिहिंसा की वेदी पर सगे भाई का बलिदान करने के लिए दो प्यासी लाल जिह्वाएँ लपक रही थीं। स्वधर्मनिष्ठ ब्राह्मण अधिक देर तक यह दृश्य न देख सके । बढ़कर प्रताप से उन्होंने कहा, "महाराणा, शान्त हूजिए, आपका पुरोहित ब्राह्मण विनयपूर्वक आपसे प्रार्थना कर रहा है। धर्मं, देश और जाति की रक्षा का ध्यान कीजिए। यह जिस महाअनर्थं की ज्वाला धधक उठी है, महाराणा, इसका निवारण होना असाध्य हो जायेगा । अपने ही हाथों लगाये हुए पौधे को काटकर हरा-भरा बाग न उजाड़िए । घर की फूट से, वंश की नींव न खोदिए। अभी मेवाड़ के भाग्याकाश से विपत्ति के बादल टल नहीं गये हैं । यवनों की शक्ति प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है, यदि उन्हें गृह-कलह का हाल संक्षेप में भी मालूम हो जायेगा, तो यवनों की सेना से मेवाड़ की भूमि पर तिल रखने की जगह भी न रह जायेगी महाराणा, अपने कुल-पुरोहित का विरोधाचरण न कीजिए, शान्त हूजिए।''

अब तक दोनों एक-दूसरे का विनाश करने के लिए मौका ताक रहे थे। पैंतरे से चक्कर काटते, धोखा देते और वार करने की जगह देख रहे थे।

प्रताप ने ब्राह्मण के शब्दों का उत्तर संक्षेप में देते हुए कहा, "महाराज, मैं राजधर्म के प्रतिकूल नहीं हूँ, अपराधी को अवश्य दण्ड दूंगा ।"

पुरोहित अधीर हो गये। प्रताप ने उनके शब्दों पर ध्यान न दिया, यह सोचकर ब्राह्मण के हृदय में एक दूसरे प्रकार का भाव सजग हो रहा था, वे क्षत्रिय शूरता से ब्राह्मण के त्याग का मुकाबला करने के लिए हृदय में शक्ति भर रहे थे। इसी समय उनकी अन्तरात्मा ने कहा, एक वार शक्तिसिंह से भी प्रार्थना करो, देखो, यदि वे तुम्हारी बात पर आ जायें। स्नेह और करुणा की मूर्ति उस ब्राह्मण ने शक्तिसिंह को कहा, "कुमार, तुम अपने बड़े भाई का विरोध करके अपने मार्ग को कष्टकाकीर्ण कर रहे हो, शान्त हो जाओ । बड़े भाई से दब जाना ही तुम्हारा धर्म है।"

"नही महाराज, , मैं क्षत्रिय हूँ, क्षत्रिय का शौर्य और सम्मान ही उसका सर्वोत्तम धर्म है।" शक्तिसिंह ने प्रताप की ओर ईर्ष्या-भरी दृष्टि से देखते हुए कहा।

"मैं समझ गया, माता, तुम्हारी इच्छा ही पूरी हो। मातृभूमि मेवाड़ ! तुम्हारी गोद के कितने ही लाल अपने हृदय के तप्त शोणित से तुम्हारी पूजा कर चुके हैं। माता ! उन वीर क्षत्रियों ने देश के गिरते हुए आदर्श को ऊंचा उठाया है, तुम्हारे ज्योतिर्मय मुख मण्डल को वासना-व्यसन के वसन से ढक कर तुम्हारी देवी मूर्ति को कलंकित करने की चेष्टा नहीं की। वे तुम्हारे सच्चे पुत्र थे, तुम्हारे गौरव को समझते थे। अपनी आत्मा की आहुति देकर, वारम्वार उन लोगों ने तुम्हारे पुत्र होने की योग्यता के प्रमाण दिये हैं, बाहर से आये हुए कलुष को अपने रक्त से धोकर तुम्हारी चिर निर्मल दीप्ति को प्रखर कर दिया है। माता ! इसलिए उनकी पराजय में ही मैं उनकी विजय देखता हूँ । आज तुम अपने एक ब्राह्मण पुत्र को भी लो; मेवाड़ ! माता ! यवनों का वारम्वार प्लावन तुम्हारे गर्व को बढ़ाने के लिए ही हुआ है, यह मैं समझ गया हूँ !" देशभक्त उदार ब्राह्मण ने माता की सेवा में मन-ही-मन यह स्तुति करके उन दोनों क्षुब्ध क्षत्रियों की ओर मुड़कर कहा, "सुनो प्रताप अपनी राजनीति का पक्ष तुमने लिया है और शक्तिसिंह तुम अपने क्षत्रियत्व की दुहाई देते हो। मैंने पहले अपनी स्वाभाविक विनय से तुम लोगों को शान्त करने का इरादा किया था, परन्तु तुम दोनों की अन्ध बुद्धि ने मेरी बुद्धि पर ध्यान देना उचित नहीं समझा। साथ ही मैं कहूँगा, तुम्हारे पूर्व पुरुषों से जो घराना पूज्यदृष्टि से देखा जाता था, जिस ब्राह्मण-वंश की आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं किया गया, आज तुम लोगों ने वह भी कर दिखाया और इस तरह मेरा कितना बड़ा अपमान तुम लोगों ने किया है, पीछे समझोगे लो तैयार हो जाओ, गर्वान्ध क्षत्रियों, मैं देखूंगा, क्षत्रियत्व को मैं ब्राह्मणत्व के बल से शान्त और पराभूत कर सकता हूँ या नहीं !"

तपस्वी ब्राह्मण के मुख की श्री ने विचित्र शोभा धारण कर रखी थी । एक स्वर्गीय ज्योति ने जैसे ब्राह्मण को ढक लिया हो, जैसे ये पहले के पुरो हित महाराज नहीं, प्रताप और शक्तिसिंह को शिक्षा देने के लिए कोई दूसरी शक्ति आ गयी हो। साक्षात् भगवती गायत्री जैसे ब्राह्मण को घेरकर खड़ी हो गयी हों। त्याग की उस तप्त मूर्ति को देखकर महाराणा के नौकरों के तो होश ही उड़ गये। कुछ देर के लिए उन्हें विस्मरण हो गया कि प्रताप और शक्तिसिंह में समर छिड़ा हुआ है, एवं स्तब्ध होकर एक दृष्टि से सब लोग ब्राह्मण की ओर देख रहे थे।

ब्राह्मणदेव ने अपनी आत्मबलि का निश्चय कर लिया। झट उन्होंने एक छोटी-सी छुरी निकाली । दाहिने हाथ में उसे लेकर आकाश की ओर ताकते हुए उन्होंने कहा, "ईश्वर, तुम अन्तर्यामी हो, भगवन्, मेरी प्रतिज्ञा है इस राजवंश के ये दोनों ही लाल अक्षत रहेंगे। इनकी प्रतिज्ञा अपूर्ण होगी, तुम सबके हृदय की अभिलाषा पूर्ण करते हो, आज तुम्हारे श्रीचरणों में मेरे आत्मनिवेदन का अर्थ यही है !"

यह कहकर कल्याणकामी ब्राह्मण ने अम्लान भाव से अपने हृदय में छुरी चुभो ली। गर्म खून का फौवारा छूट चला। क्षत्रियत्व के जोश में पागल प्रताप और शक्तिसिंह के ऊपर भी खून के छींटे जा पड़े। प्रताप का अनुचर-समुदाय उच्च स्वर से "ब्रह्म हत्या हो गयी ! ब्रह्म हत्या हो गयी" कहकर चिल्लाने लगा । ब्राह्मण के शरीर से खून की धारा बह रही है, देख कर प्रताप चकित हो गये, शस्त्र सँभालकर आश्चयं भरी दृष्टि से ब्राह्मण को देखने लगे । भय से शक्तिसिंह का हाथ भी न उठा। महान् अपराधी की तरह ये भी तड़फड़ाती हुई ब्राह्मण की भूलुण्ठित देह को देखने लगे। मारना, वार करना भूल गया । बात की बात में क्षत्रियत्व का नशा इस महान् त्याग को देखकर उतर गया। जहाँ दोनों भाइयों में घनघोर शत्रुता ठनी हुई थी, वहीं दोनों सशंक दृष्टि से उस मृतप्राय ब्राह्मण को देख रहे हैं शक्तिसिंह को तो बिलकुल काठ मार गया। महाराणा प्रताप ने होश संभालकर ब्राह्मण को उठा उनका मस्तक अपनी छाती पर रख लिया। वे दम तोड़ हो रहे थे। देखते-ही-देखते उनका शरीर प्रताप की गोद में निष्प्राण हो गया। एक आह के साथ प्रताप के दो बूंद आंसू उस गम्भीर मौन में मृत ब्राह्मण की छाती पर टपक पड़े ।

ब्राह्मण की ओर से प्रताप की नजर शक्तिसिंह की ओर उठी। तमाम खून खौल उठा। सोचने लगे, शक्तिसिंह ही इस घोर ब्रह्महत्या का कारण है। प्रताप ने अपने स्वाभाविक स्वर से शक्तिसिंह को देखते हुए कहा, "शक्तिसिंह, आज इसी मुहूर्तं तुम मेरे राज्य की सीमा पार कर जाओ । अपने राज्य से तुम्हें निर्वासन दण्ड दिया।"

शक्तिसिंह के मुंह से कोई शब्द न निकला, चुपचाप इस दण्ड को उन्होंने स्वीकार कर लिया और वहाँ से राज्य पार कर जाने के लिए घोड़े पर सवार हो चल दिये ।

इधर ब्राह्मण की अन्त्येष्टि-क्रिया बड़ी धूमधाम से समाप्त की गयी। उसी जगह पर एक स्मृति मन्दिर भी प्रताप ने तैयार करा दिया और उसके परिवार को एक अच्छी जागीर दी, जिसका उपभोग इस समय भी उस त्यागवीर ब्राह्मण के वंशज करते आ रहे हैं।

चतुर्थ परिच्छेद : राजधानी-चित्तौड़

फाल्गुन सुदी 15 सं. 1618 का दिन हिन्दुओं को स्मरण रखना चाहिए । हिन्दू कुलपति महाराणा प्रतापसिंह को इसी दिन राजगद्दी मिली थी। कापुरुष उदयसिंह के औरस से प्रताप जैसा वीरशिरोमणि पैदा हुआ, यह कम आश्चर्य की बात नहीं। यदि उदयसिंह के समय अकबर के यौवन काल में, उनके दिल्ली - सिंहासन प्राप्त करते समय उदयसिंह न होकर महाराणा प्रताप होते, तो आज इतिहास लेखकों को आपके सम्बन्ध में कुछ और ही शब्द, और और ही घटनाएँ लिखनी पड़तीं ।

शक्तिसिंह को राजधानी से तो प्रताप ने निकाल दिया था, परन्तु अपने हृदय से न निकाल सके थे। कारण और अनेक दुर्गुणों के रहते हुए भी एक बहुत बड़ा गुण शक्तिसिंह में था। वह थी निर्भीकता। शत-शत शत्रुओं के बीच में घिरकर भी शक्तिसिंह पीठ न फेरते थे, भागने के लिए उनके पैर ही न उठते थे। जितने उद्दण्ड थे, उतने बड़े वे वीर भी थे, उनके सरदारों में शक्ति सिंह का अभाव दूर करनेवाला कोई न था सेना-संचालन की शक्ति तो शक्तिसिंह में न थी, पर अपने प्रबल पराक्रम और अनिवार्य वारों से शत्रुदल को विचलित करने और अपनी सेना को उत्साह देने में शक्तिसिंह से बढ़कर वीर प्रताप की फौज में न था। आज उसी वीर के अभाव से महाराणा विचार कर रहे हैं। कभी मुगलों की शक्ति याद आती, कभी भाई शक्तिसिंह की ।

"कितने अत्याचार मुगलों ने राजपूत जाति पर किये हैं। शत-शत वर्ष काल के अथाह गर्भ में समा गये; परन्तु इन दोनों जातियों का भाव एक दूसरे से वैसा ही बना है। यह दोष किसका है? क्या राजपूत इसके लिए दोषी हैं ? वे तो मुगलों को कभी भी सताने के लिए नहीं गये । तब, क्या दोष मुगलों का है ? केवल मुगल ही नहीं पठानों के राज्यकाल से ही मेवाड़ भूमि पर ऐसे ही आक्रमण हो रहे हैं, जैसे हम मेवाड़वासी आक्रमण सहने और अन्त तक प्राणों की आहुति देने के लिए ही पैदा हुए हों। जैसे यहाँ के अधिवासियों का इसके अतिरिक्त और कोई उद्देश्य ही न हो। मुसलमान अपनी विजय के लिए आते हैं, हे ईश्वर, इस विजय और रक्षा के भीतर तुम्हारी कौन-सी इच्छा छिपी हुई है ? अगणित बार पराजय, सहस्रों राजपूत अंगार की तरह जलकर राख हो गये, अगणित स्त्रियां सती हो गयीं, अपनी धर्म-रक्षा के लिए, और यह भयंकर प्रहार हुआ- एकमात्र चित्तौड़ पर विशेष रूप से।

"चित्तौड़ मेवाड़ की रानी है, हमारे वंशजों की शताब्दियों तक राज धानी रह चुकी है। केवल पिताजी ने वहाँ से राजधानी उठा दी, उदयपुर चले आये, परन्तु चित्तौड़ की-सी श्री क्या संसार में और कहीं होगी ? दुर्लंघ्य पहाड़ के मस्तक पर आकाश के चन्द्र की तरह शोभा दे रही है। नहीं है, क्यों थी; अब क्या हैं, अब तो अकबर की कृपा से घास, टीले, स्तम्भ, खण्डहर, यही उसकी पहचान के लिए रह गये हैं। परन्तु जो भूषण उसके छिन गये हैं, यदि फिर से पहना दिये जायें, तो वह रानी ही रहेगी। स्थिति उसकी कितनी सुरक्षित है। शायद इसीलिए उस पर प्रहार पर प्रहार होते गये। तीन ओर से प्रहार के कारण एक सुरक्षित मध्यभाग लगभग डेढ़ मील चौड़ा, जहाँ कभी लोगों की अश्रान्त चहल-पहल थी। सम्पूर्ण घेरा आठ मील तक का कितना एक सुन्दर नगर के लिए, पर्वत भी सौ गज से ज्यादा ऊँचा नहीं। चारों ओर से चारदीवारी नगर की रक्षा कर रही थी, और रात को इसी चारदीवारी की मरम्मत कराते समय सेनापति हमीर-ओफ

हमीर ! मारे गये ! घातक अकबर की गोली से छिपकर मारा गया वीर तो यह जानता था कि रात को लड़ाई नहीं होती । जहाँ स्वाधीनता की विजय वैजयन्ती उड़ रही थी, आज वहीं भयानक श्मशान है ! ऊंचे-ऊंचे विजय स्तम्भ दुर्गम आकाश को आलिंगन करने के लिए बढ़ रहे हैं, मानो अब इस पृथ्वी के अत्याचार को देख नहीं सकते। हाय ! आज चित्तौड़ असहाय भिखारियों की तरह निरस्त तथा कान्तिहीन-सा हो रहा है । मेरी ओर कैसी करुणाभरी दृष्टि से देखता है !

"अहा ! मेवाड़, वह भी एक दिन हो गया कि नन्हें-नन्हें बालकों को उनकी माताएँ केसरिया वस्त्र पहना, आशीर्वाद देकर, मुख चूम लड़ाई के लिए विदा करती थीं, और सगर्व कहती थीं कि बेटा मर जाना पर हारकर न आना कितनी ही देवियाँ अपने पूज्य पतियों को बाँह में भरकर, डब डबाई आँखों से विदा करती हुई कहती थीं, विजय के साथ आना, नहीं तो स्वर्ग में मैं तुम्हारे लिए प्रतीक्षा न करूंगी। क्या संसार में कहीं इतनी बड़ी विभूति होगी ?

"कितने अच्छे ढंग से रक्षा की गयी थी। नगर में प्रवेश करने का मार्ग पूर्व-दक्षिण के कोने से था, यहाँ से क्रमशः बस्ती ऊँची होती गयी, पर बीच बीच में नीचे की जगहें भी मौजूद, अगम अथाह जलाशय सदा ही भरे हुए, पानी का कभी भी अभाव न हो। जो राह किले तक गयी थी, वह बिल्कुल चक्रव्यूहाकार । दुर्गं तक पहुँचने में सात दरवाजे पड़ते थे। इन दरवाजों में रामपोल सबसे बड़ा था। और यह चित्तौड़ से पश्चिम की ओर था। पूर्व म सूर्यपोल भोजन और पानी का अभाव यहाँ प्रथम से अन्त तक कभी नहीं हुआ। कितने विजयस्तम्भ, जैनियों के कीर्तिस्तम्भ और देव मन्दिर राजा कुम्भ के ऐश्वर्य की साक्षी दे रहे हैं।"

मानसिक चिन्ता के कारण महाराणा बिल्कुल शिथिल हो रहे थे। ऐसे समय द्वार रक्षक ने चन्दावत कृष्ण के आने की सूचना दी। महाराणा ने सहर्षं बुलाया। प्रताप के थके हुए मुख की ओर देखकर आश्चर्य प्रकट करते हुए सरदार चन्दावत कृष्ण ने कहा, "मुझे महाराणा को देखकर जान पड़ता है, वे किसी विशेष चिन्ता में पड़े हैं। क्या मैं इसका कारण पूछने का साहस करूँ ?"

उदास भाव से चन्दावत कृष्ण को एक वार महाराणा ने देखा, एक लम्बी-सी साँस ली, और कहा, "हाँ, आपका अनुमान बिल्कुल ठीक है। मुझे चित्तौड़ की याद आ गयी है। मैं एक वार आपके मुख से चित्तोड़ की कथा सुनना चाहता हूँ ।" प्रताप आग्रह से सरदार चन्दावत को देखने लगे ।

सरदार ने एक लम्बी साँस ली। आँखें नीची कर ली और कहा, "महा राणा, मुसलमानों के शासनकाल के आरम्भ से ही चित्तौड़ पर विपत्ति की बिजलियाँ टूटती आ रही हैं, अब चित्तौड़ का वह वैभव कहाँ ? आपको तो वैभवरहित राज्य का सिंहासन मिला है, जिसके मणि-रत्न मुसलमानों के हाथ लग चुके हैं, और जिसका वीर्य समर की चिता पर जलकर अमरलोक को चला गया है श्मशान के सम्राट् ! इसके प्राचीन शौर्य की समानता में न करूंगा, केवल आपके पिता के सम्मान का हाल बताता हूँ। जब आपके पिता चित्तौड़ से भागकर अपनी संकीर्णता, कापुरुषता का परिचय देते हुए प्राणों की रक्षा के लिए यहाँ आ छिपे थे, उस समय, अकबर के प्रबल आक्र मण की चोट अल्पसंख्यक राजपूत वीरों द्वारा सही नहीं गयी, उस भयंकर समर की ज्वाला में तीस हजार राजपूत भस्म हो गये ! राजपूतों की सहस्र सहस्र साध्वी स्त्रियाँ भी जिनमें उदयसंह की नो रानियाँ, पांच राज कुमारियाँ तथा अन्यान्य वीर सरदारों की अगणित स्त्रियाँ थीं, अपने सतीत्व और सम्मान की रक्षा के लिए जलते हुए अग्निकुण्ड में जीवन विसर्जन कर स्वर्ग में अपने प्रियजनों से जा मिलीं और कुछ पहले ही से स्वर्ग में चलकर अपने कापुरुष पतियों को आत्मविसर्जन की शिक्षा देती हुई सुखोपभोग करने लगीं। विशेष दुःख होता है उन अविवाहिता छोटी-छोटी बालिकाओं की जलती हुई चिताग्नि में अपनी माता के अनुसरण-धर्म ग्रहण करने की बात से। सोचिए महाराणा, वह राजपूत जाति की कितनी बड़ी आहुति थी।"

प्रताप की दृष्टि स्थिर, जलती हुई, अभ्ररहित, श्वास अवरुद्ध, निश्चल, सम्पूर्ण मन सरदार के विगत पीढ़ी के इतिहास-कथन पर मानो प्रबल तूफान उठाने के लिए वायुमण्डल ने यह पूर्व गम्भीर रूप धारण किया है। सरदार कहते गये, "एक ओर मुगलों की हषं ध्वनि हो रही थी, दूसरी ओर राजपूत वीरांगनाओं का जोहर चित्तौड़ गढ़ के टूटने पर बड़ा कोलाहल करते । हुए मुगल-सम्राट् उस नगर के भीतर घुसे। उन्हें आशा थी कि तुर्की से आये हुए सिपाहियों के घर विधवा राजपूत-रमणियों से आबाद होंगे।"

"ठहरो", प्रताप की आँख आग उगल रही थीं। सरदार चन्दावत अब तक अपनी कथा की ओर ही ध्यान लगाये हुए। प्रताप की भीमगौरव मुखा कृति देखकर सहम गये । परन्तु बुद्धिमान् सरदार ने प्रताप को शान्त कर फिर कहा, "महाराज, हम राजपूतों की आशा के दीपक ! तुम्हारा प्रकाश चिरन्तन हो, मैं वही तेल तुम्हारे अन्दर भर रहा हूँ। धैर्य से सुनो, स्वभाव की उत्तेजना से कार्यसिद्धि नहीं होती।" प्रताप शान्त हो गये। सरदार कहने लगे, "अकबर चित्तौड़ के अन्दर गये, तब उनकी सम्पूर्ण आशा घूल में मिल गयी, कुछ भी हाथ न लगा। एकमात्र चतुर्भुजी देवी के मन्दिर का जलता हुआ दीपक और जन शून्य भवनों के विशाल अद्भुत कारीगरी के साक्षी दरवाजे, मुगल बादशाह की लुण्ठन वृत्ति को कुछ सन्तोष देने के लिए सजग खड़े थे । जैसे आत्माहुति के लिए वे भी तैयार होकर उस विपुल शून्यता में उसे ललकार रहे हों।" चन्दावत कृष्ण इतना कहकर सशंक दृष्टि से प्रताप के मुख की ओर देखने। उनके कपोलों पर से आँसुओं की मुक्ताएँ चित्तौड़ की दरिद्रता को श्री समृद्ध करने के लिए अविराम भाव से बह रही थीं ।

पंचम परिच्छेद : वीर-व्रत ग्रहण

प्रातःकाल की सुनहरी किरणों में अब ओर ही चहल-पहल, एक दूसरी ही छवि दिखलायी दे रही थी। संसार के इतिहास में यह एक सर्वश्रेष्ठ आत्मा भिमानी स्वदेशभक्त का गौरव दिवस था। शरीर की प्रत्येक शिरोपशिरा में इसी दिन प्रताप की प्रतिज्ञा-शक्ति का संचार हुआ था, जिससे आजीवन उन्हें उद्देश्य पथ पर अटल हिमाचल की तरह स्थित और वेगवान वायु की तरह गतिशील कभी सुख की नींद नसीब न हुई। कभी प्रखर आतप-तप्त शिलाओं पर विचरते, कभी प्रलय की बाढ़ में विपुल शत्रु-सेना से सम्मुख समर करते, कभी प्रचण्ड शीत की निशा में पराजित होकर पकड़े जाने के भय से वास वस्त्र रहित होकर पार्वत्य प्रदेशों में छिपते फिरते। आज यह उन्हीं असंख्य विघ्न बाधाओं के स्वीकार करने का दिन है।

चारों ओर राजधानी में खबर फैल गयी, राजदरबार होगा। बड़े-बड़े सामन्त सरदारों का वहाँ सम्मिलित होना आवश्यक है। महाराणा की आज्ञा का उल्लंघन किसी ने न किया। राज्य के प्रतिष्ठित प्रायः सभी सामन्त सर दार वहाँ एकत्र हुए, साधारण जनों का तो हाल ही न पूछिए। सबके हृदय में महाराणा के सम्बन्ध में तरह-तरह की तरंगें लहरें मार रही थीं। उदय सिंह के पश्चात् प्रताप को प्राप्त कर लुप्त गौरव मेवाड़ की अन्तरात्मा उत्फुल्ल हो उठी। सब लोगों को यह विश्वास हो रहा था कि हमारे भूतपूर्व राणा उदयसिंह न होकर प्रतापसिंह होते तो हमारे चित्तौड़ का इस तरह विनाश न होता। लोग अनेक प्रकार की जल्पना कल्पनाएँ कर रहे थे। जब तक सभा में अधिकारी वर्ग नहीं आ गये, तब तक लोग एक-दूसरे से तर्क वितर्क करते हुए खासा कोलाहल मचाये हुए थे।

देखते-देखते सभा में सन्नाटा छा गया, जैसे लोगों की साँस भी न चल रही हो विस्तृत सभा मण्डप की साज-सज्जा बिल्कुल नये ढंग की थी। चारों ओर आम के पत्तों की झालर टंगी थी। द्वार पर जलपूर्ण कलश रक्खे थे, ऊपर मंजरी और शस्त्र से भरा पात्र इसी मण्डप में एक जगह महाराणा के बैठने की जगह थी। सब लोग गला बढ़ा-बढ़ाकर महाराणा को देख रहे हैं कि इतनी देर हो गयी, क्यों नहीं आये ?

एकाएक मेरी बज उठी। सिपाही कतार बाँधकर बड़े हो गये। सलामी दगने लगी । लोग उत्सुकता से चंचल हो रहे थे। महाराणा मण्डप के भीतर गये । सम्पूर्ण सभासदों ने उठकर महाराणा का स्वागत किया। वे धीरे-धीरे अपने आसन पर जा बैठे। महाराणा के दोनों ओर उनके शरीर रक्षक, सरदार-राजपूत गर्व से गर्दन ऊँची किये खड़े हो गये। कुछ चुने हुए राज कर्मचारियों और सामन्त सरदारों को ही महाराणा की बगल में बैठने का सौभाग्य मिला था। समय के आ जाने पर महाराणा बड़े धेयं और गम्भीरता से उठकर खड़े हो गये और सम्मिलित जन-समूह को लक्ष्य कर कहने लगे,-

"भाइयो, आज एक विशेष उद्देश्य की सिद्धि के लिए मैंने 'तुम लोगों को यहाँ आने का कष्ट दिया है, मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस कष्ट को तुम लोगों ने सहर्ष स्वीकार किया होगा, परिश्रम की सुकुमारता को अवश्य ही तुम लोग मुझे उपहार दे चुके होगे, और मेरे उद्देश्य पथ पर आजीवन चलने के लिए निश्चय कर लिया होगा। मैं जानता हूँ मेरे प्रति तुम्हारा यह प्रेमा तिरेक है। यह कभी उस तरह की राजभक्ति नहीं, जिसके हाथ हमेशा भय के कारण ही अंजलिबद्ध हुआ करते हैं, जिसका मस्तिष्क केवल प्रहार के भय सेनत हुआ करता है, जिसकी आज्ञाकारिता में स्वामी की कुटिल गति मिली रहती है, जिसे मालूम नहीं आत्मत्याग क्या है, जो नहीं जानता हृदय का आदान-प्रदान किस प्रकार से हुआ करता है।''

लोग मन्त्रमुग्ध को तरह एक दृष्टि से महाराणा को देखते और उनका हृदय के अन्तिम स्तर तक पहुँचकर अपना प्रभाव छोड़नेवाला अभिभाषण सुन रहे हैं, कभी-कभी वे अपने साथियों से भी मौन दृष्टि से कुछ प्रश्न कर लेते हैं। महाराणा कहते गये,-

"आज मैंने तुम लोगों को जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यहाँ बुलाया है, वह हिमालय से भी महान् और समुद्र से भी गम्भीर है, आकाश से भी अगम और अरण्य से भी गहन है। भाइयो, एक बार उस जाति की ओर आँख उठाकर देखो, उस जाति की ओर जो वेदों की अनादि व्याख्या की तरह अपनी उत्पत्ति को अनादिकाल प्रसूत बतलाती है, भगवान् रामचन्द्र को, भगवान् कृष्णचन्द्र को जन्म देने का गर्व करती है, देखो, आज कुछ ही शताब्दियों के अन्दर कितना घोर परिवर्तन हो गया। उस जाति को आदर्श से भ्रष्ट, धर्म से पतित, सहानुभूति से बहिष्कृत, देश की हिताकांक्षा से विमुख और तुर्कों की सेवा में तत्पर होते देखकर क्या कभी कोई सच्चा स्वदेश भक्त एक क्षण के लिए भी स्थिर रह सकता है ?"

"कदापि नहीं, कदापि नहीं !" समुद्र की एक प्रबल तरंग जैसे एक छोर से उठी और दूसरे छोर तक गर्जना करती हुई चली गयी। प्रताप कहने लगे, आज हिन्दू जाति के दुर्भाग्य के कारण उसके मुख्य-मुख्य सभी आधार मुसलमानों के आश्रय में अपनी दीनता के दिन काट रहे हैं, आज ऐसा कोई नहीं जिसे भारतवर्षं अपनी जाति का सरताज, अपने अपमान का बदला चुकानेवाला, स्वाधीन सम्राट् समझे । आज जयपुर, जोधपुर, अम्बर जैसे क्षत्रियों के गर्वोन्नत भाल पर एक ही कलंक का टीका लग रहा है ! मुगलों के प्रताप-भोजी इन क्षत्रियों ने देश को पराधीन कर देने में अपनी सम्पूर्ण शक्ति का उपयोग किया है। अब तक मुसलमानों की अधीनता में रहकर अपने धर्म के बचाने का उपाय हो जाता था, परन्तु अब तो वह बात भी नहीं रही, अब मिलना तभी हो सकता है, जब अपने घर की एक कन्या को भी तुर्कों की सेवा में समर्पित न किया जाय ! भाइयो, राजपूत क्षत्रियों के वंश की कन्या, महाराज मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् रामचन्द्र के वंश की कन्या, मुसलमान बादशाहों की खिदमत में हाजिर हो, क्या यह तुम्हें स्वी कार है ?"

"कभी नहीं, कभी नहीं प्राणों के रहते कदापि नहीं, हम अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए अपने प्राणों को तुच्छ समझते हैं !"

महाराणा कहते गये,-

"जिस प्रकार प्रलय की अग्नि चारों ओर से पार्वत्य प्रदेश को घेरकर जलती रहती है, आज हम उसी तरह चारों ओर से घिरे हुए हैं और तभी तक हमारा अस्तित्व है, जब तक हम अपनी स्वतन्त्रता के साथ अपनी जननी जन्मभूमि की गोद में सुख से विचरण करते हैं। हमारे देश के हतश्री महा राजाओं को हमारी यह स्वतन्त्रता पसन्द नहीं वे अपनी तरह हमें भी गुलाम बना लेना चाहते हैं। यह मनुष्यों की प्रकृति है भाइयो, तुम्हारे जैसे माता के गर्वीले लालों के रहते क्या मैं यह आशा करूँ कि एक दिन मुझे भी तुर्कों की गुलामी के लिए साजो-सामान से तैयार होकर जाना पड़ेगा ?"

"नहीं- कभी नहीं ! एक भी राजपूत जब तक मेवाड़ की भूमि पर महाराणा की सेवा के लिए जीवित है, तब तक महाराणा का केशाग्र भी तुर्क स्पर्श नहीं कर सकते, कदापि नहीं स्पर्श कर सकते ! हम फिर तुर्कों को अपनी चमकती तलवारों का पानी दिखायेंगे, फिर मेवाड़ के वक्ष पर जोहर होगा। इस वार मेवाड़ का बच्चा-बच्चा, मेवाड़ के सौ-सौ पुत्र माता के उद्धार के लिए बलि वेदी पर चढ़ जायेंगे, महाराणा की रक्षा के लिए अपने सर्वस्व का अर्पण कर देंगे। परन्तु तुर्कों की अधीनता कदापि स्वीकृत नहीं होगी ।" एक मधुर दृष्टि उस विपुल जन-समूह पर फेरकर बड़े उत्साह से महाराणा कहने लगे, "हमें अपने भाइयों पर, अपने सरदारों पर, अपने वीरों पर पूरा विश्वास है, हमें उन पर पूरा भरोसा है। हम जानते हैं कि चाहे हिमालय पृथ्वी के वक्ष पर चंचल हो जाय, चाहे सूर्य पूर्व से पश्चिम में उगे, चाहे विधाता की लिपि का खण्डन हो जाय, परन्तु मेरे वीरों की प्रतिज्ञा का भंग होना असम्भव है। मेरे बीरो, मेरे सहायक मित्रो, मेरे भाइयो, मेवाड़ के लाड़ले बच्चो, यह प्रतिज्ञा तुम्हारे योग्य ही हुई है। अगणित वार प्राणों की आहुति देकर काल को भी तुमने परास्त कर दिया । भाइयो, जिस कारण से तुम लोगों को यहाँ मैंने निमन्त्रित किया है, वह कारण तुम्हें मैं अब सुनाता हूँ। चित्तौड़ की विपत्-कथा तुम लोग अच्छी तरह जानते हो। मेवाड़ के पुत्रो, मातृभूमि चित्तौड़ के दुख के दिन तुम्हें न भूले होंगे, सरदार कृष्णजी से उसकी करुण कहानी सुनकर जो निश्चय मैंने किया है, तुम्हें सुनाता हूँ। आज की इस कथा को जीवन के उस मुहूर्त तक स्मरण रखना होगा, जब तक चित्तौड़ के शत्रु से उसका पूरा प्रतिशोध न लिया जा सके । भाइयो, हमारी माता की आंखों से अविराम अश्रु प्रवाह जारी है, ऐसी दशा में हमें सुख भोग करना किसी तरह से भी शोभा नहीं देता, बल्कि यह हमारी दुर्बलता है; राजपूत जाति के लिए घोर कलंक है।"

सब लोग विस्मय से मुग्ध होकर एकटक महाराणा को देख रहे हैं । महाराणा कहते गये,-

"हमने निश्चय किया है कि जब तक चित्तौड़ की यह अवस्था दूर न होगी, हम उसे उसी दिव्य रूप में न देख लेंगे, तब तक उसके दुःख में हम भी शोक-चिह्न धारण करेंगे, तब तक हमारा ब्रह्मचर्यं व्रत रहेगा, हम किसी तरह का आनन्दमंगल न मनायेंगे, नख और बाल न कटवायेंगे, सोने और चांदी के बरतनों में हम अब तक भोजन करते आये हैं, परन्तु अब से हम पत्तल पर भोजन किया करेंगे।

"महलों में हमें अब तक आनन्द के ही साधन मिलते आये हैं और हम उनसे अपने उच्चतर कार्यों को भूलते गये, अब हम उन महलों का रहना भी

छोड़ देंगे, राजवेश की भड़क और चकाचौंध से लोगों पर व्यर्थ प्रभाव डालने की घृष्टता न करेंगे, सब भाइयों की तरह मामूली पोशाक, साधारण रहन सहन के साथ कुटिया में जीवन बितावेंगे !"

लोगों पर जैसे वशीकरण मन्त्र का प्रभाव पड़ रहा हो, जैसे स्वर्ग में भी इस दृष्टान्त की लोग आशा न करते हों, जैसे देवताओं में भी इतना बड़ा चरित्र- बल न हो, महर्षियों में भी इतना कठोर त्याग न हो, लोग गम्भीर श्रद्धा की दृष्टि से उस महावीर, महात्यागी की पवित्र वाणी को सुनने लगे ।

"भाइयो, जब तक चित्तौड़ का उद्धार न होगा, तब तक हम किसी प्रकार का उत्सव न करेंगे, कोई त्योहार न मनायेंगे। हमारे सामने जो नगाड़ा बजता हुआ जाता था, अब वह वैसे न बजेगा । अब वह हमारी सेना के पीछे बजा करेगा ।"

महाराणा चुप हो गये सहस्रों व्याकुल कण्ठ महाराणा को धन्यवाद देने लगे । जनता के प्रतिनिधि की हैसियत से सरदार चन्दावत उस मंच पर से उठकर खड़े हो गये और अपने मेघ-गम्भीर कण्ठ से कहने लगे, "भाइयो, महाराणा ने हमारे दुःख कष्टों को दूर करने के लिए जिस कठोर व्रत को ग्रहण किया है, हम इसके लिए अपने निश्छल हृदय से उन्हें धन्यवाद देते हैं। और प्रतिज्ञा करते हैं कि जब तक हमारे शरीर में एक बिन्दु भी उष्ण रक्त बहता रहेगा, हम महाराणा की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेंगे। हमारी जाति के यथार्थं हितचिन्तक महाराणा की रक्षा के लिए हमें जो कुछ भी त्याग करना पड़े, हम सहर्ष उसे स्वीकार करेंगे। देश में जहाँ मर्यादा का पर्दाफाश होता है, जहाँ हमारी बहू-बेटियों के सतीत्व की रक्षा का उपाय नहीं, जहाँ सदा ही हमें सशंक रहकर विचरना पड़ता है, जहाँ हमारे ही- हमारे शत्रु हैं, वहाँ अपने धर्म, देश, मर्यादा, बहू-बेटियों और प्राणों की रक्षा के लिए महाराणा से बढ़कर दुःख में सहायक हमारा और कोई नहीं, हम अपने लक्ष्य तक उसी रास्ते से एकत्र होकर पहुँचेंगे, जिससे हमें महाराणा ले चलेंगे, क्यों भाइयो, क्या इसमें कहीं किसी को कोई सन्देह भी है ?"

