मांस, मिट्टी और माया (पंजाबी कहानी हिन्दी में) : ख़ालिद फ़रहाद धारीवाल

Maans Mitti Aur Maya (Punjabi Story in Hindi) : Khalid Farhad Dhariwal

मांस - नाखून से अलग हो चुके के लिए भी उसका लहू जोश क्यों मारता है?

मिट्टी - जहाँ फिर कभी नहीं लौटना, ख्वाबों में वहाँ क्यों घूमते रहते हो?

माया - सुख सुविधाएँ देती है तो फिर दुख भी क्यों देती है?

यह सोचते हुए अख़्तर बीते दिनों की स्मृतियों में खोया हुआ कहीं दूर निकल जाता है। यहाँ लंदन में आज से कई-कई बरस पहले उसे अपने पिता की मृत्यु की खबर पूरे सात दिनों बाद मिली थी। परिवारवाले इस दुविधा में थे कि परदेस में रह रहे बेटे को इस बारे में बताया जाए या नहीं। बहुतों का विचार था कि इस बारे में उसे नहीं बताना चाहिए। परदेसियों का दिल बहुत भावुक होता है। कहीं यह दुख वह दिल से न लगा बैठे और कुछ लोगों का विचार था कि उससे कुछ नहीं छुपाया जाना चाहिए। पता तो उसे चलेगा ही, आज नहीं तो कल सही। तो, बेहतर यही है कि जो बात छुपाए नहीं छुपेगी वह बता ही देनी चाहिए पर एकदम सीधे नहीं। पहले बताया गया कि बूढ़ा बीमार है, फिर सख्त बीमारी का समाचार मिला और उसके बाद मृत्यु का। इस प्रकार उसे पहले से ही कोई सदमा सहने के लिए तैयार रखा गया था।

एक ऐसी घटना जो कई दिन पहले घटित हो चुकी थी, परंतु कई दिनों के बाद बताया गया और मृत्यु की वास्तविक तारीख का पता और भी कई दिनों बाद चला। उसने कैलेंडर देख कर हिसाब लगाया कि भला उस दिन वह कहाँ था और क्या कर रहा था? दस अप्रैल, सोमवार जब उसका सारा परिवार मृत्यु शय्या पर पड़े पिता के पास बैठा हुआ था ठीक उसी वक्त वह खुद वर्कशॉप में ड्यूटी पर हाजिर था। उस दिन उसका काम में मन नहीं लग रहा था। यह उसे आज भी याद है। सारा दिन एक नामालूम उदासी सी छाई रही थी। जब दिल बे-सबब अचानक ही उदास हो जाए तो यही समझा जाता है कि कोई बहुत शिद्दत से याद कर रहा है।

अपने छोटे बेटे को पास न देख कर मरणासन्न पिता ने उसे याद किया था। शायद इसी लिए उस दिन वह उदास रहा था। कई दिनों बाद अख़्तर ने सोचा और फिर यह जानने के लिए अपने भाई को फोन किया कि पिता के अंतिम वाक्य क्या थे? और उधर जब भाई ने बताया कि 'अंतिम समय में पिता ने तुम्हारा नाम लिया था' तो कई दिनों तक रोक रखे आँसुओं का सैलाब आँखों से बह निकला था। उसने कई बार रोना चाहा था परंतु आँसू पलकों तक आ लौट जाते रहे। वह चाहता था कि कोई ऐसा महरम मिले जिसके साथ वह अपना दुख साझा कर सके। किसी के गले लग कर रोए परंतु ऐसा कोई मिला नहीं था और अंततः दीवार पर नजर आ रहे अपने ही साये को दूसरा प्राणी मानकर उससे अपना दुख साझा कर लिया और दीवार से सर टिका कर तब तक रोता रहा जब तक दिल का बोझ हल्का न हो गया। इसके अलावा और चारा भी क्या था? इस परदेस में खुद के अलावा अपना और था भी कौन? एकाकीपन के इस अहसास ने बाद में उसे कैथी से विवाह के लिए मजबूर किया। उसका दिल कहता कि दुख-सुख में भागीदार यहाँ कोई तो अपना हो।

