मगरमच्छ और हिरण : तमिल लोक-कथा

Magarmachchh Aur Hiran : Lok-Katha (Tamil)

तमिल लोककथाओं में नीति, नैतिक और आदर्श की बातें बच्चों के मन में पैदा करने के लिए पशुपक्षी एवं जंगली जीव-जंतुओं के माध्यम से भी कहने की प्रथा है। इन लोक-कथाओं में समय पर सही निर्णय लेने की बात, सोच-समझकर कदम उठाने की बात, उपदेशपरक बातों को केंद्रबिंदु में रखकर कथा कहने का प्रयास किया जाता है। 'मगरमच्छ और हिरण' इसी प्रकार की एक लोककथा है, जिसमें हिरण अपनी चतुराई और हाजिरजवाबी के कारण बच जाती है और मगरमच्छ उसे अपने जाल में फँसा नहीं पाता।

एक घने जंगल में एक सुंदर छोटा सा हिरण वास करता था। एक दिन उसे प्यास लगी, वह नदी किनारे गया। वहाँ एक मगरमच्छ वास करता है। यह हिरण को भी मालूम था। उसे यह भी पता है कि मगरमच्छ उसका शिकार भी करना चाहता है। इसलिए उसने एक युक्ति निकाली, जोर से कहने लगा-

'तालाब का पानी गरम तो नहीं है? चलो, पैर डालकर देखते हैं।' परंतु उसने पैर की जगह एक लकड़ी को पानी में डुबो दिया।

मगरमच्छ को पानी के अंदर ही हिरण के आने का आभास मिल गया। उसने उस लकड़ी के टुकड़े को हिरण का पैर समझकर अंदर खींचा। बाहर खड़ा हिरण हँसने लगा और जोर से बोला, 'अरे मूर्ख! मगर! तुम्हें लकड़ी और पैर में भिन्नता भी नहीं दिखी क्या?' हिरण तुरंत दूसरी ओर भाग चला।

अब मगरमच्छ ने अपने मन में सोचा, आने दो इसे अगली बार। नहीं छोडूंगा! निश्चित रूप से उसका शिकार करके रहूँगा।

दूसरे दिन दोबारा हिरण नदी के किनारे पहुँचा। नदी में मगरमच्छ को तैरते हुए आते देखा, पर संदेह निवारण हेतु एक विचार मन मे उभरा, उसने जोर से कहा-

"यदि वह लकड़ी मगरमच्छ है तो वह मुझसे बोलेगा, और यदि लकड़ी लकड़ी मात्र है तो वह नहीं बोलेगा। ठीक कहा न मैंने!'

मगरमच्छ ने उस आवाज को पहचाना और उत्तर दिया, 'मैं सच में लकड़ी का टुकड़ा हूँ।'

हिरण किनारे पर खड़ा हँसने लगा। और कहा, 'अरे, पगले! लकड़ी का टुकड़ा कहीं बोलता है क्या?'

मगरमच्छ को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने कहा, 'किसी-न-किसी दिन तुम मेरे जाल में अवश्य फँसोगे। देखता हूँ, अब मगर ने उसे पकड़ने का षड्यंत्र रचा। इसके अतिरिक्त वह कुछ कर भी नहीं सकता। हिरण दोबारा नदी के किनारे पहुँचा। अबकी बार मगर ने उसे देखते ही बड़े प्यार के साथ कहा-

'तुम तो दिन पर दिन दुबले होते जा रहे हो?'

हिरण ने कहा, 'नहीं तो! मैं बिल्कुल स्वस्थ हूँ।'

मगर ने फिर से कहा, 'नदी के उस पार ढेर सारे सब्जी के खेत हैं। उन सब्जियों के बाग का मालिक मूर्ख है। परंतु तुम बहुत चतुर हो हिरण। उसे तुम आसानी से उल्लू बना सकते हो। तुमने कभी उस बगीचे को देखा है क्या?'

हिरण बोला, 'अगर ऐसा है तो ठीक है। मैं उस बाग की ओर जाता हूँ। सब्जियाँ खाकर आता हूँ।'

मगर ने मन में सोचा-'तुम कहाँ वापस आओगे?'

दूसरे दिन हिरण सब्जियों के बाग में पहुँचा। वहाँ ढेर सारे फल और सब्जियों को देखकर आश्चर्य प्रकट किया।

'वाह ! सब खाएँगे तो कितना अच्छा होगा।' फिर क्या था। हिरण ने सब्जियों के उस खेत पर अपना पैर रखा, 'अरे, मेरा पैर कही अटक गया' हिरण घबराया। एक रस्सी में उसका पैर फँस गया था। हिरण ने उसे खोलने का प्रयास किया, पर असफल। डर के मारे सोचने लगा, 'अरे! ये व्यापारी मुझे शिकार करके खा जाएगा।' उसने खेत के मालिक को दूर से आते देख लिया। तुरंत सोचने लगा, 'मरा हुआ जैसा वहीं लेट गया।'

'अरे! यह क्या ! कितना सुंदर हिरण। पर लगता है मर गया है। सब्जी व्यापारी ने अपने पैर से उसे उठाने का प्रयास किया। पर हिरण हिला ही नहीं।