"बिलकुल नहीं, बहुत ठीक कहा है आपने, हम अपनी रक्षा का सम्पूर्ण भार महाराणा के हाथों में अर्पण करते हैं।"

सब लोगों ने भक्तिपूर्वक महाराणा को प्रणाम किया। सभा समाप्त की गयी । लोग महाराणा के गुणगान करते हुए आनन्द से अपने-अपने घर पहुँचे और बात की बात में महाराणा के त्याग और प्रतिज्ञा की खबर राज्य में फैल गयी थी। दूसरे हिन्दू राज्यों में भी महाराणा की उदारता और प्रजा वत्सलता की कथाएँ बड़ी तेजी से फैलने लगी ।

षष्ठ परिच्छेद : मान-मर्दन

अब उदयपुर के गगनचुम्बी धवल धामों का रहना महाराणा प्रताप ने छोड़ दिया अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने के उद्देश्य से राजसुखों का उन्होंने तिरस्कार कर दिया है। अब पहले की तरह वस्त्राभूषणों की जगमगाहट नहीं रही, अब बिल्कुल साधारण मनुष्य के वेश में साधारण भाव से रहकर देश और जाति में नवजीवन संचार करने के लिए वे दृढ़प्रतिज्ञ हो रहे हैं। उदय सागर के विशाल तट पर अब उनकी पर्णकुटी की नवीन राजधानी शोभा दे रही है। वहाँ चारों ओर से हिस्र पशुओं की भीषण ध्वनि सुनायी पड़ती है तपस्वी महाराणा के साथ उनकी सहधर्मिणी और उनकी पुत्र कन्याएँ भी हैं, वैसा ही वेश धारण किये हुए, वैसे ही भोजन और वस्त्रों से अपनी तपस्या के दिन पार करते हुए। पति के कार्य को सविध सम्पूर्ण करने के लिए सती, पद्मावती की तपस्या बड़ी ही अद्भुत थी। वे उस महान् परि वर्तन में कभी विचलित नहीं हुईं। उनकी गम्भीरता महाराणा के व्रत में पूर्ण सहायता देती रही। उनका निष्कलंक मुखमण्डल सदा ही अपने बच्चों के सामने प्रफुल्ल रहा करता, जिससे उन अबोध बालकों को अपने दुःख का अनुभव नहीं होता था । घर और गृहस्थी के कार्य में उनकी चारुता देखने ही लायक थी।

इस राजपरिवार के अपूर्वं त्याग के आदर्श ने प्रजाजनों में विस्मय का परिवर्तन पैदा कर दिया। एक अव्यक्त भक्ति का संचार अज्ञातभाव से उनमें होने लगा। जब कभी उन्हें विपत्ति का सामना करना पड़ता, वे महाराणा के त्याग का स्मरण करते और उस विपत्ति का बोझ एकाएक उनके मस्तिष्क से हट जाता। राज्य में घर-घर देशोद्धार की चर्चा होने लगी। लोग अपनी स्त्रियों और बच्चों को भी यही शिक्षा देने लगे। सबके अन्दर स्वधर्म और स्वदेश का विचित्र अनुराग फैल गया। ऐश्वर्य की वासना, भोग की लालसा सबके हृदय से निस्सार स्वप्न की तरह विलीन हो गयी। सब लोग कठोरता को ही अपने लक्ष्य पर पहुँचाने का एकमात्र उपाय समझने लगे ।

उस निर्जन वनभूमि में भी लोगों की भीड़ लगी रहती। पूजा-पाठ, यज्ञ होम आदि समाप्त करके एकत्र होकर सब लोग देश के विगत-गौरव की चर्चा किया करते। बीच में महाराणा प्रताप को बैठाकर देशोद्धार को कल्प नाऐं लड़ाया करते, उनसे उपदेश लिया करते, व्यूह रचना और संगठित सिपाहियों के युद्ध कौशल की शिक्षा ग्रहण करते। देखते-ही-देखते वह एकान्त स्थान, त्याग और वीरत्व का विश्वविद्यालय हो गया ।

एक रोज पद्मावती प्रताप के पास बैठी थीं, पास और कोई न था, बच्चे जंगल में इधर-उधर खेल रहे थे। महारानी ने प्रताप से पूछा, "आज तुम्हें छोड़कर प्रायः और सब राजपूत अकबर के अधीन हो गये हैं, ऐसी परिस्थिति में क्या तुम्हें आशा है कि इस जाति का उद्धार हो सकेगा ?"

प्रताप- "हमें इतना ही अधिकार है कि हम अपने आचरणों को पूरी तरह से निबाहते जायें। हमें किसी दूसरे को शिक्षा देने का अधिकार नहीं है।"

पद्मावती- "यदि शिक्षा देने का अधिकारी ही नहीं, तो यह इतना सब किसलिए करते हो ?"

प्रताप-" अपने लिये । हमारे धर्म का यह बड़ा जटिल रहस्य है सनातन धर्म का अर्थ यही है कि हम अपना कर्त्तव्य पूरा करते रहें, जो कार्य ईश्वर को करना होगा, वे हमारी कर्त्तव्यपरायणता की शक्ति से पूरा करेंगे। हमारी कर्त्तव्यपरायणता की शक्ति ही ईश्वर की शक्ति है, उसमें महान् आकर्षण है, यदि वह सत्य है, देखो, हमारे वंश के मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान्

रामचन्द्र ने कितना महान् कार्य किया, उनके अवतार की शक्ति उनके कार्य से ही प्रकट हुई और उसका आकर्षण भी देखो कि आज इतने दिन हो गये, परन्तु भगवान् रामचन्द्र का आदर्श हमारे अन्दर जीवन का संचार करता जा रहा है।"

पद्मावती-" परन्तु उन्होंने रावण की शक्ति का प्रतिरोध करने के लिए कितनी विशाल बन्दरों की सेना एकत्र की थी, तुम मुट्ठी भर आदमियों को लेकर कैसे अगणित यवनों का सामना करोगे ?"

प्रताप-"बन्दरों की सेना भगवान् रामचन्द्र की ही शक्ति से एक हुई थी, रावण- विजय के केन्द्र वही हैं, पहले उनका सहायक कोई न था, उनकी शक्ति के विकास ने ही इतना महान् रूप धारण किया। हमारे अन्दर उस शक्ति का जितना विकास होगा, उतना बड़ा वाह्य रूप, उतनी बड़ी सेना भी अवश्य ही संगृहीत होगी। यह आकर्षण किसी लोभ या लालच का नहीं, इसमें प्राणों की पुकार है। यदि सेना एकत्र न हो तो, क्या हमारा यह कर्त्तव्य होगा कि हम अपना धर्म ही छोड़ दें, मुसलमानों की अधीनता कर लें ? देखो, यहीं लालसा और भोग का रूप आता है। हम मुसलमानों से क्यों मिलें ? -धर्म क्यों छोड़ें ? - अर्थात् अपने को दुर्बल समझें, सुख की तलाश में फिरें, यही है न अधर्म, यही है। यहीं हमें अपने यथार्थ कार्य का पता चलता है अपने धर्म में मर जाना भी अच्छा, परन्तु दूसरे का धर्म कदापि ग्रहण न करना चाहिए, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की वाणी का सत्य अर्थ यहां खुल जाता है।"

पद्मावती-"यदि तुमसे राजपूत राजा ही लड़ने के लिए आवें, तो तुम क्या करोगे ? अपने भाइयों का संहार करोगे ?"

प्रताप- " वे मेरे भाई नहीं, वे मेरे शत्रु हैं और मुसलमानों से भी भयंकर हमारा धर्म बड़ा ही गहन है। देखो, जो लोग अकबर से जा मिले हैं, उनके मिलने का कारण भी सोचो, वे जिस तरह अपने को धोखा देते हैं, उसी तरह दूसरों को भी धोखा देना चाहते हैं, उनके भीतर तो भरा है भय, लालसा, भोग, ऐश्वर्यमद। परन्तु बाहर वे अपनी प्रजा को समझाते हैं कि तुम्हारे प्राणों की रक्षा के लिए तुम्हारे धन को लुटने से बचने के इरादे से हम बादशाह से मिले हैं, उन्हें अपनी लड़कियाँ दी हैं, कितनी नीचता है ! जिसकी दृष्टि इतनी बहिर्मुख है, वह क्या हमारे धर्म को समझेगा ? हमारे धर्म में कहीं भी प्राणों की माया नहीं की गयी, जहाँ प्राणों पर कुछ भी प्रेम है, वहाँ हमारा पवित्र धर्म भी नहीं, फिर क्षत्रिय-धर्म का आदर्श तो बहुत ही महान् है ।"

पद्मावती-"अभी अच्छी तरह नहीं समझी।"

प्रताप-"प्राणों पर विजय प्राप्त करना ही हमारे धर्म की शिक्षा है । ब्राह्मण तपस्या के बल से, क्षत्रिय शौर्य से, वैश्य दान से और शूद्र सेवा से विजय को प्राप्त करते हैं। चारों के कर्म तो अलग-अलग हैं, परन्तु लक्ष्य चारों का एक ही है। देखो, युद्ध के समय यदि हम पीठ दिखायें तो जैसे मरने से डरे, वैसे ही धर्म से पतित हुए। यदि तुम अपने पति का संग एक मुहूर्त के लिए श्री छोड़ दो, तो जैसे पति से अलग रहकर किसी दूसरे सुख की कामना तुम्हारे मन में हुई हो, इसलिए तुम सती-धर्म से गिर गयीं, इस विचार से ही कहा गया है कि पति-पत्नी का सम्बन्ध चिरकालिक है, पति के न रहने से. पत्नी उसकी कामना करके स्वर्ग लोक में तत्काल उससे मिले, इससे सिद्ध है कि तुम्हें प्रेम के पीछे प्राणों की बलि देने की ही शिक्षा दी गयी है। इसी तरह प्राणों का मोह छोड़ने के बाद धर्म की व्याख्या होती है। जो राजपूत राजा हमारा विरोध करने के लिए आयेंगे, वे अनायं धर्मवाले हैं, एक धर्म निष्ठ को धर्म-भ्रष्ट करने से बढ़कर पाप दूसरा नहीं। इसलिए हम उनका संहार करेंगे, हमें कुछ भी संकोच न होगा।"

पद्मावती-"तुम्हारा साथ देनेवाले इस समय कौन-कौन हैं ?"

प्रताप-"कोई नहीं, हमारे राज्य के सरदारों को छोड़कर। मारवाड़, बीकानेर, अम्बर, अजमेर सब के सब अकबर से जा मिले हैं। राजपूताना राजपूतविहीन हो रहा है। एक-एक करके सब राजाओं ने अपना धर्म, देश और अपनी आत्म-मर्यादा अकबर के हाथों सौंप दी है !"

पद्मावती-"पहले तो ऐसा न हुआ था, इस अकबर के समय में कैसे हो गया ?" प्रताप - "अकबर बड़ा ही चतुर है, वह मिलाकर मारता है। अभी तक मुसलमान अपने ही धर्म की श्रेष्ठता साबित करते आये थे, हमारे धर्म को घृणा की दृष्टि से देखते थे, इसलिए राजपूतों से मेल न हुआ था, परन्तु अकबर ने एक दूसरी माया फैलायी है, वह सब धर्मों में सत्य के देखने का ढोंग करता है और राजपूत राजाओं को दिखावटी स्नेह के जाल में फांसकर उन्हें वश में ला रहा है।'

पद्मावती-" मुगलों के चरणों में अपनी स्वाधीनता की डाली चढ़ाने वाले उन कुलांगार राजपूतों को अलग कर देने से यहाँ और कितने राज घराने रह जाते हैं, जिनसे विवाह का सम्बन्ध रखा जा सके ?"

प्रताप-"एक भी नहीं, परन्तु यह निश्चय है कि सिसोदिया वंश का सम्बन्ध अब उन कुलकलंक पिशाचों से कदापि न होगा। हमारे वंश का दीपक चाहे भले ही न रहे, परन्तु प्रकाश धुंधला न हो पायेगा।"

इसी समय प्रताप को एकाएक खबर मिली कि उनका आतिथ्य ग्रहण करने के उद्देश्य से महाराजा अम्बरपति मानसिंह आये हुए हैं।

सुनकर प्रताप कुछ आश्चर्यचकित हुए। कुछ देर तक सिर झुकाये विचार करते रहे अन्त में एक निश्चय पर पहुँचकर कहा, "महाराज मानसिंह आये हुए हैं, अच्छा, कुमार अमरसिंह को भेजो ।"

दूत चला गया। अमरसिंह को उसने महाराणा की आज्ञा सुना दी। अमरसिह अपने साथियों से वार्तालाप कर रहे थे। तत्काल महाराणा के पास पहुँचे प्रणाम कर एक ओर खड़े हो गये। प्रताप ने कहा, "सुना है अमर महाराज मानसिंह आये हुए हैं, अतिथि होकर, भगवानदास के नामी सपूत जिनकी बहन से जहाँगीर का विवाह हुआ है !"

"हाँ, वही !" प्रताप ने गम्भीर होकर कहा, "अमर, क्या शोलापुर पर मुगलों की विजय हुई है ?"

"मुगलों की तो नहीं हुई, हाँ मानसिंह की हुई है।" अमरसिंह ने सविनय उत्तर दिया।

"राजपूतों का कलंक, शायद अपनी विजय का गर्व दिखलाने के लिए आया है।" पद्मावती ने घृणा से कहा।

"हाँ, बादशाह की कीर्ति-पताका का प्रभाव दिखलाना इसका उद्देश्य अवश्य होगा, परन्तु हमें इस समालोचना से कोई काम नहीं, जिस अभिप्राय के साथ वे आये हैं, उसी की पूर्ति हमें करनी चाहिए।" महाराणा ने गम्भीरता पूर्वक कहा, "देखो, अमर, हमारा धर्म है कि हम यथाशक्ति उनकी अभ्यर्थना करें, अतिथि का यथोचित सत्कार करें। जाओ, अपने सहायक मित्रों के साथ उनके रहने और भोजन-पानी आदि का उचित प्रबन्ध करो। जब तक उनका भोजन न हो जाय, हमें न बुलाना। अभी तो उनके स्वागत के लिए ही जाते हैं, परन्तु मिलकर ही चले आयेंगे, कुल प्रबन्ध तुम्हें ही करना होगा।"

अमरसिंह चले गये महाराणा भी इधर मानसिंह के स्वागत के लिए अपने कुछ सरदारों को साथ लेकर चले।

मानसिंह जिस जगह महाराणा की प्रतीक्षा कर रहे थे, वह स्थान कमलमीर के बिल्कुल पास ही था प्रताप राजकुलोचित शिष्टाचार के साथ महाराज अम्बरपति से मिले और उनके इस परिश्रम के लिए बारम्बार धन्यवाद दिया ।

मानसिंह ने भी मुगली सभ्यता की काफी शब्द जाल रचना की, कहा, "इससे उत्तम अवसर शायद मेरे भाग्य में कभी आया ही नहीं, आज में सिसोदिया वंश के उज्ज्वल रत्न महाराणा प्रताप से मिल रहा हूँ, महाराणा का व्यक्ति महत्त्व और वंश महत्व भारतवर्ष में किसे मालूम न होगा? मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि आज मेरे हृदय की चिरकाल की अभिलाषा पूरी हुई।"

महाराणा प्रताप ने नम्रता से कहा, "मेरा परम सौभाग्य है कि अम्बर नरेश श्रीमान् मानसिंह ने मेरे यहाँ पदार्पण करने का कष्ट स्वीकार किया। उनकी उदारता का इससे बढ़कर और क्या प्रमाण होगा ? बिना प्रार्थना के ही मुझे सौभाग्य मिला, यह महाराज की ही महत्ता है।"

मानसिंह को बड़े आदर यत्न से महाराणा अपने यहाँ ले आये, उधर उनके टिकने का समुचित प्रबन्ध महाराणा कुमार अमरसिंह ने कर ही रखा था। मानसिंह अपने साथियों सहित आनन्द से उसी भवन में ठहरे।

अमरसिंह के प्रबन्ध से मानसिंह के भोजन आदि की तैयारी उदय सागर के तट पर ही बड़े समारोह से की जाने लगी। वेनीस का ही रूपक खड़ा कर दिया गया तालाब के चारों ओर पानी के ऊपर घाट बँधवा दिये, अनेक प्रकार के पत्र-पुष्पों के तोरण द्वार बनवाये गये, उनमें झालरें लगी, बड़े-बड़े झाड़ और फानूस टांगे गये, चारों ओर रोशनी की जगमगाहट से विचित्र शोभा फैल गयी। फर्श पर सोने और चांदी के अगणित बर्तन रक्‍खे हुए थे, जिनकी प्रभा से दर्शकों की आँखें चकाचौंध हो रही थीं। लोगों के चेहरे पर एक अद्भुत चंचलता थी, गलती न हो, इसके लिए जैसे हजार आँखें हमेशा सतर्क हों ।

मानसिंह साधारण मनुष्य न थे। वे बादशाह अकबर के दाहिने हाथ थे मानसिंह न होते तो अकबर का इतना प्रभाव इतिहासकारों की दृष्टि में शायद ही रहता । अकबर के समय में जितनी लड़ाइयाँ मुगलों ने फतह कीं उनमें अधिकांश मानसिंह की ही जीती हुई थीं, और ये अकबर वही अकबर हैं, जिन्होंने चित्तौड़ का समूल ही नाश कर दिया, महाराणा प्रताप के जो प्रबल प्रतिद्वन्द्वी हैं, मेवाड़ की स्वतन्त्रता के प्रधान शत्रु । उधर मानसिंह राजपूत हैं, विधर्मियों से वैवाहिक सम्बन्ध करनेवाले, हिन्दू-सभ्यता और हिन्दू कीर्ति का नाश करके मुसलमानों का गौरव बढ़ानेवाले। इन अनेक कारणों से यह अतिथि सत्कार विशेष महत्त्व रखता था, और उसकी पूर्ति भी उसी तरह से की जा रही थी। जब से महाराणा ने व्रत ग्रहण किया था, तब से उनका जीवन एक तपस्वी का जीवन हो रहा था; वे फल-फूल और साधारण भोजन करके ही दिन पार कर रहे थे, उनके साथ उनके परिवारवाले और उनकी प्रजा भी सुख की कल्पना छोड़ चुकी थी। किन्तु यहाँ मानसिंह के लिए सभी सामान तैयार किया गया था और विलासी मानसिंह के भोजन के लिए राजसी प्रबन्ध हुआ था ।

सब सामान तैयार हो गया। कुमार अमरसिंह महाराज मानसिंह को भोजन करने के लिए बुलाने गये। इधर चारों ओर आसन लग गये और लोग महाराज मानसिंह के आने की बाट जोहने लगे। सब लोग बड़े अदब कायदे से खड़े प्रतीक्षा कर रहे थे।

राजसी ठाट-बाट से महाराज मानसिंह कुमार अमरसिंह के साथ उस सजे हुए घाट पर आये । सजावट देखकर बहुत प्रसन्न हुए। वार-वार महा राणा को धन्यवाद देने लगे और शिष्टाचार दिखाने के विचार से विनीत शब्दों में, - इतने समारोह की क्या जरूरत थी, बार-बार कहने लगे। मान सिंह के साथी भी उनके स्वर में स्वर मिलाकर कुमार अमरसिंह को हर तरह से सन्तुष्ट कर रहे थे।

मानसिंह अपने साथियों के साथ आसन पर बैठ गये। सबके सामने थालियाँ रख दी गयीं। सब लोगों ने आचमन किया, अपने-अपने इष्टदेव के नाम से अग्रभाग निकाल दिया।

मानसिंह इस समय कुछ चिन्तित से हो रहे थे। वे महाराणा प्रताप से किसी शिष्टाचार के विचार से मिलने नहीं आये थे। उनका उद्देश्य कुछ और ही था। उनका भीतरी मतलब उनके साथी भी नहीं जानते थे मानसिंह को मुगलों के साथ रहकर धूर्तता की खासी आदत पड़ गयी थी। कितने ही राज्यों को उन्होंने धोखा दिया। राजनीति के वे मशहूर ज्ञाता थे। अपने समय के वे प्रसिद्ध कुटिल मनुष्य थे। उन्होंने सोचा था कि इस वार महा राणा से मिलकर अपनी चालाकी और दिखावटी प्रेम के प्रभाव से प्रताप सिंह को धोखा देकर अपना मतलब अच्छी तरह गाँठ लूंगा। बात यह थी कि जब से जहाँगीर के साथ उन्होंने अपनी बहन की शादी की थी, तब से राजपूतों की दृष्टि में वे गिर गये थे। और सब तरह की प्रतिष्ठा तो वे प्राप्त कर चुके थे, परन्तु सामाजिक श्रेष्ठता उन्हें नहीं मिली, बड़े-बड़े नामी घराने के क्षत्रियों ने उनके साथ खान-पान बन्द कर दिया था। इसके लिए अकबर भी कुछ न कर सकते थे। क्योंकि वे खुद अपना उल्लू सीधा कर रहे थे, उन्हें किसी दूसरे के दर्द की क्या फिक्र थी। दूसरे उन्होंने पहले ही से घोषणा कर रखी थी कि किसी के धर्म में हस्तक्षेप हम न करेंगे, इस घोषणा के कारण किसी राजपूत पर वे धार्मिक दबाव न डाल सकते थे, किसी से कह न सकते थे कि तुम मानसिंह के यहाँ भोजन करो, इससे उन्हें कोई लाभ भी न था, बल्कि राजपूतों के लड़ जाने से उन्हें नुकसान ही था। वे पहले तो प्रवर्तक होने का कुछ गर्व रखते थे, परन्तु पीछे से उन्हें हार्दिक कष्ट हो रहा था, सामाजिक शक्ति की सत्ता स्वीकार करने लगे। अस्तु, समाज के लोगों में मिलने के लिए उन्होंने यही उत्तम सोचा कि प्रताप से यदि किसी प्रकार से भोजन-पान का सम्बन्ध हो जाय तो जातिवालों पर इसका गहरा प्रभाव पड़े बिना न रहेगा। इस समय प्रताप जैसा वंश-मर्यादा में श्रेष्ठ राजपूत और कोई नहीं। वे एक धूर्तता से प्रताप से मिलना चाहते थे। उन्होंने सोचा,-'मेवाड़ की इस समय बड़ी खराब हालत है, चित्तौड़ के नष्ट होने के बाद से सिसोदिया वंश निर्जीव हो रहा है, यदि शोलापुर-विजय के पश्चात् महा राणा के यहाँ जाऊँगा तो इस विजय का प्रभाव अवश्य महाराणा पर पड़ेगा और अपने राज्य को अकबर के ग्रास से बचाने के लिए वे अवश्य ही मेरे सामने विनयपूर्वक पेश आयेंगे, और उस समय इन्हें निश्चिन्त रहने का मौका हासिल कर लूंगा, यदि प्रताप के साथ भोजन-पान का प्रबन्ध हो गया तो जाति के सब लोगों पर इसका प्रभाव पड़ेगा और मेरी गयी हुई सामाजिक प्रतिष्ठा आ जायगी।'

लेकिन जब भोजन के लिए आसन पर बैठे, तब उनकी कल्पना की कच्ची दीवार आप ही ढह गयी, एकाएक कलेजे में तीर-सा आकर चुभ गया, अभिमान की ज्वाला में तमाम बदन धधक उठा। उसी आग में जलते हुए अमरसिंह से उन्होंने कहा, "क्यों कुमार, तुम्हारे पिता अभी नहीं आये, उनके बिना हम कैसे भोजन करें ?"

अमरसिंह ने आँखें नीची किये हुए उत्तर दिया, "आप भोजन कीजिए, वे आते ही होंगे, कोई विशेष कारण होगा, शायद इसीलिए उन्हें रुक जाना पड़ा।"

मानसिंह ने कुछ देर और प्रतीक्षा की। उनका धैर्य जाता रहा। आवेश और उत्कण्ठा में भरकर कुछ रूखे स्वर से उन्होंने कहा, "महाराणा का यही अतिथि सत्कार है ? इतनी देर हो गयी और न आये।"

विनयपूर्वक महाराणा के मन्त्री ने कहा, "महाराज, इतने अधीर न हों, महाराणा की तबीयत अच्छी नहीं होगी, नहीं तो अब तक वे अवश्य आ गये होते । आदमी भेजा है, अभी महाराज को खबर मिल जायगी।" मानसिंह कुछ देर बैठ रहे। उनके साथी भूख के मारे हैरान हो रहे थे, यह प्रसंग उन्हें बिल्कुल न सुहाया, वे मानसिंह पर मन-ही-मन बिगड़ रहे थे ।

मानसिंह उठ खड़े हो गये। उनके साथियों ने भी उनका अनुसरण किया । अपमान के विचार से मानसिंह का चेहरा उतर रहा था। उन्होंने गम्भीर स्वर में कुमार से पूछा, "क्यों कुमार, कोई खबर आयी ?"

"पिताजी तो सिर-दर्द से बेचैन है।" विनयपूर्वक अमरसिंह ने उत्तर दिया।

सावन की अँधेरी रात में तालाब का पानी जिस तरह घोर काला-ही काला हो जाता है, उसी तरह मानसिंह की चेष्टा भी भयावनी हो गयी। प्रतिहिंसा के कारण तमाम देह काँपने लगी। काल की गति तीव्र हो गयी। मानसिंह ने सूखे गले से कहा, "सिर-दर्द का कारण हमारी समझ में आ गया। ईश्वर करे, उनका सिर जल्द अच्छा हो। इसकी दवा हमें भी मालूम है। यथाशक्ति हम बहुत शीघ्र इसकी दवा करेंगे; चलने से पहले हम एक वार अपनी आंखों महाराणा की हालत देखकर जाना चाहते है।" विषाक्त सर्प फन खोलकर खड़ा था, परन्तु दूसरी ओर भी काफी जहर था, वह चोट नहीं कर सका।

"मैं महाराणा को आपकी आज्ञा अभी चलकर सुनाता हूँ, आप कृपा करके कुछ देर ठहरिए।" कुमार ने विनयपूर्वक कहा।

"हाँ! अपनी आंखों देखकर जाइए, अम्बर नरेश !" कहते-कहते महा राणा मूर्तिमान धैर्य की तरह अपने शरीर रक्षकों को साथ लिये हुए गर्वित मानसिंह के सामने आकर खड़े हो गये। सब लोग बुद्धिरहित हो, महाराणा की उदार गम्भीर मूर्ति को कुछ देर तक एकदृष्टि से देखते रहे।

मानसिंह- " अतिथि सत्कार की अच्छी विधि रही यहाँ महाराणा ।" " त्रुटि क्या हुई कुछ समझ में न आया राजा साहब, कहिए ?" महाराणा ने उतनी ही मात्रा में कहा।

"मुझे शायद आपने अपने राज्य का किसान समझ लिया था ?" मानसिंह ने घृणा से नाक-भौं सिकोड़कर कहा।

"मेरे किसानों की महत्ता आप न समझेंगे। मैंने आपको भारत प्रसिद्ध मानसिंह ही समझा था और आपका स्वागत भी तदनुसार ही किया। आप मुझे अपनी और किस सेवा में लाना चाहते थे ?" महाराणा ने शान्त भाव से कहा ।

"खूब स्वागत किया आपने घर बैठे हुए। मुझे स्वागत की यथेष्ट शिक्षा दी !" विरक्ति से मानसिंह ने कहा।

"मेरा पुत्र मेरे राज्य का उत्तराधिकारी आपकी सेवा में मौजूद था, अम्बर-नरेश !"

"वह बालक है, प्रताप!''

"प्रताप व्रती है मानसिंह !"

"व्रत ग्रहण मेरे स्पर्श से न छूट जाता, प्रताप !"

"मानसिंह ! तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है। संस्पर्श दोष किसे कहते , अब तुम न समझोगे । मुसलमानों की अभेद मित्रता ने तुम्हारे उस भाव को नष्ट कर दिया है। धर्म की शिक्षा तुम्हें नहीं मिली। मानसिंह ! तुम हिन्दू के वेश में म्लेच्छ हो गये हो, तुम्हारे विचार इसीलिए असंस्कृत हुआ करते हैं। यदि मेरी रुचि तुम्हारे साथ भोजन करने की न हो, तो तुम्हें क्या अधिकार है कि तुम इस तरह के अनुचित शब्दों का प्रयोग करो ? यह अधि कार तुम अकबर से प्राप्त कर सकते हो, जिसके सुपुत्र से तुमने अपनी बहन की शादी की है, मानसिंह ! अभी दो पीढ़ियां भी नहीं बीतीं, तुम शुद्ध क्षत्रिय थे, आज मान के घमण्ड ने तुम्हें अन्धा कर दिया है, तुम समझते हो तुम्हारे सम्मान से डरकर वीर क्षत्रिय तुम्हारे साथ भोजन कर लेगा ! आज अम्बर का इतिहास, चित्तौड़ का इतिहास होता, सहस्रों राजपूत तुम्हारे छोड़े हुए अन्न को प्रसाद की तरह ग्रहण करते । यदि तुम्हें अपने वंश का कुछ भी गौरव होता, तो आज दिल्ली के तख्त पर अकबर की सत्ता न रहती, वहीं राजपूत दिखलायी पड़ते !"

"कल्पना से सत्य बिल्कुल पृथक है प्रताप, कुछ ओजस्वी शब्दों के सहारे कभी जीवन का निर्वाह नहीं होता। यह अदूरदर्शिता है। मुसलमानों को कई शताब्दियाँ इस देश में राज्य करते हो गयीं । अब उनसे सम्बन्ध करना ही धर्म है । धर्म एक है। मनुष्य मात्र से मनुष्य का सम्बन्ध हो सकता है प्रताप ।" मानसिंह ने गम्भीर होकर कहा ।

"अपनी कमजोरियों को इस तरह से छिपाते हो मानसिंह ! तुम्हारे वाग्जाल को साधुवाद है ! शायद यह भी अकबर के संग का फल है और अपने को धोखा देने के पाप से शायद निश्चल भी इसीलिए हो। सहयोग की बात जो तुमने कही, यह किसी हद तक मान्य है । परन्तु सहयोग कभी एक तरफा नहीं हुआ करता । बादशाह ने तुम्हें या तुम्हारे किसी घराने को मुगल-लड़कियां दी ? यह वैसा ही सम्बन्ध है, जैसे मालिक और गुलाम में हुआ करता है। इस सहयोग की इतनी वैज्ञानिक व्याख्या वाहियात है, मानसिंह, अपनी भावना को देखो !"

"प्रताप को सभ्यतापूर्वक वार्तालाप करना भी नहीं आता, यह मालूम न था।"

"और वह सभ्यता भी तुर्की-सभ्यता होगी !" प्रताप हँसे ।

"प्रताप, तुम अवश्य ही समझते होगे आज तुम जिसके साथ इतने स्वच्छन्द भाव से वार्तालाप कर रहे हो, वह कौन है ?"

"एक मुगलों का गुलाम, कुल का कलंक, धर्म का नास्ति, देश की आग, अकबर की छुरी और जहाँगीर का-।"

"महाराणा- " मन्त्री ने रोक दिया।

"याद रखना प्रताप इन शब्दों को। उत्तर कभी दूंगा।"

"प्रतीक्षा रहेगी, मानसिंह !"

सप्तम परिच्छेद : दिल्ली-दरबार

एक नवयुवक घोड़े पर चढ़ा, प्रचण्ड धूप बरदाश्त करता हुआ उद्देश्य से रहित मुरझाया हुआ-सा जा रहा है। चिन्ता की कालिमा तमाम मुखमण्डल पर छायी हुई युवक की परिस्थिति का परिचय दे रही है। नियति के निर्भय कराघात से जैसे उसका सम्पूर्ण जीवन जर्जर हो गया हो, शीत की कठोरता की मार न सह सकने के कारण जैसे कोमल पल्लव मुरझाकर अन्तिम साँस भर रहा हो । युवक अन्यमनस्क हो रहा है, मानो तमाम विश्वप्रकृति उसके साथ असहयोग करने के लिए तुली हुई है, जहाँ कहीं वह सफल मनोरथ होने को सहायता प्राप्ति के लिए जाता है, वहीं से प्रकृति की कठोर उद्दण्डता के कारण उसके पैर उखड़ जाते, उसे आश्रय नहीं मिलता, वह उज्ज्वल आकाश की निस्सीम शून्यता को एक वार उदास दृष्टि से देखकर आँखें नीची कर लेता । अपने सुख-समृद्धिवान् जीवन के पिछले वर्ष की याद करके वर्तमान समय की बदली हुई अवस्था पर विचार जब करता है, सृष्टि एक दूसरे ही रूप में उसके पास आकर खड़ी हो जाती है, उसके साथ पूर्वसमय का कोई चिह्न नहीं रहता ।

युवक सोच रहा है, घोड़ा निर्लक्ष्य रास्ते पर धीरे-धीरे चला जा रहा है, 'अब क्या करना ठीक होगा ? जिस किसी तरफ दृष्टि जाती है, कहीं भी तो भोजन-वस्त्र का उपाय दृष्टिगोचर नहीं होता, और राजपूत महाराज के यहाँ जाऊँ भी किस तरह जब कि गुलाम हैं, वे- क्या करेंगे मेरे लिए ? बदनामी होगी, इससे तो मर जाना लाख दर्जे अच्छा है। मरूं ? नहीं, क्यों मरूँ ? आत्मघात महापातक कहा गया है। फिर ?"

युवक ने आँख उठाकर देखा, कुछ लोग सामने से आते हुए दीख पड़े, एकाएक युवक की विचारधारा पलट गयी। लोगों से उसने पूछा, "क्यों भाई, दिल्ली का रास्ता यही है ?" "हाँ !"

युवक ने एक बार उन लोगों को अच्छी तरह देखा। उसने उन लोगों से दूसरा प्रश्न न किया, शायद अपनी उच्चता के विचार से उसने एक बार आकाश की ओर देखा, ठीक दोपहर था, उसने सामने देखा, गौर से देखता रहा, फिर कुछ तेजी से घोड़ा बढ़ाया ।

एक पेड़ की डाल से घोड़े की लगाम बाँध दी और खुद एक पत्थर पर पेड़ की छाया में बैठ गया, सोचते हुए आप ही उसका सिर घुटने से लगी हुई दोनों हथेलियों के बीच में आप ही आकर रखा गया। जब होश में आकर उसने आँख उठायी, तब दोपहर ढल चुका था। एक सांस छोड़कर वह उठा, पास के तालाब में घोड़े को पानी पिलाया और फिर उसी तरह उसे बांधकर उस शिला पर जा बैठा चिन्ता का तार खिचता-खिचता जैसे समाप्त ही न होता हो और इससे वह और परेशान हो रहा हो। ललाट की सिकुड़नें, गाल और होंठों की आकुंचित मुद्रा उसकी विरक्ति के प्रकट चिह्न थे। विश्राम से जैसे और जी ऊब रहा हो। उस समय की तिरस्कृत चिन्ता द्वारा किये गये प्रबल आक्रमण के कारण, युवक ने डाल से लगाम खोल ली और फिर घोड़े पर सवार हो गया।

'कितना बड़ा अन्याय है ? अधिकार के मद में मनुष्य अपनी शक्ति का कितना दुरुपयोग करता है ? और यही एक शक्ति किसी दूसरी जाति का गला घोंटती; दूसरी जाति के बच्चों को नेस्तोनाबूद कर देती, अपनी जाति के अहंकार का झण्डा ऊंचा उठाती, उस समय विजयी जातिवाले उस शासक की स्तुति-वन्दना करते, उसे देवता से भी श्रेष्ठ मानते हैं। और जब दूसरी जाति के पदाघातों से उनकी अपनी स्वतन्त्रता की रंगभूमि भूमिसात हो जाती है, बालकों के चीत्कार से आकाश गूंज उठता है, तब दूसरे की विजय का यथार्थ सम्मान करना, उसे न्याय पुरस्कार देना वे भूल जाते हैं।' युवक सोच रहा है।

"तुम भ्रम कर रहे हो; सत्य की परीक्षा इसे नहीं कहते; जिस तरह मनुष्य-धर्म है, उसी तरह एक जाति-धर्म भी है; विचार जाति-धर्म से करो, 'स्वधर्मे मरणं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।' सोचो; एक जाति दूसरी जाति को सताती है; उसे अपना गुलाम बनाती है; उसका सर्वस्व लेकर बदले में उसे कुछ भी नहीं देती; उसके सम्राट के आसन पर बैठकर उसकी शिक्षा और भोजन-वस्त्र का उपाय नहीं करती; वह जाति हरगिज वरेण्य नहीं हो सकती; उससे लड़नेवाली जाति उसकी नीचता का ही विरोध करती है। येन-केन प्रकारेण; आदर्श भी यही है; होना भी ऐसा ही चाहिए; अपनी उन्नति के लिए करना भी यही श्रेयस्कर है।" किसी ने युवक के कान में बड़े प्रभाव शाली स्वर से कहा।

एक वार उसे चक्कर- सा आ गया; वह कुछ स्थिर भी हुआ; परन्तु उसकी प्रकृति इससे सहमत नहीं हो सकी; उसने फिर विरोध किया, "वाह ! तमाम विराट प्रकृति अच्छेद्य भाव से एक-दूसरे को गंधे हुए हैं; कीट से लेकर प्रत्येक मनुष्य तक उस एक ही धागे में पिरोये हुए हैं; इस विचार से विरोध किसी भी प्रकृति का न करना चाहिए। चाहे वह विजातीय भी क्यों न हो; इस विरोध को दुर्बलता ही समझना चाहिए।"

" समाज में इस तरह की दुर्बलता का होना अनिवार्य है; यदि सुख के नाम से कोई चित्र होगा भी तो दुःख के आकार की कोई वस्तु होगी, पारस्परिक विरोधी भावों के बिना कभी प्रगति हो नहीं सकती; उत्थान और पतन, विद्वत्ता और मूर्खता, विजय और पराजय इस तरह के ही चित्रों से संसार, जाति, एक और अनेकों की व्याख्या हो सकती है; जब तक तुम कुछ बोल नहीं सकते हो, सोच सकते हो, अपने कर्त्तव्य का विचार कर सकते हो, तब तक तुम्हें इन दोनों को स्वीकार करना होगा।" फिर युवक को उसी तरह पुरजोर उत्तर मिला।

उसने सोचा, 'तो मैं क्यों अपने अपमान का बदला न लूं, चाहे जिस तरह से हो, पाप और पुण्य, धर्म और अधर्मं तो सब लगे ही हुए हैं।' "पाप का आश्रय लेना शास्त्र का विरोध करना है। पाप का आश्रय लोगे तो समाज से तुम पतित, होगे, समाज के शब्दार्थ का उस तरह से विरोध होता है, समाज, समाज नहीं रह जाता। समाज तो वही है, जिसमें तुम्हारी सम्यक् उन्नति हो, शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक और आध्या त्मिक हमने जो पहले यह कहा है कि धर्म के साथ अधर्म का होना अनिवार्य है, उसके ये अर्थ नहीं हैं कि अधर्मं जानबूझकर किया जाय, इस तरह दृष्टि अधोमुखी हो जाती है, लक्ष्य से च्युत होकर पतित होना पड़ता है। वहाँ अधर्म की व्याख्या सिर्फ इसलिए है कि वह द्वैत का समर्थन करती है; तुम्हारी जाति के सर्वोच्च लक्ष्य में यह धर्माधर्म कुछ भी नहीं है, परन्तु समाज को उस जगह तक ले जाने के लिए पतन के अवश्यम्भावी होने पर भी, उन्नति उसका लक्ष्य रखा गया है, तुम अपने मनुष्यत्व के बल से बढ़ो।"

युवक का मस्तिष्क तप्त हो उठा, निश्चय जाता रहा, विक्षिप्त की तरह वह फिर संसार में शून्य अन्धकार-ही-अन्धकार देखने लगा ।

इस तरह के मानसिक प्रश्नोत्तरों की विचित्र परिस्थिति में विक्षुब्ध युवक को कई दिन हो गये । वह रास्ता पार करता जा रहा है। वारम्वार उसकी अन्तःप्रकृति उसे उसके लक्ष्य से हटाने की चेष्टा करती थी, परन्तु बाहर पंकिल प्रकृति को ही युवक महत्त्व देता और उसी के बल पर भरोसा रखे हुए जीवन के दीपक को अनिर्वाचित रखने के इरादे से कल्पना की आड़ लेकर बढ़ता चला जा रहा है।

"क्यों भाई, दिल्ली अभी कितनी दूर है ?" युवक ने पूछा।

"बस आ गये, आज शाम तक पहुँच जाजोगे, कौन हो ?"