शोक के दिनों में अपने पिता को याद करते हुए अख़्तर ने वे दिन याद किए जब वह अभी दस बरस का ही था और उसके पाँव पर किसी साँप ने डस लिया था। घाव हो जाने के कारण वह कई महीनों तक चल-फिर न पाया। तब उसका पिता उसे कंधे पर बिठा कर इलाके के मांदरी के पास मरहम पट्टी करवाने के लिए पैदल ले जाता रहा। उनके पास उन दिनों कोई वाहन नहीं था।

एक दिन बारिश में उन्हें जाते देख रहमे ने उसके पिता से कहा था, 'नूरे के यहाँ से साइकिल माँग लिया करो, रास्ता लंबा है और बेटा किशोर वय का।'

'भला औलाद का भी कोई बोझ होता है रहमिया?' रास्ते के कीचड़ में से कदम बढ़ाते हुए उसके पिता ने थके स्वर में कहा।

उसके पिता को शरीकों से साइकिल माँगना अच्छा न लगता। बचपन से अवचेतन मन में घर कर गई इस घटना ने ही उसे अपने खानदान के बेहतर भविष्य की उम्मीद में युवावस्था में इंग्लैंड आने के लिए प्रेरित किया था।

लंदन आकर जब उसने कुछ समय बाद कार खरीदने के लिए अपने भाई को रुपए भेजे तो उसके समक्ष घर के लिए वाहन खरीदने की आवश्यकता नहीं बल्कि अपने पिता का आत्म-सम्मान था। अपने पिता के कार में बैठे होने की कल्पना मात्र से ही उसका मन खुशी से झूम उठता। बाद में यह अफसोस खुशी से कहीं ज्यादा बढ़ गया कि वह खुद तो पिता के कंधों पर सवार होकर घूमता रहा परंतु अंतिम समय में उसके जनाजे को कांधा न दे सका।

कैथरीन से शादी करते समय अख़्तर ने सोचा था कि उसका एकाकीपन समाप्त हो जाएगा। वह गोरी मेम तीन कमरों के एक फ्लैट में उसके साथ ही रहने लगी। संतान होने से पहले तक यह साथ सोश्यल कॉंन्ट्रैक्ट सा महसूस होता रहा। यह विवाह रिवायती साझेदारी की बजाय उसे सामाजिक बंधन सा प्रतीत होता। शायद इसलिए भी कि ये रीति-रिवाजों के बिना ही रचाया गया था। विवाह एक निजी कार्य होते हुए भी तो पूर्णतः सामाजिक होता है। मर्यादा के पुष्प चुनने वाला कार्य। यह जिस्मों के मिलन का इजाजतनामा ही नहीं होता बल्कि एक रिश्ते की शुरुआत भी होती है, जिससे कई और रिश्ते जन्म लेते हैं। यहाँ लंदन में जेठानी, बहू, ननद, भाभी जैसे ये सभी रिश्ते ही नदारद थे। शायद इस लिए भी कभी-कभी अख़्तर कैथी से आनंद नहीं बल्कि बेचैनी सी महसूस करता। कैथरीन कई बार उसे अपनी बीवी नहीं बल्कि बेगानी औरत सी मालूम होती। उसने कैथरीन को कुलसुम कहना शुरू किया तो उसके दोस्त राजू ने कहा - 'तुम्हारा अपनी बीवी को देसी नाम से पुकारना अपनी तरफ से बेतुअल्की को मजबूत रिश्ते में बदलने की अवचेतन कोशिश है।' यह रहस्योद्घाटन अख़्तर के लिए अजीब था। फिर बच्चे हो गए तो ये बेगानगी कम हो गई। कैथी बीवी के अलावा अब उसके बच्चों की माँ भी थी। यूँ एक रिश्ता बढ़ गया परंतु एकाकीपन खत्म न हुआ।

बच्चों के बारे में भी कई बार ऐसा महसूस करता मानो उन्होंने गलत जगह जन्म ले लिया हो, कोयल के बच्चे कौवे के घोंसले में होने की भाँति। वह पिंकी, बॉबी और माणी के बारे में सोचता कि काश ये बच्चे उसके फूफी की बेटी से पैदा हुए होते, जो उसकी मंगेतर भी रही थी परंतु विलायत से उसके न लौटने के कारण अपने मौसी के बेटे से ब्याह दी गई थी।

