माँ की ममता (कहानी) : रावुरी भारद्वाज

Maan Ki Mamta (Telugu Story in Hindi) : Ravuri Bharadwaja

रात के दस बज चुके हैं। पूरे आश्रम में सन्नाटा छाया है। आनन्द स्वामी अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे गहरी सोच में पड़ गये थे। उसका कोई अन्त दिखाई न दे रहा था। थोड़ी ही दूरी पर शकुन्तला सो रही थी। उसकी ओर देखते ही उनकी कई यादें ताजी होने लगीं....
उस दिन नींद खुलने से पहले जब रंगन्ना ने दरवाजा खटखटाया तो आनन्द स्वामी ने बाहर जाकर देखा कि आश्रम की देहली के पास नन्हा-सा शिशु पड़ा है। उस धुँधलके वातावरण में चारों ओर खोजने पर भी कोई सम्बन्धित व्यक्ति न मिला। उस मासूम शिशु के पोतड़े में एक छोटा-सा पत्र मिला जिसमें उसकी माँ ने लिखा था कि यह अनाथ बच्ची है और अपनी विवशता के कारण इसे यहाँ आश्रम के द्वार पर छोड़कर जा रही हूँ। उस पत्र में बार-बार करुणा के साथ यह विनती और प्रार्थना की गयी थी कि बच्ची की रक्षा अवश्य करें। उस पत्र की प्रत्येक पंक्ति में माँ की ममता स्पष्ट झलक रही थी, जिसे पढ़कर मन द्रवित हो उठा था। बस, उसी दिन से इस आश्रम को अनाथ-शरणालय के रूप में बदल दिया गया था। इन सोलह वर्षों में कितने ही अनाथों को इस आश्रम में आश्रय प्राप्त हुआ। उन बच्चों का जीवन व्यर्थ नहीं हुआ। उनका उद्धार होते हुए देखकर आनन्द स्वामी का मन आनन्द से भर उठा। आनन्द भी ऐसा कि किसी और प्रकार से उन्हें नहीं मिल सकता था।

माता-पिता से दूर—उनकी ममता से वंचित इन सभी बच्चों के लिए आनन्द स्वामी स्वयं पिता बन गये और पिता का प्यार बाँटते समय उनकी मधुर अनुभूति स्वयं उन्हें भी होने लगी। एक-एक को वहाँ से विदा करते समय उन्हें बहुत दुःख होता था। उनसे बिछुड़कर रहना असम्भव लगता था। किन्तु करें क्या ? जीवन का तो नियम यही है, जिसे तोड़ा नहीं जा सकता।
अब कल तो शकुन्तला भी चली जायेगी। इस बात की याद आते ही आनन्द स्वामी का दुःख और भी बढ़ने लगा। वास्तव में शकुन्तला ही क्या, यहाँ के सौ बच्चों में से कोई भी उनका अपना नहीं है। लेकिन उन्हें तो शकुन्तला औरों से अलग लगती है क्योंकि इस अनाथाश्रम की प्रेरणा का मूल यही थी। अगर उस दिन यह शकुन्तला आश्रम के द्वार पर न मिली होती तो शायद आनन्दस्वामी आध्यात्मिक जीवन में ही लगे रहते। स्वामी को लगा कि इससे शायद उनका अपना कुछ फायदा हो सकता था, लेकिन समाज के लिए तो कुछ नहीं। उस स्थिति को दूर कर समाज-कल्याण की ओर अपने को प्रेरित करनेवाली शकुन्तला इसीलिए उन्हें इतनी प्यारी लगती है।
उन्हें लगा कि पहले कालिदास के शाकुन्तलम् को पढ़ते समय, उसमें कवि की प्रतिभा और कविता-चातुरी पर ही मुग्ध होते थे किन्तु उसके अन्दर मानवता का भाव पकड़ में नही आया। किन्तु आज शकुन्तला से बिछुड़ते समय कण्व महर्षि का दुःख स्वयं अनुभव में आ रहा था। उन्हें लगा कि पाल-पोसने पर ही मुझे आज उससे बिछुड़ने में इतना दुःख हो रहा है तो स्वयं माता-पिता की क्या स्थिति होगी।