"मैं राजपूत हूँ !" युवक ने परीक्षा की दृष्टि से मुगलों को देखा।

"नौकरी करोगे ?"

"हाँ, कुछ ऐसा ही विचार है।"

"साफ खुलकर क्यों नहीं कहते ?"

"और कितना साफ सुनना चाहते हो ?"

"आखिर को गंवार ही ठहरा।" मुगल ने लापरवाही से कहा ।

'शठे शाठ्यं समाचरेत् ।' युवक ने सोचा।

"क्या सोचता है बे !" मुगल ने मुस्कुराकर घमण्ड से कहा ।

युवक की निगाह बदल गयी दायें-बायें देखा, कहीं कोई न था सामने देखा रास्ता साफ नजर आया। एक तेज निगाह मुगल पर डाली। मुगल ने तलवार के कब्जे पर हाथ लगाया। "कुछ होसला भी रखता है ?" मुगल ने युवक की ओर सामने ही घोड़ा बढ़ाया

"अच्छा, हे ईश्वर!" एक बार फिर आकाश की ओर ताककर युवक ने तलवार फुर्ती से निकाल ली। कुछ ही समय में मुगल सैनिक का शरीर निष्प्राण हो गया। युवक ने तेजी से घोड़ा बढ़ाया।

राजपूत युवा के अशान्त मन को इस घटना ने और भी चंचल कर दिया। अब तक हृदय में निराशा की मलिनता थी; अब प्राणों का भय समा गया। रह-रहकर अपराधी की दृष्टि से आगे-पीछे देखकर युवक घोड़ा बढ़ाने लगा। किसी को सामने से आते हुए देखकर एक वार प्राणों में खलबली मच जाती, हृदय काँप उठता। उसकी यह चिन्ता, दुख, भय और शंका को ढंकने के लिए ही मानो शत शत प्रार्थनाओं के पश्चात् भगवान सूर्यदेव अस्ताचल की ओर अग्रसर हुए। पृथ्वी पर अँधेरा छा गया। युवक ने दिल्ली में प्रवेश किया।

युवक सीधा महाराज मानसिंह के डेरे पर पहुँचा। परिचय पा महाराज मानसिंह ने युवक को बड़े आदर यत्न से रखा। दूसरे दिन दरबार ले चलने का वचन भी दिया। हृदय में एक-दूसरे प्रकार का आनन्द अनुभव हुआ जैसे एक असम्भव प्रश्न के हल होने की सम्भावना दीख पड़ती हो ।

एक ही दिन के बाद उस युवक में जो आकस्मिक परिवर्तन हुआ, देखकर उसके आश्चर्य की सीमा न रही। अब किसी कर्मचारी से मुलाकात होती है, तो नजर आप ही झुक जाती है, पहले का गवं न जाने किस अनजान शक्ति ने नष्ट कर दिया। न वह आत्म गौरव रहा, न वह पहला अभिमान मन्त्र की तरह युवक अपने परिवर्तन को देखता जा रहा है। इस समय भी उसके पूर्वाजित संस्कार उसे सावधान कर रहे हैं; जीविकार्जन के लिए अन्य उपाय निकालकर चलने का इशारा कर रहे हैं; पर उसके स्वाभिमान की वक्रता की ही विजय होती गयी। धर्म को उसने ढोंग करार दिया। जाति के अभिमान को उसने व्यर्थ का ढकोसला समझा। संसार को अपना स्वायं निकालनेवाला नीच सिद्ध करता गया। कहीं भी जैसे दया, प्रेम, मैत्री, करुणा, त्याग और परोपकार का अस्तित्व न हो, बल्कि ये स्वार्थ-साधना के ही एकाएक आकर्षक रूप हों। इस समय उसके हृदय में घोर रजोगुण का राज्य हो रहा है, अपने बाहुबल से वह संसार को दिखा देना चाहता है कि एक असहाय मनुष्य भी अपनी शक्ति और सामर्थ्य से उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है। जिस समय से मुगल बादशाह से मिलने की सूचना उसे मिली, वह अनेक प्रकार की सुखकर कल्पनाओं में बह रहा है। उसकी उद्दण्ड प्रकृति को जैसे अत्याचार करने का जबरदस्त सहारा मिल गया हो और वह अपनी मानसिक विजय के गर्व में उन्मत्त हो रही हो।

आज शाही दरबार ने कुछ और ही रूप धारण कर लिया है, मानो वेश्या ने किसी प्रसिद्ध ऐश्वर्यवाले को फँसाने के लिए कृत्रिम अनेक प्रकार के हाव भाव दिखाने के लिए अपनी सम्मोहन शक्ति का पूर्ण प्रयोग किया हो। युवक फाटक के पास आया तो किले की रक्षा का प्रबन्ध देखकर दंग रह गया। सहस्रों मुगल और राजपूत सैनिक सशस्त्र किले पर पहरे में चक्कर लगा रहे थे। वैभव ने बरबस युवक का मस्तक झुका दिया। अपने साथियों के साथ वह भीतर गया वहाँ की मणि रत्नों से जटित विशाल अट्टालिकाएँ जैसे गर्व से युवक को देख रही थीं। उसकी तुच्छता पर हँस रही थीं। मानो कह रही थीं कि संसार की कोई भी शक्ति हमारे ऐश्वर्य की समता नहीं कर सकती और तू घमण्डी युवक अब तक हमारे विरोध का दावा कर रहा था ? युवक को एक प्रकार का नशा चढ़ आया; यह वह नशा था जो मनुष्य को विवश करके वशीभूत कर लेता है। युवक ने आत्मसमर्पण कर दिया, उसके मनुष्यत्व की पराजय हुई, बादशाह अकबर का सार्वभौम प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। चारों ओर की प्रसन्नता पर उसकी दृष्टि गयी; अब बह उसी प्रसन्नता का हो गया, उसे भी आनन्द हुआ। चारों और के प्रचुर फूलों पर निगाह गयी, फव्वारे देखे; कीमती पत्थर की बनी हुई वक्र राहों के कुटिल सौन्दर्य पर ध्यान गया, क्यारियों की भव्यता देखी; सब सुन्दर थे, उसे आनन्द भी मिला ।

"देखो, हम लोग जिस तरह से सलाम करें, उसी तरह से बादशाह को सलाम करना, नहीं तो बेअदबी समझी जायगी, और इसकी सजा बड़ी कड़ी है।" एक साथी राजपूत ने कहा। युवक ने सुन लिया। सिर झुकाये हुए कुछ सोचने लगा, चिन्ता आप ही आयी, किसी ने हृदय में कहा, 'तुम्हारी शक्ति का नाश अभी नहीं हुआ, अब भी संभलो, लौट चलो, क्या रक्खा है, कुछ चमकती हुई इमारतों और पत्थरों में होंगे वे बहुमूल्य हीरे, संसार में अलभ्य । परन्तु तुम्हारी आत्मा का हीरा इनसे बहुत मूल्यवान है, अपने गौरव का कुछ तो विचार करो !'

युवक मुस्कुराया; मन-ही-मन कहा, 'तुम उस समय कहाँ थे, जब मेरा अपमान किया गया था ? तुम्हारी शक्ति उस समय कहाँ छिपी थी, जब मेरे किसी भी अधिकार का मूल्य नहीं समझा गया, जान पड़ता है कि तुम मेरे मात्रु की सिद्धि की हुई ऐन्द्रजालिक शक्ति हो। तुम जाओ, तुम्हारे जाल से मैं अवश्य बाहर हूँगा-नीच !'

"देखो, सावधान हो जाओ, बादशाह सलामत दरबार में आने ही वाले हैं - वह देखो, तख्त दिखलायी पड़ रहा है। बड़े-बड़े राजा-महाराजा, अमीर उमरा, वजीरे-आजम और सूबेदार आदि दरबार में हाजिर हो गये हैं। वह देखो, उस तरफवाली कतार हम राजपूत राजाओं की है।"

युवक ने सुन लिया। ध्यान से देखा। एक बार हृदय काँप उठा। इतना बड़ा वैभव उसने कभी नहीं देखा था।

राजपूत साथी अपने नवागत युवक को साथ लिये हुए अपनी जगह पर जाकर खड़े हो गये । सब लोग खड़े हुए बादशाह के आने की प्रतीक्षा में ही थे। युवक भी अपने साथियों के साथ खड़ा रहा।

बादशाह आये । दरबार गर्म हो उठा। लोग साँस भी विचार करके छोड़ने लगे। शाहंशाह आज दूसरी ही पोशाक में थे। लोगों में आश्चर्य की मात्रा बढ़ रही थी। साथ ही श्रद्धा भी हद तक पहुँच रही थी। बड़े अदब से झुककर अपनी जगह से सलाम करते हुए बड़े-बड़े राजा-महाराजा शाह के सिंहासन तक जाते और उसी तरह सलाम करते हुए आज्ञा के लिए सिर झुका खड़े हो जाते।

युवक की बारी आयी। उसने भी वैसा ही किया। जब वह अपनी जगह पर आकर खड़ा हुआ, तब महाराजा मानसिंह ने शाहंशाह को युवक का परिचय दिया ।

अकबर मुस्कुराये । उसी मौन कटाक्ष में अपने सिपहसलार की ओर देखकर अपनी चंचलता का अर्थ प्रकट किया। मुसलमान 'वीरों में से दूसरे छोर तक वैसी ही अवज्ञा की मिली हुई मुस्कुराहट फैल गयी।

एक छोर राजपूत सरदारों की दृष्टि में जैसे तीर चुभ गया, परन्तु यह भाव छिपा न रहा। दुर्बलता से पैदा हुई ग्लानि का गाढ़ा रंग चढ़ गया। सबने आँखें नीची कर लीं। मन को सैकड़ों बिच्छू डंक मारने लगे। कलेजे पर सौ मन का पत्थर रखा गया। युवक ने भी समझा। एक बार उसके गौरव की बड़ी क्षीण झलक उसके हृदय में आयी और करुणा-भरी दृष्टि से उसकी ओर होकर चली गयी। सर्वांग विवशता ने जकड़ लिया मन्त्र की तरह वह चुपचाप खड़ा रहा।

इसी समय शाहंशाह ने मुस्कुराते हुए युवक से पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है?"

"शक्तिसिंह, " आवाज भरी हुई थी, गला सूख रहा था।

"शक्ति सिंह, तुम प्रताप के भाई हो ?" अकबर की दृष्टि युवक का मर्म स्थल देख रही थी।

"हाँ, जहाँपनाह!" शक्तिसिंह को परतन्त्रता का बोझ मालूम हुआ।

"जहाँपनाह, इनके साथ अन्याय किया गया है, प्रताप ने इन्हें अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। अब शाहंशाह की खिदमत में ये अपने दिन गुजारना चाहते हैं।" मानसिंह ने कहा ।

"राजा मानसिंह, इन्हें पाँच हजारी मनसब दिया गया।" अकबर ने सहानुभूति की दृष्टि से देखा ।

भक्ति से शक्तिसिंह का माथा झुक गया। अकबर दूसरे सरदारों को राजपूतों पर की गयी अपनी कृपा की दार्शनिक मौलिकता समझाने लगे ।

अष्टम परिच्छेद : हल्दीघाटी का सूत्रपात

मानसिह चले गये । हृदय में प्रतिहिंसा की प्रचण्ड ज्वाला धधक रही थी। प्रताप का किया हुआ अपमान मानसिंह को असह्य रहा था। आशा की पूर्ति न होने पर क्रोध का प्रबल रूप धारण करना बिल्कुल स्वाभाविक था। दिल्ली तक तमाम रास्ते में वे यही सोचते गये कि किस तरह प्रताप की ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाय। मानसिंह शोलापुर विजय करके लौटे थे। इसलिए दिल्ली में उनका बड़ा स्वागत हुआ। स्वयं बादशाह अकबर किले की फाटक तक चलकर उनसे मिले। बड़े प्रेम से उन्हें भीतर अपने कमरे में ले गये। एकान्त में उनसे युद्ध सम्बन्धी सब बातों की जानकारी हासिल करने लगे ।

मानसिंह के चेहरे पर वह रोशनी न थी, जो विजयी मनुष्य में होनी चाहिए। अकबर को उनका चेहरा देखकर पहले ही आश्चर्य हुआ था। युद्ध की विजय पर सन्देह हुआ। परन्तु खबर झूठ नहीं हो सकती, कभी-कभी उन्हें विश्वास भी होता रहा। फिर मानसिंह के मार्ग-श्रम को ही उनके मुरझाये हुए मुख का कारण समझा। अकबर के प्रश्नों का उत्तर मानसिंह अन्यमनस्क होकर दे रहे थे, जैसे उनके प्रश्नों से उनका कोई सम्बन्ध न हो, जैसे युद्ध में दे थे ही नहीं।

अकबर से न रहा गया। आश्चयं से उन्होंने पूछा, "राजा मानसिंह, बाप इतने मुरझाये हुए क्यों हैं? आपको तो खुश होना चाहिए।" "एक दूसरी बात पैदा हो गयी है। मैं क्या कहूँ शाहंशाह से, मेरा घोर अपमान किया गया है।"

"किसने आपका अपमान किया ? क्या उसे मालूम नहीं था कि मानसिंह कौन है? मेरी समझ में नहीं आ रहा मानसिंह, मामला क्या है ? साफ-साफ कहो।"

"मैं महाराणा प्रताप से मिलने गया था। मेरा मतलब यह था कि उसे शाहंशाह से मिलने के लिए राजी करूँ, उसे समझाऊँ कि हट छोड़कर दूसरे राजपूतों की तरह वह भी मिले और सुख से रहे। बागी होकर, ज्यादा दिनों तक उसका रहना दुश्वार है। शाहंशाह से कहते हुए मेरा खून खोल रहा है। कि उसने सम्राट् का अपमान किया। मुझे कहा कि जहाँगीर को अपनी बहन देकर अब मुझे नसीहत करने आये हो !"

"तब आपने इस गँवार राजपूत के लिए क्या सोचा ?"

"मैं चाहता हूँ कि इसको कब्जे में लाऊँ, शाहंशाह का यह बागी राह पर आये, नहीं तो राजपूत-भर में यह आग फैलेगी और तमाम गंवार राज पूत शाहंशाह के खिलाफ बलवा करने के लिए तैयार हो जायेंगे !"

"ठीक है, ऐसा ही करो, मैं जरा और सोच लूं, अच्छा, आज तुम जाओ, आराम करो।'

मानसिह चले गये । अकबर अपने कमरे में अकेले बैठे हुए सोचते रहे। जिस बुनियाद पर इतने बड़े साम्राज्य की उन्होंने प्रतिष्ठा की है, उसका विरोध करनेवाला एक राजपूत शाहंशाह का सामना करने के लिए तैयार ! उसे अपने वश में लाना जरूरी है। मानसिंह ने ठीक कहा है कि यह आग तमाम राजपूतों में फैल सकती है और राजपूतों से बढ़कर मुगल साम्राज्य का शत्रु कोई नहीं है।

दूसरे दिन शाहंशाह ने अपने चुने हुए सरदारों को बुलाया, जो राजपूत थे और राजपूतों के कुल भेद जानते थे। सबसे पहले सम्राट् को शक्तिसिंह की याद आयी। इस दिन के लिए ही उन्होंने शक्तिसिंह को रक्खा था। सम्राट् याद कर रहे हैं, यह सुनते ही शक्तिसिंह को जैसे स्वर्ग का राज्य मिल गया। जब एकान्त में अकबर के पास पहुँचे और बड़े आदर से अकबर ने उन्हें बगल में बैठाया, तब तो उनकी रही-सही अक्ल भी आनन्द-रस में घुलकर पिघल गयी। उन्होंने अपने को महाभाग्यवान् समझा और शोघ्र ही मानसिंह की तरह किसी उच्च पद पर अधिकार करने की कल्पना करने लगे ।

अकबर ने बड़े प्रेम से पूछा, "शक्तिसिंह, आज एक जरूरी काम आ पड़ा है और वह तुम्हीं से पूरा होगा।"

"मैं शाहंशाह की आज्ञा पूरी करने के लिए कोई बात उठा न रखूंगा।" शक्तिसिंह ने गर्व से सीना तानकर कहा।

"मुझे पूरा विश्वास है शक्तिसिंह तुम्हारा बदला चुकाया जायगा । वह दिन तुम्हें न भूला होगा, जब प्रताप ने तुम्हें अपने राज्य से बाहर निकाल दिया था। तुम्हारे लिए कोई इन्साफ नहीं किया। तुम्हारी जान की कुछ भी कीमत नहीं समझी !"

"हाँ, शाहंशाह !" शक्तिसिंह शंका की दृष्टि से अकबर को देखने लगे । "अब तुम हमारी फौज लेकर अपना बदला चुकाओ।" तीव्र दृष्टि से शक्तिसिंह को देखते हुए।

"मैं हर तरह से शाहंशाह की आज्ञा पालन के लिए तैयार है।"

"कितनी फौज चाहिए तुमको "

"फौज से काम न होगा सम्राट् । राजपूतों को फौज के बल से वश में करना कठिन है। फौज तो बहुत बड़ी चाहिए ही, साथ ही तोपों की भी जरूरत है। राजपूत अगर हटेंगे तो तोपों की मार खाकर सामने से लड़कर उन पर विजय पाना असाध्य है।" "कितनी फौज और कितनी तोपें चाहिए ?"

"कम-से-कम दो लाख सैनिक और पचास तोपें ।"

"हाँ ?"

"हाँ शाहंशाह, प्रताप की बाईस हजार सेना सदैव देश की रक्षा के लिए तैयार रहती है। वे बाईस हजार वीर आपकी दो लाख सेना के लिए काफी हैं। प्रताप को मदद देनेवाली भीलों की मार अभी आपने नहीं देखी। पर्वत पर आपकी दो लाख सेना काम आ जायगी और वे बाईस हजार वश में न आयेंगे, यदि तोपों से उनकी काफी सहायता न की गयी। तीर-तलवार और बों की मार से वीर राजपूत हटनेवाले नहीं। और आजकल तो उनके अन्दर एक नया जोश भी फैला हुआ है। ये वर्षों से सम्राट् का सामना करने के लिए तैयार हो रहे हैं। चित्तौड़गढ़ के टूटने के बाद से उनके अन्दर एक आग सुलग रही है। अगर पूरी तैयारी से न जाया जायगा तो सम्राट् के गर्वित मस्तक को वे अवश्य झुका देंगे।"

"ठीक कहते हो शक्तिसिंह, अच्छा, तुम्हारी सलाह से सेना तैयार की जायगी, अब तुम जाकर आराम करो। "

शक्तिसिंह चले गये। इसके बाद राजपूतों के कई लाड़ले लालों को बुलवाकर अकबर ने राय ली। मानसिंह भी आये। निश्चय हुआ कि सम्राट् के प्रतिनिधि स्वरूप सेना के नायक सलीम रहेंगे। मोहब्बत खाँ, मानसिंह, शक्तिसिंह उनके सहायक होकर रहेंगे।

ऐसा ही हुआ। मुगलों की विराट् सेना के पद-दर्प से मेदनी काँप उठी लोगों के हृदय हिल गये। जिस रास्ते से होकर वह सर्पाकार विशालायतन, लम्बी सेना निकलती थी, धूल से आकाश भर जाता, सूर्य ढक जाता, दिन में अन्धकार हो जाता। सबके हृदय में विजय का निश्चित रूप चित्रित था, सब लोग आनन्द में तराने छेड़ते हुए चले जा रहे थे। इतनी बड़ी सेना अकबर के समय में और कहीं भी नहीं भेजी गयी थी। सिपाहियों के हृदयों में लूटकर घर भरने की धुन, लूट की रकम के अनेक रंगीन चित्र उठते और उन्हें बहलाकर मार्ग श्रम की सहन शक्ति दे जाते ।

इधर प्रताप भी निश्चिन्त न थे। यों तो पहले ही से वे वीर-व्रत के उपासक हो रहे परन्तु जब से मानसिंह का अपमान हुआ, वे प्रताप को चेतावनी देकर गये, तब से विशेष रूप से युद्ध की तैयारी कर रहे थे। बाईस हजार राजपूत स्वदेश के नाम पर अपने प्राणों की आहुति चढ़ाने, प्रताप के साथ मुगलों से लोहा बजाने के लिए तैयार थे। हल्दीघाटी का नाका इन बीरों की विजय ध्वनि से गूंज रहा था। सदैव ये मुगलों के आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहे थे ।

हल्दीघाटी की स्थिति बड़ी ही सुरक्षित है। इसके उत्तर में कुम्भलमेर या कमलमीर जो उदयपुर से 40 मील और मेवाड़ के दक्षिण एक पहाड़ी पर बसा है, दक्षिण में ऋकुम्भनाथ और पश्चिम में मीरपुर से सातोल तक इसकी सीमा है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई 40 मील के लगभग होगी। चारों ओर से दुरारोह पहाड़ियाँ घेरे हुए बीच का स्थान जैसे पहाड़ के कोट के भीतर एक सुरक्षित जगह हो । यहाँ भी अनेक छोटे-बड़े पहाड़ और पहाड़ी नदियाँ, हरी मरी भूमि, उपत्यका और निर्जन अरण्य विराजमान हैं। प्राकृतिक शोभा की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। इसे मेवाड़ का काश्मीर कहना चाहिए और वीरत्व की दृष्टि से मेवाड़ की थर्मापली समझना चाहिए सहसा बाहर से शत्रुदल यहाँ आक्रमण नहीं कर सकता। चारों ओर से इतने संकीर्ण पहाड़ी मार्ग इसके भीतर आने के हैं कि एकाएक विशाल वाहिनी इसके भीतर प्रवेश नहीं कर सकती। अनेक दुरारोह पार्वत्य-पथ हैं। एक ऐसे ही पण का नाम हल्दीघाटी है। यह कमलमीर के पास ही है। बाहर से आक्रमण कारियों के भीतर घुसने का यही मार्ग है। अजमेर से होकर आनेवाली फौज के लिए यही रास्ता है। प्रताप अपनी सेना के साथ इसी स्थान की रक्षा कर रहे थे । यहाँ बाईस हजार सेना का जमघट था। होशियार रहकर सब शत्रु की बाट जोह रहे थे। यहां के रक्षकों में भील थे। ये जितने लड़ाके थे, उतने ही साहसी । प्रताप को इन्हीं का सबसे अधिक भरोसा था। पहाड़ की लड़ाई में इनसे जीतकर लौटना बड़ा मुश्किल था। प्रताप की शक्ति के आगे आत्म सम्मान पर मर मिटनेवाले रहे ये लोग, ये बड़ी भक्ति से उनकी आज्ञा का पालन करते थे । प्रताप ने इन्हें अपने वश में कर इन पर किसी दूसरे प्रकार का दबाव नहीं डाला । ये पहले ही की तरह स्वछन्द भाव से विचरण करते, शिकार करते और अपने-अपने काम करते तथा बाल बच्चों में सुख से रहते थे । प्रताप की विपत्ति देखकर ये लोग बड़े उत्साह से उनकी मदद कर रहे थे ।

उधर सलीम और मानसिंह की संरक्षता में विशाल मुगल सेना प्रताप का गर्व खवं करने के लिए आ रही थी, साथ सहायक थे समरसिंह के विधर्मी पुत्र महावत खां, राजा भगवानदास, आसफ खाँ संवद हाशिम, गाजी थां सैयद महम्मद, मीरवख्श, रायलूनकरण और शक्तिसिंह आदि। चैत्र सुदी 5 संवत् 1633 को यह युद्ध यात्रा हुई थी और श्रावण बदी सप्तमी 1633 को प्रतापसिंह से इस भयानक युद्ध का आरम्भ हुआ।

श्रावण मास, चारों ओर से बादल घिरे हुए, दिन में भी घोर अन्धकार । कभी-कभी मेघों की गुरु-गर्जना और बिजली की ज्वालामयी भृकुटि पार्वत्य भूमि लता-गुल्मों से ढकी हुई। एक-एक झाड़ी के भीतर स्वदेश रक्षा के लिए सशस्त्र राजपूत वीरों का एक-एक दल बड़ी सावधानी से शत्रुओं की प्रतीक्षा कर रहा है।

दूर से गुप्तचरों ने संकेत किया कि शत्रुओं की सेना आ रही है। बात की बात में बिजली की तरह वीर योद्धाओं में यह खबर फैल गयी। महा राणा उठकर खड़े हो गये। एक बार अरावली पार्वत्य-भूमि, हर-हर शंकर महादेव !' के भीम-घोष से प्रतिध्वनित हो उठी। महाराणा ने एक वार आकाश की ओर देखा, फिर अपनी सेना के मध्य भाग में खड़े होकर कहने लगे, "वीरो, आज मुगलों और राजपूतों की भाग्य-परीक्षा का दिन है। स्मरण करो अपने धर्म और देश की रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने क्या शिक्षा दी है। क्षत्रियों के लिए बड़े भाग्य से ऐसा अवसर प्राप्त होता है। एक ती युद्ध-भूमि, दूसरे धर्म और देश की रक्षा, मृत्यु के लिए इससे बढ़कर अवसर दूसरा न मिलेगा। वीरो, मानसिंह के उन गर्वित शब्दों को याद करो, जो वे चलते समय सुना गये थे । आज मुगलों की सहायता लेकर वे हमें शिक्षा देने आ रहे हैं। भाइयो, ऐसे नीच कुलांगार क्षत्रिय की कुटिल भौंहों को देखकर डर जाना क्या हमारा धर्म होगा ?"

"कदापि नहीं, कदापि नहीं! "

"नीच के प्रति वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। हमें आशा है कि हमारे वीर बहादुर उस नीच को और उसकी सहायता करनेवाले को उचित शिक्षा ही देंगे। हमें विश्वास है कि आज एक-एक राजपूत पाँच-पाँच शत्रुओं को मारकर मरेगा। अब समय नहीं है वीरो, अपने-अपने स्थान पर डट जाओ और कभी एकत्र न होना, अलग-अलग फटे रहना और अपने की सहा यता फासला रखकर करना एक साथ सट जाओगे, तो अधिक सेना के मरने का भय है। पहाड़ी लड़ाई में फटकर बढ़ना ही ठीक होगा। जाओ, भगवान् एकलिंग तुम्हारी सहायता करें।"

"महाराणा प्रतापसिंह की जय !"

अरावली की कन्दरा-कन्दरा गूंज उठी। एक दूत ने आकर खबर दी, शत्रुओं की सेना बहुत समीप आ गयी है। अब उनसे भिड़े बगैर ठीक न होगा। यह खबर पाते ही राजपूत वीरों में एक अद्भुत स्फूर्ति का संचार हो गया। आनन्दातिरेक से वे बराबर हर्षध्वनि करने लगे। महाराणा जानते थे कि एकाएक अपनी समस्त शक्ति के साथ मुगलों पर आक्रमण करना ठीक न होगा। थकी हुई सेना को विश्राम करने का समय न मिलेगा। और यदि थोड़ी-थोड़ी सेना के कई विभाग कर दिये जायेंगे, तो वह सेना शत्रुओं की अगणित सेना के सामने ज्यादा देर तक न ठहर सकेगी। उन्हें मालूम हो चुका था कि मुसलमानों के साथ दो लाख सेना और कई तोपें हैं। इस परिस्थिति

में किस तरह की लड़ाई हमारे लिए विजय-प्रद होगी, यह स्थिर करना है। महाराणा ने निश्चय किया कि पहले खण्ड-युद्ध लड़ा जाय। जब तक हम ऊंचे पर है, तब तक शत्रुओं को ऊपर चढ़ने से रोक रखना ही हमारे सुरक्षित रहने का अच्छा उपाय है। एकसाथ कई तोपों की गर्जना सुनायी दी। महा राणा कुछ आश्चर्यचकित और अन्यमनस्क हो सोचने लगे तोपों की काफी संख्या है । मुट्ठी-भर सेना तोपों में आहुति देने भर को भी न होगी। यदि अपनी सम्पूर्ण सेना के जोर से शत्रुओं की तोपें छीन लें, नहीं यह असम्भव है, तोपों के पीछे दो लाख पैदल शक्ति है! बाईस हजार सेना कब तक टिक सकेगी ? हाँ, ठीक है - सरदार चन्दावत; - सरदार चन्दावत!

सामने प्रणाम करके सरदार चन्दावत कृष्ण आकर खड़े हुए। महाराणा ने कहा, "परिस्थिति बहुत 'अच्छी नहीं सरदार, कुछ सोचो ?"

नहीं महाराणा, यहाँ तो आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। सोचना मैंने नहीं सीखा। कितने गौरव का दिन है यह हमारे लिये !"

"सुनो सरदार, पहले हमने कहा था, एक-एक दल अलग करके लड़ना ठीक होगा, परन्तु नहीं, इसमे हमारी संख्या घट जायगी तोपों से हटकर लड़ना घातक है। तोपें छीन लो। दो लाख के साथ बाईस हजार का सम्मुख समर ही अच्छा है, एक दल तोपों पर फौरन कब्जा कर ले। जब तक तोपों का मुंह बन्द न होगा, हमारे लिये बड़ी भयानक परिस्थिति होगी। हम काफी संख्या में मरेंगे, पहले ही धावा बोल दो। तोपों का मुंह बन्द हो तो हम सब लोग उन वीरों की मदद करें।"

आज्ञानुसार कार्य करने के लिए, प्रणाम कर सरदार चन्दावत कृष्ण चले गये । परन्तु थोड़े ही समय में प्रताप के पास दूसरी खबर लेकर लौट आये । प्रताप ने लौटने का कारण पूछा। सरदार ने कहा, "महाराणा ने जो आज्ञा दी थी, उसके अनुसार कार्य करना असम्भव है, क्योंकि शत्रु सेना कई हिस्सों में बेटी हुई है। यदि हम लोग एक साथ धावा करेंगे तो हमारे घिर जाने का भय है। उधर मुगलों की सेना हम लोगों से कई गुनी अधिक है।"

"तो तुम्हारी क्या सलाह है सरदार ?"

"जब जैसा उचित समझ में आये, उसी के अनुसार सैन्य-संचालन करना उचित होगा।"

"अच्छा, चलो।" प्रताप भी उठे। एक बार हाथ जोड़कर इष्टदेव को प्रणाम किया, फिर चारों ओर की पहाड़ियों को एकदृष्टि से कुछ देर तक देखते रहे, फिर प्रणाम किया। उधर से होती हुई बार-बार तोपों की भया नक गर्जना सुनायी दे रही थी। अविचलित सिंह की तरह महावीर प्रताप सिंह अपनी आँखों से समर भूमि को प्रत्यक्ष करने के लिए चल पड़े।

नवम् परिच्छेद : हल्दीघाटी का युद्ध

देश की स्वाधीनता और अपने धर्म की रक्षा के लिए राजपूतों की यह हल्दी घाटी का महासमर, संसार के इतिहास में चिरप्रसिद्ध है। इसका फल राज पूतों के लिए हुआ तो बड़ा ही विषमय, परन्तु उनकी वीरता और अम्लान मृत्यु का गौरव भी इसने अक्षुण्ण रखा। देश को एक वह आदर्श मिला, जो उसे उन्नति के परम शिखर पर पहुँचाने में समर्थ है। और हिन्दू जाति जब तक जीवित रहेगी, हल्दीघाटी का पवित्र नाम, उसकी वीर कीर्ति उसके हृदय में तब तक अपनी प्रभा विकीर्ण करती रहेगी।

मुगलों की सेना प्रलयकालीन घटा की तरह उमड़ती चली आ रही थी। जैसे भादों की नदी की मन्द गति पूर्ण यौवनावस्था, छलकती, फूलती, झूमती, तरंग, भरती भँवरों में नृत्य करती अपनी उतावली उत्फुल्लता में संसार की ओर दृष्टिपात भी नहीं करती, अन्य सम्पूर्ण शक्तियों के प्रति उपेक्षा करती चली जाती है, वैसे ही मुगलों की दुर्दम शक्ति भी संसार की क्षुद्रता पर हँसती हुई अपनी अजेय शक्ति के पूर्ण विश्वास से चली आ रही थी। इधर राजपूतों की दृष्टि में इतनी स्वतन्त्रता, दूसरों की क्षीणता पर इतना गर्व, विभूति का इतना भेद, इतना दुरुपयोग असह्य था। खमनौर नामक स्थान पर दोनों दलों का संघर्ष हो गया। लेकिन मानसिह व्यर्थ का सैन्य क्षय नहीं करना चाहते थे । वे क्रमशः आगे बढ़ रहे थे। महाराणा से बहुत शीघ्र मिलकर अपमान की ज्वाला शान्त करना चाहते थे।

एक ओर असंख्य मुगल और राजपूतों की सम्मिलित शक्ति और दूसरी ओर महाराणा के केवल बाईस हजार वीर ! एक ओर भारतवर्ष की संचित सम्पूर्ण राजशक्ति और दूसरी ओर स्वतन्त्रता के उपासक वीरव्रती महाराणा प्रताप के मुट्ठी भर सहायक ! मानसिंह को अपने सैन्य बल का गर्व था, पूर्ण विश्वास था कि यह सेना कभी पराजित न होगी। इतनी बड़ी सेना का संगठित रूप अपनी किसी लड़ाई में उन्होंने न देखा था। इस इतनी बड़ी सेना का उस समय की कोई शक्ति विरोध कर सकती, संसार में इतना प्रभाव किसी शक्ति का न था। मानसिंह को यह सब मालूम था। महाराणा को धोखा देने के लिए उन्होंने अपनी सेना के कई भाग कर दिये और एक-एक सेनापति को अलग रहकर उनके संचालन की आज्ञा दी। एक बृहत् व्यूह सा बनाया गया कि यदि उसके भीतर किसी तरह भी शत्रुदल आ जाय, तो घिरकर मरने के सिवा बचने का कोई उपाय न रहे। दूसरे फैली हुई शत्रु सेना की संख्या का अनुमान भी न हो सकेगा ।

उधर प्रतापसिंह भी नौसिखिये न थे ! सेनापति के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे सभी गुण प्रताप में मौजूद थे। बल्कि कहना चाहिए था कि अपने समय के वे सर्वश्रेष्ठ वीर थे। इतने बड़े विवेचक मनुष्य को धोखा देना आसान न था । प्रताप के सुचतुर अनुचरों ने पहले ही मुगलों की शक्ति का अनुमान कर लिया था। चारों ओर उनके गुप्तचर लगे हुए थे और बात की बात में यथार्थ खबर प्रताप के पास तक पहुँच जाती थी।

मानसिंह एक दूसरी चाल में थे। वे समझते थे कि सेना के कई विभाग करके व्यूह-क्रम से सन्निवेश किया जायगा, तो प्रत्येक विभाग बहुत छोटा मालूम होगा। और प्रताप उस पर आक्रमण करने का लोभ संवरण न कर सकेंगे। यदि खुले मैदान में वे आ जायेंगे तो क्षण-भर में उनकी सेना घेरकर • पीस दी जायेगी। किन्तु प्रताप से मानसिह का यह भाव छिपा नहीं रहा। उन्होंने मुकाम नहीं छोड़ा, वे भी जानते थे कि आत्मरक्षा के लिए पहाड़ी स्थानों से बढ़कर तरह कर सकेंगे। खुले मैदान में चलकर लोहा लेना युक्ति के विरुद्ध है। प्रताप की यह युक्ति ग्वालियर नरेश को बहुत पसन्द आयी। महाराणा को वे हृदय से प्यार करते थे। उन्होंने राणा की बड़ी प्रशंसा की।

जब मैदान में प्रताप न आये, अरावली तक किसी तरह की छेड़छाड़ न हुई, तब मानसिंह के हृदय में अपनी प्रबल शक्ति का भाव जाग्रत हुआ और पहाड़ियों में ही प्रताप को दण्ड देने का निश्चय कर, अपने गवं की घोषणा के रूप में तोपों की आवाज से प्रताप को खबर भेजने लगे ।

मुसलमानों की सेना त्रिकोणाकार से बढ़ रही थी। एक भुज की तरफ मोहब्बत खाँ सेनापति और मुसलमानी सेना, दूसरे भुज की तरफ थे मान सिंह और मुगल तथा राजपूतों की सेना, बीच में संचित अनगिनत शक्ति और उसके अन्दर सलीम और उनके शरीर रक्षक सलीम की सेना को लड़ने की जरूरत न थी। वह दोनों भुजों से बहुत दूर पर हटकर थी। मोहब्बत खाँ के साथ तोपें न थीं, पर थी उनकी सेना सबसे आगे बढ़ी हुई । मानसिंह की सेना दूसरे पार्श्व से इसकी रक्षा के लिए थी चतुर मानसिंह का उपदेश था कि मोहब्बत खाँ की फौज से जब प्रताप की सेना सामना करेगी, पार्श्व से प्रताप की सेना पर गोलाबारी करने का मौका रहेगा, और मोहब्बत खाँ की फौज मदद के लिए फौज लेकर पीछे की ओर हटेगी, उस समय केन्द्र की फौज लेकर सलीम आगे बढ़ेंगे, तब तक राजपूतों की अधिकांश सेना तोपों से नष्ट हो जायेगी और आसानी से शत्रु पर विजय प्राप्त होगी। प्रताप ने मानसिंह की रणकुशलता देखी, मन-ही-मन बड़ाई की। राजपूतों के पास तोपें न थीं । परन्तु युद्ध करना ही था। कुछ देर तक प्रताप सोचते रहे। अपना निश्चय कर लिया। 'दीन दीन' की आवाज से पर्वत शिखर पर प्रतिध्वनि करती हुई मोहब्बत खाँ की फौज बढ़ रही थी। इधर दबी हुई पार्थिव ज्वाला की तरह राजपूत शक्ति, महाराणा की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रही थी। अवसर आया। एक वज्र-गम्भीर कण्ठ से तूफान सा उठा "वीरो !" एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त तक सेना बौखला उठी। सहस्र-सहस्र राजपूत, पहाड़ी निर्झर नदी की तरह 'हर-हर महादेव !' के गगनभेदी भीम स्वर से आकाश को चंचल करते हुए मोहब्बत खां की फौज पर टूट पड़े। सेनापति क्रमशः अपनी सेना को मोहब्बत खां की फौज के बायीं तरफ बढ़ा रहे थे।

