मधुमत्ता की रात्रि (ओड़िया कहानी) : सुरेंद्र महांति
Madhumatta Ki Ratri (Oriya Story) : Surendra Mohanty
: 1 :
चरैवेति, चरैवेति...चलो, चलो, बढ़े चलो। चलना ही जीवन है।
उपक चल रहा है। पिछले तीस वर्षों से चल रहा है। राजगृह से नालंदा, नालंदा से उरुबिल्व, उरुबिल्व से पाटलिपुत्र, पाटलिपुत्र से वैशाली, वैशाली से विदेह, विदेह से बेशली, बेशली से काशी, काशी से साकेत, साकेत से जाएगा चंपा...उसके बाद? कौन जाने? अनंत है यात्रापथ—अंत नहीं इस यात्रा का। भला क्यों ली उसने इस अनंत यात्रा की दीक्षा?
वेत्रवती का गहरा नीला जल। झुंड—के—झुंड सारस—दंपती नीले शीतल जल में अलसाए आनंद से पंख पसारे हुए हैं। उपक वेत्रवती के जल में संतरण करने का लोभ रोक नहीं पाया।
वेत्रवती की धारा सा है मनुष्य का जीवन...एक अनिश्चित गह्वर से निकलकर एक अन्य अनिश्चित परिणति की ओर बह रहा है। यह निस्संग पथ और अविराम यात्रा ही एकमात्र सत्य है। बाकी सब मिथ्या है। सब दुःख है।
अपराह्न की परछाईं वेत्रवती के किनारे धीरे—धीरे टहल आई है। वधू और बालिकाएँ लीलायित कटि पर जलकुंभ लिये वेत्रवती से जल भरने जा रही हैं।
कौतुकिनियो के कौतुक और परिहास से निर्जन रूक्ष तट—प्रदेश जीवंत हो उठा है।
नारी की देह हमेशा से आकर्षित करती रही है—दुर्वार आकर्षण से। उस बार विदेह में...
चतुर्मास्य के लिए एक श्रेष्ठी, साधुसम्मत, तीर्थंकर ने चिरपद्वजित बेलथीपुत्त और उनके शिष्यों को विदेह के छोर पर एक संघाराम सौंपा था। बेलथीपुत्त वहाँ अपने शिष्यों के साथ चतुर्मास्य पालन कर रहे थे।
एक दिन उसी संघाराम में आई थी बज्जीकन्या, गणिका मधुमत्ता पूजार्घ्य लेकर बेलथीपुत्त के लिए। उस समय उपक संघाराम के उद्यान में तृणशय्या पर लेटकर ‘शुद्धपाणय’ व्रत का पालन कर रहा था। दो महीनों तक इसी तरह दूर्बाशय्या पर पूर्ण उपवास में लेटे रहकर आजीवकों को साधना करनी पड़ती है।
मधुमत्ता पूजार्घ्य अर्पण करके लौटते समय तृणशय्या पर लेटे हुए लगभग नग्न तरुण उपक को देखकर संकोच से क्षण भर सिर झुकाए खड़ी रह गई। उपक के पास दूर्वाशय्या पर सद्यस्नाता मधुमत्ता की श्लथ वेणी से अशोक के कुछ फूल गिर पड़े। मुग्ध दृष्टि से मधुमत्ता की ओर देखते हुए उपक ने पूछा, ‘‘तुम्हें किस नाम से संबोधित करूँ, भद्रे?’’
मधुमत्ता ने कहा, ‘‘बज्जीकन्या मधुमत्ता।’’
उपक ने क्षुधित कंठ से पूछा, ‘‘अबूस के लिए क्या पूजार्घ्य लाई थीं, मधुमत्ता?’’
मधुमत्ता ने कहा, ‘‘पायस।’’
मधुमत्ता के वीणानिंदी कंठ से पायस का उच्चारण सुनकर उपक की जीभ लार से भर गई।
उपक ने कहा, ‘‘भद्रे, मैं बड़ा क्षुधार्त हूँ। पिछले एक महीने से भी अधिक समय से इसी दूर्वाशय्या पर उपवास में लेटकर मैं शुद्धपाणय व्रत का पालन कर रहा हूँ।’’
चपल कंठ से मुस्कराते हुए मधुमत्ता ने पूछा, ‘‘आजीवक को यह कैसी क्षुधा श्रमण? शुद्धपाणय व्रत रखकर अन्न की चिंता करने से भला निर्वाण कैसे मिलेगा?’’
