मछली (कहानी) : अनवर अज़ीम

Machhli (Story in Hindi) : Anwar Azeem

पानी की सतह से मछली उड़ी, रेत पर गिरी और तड़प-तड़पकर मर गयी।
वह रेत से तड़पकर पानी में गिरा और मर गया।
लाश पानी की सतह पर तैर रही है।

वह मर गया, मारा गया, क्या फ़र्क़ पड़ता है। धरती सूरज के चारों तरफ़ चक्कर लगा रही थी, सो अब भी लगा रही है। एक मछली के मरने से क्या होता है। सारी मछलियाँ भी मर जायें तो क्या हो जायेगा। धरती नाचती रहेगी, सूरज दहकता रहेगा। लोग कोल्ड कॉफ़ी पीते रहेंगे। शायर ठर्रा पीता रहेगा, कसाई बकरी की गरदन पर छुरा फेरता रहेगा, मसीहा का इन्तज़ार होता रहेगा, दीवाने ज़ंजीरों से उलझते रहेंगे, जीनियस एफ.एल.एफ.एल. पुकारते रहेंगे।

लाश तो है मगर वह ख़ुद कहाँ है। वक़्त का क़ैदी कहाँ है। वह कहाँ था, जब वह क़ैदी नहीं था। वह कहाँ है जब वह क़ैदी नहीं है। वह कहाँ है, जिसके वजूद से वक़्त की नाप होती है। वह जिसकी लाश पानी की सतह पर तैर रही है। यारो कॉफ़ी पियो, कॉफ़ी ठण्डी हो जायेगी। हर चीज़ रखी-रखी ठण्डी हो जाती है। सब चुप हैं, जब ख़याल की लौ जलती है, जब अन्दर तूफ़ान चीख़ता है तो ज़बान ख़ामोश हो जाती है। सब चुप है जब अन्दर वीरानी बढ़ती है तो ख़ौफ़ बढ़ता है। ख़ौफ़ में आदमी ज़ोर-ज़ोर से बातें करने लगता है। चारों हम बातें कर रहे हैं। ज़ोर-ज़ोर से, फिर भी सब चुप हैं। हम कॉफ़ी पी रहे हैं। कॉफ़ी भी चुप है यार भी चुप हैं।

सब चुप हैं, फिर यह हंगामा कैसा है। चमचे बज रहे हैं, फालियाँ झनक रही हैं, थालियाँ कोच की हैं। चेहरे रबड़ के हैं। चेहरे थरथरा रहे हैं। रबड़ के खालों में हवा भरी हुई है। हवा में रफ़्तार है। हवा रफ़्तार में ऊँच-नीच पैदा करती है। गुब्बारों में आवाज़ भरी हुई है। जब आवाज़ अपनेआप को गुब्बारों से आज़ाद करा लेती है तो गुब्बारे पिचक जाते हैं। रबड़ की थैलियों की तरह जिन्हें किसी ठोस चीज़ का इन्तज़ार है। लेकिन जो चीज़ ठोस है, हकीकत नहीं है। इन्तज़ार बेकार है। चेहरों में हवा भर रही है। लेकिन चेहरे हैं कि पिचके चले जा रहे हैं।

चार एक मेज़ के गिर्द बैठे हैं। मेज़ें शक्लें बदलती रहती हैं। कभी यह चौकोर हो जाती है कभी तिकोन। हम सब तिकोन हैं। हम मेज़ के चारों तरफ़ बैठे हैं जो चौकोर है। हम मरी हुई गाय और कुत्तों के गिर्द गिद्धों को इसी तरह बैठे देखते हैं। पर फुलाये, सिर झुकाये, आसमान, धूप, हवा और फूल से बेख़बर। ख़ुशबू से बेजार। हम इसी तरह बैठे हैं पर फुलाये। हमारी काली-काली चोंचें, जिनसे सिगरेट, और आइसक्रीम की बू आती है, कितनी तेज़ हैं। गिद्ध हमें वैसे ही नज़र आते हैं जैसे वह हैं हम उन्हें कैसे नज़र आते हैं। हम गिद्धों को देखते हैं और अपने बारे में सोचते हैं। सोचना हमारी मजबूरी है। गिद्ध मजबूर नहीं। वे हमें चौकोर मेज़ के गिर्द बैठा देखते हैं और कुछ नहीं सोचते। हम साज़िशें करते हैं और गिद्धों को नफ़रत से देखते हैं। जो मुर्दे पर चोंचें मार रहे हैं। हम खड़े सोचते हैं और मुस्कुराते हैं जो सोचते हैं, वहीं मुस्कुराते हैं। गिद्ध मुस्कुराते नहीं। वह अपने पंजों से खाल और गोश्त को नोचते रहते हैं। मेज़ें शक्ल बदल रही हैं। अब हमारी मेज़ लम्बी हो गयी है, ईसा मसीह की मेज़ की तरह। यह आखि़री खाना है, सूली पर चढ़ने से पहले। एक मेज़ में कितनी मेज़ मिल गयी है। लम्बी मेज़ के गिर्द कुर्सियाँ बढ़ती जा रही हैं। साइज़ में भी और तादाद में भी। कुर्सियाँ हमें देख सकती हैं, हमारा बोझ महसूस कर सकती हैं लेकिन कुर्सियाँ हमें दिखायी नहीं देती। कुर्सियों पर हम जो बोझ डाल रहे हैं, वह भी हमें महसूस नहीं होता। हम ख़ुश हैं। हम समझते हैं हम कुर्सियों पर नहीं, सुर्ख़ फूलों पर बैठे हैं। हम ख़ुशी में मुँह बिसूर रहे हैं और अपना-अपना अँगूठा चूस रहे हैं इसलिए कि हम ज़िन्दा हैं जो अपना अँगूठा नहीं चूस रहे हैं, वो फ्रॉड हैं। हमारी मेज़ लम्बी होती जा रही है, बेसर वे बेनज़र लोग आते हैं और कुर्सियों पर बैठ जाते हैं। कटी हुई गरदनों से जो कटे हुए दरख़्त की तरह ठूँठ हैं, आवाज़ें निकल रही हैं। लेकिन यार चुप हैं। वे सिर्फ़ अपनी आवाज़ें सुन रहे हैं।