उन्हें मालूम था कि शकुन्तला की माँ जीवित ही है। जीवित न होती तो हर साल बराबर ‘उगादि’ पर नव वर्ष की शुभकामनाएँ और भेंट कैसे भेजी जातीं। उस माँ को ढूँढ़ने के लिए उन्होंने काफी प्रयत्न किया। किन्तु व्यर्थ ! हार कर उस प्रयत्न को छोड़ दिया। अचानक कल प्रसाद आया था। उससे कई बातों पर चर्चा भी हुई। प्रसाद ने कुछ नहीं छिपाया।
कल शकुन्तला अपने भाई के साथ चली जायेगी। कम-से-कम इतने वर्षों के बाद शकुन्तला अपने स्वजनों से मिल रही है, इस बात की प्रसन्नता हो रही है। लेकिन दूसरी ओर अपने से दूर जा रही है, यह सोचते-सोचते दुःख और भी बढ़ने लगा। उन्हें लगा कि वह यह दुःख सहन नहीं कर सकेंगे।
सबेरा हुआ जाने की तैयारियाँ पूरी हो गयीं। आश्रम के सभी लोग गाड़ी के चारों ओर इकट्ठा हो गये। आनन्दस्वामी के नेत्र आँसुओं से भरे हुए थे। शकुन्तला की भी स्थिति उससे कम नहीं थी। गाड़ी का चालक जाने के लिए तत्पर था। शकुन्तला और उसके पीछे प्रसाद दोनों गाड़ी में जा बैठे। गाड़ी चल पड़ी। आनन्दस्वामी ने अपने मुँह को हाथों में छिपा लिया।
हरे-भरे खेतों से ठण्डी हवा बह रही थी। रेलगाड़ी चली जा रही थी। शकुन्तला बिस्तर के सहारे सो रही थी। प्रसाद उसी की ओर देख रहा था। उसकी आँखें भर आयीं। छिपकर आँसुओं को पोंछ डाला। अपनी एक बहन के होने की बात प्रसाद को हाल तक मालूम नहीं थी। एक योग्य भाई के होते हुए भी शकुन्तला को एक अनाथाश्रम में इतने दिन क्यों रहना पड़ा। अब इस बारे में तर्क-वितर्क करने से कोई फायदा नहीं कि इसमें दोषी कौन है। शायद दोष सभी का है।

जो बीत गया सो बीत गया। उसके बारे में अब दुःखी होने पर कोई लाभ तो नहीं। अच्छा हुआ कि कम-से-कम इतने दिनों के बाद अपनी छोटी बहन से मिल सका। प्रसाद ने नहीं सोचा था कि उसे इतनी जल्दी ही अपने प्रयत्न में सफलता मिल जायेगी उसकी बातों पर स्वामी जी ने विश्वास किया और शकुन्तला को साथ पैठा दिया ! काश ! आज माँ जीवित होती तो कितनी खुश हो जाती ! प्रसाद को लगा कि अपनी बड़ी बहन को भी शकुन्तला के बारे में जानकारी होती तो उसे कितना दुःख होता और कितना आनन्द। प्रसाद को जल्दी इधर आने के लिए मौका न मिलेगा, इसलिए उसने सोचा कि आत्मीय जनों के पास शकुन्तला को ले जाकर परिचय करा दें। शकुन्तला भी मान गयी।
सुभद्रा की मानसिक स्थिति अति विचित्र-सी लगती है। वह कभी भी यह मानने के लिए तैयार नहीं होती कि दूसरे लोग भी सच बोल रहे हैं। हाँ, वह यह भी मानने के लिए तैयार नहीं है कि शायद इसका कारण स्वयं का सच न बोलना ही है। सामने वाले जो कह रहे हैं, ठीक उसके उल्टे ही वह बात को मानती है। जैसे किसी ने खाना न खाने की बात कही तो सुभद्रा तुरन्त इस निर्णय पर पहुँच जाती है कि उन्होंने जरूर खाना खा लिया है। यह एक प्रकार का रोग ही तो है। वही बात आज भी हुई।