उपक ने कहा, ‘‘निर्वाण—प्राप्ति का पथ यदि अन्न—भोजन से अवरुद्ध हो जाए तो वह निर्वाण अन्नकण से भी सुलभ है। अर्हत मंगली गोशाला ने कहा जो था—आजीवन व्रत—उपवास, गंगा—स्नान और सुकर्म करने से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती तथा व्रत—उपवास न करके धर्म का आचरण करने पर भी पाप की कालिख तक नहीं लगती।’’
मधुमत्ता ने कुछ मुस्कराते हुए कहा, ‘‘किंतु शुद्धपाणय व्रत के समय छिपाकर खाने के लिए यदि मंगला गोशाला ने कहा होगा, तो अजितकेश कंबली ने शुद्धपाणय के समय जल तक स्पर्श न करने के लिए कहीं कोई सूत्र अवश्य बाँधा होगा। शायद संजय बेलथीपुत्त उसकी मीमांसा जानते हों, उनसे पूछूँगी।’’ मधुमत्ता के दोनों बिंबोष्ठ कुटिल भृकुटी से कुंचित हो गए।
मधुमत्ता की ओर मुग्ध दृष्टि से देखते हुए उपक सोच रहा था—कदाचित् वह मधुमत्ता के बदन—कमल पर काले भौंरे—सा उड़कर बैठ पाता।
मधुमत्ता ने पूछा, ‘‘क्या कुछ कहना है? इस तरह मेरी ओर क्या देख रहे हो?’’ मधुमत्ता की स्मित मुस्कान उपक के मर्मस्थल को तीर सी बींध गई।
मधुमत्ता जा रही थी, पीछे से उपक ने पुकारा—‘‘भद्रे!’’
मधुमत्ता ने पीछे मुड़कर देखते हुए ऊष्मोच्छलित स्वर में पूछा, ‘‘अब क्या कहना है, श्रमण?’’
उपक बोला, ‘‘श्रमण को भिक्षा दिए बिना चली जाओगी, मधुमत्ता? क्या पुण्य—संचय की कामना नहीं तुममें?’’
कुछ मुस्कराते हुए मधुमत्ता ने पूछा, ‘‘क्या भिक्षा लोगे, श्रमण?’’
उपक ने भीरु कंठ से कहा, ‘‘अपने पैर—तले की दूब बनाओगी मुझे, सुंदरी?’’
मधुमत्ता अकुंठित सी बोली, ‘‘तुम्हारी इस विपरीत रीति का भान मुझे नहीं था, श्रमण!’’
उसके बाद मधुमत्ता नितंब हिलाकर पुनः उपक की ओर वक्रदृष्टि से देख, कौतुक से दंतपीड़ित जिह्वाग्र दिखाकर लीलायित कदमों से चली गई। उपक का मन हो रहा था—शुद्धपाणय का यह निर्बोध अभिनय त्यागकर आषाढ़ की मेघाक्रांता संध्या की देह पर बगुलों की पंक्ति—सा, नील वस्त्रावृत्त मधुमत्ता की देह आलिंगन करने को।
उसी दिन रात को।
संघाराम में सभी सो रहे थे। उपक उद्यान के एक आम्रवृक्ष के कोटर के पास बैठ, हिंसक पशु सा बेलथीपुत्त के लिए निवेदित पायस और मिष्टान्न खा रहा था। संघाराम में अधिकांश श्रमण प्रतिदिन यही करते हैं। मोक्ष और निर्वाण के लिए उपवास रखने का कोई अर्थ नहीं।
गौतम जो निर्वाण की खोज करने का दावा करते घूम रहे हैं, उन्होंने भी तो वृथा उपवास रह—रहकर अंत में सरमा के हाथों से पायसान्न खाया था। अब बड़ाई करते घूम रहे हैं; इसीलिए तो उपक ने उस दिन उन्हें उरुबिल्व के पथ पर मुँह पर गहपत्तिक (सिर—मुंडित गृहस्थ या छद्मवेशी श्रमण) कह दिया था। यदि सब माया है, यदि सब अलीक है, तो फिर निर्वाण सत्य है—इसका क्या प्रमाण है?