लंदन में जब उसका दिल उदास होता है, वह अपनी पुरानी अलबम निकाल कर बैठ जाता है जिसमें खानदान के सभी लोगों की तस्वीरें मौजूद हैं। बाद में अलबम में से कुछ तस्वीरें निकाल कर उसने फ्रेम करवा कर ड्रॉइंग रूम की दीवारों पर टाँग दी थीं। इन तस्वीरों की मौजूदगी से ड्रॉइंगरूम में प्रवेश करते ही एकाकीपन का अहसास घर कर जाता है। अपनी बीवी और बच्चों को अलबम में मौजूद सभी तस्वीरों के साथ उनका रिश्ता कई बार बताया है परंतु इन अजनबी और बेजान शक्लों के साथ कोई रिश्ता क्यों और कैसे निभाया जा सकता है, वे नहीं जानते।

उसकी कोशिशों के बावजूद उसके बीवी-बच्चे किसी भी तरह का कोई जुड़ाव या नातेदारी इन तस्वीरोंवाले लोगों के साथ जाहिर न कर सके। वे तो सिर्फ उससे प्यार करते हैं और उसके अलावा किसी अन्य रिश्ते से परिचित ही नहीं। अख़्तर अपनी बीवी कैथरीन और बच्चों को कई बार ड्रॉइंगरूम में टँगी तस्वीरों का मजाक उड़ाते देख चुका है। यह मजाक तस्वीरों का नहीं बल्कि उसके पुरखों का है, यह वह जानता है। शायद इस मजाक का सबब बन रही बेतुअल्लकी ने मिट्टी और मर्यादा की अजनबीयत से जन्म लिया है।

बीवी और बच्चों को वह एक बार पंजाब भी ले गया था। अपनी तरफ से बेगानगी की हदें खत्म करने की यह उसकी नाकाम कोशिश थी। लंदन से लाहौर के बीच का फासला तो उसने पाट दिया था परंतु दो पीढ़ियों के बीच मौजूद वक्त की खाई को वह कैसे पाटता? वह खानदान के जीवित लोगों के साथ ही अपनी बीवी और नन्हें-मुन्ने बच्चों का परिचय करवा पाया था। मर चुके लोग अजनबी ही रह गए थे। जिंदा लोगों का मुर्दों के साथ क्या रिश्ता होता है, बच्चे नहीं जाना करते। इसलिए वापिस आकर भी ड्रॉइंग रूम में टँगी तस्वीरें उनके लिए अजनबी ही रही थीं। बाद में अख़्तर ने इस जन्मजात अजनबीयत और बेगानगी को बच्चों और अपना मुकद्दर मान कर कबूल कर लिया था।

एकाकीपन के इन्हीं दिनों में उसका राजू से परिचय हुआ। अख़्तर जिस वर्कशॉप में काम करता था, राजू वहाँ टैक्सी रिपेयर करवाने आया था। राजू भी उसकी भाँति उखड़ा हुआ और एकाकीपन का शिकार था। पहली ही मुलाकात में वे दोस्त बन गए। राजू यहाँ टैक्सी ड्राइवर था।

'यार, सारा दिन अंग्रेजी बोल-बोल कर मुँह थक जाता है, अपनी भाषा तो साले अंग्रेजों को गाली देने के काम ही आती है, यहाँ तो अपनी जबान सुनने को भी तरस जाते हैँ।' राजू को अर्से बाद कोई हमजबाँ मिला था।

'अपनी भाषा बोलनेवाले जो लोग यहाँ हैं भी उनके पास मिल बैठने का वक्त नहीं होता। वक्त का बहाव यहाँ बहुत तेज है, जो दो घड़ी किसी के पास बैठना है उतनी देर में पाउंड कमाए जा सकते हैं। परदेस में अक्सर यही सोच होती है।'

'हाँ यार, अपनी भाषा से लगाव बहुत दुखद होता है।' अख़्तर ने आह भरते हुए कहा और फिर विभाजन के बाद लाहौर में रह गए एक गोरे साईमन का किस्सा सुनाने लगा।