प्रसाद को देखते ही उसका चेहरा खिल उठा, लेकिन शकुन्तला को देख तुरन्त मुरझा गया। शकुन्तला के साथ अपने भाई का व्यवहार उसे बिलकुल पसन्द न आया। अब तक तो सुभद्रा ने सोचा था कि प्रसाद ऐसा आवारा लड़का नहीं है। लेकिन आज शकुन्तला को देखते ही उसका भ्रम दूर हो गया—‘‘ऐसा युवक मेरी बेटी से विवाह क्या करेगा ! करेगा भी तो उनका जीवन कितना सुखमय रहेगा1 ! अरे, उसने तो पाप और पुण्य के बारे में भी शायद सोचना छोड़ दिया होगा। इसीलिए उसे बहन कहकर पुकार रहा है। शायद दुनिया की आँखो पर पर्दा डालना चाहता है। लेकिन क्या वह मुझे अन्धा बना सकता है ? राम ! राम ! मैं कभी नहीं मानूँगी।

उसके पति गोपाल ने सुभद्रा से एकान्त में पूछा कि वह लड़की कौन हो सकती है ? सुभद्रा ने कोई जवाब नहीं दिया। दे भी तो कैसे ! क्या वह कह सकती है कि उसका भाई इस लड़की को भगाकर ले आया है। इसके बाद क्या गोपाल, प्रसाद को फिर से इस घर में कदम रखने देंगे ? पहले तो, पलभर के लिए भी इस घर में प्रसाद को रहने न देंगे। चार कौड़ी की लड़की के लिए अपने भाई के सुनहरे भविष्य का सत्यानाश करना सुभद्रा ने नहीं चाहा। इसीलिए अपने पति को कुछ समझा-बुझाकर शान्त किया। लेकिन गोपाल सन्तुष्ट कहाँ हुआ ?
सुभद्रा को लगा कि बात इतने तक समाप्त होने की नहीं। अगर अभी अपने भाई को सही कायदे में बाँधकर न रखेगी तो जल्दी ही वह अपने हाथ से निकल जायेगा। अपना भी तो इकलौता भाई है। ऐसा होते देखा न जायेगा।
अपने छोटे भाई को सुभद्रा ने खूब समझाया। शकुन्तला पर से मन फेरने के लिए उसने काफी प्रयत्न किया। शकुन्तला ने पता नहीं क्या जादू किया कि प्रसाद अपनी बड़ी बहन की एक भी बात मानने के लिए तैयार नही। इसका तात्पर्य यह है कि उन दोनों के सम्बन्धों में घनिष्ठता आ गयी है।