उपक के पेट की क्षुधा कुछ शांत होने के बाद मधुमता को लेकर मन की क्षुधा प्रबल हो उठी। दंतपीड़ित जिह्वाग्र दिखाकर मधुमत्ता का कौतुकी परिहास उपक को विचलित कर रहा था।
निशार्द्ध के सुप्त आकाश में अगणित तारे जीवन की अनेक अतृप्त कामनाओं की तरह हैं। उनकी ज्वालामय दीप्ति ने उपक को तिल—तिल पिघला दिया।
* * *
चतुर्मास्या समाप्त हुआ। मेघमुक्त आकाश में शरद् के खंड—खंड लघु मेघ मँडराने लगे—निस्संबल, निरुद्दिष्ट, अनवस्थित श्रमणों की तरह। अब संघाराम खत्म होगा। श्रमण अपने—अपने रास्ते पुनः प्रवज्या आरंभ करेंगे। उपक भी चला जाएगा। किंतु विदेह छोड़ने से पहले एक बार मधुमत्ता के साहचर्य के लिए उपक का चित्त अधीर हो उठा।
शरद् की एक स्निग्ध, कोमल गोधूलि—वेला। उपक भिक्षा के बाद विदेह के राजपथ पर संघाराम की ओर लौट रहा था। उस समय मधुमत्ता अपने भवन की छत पर किंकरियों के साथ चहलकदमी करते हुए बीच—बीच में रथारूढ़ हो आ—जा रहे श्रेष्ठी और राजकुमारों को अपनी नाना भंगिमाओं से लुभा रही थी। उपक को राजपथ पर देख मधुमत्ता ने अपनी वेणी से चंपा का मसला हुआ एक फूल निकालकर उपक के कमंडल में फेंक दिया।
भवन की छत पर भुवनमोहिनी मधुमत्ता को देख उपक की पूरी देह एक उत्तेजना से दीपशिखा—सी प्रकंपित हो उठी। किंतु दूसरे ही क्षण अपने रूक्ष वेश, मलिन कौपीन, छिन्न चीवर और अर्द्धदग्ध काँपते हाथ में खाली कमंडल देख उसका मन संकुचित हो उठा था। अनेक वर्ष पूर्व, आजीवक—सभा में प्रथम दीक्षा—ग्रहण विधि के अनुसार उसने गरम लौहखंड दोनों हाथों में अंजुलिबद्ध करके पकड़ा था। उसी दिन से दोनों हाथों की अंगुलियाँ पिघलकर आधे पिघले कुंचित चर्म के नीचे केवल हड्डियाँ ही बची रह गई हैं।
उपक झिझक रहा था। इतने में मधुमत्ता की परिचारिका कामदा ने बाहर आकर कहा, ‘‘अभ्यंतर में पधारें, श्रमण!’’
कामदा के परिहास—चपल आमंत्रण ने उपक को और अधिक कामदग्ध कर दिया। उपक ने पूछा, ‘‘तुम्हें किस नाम से संबोधित करूँ, भद्रे?’’
कामदा ने कुछ मुस्काते हुए कहा, ‘‘कामदा!’’
उपक ने शुष्क होंठों पर क्षुधित पशु की तरह जिह्वाग्र फेरते हुए अस्पष्ट स्वर में मन—ही—मन कहा, ‘कामदा...कामदा।’
अप्रशस्त अलिंद से होकर जाते समय उपक का जी कर रहा था—एक बार कामदा को अपने बाहुपाश में भर लेने को। लेकिन मार्ग के दूसरे छोर पर स्मितहासिनी मधुमत्ता केलिमंदिर के द्वार पर खड़ी उपक की राह देख रही थी। कुसुम, अगरु और सुवास के साथ सितचंदन—लेपित नारीदेह की लोभनीय गंध ने क्षुधित उपक की दोनों आँखों में एक अनिर्वचनीय कल्पलोक की सृष्टि कर दी। मधुमत्ता ने कहा, ‘‘अंदर आइए, श्रमण!’’
कुसुम—सुसज्जित, अगरु—सुवासित, दीपालोकित, वीणा और विपंची—निंदित केलिमंदिर में मधुमत्ता छिन्न कमलदल पर लेटी किंकर्तव्यविमूढ़ उपक की ओर देखकर मुस्कराते हुए बोली, ‘‘यहाँ विराजिए श्रमण!’’
उपक देख रहा था—शिरीष—माल्य भूषिता, नवमणि—निर्मित काँची, केयूर, कंकण और नूपुर भूषिता, सुधारस—तरंगित नयना, मदावेशविह्वला यह रतिकांक्षिणी नारी, नारी नहीं, मानो विश्व की पुंजीभूत कामनाएँ असंख्य जिन—तीर्थंकरों का उपहास करती कमलदलावृत्त शय्या पर आलसी अपराह्न सी लेटी हुई हों।
मधुमत्ता ने कामदा को पुकारते हुए कहा, ‘‘श्रमण के लिए आसव प्रस्तुत करो!’’
स्फटिक के दो पान—पात्रों में आसव लाकर कामदा ने उपक और मधुमता के बीच रख दिए। उपक ने काँपते हुए हाथ से एक पात्र उठाकर छिन में खाली कर दिया, मधुमत्ता ने कहा, ‘‘भय न करें श्रमण, यह संजय बेलथीपुत्त का संघाराम या निशार्द्ध में छिपाकर खानेवाला पायसान्न नहीं। मेरी ओर देखकर मुस्कराते हुए धीरे—धीरे पान करें।’’ मधुमत्ता ने स्वयं एक पात्र अपने होंठों तक ले जाकर धीरे—धीरे आसव पान किया। इससे पहले भी उपक ने कई बार छुपा—छुपाकर आसव—पान किया है। आसव पान करना आजीवकों के लिए पूर्णतः निषिद्ध नहीं। परंतु आज मधुमत्ता के स्फुरित बिंबाधर व नीलोत्पल—निंदी कुरंगी—नयन की ओर देखते हुए आसव पान करते समय एक तरह की अपूर्व तृप्ति से उपक अवसन्न सा लग रहा था।
नील चिनांशुक के अवगुंठन तले मधुमत्ता की रूपश्री...ज्योत्स्नार्कित आकाश तले भुवनमोहिनी रात्रि—सी थी।
मधुमत्ता ने पूछा, ‘‘इस जन्म के बाद क्या पुनर्जन्म भी है, श्रमण?’’