मैं सबकी आवाज़ सुन रहा हूँ। तुम सबकी। तुम्हें मेरी कुर्सी ख़ाली नज़र आ रही है। कुर्सी इतनी ऊँची है। मैं अपनी ख़ाली कुर्सी पर मौजूद हूँ। तुम मुझे देख सकते। मैं मर चुका हूँं। जो मर जाते हैं दिखायी नहीं देते। जो दिखायी नहीं देते वे मर जाते हैं। लेकिन मैं अपनेआप को देख सकता हूँ। जब मैं ज़िन्दा था अपनेआप को नहीं देख सकता था। अब मरकर मैं अपनेआप से ऊपर उठ गया हूँ। अब मैं ही मैं हूँ। मैं तुम्हें देख सकता हूँ। तुम्हारी चोंच, तुम्हारी आँखें, तुम्हारे पंजे। मैं अपनी लाश को भी देख सकता हूँ। लाश पानी की सतह पर तैर रही है। मैं मरकर मछली बन गया हूँ। मरी हुई मछली पानी पर तैर रही है। मेरी लाश कितनी बड़ी है। फूली-फूली, नरम-नरम, छोटी-छोटी मछलियाँ मेरा गोश्त नोच रही हैं। मेरे नाख़ून, मेरे दीदें, मेरी नाक-हर चीज़ कितनी नर्म है। छोटे-छोटे मुँह में बुलबुलों की तरह पिघलती हुई।

आज भी तुम मेज़ के गिर्द बैठे हो। तब भी तुम मेज़ के गिर्द बैठे थे। रात है, शोर है, रौशनी है, परछाइयाँ हैं। मैं आवाज़ों और रौशनियों के बुलबुलों में तैर रहा हूँ। मैं चल नहीं रहा हूँ। मैं तैर रहा हूँ। तुम मुझे देख रहे हो, इस तरह जैसे नहीं देख रहे हो। मैं तुम्हें नहीं देख रहा हूँ इस तरह जैसे देख रहा हूँ। मैं हवा पर चल रहा हूँ। मैं तुम्हारे चेहरों में अपना चेहरा देखता हूँ। अपने चेहरे से कौन कुछ छिपाता है। मैं भी कुछ नहीं छिपाता। मुझे उबकाई आती है। तुम मुँह फेर लेते हो। तुम्हें भी उबकाई आती है। तुम क़हक़हा लगाते हो। सफ़ेद-सफ़ेद बुलबुले मुझ पर हमला करते हैं। मुझे धकेलते हैं, मुझे मारते हैं, मैं डुबकी लगा लेता हूँ, रौशनियों के अँधेरे समन्दर में। बुलबुले वहाँ भी मेरा पीछा करते हैं। तुम इन बुलबुलों से अपनी चोंच निकालते हो और मेरा गोश्त नोचते हो और हँसते हो। मैं परों की आवाज़ सुनता हूँ और बेहोश हो जाता हूँ।