उसका असली नाम साईमन था परंतु बच्चे उसे सांई मन्ना कहते थे। बिखरी हुई दाढ़ी और बढ़े हुए बालों वाला वह एक बूढ़ा अंग्रेज था। उसे यह नाम इतना जँचा कि लोगों को भी फिर सांई मन्ना ही याद रहा। विभाजन के बाद अकेला छूट गया साईमन वृक्षों के साथ अंग्रेजी बोलता रहता। वह किसी एक पेड़ के सामने जा खड़ा होता और बातें करने लगता। कभी धीमे स्वर में मानो सरगोशियाँ कर रहा हो तो कभी बहुत ऊँचे स्वर में बोलता मानो सामने कोई बहरा हो। उसे पता नहीं था कि पेड़ बहरे नहीं होते बल्कि गूँगे भी होते हैं। जब उसे सामनेवाले का हुंगारा न मिलता तो वह पेड़ों के गले लग रोने लगता। पेड़ न तो सुनते थे और न ही बोलते थे और लोग सुनते थे परंतु बोलते नहीं थे। आम लोगों को साईमन की भाषा समझ नहीं आती थी जिन्हें उसकी भाषा आती थी उनके पास साईमन के साथ बैठकर उसकी भाषा में बात करने की फुर्सत नहीं थी।

पेड़ों के साथ बातें करने और उन्हें आलिंगन कर रोने के कारण साईमन को पागलखाने में भर्ती करवा दिया गया था। उसका इलाज पागलखाने में लगाए जानेवाले टीके नहीं बल्कि उसके साथ बोले जानेवाले दो मीठे बोल थे। यह किसी को नहीं सूझा। पागलखाने में तमाशा बनने लगा। सभी पागल मिल कर साईमन के गिर्द घेरा डाल लेते और उसे छेड़ते। वह अंग्रेजी में गालियाँ देता, पागल और भी ज्यादा छेड़ते। साईमन चीखता और अपना सर पीट लेता। यह देख उसे घेरे खड़े पागल तालियाँ बजाने लगते, जोर-जोर से हँसते। कभी साईमन एकदम अकड़ कर खड़ा हो जाता और पागलों पर हुक्म चलाने लगता। पागल उसे सैल्यूट करने की बजाए गलत प्रकार के इशारे करने लगते और वह जमीं पर बैठकर सर घुटनों में दे रोने लगता। यह तमाशा पागलों की कुशलक्षेम जानने आए रिश्तेदार भी देखते। साईमन जो पागल नहीं भी था तो अब पागल हो गया था।

'अन्य गोरों की भाँति वह अपने देश क्यों नहीं लौट गया?' राजू ने पूछा तो अख़्तर ने बताया, सैंतालीस के बाद जब अंग्रेज हिंद-पाक से जा रहे थे, साईमन को भी उन्होंने साथ ले जाना चाहा परंतु उसने इनकार कर दिया। साईमन का कहना था कि लाहौर के गोरा कब्रिस्तान में उसकी पत्नी डायना और दो बच्चे एलिजाबेथ और बेंजामिन दफन हैं। वह यहाँ से नहीं जाएगा। मिट्टी और मांस का यह अजीब रिश्ता है। जहाँ आपका नाड़ू (नाभि नाल) दबा हो, वह भूमि आपको अपने शरीर का अंग प्रतीत होती है और जहाँ आपके प्रियजनों के शरीर दफन हों वह खाक और धरती शरीर से भी आगे रूह का कोई हिस्सा प्रतीत होती है। इनसान का खमीर माटी से है और रूह खमीर का ही दूसरा नाम है परंतु जगह-जगह घूमनेवाले व्यक्ति के मन से मिट्टी का मोह कभी का खत्म हो जाता है क्योंकि उन्हें माटी से नहीं, धन से प्यार होता है।' यह आखिरी बात कहते हुए अख़्तर के ध्यान में साईमन नहीं बल्कि यहाँ लंदन में रहता एक दोस्त मनशा था।