उपक ने कहा, ‘‘यहाँ जन्म—पुनर्जन्म पर चर्चा क्यों, मधुमत्ता?’’
मधुमत्ता ने कंचुक—पीड़ित दोनों वक्षोजों पर एक कमल की कली धीरे—धीरे नचाते हुए पूछा, ‘‘तो क्या इस जन्म के बाद कोई पुनर्जन्म नहीं, श्रमण?’’
उपक ने कहा, ‘‘मैं नहीं जानता, कोई नहीं जानता। पुनर्जन्म होने के बारे में मैं नहीं जानता। न होने के बारे में भी नहीं जानता। मैं यह जानता हूँ कि जन्म मिथ्या है, पुनर्जन्म कल्पना है। सत्य तो ये भागते जा रहे क्षण हैं और तुम हो। क्या तुमसे मेरी भिक्षा काल—प्रतिकाल अतृप्त रहेगी, मधुमत्ता?’’
मधुमत्ता ने कुछ मुस्कराकर उपक को और अधिक लुभाते हुए पूछा, ‘‘तुम्हें क्या भिक्षा चाहिए, श्रमण?’’
उपक बोला, ‘‘एक बार दोनों हाथों से तुम मुझे अपने को अनुभव करने दोगी, सुंदरी?’’
मधुमत्ता बोली, ‘‘श्रमण, विदेह राजकोश की दैनिक आय, मेरी एक रात की आय के आधे से भी कम है। मेरे प्रश्न का उत्तर ही तुम्हें मूल्य के रूप में देना होगा।’’ मधुमत्ता की दोनों आँखें क्षण भर पहले की स्निग्धता खोकर सहसा कठोर हो गईं।
उपक ने आकुल स्वर में पूछा, ‘‘किंतु उस प्रश्न की आवश्यकता क्या है, मधुमत्ता?’’
मधुमत्ता ने कहा, ‘‘क्या तुम यह सोचते हो श्रमण कि दूसरों के पैरों तले सिर्फ असहाय सा निवेदित होना ही फूल का भवितव्य है? क्या पुनर्जन्म की कल्पना की जा सकती है? केवल पुनर्जन्म ही मेरी शांति, मेरी पूर्णता है। मुझसे और छल न करते हुए बताओ श्रमण, पुनर्जन्म होता है या नहीं?’’
उपक ने किंकर्तव्यविमूढ़ हो कहा, ‘‘हो सकता है, संभवत होता है।’’
मधुमत्ता कुछ क्षणों तक उपक की ओर स्थिर, अविचलित दृष्टि से देखती रही। उपक ने आकुल आवेग से मधुमत्ता का आलिंगन करने के लिए ज्यों ही अपने दोनों बाहु फैलाए, उसकी अर्द्धदग्ध हथेलियाँ देखकर मधुमत्ता आर्तचीत्कार कर उठी। उपक अपने दो अर्द्धदग्ध हाथों की वीभत्सता से स्वयं भी एक अव्यक्त आतंक से आतंकित हो गया। मधुमत्ता ने अपने दो कोमल रक्तिम कर—पल्लव दोनों आँखों पर रखकर कामदा को पुकारा, ‘‘अरी कामदा...कहाँ गई कामदा! श्रमण को शीघ्र विदा कर यहाँ से!’’
कामदा भी उपक की दो अर्द्धदग्ध हथेलियाँ देखकर आर्तचीत्कार कर उठी। छड़ी से मार खाए एक बालक सा उपक मधुमत्ता का केलिमंदिर छोड़ राजपथ पर चला आया।
* * *
वेत्रवती की तटभूमि आसन्न संध्या के झुटपुटे अँधेरे से अस्पष्ट दिखाई देने लगी—निःशब्द और निर्जन, आकाश—समाधि में बैठे श्रमण—सी गंभीर और अविचलित। उपक के वेत्रवती पार कर दूसरी ओर पहुँचने तक आकाश में एक, दो करके संध्या—तारे खिल उठे थे। यहीं निकट ही दिखता है...चंपा जनपद। धूसर क्षितिज की पृष्ठभूमि में, चंपा की आजीवन संहति का स्तूपचूड़ा हालाँकि अस्पष्ट दिखाई दे रहा है। आज की रात संभवतः वहीं कटेगी।
...आज भी याद आती है यौवन के प्रारंभ में बहुत दिनों पहले की मधुमत्ता की बात। मधुमत्ता चाहती थी पुनर्जन्म, संभवतः व्यर्थ के नारीत्व और मातृत्व की नवीन सार्थकता के लिए। मधुमत्ता की वही आकुल जिज्ञासा, अब तक उपक को याद आती है—‘क्या दूसरों के पैरों तले सिर्फ असहाय सा निवेदित होना ही फूल का भवितव्य है?’