'हिरण को मरे हुए बहुत समय हो गया हो तो। हम इसे काटकर खा भी नहीं सकते।' ऐसा सोच हिरण के पाँव से रस्सी को खोल दिया और उसे उठाकर फेंक दिया। हिरण दूर जा कर गिरा। तुरंत उठ कर तेज गति से भाग निकला। व्यापारी को हिरण की चतुराई पर आश्चर्य हुआ। अपनी चतुराई से व्यापारी को उल्लू बना दिया। व्यापारी ने कहा, ये तो हम से भी ज्यादा बुद्धिमान निकला। हिरण हँसता हुआ वहाँ से भागा।

कुछ दिन बीत गए। हिरण को वह सब्जियों वाला बाग हमेशा याद आता रहा। एक दिन वन के किनारे से होते हुए सब्जियों के बाग के पास हिरण पहुँचा।

'वाह ! बहुत खूब ! यहाँ तो मीठे मीठे फल लगे है।' दूर एक मानव जैसा विचित्र आकार देखा। उसका सिर नारियल के खप्पे से बना हुआ था और शरीर मानो रबर का बना हो। ये तो ऐसा लगा हिरण को कहीं उनके बाग को किसी की नजर न लग जाए। इसलिए ऐसी गुड़िया बनाकर रखा है। पर मन में सोचा-

'अरे मूर्ख मालिक व्यापारी! क्या मैं इसे देखकर डर जाऊँगा। नहीं! अभी दिखाता हूँ, मैं कौन हूँ। ऐसा कहकर हिरण ने उस गुड़िया को जोर से लात मारी। लात मारते ही उसका पैर रबर से चिपक गया। लाख कोशिश की, परंतु निष्फल रहा। अब वह चिंता करने लगा। अब कैसे इस आफत से छुटकारा पाऊँगा? पिछले पाँव से दोबारा लात मारी तो वह भी चिपक गई। अब डर के मारे हिरण चिल्लाने लगा-

'मुझे छोड़ दो! मुझे छोड़ दो!! दोनों टाँगों को पूरी शक्ति के साथ हिरण ने खींचा, धकेलने का प्रयास किया, यह प्रयास चलता रहा। परंतु हिरण पूरी तरह फँस गया था। दूर से व्यापारी को हिरण ने देख लिया। वह शीघ्र ही सोच में पड़ गया, परंतु इस बार उसे कुछ भी नहीं सूझा। व्यापारी ने पास आकर हिरण की दयनीय दशा देखकर कहा-

'अंत में तुम फँस गए न!' कहते हुए व्यापारी ने हिरण के पैर को गुड़िया से मुक्त किया। उसे अपने कंधे पर लाद कर घर की ओर चल पड़ा। घर के पिछवाड़े में एक पिंजड़ा था, उसमें हिरण को डालकर बंद कर दिया।

'आज रात तुम यहीं रहो, कल मैं तुम्हारा शिकार करूँगा।' कहकर वह चल पड़ा।

पूरी रात हिरण सो नहीं पाया। वह मरने को तैयार भी नहीं था। सवेरे सूर्य उदित हुआ। हिरण अत्यंत दुःखित था। तभी उसे एक आवाज सुनाई दी-

'अरे हिरण ! तुम तो बहुत होशियार हो। फिर मेरे मालिक के पास कैसे फँस गए? तुमने मेरे मालिक को क्या मूर्ख समझ रखा था।' मालिक के कुत्ते ने हिरण से कहा।

हिरण को तुरंत एक युक्ति सूजी-'क्या कहते हो कुत्ता? तुम्हारे मालिक ने मुझे पकड़ा ही नहीं।'

‘फिर तुम पिंजड़े में क्यों बंद हो?' कुत्ते ने पूछा।

'घर में सुविधा नहीं थी, इसलिए मैं यहाँ हूँ। कल एक कार्यक्रम बना है, उसमें मैं मुख्य अतिथि हूँ, क्या तुम्हें मालूम है।'

'क्या कहा? कल कार्यक्रम है और तुम मुख्य अतिथि हो? उस मालिक का मैं वफादार कुत्ता हूँ। तुम तो आखिर चोर हो।'

'हाँ, तुम ठीक कहते हो। मैं चोर हूँ, तुम्हें कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनना चाहिए।' हिरण ने कहा।

'व्यापारी जब तुम्हें पिंजड़े में बंद पाएगा, तो तुम्हें वह मुख्य अतिथि बना देगा।'

'सच में! तुम सच कहते हो हिरण?'

'हाँ, तुम्हीं इसके लायक हो। तुमको इसमें परेशानी क्या है?' हिरण की बातों पर विश्वास करके कुत्ते ने अपने मुँह से पिंजड़े का दरवाजा खोल दिया, और हिरण को मुक्त कर दिया। हिरण ने जाते-जाते कहा-

'जाओ, मित्र खुश हो।' हिरण तेजी के साथ वन की तरफ भागा। व्यापारी को वहाँ से आते देखा। हिरण के स्थान पर अपने घर का कुत्ता पिंजड़े में बंद देखकर हैरान हो गया। उसने कुत्ते को डाँटते हुए कहा, 'अबे मूर्ख, कितने बेवकूफ हो। तुमने हिरण को भागने का मौका दे दिया।' व्यापारी को उस दिन कुछ और ही शिकार करना पड़ा।

हिरण खुशी-खुशी मस्ती में गाते-नाचते हुए घर की ओर भागा।

(साभार : डॉ. ए. भवानी)

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