'ले भाई, याद रखना अगर मैं यहीं मर गया तो मेरी लाश मेरे घरवालों तक पहुँचा देना।' राजू ने अख़्तर को वसीयत की।

अख़्तर ने राजू की तरफ देखा। होठों पर मुस्कान के बावजूद आँखों में गहरी उदासी थी।

शादी के बाद कुछ समय तक पंजाब जाते वक्त अख़्तर ने कैथी को साथ ले जाना चाहा परंतु पाँव भारी होने के कारण डॉक्टर ने कैथी को सफर की मनाही की। पंजाब जाकर अख़्तर ने देखा कि गाँव में नियाई से नहर तक सारा रकबा उन लोगों ने खरीद लिया था। ऊँचा और खूबसूरत बंगला बनवा लिया गया था। घर वालों ने उसे लंदन लौट कर जल्दी ही और रुपए भाजने की ताकीद की ताकि नहर के पार वाला मुरब्बा खरीदा जा सके परंतु अपनी माटी में रह रहे रिश्तेदारों में से किसी ने भी उसके उस दुख और संताप के बारे में भी कुछ नहीं पूछा जिसे वह परदेस में रहकर दूसरी माटी पर भोग रहा था। तीन महीनों बाद लंदन लौटा तो कैथी के साथ अपने खेतों, फसलों, रुतों के रंगों और रिश्तेदारों के बारे में करने के लिए ढेरों बातें थीं परंतु कैथी ने इन सबमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

दूसरी बार जब वह पंजाब गया तो कैथी और बच्चों को भी साथ ले गया। पिंकी तब सात बरस की थी और माणी अभी चलना सीख ही रहा था और बॉबी अभी गोद में था। कैथी और बच्चों से मिल कर सभी बहुत खुश हुए। पिंकी के बारे यह कहा गया कि इसकी शक्ल अपनी फूफी के साथ मिलती है और बॉबी अपने मरहूम दादा पर गया है। हैरानी तो अख़्तर को तब हुई जब उसकी अपनी फूफी जो काफी उम्रदराज थी और लगभग अंधी सी हो चुकी थी, ने माणी को गोद में लेकर उसके चेहरे को टटोल कर माणी की शक्ल उसके परदादा के साथ मिलती बताई। माणी को उसके अलग स्वभाव के कारण यहाँ सारे घरवाले उसे पक्का अंग्रेज कहते। वह किसी की गोदी में कम ही ठहरता था परंतु इस अंधी माई की गोद में सकुन से खेलता रहा। अख़्तर ने यह बात फूफी से कही तो फूफी ने कहा - 'अपने खून को खून पहचान ही लेता है।'

इस निकटता और सांझेदारी के रहस्य को अख़्तर न जान सका परंतु पिछली पीढ़ी के साथ शक्लों के सामंजस्य से उसने यह परिणाम निकाला कि रिश्तों में कोई दूरी नहीं। यह अपनी जगह की सीमा से पार एक तुअल्लक होता है।

बरसों बाद जब अख़्तर को अपनी औलाद में शक्लों की समानता से भिन्न कोई गुण अपने पुरखों वाला नजर नहीं आया तो उसने सोचा कि खानदान से जुड़े रहने के लिए बदन में दौड़ रहे लहू की साझेदारी ही जरूरी नहीं होती बल्कि मिट्टी की साझेदारी भी शायद जरूरी होती है।

उसे तयशुदा शेड्यूल से पहले ही लंदन लौटना पड़ा था, बच्चों को पंजाब का मौसम रास नहीं आया था। उनकी माटी जो पराई थी, तो फिर मौसम भी पराया लगना ही था। लंदन में बच्चों के चेक-अप के दौरान डॉक्टर ने जब अख़्तर से कहा दिया कि चिंता वाली कोई बात नहीं, बस यूँ ही जरा डस्ट अलर्जी हो गई थी तो अख़्तर बड़बड़ाया - यही तो असली चिंता है। अंग्रेज डॉक्टर उसकी बात समझ नहीं पाया था।