उपक भी चाहता है पुनर्जन्म, जीवन की नवीन उपलब्धि के लिए।
: 2 :
विदेह से विदा लिये आज लगभग एक युग बीत चुका है। मधुमत्ता के केलिमंदिर से उस दिन बेंत से मार खाए एक बालक की तरह भाग आने के बाद, अनेक कठोर व्रत, उपवास और साधना से उपक की देह जीर्ण हो चुकी है। यौवन प्रायः चुक गया है, फिर भी एक मुरझाए—मसले बकुल की तरह उससे कामना की सुरभि नहीं मिटी है। अब भी कभी—कभी मधुमत्ता की स्मृति उपक के प्रौढ़त्व—पांडुरित हृदयवन में असमय मलय की तरह जाग उठती है। किंतु उपक ने अति कठोर हो कामना की उस लेलिहान लपट का दमन किया है। कठोर साधना, संयम और निष्ठा ने समाज में उपक को आजीवन पूजनीय और महनीय बनाया है। फिर भी कभी—कभी कुछ असतर्क क्षणों में, संयम की समस्त शृंखला तोड़कर, शीतक्लिष्ट पांडुर अरण्य में, रक्तिम पलाश के आग्नेय उच्छ्वास सी मधुमत्ता जाग उठती है; पर दूसरे ही क्षण उपक अपने दो अर्द्धदग्ध हाथों की ओर देखकर पुनः अति कठोर हो उस मानसिक चपलता का दमन करता है।
मधुमत्ता चाहती थी पुनर्जन्म...उपक चाहता है पुनर्जन्म।
किंतु पुनर्जन्म नहीं है।
पंचभूत तो एक दिन पंचभूत में लीन हो ही जाता है।
यह जीवन ही एकमात्र सत्य है।
तो फिर संयम के नागपाश में जीवन को इस तरह दग्ध और निष्प्रेषित कर निर्वाण के लिए साधना करने की सार्थकता क्या है?
चंपा की आजीव्य—सभा में उस दिन निगंथनाथपुत्त के एक शिष्य किशा के साथ बहुत तर्क—वितर्क हुआ। पलासपुर जाने के मार्ग में किशा आजीव्य—संहति में कुछ दिन विश्राम के लिए ठहरे थे। उपक के पहुँचने तक आजीव्य—सभामंडप अनेक श्रमण तथा चंपा के अन्य सामान्य नागरिकों से जनाकीर्ण हो चुका था। किशा मंडप के बीच योगासन में बैठकर श्रोतामंडली को श्रमणफलसुत्त (आजीव्यों का एक धर्मसूत्र) समझा रहे थे। किशा कह रहे थे—‘‘पुनर्जन्म है या नहीं, निगंथ नहीं जानते। श्रमण की साधना में सार्थकता है या नहीं, निगंथ यह भी नहीं जानते।’’
श्रोताओं में से एक ने पूछा, ‘‘पाप और पुण्य में क्या अंतर है? अजित केश—कबली कहते हैं—तप, यज्ञ, दान और धर्म में पुण्य नहीं है, अथवा हत्या, रक्तपात और लूट में पाप नहीं है।’’
किशा बोले, ‘‘निगंथ को यह भी नहीं मालूम।’’
श्रोताओं में से एक ब्राह्मण ने परिहास—मिश्रित स्वर में पूछा, ‘‘तो फिर निगंथ जानते क्या हैं?’
किशा ने कहा, ‘‘नाथपुत्त कहते हैं—कामना की ग्रंथि तोड़ दो, चतुर्विध संयम से परिवृत्त हो निगंथ मोक्ष प्राप्त करता है।’’
श्रोतामंडली से, मंडप के नीचे खड़े हो उपक ने पूछा, ‘‘सत्य क्या है, किशा— जीवन या मोक्ष?’’