मैं काले समन्दर की काली तह में बन्द हूँ। मैं क़दमों की आहट सुनता हूँ। बूट गुज़रते हैं मेरे सिर को कुचलते हुए। मैं टैंकों की घन गरज सुनता हूँ। और मेरी आँख खुल जाती है। उस औरत का पेटीकोट कितना मैला है, मेरी तरह मैला और पुराना मेरी तरह। बच्चा स्कूल जा रहा है। बच्चे की किताब वर्क-वर्क है। मेरी तरह, वर्क-वर्क और बेमज़ा। मेरी तरह झु£रयाँ मुझसे कुछ कह रही है। झुर्रियां मुस्कुरा रही है। मेरी तरह सख़्त जान और हँसमुख। मैंने कम्बल में मुँह छुपा लिया है। रौशनी और चूल्हे से मुझे नफ़रत है। दोनों मुझे खाये जा रहे हैं। तुम मुझे खाये जा रहे हो। छुरी-काँटे से। तुम खा रहे हो और मैं हँस रहा हूँ। खाओ-खाओ मैं शेर पढ़ता हूँ और तुम मुझे थूक देते हो। मुझे, ख़याल मेरे तजुर्बे को। तुम मुझे हजम नहीं कर सकते। मैं सड़ी हुई मछली हूँ। इन्सान जब सड़ जाता, मछली बन जाता है। मछली जब सड़ जाती है, पानी की सतह पर तैरने लगती है। मैं पानी की सतह पर तैर रहा हूँ, तुम मेज़ के आस-पास बैठे हो। कॉफ़ी पी रहे हो और शराब की सोच रहे हो। मुझे हिचकी आ रही है और तुम्हें शाम की फ़िक्र है।

क़तरा-क़तरा
ज़हर
क़तरा-क़तरा
टपक रहा है
शिराओं में
और मैं पक रहा हूँ
लावा-लावा
फ़रेब, झूठ, ख़्वाब
बलात्कार, धींगामुश्ती
मेरा गीत
वक़्त का भँवर
क़तरा-क़तरा

मैं क़हक़हा लगाता हूँ, तुम कहते हो यह प्रोपेगेण्डा है। मैं ज़हर पीता हूँ, तुम कहते हो यह प्रोपेगेण्डा है। मैं लावा बनकर फटता हूँ। तुम कहते हो यह प्रोपेगेण्डा है। जो गै़र हानिप्रद नहीं वह प्रोपेगेण्डा है। सिर्फ़ गेन्द प्रोपेगेण्डा नहीं। सो तुम पट्टे खा रहे हो। यहाँ लोग कॉफ़ी पी रहे हैं। देखो-देखो अपनी प्यालियों में झाँककर देखो। तुम्हारी कॉफ़ी का रंग कैसा है। रंग? रंग प्रोपेगेण्डा है। हम कलाकार हैं, कलाकार का कोई रंग नहीं होता। मैं भूख हूँ। भूख? यह प्रोपेगेण्डा है। जो कुछ है प्रोपेगेण्डा है। जो कुछ नहीं है, कला है। तुम हो। हम नहीं है। तुम क़हक़हा लगाते हो। तुम्हारा क़हक़हा आर्ट है। मेरा क़हक़हा नकबजनी है। मैं जिस औरत के साथ सोता हूँ, उसे पहचानता हूँ। मैं उसके साथ सफ़र करता हूँ। तुम सोते हो मगर पहचानते नहीं। तुम सफ़र नहीं करते, खड़े रहते हो। सफ़र करना प्रोपेगेण्डा है। खड़ा रहना आर्ट है। तुम खड़े हो। तुम दो किनारों के बीच खड़े हो। तुम किसी के तरफ़दार नहीं। तुम सबके यार। तुम एक चौराहा हो। मुझे आगे जाना है। तुम्हारी मेज़ से आगे। जाओ-जाओ, हमारी मेज़ से आगे जाओ, सवेरा, तूफ़ान, हमला - हमारी मेज़ मूलियों का पड़ाव नहीं। जाओ-जाओ आगे जाओ। स्फंज की तरह भीगा हुआ चेहरा, आँखों में गैंज, होंठ सूजे हुए, हाथ-पाँव सिकुड़े हुए - वेटर इसको उठाकर बाहर फेंक दो। हम ख़ूबसूरत बातें कर रहे हैं। आयी में अश्लीलता क्या है? बक रहे हो। फासीज़्म क्या है? बक रहे हो। कास का प्लेग क्या है? वेटर फेंक दो उठाकर इसे। शायर बना फिरता है कहीं का। कॉफ़ी लाओ, और लाओ हम कलाकार लोग। हाँ जी मेरी कहानी के साथ यह नोट छापिये। ख़त्म हो जायेंगे सब। लो देखो शायर फिर घुसा चला आ रहा है अन्दर।