फिर राजू को बच्चों की इस बीमारी के बारे में बताते हुए अख़्तर पहले तो हँसा और फिर रोने लगा। हँसा वह इसलिए कि माटी से जन्में लोगों के बच्चों को भला धूल से क्या अलर्जी हो सकती है और रोया इसलिए कि अगली पीढ़ी का माटी और मांस से सदियों पुराना रिश्ता टूट रहा है बल्कि माटी और मांस को एक-दूसरे से जिद हो गई है। इसे वे माया का सितम कहें या करम, राजू और अख़्तर कोई फैसला न कर सके।

मनशे ने सुना तो वह बहुत खुश हुआ। उसने कहा - 'मुबारक हो। यह बीमारी नहीं है, पुरखों की बेखबरी को लाँघ कर ऊँची संस्कृति की तरफ उठतेबच्चों का पहला कदम और उनकी कैमिस्ट्री बदल रही है।'

'शैतान का पुत्तर' अख़्तर ने मन ही मन मनशे के मुँह पर थूक दिया था। मर्यादा का गद्दार और पुरखों का मजाक उड़ाने वाला मनशा उसे कभी भी पसंद नहीं आया था। एक ऐसा व्यक्ति जो न तो अपने खून को पहचान सका और न ही अपनी माटी की कद्र कर सका। जो बहुत ही गर्व के साथ बताता कि अरब में एक बूढ़े बद्दू की बीवी ने एक बच्चा तुम्हारे मनशे यार का भी जना था।

'पराये बर्तन में जामन लगाते हुए तुझे लाज नहीं आई?' राजू ने एक बार उससे पूछा था।

'नहीं बिलकुल नहीं और न ही मैंने कभी अरबों के बीच पल रहे अपने उस बच्चे के बारे में सोचा है।' मनशे ने बेफिक्री से कहा था।

साउथ अफ्रीका की एक नीग्रो युवती ने मनशे से निकाह किया था। बाद में तीन बच्चियों और उस नीग्रो युवती को छोड़ खुद इंग्लैंड आ गया और फिर कभी उनकी खबर तक नहीं ली। मनशा अक्सर कहता, 'यह मिट्टी का मोह, मर्यादा क्या है मैं नहीं जानता मुझे तो बस शराब, मांस और माया का पता है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में भी आदमी को पुरानी सीमा-रेखाओं में कैद नहीं रहना चाहिए।'

अख़्तर और राजू मनशे को देख सोचते कि आदमी इतना बेफिक्र कैसे हो सकता है क्योंकि मनशे ने न कभी अपनी औलाद की परवाह की थी और न ही पीछे मौजूद खानदान की। वह जो भी कमाता, शराब या कोठों पर खर्च कर देता।

'दुनिया कितनी भी ग्लोबल हो जाए यह ग्लोबलाइजेशन बाजार और माल तक ही सीमित रहेगा। अख़्तर ने राजू को समझाया। 'व्यक्ति अपनी अपनी संस्कृति, रहतल, बोली और व्यवहार में कभी ग्लोबल नहीं हो सकता। हर व्यक्ति की अपनी माटी होती है और हर माटी की अपनी मर्यादा और एक अलग वियोग। राजू देख, गाँव की छोटी सी बात हमारे लिए कितनी बड़ी खबर होती है। हम फोन पर यहाँ तक क्यों पूछ लेते हैं कि बूरी भैंस ने इस बार कट्टा जना या कट्टी। हमें यह जानने की बेसब्री क्यों होती है कि रोही (चिकनी मिट्टी) वाले निचले खेत में इस बार कौन सी फसल रोपी गई। आम के मौसम में हमें उस पर बौर लगने का इंतजार क्यों रहता है जिसे कभी अपने हाथों से रोपा होता है?' राजू के पास इन बातों का जवाब नहीं था। वह तो खुद यह सोच रहा था कि इंग्लैंड के एक ही तरह के मौसम में रहते हुए भी वह साल का देसी हिसाब क्यों नहीं भूला? पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र और जन्म घुट्टी में मिले ऋतुओं के इस लेखे-जोखे को तो वह शायद परलोक में भी नहीं भूले। अख़्तर का गला भर्रा गया और राजू की आँखें नम हो गईं थीं।