किशा ने प्रश्नकर्ता की ओर देखा। मंडप के नीचे खड़े थे सुविदित, श्रमणश्रेष्ठ बेलथीपुत्त के शिष्य एकदंडी उपक।
किशा ने परिहास—जर्जरित स्वर में कहा, ‘‘ये श्रमणश्रेष्ठ उपक हैं! विदेह की रूपजीव्या मधुमत्ता के केलिमंदिर में इनका दंड, कमंडल और चीवर अब तक पड़ा है।’’
श्रोतामंडली के समवेत अट्टहास से आजीव्य—सभा का प्रांगण मुखरित हो उठा। इससे विचलित हुए बिना उपक ने कहा, ‘‘लगता है, चतुयम—संभूत किशा विदेह की रूपजीव्या गणिका मधुमत्ता के केलिमंदिर से अपरिचित नहीं हैं।’’
उपक की इस प्रत्युक्ति से श्रोतामंडली का अट्टहास दुगुना हो उठा। उपक की इस उक्ति से आहत हो प्रौढ़ मंडित किशा ने अपनी दृष्टि झुका ली।
किशा बोले, ‘‘अनेक वर्षों पहले चातुर्मास्य के लिए मैं विदेह की आजीव्य—सभा में रहता था। एक बार रूपजीव्या मधुमत्ता ने भिक्षा देने के लिए मुझे आमंत्रित कर ‘पुनर्जन्म है या नहीं’ पूछा था। उस समय मधुमत्ता के भवन में परित्यक्त दंड, कमंडल और चीवर देख ये किसके हैं, मैंने पूछा था। तब सुना था कि संजय बेलथीपुत्त के शिष्यशिरोमणि उपक के दंड, चीवर और कमंडल हैं।’’
आजीवकों के प्रति नाना कटूक्ति, परिहास और कोलाहल के बीच श्रोताओं की भीड़ टूट गई। आजीव्य—सभा के श्रमणों में किसी ने उपक का, तो किसी ने किशा का पक्ष लेकर आपस में कलह करना प्रारंभ कर दिया। कुछ देर बाद आजीव्य—सभा निर्जन और निःशब्द हो गई। आजीवकों के विधान के अनुसार वे दिन भर रौद्रदीप्त आकाश तले खुले में शयन करते हैं, परंतु रात्रि होने पर उन्हें अपने—अपने घुप्प अँधेरे प्रकोष्ठ में पाषाणशय्या पर शयन करना पड़ता है! एक खाली प्रकोष्ठ देख उपक अंदर चले गए।
बाहर ज्योत्स्ना—पुलकित रात्रि, प्रतीक्षारत विलासिनी सी, सुप्ति—मूर्च्छित आकाश में, चंद्र के मुकुर को देख मानो शृंगार कर रही थी।
निशार्द्ध...
चंपा के राजपथ पर प्रहरी द्वितीय याम की घोषणा कर गया, परंतु उपक की आँखों में नींद नहीं थी। प्रकोष्ठ के पाषाण—चत्वर पर बैठ, कुछ क्षण उपक ने ज्योत्स्नालोकित प्रांगण की ओर देखा। उसके बाद प्रकोष्ठ के एक कोने से अपना दंड हाथ में लेकर बाहर चले आए।
कुछ दूरी पर किशा का प्रकोष्ठ था।
किशा के प्रकोष्ठ के पास खड़े होकर उपक ने धीरे से किशा का नाम लेकर पुकारा। कुछ देर बाद किशा ने निद्रातुर कंठ से पूछा, ‘‘कौन?’’
उपक बोले, ‘‘मैं, उपक।’’
किशा ने पूछा, ‘‘उपक! इस समय रात्रि का कौन सा प्रहर है? तुम इस निशार्द्ध में क्या कर रहे हो?’’
उपक बोले, ‘‘तुमसे कुछ बातें पूछने आया हूँ, किशा!’’
किशा बोले, ‘‘अंदर आ जाओ।’’
उपक ने कहा, ‘‘बाहर सुंदर ज्योत्स्नालोकित रात्रि है। इस पाषाण अंधकूप में नहीं, उद्यान में आओ।’’
किशा वशीभूत से उपक के पीछे—पीछे चल पड़े। उद्यान के एक एकांत अशोक—कुंजतले निर्वस्त्र, सिर मुँड़ाए किशा और जटाजूटवृत्त कौपीन पहने उपक आकर बैठ गए।
उपक किस तरह बात प्रारंभ करें, समझ न पाकर किंकर्तव्यविमूढ़ से अशरीरी ज्योत्स्ना की ओर देखे जा रहे थे।
किशा बोले, ‘‘मुझे क्षमा करना उपक, आज मैंने अकारण ही तुम्हें लांछित किया।’’
उपक ने पूछा, ‘‘मधुमत्ता के साथ अपने परिचय की कहानी मुझे बताओगे, किशा?’’
किशा बोले, ‘‘मधुमत्ता से मेरा परिचय एक दुर्घटना थी। आज से अनेक वर्ष पहले...
किशा क्षण भर को रुक गए। फिर बोले—
अनेक वर्ष पहले की बात है—
उस दिन विदेह में बसंतोत्सव था। विदेह की नाट्यशाला में उस दिन मधुमत्ता आई थी नृत्यामोद से बसंतोत्सव—संध्या को आमोदित करने। किशा ने उस दिन राजपथ पर खड़े हो देखा था, मदावेश—विह्वल मधुमता का नृत्य। अधीर हो उठे थे किशा। स्वीकार न किया तो किशा मिथ्याचारी होगा। फिर प्रारंभ हुआ नृत्य। मुरज की ध्वनि से पुनः मुखरित हो उठी नाट्यशाला। किशा शिकारी के तीर से जान बचाने के लिए भयभीत खरगोश की तरह वहाँ से भाग आए। लेकिन उसी दिन से मधुमत्ता की चिंता ने किशा को अधीर कर दिया। मधुमत्ता को रूपजीव्या नर्तकी के कामना—कलुषित जीवन से मुक्त करके निर्वाण की दीक्षा देने के लिए किशा मन—ही—मन अनेक उपाय सोचने लगे।
किशा बोले, ‘‘उस दिन कोजागरी पूर्णिमा की संध्या थी। मधुमत्ता के भवन के सामने, राजपथ के एक किनारे से जाते समय, पुनः मधुमत्ता को उसी मुद्रा में देखने के लिए मेरा मन अस्थिर हो उठा था। न कहा तो मिथ्यावादी बनूँगा। नश्वर देह इतनी सुंदर, क्यों और कैसे हो सकती है, सोचते हुए आते समय भवन के द्वार पर मधुमत्ता को देख मैं क्षण भर के लिए ठिठका।’’
उपक ने पूछा, ‘‘उसके बाद?’’