महाराणा ने निश्चय कर लिया था कि मुगल सेना को दाहिने रखना ही निरापद है। यदि उधर से किसी प्रकार की आपत्ति आयेगी, तो उससे मुगलों की ही सेना नष्ट होगी। महाराणा का रणकौशल प्रत्यक्ष करके मान सिंह दंग रह गये। राजपूत सेना पर गोलाबारी करने का उन्हें मोका ही न मिला । यदि गोलाबारी करते तो मोहब्बत खां की ही सेना काम आती । राजपूतों के बायीं बगल में दुरारोह पर्वत और दाहिनी ओर मोहब्बत खाँ की फौज थी। उससे राजपूत बचते गये

मोहब्बत खाँ के पास तोपें न थीं। वे क्रमशः पीछे हटने लगे। आक्रमण करने का अवसर मिला। राजपूतों की नवीन स्फूर्ति मुगलों की सेना पर बिजली की तरह हाथ साफ कर रही थी। देखते-देखते हजारों मुगल धरा शायी हो गये। मोहब्बत खां के होश उड़ गये। भय हुआ कि जब तक सलीम की सेना से मिलेंगे, तब तक तमाम सेना काम आ जायेगी

मोहब्बत खाँ की विपत्ति का अनुमान सलीम ने कर लिया था। वे भी बड़ी तेजी से मोहब्बत खाँ की फौज से मिलने के लिए बढ़ रहे थे। मानसिंह भी निश्चिन्त न थे क्रमश: अपनी फौज इस ढंग से बढ़ा रहे थे कि राजपूतों को दाहिनी ओर से घेरें, कम-से-कम मोहब्बत खां की फौज की ओर रुख न रहे, राजपूतों पर गोलाबारी करने का मौका हाथ आये। महाराणा की एक ही चाल से तमाम मुगल-दल विचलित हो गया। अब युद्ध चित्र एक दूसरा आकार धारण कर रहा था।

जब तक अपनी फौजों की स्थिति सुधारने में पूर्वोक्त तीनों सेनापति लगे हुए थे, तब तक मुगलों की काफी संख्या निहित हो चुकी क्षुधार्त व्याघ्रों की तरह राजपूत-गण मोहब्बत खां की फौज पर टूट पड़े। प्रथम आक्रमण में ही विपक्षियों के पैर उखड़ गये। मुगल सेना अपनी स्थिति सुधा रने में लगी थी, उसे आक्रमणों को रोकते हुए हटना पड़ रहा था और राज पूत केवल आक्रमण कर रहे थे। क्षण-भर में मोहब्बत खाँ की हजारों की संख्या में सेना विनष्ट हो चुकी थी। सेना में विश्वंखलता का रूप दिखलायी दिया। भय के मारे, सेनापति के संकेत से चलना छूट गया, छतभंग हो गया, इच्छानुसार सेना इधर-उधर भागने लगी। प्रबल राजपूतों की तेज चोटों से चारों ओर मूर्तिमान तास दिखलायी दे रहा था। चिरकाल की क्षुधा के बाद जिस तरह भोजन पर रुचि होती है, उसी तरह राजपूतों की तलवारें प्यास की तीव्रता से चमक रही थीं, सहस्र-सहस्र मुगलों का रुधिर पान करके भी उनकी तृष्णा की निवृत्ति नहीं हुई। धर्म का द्वेष, जाति का द्वेष और स्वतन्त्रता के अपहरण का द्वेष, एक साथ अनेक प्रकार के विद्वेष की ज्वालाएँ धधक रही थी और उस प्रचण्ड वह्नि में पड़ रही थी- लगातार मुगलों के रुधिर की आहूति । राजपूतों की भीम भैरव मूर्तियों में भगवान रुद्र की संहार मूर्ति के दर्शन हो रहे थे, वैसी ही भयानक उग्रता, वैसा ही निरंकुश नम्न ताण्डव । महाराणा अविचल भाव से सोत्साह सेना संचालन कर रहे थे। अब तक राजपूत बहुत दूर बढ़ गये थे। उधर सलीम की सेना भी आ पहुँची थी। मुगल-व्यूह के तीनों भाग एकत्र हो रहे थे।

तोप छूटी, शत-शत राजपूत धराशायी होने लगे। महाराणा चौके, देखा - पीछे से मानसिंह की राजपूत और मुगलों की सम्मिलित सेना बढ़ रही थी । आगे अनलोद्गारिणी तोपें यथाक्रम सजी हुई थीं। भादों की अनर्गल जलधारा की तरह मानसिंह की तोपें दग रही थीं।

राजपूतों के सामने काल की प्रत्यक्ष मूर्ति आ खड़ी हुई। बड़े-बड़े लड़ाके राजपूत सरदार घबड़ा गये, बचने का कोई उपाय न सूझा। मानसिंह का मनोरथ सफल हुआ । मोहब्बत खाँ की सेना को पार करके राजपूतों के ठीक पश्चाद्-भाग में वे आगे बढ़े। अब तक राजपूतों को मोहब्बत खाँ की फौज के पार्श्व रखकर महाराणा, मानसिंह के आक्रमण से बचे रहे थे। सैन्य का संचालन करते हुए उन्हें मानसिंह की सेना के भविष्य की स्थिति पर विचार करने का अवसर नहीं मिला। अब महाराणा भी कुछ देर के लिए किकर्त्तव्यविमूढ़ हो गये । जालबद्ध मृगों की तरह राजपूत सरदारों ने मृत्यु को प्रत्यक्ष देखा । उधर अनर्गल गोलाबारी हो रही थी। सहस्र सहस्र राजपूत निहत हो रहे थे।

राजपूतों की परिस्थिति बड़ी विकट हो रही थी। दाहिनी बोर मोहब्बत था और सलीम की अगणित सेना पार्श्व से आक्रमण कर रही बी, पीछे से मानसिंह की तोपों की अविराम वर्षा, बायीं ओर अलंघ्य पर्वत थे।

"वीरो, छीन लो तोपें !" महाराणा की आज्ञा से जैसे बिजली कड़क जाय, प्रलय के बादलों में अपनी स्थिर स्फूर्ति से सरदारों ने वैसा ही इशारा किया। सेना लौट पड़ी। वह दृश्य ! तोपों का धारा प्रवाह से अग्नि-वर्षण और राजपूतों का तुमुल-उत्साह, मृत्यु से बालिंगन, मृत्यु से सोत्साह क्रीड़ा, माता के अंक पर चिर निद्रा दर्शनीय थी ।

बात की बात में मानसिंह की तोपों का मुख अवरुद्ध हो गया। सहस्र सहस्र राजपूतों ने प्राणों का विसर्जन कर दिया, पर तोपों के पास पहुँच गये। लड़कर राजपूत परिश्रान्त हो रहे थे, उधर मानसिंह के पैदल सिपाहियों में नवीन स्फूर्ति थी। राजपूतों पर सम्मुख और वाम पार्श्व भाग से आक्रमण हो रहे थे। सैकड़ों वीर सरदारों ने देश की स्वतन्त्रता के लिए प्राणों का विसर्जन कर दिया। बचे हुए राजपूतों के भी हाथ भर गये थे। सरदारों के प्रोत्साहन से बुझते हुए दीपक के प्रकाश की तरह कुछ देर के लिए उनमें शक्ति आती तो, परन्तु थकी सेना विशेष कुछ कर न सकी। युद्ध की ऐसी परिस्थिति पर विचार कर बचे हुए सरदारों और महाराणा ने निश्चय कर लिया कि अब इस समर में लड़कर प्राणों का विसर्जन कर देने के सिवा, अब कोई दूसरा उपाय नहीं है। इस विचार से क्षण-भर में महाराणा के अन्दर एक अद्भुत शक्ति का संचार हो गया। एकाएक जी में आया कि जिस मानसिंह के लिए इतनी बड़ी सेना विनष्ट हो चुकी, जिसकी सहायता से यवनों ने देश के शत-शत स्वतन्त्र राज्यों पर अधिकार जमाया, जिस राजा मानसिंह की सेना को बड़ी देर बाद लड़ने का मौका मिला था, उसकी शक्ति भी नवीन थी, राजपूतों पर उसकी गति अप्रतिहत हो रही थी। महराणा अपनी सेना का संहार न देख सके ।

चिरकाल की अर्जित तपस्या का उनमें विचित्र प्रभाव था, उनके शब्दों में दैवी शक्ति थी, उनकी ललकार सुन मुर्दा भी एक बार उठकर खड़ा हो जाता। सेना की दुर्दशा को देखकर महाराणा ने पुनः गम्भीर कण्ठ से आवाज दी, "वीरो ! मृत्यु एक बार होगी, धर्म और अपनी माता के लिए मरना, इससे अधिक गौरव की मृत्यु हमें फिर शायद ही मिले । कीर्ति की उज्ज्वल पताका तुम्हारे हाथ से जाने न पावे वीरो !"

राजपूत पागल हो उठे । उत्साह से बाजे बजने लगे। नगाड़ों पर चोट पड़ी। नया जोश फैला। एक बार फिर राजपूतों की जड़ता दूर हो गयी। वे मृत्यु को सामने रखकर इस बार भयंकर रूप से युद्ध करने लगे। उधर महाराणा के मन में और ही बात आयी। वे मानसिंह को चाहते थे। अगणित मुगलों की उन्होंने चिन्ता न की। जोश भरा था। सेना को काटते, चीरते, मुगलों की फौज के भीतर चले गये। कुछ शरीर रक्षक महाराणा का साथ दे रहे थे । प्रताप का ध्यान सम्पूर्ण तीव्रता से मानसिंह को खोज रहा था। मृगों के यूथ में क्षुब्ध शार्दूल की तरह महाराणा, मानसिंह की तलाश में फिर रहे थे। सैकड़ों शत्रु उनकी गति को रोकते हुए बुरी तरह से मारे गये । भीष्म की तरह महान् महाराणा ने मानसिंह से साक्षात्कार करने का निश्चय कर लिया था। मानसिंह को शिक्षा देने के अभिप्राय से ही वे सेना के महान् सागर में कूदे थे । उन्हें प्राणों का भय न था। वे लक्ष्य से लौटनेवाले मनुष्य न थे। बाधाओं की असंख्य अड़चनें भी उनके चित्त को चंचल न कर सकती थीं। मुगलों की सेना में कई वार महाराणा के प्राण संकट में पड़े। परन्तु उनके वीर श्रीर-रक्षकों ने उन्हें सहायता दी। शत्रु के पंजे से छुड़ाया, महाराणा तल्लीन होकर मानसिंह की तलाश कर रहे थे, दूसरी ओर उनका ध्यान न था, किसने उन्हें बचाया, कौन-कौन उनके साथ हैं, इन सब बातों की ओर ध्यान देने की फुर्सत न थी। हिन्दुओं का जो सबसे बड़ा विरोधी था, उस नर राक्षस को मानो हजार आंखों से वे खोज रहे थे।

कहते हैं जिसकी जिस प्रकार भावना होती है, उसे फल भी वैसा ही मिलता है। उसका मनोरथ पूर्ण होता है। महाराणा की इच्छा भी पूरी हुई। एकाएक उनकी दृष्टि उसी हौदे पर पड़ी, जिस पर मानसिंह बैठे थे। प्रताप की नसों में बिजली दौड़ गयी। अपनी अमित शक्ति का क्षय वे भूल गये। शत्रु मानसिंह ही उस समय उनके ज्ञान और आनन्द के आधार हो रहे थे । महाराणा ने अपने घोड़े को इशारा किया। 'चेतक' मालिक का अभि प्राय समझ गया। अब तक वह भी विचलित-सा हो रहा था, प्रताप को किसी के साथ भी समर करते हुए न देखकर, वह तुरन्त उस विशालकाय हाथी के पास पहुँचा, जिस पर मानसिंह बड़े गर्व से अपनी सेना को प्रोत्साहन दे रहे थे। एकाएक आक्रमण होने से मानसिंह घबड़ा गये। उनकी समझ में न आया कि इतनी बड़ी सेना को पार कर उनके ऊपर आक्रमण एकाएक हुआ किस तरह ! मानसिंह के शरीर रक्षक संख्या में अनेक थे, उधर कुछ महा राणा के सहायक भी थे। दोनों तरफ से युद्ध जारी हो गया। मानसिंह को पाकर महाराणा बहुत प्रसन्न हुए। मानसिंह के महावत ने भी सजग होकर महाराणा की तरफ अपना हाथी बढ़ाया। महाराणा और मानसिंह की दृष्टि एक हुई। मानसिंह मुस्कुराये। युद्ध का निकट-परिणाम मानसिंह भी समझ गये थे । महाराणा के तमाम शरीर में आग लग गयी। एक साथ ही शरीर की संचित शक्ति जाग्रत हो गयी। चेतक की बागडोर उठा मानसिंह को लक्ष्य कर महाराणा ने अपने विशाल बछ का वार किया। बर्छा चलाने में प्रताप सिद्धहस्त थे । प्रताप को बछ का वार करते देखकर ही मानसिंह के प्राण सूख गये । परन्तु किस्मत बड़ी जबरदस्त होती है। बछे का निशाना महावत पर बैठा, उसको पार कर बड़े जोर से हौदे से टकराया। मानसिंह बच गये । महावत के मर जाने से हाथी के निरुद्देश्य भागने से कितनी ही सेना उसके पैरों के नीचे कुचल गयी।

इधर महाराणा के अनेक शरीर रक्षक अब तक उनका साथ छोड़ स्वर्ग की राह ले चुके थे । अगणित सैन्य बल के सामने एक मनुष्य का प्रवेश ही आश्चर्यकर है, फिर भी अब तक पैर जमाकर लड़ना तो वीरता की सीमा को भी पार कर जाता है। महाराणा के मस्तिष्क की इस समय बड़ी ही विचित्र परिस्थिति थी। जिन वीरों की रुधिर-धारा से हल्दीघाटी का स्वतन्त्रता समर प्लावित हो रहा था, महाराणा उन्हें छोड़कर अपनी रक्षा का उपाय नहीं कर सकते थे, अपने प्यारे वीरों के साथ वे भी अपनी कृति उसी दिन सम्पूर्ण कर देना चाहते थे। हारकर भी वे शत्रुओं से विजय प्राप्ति की इच्छा रखते थे, आदर्श समर क्या और किस तरह होता है, शत्रुओं के हृदय में इसकी अमिट छाप मुद्रित कर देना चाहते थे।

मानसिंह के भाग जाने पर तमाम मुगलों की दृष्टि महाराणा की ओर आकर्षित हुई। इधर उनके अंगरक्षक भी बहुत थोड़े रह गये थे । महाराणा को मुगलों ने चारों ओर से घेर लिया और उन पर शस्त्रों का अविराम प्रहार जारी हो गया। अपने सम्राट् को घिरा हुआ देखकर राजपूत-रक्षक भी जान हथेली पर लेकर लड़ने लगे, परन्तु क्रमशः लड़कर मरने के सिवा वे और कुछ न कर सके। प्रताप के सर्वांग से रुधिर की धारा बह रही थी, चेतक के अंग भी क्षत-विक्षत हो रहे थे। शरीर वार वार शिथिल होता जा रहा था, केवल मनोबल के प्रभाव से प्रताप अब तक शत्रुओं के बीच में अकातर चित्त से युद्ध कर रहे थे ।

कैलवाराधिप झालामान्ना ने महाराणा की यह दशा दूर से देखी । उनका शरीर कंटकित हो गया। एक प्रगाढ़ भक्ति महाराणा के प्रति पैदा हुई। उन्होंने सोचा, 'क्या मेवाड़ का सूर्य अस्त हो जायगा ? फिर बचे हुए लोगों को स्वतन्त्रता की शिक्षा कहाँ से प्राप्त होगी? ऐसा हरगिज न होगा !' 'महाराणा की जय ।' के भीम घोष से अपने आगमन की सूचना देते हुए अपने शरीर रक्षकों सहित महाराणा की सहायता के लिए कैलवाराधिप आ गये। उन्होंने प्रताप का छत्र अपने ऊपर लगा लिया। उनकी स्वर्ण-पताका लेकर अपने शरीर रक्षकों के साथ अपूर्व विक्रम प्रकट करते हुए शत्रु सेना से लड़ने लगे। मुगलों ने धोखा खाया। उन्हें ही उन लोगों ने महाराण प्रताप समझा और उन्हीं के प्राणों के लिए आक्रमण करने लगे। महाराणा को अव सर मिला, मुगलों से युद्ध करते हुए झालामान्ना ने अद्भुत वीरता प्रकट की। अन्त में वे वीर गति को प्राप्त हुए ।

प्रताप ने इनकी मृत्यु के बाद इनके परिवारवालों की बड़ी इज्जत की । इस झालावंश को मेवाड़ की राजपताका उड़ाने का अधिकार मिला और झालामान्ना के आदर्श कार्य से सद्रि की जागीर भी उनके वंशधरों को दी गयी, साथ ही राजा की उपाधि से विभूषित किये गये और राजमहल तक नगाड़ा बजाते हुए आने का अधिकार दिया गया ।

हल्दीघाटी के इस भयानक महासमर में 22000 राजपूतों में से केवल 6000 बचे और चौदह हजार सेना संग्राम में हत हुई। पाँच सौ तो प्रताप के ही आत्मीय थे। ग्वालियर के राजच्युत नरेश रामसिंह और उनके इक लौते पुत्र के साथ 350 उनके बन्धु बान्धव भी इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए ।

धीरे-धीरे भगवान् मरीचिमाली अस्ताचल में प्रवेश कर रहे थे। युद्ध का अवसान हो रहा था। मुगलों के जयोल्लास से पहाड़ियों में प्रतिध्वनि हो रही थी। उस विजय घोष से घायल सिपाहियों की करुण ध्वनि मिलकर उसे और नृशंस बना रही थी। बचे हुए राजपूतों का मुख मुरझाया हुआ, हाथ भरे हुए और पद शिथिल हो रहे थे। सन्ध्या के कुछ पहले महाराणा ने सैन्य को हटने की आज्ञा दी, स्वयं चिन्ताक्लिष्ट, घोड़े पर सवार हो अकेले पहाड़ी की ओर चले। भारत के इतिहास में पतन की एक-दूसरी कथा लिख कर राजपूतों को नियति के अन्धकारमय गर्त में चिरकाल तक के लिए डाल कर हल्दीघाटी का महासमर समाप्त हुआ ।

दशम परिच्छेद : पश्चात्ताप

भाग्य की अकरुण कुटिल गति पर विचार करते हुए घोड़े पर सवार निस्संग महाराणा प्रताप चले आ रहे थे। चिरकाल की संचित चिर प्रतिज्ञा पर इतना बड़ा धक्का लगा कि विश्वास की थूनियाँ हिला दी गयीं। प्रताप सोचने लगे, 'जिन वृद्ध पिताओं की सेवा के लिए उनका एकमात्र पुत्र बच रहा था, अब वे किस दशा में होंगे ? उन्होंने तो सहर्ष देश की रक्षा के लिए पुत्र को लड़ने की आज्ञा दी थी, फिर इस विषमय परिणाम का भोग उन्हें क्यों करना पड़ा ? अवश्य ही यह धर्म सब वाहियात है।' फिर सोचते, 'नहीं, कत्तंव्य पर विचार नहीं चलता, कर्त्तव्य की समालोचना भी नहीं हो सकती, फल की आकांक्षा रखनी ही नहीं चाहिए, जो कुछ किया गया कर्त्तव्य के विचार से ही किया गया है, आगे भी वैसा ही किया जायगा ।'

प्रताप अनेक प्रकार के वाग्जाल में भूत और वर्तमान की समालोचना में फँसते- फँसाते चले जा रहे थे । सन्ध्या की अन्तिम किरण पड़ रही थी। आज प्रताप की पूर्ण पराजय हुई है। आज वे एक साधारण परिस्थिति के मनुष्य हैं, कल तक वे राज्यचिह्नों को धारण करते थे, परन्तु आज एक दिन के प्रलय में उनके ऐश्वर्यं का ध्वंस हो गया। वह छाया की तरह विलीन हो गया, मानो यही अन्धकार सत्य है जिसमें अतिरंजना कोई नहीं । बाईस हजार सेना के नायक को आज एक साथी भी नहीं मिला। आज उनके साथ कोई शरीर रक्षक भी नहीं है।

इस युद्ध में शक्तिसिंह भी थे। उन्होंने लड़ाई नहीं की। परन्तु आदि से अन्त तक राजपूतों का युद्ध उन्होंने अवश्य देखा था। राजपूतों की निर्भीकता, अगणित सेना के बीच में क्षत्रियत्व का शौर्य दर्शन, देश की रक्षा के लिए हँसते हुए वीरगति को प्राप्त करना, घिरकर भी धैर्यं न खोना, यह सब गुण देखकर शक्तिसिंह मुग्ध हो गये थे। देश की इस भयंकर परिस्थिति के समय वे उसके किसी कार्य में न आये। इसका उन्हें हार्दिक दुख हुआ । उनका विरोध-भाव दूर हो गया, बल्कि जिस समय झालामान्ना को प्रताप की रक्षा करते, राजचिह्नों को अपने ऊपर धारण करते देखा, लड़ते हुए अपने प्राणों का विसर्जन कर महाराणा के प्राणों को खरीदते देखा, उस समय शक्ति सिंह दूसरे ही शक्तिसिंह हो रहे थे। महाराणा की रक्षा के लिए देश के सब वीरों को उन्होंने रणक्षेत्र में प्रत्यक्ष देखा, केवल वही न थे। जिन्हें देश के बालक वृद्ध युवा एक ही प्रकार से भक्ति करते हैं, उनका विरोध करके उन्होंने अच्छा नहीं किया, उन्हें दृढ़ विश्वास हो गया। उनकी दृष्टि महाराणा पर ही लगी। जब राजपूतों का विनाश हो चुका, बची हुई सेना को युद्ध बन्द कर आत्मरक्षा करने की आज्ञा दी गयी, तब भी उनकी दृष्टि प्रताप पर लगी हुई थी। जब चेतक पर महाराणा निस्संग एक ओर को चल दिये, उस समय भी उन्होंने महाराणा को देखा।

इसके पश्चात् मुगल सरदारों में भी युद्ध की चर्चा होने लगी, हल्दी घाटी के भयानक समर में पराजित होने पर भी शत्रुदल प्रताप की शूरता की प्रशंसा करने लगा, उनके प्रधान प्रधान शत्रुओं ने स्वीकार किया कि इतना बड़ा वीर उन्होंने कभी नहीं देखा । शत्रुओं के मुख से भी प्रशंसा वाक्य निक लने लगे, शक्तिसिंह ने भी यह सुना ।

यों तो वे पहले ही अपनी प्रतिहिंसा और अपमान का भाव भूल गये थे, परन्तु अब पूर्ण मात्रा में प्रताप के प्रति उनका भक्तिभाव उदित हो गया था। वे मन-ही-मन कहने लगे, 'हाय ! एक राजपूत मैं भी हूँ। कितना गर्व था उन वीरों को मृत्यु का । हँस रहे थे, मानों मृत्यु का उन्हें बिल्कुल भय ही न था। मेवाड़ का कोई भी गांव नहीं बचा, जहाँ से देश की रक्षा के लिए वीर सिपाही न आये हों, और मैं मेवाड़ के राजवंश का मनुष्य हूँ । हे ईश्वर ! यह इतना घोर पतन ! जहाँ और और लोगों ने अपने प्राण देकर प्रताप की रक्षा की, वहीं बगल में रहकर भी मैं उनके लिए लड़ न सका, और मैं प्रताप का भाई हूँ ! लेकिन बस, जो होना था, हो चुका, अब मैं फिर इस रेगिस्तान से गंगा की निर्मल धारा बहाऊँगा, हे ईश्वर ! मेरा उद्धार करो, मेरी आत्मा को शक्ति दो, स्वतन्त्रता दो, देश के लिए मरना सिखलाओ।' शक्तिसिंह बच्चों की तरह रोने लगे । पूर्व की स्मृतियों ने जोर मारा। पवित्र रक्त ने अपना प्रभाव दिखलाया। शक्तिसिंह के हृदय से विद्वेष बिल्कुल दूर हो गया। इस समर भूमि में देश के लिए वे कुछ न कर सके थे, बल्कि देश की स्वतन्त्रता का हरण करने के लिए ही आये थे, ईश्वर से रोते हुए उन्होंने प्रार्थना की, ईश्वर ने तत्काल उनका मनोरथ पूरा किया।

जब सिपाहियों को युद्ध बन्द कर प्राण बचाने की आज्ञा दे महाराज ने पहाड़ की राह ली, उस समय उनकी दृष्टि बचाकर उनके प्राण लेने के लिए दो मुगल सिपाही उनके पीछे लगे। एकाएक शक्तिसिंह की प्रार्थना मंजूर करने के लिए ईश्वर ने उन्हें मौका दिया। उन मुगल सिपाहियों पर इनकी दृष्टि पड़ गयी । हृदय क्षुब्ध हो उठा। भाई के प्रति सहस्र धारों में भक्ति का सोता फूट निकला । वे स्थिर न रह सके। उन्होंने भी घोड़ा बढ़ाया। और वैसे ही फिरकर उन सिपाहियों का पीछा किया। मन-ही-मन शक्ति सिंह ने ईश्वर को धन्यवाद दिया। हृदय में एक प्रकार की घृणा मुगलों के प्रति पैदा हुई। कहने लगे, 'युद्ध समाप्त होने के बाद राजपूत, शत्रु पर कभी भी वार नहीं करते, मौका पाने पर भी उसे छोड़ देते हैं, परन्तु यह कितनी बड़ी नीचता है कि इस सन्ध्या के समय भी इन राक्षसों के हृदय से पैशाची प्रवृत्ति का अन्त नहीं हुआ। आज इन राक्षसों को इन्हीं की शिक्षा देनी है। इन्हीं के अस्त्र से इनका अन्त करना है। अन्यथा मैं भी तो राजपूत हूँ, सन्ध्या के समय इनके प्राण में अवश्य ही न लेता ।

'प्रताप ! तुम मेवाड़ के सूर्य हो, आज मेघों के प्रभाव से तुम्हारी किरण कुछ काल के लिए ढक जरूर गयी है परन्तु वह चिरन्तन, अमर, स्वर्गीय और आवश्यक, अनावश्यक मेघों का अन्त एक दिन अवश्य होगा । तब तुम्हारी स्वर्गीय ज्योति फिर चमक उठेगी, छिपी न रहेगी, उसकी संसार को आवश्यकता है । प्रताप ! तुम इतने महान् हो ! आश्चर्य है, तुम्हारे नाम में इतनी शक्ति है, तुम्हारी हार में भी विजय है, तुम अद्भुत मनुष्य हो, मैं मूर्ख था, स्वतन्त्र देश के आदर्श देवता को मैंने नहीं समझा था ।' शक्तिसिंह आवेश में तरह-तरह की कल्पनाएँ करते हुए चले जा रहे थे।

प्रताप का हृदय भग्न हो चुका था। तमाम चेहरे पर निराशा का राज्य था । स्वतन्त्रता की वेदी पर अपना सर्वस्व रखकर जैसे रिक्त हृदय से जा रहे हों, जैसे बदले में उन्हें कुछ भी प्राप्ति न हुई हो। वे अन्यमनस्क हो रहे थे। चेतक भी थक गया था। धीरे-धीरे चिन्ता करते हुए प्रताप चले जा रहे थे और उन्हें लक्ष्य कर उनके पीछे दो मुगल भी। प्रताप को पीछे से किसी के आने की आहट भी न मिली, वे इसी प्रकार से अपनी विचार-तरंगों में तल्लीन हो रहे थे। वे दोनों प्रताप के बिल्कुल नजदीक आ गये। परन्तु फिर भी प्रताप को कुछ मालूम न हुआ। शक्तिसिंह कुछ दूर पर थे। ईश्वर ने प्रताप की मदद की। सामने एक पहाड़ी नदी पड़ी। प्रताप का घोड़ा चेतक एक ही छलांग में नदी पार कर गया, परन्तु मुगलों के घोड़े कमजोर थे, उन्हें नदी पार करने में कुछ देर लग गयी तब तक शक्तिसिंह और नजदीक आ गये। मुगलों ने नदी पार करके फिर प्रताप का पीछा किया और उनके बहुत पास पहुँच गये। लड़ाई में प्रताप का सर्वांग शस्त्रों से क्षत-विक्षत हो रहा था, घावों से खून का फौवारा छूट रहा था, ऐसी ही दशा चेतक की भी थी। इसी परिस्थिति में मुगल उनका पीछा कर रहे थे। मुगल इस बार प्रताप के बिल्कुल करीब पहुँच गये। शक्तिसिंह ने सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि फिर जीवन भर के लिए पछतावा रह जाय; इसलिए प्रताप को होशियार कर देना चाहिए।

उन्होंने उच्च स्वर से आवाज लगायी, "हो नीला घोड़ा सवार !" प्रताप चौके । फिरकर देखा तो दो मुगल आ रहे थे। प्रताप को आश्चर्य हुआ कि मेरी भाषा में किसने मुझे सतर्क किया? ये तो मुगल हैं, इस निर्जन भूमि में राजपूत गले की आवाज कहाँ से आयी ?

प्रताप संदेह कर रहे थे कि शक्तिसिंह घोड़ा बढ़ाकर मुगलों के बिल्कुल पास पहुँच गये और देखते-देखते दोनों का काम तमाम कर दिया। प्रताप ने मुगलों को गिरते हुए देखा, फिर उनकी दृष्टि शक्तिसिंह पर पड़ी। घृणा से सर्वांग कुंचित हो उठा । वे इस निश्चय पर पहुंचे - कि इन दो मुगलों को मारने का कारण इसके सिवा और कुछ नहीं कि शक्तिसिंह अपने हाथों मुझे मारकर बदला चुकाना चाहता है, जबकि वह भी मुगलों की तरफ हो सकता है। इसके सिवा मुगलों के मारने का और कोई कारण नहीं।

प्रताप के नेत्र सजल हो आये। मन में कहा, 'हाय रे मनुष्य ! तुम्हारे भीतर इतनी नीच भावना भी रह सकती है। मुझे हर तरह से पिसा हुआ, हत सर्वस्व, परिश्रान्त और विक्षत शरीर देखकर बदले के लिए इससे अच्छा अवसर शक्तिसिह को नहीं सूझा। ईश्वर की इच्छा पूर्ण हो !' प्रताप ने एक साँस ली। निराशा की विषाक्त क्रिया से सर्वांग जर्जर हो रहा था। अब तक शक्तिसिंह बहुत समीप आ गये थे। उन्हें देखकर प्रताप ने कहा, "आओ शक्तिसिंह, इससे अच्छा अवसर तुम्हें न मिलेगा, बदले के लिए तुम्हें बहुत हैरान होना पड़ा। आज देश और स्वतन्त्रता के छूटने के साथ तुम्हारे हाथ से प्राण भी निकलें, यज्ञ में पूर्णाहुति भी हो जाय। मेवाड़ का नाम अब भारत के हृदय से मिट जाना ही अच्छा है, आओ, मैं तैयार हूँ !"

शक्तिसिंह पर एकाएक जैसे सहस्र अस्त्रों का प्रहार हुआ हो। वे काँप उठे। उनकी भक्ति की परीक्षा शुरू हो गयी। आंखों में अंधेरा छा गया। दुःख और क्षोभ से हृदय बैठ गया। घोड़े से उतरकर वे कटे हुए वृक्ष की तरह प्रताप के पैरों पर गिरकर बेहोश हो गये ।

प्रताप ने भाई को गोद में उठा लिया। अब शक्तिसिंह के हृदय का हाल छिपा न रहा। अपने शब्दों के लिए प्रताप को लज्जा आयी। उनके कटे हुए घावों से खून की कुछ बूंदें शक्तिसिंह के ललाट पर टपक पड़ीं।

शक्तिसिंह जागे । नेत्रों से आंसुओं की अनर्गल धारा बह चली। मृथ से एक शब्द भी न निकला। एक दृष्टि से प्रताप को देखते रहे। भक्ति, करुणा और प्रार्थना से मिली हुई उस दृष्टि का अर्थ प्रताप समझ गये । दुःख और निराशा के स्वर से प्रताप ने कहा, "भाई, अब कुछ नहीं रहा, क्षण-भर में मेवाड़ की रही-सही शक्ति भी नष्ट हो गयी।"

शक्तिसिंह फिर भी न बोले। आप ही आप उनका मस्तक अवनत हो गया । प्रताप ने बड़े प्रेम से छोटे भाई को हृदय से लगा लिया। युद्ध के बाद यह उन्हें प्रथम शान्ति मिली थी। एक दृष्टि से निश्चल वृक्ष-समूह, भाइयों का यह सप्रेम आलिंगन देख रहा था। एक झोंका हवा का आया और उन्हें कुछ शान्ति मिली, आनन्द से पल्लव नृत्य करने लगे । शक्तिसिंह बालक की तरह प्रसन्न हो गये ।

प्रताप ने कहा, "शक्ति, अब राजपूतों का उत्थान होना कठिन है। देश की दुर्दशा क्या हमें ही देखनी बदी थी ? पराजय के पश्चात् अब दुर्बल प्रजा पर यवनों का न जाने कितना कठोर अत्याचार होगा ? विधाता की यही इच्छा थी, नहीं तो हम हारते ही क्यों ?" प्रताप की आँखें भर आयीं। सर्वांग से रुधिर की धारा बह चली।

शक्तिसिंह ने कहा, "भैया ! आप क्या कहते हैं ? इस संग्राम में आपकी विजय हुई है बल्कि विजय से भी बढ़कर कोई शक्ति मनुष्य के हृदय को पराजित करनेवाली है, तो आपने उसी शक्ति को प्राप्त किया है। शत्रुओं में आपकी जितनी प्रशंसा हो रही है, आज तक भारतवर्ष के किसी वीर की उतनी प्रशंसा नहीं हुई। सेनापति से लेकर साधारण सिपाही भी यह स्वीकार करते हैं कि इतना बड़ा वीर हिन्दुस्तान में नहीं है, जिसे मरने का बिल्कुल ही खौफ न हो। भैया, तुमने अपने शत्रुओं के हृदय में घर कर लिया है, और मुझ जैसे अधम क्रूर मन पर भी अपनी महत्ता का प्रभाव डालकर रास्ते पर ले आये हो। इस युद्ध में आपकी विजय हुई है।"

हर्षातिरेक से प्रताप के घावों से फिर खून का फौवारा छूटा। प्रताप ने कहा, "शक्तिसिह, हमारा हृदय दुर्बल हो गया था, हम समझते थे, कि सत्य का बल समय पर काम नहीं देता। तुम्हारे शब्दों से हमारी दुर्बलता जाती रही। हम अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहेंगे। ईश्वर, तुम्हारी इच्छा विचित्र है !"