साथ ही, गोपाल का सताना भी बढ़ गया। वे सुभद्रा से बार-बार पूछ रहें थे। और फिर उन्होंने चेतावनी दी कि ऐसी हरकतें हमारे घर में नहीं चलेंगी। रिश्तेदारी है तो सो अलग, लेकिन इस घर को एक वेश्या-वाटिका नहीं बना सकते। अगर उस बाजारू लड़की से इतना प्यार है तो कहीं और चले जायें लेकिन मेरे घर को अड्डा न बनाएँ।
सुभद्रा ने इनमें से किसी का उत्तर न दिया। वास्तव में ये सभी बातें प्रसाद के लिए थी, जवाब उसे देना था, किन्तु वह तो मौन ही रह गया। लेकिन इन बातों के तीव्र परिणामों के कारण शकुन्तला की स्थिति दूभर हो गयी।
रेलगाड़ी में आते समय भैया, वही प्रसाद ने जब कहा कि हम बड़ी बहन के पास जा रहे हैं तो शकुन्तला का मन उल्लास से भर गया था। कुछ दिन पहले तक वह हमेशा यह सोचकर दुःखी होती रही कि मैं एक अनाथ हूँ। माता-पिता के प्यार से वंचित अभागिन हूँ। लेकिन उस आश्रम में सब अनाथ ही तो थे। इसलिए एक-दूसरे को सान्त्वना देने के अलावा कुछ और कर नहीं सकते थे।
प्रसाद के आने तक उसे मालूम नहीं था कि मेरा भी एक भाई है। जानकारी होने के बाद अथाह सुख मिला था उसे। शायद सारी दुनिया को जीत कर भी ऐसा सुख और सन्तृप्ति न मिलती। एक रिश्तेदार-रिश्तेदार क्या, स्वयं भाई मिल गया। इससे ज्यादा और क्या चाहिए ? अपने जीवन रूपी रेगिस्तान में मानो अमृत की ही वर्षा हुई थी।
इस घटना से ही शकुन्तला अत्यन्त प्रसन्न थी, और जब प्रसाद ने कहा कि उसकी एक बड़ी बहन भी है तो कुछ क्षण के लिए उसे अपने आप पर ही विश्वास नहीं हुआ था। उसे डर लग रहा था कि वह सारा स्वप्न है जो नींद खुलते ही बिखर जायेगा। भाई के मिलने पर ही उसे आनन्द होने लगा तो बहन के भी होने के समाचार ने तो उसे और भी हर्ष-विभोर कर दिया था। इस हर्ष और उद्वेग के कारण वह मन को सँभाल न सकी थी।

इतने वर्षों के बाद अपने मन में सोये हुए सारे प्यार का संचय कर, जागृत कर, घबराहट के साथ, डगमगाते हुए कदमों से अपनी बड़ी बहन का आलिंगन करने के लिए आगे बढ़ी। उसने सोचा था कि दीदी भी उतनी ही खुश होगी...किन्तु अपने को देखते ही बहन का चेहरा एकदम मुरझा गया। प्रसाद से प्यार से उसने परामर्श किया, किन्तु अपनी ओर तो एक तीखी नजर डालकर अन्दर चली गयी। शकुन्तला ने भाई की ओर देखा। वह भी कुछ अनमना लगा। शकुन्तला का मन तीव्र रूप से घायल हो गया। कुछ अमूल्य वस्तु के हाथ से फिसल जाने की गिड़गिड़ाहट हुई।
अब धीरे-धीरे उसका कारण शकुन्तला को मालूम होने लगा। उसे अपनी गलती का एहसास देर से हुआ। उसे मालूम नहीं था कि दुनिया में ऐसे दगाबाज भी होते हैं। जानती तो शायद प्रसाद के साथ ऐसे न आती। अपनी बात तो छोड़ो, स्वामी भी इसकी बातों के जाल में फँस गये और उसे भेज दिया। कितनी आशाओं और अरमानों को लेकर प्रसाद के साथ चली आयी। उन सब पर पानी फिर जाने में समय न लगा।
इस बड़ी बहन की बातों से ही शकुन्तला समझ गयी कि प्रसाद उसे अपने साथ क्यों लाया है। हाय, अब मैं क्या करूँ !
शकुन्तला कुछ सुन्न जैसी हो गयी। हथेली में मुँह रखकर वह खूब रोने लगी।
‘‘क्यों बहन, रो क्यों रही हो ? प्रसाद ने आकर पूछा। शकुन्तला ने न उत्तर दिया और न रोना ही बन्द किया। बस, उससे थोड़ी दूर सरक गयी।