राजू महीने में एक सप्ताहांत पर अख़्तर के घर जरूर आता। वह बच्चों से मिल कर अपना दुख दूर करता। राजू हर बार बच्चों के लिए कोई उपहार जरूर लाता था। एक बार वह पिंकी के लिए क्रोशिया सेट, धागों के गुच्छे और कशीदाकारी की कोई गाईड लेकर आया। उसने कहा कि यह उम्र पिंकी के सीखने की है। और फिर प्यार और गर्व से पिंकी के सर को पलोसते हुए कहा, 'हमारी बिटिया, अब मेजपोश की झालरें काढ़ कर दिखाएगी।' पिंकी ने तब भी नाक-भौं सिकोड़ी थी और दुबारा इन चीजों को हाथ भी न लगाया था। माणी को उसने खूबसूरत रंगीन बाँसुरी दी, परंतु माणी ने जिद करके अगली बार छोटी गिटार मँगवा ली। बॉबी को राजू ने बंदे दा पुत्तर बनाने का पूरा जोर लगा दिया। बॉबी ऊधम मचाने, अड्डेबाजी करना और अपनी कलाई मुँह से जोड़ कर सीटी मारनी सीख गया था। राजू को बॉबी से मोह था और बॉबी को भी अपने अंकल से बहुत लगाव था। बॉबी अपने 'राज अंकल' से लोक कथाएँ सुनता। राजू और अख़्तर उसें पंजाब की लोक कहानियाँ सुनाते। इन कहानियों में पशुओं, पक्षियों और वृक्षों को जब इनसानों की भाँति बातें करते देखता तो अक्ल का पुतला बॉबी इन कहानियों को मानने से इनकार करते हुए 'झूठ-झूठ' कह कर शोर मचाने लगता। राजू और अख़्तर सफाई देते कि एक युग था जब वृक्ष, पशु और पक्षी इनसानों की भाँति ही बोला करते थे और इनसान उनकी बातों को समझता था। 'आप मेरे युग की कहानी सुनाइए' कहकर बॉबी चिल्लाता।

जहाँ व्यक्ति व्यक्ति से बात नहीं करता, ऐसे मूक युग की वे क्या कहानी सुनाते, इसलिए वे चुप्पी मार जाते।

'पशुओं और पक्षियों के बीच किसी पशु बोली का वजूद तो मैं आज भी स्वीकार करता हूँ, परंतु इतिहास के किसी भी वर्ग में वृक्षों द्वारा बातें करने के विषय में मुझे इनकार है।' अख़्तर ने एक दिन राजू को अलग से बताया कि 'अगर वृक्ष बातें करते तो साईमन कभी पागल न हुआ होता।'

फिर राजू एक सड़क दुर्घटना में मारा गया। उसकी वसीयत के अनुसार उसका शव उसके गाँव भेज दिया गया। साथ ही उसके द्वारा कमाई गई एक बड़ी राशि का बैंक ड्राफ्ट भी। छनकती माया से भरी पोटली और सड़ गए मुर्दा मांस की पोटली एक ही हाथों से लेते हुए राजू के माता-पिता को कितना अजीब सा महसूस हुआ होगा। अख़्तर यह आज भी सोचता है। उसे राजू, मनशा और साईमन अक्सर याद आते हैं। राजू जिसने अपनी माटी को सँवारने के लिए एक बेगानी धरती पर रहने का कष्ट झेला। राजू की अपने खानदान के प्रति कुर्बानी याद करके अख़्तर की आँखें नम हो जातीं। मनशा जो अपने खानदान, बच्चों और पत्नी को छोड़ आया था और साईमन जिसने अपने मृत बच्चों और बीवी के लिए अपना वतन त्याग दिया था। अख़्तर के दिमाग में इन तीनों के अलग-अलग चित्र हैं। राजू उसे दया से भरपूर कोई भगत या संन्यासी सा प्रतीत होता है। मनशा शैतान का एक रूप, घमंड और हवस का पुतला और साईमन मासूम चेहरा, पाक मुहब्बत का कोई बुत। पर कई सालों बाद अख़्तर ने जब मनशे के एड्स का शिकार होने के बारे सुना तो वह बहुत उदास हो गया था।