"भैया, आप अपने व्रत पर डटे रहिये। आपके जीवन से देश भर में जीवन का संचार होगा। आपका आदर्श देश के उत्थान का सहायक होगा। इस समय आप ही हिन्दुओं के मुकुटमणि और मुसलमानों की सत्ता का तिरस्कार करनेवाले हैं। आपके विचलित हो जाने पर देश और धर्म की मर्यादा जाती रहेगी। अब अधिक देर यहाँ ठहरना मेरे लिए अनुचित है, सलीम को सन्देह होगा। उससे मिलकर में शीघ्र ही आपकी सेवा के लिए हाजिर हूँगा ।" शक्तिसिंह के इन शब्दों को सुनकर प्रताप ने उन्हें जाने की आज्ञा दी देवोपम समुज्ज्वलकीर्ति भाई की चरणधूलि ग्रहण कर शक्तिसिंह विदा हुए।

प्रताप की तरह चेतक का शरीर भी क्षत-विक्षत हो रहा था, जगह जगह अस्त्रों के गहरे घाव थे और उनसे अविराम रुधिर की धारा बह रही थी। अपने शरीर की पीड़ा से अधिक दुख चेतक के घावों का था। अपने मित्र और शरीर रक्षकों में चेतक को प्रताप सबसे बढ़कर समझते थे। वह भी वैसा ही होशियार था अपने मालिक के मनोभावों को तत्काल समझ लेता था। इसकी पीठ पर जब तक प्रताप थे, उन पर कभी संकट नहीं आया। वह अपने समय का एक सर्वश्रेष्ठ शिक्षित अश्‍व था ।

चेतक की अवस्था क्रमशः खराब होती गयी । रुधिर बन्द न हुआ अपनी अन्तिम घड़ी समझकर अनिमेष दृष्टि से वह अपने मालिक को देखने लगा। प्रताप भी समझ गये कि उसे असह्य कष्ट हो रहा है। चेतक की आँखों से आँसुओं की धारा बह चली। एक शब्द करके उसने प्राण छोड़ दिये ।

पहले प्रताप को यह मालूम न था कि चेतक का यह अन्तिम समय है । उसकी मृत्यु हो जाने पर उसकी अनिमेष दृष्टि का अर्थ उनकी समझ में आया अपने मालिक को वह प्रेमभाव समझाता था। वे भी उससे उसी तरह प्यार करते थे । उनको बचाकर किसी निर्विघ्न जगह पर लाने के लिए ही अब तक वह मृत्यु से लड़ रहा था। अन्यथा समर क्षेत्र में ही उसकी अवस्था शोचनीय हो रही थी, वहीं वह अब तक मर गया होता।

चेतक की कृतज्ञता का स्मरण कर प्रतापसिंह रोने लगे । वे समझ गये कि उनके प्यारे अश्व ने अपने प्राणों के बदले में उनकी रक्षा की है। प्रेम की कसौटी पर कसकर उसने अपने को खरा सिद्ध कर दिखाया है। प्रताप को आज के विगत युद्ध की याद आयी तो रोने लगे, कितने ही स्थलों में चेतक के कारण ही उनकी प्राण-रक्षा हुई थी, कहा, "हाय ! दुःख कभी अकेला नहीं आता। आज हमारे कितने ही मित्रों, सहायकों और प्राणों से प्यारे बन्धुओं की मृत्यु हुई और आज ही चेतक भी हमें अकेला छोड़कर चला गया। यह विधाता का कितना निष्ठुर नियम है।"

प्रताप चेतक को अपना एक अन्तरंग मित्र समझते थे। उसकी मृत्यु की जगह पर उन्होंने उसका स्मारक बनवा दिया, जो आज भी मौजूद है।

इधर शक्तिसिंह अपने डेरे पर पहुँचे। जिन दो मुगल सैनिकों को प्रताप सिंह का पीछा करने के कारण उन्होंने मारा था, उनमें एक खुरासानी था और दूसरा मुल्तानी । प्रताप को प्रणाम कर खुरासानी के घोड़े पर चढ़ के मुगल-कैम्प में आये । इससे लोगों को सन्देह हुआ । सेनापति ने उनसे इसका कारण पूछा। शक्तिसिंह ने सच-सच बयान दिये। उन्होंने कहा कि युद्ध हो जाने पर शत्रु पर वार करना धर्म नहीं है। दूसरे हम राजपूत हैं। हम अगर किसी को इस तरह का पातक करते हुए देखते हैं, तो हमें भी पाप लगता है। जब इन दोनों खुरासानी और मुल्तानी ने प्रताप का पीछा किया, तब हमारे लिए प्रताप की रक्षा करना धर्म में दाखिल था। यही कारण है कि मैंने खुरासानी और मुल्तानी को मार डाला ।

शक्तिसिंह को इस सत्यभाषण से कोई कठोर दण्ड नहीं मिला। उन्हें केवल मुगलसैन्य से निकल जाने के लिए कहा गया। इससे शक्तिसिंह बहुत प्रसन्न हुए। वे यही चाहते भी थे।

जब मुगलों के साथ अलग होकर वे चले, तब एकाएक याद आयी कि खाली हाथ राजा के दर्शन ठीक नहीं। रास्ते में भाईनसोर का किला पड़ता था। अपनी पाँच हजार सेना के साथ उस किले पर उन्होंने आक्रमण कर दिया और विजय प्राप्त की। उस किले पर अपना अधिकार कर प्रताप के पास गये और वह किला प्रताप की नजर किया ।

शक्तिसिंह की इस अपूर्व भेंट से प्रताप मुस्कुरा दिये और वह दुर्गं उन्हें ही रहने के लिए दे दिया। उसी समय से वह दुर्गं शक्तावतों का वासस्थान हुआ। प्रताप की माता का शक्तिसिंह पर प्यार अधिक था, क्योंकि शक्ति सिंह छोटे थे, इसलिए वे शक्तिसिंह के साथ उसी दुर्ग में रहने लगीं। और क्योंकि मेवाड़ की राजमाता बाईंजी-राज के नाम से पुकारी जाती हैं, इस लिए उस कुल की स्त्रियों की बाईजी-राज की हो उपाधि रही। शक्तिसिंह के आने से मेवाड़वासियों को एक नयी शक्ति मिली और उनसे महाराणा को भी अनेक प्राप्त हुई।

एकादश परिच्छेद : पति-पत्नी

"मैं बीकानेर का राजकुमार हूँ, एक बहुत बड़े राज्य का मालिक। परन्तु आज काल के कुटिल चक्र में पड़कर दिल्ली के बादशाह का कैदी हूँ। मेरे स्वतन्त्रता के द्वार पर सोने की सांकल डाल दी गयी है। कल्पना के पंख कतर लिये गये हैं । अब मुक्त रूप से प्रभात के स्वर्णाकाश में उड़ने नहीं पाता, पीजरे में डाल दिया गया हूँ। अनन्त सौन्दर्यं अब मेरे लिये स्वप्न है और सत्य है, सीमा की क्षुब्ध बहुभाव संकुल क्षुद्र जल्पना । हल्दीघाटी का महासमर समाप्त हो गया । धन्य प्रताप, धन्य है तुम्हारा स्वतन्त्रता प्रेम और धन्य हैं तुम्हारे सहायक जिन्हें अपने प्राण भी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अपदार्थ से मालूम हुए। आज मेवाड़ पर कितनी बड़ी विपत्ति है। हाय! इस युद्ध पर मैं एक पद्य भी न लिख सका। मन में वैसी स्फूर्ति होती ही नहीं कि लिख सकूं, संकल्प-ही-संकल्प करता हूँ। हृदय के एक कोने में उसकी आभा विक सित नहीं होती है; तत्काल दूसरे कोने में विलीन हो जाती है, जैसे किसी ने मेरी शक्ति ही हर ली हो। हिन्दुओं पर कितना बड़ा अन्याय, कितना घोर अत्याचार हो रहा है !' अपने कमरे में चुपचाप बैठे हुए कविवर पृथ्वीराज विचार कर रहे हैं।

"आज इतनी चिन्ता किस बात की है ?" उनकी पत्नी सुन्दरी भीतर से कहती हुई निकली और उनकी बगल में बैठ गयी।

"नहीं कोई खास बात नहीं है, कुछ विचार कर रहा हूँ।" पृथ्वीराज ने अन्यमनस्क होकर कहा।

"विचार तो तुम करते ही रहते हो। परन्तु इतना विचार भी करना अच्छा नहीं। आजकल तुम दुर्बल बहुत हो गये हो। चेहरे का रंग फीका पड़ गया है। देखो, मैं जब तुम्हें देखती हूँ, तुम्हारा चेहरा उदास रहता है, क्या बात है ?" सुन्दरी हाथ पकड़कर आग्रह से पति को देखने लगी।

"कह तो दिया, हमारे दुर्भाग्य के सिवा विशेष बात और कुछ भी नहीं है।" पति ने उसी तरह चिन्तित भाव से कहा ।

"देखो, तुम्हें मेरी भी कसम है, सच कहो, आजकल कुछ दिनों से तुम बहुत उदास रहा करते हो, मेरे मायके से बुरा हाल तो नहीं आया ?" सुन्दरी की आंखें सजल हो आयीं ।

"तुम्हारे मायके का बड़ा बुरा हाल है सुन्दरी!" पृथ्वीराज की आवाज भर्राई हुई थी।

सुन्दरी आश्चर्यचकित हो, एकटक पति को देखती रही। उसके मुख से एक भी शब्द न निकला । दृष्टि में ही प्रश्न की व्याख्या भरी हुई थी ।

पृथ्वीराज ने कहा, "तुम्हारे पिता आये थे, अकबर के दरबार में नौकरी करने के लिए !"

सुन्दरी ने पति का हाथ छोड़ दिया। घृणा से सर्वांग संकुचित हो गया, "मेरे पिता ! यहाँ ! अकबर के दरबार में नौकरी करने के लिए !"

"हाँ, तुम्हारे पिता, शक्तिसिंह, अकबर के दरबार में नौकरी करने के लिए।"

"कारण ?" सुन्दरी ने कुछ वक स्वर से पूछा ।

"प्रताप से उनका विवाद हो गया था, प्रताप ने उन्हें अपने राज्य से बाहर निकल जाने की आज्ञा दी थी।"

" फिर ?" सुन्दरी ने आग्रह से पूछा।

"फिर क्या, अकबर को एक बचे हुए स्वतन्त्र राज्य पर अधिकार करने का साधन मिल गया। उधर मानसिंह गये महाराणा के साथ भोजन करने, महाराणा ने कह दिया, हम विधर्मियों को बेटी ब्याहनेवाले पतित क्षत्रियों के साथ भोजनपान का सम्बन्ध नहीं रखते। मानसिंह दिल्ली आये, अकबर को उभारा, करीब दो लाख मुगलों की सेना महाराणा को दबाने के लिए भेजी गयी। मानसिंह भी गये और साथ ही तुम्हारे पिता भी ।"

"फिर ?" विरक्ति से मुँह फेरकर सुन्दरी ने प्रश्न किया।

"फिर हल्दीघाटी में राजपूतों से मुगलों का घनघोर युद्ध हुआ। महाराणा ने अद्भुत वीरता दिखायी।"

उत्साह से गर्दन उठाकर शेरनी की तरह पति को सगर्व देखती हुई सुन्दरी ने कहा, "उस समय मानसिंह कहाँ पर थे, ताऊजी मानसिंह से जरूर मिले होंगे।'

"हाँ मानसिंह बच गये, महावत मारा गया, हाथी मानसिंह को लेकर भाग गया।"

सुन्दरी पति से और सटकर बैठ गयी। "हाँ फिर ?" आग्रह से पूछा ।

"मुगलों की सेना बहुत बड़ी थी। बाईस हजार राजपूत, दो लाख मुगलों से लड़ रहे थे, झालामान्ना, रामसिंह और उनके सैकड़ों राजपूत बचे । शाम भी हो आयी थी । महाराणा ने युद्ध बन्द कर दिया।"

चिन्तायुक्त होकर "और पिताजी ने क्या किया ?"

"अब वे महाराणा से मिल गये हैं। दो मुगल महाराणा के पीछे लगे थे, उन्हें इन्होंने मारा और महाराणा प्रताप से अपने अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की। अब वे भाईंनसारे के किले पर अधिकार कर बाईंजी-राज के साथ-साथ वहीं रहते हैं ।"

"हे ईश्वर !" सुन्दरी के हृदय पर से जैसे एक बोझ उतर गया।

"हिन्दुओं के ये बड़े ही बुरे दिन हैं। अकबर की धूर्तता को हिन्दू नरेश यथार्थ सत्य समझे हुए हैं। वे नहीं जानते कि यह पर्दे के अन्दर शिकार खेलता है बिना युद्ध के ही तमाम राजपूतों को इसने वशीभूत कर रखा है। अपना विवाह भी राजपूत घराने में किया। उच्चता की अभिलाषा हद तक पहुँची और कहीं से इसको बाधा भी नहीं मिली। यदि आज महाराणा न होते तो हिन्दुओं पर यह इच्छानुसार कानून के बोझ लादता जाता और वे स्वीकार भी कर लेते। हाय रे भारतवर्ष ! लोभ के वशीभूत होकर आज कितनी नीचता हिन्दू जाति तुम्हारे पवित्र वक्ष पर कर रही है !" पृथ्वीराज आप-ही-आप कहते गये, एकाएक सुन्दरी को देखकर, "नौरोज भी तो अब आ गया होगा ?"

"हाँ, बेश्या की तरह बन-ठनकर जाना, मुझे नहीं पसन्द आता ।"

"पराधीनता का अर्थ यही है सुन्दरी ।"

"न जाने क्यों, मैं जाती तो हूँ पर मारे भय के मेरा सर्वांग काँपता रहता है।"

"दाल में काला जो है यह खुशी का दिन नहीं, इस दिन हिन्दुओं के पर्दे के अन्दर बादशाह का आक्रमण होता है।"

"आक्रमण ? कैसा आक्रमण ?" आश्चर्य से सुन्दरी ने पूछा।

"भेड़ की तरह राजपूतों को अपनी यज्ञशाला में उन्होंने डाल ही रखा है, उनमें कान-पूँछ हिलाने की ताकत नहीं रह गयी, अब स्त्रियों के सतीत्व बल पर भी बादशाह विजय प्राप्त कर रहे हैं और उन स्त्रियों के साथ बादशाह के गुप्त समर का ही नौरोज है, यह राजपूत स्त्रियों के सतीत्व की परीक्षा का दिन है सुन्दरी !" पृथ्वीराज क्षुब्ध हो गये । सुन्दरी उनकी भावभंगी देखने लगी ।

" तो अब मैं कदापि न जाऊँगी।" भय-विकम्पित स्वर से सुन्दरी ने कहा।

"जाओगी क्यों नहीं, जाना जरूरी है, नहीं तो तुम्हारे पति पर विपत्ति आयेगी, बादशाह नाराज हो जायेंगे, धर्म अपने साथ ही है, तुम उसकी रक्षा करोगी तो वह तुम्हारी रक्षा अवश्य करेगा।" पृथ्वीराज ने अविचल स्थिर कण्ठ से कहा, "जाने में भय क्या है ? सतर्क रहना और अपनी रक्षा का समुचित उपाय करना । "

द्वादश परिच्छेद : अकबर का मीना बाजार

चारों ओर रंगीन पताकाएँ उड़ रही हैं। रास्तों पर मखमल के गलीचे बिछे हुए, पैरों में गुदगुदी पैदा करते हैं। कतार- की- कतार मुसलमान और व्यवसायी वैश्यों की स्त्रियाँ टोकरियों में भाँति-भांति के सामान रखकर बेच रही हैं। एक ओर फूलों की बहार है, तो दूसरी ओर फलों की कतार। एक ओर रेशमी साड़ियाँ बिक रही हैं, दूसरी ओर हीरे-जवाहिरात, चुन्नी, पन्ना, मोती, पुखराज। इधर मिठाइयों की दूकानों में भीड़ लगी है, तो उधर इन और फुलेल की शीशियाँ फूट रही हैं। दूकानदार औरतें, खरीदार औरतें। यह औरतों का मेला है। इसे ही नौरोज कहते हैं। इसमें बेगमें, बादशाहजादियाँ, राजपूतानियाँ, और हिन्दुस्तान के हर प्रान्त के प्रतिष्ठित घराने की हिन्दू और मुसलमान स्त्रियाँ अपने रोब-दाब पर इतराती हुई सौदा खरीद रही हैं, अपनी सहेलियों से इठलाती हुई दिल्लगी-मजाक कर रही हैं, तालियां पीटतीं, हँसती, खिलखिलातीं, लोट-पोट हो जातीं, फिर उठती, दौड़तीं, रुकतीं, हँसती और खेलती हैं। कोई अदब नहीं, कोई कायदा नहीं, कोई मनाही नहीं, कोई रोक-टोक नहीं, पूरी स्वतन्त्रता है ।

इस स्वतन्त्रता के एकछत्र सम्राट हैं अकबर । बाहरी संसार के भी वे सम्राट हैं और यहाँ लोगों की गृह- स्वतन्त्रता पर भी अपने अधिकार का सिक्का जमाना चाहते हैं। बाहर भी जिसके फले-फूले राज्य को चाहते हैं, हड़प लेते हैं। और यहाँ भीतर भी लोगों के कलेजे काढ़कर उनकी प्रेम-प्रतिमाओं पर बलात्कार कर अपनी विषय वासना चरितार्थ करते हैं। अकबर की लालसा की अग्नि को घृताहुति से प्रज्वलित करने के लिए ही इस नौरोज का इन्तजाम होता है। यहाँ की सहस्र-सहस्र स्त्रियों के वे एक मात्र रसिया-जिसके साथ चाहते हैं, इच्छानुसार लीला करते हैं, छल से, बल से या कौशल से जिस तरह हो, पसन्द आयी हुई सुन्दरी का सतीत्व हरण कर बादशाह अकबर पुरुषों और स्त्रियों में, बाहर और भीतर सर्वत्र अपना अबाध अधिकार कायम रखते हैं। और यही हैं, 'दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा !' अर्थ-लुब्ध कवियों के स्तुति-पात्र ।

मुसल्मान-इतिहास लेखक अब्बुल फजल ने यथाशक्ति नौरोज के सम्बन्ध में पर्दा डालने की चेष्टा की है। वे अकबर के नौकर थे, इसलिए उनके कलंक को ढकने का प्रयत्न कर नमकहलाली की महोच्च पदवी पर प्रतिष्ठित होते का प्रशंसनीय कार्य किया है; परन्तु दुख है कि चातुरी के कृत्रिम वाग्जाल ने सत्य को ही प्रकट कर दिया है, अब्बुल फजल लिखते हैं, "नौरोज का मेला हर महीने लगता था। प्रधान उत्सव समाप्त हो जाने पर नवें दिन, (हर साल के नये दिन का न हो।) यह मुसल्मानों के लिए आनन्द का दिन था। उसी दिन एक जगह बादशाह औरतों का मेला लगाते थे । उसमें बादशाह के साम्राज्य के बड़े-बड़े व्यवसायियों की बहू-बेटियाँ चीजें बेचने आती और शाही महल की बेगमें अपनी पसन्द के मुताबिक चीजें खरीदती थीं। बादशाह सूरत बदलकर उस मेले में इसलिए जाते थे कि सियासी मामलों की जानकारी हासिल करें। यानी हमारी रियासत की अन्दरूनी हालत कैसी है, रिआया के ख्यालात कैसे हैं, हमारे नौकरों के रंग ढंग क्या हैं, चीजों की निखं इन दिनों क्या है, इन सब बातों की जानकारी हासिल करने के लिए ही वे वहाँ जाते थे, उनका और कोई बुरा मतलब न था।"

अब्बुल फजल के अन्तिम वाक्य की ध्वनि प्रकट कर देती है कि उन दिनों भी इस नौरोज मेले की लोगों में काफी समालोचना हो चली थी, जिसे दबाने के लिए ही यह अन्तिम बात इतनी प्रसस्ति युक्ति के साथ आया है। बादशाह को रिआया की हालत का पता आम सड़क पर ही लगेगा, इख नौरोज के मेले में नहीं । यहाँ साधारण घराने की स्त्रियां न आती थीं, जिनसे रिआया की हालत अपनी बुद्धि की तुला पर तौलते। यह काम आप सड़क पर बहुत आसानी से हो सकता था। साधारण मनुष्य ही 'रिआया शब्द के उचित अधिकारी हैं, राजा-महाराजा और सेठ साहूकार नहीं रहा चीजों के निर्ख का हाल, सो इसका भी पता बाजार में ही लगता है और इतनी आफत मचाने के बाद नहीं। सेठ साहूकारों की औरतें कभी सौदा नहीं बेचतीं, न इससे बाजार की हालत जानी जा सकती है, यहाँ तो वे शौकिया सौदा बेचती थीं, शायद अब्बुल फजल को तर्क मालूम न था ।

अकबर चरित्र के बड़े दुबले थे। अपनी विषय-वासना को चरितार्क करने के लिए यह जाल उन्होंने फैलाया था। इसमें एक से एक खूबसूरत चिड़ियाँ फँसाते थे । जो औरत उनकी नजर चढ़ जाती थी, उसका छुटकारा होना मुश्किल हो जाता था। छल से, बल से या कौशल से उसके सतीत्व को ये अवश्य ही नष्ट कर देते थे। मूर्खो की आँख में धूल झोंकने के लिए वह बाहरी दिखलावा रच रक्खा था। परन्तु अकबर का इस तरह टट्टी की बोट में शिकार खेलना अधिक दिनों तक छिपा नहीं रहा। दरबार में यह बात मशहूर हो गयी। लोग आपस में इसकी समालोचना करने लगे। परन्तु अकबर के डर से कोई खुलकर न कह सकता था। वह मुगलों का मध्याह्न काल था। मुगलों की शक्ति का विरोध करके अपनी जान खतरे में डालना था। इसलिए सब मन मारकर रह जाते थे। और नौरोज के दिन बेबसी के कारण अपनी-अपनी पत्नियों को बादशाह सलामत की सेवा में भेजते थे।

बाजार लगा हुआ है, औरतों की भीड़ बढ़ रही है। एक से एक सुन्दर वस्त्र और आभूषणों की जगमगाहट पर निगाह काम नहीं करती। द्वादशी, त्रयो दशी, चतुर्दशी, पंचदशी, शोषी, सप्तदशी, तरुणी और परिपूर्ण यौवना ऊंचे वंशवाली कोमलांगी कामिनियों का रंग बरस रहा है। हँसी, ठठोली, आलाप और शिष्टाचार में यौवन की विचित्र बहार खिल रही है। यहाँ सौन्दर्य की सोलहों कलाएँ विद्यमान हैं। काले कुंचित प्रलम्ब बालों, सुकोमल स्तनों, क्षीण छोटी कटियों, गुरु नितम्बों आदि सौन्दर्य की प्रदर्शनी है। कोई नीलाम्बरी साड़ी पहने हुए, कोई अरुणाम्बरी जरी की किनारीदार शुक्ला म्बर, कृष्ण, पीत, बैंजनी, गुलाबी, फिरोजी, एक रंग की सैकड़ों साड़ियाँ हवा में उड़ती हुई । भीतर रेशमी चोली, बालों में फुलेल, गालों में पुष्प रेणु । सौन्दर्य के सरोवर में जैसे शतदल प्रस्फुटित हो रहे हों। जहाँ बड़े-बड़े ऋषि और तपस्वियों का धैर्य छूट जाता, ब्रह्मचारियों में काम की वासना जाग्रत हो जाती, वहाँ बादशाह बिल्कुल निर्लिप्त और निर्विकार रहकर अपने राज्य की हालत जाँच करते हैं !

दूसरी ओर मुसल्मानी सौन्दर्य । बेगमें बादशाहजादियाँ, बड़े-बड़े ओहदेदारों की परीजात नवयुवतियाँ, चढ़ती हुई नागन-सी जहरीली खाली मुँथी हुई खुली वेणी- कामना की सजीवता में लहराती हुई। कीमती महीन कपड़े का पाजामा, पैरों में कामदार जूतियाँ। यौवन की अनियन्त्रित स्वच्छन्द चाल । अपने जड़ाऊ जेवरों की ओर ज़रा भी ध्यान न देनेवाला अल्हड़पन । अपने दिल का मान, अपने सौन्दर्य का गुमान, किसी को कुछ न समझनेवाली शान । मन को इशारे पर लिये हुए, इठलाती, हास्य की तरंगों पर डोलतीं, छेड़ती, अलग हो जातीं, आतीं, फिर हँसती-बोलतीं, एक दूसरी की बगल में बैठकर एक दूसरी के शौहर की प्रेम-कथाएँ पूछतीं, एक दूसरे को देख-देख कर हँसतीं, इशारा करतीं, कोई अपनी सहेली से गुलदस्ता माँगती, कोई फिर मिलने का वादा करती, कोई मिलने का वादा पूरा न करने के अपराध से अपनी सहेली से रूठ जाती ।

हिन्दू और मुसल्मान औरतों की भरी हुई चहल-पहल और जगमगाती हुई जवानी से अलग, आप ही अपने में, एक कोने में एक अनुपम स्त्री सिर झुकाये हुए बैठी है। जैसे किसी तरह अपनी कैद का वक्त गुजार रही हो । परन्तु गुलाब का फूल एकान्त में खिलकर भी बचने नहीं पाता। लोगों की नजर उसे खोज लेती है । उसी तरह इस अनुपम सुन्दरी के स्वर्गीय सौन्दर्य वे अभिमानिनी औरतों को उसके पास तक खींच लिया। कोई आती और एकटक उसके रूप को देखकर शर्म से चली जाती, उसका सम्पूर्ण अभिमान, चूर्ण-विचूर्ण हो जाता। कोई आती और बिना किसी कारण के उससे वार्ता लाप करने लगती । प्रश्नों का उत्तर सुन्दरी को देना ही पड़ता। "तुम इतनी उदास क्यों हो ? क्या महाराणा की पराजय से तुम्हें यह शोक हुआ है ? तुम्हारे पति ने तो नहीं तुम्हें कुछ कहा ? आज तुम अपनी सहेलियों से रूठी हुई क्यों हो ? तुम्हारी तरह कोई सुन्दरी नहीं है, क्या इसलिए तुम अपनी हेठी होने से डरती हो ?" इस तरह के आवश्यक अनावश्यक प्रश्नों का उत्तर उसे ही देना पड़ता। किसी तरह बेचारी बचकर इन प्रश्नों का उत्तर देती और प्रत्येक आक्रमण से अपना जी बचाती। देखते-देखते शाम हो आयी, बौरतों ने अपने-अपने घर की राह ली। प्रायः मेले का आँगन खाली हो गया। पर सुन्दरी के घर से कोई सवारी न आयी, जिससे उसकी चिन्ता और भी बढ़ गयी। कुछ और शाम होने पर पालकी आयी। पर सुन्दरी की दासी उस पालकी के साथ न थी। कहारों ने पृथ्वीराज के नाम से आवाज लगाते हुए सुन्दरी को उस पालकी पर बैठने का इशारा किया। दासी के न रहने से चित्त में एक प्रकार की चंचलता हुई, पर शीघ्र घर पहुँचने के लालच ने सुन्दरी को दासी के न आने के कारण पर विशेष विचार करने का मौका न दिया।

चन्द्रमुखी पालकी पर बैठ गयी। चित्त पति के पास रखा था। पालकी का द्वार कहारों ने बन्द कर दिया और पालकी उठाकर धीरे-धीरे चलने लगे ।

एकाएक सुन्दरी के हृदय में धड़कन होने लगी। उसे भय होने लगा। परन्तु इस भय के कारण वह कोई अनुमान न कर सकी।

कहारों का ध्यान अपने गन्तव्य स्थान पर शीघ्र पहुँच जाने पर लगा था, वे बड़ी तेजी से बढ़ रहे थे। इधर सुन्दरी के मन में भी सन्देह पैदा हो रहा था। अब तक वह अपने घर पहुँच जाती थी। इस वार देर होने पर उसने पालकी की खिड़की खोलकर झांका। सब स्थान अपरिचित थे इस राह से वह पहले कभी नहीं गयी। उसने कहारों से पूछा, "तुम लोग कहाँ जा रहे हो ?"

"सरकार, पृथ्वीराज के यहाँ ।" विनयपूर्वक एक कहार ने उत्तर दिया।

"इस राह से पालकी पहले कभी गयी ही नहीं, तुम कैसे लिये जा रहे हो ?"

"सरकार आम रास्ता आज बन्द है, इसलिए चक्कर काटकर जाना पड़ रहा है।"

सुन्दरी चुप हो गयी परन्तु उसकी शंका न गयी। नौरोज का विषमय फल वह सुन चुकी थी। उसके पति ने उसे सावधान कर दिया था। हृदय को दृढ़ करके वह बैठी रही। एक बार अपनी अंगूठी के हीरे को देखा। फिर कमर में बंधे हुए कटार को भली-भाँति आजमाया, अपने इष्टदेव को स्मरण किया और दृढ़ होकर बैठ गयी। अनेक प्रकार की कुतर्कनाएँ उठकर मस्तिष्क को क्षुब्ध करने लगी, तमाम बदन पसीने-पसीने हो गया। कभी भय होता और कभी कुछ ही देर में फिर साहस आकर उसे धैर्य देता। कभी मरने का संकल्प करती, कभी पति के उदास मुख को देखकर फिर जीने और पति को प्रसन्न करने का निश्चय करती। इस तरह की परिस्थिति में बैठी हुई व्याकुल हो रही थी। उधर कहार तब तक एक सुरंग की राह पार कर रहे थे। सुन्दरी ने पालकी के दरवाजों को खोलकर झांका तो चारों ओर अंधेरा दिखायी पड़ा। उसकी समझ में न आया कि वह कही जा रही है। और इस छल का कारण और परिणाम क्या है ? क्रमशः कहार अपने अभीष्ट स्थान पर आ गये। पालकी रख दी। चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। एक दूसरे की सूरत न देख सकता था। वह जगह एक अहाते के अन्दर थी। सुन्दरी ने पालकी के दरवाजे खोले, स्थान का दृश्य देखकर हैरत में पड़ गयी। डपटकर कहारों से पूछा, "यहाँ तुम लोग मुझे कहाँ ले आये ? जल्दी मुझे मेरे घर पहुँचाओ ।"

एक बूढ़े कहार ने कहा, "आप किसी तरह की चिन्ता न करें। यहाँ आपको कोई खतरा नहीं है। आपके पति यहीं पर हैं। उन्हीं के हुक्म से हम लोग आपको यहाँ पर लाये हैं। आप भीतर जाइए। वे भीतर हैं।"

कहार की बात से चन्द्रमुखी को कुछ आश्चर्य हुआ । उसके स्वामी यहाँ क्यों आये, कैसे आये, सोचने लगी। हिम्मत बाँधकर पैर उठाया और उस कमरे के भीतर गयी। दरवाजे के भीतर जाते ही किसी ने तुरन्त दरवाजा बन्द कर दिया। शब्द से सुन्दरी चौंक पड़ी। चारों ओर देखने लगी, परन्तु वहाँ नजर काम न करती थी, इतना अंधेरा था। अंधेरे से सुन्दरी को कुछ भय हुआ। जी में यह आया कि यहाँ से जिस तरह से हो बाहर निकल जाना चाहिए, यहाँ खतरा अवश्य है। यह सोचकर जिस दरवाजे से होकर वह आयी थी, उसके पास चलकर उसे खोजने लगी। पर दरवाजा इस ढंग से बन्द था कि खुल न सकता था। सुन्दरी बड़ी चिन्ता में पड़ी। दरवाजा मजबूत भी इतना था कि तोड़ने से टूटता भी नहीं था । दुर्बल हृदय और बैठ गया । परन्तु तुरन्त ही उसे अपने पति के शब्दों की याद आयी, मन की सारी कमजोरी उसी वक्त दूर हो गयी। हृदय में एक नया साहस उमड़ चला। उस भयानक विपत्ति में भी जैसे उसका पति उससे कह रहा हो, तुम मुझे स्मरण करती रहोगी, तो तुम्हें कभी भय न होगा, तुम्हारा केशाग्र भी कोई न छू सकेगा ।

इसी समय पास ही से किसी के आने की आहट मालूम हुई। वह धीरे धीरे आ रहा था। जैसे चोर अपना पद शब्द भी रोककर चलता है। बिल्कुल पास आ उसने सुन्दरी को सप्रेम सम्बोधन किया, "सुन्दरी !"

आवाज काँप रही थी, जैसे बाँस का पत्ता हवा में थर-थर काँपता हुआ शब्द करता है। 'सुन्दरी' सम्बोधन सुनते ही सुन्दरी के रोवें खड़े हो गये । उसने चारों ओर निगाह में जोर देकर देखा। पर कहीं कोई दिखलायी न पड़ा । सुन्दरी को निश्चय हो गया, कि आज ईश्वर की इच्छा से उसकी यह भयानक परीक्षा का दिन आ गया है। उसका हृदय काँपने लगा ।

बिल्कुल नजदीक से आवाज आयी, "मैं तुम्हें प्यार करता हूँ सुन्दरी ।"

"जैसे एक बच्चा अपनी माँ को !" सुन्दरी ने तुरन्त उत्तर दिया। मन-ही-मन उसने कहा, 'हे ईश्वर, मेरी लाज आज तुम्हारे हाथ है, भगवान्, इस कठिन संकट से मेरी नाव पार लगाओ। इस घोर भँवर से बचानेवाले तुम्हीं हो, तुमने कितनी ही सतियों की रक्षा की, पापियों के हाथों उन्हें कलंक नहीं लगने दिया, इस बार मेरी भी उसी तरह रक्षा करो स्वामी ।'

इस समय वह अपरिचित स्वर सुन्दरी को बिल्कुल पास ही सुनायी दिया, "देखो, तड़फते हुए को न सताओ, नहीं तो तुम्हारी जवानी काम की न रहेगी। मैं तुम्हें इतना प्यार करूं और तुम ज़रा आँख उठाकर देखते भी नहीं ! देखो, ईश्वर के लिए अब न सताओ ।" आवाज में कामना की जो दुर्गन्ध आ रही थी, बिना देखे हुए ही सुन्दरी ने निश्चय कर लिया कि यह कोई बिड़ाल है, अथवा वैसी ही नीच प्रकृति का मनुष्य, इससे छुटकारा पाना ईश्वर के ही हाथ है। हाय ! मैं कहाँ आकर फँसी।

सुन्दरी को उसके ताऊ वीरवर महाराणा प्रतापसिंह की याद आयी । उसने सुना था कि हल्दीघाटी के अगणित शत्रुओं के अन्दर घिरकर भी वे नहीं घबराये धैर्य के साथ, अपरिमित विक्रम से शत्रुओं का संहार करते गये। मैं उन्हीं की भतीजी हूँ, उसके सगे भाई की लड़की, यदि वे अगणित शत्रुओं में अपने धर्म, देश और जाति की मर्यादा की रक्षा कर सकते हैं, तो क्या मैं यहाँ अपने धर्म और सम्मान की रक्षा न कर सकूँगी ?

इतना विचार पैदा होने के साथ ही मानो अनेक हाथियों का बल उसके भीतर आ गया। कड़ककर उसने कहा, "तू कौन है मुझे छेड़नेवाला ? क्या तू राजपूतों की स्त्रियों को नहीं पहचानता ? "

एकाएक कमरे में सैकड़ों बत्तियाँ जल उठीं और सुन्दरी ने देखा, उसके सामने दीन भाव से भारतेश्वर दिल्लीपति अकबरशाह उससे प्रेम की भिक्षा प्रार्थना कर रहे हैं !

अकबर ने देखा, उसके कमरे में हजारों दीपकों का पुंजीभूत प्रकाश उसी सुन्दरी के रूप के आगे जैसे मलिन पड़ गया हो, उसकी प्रदीप्तकान्ति से एक विचित्र सौन्दर्य उस समय निकल रहा था। अकबर ने जीवन में ऐसी सुन्दरता कभी नहीं देखी, दीपक के पतंग की तरह एक दृष्टि से उस सौन्दर्य की आग को देख रहे थे। ऐसा रूप इतनी गोराई, सुडौल देह, उन्होंने कभी नहीं देखा। उनकी बेगमें, बादशाहजादियाँ, उसके मुकाबिले में बाँदियों की तरह जँच रही थी ।

अकबर की भड़कीली पोशाक और कामान्ध-दृष्टि देखकर सुन्दरी का कलेजा काँप उठा । एकाएक प्रकाश में एक सबल पुरुष को सामने देखकर सुन्दरी का धैर्य जाता रहा। उसे पद्मिनी की याद आ गयी। मायके में लाखों सती राजपूत-वधुओं के जौहर की कथा, जलती हुई चिताग्नि से भस्म होकर अपनी मर्यादा की रक्षा करने की कहानी उसने सुनी थी। हृदय में रुधिर-बल का संचार हुआ। कमर के कटार और अंगूठी के हीरे की याद आयी। उसने अविचलित दृढ़ कण्ठ से फिर पूछा, "कौन है ?"

"तुम्हें दिलोजान से प्यार करनेवाला अकबर ।" सम्राट् दोनों हाथ फैलाये हुए सुन्दरी से मिलने के लिए आतुर हो रहे थे।

नाम सुनते ही युवती के रोम-रोम से घृणा, द्वेष, और ज्वाला का जहर निकलने लगा। नाम सुनते ही उसका संकोच-भाव तिरोहित हो गया। आँख भी आप ही आप कुंचित हो गयीं। धिक्कार की कर्कश ध्वनि से उसने कहा, "अकबर ? कौन अकबर ?"

"तुम्हारा प्यारा अकबर ?"

"मैं भारत के सम्राट् को चाहती हूँ, क्या तुम वही अकबर हो ?"

"हाँ प्यारी, तुम जिसे चाहती हो, मैं वही अकबर हूँ हिन्दोस्तान का बादशाह लेकिन तुम्हारे गुलामों का गुलाम ।"

"हिन्दोस्तान के बादशाह की नीचता ! अकबर, ईश्वर है, तुम कहते हो, तुम हिन्दू और मुसलमानों को बराबर की निगाह से देखते हो, लेकिन जरा सोचो तो कि तुम करोड़ों मनुष्यों को कितना बड़ा धोखा दे रहे हो, तुम चाहते कुछ और हो, कहते कुछ और और करते कुछ और हो। तुम हिन्दू स्त्रियों का सतीत्व भी अब नष्ट कर देने पर तुले हुए हो, जिस तरह हिन्दुओं की शक्ति को तुमने अपनी चालबाजियों से समाप्त कर दिया। परन्तु और चाहे जिसे तुम धोखा दो पर ईश्वर को धोखा न दे सकोगे। अकबर ईश्वर की सज्जा बड़ी भयानक होती है, तुम्हारी बादशाहत जलकर राख हो जायगी ! मैं उस रिआया की स्त्री हूँ जिसे हर तरह से तुमने कमजोर कर रखा है। आज किसी की वाणी का स्वर उसकी गिरती हुई जाति के पास नहीं पहुँचने पाता। उस स्वर्गीय शक्ति को तुम कैद कर सकते हो सम्राट्, लेकिन सती के सतीत्व को स्पर्श भी नहीं कर सकते। आज तक मुसलमान बादशाहों को कितनी ही बार सतियों की परीक्षा का फल मालूम हो चुका है; परन्तु आज तक उनकी दृष्टि का मोह दूर न हुआ, इससे अधिक दुःख का विषय और क्या होगा अकबर ? - हिन्दोस्तान में राज्य कर हिन्दोस्तान के एक अच्छे से अच्छे विषय का अध्ययन वे न कर सके।"

"तो यहाँ तुम कैसे सती हो सकोगी ? यहाँ मैंने पहुँच के अन्दर एक दीया भी नहीं रक्खा, यह मैंने पहले ही सोच लिया था प्यारी !"

"मूर्ख है तू, जल जाना ही सतीत्व नहीं है, सती पत्ति के रहते हुए नहीं जलती ।"

"देखो, यह कुछ मेरी समझ में नहीं आता, खुदा के लिए कोई नया शिगूफान खिलाना कि यह भेद खुल जाय ।"

"भेद खुलने से डर भी है ?"

"बहुत काफी । देखो, प्यारी, अब तो नहीं रहा जाता। मैंने जब से तुम्हें देखा है, मेरा दिल मेरा नहीं रहा। अब मुझे इतना न जलाओ, इन व्यर्थ की बहसों में भला क्या रक्खा है ?" अकबर सुन्दरी से लिपटने के लिए बढ़ने लगे ।

"ठहरो बादशाह, अभी मेरे कई प्रश्नों का उत्तर बाकी है। फिर तुम्हारे दर्द की दवा करूंगी।"

"यह नौरोज का मेला क्या इसलिए लगता है ?"

"हाँ, इसीलिए।"

"हर मेले में तुम ऐसा ही कृत्य करते हो ?"