भई मेरी सुनिये। मैं कुछ अर्ज़ कर रहा हूँ। मुझे पैसे दीजिये। मुझे पीना है। मुझे पीना है। घर में कुछ नहीं, जिस्म पर कुछ नहीं, दफ़्तर में कुछ नहीं। मुझे रोज़ चाहिए आग। बोतल में बन्द आग। यह आग नहीं मिलती तो मैं फैलने लगता हूँ। मैं इतना फैलता हूँ कि आसमान छिप जाता है। ज़मीन छिप जाती है। तब मुझे डर लगता है। जब डर लगता है तो मैं पीता हूँ। तब में असल हालत पर आ जाता हूँ। तब हर चीज़ तारों की तरह अपनी-अपनी जगह पर झिलमिलाने लगती हैं।

उसका चेहरा स्पंज की तरह है, भीगा हुआ। उसके मुँह की बदबू भीगी हुई है। वह दायें पैर का जूता बायें पैर में पहने हुए है। उसका बायाँ पैर नंगा है। उसकी पतलून के बटन खुले हुए हैं। शायद बटन है ही नहीं। पतलून भीगी हुई है। चाक गिरेबाँ से बाल झाँक रहे हैं। बालों में मैल है, रस्सी की तरह बटे हुए बाल। कोहनियाँ छिली हुई हैं और आस्तीनों के छेदों से झाँक रही हैं। पेशानी के ज़ख़्म की पपड़ी उखड़ गयी है। ज़ख़्म के निशान से ज़ख़्म के अन्दर झाँका जा सकता है। लेकिन ज़ख़्म के अन्दर ड्राइंगरूम नहीं है। देखिये-देखिये, उसका कद बढ़ने लगता है। उसका सीना चौड़ा होता जा रहा है। आँखों की नमी मिटने लगी है। उसकी साँस लपटें लपक रही हैं। उसके नुकूश मिटने लगते हैं। एक साया है और कुछ नहीं। रेस्त्रां में बादल उतर आया है। बादल जो एक आकार है और कुछ नहीं। बादल गरजता है। मेज़ों के गिर्द बैठे हुए लोग साये की तरफ़ देखते हैं और पत्थर बन जाते हैं। उनकी गरदन की रगें तनी हुई हैं। रगों में ख़ून जम गया है। पत्थर की रगें, पत्थर का ख़ून, पत्थर की आवाज़ें यार चुप हैं, साया बोल रहा है।

तुम मेज़ के गिर्द सा जोडे़ बैठे हो, तुम कितने उदास हो। एक मछली के लिए तुम कितने उदास हो। मछली तुम्हारे पास कुर्सी पर बैठी है और तुम मछली के लिए चन्दा जमा कर रहे हो। लेकिन यह तो ज़िन्दा मछली पकड़ने का गुर है। मरी हुई मछली काटी नहीं जाती। मरी हुई मछली केंचुआ भी नहीं खाती। तुम कितने अच्छे केंचुवे हो। चिन्तित और उदास। तुम्हारा रेस्तोरां जहाँ मछलियाँ भुन रही हैं, गूँज रहा है। गप से, तुम नाख़ून से बरगद का दरख़्त काट रहे हो। तुम्हें दरख़्त के गिरने का इन्तज़ार है। इस इन्तज़ार ने तुमको कितना बदल दिया है। तुम ब£छयों की तरह लम्बे हो गये हो। चीड़ के दरख़्तों से ज़्यादा ऊँचे। पतले और ऊँचे लेकिन सिर्फ़ देखने मेंऋ असल में तुम कैक्टस हो। और मैं तुम्हारे जंगल में खो सा गया हूँ। मैं तुम्हारे काँटों भरे जिस्मों को छूता हुआ चल रहा हूँ। मैं सदियों से इसी तरह चल रहा हूँ। जंगल में अँधेरा है। मैं ख़ुद अपने क़दमों की आहट सुन रहा हूँ। मैं भाग रहा हूँ और तुम मुझे घेर रहे हो।

तुम कहते हो मछली ने आत्महत्या कर ली। मछली कुछ और कहती है। मछली को रेत पर डाल देना बिल्कुल दूसरी कहानी है। लाश पानी पर तैर रही है। पानी का रंग - पानी का कोई रंग नहीं होता। पानी में रौशनियों की कश्तियाँ डूब रही हैं। अच्छा हुआ वह मर गया। वह कश्तियों के उभरने का इन्तज़ार कब तक करता।

यार चुप हैं। सब अपना-अपना अँगूठा चूस रहे हैं। ज़िन्दा मछलियाँ मरी हुई मछलियों को नोच रही हैं। न जाने उसका काँटा कब तक पानी में तैरता रहेगा। पानी कितना मेहरबान है जो मछली का बोझ उठा लेता है। यार कॉफ़ी पी रहे हैं। उनकी आँखों में धुन्ध छा रही है। उनकी टाँगें हिल रही हैं। मेज़ और कुर्सियों की संख्या बढ़ती जा रही है। सिर्फ़ दीवारें सिकुड़ रही हैं। दूर बहुत दूर, मछली का सियाह काँटा पानी में डूब जाता है।

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