‘‘बस, बस, अब रोना तो बन्द करो। मेरी प्यारी बहन ! दीदी और जीजाजी दोनों ने मुझे अभी तक ठीक से नहीं समझा। कुछ गलतफहमी के कारण उन्होंने दो-चार बातें कह डालीं। उसके लिए तुम्हें रोना शोभा नहीं देता। मेरी बात मानो, उनकी बातों को बुरा मत मानना। हम दोनों से वे बड़े हैं, इसलिए कुछ कहने का अधिकार उनको है। दीदी के डाँटने पर छोटी बहन ऐसे रोती है क्या ? बोलो !’’ प्रसाद ने आँखों में आँसू लिये शकुन्तला को धीरे से मनाने की कोशिश की।
‘‘बस अब आप कुछ और मत कहिएगा, प्रसाद जी ! मुझे सब मालूम है। आप ऐसे नीच व्यक्ति हैं—इस बात का थोड़ा-सा भी पता होता तो मुझे स्वामी जी आपके साथ कभी नहीं भेजते। आपने तो कितनी झूठी बातें बनायीं। यहाँ तक कि आँखों में आँसू भी भर लिये। आपका अभिनय देखकर सब ने आप पर विश्वास कर लिया। मुझे ऐसा क्यों बरबाद करना चाहते हैं ? बताइये कि मेरा अपराध क्या है ? प्रसाद जी ! माता-पिता को खो बैठी मैं एक अनाथ बालिका हूँ। मेरे साथ ऐसी धोखाधड़ी आपके लिए उचित नहीं है। आपकी भी एक बहन है। उसे भी अगर कोई ऐसे ही धोखा दे तो आपको कैसा लगेगा ? बोलिए, मेरा कोई अपना नहीं है इसीलिए आप ऐसा करने का साहस कर रहे हैं। अब आप कुछ और न कहिएगा। मुझे सभी कुछ मालूम है। बस मुझे वापस जाने दीजिए।’’ शकुन्तला ने कहा।

प्रसाद कुछ क्षण मौन रहा आया। अचानक उसका चेहरा लाल हो गया। आँखें अंगारों के समान धधकने लगीं। क्रोध से काँपते हुए एकदम से पीछे मुड़कर बड़ी बहन के कमरे की ओर बढ़ा। वहाँ सुभद्रा खड़ी थी। उसने कहा, ‘‘मैने सब कुछ सुन लिया है। इतनी जल्दबाजी में क्यों आ रहे हो ? मारोगे क्या ? पागलपन छोड़ दो। यह सोच कर कि तुम मेरे भाई हो और मेरे बराबर के हो, इसलिए मैं सिर्फ बातें कर रही हूँ। जब तक मैं जीवित रहूँगी तब तक तुझे इस शकुन्तला के साथ रहने न दूँगी।...ऊपर से तुम पर दोष लगा रही है कि तुमने उसके साथ धोखा किया है। वास्तव में धोखेबाज तो वह खुद है। हीरे जैसे तुम पर उसने जरूर कुछ जादू किया है और तुम्हें निकम्मा बना दिया है। दो दिन और ठहरो तो तुम्हें ही वह गायब कर देगी। कितनी चालाक है जो तुम्हें कठपुतली की तरह नचा रही है। तुमने मेरे सामने कभी जोर से बोलने का साहस तक न किया था लेकिन आज तो ऐसे घूर-घूरकर देख रहे हों कि मुझे खा जाओगे। क्या, ये सब उस चुड़ैल की करतूत नहीं है ? मालूम नहीं कैसा विष पिला दिया।’’
‘‘दीदी !’’ प्रसाद चीख उठा।
‘‘देखो ! अभी से पागलपन के लक्षण नजर आ रहे हैं...’’ सुभद्रा ने कहा।