"हर मेले में।"

"क्यों ?"

"लोगों की नजर में घटकर रहना मुझे पसन्द नहीं ।"

"ईश्वर को मानते हो ?"

"नहीं।"

"तो हिन्दू और मुसलमानों के धर्म का मेल फिर कैसे करोगे ?"

"यह सब बाह्री दिखावट है। मैं सिर्फ अपनी बादशाहत की जड़ मजबूत करना चाहता हूँ। हिन्दू और मुसल्मानों का धार्मिक ढोंग दीनों के दिल से हटाकर ।"

"लेकिन तुम्हारे पाप से लोगों में अविश्वास पैदा होगा, तो तुम टिक न सकोगे।"

"शक्ति के रहते अविश्वास का डर मूख को हुआ करता है।"

"लोगों की शक्ति ही तुम्हारी शक्ति है और तुम्हारी तरफ से अविश्वास फैल जाने पर तुम्हारी शक्ति भी क्षीण हो जायगी।"

"मैं किसी तरह भी अपने पापों को जाहिर न होने दूंगा।"

"पाप कभी दबाया नहीं दबता ।"

"मैं दबा लूंगा। मेरी इच्छा पर दबाव नहीं काम कर सकता। मैं उसे पूरा करके छोड़ता हूँ। आज तुम्हें जब से मैंने देखा है, हजार जान से आशिक हो रहा हूँ। जब तक तुम्हें न पाऊँगा, मुझे चैन नहीं। मैं सच कहता हूँ, तुम जितनी सुन्दरी हो, मेरी तमाम सल्तनत तुम्हारे ऊपर निछावर है। आज तक कितनी ही सुन्दरियों को मैंने गले लगाया, पर मेरे गले का हार तुम्हीं हो सकी हो। प्यारी, अब देर न करो, हिन्दोस्तान का बादशाह तुम्हारा-'' हाथ फैलाये हुए कलेजे से लगा लेना चाहा।

"बस, खबरदार, स्पर्श मत करना, पापी, भस्म हो जायगा, जल जायगा, अभी तुझे बहुत-सा पाप भोगना है, नहीं तो अकबर मैं तुझे दिखाती कि सती किसे कहते हैं, परन्तु कामान्ध, ले तू एक परीक्षा देख।"

सती आँखें झुकाये हुए कुछ देर तक चुपचाप खड़ी रही, कमर से कटार निकालकर फेंक दिया। अकबर कटार की झंकार से चौंक पड़े, आश्चर्य की दृष्टि से एक वार कटार को और एक बार सुन्दरी को देखते रहे। हाथ जोड़ कर सती ने दीपक के प्रकाश की ओर लक्ष्य करके प्रणाम किया। फिर शान्त गम्भीर स्वर में कहा, "माता, आज बड़ी कठिन परीक्षा में मुझे डाला है तुमने । आज मैं क्षत्राणी की तरह से बादशाह के पशुत्व की हत्या न करूँगी माँ- मेरी आत्मा में विराजमान हो, माता ब्राह्मणी के रूप में, बादशाह के पशुत्व की हत्या न करो !"

बादशाह विस्मय-विमुग्ध की तरह खड़े हुए यह अद्भुत नाटक देखते रहे। जैसे उनमें कोई शक्ति न रह गयी हो। धीरे-धीरे उनके अंग शिथिल होने लगे। एक स्वर्गीय शक्ति से उनकी तमाम देह आकर्षित होने लगी। उषा के उदय से जैसे अन्धकार दूर हो जाय, हवा से बादल कट-छंट जाय, उसी तरह बादशाह के भीतर से वासना का विष निकल गया, उनकी देह फूल की तरह हल्की हो गयी। आंखों में ठण्डक आयी, हृदय की आँख खुली और उन्होंने देखा - उनके सामने खड़ी हुई वह सती देखकर हँस रही है, जैसे माता बालक को देखकर हँसती है।

बादशाह पैरों पर गिर पड़े। "तेरी ऐसी महिमा मैंने कभी नहीं देखी माता, मेरा अपराध क्षमा कर, अब इस तरह का अपराध न होगा माता ! माता !"

"अकबर अभी तुम्हारी शक्ति का मध्याकाल है। हिन्दोस्तान के अर्थ को तो तुम समझे, परन्तु उसकी आध्यात्मिक शक्ति को न समझ सके। चेष्टा करो; बहुत बड़ा ऐश्वर्य है वह बादशाह !" सती ने धीरे से कहा।

"हाँ, माँ; मैं चेष्टा करूँगा। कितना सुख है, कितना आनन्द है।"

आनन्द के आवेश में बादशाह विह्वल हो रहे थे। एकाएक उन्हें समय की याद आयी । तुरन्त बाहर गये। कहारों को पालकी लगाने के लिए कहा। पालकी लग गयी। भीतर आ, हिन्दोस्तान के बादशाह अकबर ने हाथ जोड़ कर कहा, "माता, बहुत देर हो गयी; मुझे आशीर्वाद देकर अब अपने घर जाओ।"

"तुम मुसलमानों से हिन्दोस्तान की शूद्र शक्ति का उत्थान होगा। उन्हें दबानेवाले ब्राह्मण और क्षत्रियों से लड़ने के लिए; उन्हें क्षीण करने के लिए ही मुसलमानों का हिन्दोस्तान में आना हुआ है। अभी तुम्हें बहुत-सा कार्य करना है अकबर ।"

सती पालकी पर बैठ गयी। हिन्दोस्तान के बादशाह ने माथा झुका दिया।

त्रयोदश परिच्छेद : खण्ड-युद्ध

हल्दीघाटी के महासमर के पश्चात् महाराणा का जीवन एक दूसरे ही रूप में बदल गया। उनकी तपस्या हद दर्जे को पहुंचने पर तुल गयी। हम कह आये हैं कि महाराणा की शक्ति का विनाश एक तरह से हल्दीघाटी के संग्राम में हो चुका था। अब न उनके पास सेना थी और न उसकी परवरिश के लिए राजकोष अब अकेले महाराणा ही महाराणा रह गये थे। उनके अन्तरंग मित्र अब हल्दीघाटी के महासमर में ही उन्हें छोड़कर स्वर्ग का रास्ता ले चुके थे। मुगलों को दबाने का मौका मिला। मानसिंह और अकबर ने यह मौका चूकना अनुचित समझा। नयी-नयी मुगल सेना आकर महाराणा पर आक्रमण करने लगी। ऐसी भयानक परिस्थिति में पड़कर शत्रु को आत्म समर्पण जिसने न किया हो, इस तरह का उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं मिलता। इसीलिए महाराणा के जीवन का एक दूसरा अध्याय आरम्भ हुआ, जो पहले से और भी महान् तथा शिक्षाप्रद है; स्वतन्त्रता के प्रेमी का यथार्थं हृदय-चित्र और देश की स्वाधीनता का सरल उदाहरण है। आज हजार वर्षों से हिन्दोस्तान दासता के कठिन पाश में जकड़ा हुआ तरह-तरह के दुःख और कष्टों का सामना कर रहा है; इस इतने समय के अन्दर बाहरी स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए जितने महापुरुष भारतवर्ष में पैदा हुए और तदनुसार कार्य किया, उनमें महाराणा प्रताप का स्थान सबसे ऊँचा और सबसे विशद है। क्षत्रियों के इतिहास में महाराणा बेजोड़ हैं। इस तरह का एक भी दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। भारत के उत्थान के इतिहास में निस्सन्देह महाराणा पथ-प्रदर्शक रहेंगे। इतनी महान् आत्मा, इतना कठोर त्याग, इतनी निष्कलुष जातीयता और इतना महान् शौर्य, आश्चर्य है कि कलिकाल में भारत को प्राप्त हुआ।

जीवन में महाराणा को सुख कभी प्राप्त नहीं हुआ। ये तो मेवाड़ के सम्राट्, परन्तु वे उस फले-फूले मेवाड़ के सम्राट् न थे । अकबर के आक्रमण से नष्ट-भ्रष्ट हुए राज्य का संचालन-भार उन पर आया था। उन दिनों न सेना थी, न अर्थ । लोगों का उत्साह भी वार-वार हार खाकर नष्ट हो रहा था। उस श्मशानभूमि के वे सम्राट् हुए थे और उसके उद्धार के लिए ही कठोर व्रत धारण किया था। इतिहासकारों का कथन है कि पराधीनता भारत के भाल में लिखी हुई थी, नहीं तो महाराणा प्रताप जैसे महावीर के लिए यह समय न था जब वे राजा हुए। यदि वे अपने पिता के समय, उससे और कुछ पहले मेवाड़ के राजसिंहासनों पर बैठे होते, तो दिल्‍ली के भाग्‍य-परिवर्तन के समय कुछ और ही दृश्य दीख पड़ता । पराजित हुमायूँ अपने पुत्र अकबर को लेकर दुबारा दिल्ली का सिंहासन अधिकार न कर सकते। परन्तु ईश्वर की इच्छा से उस समय दिल्ली का पठान बादशाह भी दुर्बल, इन्द्रिय परायण और डरपोक था, इधर मेवाड़ में भी एक वैसी ही मूर्ति बैठी हुई ऐशो-आराम से समय पार करना चाहती थी। महाराणा प्रताप तब आये जब प्रबल अकबर का सिक्का भारतवर्ष में जम गया, सब राजा-महाराजा उसका लोहा मान चुके परन्तु कल्पना और ही चाहती है और ईश्वर कुछ और ही कर डालता है। महाराणा के लिए भी उसने यही किया।

अस्तु, हल्दीघाटी के महासमर में सर्वस्व से रहित होकर भी महाराणा हिम्मत नहीं हारे उनका लक्ष्य वही रहा जो पहले था। मानसिंह और अकबर के प्रति उनका भाव वैसा ही बना रहा। वे फिर उद्योग करने लगे। वीर राजपूतों को देश की रक्षा के लिए जगाना, युद्ध के लिए मैदान में शत्रु के सामने डटकर अस्त्र चलाने की शिक्षा देना। विजय से राज्य-सुख और मृत्यु से स्वर्ग-लाभ करना, इस तरह की और और आकर्षक शिक्षाएँ देते हुए सैन्य-संग्रह कर युद्ध की फिर से तैयारी करने लगे ।

इधर कुछ दिनों के लिए युद्ध बन्द भी हो गया। हल्दीघाटी महासमर बारिश के दिनों में ही हुआ था। इससे कुछ दिनों में मुगलों को वहाँ बड़ा कष्ट होने लगा अरावली की पहाड़ी नदियों में पूर्ण यौवन आ गया। चारों ओर से गिरती हुई जलधारा मुगलों के लिए असह्य हो गयी। रस्ता बन्द होने के कारण रसद के पहुँचने में कठिनता होने लगी, जिससे कुछ काल के लिए युद्ध बन्द कर देना ही मानसिंह आदि ने उचित समझा। धीरे-धीरे वहाँ से मुगलों का अड्डा उखड़ने लगा। कुछ दिनों में अरावली प्रान्त बिल्कुल शान्तिमय, निर्जन और पूर्ववत् श्यामल, सजल और सुखशान्तिकर हो गये महाराणा के चित्त को इससे कुछ स्थिरता मिली। कुछ दिनों तक विचार करके एक निश्चय पर आने का उन्हें समय मिला।

परन्तु किसी तरह प्रताप के मन के अन्दर सन्धि की बात न घेंसी; मुगलों से सन्धि के नाममात्र से उनका सर्वांग संकुचित हो जाता था। शत्रु के सामने सिर झुकाकर खड़े होने की कल्पनामात्र से उनके सर्वांग से ज्वालाएँ निकलने लगती, उनकी मूर्ति भयंकर हो जाती थी। आखिर उन्होंने यही निश्चय किया कि मृत्यु के प्रथम मुहूर्त तक शत्रु से लोहा बजाना क्षत्रिय के लिए यही उचित धर्म है । बप्पारावल के वंश को कलंक लगाना किसी तरह भी उचित नहीं । जिस मानसिंह से इतनी कड़ी कड़ी बातें हो चुकी हैं, उसी के द्वारा सन्धि का प्रस्ताव करना, मृत्यु से भी अधिक कष्टप्रद है। ऐसा तो हरगिज नहीं होगा। यह निश्चय है कि अब लड़ने की शक्ति हममें न रही, हमारी शिक्षित सेना विनष्ट हो चुकी है और नौसिखियों से मुसलमानों की शिक्षित सेना का सामना करना हास्यास्पद होगा, तथापि सन्धि के प्रस्ताव से युद्ध करके मरना ही धर्मानुकूल होगा। इस समय धर्म और देश की पुकार पर अपनी इच्छा से जो राजपूत आयेंगे, उन्हें ही लेकर युद्ध करना होगा। आर्थिक सहायता से सेना का संग्रह करना बिल्कुल असम्भव है। राजकोष सम्पूर्णतः धनशून्य हो रहा है।

प्रताप इन्हीं विचारों में मग्न थे कि वसन्त का समय भी देखते-देखते आ पहुँचा। अब तक कुछ ही राजपूत देश की रक्षा के लिए एकत्र हुए थे। इधर दल के दल मुगल चीटियों की तरह अरावली को चारों ओर से घेरने लगे। उन मुगलों से एकत्र किये हुए नौसिखिये राजपूतों को लेकर, माघ महीने में, प्रतापसिंह ने युद्ध किया, पर यह युद्ध नहीं, एक निर्बल के साहस का उदाहरण मात्र था। कहाँ मुगलों की अपरिमित शक्ति, लाखों सैनिक; कहाँ इने-गिने मुट्ठी भर राजपूत । इस तरह के युद्ध का परिणाम पराजय के सिवा और होना क्या था। राजपूत हारे। इस बार पराजय के पश्चात प्रताप ने कमलमीर के किले में आश्रय लिया। परन्तु मुगल तो उनके पीछे-पीछे लगे ही रहते थे। उन्हें एक क्षण के लिए भी विश्राम दुर्लभ था । मुगलों को पता लगा तो सेनापति शहबाज खाँ ने किला घिरवा लिया। किसी तरह वैशाख के प्रथम सप्ताह तक प्रताप किले की रक्षा करते रहे। परन्तु ग्रीष्म ऋतु में किले की रक्षा करना असम्भव हो गया। किले में पानी का अभाव पड़ा। कुएँ और जलाशय जलहीन हो गये, जिससे सेना को कष्ट पहुँचने लगा । इसी समय एक विपत्ति और आयी। कमलमीर में एक कुआँ ऐसा था, जिसमें कभी जल का अभाव न हुआ था। आबू के राजा ने सोचा, यदि हम मुगलों को इस कुएँ का पता बतला देंगे, तो बादशाह की तरफ से हमारी इज्जत बढ़ जायगी। इस कमजोरी में पड़कर उसने मुगलों को उस कुएँ का गुप्त हाल बतला दिया। इस कुएँ का नाम 'नगुण' था। मुगलों ने उस कुएँ के पानी में जहर मिला दिया। इससे पानी का बेतरह अभाव हुआ। सेना में वाहि-त्राहि मच गयी। आखिर पानी के अभाव से प्रताप को कमल मीर भी छोड़ना पड़ा। अपनी अधिकांश सेना के साथ वे एक दूसरी जगह चल दिये। इसी समय मुगलों के कठोर से कठोर बारम्वार किले पर आक्रमण होने लगे। रक्षक ने जब देखा कि आत्मरक्षा का अब कोई दूसरा उपाय नहीं है, तब उसने किले का फाटक खोल दिया। युद्ध में उसने वीरगति प्राप्त की।

यहाँ से चलकर महाराणा, मेवाड़ के दक्षिण-पश्चिम प्रान्त की 'चप्पन' नामक पहाड़ी पर बसे हुए चौंध ग्राम में आये। यहाँ भीलों की ही आबादी है। पहाड़ी की चोटी दुरारोह होने के कारण प्रताप ने इस स्थान को अपने परिवारवालों की रक्षा के लिए निरापद समझा। कमलमीर से चलकर यहीं प्रताप ने आश्रय ग्रहण किया।

परन्तु दुर्भाग्यवश यहाँ भी मुगलों से उनका पिण्ड नहीं छूटा। उनके हजारों-जासूस प्रताप का पता लगाने के लिए लगे रहते थे। जब मुगलों को मालूम हो गया कि इस समय यहाँ प्रतापसिंह डेरा डाले हुए हैं, तब उन्होंने उस स्थान को भी आकर घेर लिया।

यहाँ मुगलों के साथ प्रताप का घनघोर युद्ध हुआ। यहाँ भी राजपूतों की लड़ाई बड़ी भयानक, आश्चर्यचकित कर देनेवाली हुई। परन्तु फल जो हो रहा था, वही हुआ। वास्तव में प्रताप कहीं भी जमकर युद्ध करने का समय न पाते थे। एक स्थान से दूसरी जगह गये नहीं कि पीछे से शत्रु की सेना भी बा पहुँची और चारों ओर से घेर लिया। इस हालत में जमकर लोहा बजाना असम्भव हो जाता है। दूसरे मुट्ठी भर राजपूतों को लेकर मुगलों की लक्ष-लक्ष सेना के साथ लड़ना; क्रमशः बलहीन हो जाने के सिवा कोई और विशेषता इस तरह के युद्ध में नहीं हुआ करती। वही हुआ भी ।

प्रताप की अल्पसंख्यक सेना ने अद्भुत वीरता प्रकट की। मुगलों को नाकों चने चबवाये। हर एक ने निश्चय कर लिया था कि मरने से पहले पाँच दुश्मनों की जान लेकर मरेंगे। इस युद्ध में प्रताप के दो परम मित्र, देश के यथार्थ सेवक, सोनीगढ़ के राजा भानुसिंह और चारणदेव की मृत्यु से लोगों को बड़ा दुख हुआ। यह अभाव पूरा होनेवाला न था। चारणदेव की ज्वालामय वाणी ने देश का सविशेष उपकार किया था। वे कवि थे और सुललित गायक । उन्होंने राजपूतों में जागृति फैलाने का प्रशंसनीय कार्य किया था । इनके शब्द शब्द से आग की चिनगारियाँ निकलती थीं। कायरों में भी प्राण आ जाते थे और वे भी देश के लिए मरने-मारने को तुल जाते थे। इन दो महोपकारी बन्धुओं से छूटकर प्रताप को बड़ा ही दुख हुआ ।

इसके बाद मुगलों के एक-दूसरे सेनापति फरीद खाँ को जब मालूम हुआ कि प्रताप चप्पन के जंगल में हैं, तब उसने दक्षिण की ओर से क्रमशः उस स्थान की ओर बढ़ना आरम्भ किया। प्रताप कठिन परिस्थिति में पड़ गये। चारों ओर से शत्रुओं ने उन्हें घेर लिया। रसद भी बन्द हो गयी। इस समय फिर इस ब्यूह से निकलने और किसी दूसरी जगह आश्रय लेने का उन्होंने निश्चय किया ।

प्रताप क्षत्रिय थे । कठिनता उनके जीवन का व्रत था। परन्तु उनकी पत्नी और उनके छोटे-छोटे बच्चे, राजपुताना की प्रचण्ड धूप में नंगे सिर, नंगे पैर, एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा कर रहे हैं, कहीं क्षण-भर आराम करने का समय नहीं मिलता, पीछे शत्रुओं के जासूस लगे हुए वर्षा की प्रबल जलधारा गिर रही है, पर किसी छत के नीचे उन्हें जगह नहीं मिल रही कि ठहरें। पेड़ की डालियों के नीचे वे राजकुमार और राजकुमारियाँ काँपती हुई, एक दृष्टि से अपने पिता और माता के मुख की ओर ताकतीं, दुख में सहानुभूतिसूचक एक शब्द भी न पाकर, चुपचाप भाई-बहनें एक-दूसरे की ओर मूक, शून्य, निरर्थक दृष्टि से देखकर दुख सह लेतीं। शीत की तीव्रता से हड्डियाँ हिल रही हैं, पेट में अन्न नहीं पड़ा, आज दो दिन से घास की रोटियों से गुजर करनी पड़ी, राजराजेश्वर पिता और महारानी माता दृष्टि के सामने मौजूद हैं, वस्त्र नहीं मांगते, काँपते हुए जोर से मुट्ठियाँ बाँध कर रह जाते हैं, आग तापते हुए किनारे पड़कर सो जाते हैं और ये हैं गजनी पर विजय करनेवाले बप्पारावल के वंशधर, मेवाड़ के भावी सम्राट् ।

इस समय प्रताप के सहायक नहीं के बराबर रह गये थे। युद्ध करते हुए क्रमशः उनके हाथ में जितने किले थे, एक-एक करके सब निकल गये थे । केवल धर्मावती और गोगुण्डा, यही दो स्थल उनके अधिकार में रहे। स्थान का न रहना कोई बड़ी बात नहीं। स्थान न रहने से कर भी लिये जा सकते हैं। चाहिए सिपाही । लड़ने की शक्ति और भोजन के लिए अन्न । यह प्रताप के पास न था इसलिए वे दोनों स्थान भी रहकर, न रहने के बराबर थे। प्रताप को उनसे आशा छूट गयी थी। वे मानते थे कि सिपाहियों की कमी के कारण इन स्थानों की रक्षा न हो सकेगी। वैसा ही हुआ। एक दिन मानसिंह एक अच्छी फौज के साथ पहुंचे और इन स्थानों पर अधिकार कर लिया। यह मानसिंह ने प्रताप के साथ युद्ध का व्यंग्य किया था। प्रताप की तुच्छ शक्ति पर हँसे भी। धीर प्रताप इस अपमान को पी गये। अपने देश और धर्म का स्मरण कर उस महावीर ने उन स्थानों को शत्रु के अधिकार में सौंप दिया । आज प्रताप के पास एक टुकड़ा भूमि भी नहीं रह गयी। आज मेवाड़ के सम्राट् की वही दशा है जो रास्ते में एक भिक्षुक की।

इस समय प्रताप के पास न कोई सहायक है, न कोई स्थान, न राज्य, न नौकर परन्तु अपनी दीनता से प्रताप को दुख न हुआ। वे महापुरुष थे। वे जानते थे कि ये सब प्रकृति की चालें हैं। जब तक उनकी तपस्या पूर्ण न होगी, तमाम विश्व प्रकृति उनका विरोध करेगी, उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करेगी। यह सोचकर अपने तमाम कष्टों को वे चुपचाप सहन करते गये।

सब किलों के हारने के पश्चात् प्रताप ने अपने वीर सैनिकों से जैसा अच्छा और हृदयग्राही बर्ताव किया, वह वास्तव में बड़ा ही करुण और नितान्त सहृदयता से भरा हुआ है। प्रताप ने अपने रहे सहे सैनिकों को विदा कर दिया। कहा, "भाइयो, अब तक जिस वीरता से तुम लोगों ने देश और धर्म की रक्षा का प्रयत्न किया है, उसकी सप्त मुखों से भी प्रशंसा नहीं हो सकती। परन्तु राजपूतों से विजय लक्ष्मी अप्रसन्न हैं। इसलिए उनकी हार पर हार होती गयी है। अब एक भी किला हम लोगों के हाथ में नहीं रहा। अब हमारी दशा एक भिक्षुक की है। इस अवस्था में जब न राज्य रहा न अर्थ, तुम्हारे प्रति हमारा यह आदेश है कि तुम लोग अब हमारा साथ छोड़कर अपने भाइयों और कुटुम्बियों से जा मिली। हम तुम्हारी रक्षा करते, परन्तु हमारे पास अब अर्थ बिल्कुल ही नहीं रहा। रही हमारी बात, हम भी किसी तरह अपने दिन कहीं पर बितायेंगे। यदि मौका मिला और ईश्वर की हमारे ऊपर कृपादृष्टि हुई तो हम फिर तुम्हारी याद करेंगे।"

महाराणा के शब्द सिपाहियों के हृदय में तीर की तरह चुभ गये। बहुत से तो महाराणा के करुणाक्षुप्त मर्मस्पर्शी शब्दों को सुनकर रो दिये । उन्होंने कहा, "हमारे पिता, हमारे रक्षक, हमारे इष्ट मित्र, हमारे बन्धु बान्धव आप ही है । हम आपको इस अवस्था में छोड़कर घर की ओर एक पैर भी न बढ़ावेंगे । आपके साथ हमें परम सुख है। आपके लिए लड़कर मर जाना ही हमारा धर्म है। अब तक जिनकी कृपा से हमारे बाल-बच्चों को भोजन-वस्त्र मिलता रहा है, अब हम अपने उन महाराणा को इस दशा में छोड़कर एक पैर भी दूसरी ओर न उठावेंगे। आप हमारे ऊपर कृपा कीजिए। हमें अपने साथ ही रहने दीजिए।"

महाराणा की मूर्ति में अद्भुत गम्भीरता आ गयी। उन्होंने शान्त दृष्टि से सिपाहियों को देखा, कहा "मैं तुम्हारा महाराणा हूँ। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, जाओ! जब काम पड़ेगा, तुम बुला लिये जाओगे ।" प्रताप की इस आज्ञा पर कुछ बोलने का किसी को साहस नहीं हुआ । सबने प्रणाम किया। प्रताप हाथ उठा सबकी सलामी ले चल दिये। जब तक वे दृष्टिपथ पर रहे, तब तक सिपाहियों की वृष्टि अपने सरदार पर लगी रही। अन्त में सबने अपने अपने घर का रास्ता लिया ।

अब प्रताप सब तरह से असहाय हो गये। परन्तु फिर भी बादशाह की अधीनता उन्होंने स्वीकार न की । अकबर इसे अपना विशेष अपमान समझने लगे और इस हालत में भी उन्हें कैद कर लाने की आज्ञा उन्होंने जारी रक्खी। मानसिंह ने भी यही सलाह दी और उदयपुर में मोहब्बत खाँ को अधिकार देकर टिके रहने का आदेश दिया। मानसिंह इस समय प्रताप की दीन-दशा को देखकर विशेष प्रसन्न रहते थे। उनकी इच्छा थी कि प्रताप को कैद करके सम्राट् के पैरों पर डाला जाय और वे प्रताप के गर्व की उचित दबा करें। हाय देश ! इस तरह की वृत्तियों का जोर दासता के आदिकाल से लेकर, आज तक तुम्हारे हृदय को विचलित किये हुए है !

जब सर्वस्व खोकर भी प्रताप ने अकबर को माथा न झुकाया, इश्वर उधर जंगलों में आश्रय लेकर रहने लगे, तब इससे अकबर और मानसिंह को विशेष अपमान का अनुभव होने लगा। अकबर ने सोचा, 'जयपुर, जोधपुर, अम्बर, बीकानेर जैसे बड़े-बड़े महाराजाओं ने तो मेरी सत्ता स्वीकार कर ली। परन्तु प्रताप ने मेरी इच्छा पूरी न होने दी, मेरे चक्रवर्ती होने में जरा-सी त्रुटि रह गयी, परन्तु मैं भी प्रताप को ऐसे न छोड़गा, उसे नीचा दिखा कर ही दम लूंगा।' अकबर ने घोषणा कर दी कि यदि कोई प्रताप को दिल्ली पकड़कर ला सकेगा, तो हम उसे ईनाम में आधी जागीर देंगे और उसकी अच्छी इज्जत की जायेगी। बादशाह की घोषणा के अनुसार हजारों जासूस मेवाड़ के चारों ओर फिरने लगे और एक अच्छी सेना भी इधर-उधर प्रताप की खोज में रहने लगी। सबको यह तो मालूम हो चुका था कि अब प्रताप के पास सेना या सहायक नहीं हैं, अब उनको पकड़ लेना आसान है, इससे निःसंकोच भाव से मुसलमान अरावली में चक्कर काटने लगे।

चौधा पर अधिकार कर लेने से सेनापति फरीद खाँ को इससे एक प्रकार का गर्व था । परन्तु वह भीलों की बस्ती थी। भील महाराणा को बहुत मानते थे । जब अपने सब किले महाराणा हार गये, तब भीलों के साथ रहना ही उन्होंने अपने बच्चों के लिए निरापद समझा । अस्तु, कुछ भीलों को लेकर प्रताप ने चौंधा पर फिर आक्रमण किया। फरीद खाँ भीलों की कठोर मार न सह सके। शीघ्र ही अपने सहायकों के साथ चौंधा छोड़कर भाग गये। अब बारिश के कारण आक्रमण का भय भी न था । इससे महाराणा को कुछ दिनों के लिए शान्ति से रहने का सुयोग मिल गया ।- एक बार महाराणा प्रताप के साथियों ने शेरपुर नामक स्थान पर छापा मारा । यहाँ बादशाह की सेना के अफसर मिरजा खां, अब्दुल रहीम खाँ, पीछे से खानखाना, रहते थे। वादशाही फौज हार गयी। अमरसिंह ने मिरजा खाँ की बेगम को कैद कर लिया, और अपने पिता के पास ले गये, उस औरत को महाराणा ने बड़ी इज्जत के साथ उसके पति के पास भिजवा दिया। मिरजा खाँ कवि थे। महाराणा के इस आकर्षण बर्ताव पर वे मुग्ध हो गये और महाराणा के पास एक कविता लिखकर भेजी - "संसार नश्वर है। राज्य, धन, कुटुम्ब और परिवार यह सब नष्ट हो जाता लिए हैं। अन्त में सब इन्द्रजाल की तरह अन्तर्धान हो जाता है। अपना कोई । कुछ ही दिनों के अस्तित्व यहाँ नहीं छोड़ जाता, जो कुछ रहता है, वह है महान् पुरुषों का गौरव । प्रताप ने राज्य तथा धन सबकुछ परित्याग कर दिया, परन्तु अपना मस्तक नहीं झुकाया । अपनी जाति के सम्मान की केवल उन्होंने ही रक्षा की है।"

चतुदश परिच्छेद : अन्तिम परीक्षा

अब महाराणा की विपत्तियों का और विस्तार हो चला। सैकड़ों जासूस उनके पीछे लगे रहते, क्षण-भर का विश्राम भी उन्हें हराम हो गया। आज इस जंगल में हैं, तो कल उस जंगल में। आज इस पहाड़ की चोटी पर हैं, तो कल उस नदी के खोह में इस तरह भागते हुए अपने परिवारवालों की प्राणरक्षा करने लगे। कभी एकाएक सैकड़ों मुगल आकर घेर लेते। महाराणा इधर अकेले, उधर सैकड़ों हथियारबन्द सिपाही । लड़ते-काटते, रास्ता करते हुए निकलते। इसी तरह दिन-पर-दिन और महीने पर महीना बीतने लगा पर दुख का अन्त न हुआ । बल्कि साथ-साथ कष्ट भी बढ़ चले। भोजन-पान और शयन का कष्ट तो लगा ही रहता था, परन्तु इतने पर भी महाराणा विचलित नहीं हुए । अकबर से सन्धि करने का नाम भी उन्होंने न लिया ।

अकबर के पास भी महाराणा की दैनिक खबर पहुँचती थी। महाराणा की सहिष्णुता से उनका हृदय द्रवीभूत हो गया । उन्होंने अपने एक दूत के द्वारा महाराणा के पास संवाद भेजा कि यदि एक वार मुख से भी महाराणा पराजय स्वीकार कर लें, तो उनकी सम्पूर्ण जागीर फेर दी जाय और फिर बादशाही सेना के त्रास से वे सदा के लिए निश्चिन्त रहेंगे। महाराणा के पास अकबर का यह संवाद आया तो घृणा से उन्होंने मुख फेर लिया। पराजय स्वीकार करने से मृत्यु को ही उन्होंने अपने लिए श्रेयस्कर समझा। हृदय ने कहा, क्या यवनों के भय से हम अकबर की सत्ता स्वीकार कर लें ? पराजय के बिना हुए ही पराजय के कलंक से अपनी आत्मा को कालुषित कर डालें ? यह तो कदापि न होगा ।

महाराणा, अकबर की सलाह से सहमत न हो सके। दूत लौट गया । अकबर और उनके दरबारियों पर महाराणा के इस पवित्र चरित्र का बड़ा ही जबरदस्त प्रभाव पड़ा। वे लोग मन-ही-मन इस महापुरुष के प्रति भक्ति और श्रद्धा का भाव रखने लगे।

इधर अब साथियों में भील ही प्रताप के साथी और इष्ट मित्र थे। उन्हीं के साथ रहना, उन्हीं के साथ बोलना और उन्हीं के साथ सलाह करना। भीलों की महाराणा पर बड़ी भक्ति थी। वे उन्हें देवता से भी बढ़ कर मानते थे। महाराज कुमारियां भीलों की लड़कियों से खेलतीं, उन्हीं के साथ रहतीं। उनकी भाषा बहुत अच्छी तरह सीख गयी थीं।

एक दिन प्रताप इस भयानक जंगल में बैठे हुए कुछ सोच रहे थे कि एकाएक कुछ भील दौड़े हुए उनके पास आये और काँपते हुए स्वर से कहा, "राणा, बहुत जल्द यह स्थान छोड़ दीजिए, मुगलों की सेना आ गयी। शीघ्रता न करोगे तो प्राणों की रक्षा न हो सकेगी।"

तब तक चारों ओर से 'दीन-दीन' की भयंकर आवाज बाने लगी। प्रताप उठे। भील से कहा, "हमारे बच्चों को तुम लोग किसी तरह दूसरी जगह ले चलो। हम इन सिपाहियों से लड़कर अपने निकलने का रास्ता कर लेंगे।"

भीलों ने महाराणा प्रताप के परिवारवालों को टोकरियों में भर लिया और बहुत ही शीघ्र एक दल अपने साथ लेकर दूसरे जंगल की तरफ चल दिये। इधर महाराणा से न रहा गया। अत्याचार की हद हो रही थी। वे छेड़े हुए शेर की तरह मुगलों पर टूटे। उनका प्रचण्ड आक्रमण मुगल सैनिकों से न-सहा गया। देखते-ही-देखते सैकड़ों सिपाही जमीन चूमने लगे। शेष जान लेकर भागे। रास्ता साफ हो गया। एक भील ने आकर कहा, "महा राणा, चिन्ता न करना, तुम्हारे बाल-बच्चे आराम से हैं, हम लोगों ने उन्हें दूसरी जगह जबरे के जंगल में पहुंचा दिया है।" महाराणा निश्चिन्त हुए।

उसी भील के साथ जबरे के जंगल में पहुँचकर उन्होंने देखा- उनके बच्चे टोकरों में पेड़ से लटक रहे थे! वह स्थान बड़ा ही बीहड़ और भयंकर था। जंगल घना था। वहाँ बाघ, रीछ और शेर रहते थे। मनुष्य के लिए वह स्थान अगम था प्राणों की रक्षा के लिए प्रताप को ऐसे भयानक स्थान में चलकर रहना पड़ा, जहाँ प्रताप के बच्चे टोकरियों में पेड़ से लटकाये हुए थे, उसके चारों ओर एक बड़ा-सा जाल भीलों ने तान रखा था, जिससे बच्चों पर जंगली जानवर आक्रमण न कर सके। रक्षा की यह सब रचना देखकर प्रताप की आँखों में आंसू आ गये वे उस राज्य के राजपरिवारवाले थे, जिनका एक इशारा मात्र पाकर राजपूतों की हजारों तलवारें एक साथ म्यान से बाहर निकल पड़ती थीं, देश के मध्ययुग के इतिहास में जो घराना भारत का सिरमौर रहा है।

एक भील ने प्रताप को समझाया। रानी पद्मावती ने उन्हें उनके व्रत का स्मरण करा दिया। अनेक प्रकार से वे स्वामी को शान्त करने लगीं। जबरे के जंगल में बहुत दिनों तक प्रताप रहे। यहाँ मुगलों के उपद्रव का विशेष भय न था । यह स्थान बड़ा ही दुर्गम और चारों ओर से कँटीले पेड़ों और घने जंगलों से घिरा हुआ था।

मुगलों का भय न रहने पर भी यहाँ एक और बड़ी कठोर विपत्ति सामने आयी खाने-पीने का बड़ा कष्ट होने लगा। दूसरी जगह से कुछ लाने का उपाय न था। जिस दिन कोई शिकार खाने लायक मिल जाता था, उस दिन तो किसी तरह सब लोग भर पेट भोजन कर लेते थे, परन्तु शिकार के न मिलने पर अक्सर घास की रोटियों पर समय पार करना पड़ता था ! बच्चों को क्रमशः बड़ी तकलीफ होने लगी। भूख और प्यास के मारे उनका गुलाब-सा मुखड़ा सदा ही मुरझाया रहता। वे एक दृष्टि से माता और पिता को ताकते । कभी मारे भूख के गले से चिपटकर रोने लगते। इस एक दिन नहीं, कितने ही दिन तक बच्चों ने भूख की विकलता जाहिर की। परन्तु आश्वासन के सिवा कभी उन्हें भरपेट भोजन पिता की ओर से न मिला, जिससे वे और दुखी रहते। घास की रोटियाँ खाकर वे कोमल बच्चे, दुबले से-दुबले, अन्त में हड्डियाँ णेष मात्र रह गये। महारानी खून के आँसू पीकर रह जातीं । प्रताप बच्चों को देखकर मुँह ताककर फेर लेते और एक लम्बी साँस लेकर अपने देश और समय का स्मरण कर रह जाते !