अख़्तर ने कई बार चाहा था कि पंजाब लौट जाए, परंतु कैथरीन ने उसका साथ नहीं दिया। वह अपना वतन छोड़ कर जाने को तैयार न हुई। उसकी युवा संतान ने भी कभी पीछे लौट जाने की ख्वाहिश जाहिर नहीं की थी। संतान के मोह में वह भी नहीं गया। पिछली फेरी में अपनी माँ के निधन पर अख़्तर जब पंजाब जा रहा था तो उसने कुछ दिनों के लिए ही सही कैथरीन और बच्चों को साथ चलने के लिए कहा था परंतु उनकी इच्छा न देख उसने उन्हें मजबूर नहीं किया और वह अकेला ही चला गया था। इस बार उसने गाँव के स्कूल में हैंड पंप लगवाया। नियाईं वाली दो बीघा जमीन में बाग लगाने की नसीहत की। माँ तथा पिता की कब्र के सिरहाने अपने हाथों से बेरी के पौधे लगाए। दोनों कब्रों के पायताने से दो अँजुरी भर कर मिट्टी उठाई और उन्हीं कदमों से आँसू बहाता हुआ लंदन लौट आया। वह दो अँजुरी मिट्टी अब उसके बेडरूम के कार्नस पर पड़े एक गमले में रखी है। गमला खाली है, उसमें कोई पौधा नहीं रोपा। फिर भी फसलों के दोनों मौसम में इसके भीतर पंजाब के खेतों की मेढ़ों पर उगनेवाले पौधे खुद ही उग आते हैं।

गमले की इस मिट्टी के बारे में अख़्तर ने वसीयत कर रखी है कि जब उसकी मृत्यु हो तो उसे कब्र में दफनाने से पहले यह मिट्टी नीचे बिखेर दी जाए। वह चाहता है कि मरने के बाद कम से कम मेरी देह को अपनी माटी पर होने का अहसास तो रहे।

पिछले दो सालों से उसका भाई अपने बेटे के लिए स्पॉन्सर वीजा भेजने के लिए कह रहा है, परंतु अख़्तर का दिल नहीं मानता। उसके भाई की यह भी इच्छा है कि बेटे को इंग्लैंड बुला कर पिंकी के साथ उसका निकाह पढ़वा दिया जाए। भाई की तरफ से वीजा भेजने का तकाजा बढ़ने पर अख़्तर ने भाई को फोन के बजाए खत द्वारा जवाब देना मुनासिब समझा। उसने कहा - 'मैं नहीं चाहता कि अपनी माटी और मांस से दूर रहने का संताप मेरे बाद भी कोई भोगे... मेरी औलाद ने हमेशा के लिए इंग्लैंड में रहने का फैसला कर लिया है.... वीजा मैं नहीं भेजूँगा, मेरे हिस्से की जायदाद अपने बेटे के नाम कर दो। रही पिंकी के साथ उसके ब्याह की बात तो मैं पिंकी पर अपनी मर्जी नहीं थोप सकता... यह इंग्लैंड है और अगर पंजाब भी होता तो मैं पिंकी की ख्वाहिश का सम्मान करता।"

अख़्तर जब खत पोस्ट करने जा रहा था तो रास्ते में उसने खुद से कई सवाल किए -

उसका यहाँ आना तकदीर का सितम था या करम?

दौलत कमाने का कष्ट क्या उसके लिए कोई सजा थी?

उसने ये सारी तकलीफें क्यों सहीं?

और क्या उसका जीवन बेकार गया?

इन सभी सवालों का उसके पास एक ही जवाब था -

'अपने लिए तो हर कोई जीता है। उसे खुद पर फख्र है कि वह खानदान के लिए जिया।'

अब अपने वतन वापस न जाने के फैसले पर अख़्तर को कोई अफसोस नहीं था।

जहाँ किसी की खातिर इतना जीवन गुजर गया, वहीं वह किसी की खातिर मर भी तो सकता है। यह सोचते हुए उदास सा वह मुस्करा उठा और इस वक्त उसे साईमन याद हो आया।

(अनुवाद : नीलम शर्मा अंशु)

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