किशा बोले, ‘‘भुवनमोहिनी मधुमत्ता की वही नयनाभिराम मुद्रा, कवण और वलय शोभित वामहस्त गुरु नितंब पर टिका था। श्यामा लता की तरह दक्षिणहस्त नीचे की ओर बढ़ा हुआ था। मैं मन—ही—मन सोच रहा था—कौन है सुंदर—मधुमत्ता या पूर्णिमा का पूर्णचंद्र? मुझे आमंत्रित करते हुए मधुमत्ता ने कहा, ‘‘अंदर पधारें, श्रमण?’’
उपक ने पूछा, ‘‘उसके बाद?’’
किशा बोले, ‘‘उसके बाद की कहानी बहुत संयम और साधना करके भूलने की चेष्टा की है मैंने, पर भूल न सका। मधुमत्ता के केलिमंदिर में उस दिन आए थे विदेह के श्रेष्ठी नीलकेकी, एक सहस्र स्वर्ग—मुद्रा लेकर। लेकिन उपवास का बहाना बनाकर मधुमत्ता ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। नीलकेकी के चले जाने के बाद मधुमत्ता के आमंत्रण पर मैं चला गया केलिमंदिर में। उस दिन मधुमत्ता ने क्या अद्भुत शृंगार किया था! विरल नीलांशुक के नीचे मधुमत्ता की नग्न देह का वह सौंदर्य! अलीक्तसिक्त दो अधरों पर वह कैसी तृष्णा थी! मैं संयम खोकर आत्मविस्मृत हो उठा था, उपक!’’
उपक ने पूछा, ‘‘उसके बाद?’’
किशा बोले, ‘‘दलित कुसुम—शय्या पर लेटकर अंगावरण किंचित् अनावृत कर, स्मित मुस्काते हुए मधुमत्ता ने मुझसे कहा, ‘‘इस शय्या पर बैठें, श्रमण!’’ उस समय उपक की आँखों के आगे उभर आया था एक युग पहले की संध्या में मधुमत्ता के केलिमंदिर का एक अन्य दृश्य।
किशा बोले, ‘‘उसके बाद मधुमत्ता कटि से कांचिदुकूल धीरे—धीरे शिथिल कर परिचारिकाओं को नाम ले—लेकर पुकारने लगी, ‘अरी कामदा, कामंदकी, परभूतिका, कोई है?’ किसी ने नहीं सुनी। उसके बाद...।’’
उपक ने पूछा, ‘‘मधुमत्ता ने अपने हाथों से तुम्हें आसव अर्पण किया था, किशा?’’
किशा बोले, ‘‘तुमसे कहा तो था उपक, उस दिन की संध्या मेरे जीवन का एक कलंक है। मधुमत्ता द्वारा अर्पित आसव उस दिन मैंने आकंठ पान किया था, मधुमत्ता की लोभनीय रूपश्री और उसके स्फुरित होंठों की ओर देखते हुए।’’
उपक ने पूछा, ‘‘उसके बाद?’’
किशा बोले, ‘‘उसके बाद मैंने सँभलते हुए कहा, यह सब क्षणस्थायी और नश्वर है, मधुमत्ता!’’
‘‘इस पर मधुमत्ता ने मेरी ओर देखकर कुछ मुस्काते हुए कहा, ‘कामदा, कामंदकी, पर मृत्तिका कोई नहीं है। मेरे वक्ष पर कंचुकी का कठोर बंधन बहुत पीड़ा दे रहा है। थोड़ा शिथिल कर सकोगे, श्रमण?’
‘‘मैं मुग्ध—सा मधुमत्ता के वक्ष की कंचुकी ढीली करते समय स्वयं को भूल गया। कंचुकी ढीली करते समय कंचुकी का बंधन छूटकर नीचे गिर पड़ा। कमल—कोरक से उरोजों को आवृत्त करने के प्रयास में मधुमत्ता ने उन्हें अधिक अनावृत करते हुए पूछा, ‘क्या नीलकेकी से अधिक मूल्य दे सकोगे, श्रमण?’
‘‘किंकर्तव्यविमूढ़—सा मैंने कहा, ‘भिक्षाजीवी श्रमण हूँ, स्वर्णमुद्रा कहाँ से लाऊँगा, मधुमत्ता?’