ज्यों-ज्यों प्रताप के परिवारवालों को कष्ट होने लगा, त्यों-त्यों उनके मन में एक प्रकार का परिवर्तन आरम्भ हो यह परिवर्तन प्रताप की दुर्बलता का द्योतक होने पर भी सत्य की दृष्टि से मानव चरित्र-चित्रण के विचार से जितना आवश्यक था, उतना ही वरेण्य भी। यदि दुर्बलता का समावेश उनके जीवन में न दिखलाया जाता, तो उनका जीवन उच्चकोटि के समालोचकों की दृष्टि में वास्तव में एक कहानी, एक प्रकार की कल्पना का रूप ही लिये रहता। जीवन में जय और पराजय दोनों का रहना आवश्‍यक है। पराजय के भीतर से किस प्रकार से विजयलक्ष्मी हस्तगत होती है. उसके सूक्ष्म विसूक्ष्म भाव और अनुभवों पर विचार करके ही समालोचकों को व्यथा से सुख मिलता है और जीवन के इतिहास को एक प्रकार की पूर्णता प्राप्त होती है। जहाँ सीता के चरित्र का वह अंश है, जिस जगह लक्ष्मण के प्रति उन्होंने कटु शब्दों का प्रयोग किया है, वहाँ वह उतनी ही कालिमा सत्य की नींव पर रख सकने में समर्थ हुई है। यह सम्भव है कि जीवन में शत-शत विजय हों, परन्तु चाहे भ्रम के कारण ही हो, एक बार पराजय होना अत्यन्त आवश्यक है। जीवन के लिए आलोक और अन्धकार दोनों आवश्यक है।

केवल आलोक से अथवा केवल अन्धकार से कभी संसार की व्याख्या नहीं हो सकती प्रवाह के लिए उत्थान और पतन दोनों चाहिए। तरंग की व्याख्या केवल उत्थान से नहीं होती, साथ ही पतन का रहना भी जरूरी है, चाहे वह कैसी ही बड़ी तरंग क्यों न हों। प्रताप के सम्बन्ध में भी इस तरह के एक पतन का आना आवश्यक था। विरोधी शक्ति का उन पर विजय प्राप्त करना जरूरी था। अब तक प्रताप हारते ही गये थे, किसी लड़ाई में कभी जीते नहीं, परन्तु पराजय में भी उन्हें विजय का गौरव मिलता रहा है। न उनके शत्रुओं के दिल में यह बात धँसी कि प्रताप हारे, न प्रताप ने ही स्वीकार किया कि हम पराजित हुए। मन की इस अपराजित शक्ति के कारण अब तक हारकर भी प्रताप नहीं हारे, उनके जीवन में किसी प्रकार का दाम नहीं लगा।

परन्तु इस बार वे वास्तव में पराजित हुए। इस क्षणिक पराजय को प्रताप ने भी समझा कि पराजय है और उनके परम शत्रु अकबर ने भी समझा कि प्रताप पराजित हुए। हम लिख चुके हैं कि यह क्षणिक कल्पित पराजय थी । यह केवल प्रताप के जीवन की पूर्णता के लिए हुई, और खासकर इसलिए कि वे परिवारवाले थे, त्यागी नहीं। उन्हें दूसरों के दु:ख और सुख के अनुकूल रहना पड़ता था, वे दूसरों से सम्बन्ध छिन्न न कर सकते थे।

प्रताप की यह दुर्बलता उनकी एक सांसारिक घटना के भीतर से पैदा हुई । उससे प्रताप के स्नेह की भी थाह मिलती है। वे आखिर मनुष्य ही थे, काठ के पुतले नहीं। उनके अन्दर वही सहनशीलता थी, जो एक उच्च-से-उच्च पुरुष में हुआ करती है और साथ ही वह स्नेहजनित दुर्बलता भी थी, जो एक पिता के हृदय में अपने प्यारे बच्चों के सुख के लिए रहा करती है ।

एक रोज उसी जंगल में एक जगह महारानी भोजन पका रही थीं। कुछ सामग्री उन्हें मिल गयी। बाहर से भीलों ने राजपरिवार के खाने के लिए कुछ अन्न ला दिया। उस चूल्हे के आसपास उनकी छोटी लड़कियाँ ललचीली निगाह से उस अन्न की ओर देख रही थीं। पास ही महाराणा भी घास के बिछौने पर लेटे हुए यह दृश्य देखकर विचार कर रहे थे। राज कुमारियों के कपड़ों में सैकड़ों ग्रन्थियाँ लगी हुई थीं। महारानी भी मैले, फटे और पुराने जीर्ण वस्त्र पहने हुई थीं। उधर महाराणा की दशा भी यही थी। बाल बढ़ रहे थे, नाखून वर्षों से न कटे थे। कपड़े पुराने होकर फट चुके थे। किसी तरह उनसे लज्जा की रक्षा की गयी थी। उनको और उनके परिवार वालों को देखकर क्या कोई कहता कि ये मेवाड़ के महाराणा, बप्पाराव के वंश के सूर्य, महाराणा प्रतापसिंह हैं? उनकी पारिपाश्विक कुल बातों से उनके अखण्ड व्रत के निर्वाह का पता चलता था। इसी समय, भोजन पकाने से पहले ही बच्चियों ने माँगना शुरू कर दिया। जब एक रोटी निकली तब उसे हर एक अपने लिए पहले माँगने लगीं। एक रोटी के लिए यह तकरार हो रही थी। मेवाड़ की महाराज-कुमारियों में एक रोटी के लिए छीना-झपटी का तुमुल संग्राम जारी हो गया। महाराणा शान्त भाव से यह लड़ाई देख रहे थे । उन्होंने देखा, सबसे छिपकर महारानी ने चुपचाप आँसू पोंछ लिये हैं।

वीर-शिरोमणि महाराणा का हृदय दहल उठा। एक प्रचण्ड तूफान आया और पहले कुल की सृष्टि को नष्ट-भ्रष्ट करके, डुबाकर अतल में विलीन करके चला गया। एकाएक हृदय ने कहा, यह क्या ? क्या यह महा पाप नहीं? पिता के रहते हुए बच्चे भूखों मरें, पत्नी को एक वस्त्र भी पहनने को न मिले, क्या धर्म का स्वरूप ऐसा ही हुआ करता है? मेवाड़ के उद्धार के लिए जो व्रत था, वह महाराणा प्रताप के लिए था, मुझ भिक्षुक के लिए नहीं। प्रताप के हृदय में विप्लव का तूफान उठा हुआ था। पहले के विश्वास को एक ही झकोरे ने हिला दिया और इस तरह प्रकृति की शक्ति का परि चय देकर, प्रताप को शिथिल करके चला गया ।

एक दूसरे दिन एक और घटना हुई, जिससे इस बिरोधी भाव को सजग होने की सहायता मिली। बात यह हुई कि महारानी उस दिन भोजन पका रही थीं। अन्न न मिला था। 'पल' नामक घास की रोटियां बन रही थी। लड़के चारों ओर से चौका घेरकर बैठे हुए थे। महारानी चुपचाप लड़कों की आँख बचाकर आँसू पोंछती और रोटियां पकातीं। हर एक बच्चे के हिस्से में एक ही रोटी आयी थी। पक जाने पर बच्चे अपना-अपना हिस्सा लेकर खाने लगे। एक छोटी-सी लड़की थी। उसने आधी रोटी खायी और बाधी अपनी गोद में डाल रखखी । यह रोटी उसकी शाम की खुराक थी। प्रताप लेटे हुए अपनी प्यारी पुत्री को एक दृष्टि से देख रहे थे। हृदय में प्रलय का तूफान उठ रहा था, अब तक जिस बीर के धैर्य को अकबर के अनगिनत निष्ठुर प्रहार भी नहीं विचलित कर सके थे, आज वह एक छोटे से विवर्तन में पड़ कुछ का कुछ हो गया ।

जिस समय जाँघ पर बची हुई रोटी का टुकड़ा रखे हुए प्रताप की लड़की बाहर की बातों में बहल रही थी, उस समय मौका पा कहीं से एक जंगली नेवला झपटा, उस लड़की की जांघ से लड़की की रोटी का टुकड़ा फौरन लेकर चलता बना। लड़की चौंककर रोने लगी। प्रताप ने देखकर दृष्टि फेर ली। पद्मावती ने भी भागते हुए नेवले को देखा। मुंह फेरकर आंसू पोंछ लिये ।

प्रताप पड़े हुए चुपचाप यह दृश्य देख रहे थे। रानी के आंसू भी उनके परीक्षक नेत्रों से छिप नहीं सके। थोड़ी देर बाद लड़की रोकर आप ही आप शान्त हो गयी जिस समय यह क्षण-भर के लिए क्षुब्ध हुआ वायुमण्डल अपनी पूर्व प्रकृति को प्राप्त हुआ, उस समय प्रताप के हृदय में महाप्रलय की ज्वाला धधक रही थी। कुछ समय पहले ही से उनका चित्त परिस्थिति से उठकर एक दूसरे चक्र के अन्दर चक्कर काट रहा था, अब उसे उस चक्र में स्वच्छन्द भाव से अपनी रक्षा का चक्रव्यूह निर्माण करने की स्वतन्त्रता मिली साथ ही सुदृढ़ प्रमाण भी मिला। बस एक क्षण में प्रताप ने उस दूसरी परि स्थिति की रचना का चक्र निश्चय कर लिया। अकबर ने पहले प्रताप के कष्टों का हाल सुनकर सन्धि करने के लिए कई बार दूत भेजकर उन्हें सम झाया था। परन्तु उस समय अकबर के प्रस्ताव के अनुसार महाराणा को मंजूर नहीं हुआ। अकबर ने यहाँ तक कहलाया था कि केवल पराजय स्वी कार कर लेने से ही हम तुम्हारा सर्वस्व तुम्हें वापस कर देंगे। परन्तु महा राजा को इतनी-सी बात भी उनके शौर्य के मुकाबले में अत्यन्त अपमानजनक मालूम हुई थी, उन्होंने सन्धि के प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया था। परन्तु आज उनके मन की वह अभेद्य दीवार करुणा की एक ही जन-धारा में दह बहकर न जाने कहाँ चली गयी।

पंचदश परिच्छेद : कविवर पृथ्वीराज

आज दरबार में अकबर की प्रसन्नता उनके सर्वांग से जाहिर हो रही हैं। प्रत्येक वाक्य को हृदय की सरसता दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति से जैसे सजीव कर रही हो। चिरकाल के परिश्रम से अब तक जो वस्तु हाथ न आयी थी, वह अनायास ही प्राप्त हो गयी। प्रतापसिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली!

अकबर की प्रसन्नता, बारिश के बाद की गर्मी की तरह कभी-कभी सहनशीलता से रहित हो अक्षय सन्देह का रूप धारण कर लेती थी। प्रताप के स्वभाव को अकबर बहुत अच्छी तरह पहचानते थे। उनके हृदय की शंका प्रताप के सन्धि पत्र के पश्चात् भी वैसी ही बनी रही। "क्या कभी समुद्र एक छोटे-से मढ़े के अन्दर समा सकता है ? -सूर्य का उदय कभी पश्चिम की ओर नहीं होता।"

इस तरह सन्देह के आने पर उनका हर्ष आनन्द सब दूर हो जाता, वे अपने दरबारियों को बुलाकर एक-एक करके, सबसे पक्ष की लिखावट देख कर पहचानने के लिए कहते। सम्राट् की आज्ञा के अनुसार सभासद वर्ग देखते बड़े गौर से थे, परन्तु कहते थे ये वैसा ही जैसा उस समय सम्राट् का रुख देखते थे । यदि सन्देहावशात् सम्राट् ने कहा, नहीं यह लिखावट प्रताप सिंह की नहीं हो सकती, तो साथ ही और लोगों ने भी कहा, नहीं, हरगिज नहीं हो सकती । यदि अकबर कहते कि जान पड़ता है अब तकलीफ में पड़कर प्रतापसिंह ने सन्धि का प्रस्ताव मंजूर किया है, तो और लोग भी कहते, हाँ, जहाँपनाह ने बजा फरमाया, तकलीफ में पड़कर प्रतापसिंह ने सन्धि का प्रस्ताव मंजूर किया है।

अकबर बड़े चतुर मनुष्य थे। परीक्षा के लिए, जान-बूझकर वे इस तरह की बातें करते थे । सभासदों की उक्ति से उन्हें मालूम हो गया कि ये लोग मेरी ही प्रशंसा कर रहे हैं, प्रतापसिंह की लिपि ये लोग नहीं पहचानते । कुछ देर बाद उन्होंने पूछा, "क्या यहाँ प्रतापसिंह की लिपि पहचाननेवाला कोई है ?"

एक राजपूत ने कहा, "हाँ, जहाँपनाह है। पृथ्वीराज उनकी लिपि पहचानते होंगे, उनकी शादी महाराणा के घराने में ही हुई थी।" अकबर को एक पुरानी बात याद आ गयी। कुछ देर तक वे सिर झुकाये हुए कुछ सोचते रहे, फिर नजर उठाकर सिपाही को हाथ के इशारे से पास बुलाकर कहा, "तुम बहुत जल्द पृथ्वीराज को यहाँ बुला लाओ।" शाही तरीके से सम्मान प्रदर्शन कर सिपाही चला गया और पृथ्वीराज को शीघ्र दरबार में लाकर हाजिर किया ।

पृथ्वीराज के सामने हाजिर देखकर चतुर अकबर ने अपने सन्दिग्ध आतुरता को छिपाते हुए पत्र पृथ्वीराज के हाथ में देकर कहा, "देखो, महाराणा को हमारी सुलह की शर्तें मंजूर हैं, उन्होंने अपने दस्तखत करके यह खत हमारे पास भेजा है।"

पृथ्वीराज, "जहाँपनाह की बात सदा ही सत्य होती है, परन्तु मुझे विश्वास नहीं हो रहा है। मुझे तो महाराणा का सुलह कर लेना उतना ही असम्भव मालूम दे रहा है, जितना हिमालय का हिल जाना, सागर का सूख जाना, जमीन का अपनी जगह से हट जाना, गुस्ताखी मुआफ हो जहाँपनाह, जान पड़ता है, यह खत किसी दुश्मन का लिखा हुआ है।" पृथ्वीराज ने नम्रतापूर्वक कहा ।

अकबर, "क्या ये दस्तखत प्रतापसिंह के नहीं है ?" अकबर ने आश्चर्य की निगाह से देखकर पूछा ।

पृथ्वीराज, "नहीं, जहाँपनाह, ये दस्तखत प्रतापसिंह के नहीं हैं, परन्तु प्रतापसिंह के ऐसे जरूर मालूम दे रहे हैं।"

अकबर, "क्या तुम्हारे पास मानसिंह का कोई खत मौजूद मिल सकता है ?" अकबर ने अत्यन्त आग्रह से पूछा ।

पृथ्वीराज, "नहीं जहाँपनाह, मेरे यहाँ महाराणा का लिखा हुआ कोई खत नहीं है। होता तो मैं जरूर शाहंशाह की नजर करता ।"

अकबर, "तो तुम कहो कि जानते हुए भी यह खत प्रतापसिंह का है, तुम छिपा रहे हो।"

पृथ्वीराज, "नहीं जहाँपनाह; मैं अपनी अन्तरात्मा की बात कह रहा हूँ। मैं प्रतापसिंह के स्वभाव को बहुत अच्छी तरह पहचानता हूँ। वे विपत्ति में पड़कर घबरानेवाले मनुष्य नहीं हैं। दूसरे, धर्म को प्रतापसिंह कभी नहीं छोड़ेंगे, चाहे उनके प्राण शरीर से जुदा हो जायें।"

अकबर, "ठीक है, इसी खयाल ने तो तुम्हें मार रखा है। इस तरह सच बात भी छिप सकती है, अगर यह खत उनका लिखा हुआ हो भी, तो भी तुम कहते रहोगे कि यह उनका लिखा हुआ खत है ही नहीं।"

पृथ्वीराज, 'नहीं जहाँपनाह, मैं एक मनुष्य की उचित समालोचना कर रहा हूँ, और अब तक उस मनुष्य के विचारों और उसके अलौकिक कार्यों का शाहंशाह को भी यथेष्ट परिचय मिल चुका है। क्या बादशाह सलामत यह विश्वास करते हैं कि महाराणा प्रतापसिंह में इतनी मृदुलता आ जायेगी कि एकाएक वे सम्राट् से सन्धि का प्रस्ताव करने लगेगे ?"

अकबर, "नहीं, यह विश्‍वास तो मुझे जरूर नहीं है, मगर आदमी के मन का कुछ ठिकाना भी नहीं रहता कि कब वह किस रंग पर चढ़ा रहता और कब कौन-सा रंग बदलता है। मुमकिन है कि अब उसे अपनी जर-जमीन का खयाल आया हो, और की तरह अब वह भी बादशाह से सुलह करके रहने में अपनी भलाई समझता हो।"

पृथ्वीराज, "कमजोर दिलवालों का यह हाल बादशाह सलामत ने फरमाया। एक वही नुस्खा हर मर्ज के लिए नहीं होता, यह शाहंशाह को मालूम है। प्रतापसिंह मर्द आदमी है। वह किसी कमजोरी की वजह से सुलह न करेगा। प्रतापसिंह के आत्मत्याग का हाल जिन्हें मालूम है वे एक स्वर से कहेंगे कि बादशाह यदि अपनी तमाम सल्तनत प्रतापसिंह को देकर कहें कि तुम बादशाह की अधीनता जरा देर के लिए स्वीकार कर लो, तो भी महाराणा बादशाह की अधीनता स्वीकार न करेंगे। बादशाह सलामत प्रतापसिंह के व्रत की कथा सुन चुके हैं। अपने देश को स्वाधीन करने के लिए इतनी कठोर प्रतिज्ञा की, भारत के एकछत्र सम्राट् की प्रतिकूलता करते हुए जिसे जरा भी खौफ न आया, बादशाह के साथ सम्बन्ध करनेवालों के हाथ का पानी पी लेना भी जो अधर्म में दाखिल समझता है, आज तक अत्याचार पर अत्याचार करके भी बादशाह जिसे दबा नहीं पाये, वह वीर एकाएक सन्धि का प्रस्ताव स्वीकार कर लेगा, यह कैसे समझनेवाले को विश्वास होगा ?"

अकबर, "हाँ, तुम्हारा कहना बहुत दुरुस्त है, मगर इस खत का पता भी तुम्ही लगाओ कि प्रतापसिंह का लिखा हुआ है या जाली ।"

पृथ्वीराज को अभीप्सित दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति हो गयी। मन-ही-मन बहुत ही प्रसन्न हुए। बाहर वैसे ही गम्भीरता दिखाकर विनयपूर्वक कहा, वे "जहाँपनाह की आज्ञा के अनुसार मैं बहुत जल्द इसका पता लगाता हूँ।"

अकबर की प्रसन्नता एक प्रकार की चिन्ता में परिवर्तित हो गयी। उस रोज का दरबार समाप्त करके अकबर उठे, साथ ही उनके पारिषद् भी उठ खड़े हो गये। अकबर चिन्तितभाव से अपने रंगमहल की ओर गये और पृथ्वीराज हर्ष और विषाद की संयुक्त मूर्ति बने हुए घर पहुँचकर एक अलग कमरे में बैठकर सोचने लगे ।

'प्रकृति की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर मनुष्य के हृदय के सिंहासन पर अधिकार प्राप्त करना कठिन है। महाराणा जैसे अद्वितीय वीर का मस्तक भी प्रकृति ने आखिर झुका ही दिया। उनका उद्देश्य अब उनके ध्यान से अवश्य जाता रहा होगा। हाय! हिन्दुओं में अब तक यही एक नाम लेने के लिए बच रहे थे, सो इनका हृदय भी अब शत्रुओं की चोटों से जर्जर, शत्रु की भृकुटि से दबकर अपना उद्देश्य भूल गया। ईश्वर की इच्छा बड़ी विचित्र है। वह चाहे जो करे। सच है कि राई -को पर्वत और पर्वत को राई कर देता है । आज तक समस्त हिन्दुस्तान में जिनके नाम का आतंक छांया हुआ था, अकबर भी जिनकी कीर्ति से दबकर तारीफ करने लगते थे, वही महा राणा प्रतापसिंह आज अकबर से सन्धि का प्रस्ताव कर रहे हैं !'

दासी से पृथ्वीराज के एकाएक आकर एकान्त में बैठने का हाल सुनकर 'सुन्दरी' भी पति के पास पहुँची। परन्तु पति को चिन्ता में डूबे हुए देखकर उसे पूछने का साहस नहीं हुआ, एक ओर चुपचाप खड़ी हो गयी। पृथ्वीराज के हृदय में आज अपनी प्रियतमा पत्नी को देखकर भी प्रसन्नता नहीं हुई। वे शून्य दृष्टि से उसे देखकर ही रह गये। इससे सुन्दरी के हृदय में शंका उत्पन्न हुई। इस तरह का बर्ताव अपनी जिन्दगी में अब तक उसने न देखा था, सदा उसे देखते ही पृथ्वीराज प्रसन्न हो जाते थे, होंठों पर मुस्कुराहट आ जाती थी। उसने पति से पूछा, "आज इतनी चिन्ता किस बात की कर रहे हो ? सब कुशल है न ?"

"नहीं, आज एक बहुत बड़ी अनहोनी हो गयी, आज आकाश के ऊपर पृथ्वी है, समुद्र सूख गया है, और पश्चिम में सूर्य उगा है।" पृथ्वीराज ने आवेश में कहा।

"मेरी समझ में इस तरह की कविता न आयेगी। साफ-साफ कहो, बड़ी चिन्ता हो रही है, बात क्या है ?" सुन्दरी ने चिन्तित होकर कहा ।

"महाराणा प्रतापसिंह ने अकबर के पास सन्धि के लिए पत्र भेजा है !" पृथ्वीराज ने सिर झुकाकर कहा ।

"नहीं, ऐसा हरगिज न होगा, आपको किसी तरह का भ्रम हो गया हैं।" कड़ाई से सुन्दरी ने उत्तर दिया।

"नहीं सुन्दरी, मैं ठीक कहता हूँ, यह देखो महाराणा का पत्र मैं साथ ही ले आया हूँ।" पृथ्वीराज को सुन्दरी का पत्र देना।

पत्र को बड़े ध्यान से देखकर - "यह क्या, ये हस्ताक्षर तो उन्हीं के हैं !" सुन्दरी ने क्षोभ और दुःख से पति की ओर देखकर कहा ।

"मुझे भी बड़ा आश्चर्य हो रहा है। क्यों, महाराणा ने सन्धि का प्रस्ताव किया, कुछ समझ में नहीं आता। अनुमान से यह जान पड़ता है कि उन पर और उनके मेवाड़ पर कोई विशेष विपद् पड़ी होगी !" पृथ्वीराज ने चिन्ता-युक्त होकर कहा ।

"कष्ट में पड़कर वे अपने धर्म को छोड़ देंगे, विश्वास भी नहीं होता, तुम्हें पत्र किसने दिया ?"

पृथ्वीराज ने पत्र की पूर्वापर बातें सुन्दरी से कहकर भविष्य के कार्यक्रम के सम्बन्ध में सुन्दरी से राय लेने के लिए पूछा। पृथ्वीराज की तरह उसने भी कहा, मेरी इच्छा नहीं कि यह सन्धि हो; मेवाड़ की मर्यादा भूमि सात् हो जाय, यह मुझे किसी तरह से भी स्वीकार नहीं। मेरा जी अच्छा नहीं है, मैं जाती हूँ; इसके सम्बन्ध में ऐसा ही कोई अच्छा प्रबन्ध करके मुझे बतलाइए कि क्या किया।

यह कहकर सुन्दरी वहाँ से चली गयी। महाराणा के आदर्शच्युत होते ही उनके प्रति उसका पूर्वभाव न रह गया। अपने कुल के सूर्य को आकाश से टूटकर पृथ्वी पर आते देखकर उसके चित्त में एक विचित्र परिवर्तन आ गया।

सुन्दरी तो चली गयी, परन्तु पृथ्वीराज उसी तरह उसी कमरे में बैठे रहे। वे कवि थे और कवि भी वैसे नहीं, सहृदयता की सजीव मूर्ति थे। वे केवल महाराणा प्रताप की बातें सोच रहे थे। साथ ही मुसलमानों का अदम्य बल, हिन्दुओं की क्रमशः अध:पतित कर देनेवाली दुर्बलता मन में समायी हुई गुलामी और सब सत्यानाश का मूल कारण पारस्परिक ईर्ष्या, इन सब विषयों का क्रम भी वे अपने विचार के साथ रखते जा रहे थे। महाराणा के सन्धि करने का मूल कारण उन्हें मिल गया, उनकी सहृदयता के आगे कुछ छिप नहीं सका, वे समझ गये कि महाराणा को कहीं से किसी से किसी प्रकार की भी सहायता नहीं मिली। दुःख के दिन ऐसे ही बड़ी मुश्किलों में पार होते हैं, फिर जले पर नमक, उस दुःख में जिन लोगों से सहायता की आशा की जाती है, वही यदि विमुख हो जायें या शत्रुता करने पर तुल जायें, तो अवश्य ही यह आचरण मनुष्य को अधिक काल तक उसके लक्ष्य पर रहने नहीं देता और वीरता अकेले होती भी नहीं। सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य के विरोध में अकेले महाराणा कब तक ठहर सकते हैं? जान पड़ता है किसी विशेष मानसिक परिवर्तन के आने पर ही महाराणा ने सन्धि का प्रस्ताव किया है। वे दुःखों में पड़कर घबड़ानेवाले मनुष्य नहीं हैं।

इस तरह सोचते हुए पृथ्वीराज बहुत दूर तक चले गये, मन के भीतर की अपनी युक्तिपूर्ण बातों पर उन्हें विश्वास था महाराणा के मानसिक विकार का कारण बहुत कुछ उनकी समझ में आ गया। वे फिर सोचने लगे, 'यदि इस तरह की परिस्थिति में मैं महाराणा को सन्धि करने के लिए लिखूंगा तो फिर मुगलों के बीच में हमारा मस्तक कभी भी ऊँचा न होगा, हम सदा के लिए उनके दर्बल हो जायेंगे। महाराणा के गिरे हुए मन को इस समय बल देने की आवश्यकता है। अपनी मर्यादा का उन्हें पूरा खयाल है। वे अवश्य ही अपना मत बदल देंगे।'

कविश्रेष्ठ पृथ्वीराज के हृदय में तरह-तरह की बातों ने एक अद्भुत भावना ला दी; एक स्वर्गीय शक्ति उनकी लेखनी में आ गयी, जिससे एक मुर्दा भी उठकर खड़ा हो जाता, कायर के दिल में लड़ने की उमंग पैदा हो जाती ।

यह कविता महाराणा के पास उन्होंने लिखकर दूत के हाथ भेजी-

अकबर समद अथाह, सूरापण भरियो सजल ।

मेवाड़ो तिण माह, पोयण फूल प्रताप सी ।। 1 ।।

अकबर एकण वार दागल की सारी दुनी ।

अणदागल असवार, रहियो, राम प्रताप सी ॥ 2 ॥

अकबर घोर अंधार, ऊंघाण हिन्दू अवर।

जागे जुग दातार, पौहार राणा प्रताप सी ॥ 3 ॥

हिन्दू पति परताप, पत राखी हिन्दुवासारी।

सहे विपत संताप, सत्य सपथ करि आपणी ॥ 4 ॥

चौथी चित्तोड़ाह बांटी बाजन्ती तणी ।

माथे मेवाड़ाह, सोहे राण प्रताप सी ।। 5 ।।

सारभ, अकबर शाह, अड़ियल नामड़िया नहीं।

चम्पो चित्तोड़ाह, चोरस तभी प्रताप सी ।। 6 ।।

पातल खांग प्रमाण, साँची सांगा हर घणी ।

लही सदा लग राण, अकबर सूंठ भी अणी ॥ 7 ॥

दोहा

भाई जश अहड़ा जणे जड़ा राण प्रताप ।

अकबर सूतो ओझके, जाण सिराणे साँप ॥ 8 ॥

सोरठा

राखो अकबरियाह, तेज तिहारो तुरकड़ां ।

नम नम नीसरियाह, राणा बिना सहराजवी ॥ 9 ॥

सह गावड़िये साथ, ये कण बाड़े वाड़िया ।

राण न मानी नाथ, तांडे राण प्रताप सी ॥ 10 ॥

सोया सो संसार, असुर पलोले ऊपरे ।

जागे जगदातार, पौहर राण प्रताप सी ॥ 11 ॥

घर बाँकी दिन पाधरा, मरदन मूके माण ।

घणे नरिन्दा घेरियां, रहे गिरिन्दा राण ॥ 12 ॥

हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि बाबू मैथिलीशरणजी गुप्त की मर्मस्पर्शिनी कविता नीचे पाठकों के सुरुचि सम्पादनार्थं दी जाती है: -

"स्वस्ति श्री स्वाभिमानी कुल कमल तथा हिन्दुआसूर्य सिद्ध ।

शूरों में सिंह सुश्री शुचि रुचि सुकृती श्री प्रताप प्रसिद्ध ॥

लज्जाधारी हमारे कुशलयुत रहें आप सद्धर्म-धाम ।

श्री पृथ्वीराज का हो विदित विजय से प्रेमपूर्ण प्रणाम ॥1॥

मैं कैसा हो रहा हूँ इस अवसर में घोर आश्वयं लीन ।

देखा है आज मैंने अचल चल हुआ, सिन्धु संस्था विहीन ॥

देखा है क्या कहूँ, मैं निपतित नभ से इन्द्र का आज छत्र ।

देखा है और भी हो, अकबर-कर में आपका संधि पत्र ॥2॥

आशा की दृष्टि से वे पितरगण किसे स्वर्ग से देखते हैं ?

सच्ची वंश प्रतिष्ठा क्षितिज पर अपनी वे कहाँ देखते हैं ?

मर्यादा पूर्वजों की अब तक हममें दृष्टि आती कहाँ है?

होती है ब्योमवाणी वह गुण-गरिमा आप ही में यहाँ है ॥3॥

खोके स्वाधीनता को अब हम सब हैं नाम ही के नरेश।

ऊँचा है आपसे ही इस समय अहो देश का शीर्ष देश ।।

जाते हैं क्या झुकाने अब उस सिर को आप भी हो हताश ?

सारी राष्ट्रीयता शिव शिव फिर तो हो चुका सर्वनाश ॥ 4 ॥

हाँ, निस्संदेह देगा अकबर इससे आपको मान दान ।

खोते हैं आप कैसे उस पर अपना उच्च धर्माभिमान ।।

छोड़ो स्वाधीनता को मृगपति ! वन में दुःख होता बड़ा है।

लोहे के पींजड़े में तुम मत रहना स्वर्ण का पींजड़ा है ॥ 5 ॥

ये मेरे नेत्र हैं क्या कुछ विकृत कि हैं ठीक वे पत्न-वर्ण ?

देखूं, है क्या सुनाता विधि अब मुझको, व्यग्र हैं हाय ! कर्ण ।

रोगी हों नेत्र मेरे वह लिपि न रहे आपके लेख जैसी ।

हो जाऊँ दैव ! चाहे वधिर पर सुनूं बात कोई न वैसी ॥ 6 ॥

बाधाएँ आपको हैं बहुविध वन में, मैं इसे मानता हूँ।

शाही सेना सदा ही अनुपद रहती, तो सभी जानता हूँ ।।

तो भी स्वाधीनता ही बिदित कर रही आपको कीर्तिशाली ।

हो चाहे वित्तवाली पर उचित नहीं दीनता चित्तवाली ॥7॥

आये थे, याद है क्या, जिस समय वहाँ 'मान', सम्मान पाके ।

खाने को थे न बैठे मिसकर उनके साथ में आप आके ।

वे ही ऐसी दशा में हँसकर कहिये, आपसे क्या कहेंगे?

अच्छी हैं ये व्यथाएँ, पर वह हँसना आप कैसे सहेंगे ॥ 8॥

है जो आपत्ति आगे वह अटल नहीं, शीघ्र ही नष्ट होगी।

कीर्ति श्री आपकी यों प्रलय तक सदा और सुस्पष्ट होगी ।।

घेरे क्या व्योम में है अविरत रहती सोम को मेघमाला ।

अन्त है में क्या वह प्रकट नहीं और भी कान्तिबाला ।। 9 ॥

है सच्ची धीरता का समय बस यही हे महा धैर्यशाली !

क्या विद्युद्वह्निका भी कुछ कर सकती वृष्टिधारा-प्रणाली ?

हों भी तो आपदाएँ अधिक अशुभ हैं क्या पराधीनता से ?

वृक्षों जैसा झुकेगा अनिल निकट क्या शैल भी दीनता से ।। 10 ॥

ऊंचे हैं और हिन्दू, अकबर-तम की है महा राजधानी।

देखी है आप में ही सहज सजगता स्वाधर्माभिमानी ।

सोता है देश सारा यवन नृपति का ओढ़ के एक वस्त्र ।

ऐसे में दे रहे हैं जगकर पहरा आप ही सिद्ध-शस्त्र ॥11॥

डबे हैं वीर सारे अकबर- बल का सिन्धु ऐसा गभीर ।

रक्खे हैं नीर-नीचे कमल-सम वहाँ आप ही एक धीर ॥

फूलों सा चूस डाला अकबर अलि ने देश है ठौर-ठोर।

चंपा-सी लाज रक्खी अविकृत अपनी धन्य मेवाड़-मौर ॥12 ॥

माँ ! है जैसा प्रताप प्रिय-सुत जन तू तो तुझे धन्य मानें।

सारे राजा झुके हैं जब अकबर-तेज आगे सभीत।

ऊंचा, ग्रीवा किये हैं सतत तब वहाँ आप ही हे विनीत ॥

आर्यों का मान रखखा, दुःख सहकर है प्रतिज्ञा न टाली ।

पाया है आपने ही विदित भुवन में नाम आर्यांशुमाली ॥13॥

गाते हैं आपका ही सुयश कवि कृति छोड़के और गाना।

वीरों की वीरता को सु-वर मिल गया चेतकारूढ़ राना ।।

सोता भी चौंकता है अकबर जिससे साँप ज्यों हो सिरानें ॥14 ॥

'राना ऐसा लिखेंगे, यह अघटित है, की किसी ने हँसी है।

मानी हैं एक ही वे बस नस-नस में धीरता ही धँसी है ।'

यों ही मैंने सभा में कुछ अकबर की वृत्ति है आज फेरी ।

रक्खो चाहे न रक्खो अब सब विध है आपको लाज मेरी ॥ 15 ॥

हो लक्ष्य भ्रष्ट चाहे कुछ, पर अब भी तीर है हाथ ही में ।

होगा हे वीर ! पीछे विफल संभलना, सोचिये आप जी में ।।

आत्मा से पूछ लीजे कि इस विषय में आपका धर्म क्या है ?

होने से ममं पीड़ा समझ न पड़ता कर्म-दुष्कर्म क्या है ।। 16 ।।

क्या पश्चात्ताप पीछे न इस दिशा में आप ही आप होगा ?

मेरी तो धारणा है कि इस समय भी आपको ताप होगा ।।

क्या मेरी धारणा को कह निज मुख से आप सच्चा करेंगे ?

या पक्के स्वर्ण को भी सचमुच अब से ताप, कच्चा करेंगे ।।17।।

जो हो ऐसा न हो जो हँसकर मन में 'मान' आनंद पावें।

जीना है क्या सदा को फिर अपयश की ओर क्यों आप जायें ।।

पृथ्वी में हो रहा है सिर पर सबके मृत्यु का नृत्य नित्य।

क्या जानें, ताल टूटे किस पर उसकी कीजिये कीर्ति कृत्य ।।18 ।।

हे राजन् ! आपको क्या यह विदित नहीं, आप हैं कौन व्यक्ति ।

होने दीजे न हा ! हा! शुचितर अपने चित्त में यों विरक्ति ।।

आर्यों को प्राप्त होगी, स्मरण कर सदा आपको, आत्मशक्ति ।

रक्खेंगे आप में वे सतत हृदय से देव की भाँति भक्ति ।। 19 ।।

शूरों के आप स्वामी यदि अकबर की वश्यता आन लेंगे।

तो दाता दान देना तजकर उलटा आप ही दान लेंगे।।

सोवेंगे आप भी क्या इस अशुभमयी घोर काली निशा में?

होगा क्या अंशुमाली समुदित अब से अस्तवाली दिशा में ।।20।।

दो बातें पूछता हूँ, अब अधिक नहीं, हे प्रतापी प्रताप!

आज्ञा हो, क्या कहेंगे अब अकबर को तुर्क या शाह आप ?