‘‘मधुमत्ता कुछ मुस्काते हुए बोली, ‘स्वर्णमुद्रा मुझे नहीं चाहिए, श्रमण! विदेह राजकोष की दैनिक आय, मेरी एक रात्रि की आय से आधी है। मुझे चाहिए एक प्रश्न का उत्तर।’
‘‘मैंने विस्मय भरे स्वर में पूछा, ‘कैसा प्रश्न, मधुमत्ता’?’’
उपक बोले, ‘‘पुनर्जन्म है या नहीं?’’
किशा ने कहा, ‘‘संभवतः तुमसे भी यही प्रश्न पूछा था मधुमत्ता ने।’’
उपक ने पूछा, ‘‘किंतु तुमने क्या उत्तर दिया, किशा?’’
किशा बोले, ‘‘मैंने कहा, ‘जन्म मिथ्या है, पुनर्जन्म कल्पना है। पुनर्जन्म से तुम्हारा क्या प्रयोजन मधुमत्ता?’’ मधुमत्ता ने कहा, ‘क्या दूसरों के पैरों तले केवल निवेदित होना ही फूल का भवितव्य है? इस जन्म के स्वप्न क्या अगले जन्म में पूरे नहीं होंगे?’ मधुमत्ता की दो मदविह्वल आँखें वाष्पित हो उठीं। मैं असहाय सा बोल उठा, ‘पुनर्जन्म है, पुनर्जन्म नहीं है।’
मधुमत्ता ने व्याकुल स्वर में पूछा, ‘तो क्या पुनर्जन्म है, श्रमण?’
मैंने कहा, ‘किंतु उस पुनर्जन्म में तुम अमलिन कमल—सी यह रूपश्री लिये हुए जन्म लोगी—इसकी क्या स्थिरता है, मधुमत्ता?’
‘‘उसके बाद मधुमत्ता अनावृत देह की समस्त कुंठाएँ त्यागते हुए मुझे अपने आलिंगन में भींचकर सुरासिका साँसों से मेरा स्वर रोकते हुए बोली, ‘मुझे पुनर्जन्म दो, श्रमण! मैं इस नश्वर देह की रूपश्री लिये हुए फिर से नया जन्म लेना चाहती हूँ।’’
किशा बोले, ‘‘उसके बाद मुझसे और कुछ मत पूछो उपक! उसी दिन से मैं फिर विदेह लौटकर नहीं गया। उस दिन के कलंक की कालिख मिटाने के लिए कठोर व्रत और तपस्या करता हूँ। किंतु क्या तुम बता सकते हो उपक, अपनी किस कामना के लिए मधुमत्ता चाहती थी पुनर्जन्म?’’
उपक ने धीरे—धीरे मलिन पड़ रही ज्योत्स्नालोक की ओर देखते हुए कहा, ‘‘कौन जाने!’’
किशा बोले, ‘‘ऐश्वर्य और प्रवृत्ति के कारागार में आजीवन बँधकर रहते—रहते, संभवतः मधुमत्ता कामना कर रही थी किसी नामहीन जनपद के अख्यात, अज्ञात कोने में, किसी सामान्य गृहस्थी का साफ, शुभ्र अंकन!’’
उपक ने पूछा, ‘‘क्या पुनर्जन्म है, किशा? मैं भी चाहता हूँ पुनर्जन्म!’’
किशा बोले, ‘‘किंतु क्या तुम निर्वाण—अभिलाषी नहीं हो, उपक? श्रमण की यह कैसी आकांक्षा है पुनर्जन्म की?’’
उपक बोले, ‘‘तुम्हें भ्रांति है, किशा! यदि जीवन मोहग्रस्त माया है तो निर्वाण बुद्धिग्रस्त मन की परिकल्पना है। मैं भी चाहता हूँ पुनर्जन्म! किंतु...पुनर्जन्म नहीं है। नहीं है पुनर्जन्म। इस शिशिरसिक्त प्रियंगु—वीथि के पत्रशीर्ष में, यह जो रात्रि विदा हो रही है, वह फिर नहीं लौटेगी। तुम धोखेबाज हो! तुम मिथ्याचारी हो! मुग्धा मधुमत्ता से तुमने झूठ कहा है!’’
उपक आँधी—सा उठकर वहाँ से चला गया।
पश्चिम क्षितिज में ज्योत्स्नालोक धीरे—धीरे बुझने लगा था। लज्जावती उषा के रागरंजित ललाट पर धीरे—धीरे पड़ने लगा था कुजझटिका का अवगुंठन। अशोक—कुंज के पत्तों के बीच सुबह के पक्षियों के कंठ से फूट पड़ा था बेसुरा गीत।
किशा मूढ़ से देख रहे थे—उपक पागल की तरह दंड—कमंडल उद्यान में फेंककर, चीवर से देह आवरण कर, आजीव्य—संहति छोड़कर चले जा रहे थे चंपा के राजपथ पर।