आज्ञा दीजे मुझे जो उचित समझिये, प्रार्थना है प्रकाश ।

मूँछें ऊँची करूँ या सिर पर पटकूं हाथ होके हताश ।।21।।

पत्र लिखा गया । पृथ्वीराज ने कई वार उसे आदि से अन्त तक पढ़ा । हृदय को पत्र के भाव और भाषा की उच्चता का विश्वास हो गया। पत्र पढ़कर वे फिर चिन्तित से हो गये। वे सोचने लगे कि यह पत्र महाराणा के पास किसके हाथ भेजा जाय ! अकबर को अगर इस पत्र का मालूम हो जाय कि इसमें कुछ-का-कुछ लिखा गया है, तो निस्सन्देह एक बड़ा अनर्थ होगा । बहुत सम्भव है कि वह मेरी जान लेकर ही रहे। इस तरह सोचते हुए पृथ्वीराज को उस दूत की बात याद आ गयी, जो महाराणा का पत्र लेकर आया था और दरबार में पृथ्वीराज की अकबर से बहस होने पर कैद कर लिया गया था! अकबर की कैद से महाराणा के उस दूत को छुड़ाने की जबर्दस्त फिक्र पृथ्वीराज को पैदा हो गयी। इससे उनका कार्य भी अच्छी तरह सघ सकता था। वह दूत पृथ्वीराज का पत्र लेकर बिना किसी रोक-टोक के महा राणा को सुपुर्द कर सकेगा, इसलिए उसकी मुक्ति कई दृष्टियों से आवश्यक है, यह सोचकर पृथ्वीराज ने अपने एक नौकर को बुलाकर बहुत सा धन रत्न देकर कहा- पहले फाटक में एक राजदूत कैद करके सिपाहियों की निग रानी में रखा गया है। ये जवाहरात सिपाहियों की भेंट करना और कहना कि उस राजपूत को जल्द छोड़ दें।

नौकर शाही- किले की तरफ गया और पृथ्वीराज अपनी कविता लेकर सुन्दरी के कमरे में गये । सुन्दरी ने भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया था । बांदियों ने कहा, "जब से आपके कमरे में आयी है; न जाने इन्हें क्या हो गया है, न किसी से बोलती हैं न किसी को अपने पास जाने देती हैं, अब सरकार आये हैं, सरकार ही देखें कि कौन-सी बीमारी हो गयी है।"

एक दूसरी बांदी ने कमरे के दरवाजे के पास जाकर आवाज दी और कहा, "सरकार आये हैं भीतर आना चाहते हैं।"

सुन्दरी ने दरवाजा खोल दिया। पृथ्वीराज भीतर चले गये । सुन्दरी की आँखें फूले हुए पलाश की तरह सुखं हो रही थीं। पृथ्वीराज ने देखा,- तकिया, चादर, सिरहाने की तरफ का तमाम बिस्तरा आँसुओं से तर हो गया है । परन्तु उन्होंने कुछ कहा नहीं। वे समझ गये कि महाराणा की सन्धि करने की बात सुनकर सुन्दरी को इतना हार्दिक दुःख हुआ है। वे जानते थे, महाराणा के वंश की यह युवती अपनी मर्यादा का पूरा विचार रखती है। शाही बेगमों के सामने इसने कभी भी आँख नीची नहीं की। पृथ्वीराज ने बड़े प्यार से उसके हाथ में वह कागज जिसमें उन्होंने महाराणा की कविता लिखी थी, रख दिया और कहा, "इसे पढ़ो, तुम्हारे ताऊ को हमने चिट्ठी लिखी है।" सुन्दरी ने कुछ न कहा, चिट्ठी ले लो और चुपचाप पढ़ने लगी।

पढ़कर उसके हृदय को एक प्रकार का स्वर्गीय आनन्द मिला। उसका दुख एक प्रकार के जोश में बदल गया। गर्व की दृष्टि से अपने पति को उसने एक बार देखा, कहा, "हाँ, यह भाषा आपके योग्य ही हुई है, मुझे विश्वास है, पत्र का महाराणा उचित मूल्य देंगे और आपकी स्वर्गीय प्रतिभा का समुचित आदर भी करेंगे ।"

बाँदी ने पृथ्वीराज को किसी के बाहर आकर पुकारने की खबर दी । पृथ्वीराज कमरे से बाहर आये। उनका नौकर और महाराणा का वह बाहर खड़ा था। दूत की मुक्ति से पृथ्वीराज को बड़ा हर्ष हुआ, उन्होंने उसे गले लगा उसके कष्टों के लिए सहानुभूतिसूचक शब्दों से उसे यथेष्ट सन्तोष प्रदान कर अन्त में महाराणा की सेवा में लिखा गया, अपना पत्र देकर महाराणा से अपना प्रणाम कह देने के लिए कहा। पृथ्वीराज की सहृदयता को देखकर दूत मुग्ध गया। उसे दिल्ली में एक राजपूत के प्रति सहानुभूति रखनेवाला कोई दूसरा राजपूत अब तक न मिला था। तब तक पृथ्वीराज ने अपने नौकर को अस्तबल से एक तेज घोड़ा कसकर शीघ्र ले आने की आज्ञा दी और खुद घर में यथेष्ट धन-रत्न दूत के राह खर्च के लिए लेने गये । बात की बात में एक अच्छा घोड़ा कसा हुआ दरवाजे पर साईस ले आया और पृथ्वीराज भी यथेष्ट धन लेकर घर से बाहर निकले । दूत को वह सब धन-रत्न देकर बड़े आदर से उन्होंने विदा किया। बार-बार महाराणा को प्रणाम कहने के लिए कहा और कुछ दूर तक छोड़ने भी गये । अन्त में मुगलों की चालबाजी से बचे रहने के लिए कई प्रकार के उपदेश दे दूत को विदा किया।

षोडश परिच्छेद : मत परिवर्तन

उधर अकबर को पत्र लिखने के पश्चात् प्रताप की आत्मा में एक दूसरा ही परिवर्तन हो गया । पहले जिन विरोधी शक्तियों ने व्रत भंग करने के लिए उन्हें उत्साहित किया था, पत्नी और पुत्र-पुत्रियों की ममता का इन्द्रजाल सामने ला मोह में डाल अभीष्ट सिद्धि की थी, वे शक्तियाँ अब तिरोहित हो गयीं । आत्मग्लानि से उनका सर्वांग मुरझा गया था। वे अपने को घोर अपराधी समझने लगे थे ।

एक रोज पत्न लिखने के बाद ही अरावली की एक शिला पर बैठे हुए वे अपने अतीत जीवन के करुणापूर्ण इतिहास के पृष्ठ उलट रहे थे। देखा : उसमें जीवन का प्रभात था; आत्माहुति थी; स्वदेश और स्वधर्म के प्रति अविचल अनुराग था; राजपूत वीरों की निष्ठा थी; देश-रक्षा के महान् व्रत से भरा हुआ अदम्य साहस था। फिर याद आयी हल्दी घाटी में राजपूत वीरों की समर-कीर्ति, वीरों का लड़कर प्राणार्पण कर देना; महाराणा की रक्षा के लिए झालामान्ना की अद्भुत वीर गति; प्रताप की आँखों में आँसू आ गये । जिन वीरों ने प्रताप को देवता के तुल्य समझकर उनकी रक्षा की, अपना अमूल्य जीवन दिया, उनकी आत्माओं को कितना दुःख होगा? वे स्वर्ग में क्या सोचेंगे ? वे सोचेंगे, हमें धोखा हुआ; हमने जिसे देश का संरक्षक समझा था, वह देश का भक्षक निकला। ओह ! कितना पतन हुआ !

हल्दीघाटी के पश्चात् सैकड़ों योद्धाओं से मेरी मुठभेड़ हुई। वर्षों तक इस जंगल से उस जंगल, उस जंगल से दूसरे खोह में इसी तरह मुझे जीवन बिताना पड़ा; परन्तु इससे मेरी आत्मा को कभी नीचा नहीं देखना पड़ा; सबकुछ खोकर भी वह प्रसन्न थी; आज सबकुछ प्राप्ति की आशा है, परन्तु वह अवसन्न है, जैसे उसका सर्वस उसके भीतर से निकल गया हो ।

बस; अकबर की भिक्षा ग्रहण कर जीवित रहना मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं। मैंने बुरा किया। एक क्षणिक पतन का कितना कष्टप्रद परिणाम हुआ करता है; शायद यह दिखाने के लिए ही ईश्वर ने मुझे पतन के पथ पर कुछ ही देर के लिए खड़ा किया था।

महाराणा बैठे ही थे कि दूत सामने से आता हुआ दिखायी दिया। दूत को देखकर महाराणा की देह में आग सी लग गयी। याद आया कि अकबर के पास से कोई सन्धि की खबर लेकर आ रहा है। महाराणा उठकर चल दिये। उन्हें सन्धि मंजूर न थी। अपनी भूल वे समझ गये थे ।

दूत ने प्रणाम किया। महाराणा के हाथ में पत्र देना चाहा, परन्तु शेर की तरह डपटकर महाराणा ने कहा, "ले जाओ, मैं संधि नहीं चाहता, फाड़ डालो यह पत्र।''

"यह पत्र पृथ्वीराज ने महाराणा की सेवा में भेजा है, फिर जैसी आज्ञा हो।" दूत ने विनयपूर्वक सिर झुकाकर कहा। पृथ्वीराज का नाम सुनकर महाराणा ने पत्र ले लिया। दूत से कहा, फिर मिलो कुछ देर के बाद पत्र एकान्त में बैठकर पढ़ने लगे। प्रणाम कर दूत चला गया ।

पत्र ने अग्नि में घृताहुति का काम किया। महाराणा का यथार्थस्वरूप उस पत्र में वीर भावुक कवि ने चित्रित कर दिया था, उनकी आँखें लाल हो गयीं, बड़ी तेजी से नसों में खून की धारा बह चली, भुजाएं फड़क उठीं । जिस पृथ्वीराज के प्रति आज तक महाराणा की धारणा वैसी ही थी, जैसी वे गुलाम राजपूतों के प्रति रखते थे, जिन्होंने भोग और विलास के पीछे पड़ कर अपनी प्यारी स्वतन्त्रता और स्वाभिमान का खून किया था, मुगलों की अधीनता लोभ में पड़कर स्वीकार कर ली थी, अब उस पृथ्वीराज के प्रति उनका भाव बदल गया। वीर कवि ने एक ही कविता द्वारा उनके हृदय के अन्तर प्रदेश पर अधिकार कर लिया। पत्र में दिल्ली के दरबार में अकबर से बहस करके पत्र को जाली सिद्ध करना, महाराणा की इज्जत बचाना, उनके गौरव की याद दिलाना, अकबर का उद्देश्य जाहिर करना, हिन्दुओं की वर्तमान दशा का दिग्दर्शन कराना, ये सब बातें किसी पराधीन हृदय वाले की लेखनी से नहीं निकल सकतीं। महाराणा मुग्ध हो गये। वे सोचने लगे, आज हिन्दुओं का हृदय दिल्ली में कैद है, मुझे तो फिर भी चलने-फिरने की स्वतन्त्रता है, परन्तु मुक्ति के उज्ज्वल आकाश में विहार करनेवाले इस कवि को बन्दी दशा में कितना कष्ट होगा, उसकी आत्मा पर कितना दबाव पड़ा होगा ?

महाराणा इन्हीं सब बातों पर विचार कर रहे थे कि दिल्ली से दूत के आने की खबर सुनकर सरदार चन्दावत, महारानी पद्मावती तथा और-और भील सरदार भी वहां आकर एकत्र हुए। महाराणा ने पृथ्वीराज का पत्र चन्दावत सरदार को देकर कहा, देखो तो सरदार, हिन्दुओं की कितनी गिरी हुई दशा है। आज हिन्दुओं के हृदय का सम्राट अकबर के दरबार में एक कैदी की हैसियत से अपने दिन पार कर रहा है । चन्दावत सरदार ने पृथ्वीराज का लिखा हुआ पत्र पढ़ा, सब लोग ध्यान से उसे सुनने लगे। प्रताप की सन्धि करने की बातें सब लोग सुन चुके थे, पीछे उस सन्धि के प्रस्ताव से महाराजा के इनकार कर जाने, अपनी भूल के लिए पश्चाताप करने पर उनके साथियों को हार्दिक प्रसन्नता हुई थी, अब पृथ्वीराज के पत्र से उनके अनादि का ठिकाना न रहा। जब उन्हें यह मालूम हुआ कि अकबर के दरबार में पृथ्वीराज ने उस पत्र को जाली सिद्ध कर दिया है, तब महाराणा की सम्मान रक्षा से उन्हें और भी हर्ष हुआ सब लोग पृथ्वीराज की भूरी-भूरी प्रशंसा करने लगे। महाराणा की आज्ञा के अनुसार अब कुछ समय व्यतीत होने पर दूत भी यहां पहुंचा, लोगों ने चारों ओर से दूत को घेर लिया और दिल्ली के समाचार सुनने के लिए उत्सुकतापूर्वक उसकी ओर ताकने लगे। महाराणा ने उसे दिल्ली के समाचार कहने की आज्ञा दी। दूत कहने लगा कि किस तरह महाराणा का पत्र पढ़कर बादशाह अकबर को प्रसन्नता हुई, किस तरह और-और लोगों से महाराणा के दस्तखत के सम्बन्ध में उनकी बहस छिड़ी, पृथ्वीराज से महाराणा का सम्बन्ध जानकर किस तरह अकबर ने उन्हें बुलवाया, दरबार में महाराणा के हस्ताक्षरों के स्वभाव का परिचय देना, पत्र को जाली बतलाना, पृथ्वीराज पर अकबर का जांच करने का भार सपना त काबन्दी होना, सिपाहियों को प्रचुर अर्थ देकर नौकर द्वारा पृथ्वीराज का दूत को छुड़वाना, दूत के हाथ अपना पत्र देना, महाराणा को बारम्बार अपना सविनय प्रणाम कहना, आदि-आदि शुरू से आखिर तक की कुल बातें, सब आदमियों के सामने दूत ने सुनायीं। पृथ्वीराज की सहृदयता और स्वदेश के प्रति प्रगाढ़ अनुराग देखकर लोग उनकी गुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगे। उस रोज महाराणा के साथियों को एक प्रकार का स्वर्गीय आनन्द मिला ।

प्रताप के हृदय में पत्र लिखने के पश्चात् ही परिवर्तन हो गया था, सन्धि के प्रस्ताव को उन्होंने दिल से दूर कर दिया था, अब पृथ्वीराज के पत्र ने उन पर और भी गहरा प्रभाव डाल दिया। उन्होंने निश्चय किया कि सन्धि तो अब होगी ही नहीं, किन्तु यहाँ रहना भी अब अनुचित है। इस पहाड़ का आश्रय छोड़कर किसी दूसरे देश के लिए प्रस्थान कर जाना चाहिए। यहां प्रतिदिन होनेवाले मुगलों के अत्याचार असह्य हो रहे हैं।

अन्त में इस विचार को महाराणा ने निश्चय का रूप दे दिया। उन्होंने साथ ही यह भी सोचा कि अब हम सर्वथा असमर्थ हैं, दाने-दाने को मुहताज हो रहे हैं, हमारा सर्वस्व जाता रहा, अब न तो हम देश का ही उद्धार कर सकेंगे और न यहाँ रहकर अपनी बची हुई व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को ही बचा सकेंगे । न जाने कब शत्रुओं से घिर जायें, यदि कैद हो गये तो जान गँवाने से पहले हमें अकबर और मानसिंह की कुटिल भौंहें जरूर देखनी पड़ेंगी। इसलिए यह स्थान छोड़ देना ही सबसे उत्तम उपाय है। अब चित्तौड़ की तरह मेवाड़ भी विधर्मियों के कब्जे में है। वही अब इसके राजा हैं, वहीं इसका शासन करते हैं, व्यर्थ ही अब जन्मभूमि के उद्धार का स्वप्न देखना है । आह ! राजपूतों का यह कितना घोर पतन हुआ है।

अपने विचार के अनुसार दिन निश्चय करके महाराणा अपने परिवार सहित मेवाड़ की विशाल मरुभूमि के किनारे पर खड़े हुए, चारों ओर से बालुकाराशि समुद्र की तरह दिखलायी पड़ रही थी। उन्हें बिना किसी सवारी के बिना किसी सहायता के बिना अर्थ के, यह रेगिस्तान पार कर जाना होगा। जिनके पैर हमेशा मखमल के गलीचे पर पड़ते थे, उन्हें स्वा धीनता के प्रेम ने पहाड़ की बीहड़ जमीन पर चलाया; परन्तु फिर भी उसे सन्तोष न हुआ, अब तपती हुई बालुकाराशि पर उनकी परीक्षा होगी। महाराणा ने चुपचाप खड़े हुए एक वार अपनी सती सहधर्मिणी देवी-पद्मावती के मुख की ओर देखा - फिर अपनी छोटी-सी लड़की को देखा- उस कठोर हृदयवाले पुरुष-सिंह का भी हृदय दहल उठा; आँखों से दो बूंद आँसू टपक पड़े।

चन्दावत सरदार सिर झुकाये हुए खड़े थे। महाराणा का वियोग उनके कलेजे में तीर की तरह चुभ रहा था, परन्तु कोई उपाय न था। महाराणा के भील बन्धु भी दुःखित भाव से खड़े थे। चिरकाल से जिस वीर केसरी के साथ रहकर उन लोगों ने सुख और दुःख के दिनों में उनकी सहायता की थी, आज उनके वियोग से उनके कोमल सरल जंगली बन्धुओं के हृदय में भी करुणा का सागर उमड़ रहा था। परन्तु सब लाचार थे। प्रताप की प्रतिज्ञा अटल थी । सब लोग यह जानते थे। दूसरे रोकने का कोई कारण भी किसी के पास न था। बेचारे सब गरीब किस हिम्मत पर उन्हें रोककर रखते ? और पहाड़ पर मुगलों से महाराणा के परिवार को कष्ट भी बहुत मिल रहा था। सबके-सब काठ के पुतले की तरह बड़े हुए विदाई का वह करुण दृश्य देख रहे थे।

विधाता की इच्छा बड़ी बलवान होती है। वह चाहे तो राई को पर्वत और पर्वत को क्षणमात्र में राई कर दे सकता है। उसी ने प्रताप की खबर ली। यह उनकी अन्तिम परीक्षा थी, जब मरुभूमि को पार कर जाने का संकल्प उन्होंने दृढ़ कर लिया, तब उनकी तपस्या भी सिद्धि के आसन पर पहुँच गयी, और स्वाधीनता की देवी उन पर प्रसन्न हो गयी। उनके सामने एक वह दृश्य उपस्थित हुआ, जिसे देखकर प्रताप के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। विदाई के उस करुण मुहूर्त में वृद्ध मन्त्री भामाशाह वहाँ आ पहुँचे। बड़े सम्मान से उन्होंने महाराणा को प्रणाम किया। उनके पीछे वाहनों पर बहुत धन-रत्न लदा हुआ आ रहा था। भामाशाह को देखकर महाराणा बड़े आश्चर्य में पड़े। उनके एकाएक आने का कारण कुछ महाराणा की समझ में न आया। वे एक दृष्टि से अपने विश्वस्त वृद्ध मन्त्री की ओर देखने लगे । भामाशाह विनीत शब्दों में महाराणा से प्रार्थना करके कहने लगे, 'मेवाड़ के रत्न ! सिसोदिया कुल के कमल ! इस वृद्ध सेवक की एक प्रार्थना है उसे पूरा कीजिए।"

भामाशाह के शब्द सुनकर महाराणा ने कहा, "भाई, यथाशक्ति तुम्हारी प्रार्थना पूरी की जायगी। तुम और तुम्हारे वंशवालों की सेवा से मेवाड़ राज्य का विशेष उपकार हुआ है। तुम्हारे जैसे विश्वस्त कर्मचारी बड़े भाग्य से प्राप्त होते हैं । परन्तु इस समय तुम जानते हो, हम बिल्कुल अशक्त हैं, न हमारे पास राज्य है, न धन, न लोकबल है। ऐसी दशा में हम तुम्हारी प्रार्थना पूरी कर सकेंगे, इस विषय में हमें सन्देह हो रहा है।"

भामाशाह ने विजय से गद्गद होकर कहा, "आपकी शक्ति इस दास की दृष्टि में पहले से अनेक गुणों में अधिक हो गयी है और धन, जन तथा राज्य के सम्बन्ध में जो आपने कहा, सो इस दास का तो यह विचार है कि श्रीमान् के पहले से अधिक कुटुम्बी हो गये हैं। मेवाड़ के प्रत्येक मनुष्य के हृदय पर आपका अधिकार हो गया है। धन मेवाड़ के अधिवासियों के पास जितना है, सब महाराणा का ही है। मैं विनयपूर्वक महाराणा की सेवा में अपना सर्वस्व धन भेंट करने के लिए ही आया था, प्रार्थना यह है कि इस धन को महाराणा स्वीकार करें।"

भामाशाह के भक्ति से भरे हुए शब्दों को सुनकर प्रताप चकित रह गये। त्याग की महिमा देखकर उनकी आत्मा को बड़ी प्रसन्नता हुई। मेवाड़ की गोद में इस तरह के रत्न पैदा होते हैं, प्रताप का वक्ष गर्व से स्फीत हो उठा। परन्तु नीति के वश हो उन्होंने कहा, "मन्त्रीवर, यह धन तुम्हारा है, इसको हम ग्रहण न करेंगे, यह हमारा धर्म नहीं है। आज बड़े अच्छे मुहूर्त में तुम आये । हम मेवाड़ राज्य से बाहर जा रहे हैं। यहाँ की विपत्ति अब सही नहीं जाती । कोई सहायक भी नहीं रहा। और अब हम इस भूमि के राजा भी नहीं हैं। इसलिए अपने प्राणों और अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए हमें किसी ऐसे स्थान में चलकर रहना चाहिए, जहाँ कुछ निश्चिन्त रह सकें। अकेले युद्ध' भी नहीं होता। मुगलों से जी घबरा गया है। तुम आये. यह अच्छा हुआ । मेवाड़ से विदा होते समय हमने तुम्हें भी अन्तिम वार के लिए देख लिया। अब हम धन लेकर क्या करेंगे मन्त्रीजी, सुख-भोग हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं है।"

महाराणा के मर्मस्पर्शी शब्दों को सुनकर भामाशाह रो दिये। रुँधे हुए कम्पित कण्ठ से वृद्ध ने कहा, "महाराणा, आपको मेवाड़ के उद्धार के लिए यदि इतना बड़ा त्याग करने का अधिकार है, तो क्या मुझे एक छोटा-सा त्याग भी आप न करने दीजियेगा ? आप हमारे सम्राट् हैं, हमारे धन पर आपका नहीं तो फिर और किसका अधिकार है ? इस वृद्ध अवस्था में मैं मेवाड़ को स्वतन्त्र देखकर मरूँ, मुझे बड़ी आशा है, महाराणा, मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ, मेरी इच्छा पूरी कीजिए।"

महाराणा ने गम्भीर होकर कहा, 'तुम्हारा हृदय निर्मल और आत्मा पवित्र है। तुम्हारे देश का कल्याण हो, यदि मुझे तुम निमित्त करने के लिए आये हो तो मैं बड़ी प्रसन्नता से तुम्हारे कार्य का भार ग्रहण करूँगा । आह ! क्या वह दिन भी कभी होगा, जब मेवाड़ से यवनों के पैर उखड़ जायेंगे !"

"महाराणा, आप यह क्या कहते हैं कि आप निमित्त होकर रहेंगे, नहीं, कार्य और कारण दोनों आप ही हैं, मैं आपको- अपने महाराणा को- अपने उत्तराधिकारी को अपना धन रत्न दान कर रहा हूँ कि यह धन देश की रक्षा के निमित्त खर्च कीजिए। मैं दाता और इस कार्य का प्रधान नहीं है। यह सब मुझे आप ही के यहाँ से मिला है, इस पर मेरा अधिकार कुछ भी नहीं है । देश का धन देश की विपत्ति के समय अवश्य खर्च किया जाना चाहिए।" भामाशाह ने विनयपूर्वक महाराणा को देखते हुए कहा ।

चन्दावत सरदार और अन्यान्य वीरों को इससे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। सब लोग मारे षं के वारम्वार भामाशाह को धन्यवाद देने लगे। प्रताप ने भामाशाह का धन स्वीकार कर लिया और उसी समय सरदार चन्दावत को आज्ञा दी कि राजपूत सेना के जो सिपाही पहले हमारे यहाँ थे, उन्हें शीघ्र एकत्र करो और नयी सेना भी काफी संख्या में इकट्ठी करो। लेकिन इस कार्य को चुपचाप करना।

महाराजा को फिर से युद्ध की तैयारी करते देख, भामाशाह को हार्दिक सुख प्राप्त हुआ। उनके उपार्जित धन से देश को स्वतन्त्रता प्राप्त होगी, अपनी भूमि पर वीर राजपूत सीना तानकर चलेंगे, मुगलों का अत्याचार दूर होगा, गोबध बन्द हो जायगा, इन सब भविष्य की मुखकर बातों का स्मरण कर भामाशाह की आत्मा को मानो इस मर्त्यलोक में ही अमरता का रसास्वादन मिलने लगा ।

सप्तदश परिच्छेद : मेवाड़ का उद्धार

प्रताप की तपस्या सिद्ध हुई। हम पहले ही लिख चुके हैं कि जिस दिन राज पूताना की विशाल मरुभूमि को पार कर जाना उन्हें सुगम और मस्तक झुकाना अगम जान पड़ा, उसी दिन स्वतन्त्रता की निष्करुण-देवी का अजस्र आशीर्वाद उन्होंने प्राप्त किया। वे मुक्त हुए; उन्हें साधन मिला; युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं; वीरों की सेना फिर उसी प्रकार प्रबल जलधारा की तरह प्रताप के हृदय के सागर से मिलने के लिए मेवाड़ के स्थान-स्थान से आने लगीं।

बिना विपक्षियों को किसी प्रकार की खबर हुए, एकान्त पहाड़ी भू-भाग पर प्रताप की विशाल राजपूत सेना एकत्र हो गयी। सब सामन्त-सरदार भी अपने महाराणा की सहायता करने के लिए आने लगे। इस बार शोरगुल कुछ न था प्रतिज्ञा की गम्भीरता, दृढ़ता और मौन ही सेना में एक छोर-से दूसरे छोर तक दिखलायी दे रहा था। अत्याचार के उद्दाम उच्छं खल शासन का बदला लेने के लिए ही मानो वह महामौन आज एक दूसरे रूप से शत्रु का सामना किया चाहता है। कहीं किसी प्रकार की जयध्वनि नहीं सुनायी पड़ती, कहीं कोई युद्ध का वाद्य नहीं बज रहा, किन्तु फिर भी इस गम्भीरता में जो अपराजित वीरता विराजमान थी, वह उस पहले के महासमर हल्दी घाटी के युद्ध में न थी। उस समय ऐश्वर्य का अहकार राजपूतों में भी था। उस समय गर्व की घोषणा, अल्पसंख्यक होने पर भी राजपूतों में बचेष्ट थी। वह वीर्य का परिदर्शन था और यह अभीष्ट प्राप्ति का मौन उसमें जितनी। चहल-पहल थी, इसमें उतनी ही सावधानी उसमें आत्मत्याग था, इसमें। आत्म-रक्षा । वह ऐश्वर्य की मृत्यु थी, यह ऐश्वयं की तृष्णा । वह स्वच्छन्द, मुक्त, अनाहत और अबाध था, यह नियन्त्रित, अवरुद्ध, आहत और सँभला हुआ ।

प्रताप ने एक बार अपने सुसज्जित वीर राजपूतों को देखा। तपस्वी प्रताप के लिए अब शब्दों द्वारा सैन्य को उत्तेजित करने की आवश्यकता न थी, उनकी मौन साधना से मेवाड़ के प्रत्येक घर में यथेष्ट उत्तेजना भर गयी थी। उन्हें अपनी ओर ताकते देखकर सेना सचेष्ट हो गयी, मानो इशारा करने की चाहती है।

प्रताप देवीर की ओर चले। सेना के सुशिक्षित सरदार अपनी-अपनी वाहिनी का इस तरह संचालन कर रहे थे कि पद-शब्द में भी वे यथेष्ट ध्यान रखते थे । देवीर नामक स्थान मेवाड़ के उत्तर की तरफ है। वहाँ शाहनवाज खाँ अपनी मुगल-स -सेना के साथ पड़े हुए थे। पहले उन्हें प्रताप की खबर कभी कभी मिलती थी, परन्तु इधर बहुत दिनों से प्रताप का कोई संवाद न पा, वे निश्चेष्ट हो रहे थे । कभी-कभी उन्हें कोई कहता, प्रताप अब मेवाड़ छोड़कर कहीं चले गये हैं। पहले प्रताप मेवाड़ छोड़ने को तैयार थे ही, परन्तु एकाएक फिर से युद्ध करने का साधन मिल जाने पर रुक गये, परन्तु प्रताप के प्रिय अनुचरों ने तेजी से यह झूठी खबर फैला दी कि महाराणा मेवाड़ छोड़कर चले गये। तमाम राजपूताने में यह संवाद आग की तरह फैल गया। सेनापति शाहनवाज खाँ ने भी सुना। उन्हें भी विश्वास हो गया। वे सुख की नींद सोने लगे व्यर्थं का वितण्डा उन्हें पसन्द न था। जिस महाराणा के लिए वे आये थे, जब वे ही न रहे, तब अकारण प्रजा को कष्ट देने से फायदा के बदले नुकसान अधिक होगा। इसलिए वे और उनकी सेना नाच-रंग में ही डूबी रही, युद्ध का खयाल ही छूट गया ।

इधर प्रताप ने देवीर में शाहनवाज खाँ पर चढ़ाई कर दी। खाँ साहब तैयार न थे। शराब, कबाब और ऐश की लहरों में बेहोश हो वह रहे थे। प्रताप का प्रबल आक्रमण उनकी सेना सह न सकी। बड़ी बुरी तरह मुगलों का संहार हुआ। राजपूत वीर बहुत दिनों के भूखे शेर की तरह मुगलों की सेना पर एकाएक टूटे, सब फौज तितर-बितर हो गयी, एक-दूसरे की मदद करने को कोई न पहुँच सका। ऐसी हालत में आत्म-रक्षा के लिए मुगल सेना भागी। प्रताप ने उसका पीछा किया। अपाहन नामक स्थान तक प्रताप, मुगल सेना का संहार करते हुए चले गये।

मुगलों की कुछ सेना यहाँ भी पड़ी थी। खलबलाये हुए राजपूतों को उस सेना को देखकर बहुत क्रोध आया। प्रताप की सेना हल्दीघाटी के समर के बाद से बदला चुकाने के लिए पागल हो रही थी। वह मुगलों के अत्या चार वर्षों तक चुपचाप सहती रही थी। इस समय ब्याज समेत अपनी पिछली कसर पूरी कर रही थी। अपाहन के मुगल-सिपाहियों को भी उसने तल्वार के घाट उतारा ।

विजय राजपूतों के लिए महामन्त्र हो गयी। उनका उत्साह बढ़ गया। जिस नीति से इस बार उन्होंने लड़ाई ठानी उनकी वही नीति रही। और यहां से महाराणा ने कमलमीर पर चढ़ाई कर दी। कमलमीर उनकी बड़ी प्यारी भूमि थी। यहाँ उन्होंने अपनी पूर्व तपस्या के दिन बिताये थे। यहाँ बादशाही फौज के सेनापति अबदुल्ला खां थे। इनकी फौज ने भरसक महाराणा के राजपूत सिपाहियों से लोहा बजाया, परन्तु अड़ न सके। आंधी के उखड़े हुए पेड़ों की तरह अबदुल्ला की फौज के सिपाही वीर राजपूतों की मार खाकर धराशायी होने लगे। इस संग्राम में सेनापति अवदुल्ला खाँ भी मारा गया। राजपूतों की शक्ति दुर्दम हो चली। तूफान की तरह राजपूत-सेना अपने छुटे हुए किलों में घुसकर अधिकार जमाने लगी। हल्दीघाटी के महासमर में जितने राजपूतों का नाश हुआ था, उससे अधिक मुगलों के प्राण इन राज पूतों ने अपनी विजय में लिये।

कमलमीर और गोगुण्डा विजय के बाद एक साल के अन्दर-ही-अन्दर 1586 ई. में अपने 32 किलों पर प्रताप ने फिर अधिकार प्रा कर लिया।

चारों ओर मेवाड़ में जहां मुगलों का विजय का अण्डा उड़ रहा था, वहाँ स्वतन्त्रता की विमल वैजयन्ती फहराने लगी। अकबर के पास मुगलों की पराजय का समाचार पहुँचा। परन्तु फिर उन्होंने महाराणा पर आक्रमण करना उचित नहीं समझा। वे राजपूत वीरों का लोहा मान गये। उधर भामाशाह का दिया हुआ धन अब तक की लड़ाई में खर्च हो गया। महाराणा को धन का अभाव हुआ। मानसिंह से बदला लेने की जलन भी अब तक उनके हृदय में बनी ही थी। उन्होंने अम्बर राज्य के प्रधान वाणिज्य स्थान माल पर चढ़ाई की और उसे लूट लिया। इस लूट में महाराणा को प्रचुर अर्थ मिला। उनका धनागार फिर धन से परिपूर्ण हो गया।

इसके पश्चात् महाराणा ने अपनी नवीन राजधानी उदयपुर पर चढ़ाई की। राजपूतों की नवीन विजय का समाचार चारों ओर फैल चुका था । शत्रु-दल सदा ही सशंक रहा करता था। उसने उदयपुर छोड़ दिया। बिना परिश्रम के ही महाराणा को उदयपुर का अधिकार मिल गया। उन्होंने इसे ही अपनी राजधानी बनाया।

चारों ओर राजपूतों की विजय का हर्षोत्साह छाया हुआ था। महाराणा के पराजित होने के बाद से मानो मेवाड़ का हर्ष-स्रोत सूख गया था; आनन्द का प्रवाह क्रमशः बन्द हो रहा था। अब फिर वैसे ही विमल धारा बहने लगी । साधारण लोग तो आनन्द मना रहे थे, परन्तु महाराणा के मन को शान्ति न थी, उनके भाग्य में मानो तपस्या के सिवा सुखोपभोग लिखा ही न था। वे चित्तौड़ की चिन्ता में सूख रहे थे। सबकुछ तो उन्होंने मुगलों से प्राप्त कर लिया, परन्तु अपने राज्य के प्राण-स्वरूप चित्तौड़ का उद्धार न कर सके। वहीं पूर्ववत् मुगलों का ही अधिकार रहा। प्रताप को इसकी चिन्ता में कभी क्षण भर के लिए भी आराम न मिलता था।

अष्टादश परिच्छेद : महाराणा की मृत्यु

प्रताप की साधना को सफलता तो मिली, परन्तु उन्हें सन्तोष न हुआ। उनके प्राणों का प्यारा, पूर्व पुरुषों की अर्जित कीर्ति का गौरव स्थल, राजपूतों के इतिहास का प्रधान केन्द्र, राजस्थान के मुकुट का शिरोमणि चित्तौड़गढ़ मुसलमानों के अधिकार में रह गया। महाराणा इसे न ले सके। यह चिन्ता उनके हृदय को प्रतिदिन जर्जर कर रही थी। उनके शरीर में घुन लग गया। पहले ही वे तपस्या के भार से अक्रान्त हो रहे थे, शरीर में पहले जैसा बल न रहा था, अवस्था भी अब ढलने पर आ गयी थी। इस पर विजय भी अधूरी रही । महाराणा का शरीर क्रमशः टूटता गया ।

चित्तौड़ के विशाल स्तम्भों को पास ही की पहाड़ी पर से देखकर महाराणों का हृदय विदीर्ण हो जाता था ये कितने गौरव के स्तम्भ आज यवनों के अधिकार में उच्च होकर मानो लज्जा से अवनत हो रहे हैं, आँसू बहाते हुए मेरी ओर एक दृष्टि से देख रहे हैं। कितनी कठोरता, कितनी तपस्या, कितनी वीरता, कितना प्रांजल सतीत्व इस रत्नगर्भा भूमि ने प्रकट किया है। और मैं इसकी तुलना में कितना दुर्बल मनुष्य अधिकार लेकर पैदा हुआ कि इसका उद्धार भी न कर सका।' प्रताप की आँखों से अविराम आँसुओं की धारा बह चलती थी। वे एक दृष्टि से उन आकाशचुम्बी शृंग तुल्य गुम्बजों को देखते ही रहते ।

परन्तु इसका कोई उपाय न था । यहाँ अकबर की सेना पूर्ण शक्ति से मुसलमानी- बादशाही झण्डा गाड़े हुए थी। स्पर्द्धा के लिए अकबर ने इसे अपना प्रधान केन्द्र समझ लिया था। इसकी रक्षा राजपूतों से तिगुनी सेना मुस्तैदी के साथ कर रही थी। कई मुसलमान सेनापति थे।

महाराणा प्रताप उच्चकोटि के भावुक पुरुष थे, उतने ही कोमल भी थे। चित्तौड़ पर अधिकार न कर सकने के कारण उनके कोमल हृदय को जो चोट लगी थी, वह फिर अच्छी नहीं हुई। दवाएँ अनेक प्रकार की की गयीं । परन्तु रोग असाध्य होता गया । उन्हें विशेष कोई रोग तो था नहीं, जो द से अच्छा हो जाता । उनकी आत्मा में चिन्ता और खिन्नता का जो रोग था, उसकी दवा वैद्य की पहुँच के बाहर की बात थी। न चित्तौड़ का उद्धार हो सका, न महाराणा अच्छे हुए।

उन्हें क्रमशः क्षीण होते हुए देखकर सामन्त-सरदार गण भी चिन्तित होने लगे। महाराणा का जीवन भी अब संशयात्मक जान पड़ने लगा । उन्होंने शय्या की शरण ली। अब उठने की शक्ति भी उनमें न रह गयी ।

एक रोज सन्ध्या के बाद प्रदीप के प्रकाश में महाराणा ने अपने चारों ओर बैठे सामन्त सरदारों से कहा, "अब हमारे जीवन की आशा तुम लोग छोड़ दो। परन्तु अन्तिम समय में, कहते हुए दुःख होता है, मेवाड़ के उद्धार के कार्य में अब शिथिलता आ जायगी ! अमरसिंह विलासी है। वह कठोरता का ग्रहण न कर सकेगा। हाय! चित्तौड़ की दशा में कोई परिवर्तन न हुआ । हमारे वीरो ! हमें विश्वास दिलाओ, सत्य कहो, स्वदेश की रक्षा में तुम लोग पीछे न हटोगे, स्वतन्त्रता की पूजा में कोई त्रुटि न हो पायेगी, व्रत के पालन में किसी प्रकार का उल्लंघन न होगा।" महाराणा तृषार्त्त नेत्रों से अपने सामन्त-सरदारों की ओर देखने लगे ।

सरदार चन्दावत ने दूसरे सरदारों के मुखिया की हैसियत से ओजस्वी शब्दों में शान्त स्वर से कहा, "महाराणा, क्या आप हम लोगों को अथाह सागर में छोड़कर चले ही जायेंगे? आपके बिना हमारी शक्ति कौन-सी ऐसी है जो मुगलों का सामना कर सके? परन्तु हम आपसे अपने आदर्श गुरु से मिथ्या नहीं कहेंगे, आप विश्वास कीजिए, हमारे रहते हुए स्वतन्त्रता की उपासना आपकी ऐसी ही होती रहेगी। आप निश्चिन्त हूजिए। महाराणा की आज्ञा का उल्लंघन करे, ऐसी शक्ति मेवाड़ के किसी मनुष्य में नहीं है। क्रमानुसार महाराणा के व्रत का उपासन होता रहेगा।"

"सरदार चन्दावत, तुम नहीं समझे।" धीमे स्वर से महाराणा ने कहा,- अमरसिंह बैठे हुए पैर दबा रहे थे, "अमरसिंह विलासी है, वह कुटियों का रहना पसन्द न करेगा। तुम देखोगे, उदयपुर में हमारे बाद बड़े बड़े महल खड़े होंगे। हम इस समय जिन कुटियों में पड़े हैं, अमरसिंह को इस तरह की कुटियों में न देखोगे।" इतना कहकर भारत का वह चमकता हुआ सितारा मुस्कुराया, यह दीपक के गुल होने के वक्त का प्रकाश था। सब सरदार खड़े हो गये। महाराणा के मुख से अस्फुट ध्वनि सुनायी दी । लोग शंकित भाव से एक-दूसरे को देखने लगे। वह माघ सुदी 11 संवत् 1653 का दिन था। धीरे-धीरे हिन्दुओं के मुकुट मणि प्रताप, नश्वर संसार को छोड़कर स्वर्गधाम को प्रयाण कर गये। मुसल्मान, हिन्दू आदि सब वर्ण और सब सम्प्रदाय के लोग जिसकी प्रशंसा करें, ऐसे प्रताप ही एक आदर्श पुरुष थे, शत्रुओं को भी जिनकी मृत्यु से दुःख हुआ ।

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