प्रसाद ने मनाने की चेष्टा के स्वर में कहा, ‘‘अरे दीदी ! तुम में से कोई भी मुझे समझने का प्रयत्न नहीं कर रहा है। आप सबकी मूर्खता के कारण शकुन्तला बहुत दुःखी हो रही है और वापस आश्रम में जाना चाहती है।
‘‘ओह !’’ प्रसाद ने कहा, अब मेरे लिए कोई दूसरा उपाय नहीं है। मैंने एक रहस्य को तुमसे छिपाना चाहा क्योंकि मैं तुम्हें दुःखी नहीं करना चाहता था। लेकिन आप सब लोग मुझे विवश कर रहे हैं।
सुभद्रा को बात कुछ समझ में न आयी। एक क्षण के लिए प्रसाद ने अपनी दृष्टि नीचे की और फिर अचानक अपनी दीदी की ओर देखकर उसके दोनों हाथ पकड़कर कहा, ‘‘दीदी ! ये बातें कहते हुए मुझे दुःख हो रहा है। पहले मुझे वचन दो कि तुम माँ को क्षमा कर दोगी। तुम माँ को क्षमा कर दोगी न, दीदी ?
सुभद्रा ने पागलों की तरह अपने भाई की ओर देखकर सिर हिलाया, हाँ मैं माँ को क्षमा कर दूँगी।
प्रसाद ने एक गहरी साँस लेकर आरम्भ किया, माँ को तो पहले मामूली-सा ही बुखार आया था। लेकिन धीरे-धीरे वह टाइफाइड में बदल गया। तभी मैंने तुम लोगों को तार दिया था। तुम्हारे आने के दो दिन पहले यह घटना घटी। एक दिन...’’

पार्वती खाट पर कराहती हुई तड़प रही थी। डॉक्टर ने भी कहा अब उसका बचना मुश्किल है। फिर भी डॉक्टर अपने प्रयत्न में लगे रहे। प्रसाद अकेला और अनुभवहीन था। कुछ समझ में न आया कि क्या करें। दो दिन से तो पार्वती की हालत और भी गम्भीर होती जा रही थी।
डॉक्टर को बाहर छोड़कर आते हुए प्रसाद ने देखा कि माँ खूब रो रही है।
‘‘क्यों रो रही हो माँ ?’’ कहते-कहते प्रसाद का दुःख दुगुना हो गया।
कुछ देर तक पार्वती मौन रही। बाद में अपने बेटे के दोनों हाथ पकड़ कर उसने कहा, बेटे, मैंने—तुम्हारी माँ ने—एक बड़ा पाप किया है। इतने दिन मैंने यह रहस्य तुमसे छिपा कर रखा है। अब और छिपाये रखने से कोई फायदा नहीं है।’’
‘‘वह क्या रहस्य हैं, माँ ?’’ प्रसाद ने पूछा।
‘‘मुझे तुम सच्चे दिल से क्षमा करोगे न मेरे बेटे ?’’
‘‘कैसी बातें कर रही हो, माँ ? मैं और तुम्हें माफ करूँ ?’’ पुत्र को आश्चर्य हुआ।

पार्वती की आँखें भर आयीं। बस, इसके बाद पार्वती ने न कुछ कहा और न प्रसाद ने उससे कहलाने की कुछ चेष्टा ही की। उसी दोपहर को माँ का देहान्त हो गया। उसे देखकर प्रसाद को पहली बार अनुभव हुआ कि मृत्यु क्या है और कितनी खामोशी के साथ व्यक्ति के प्राणों को ले जाती है।
उत्तर क्रियाओं के दिन बीत गये। सारे रिश्तेदार एक-एक कर चले गये। माँ की यादों में खो-खोकर प्रसाद दुःखी होने लगा। अपनी माँ की प्यारी पेटी खोलने पर उसमें एक पत्र पड़ा मिला। प्रसाद ने उसे पढ़ा।
‘‘मेरे बेटे प्रसाद ! तुम्हारे पिता की मृत्यु के समय तुम और दीदी दोनों बहुत छोटे थे। घर-गृहस्थी मुझ अकेली को ही चलाना पड़ा। तुम्हारे बचपन में अपने ही गाँव में सोमसुन्दर नाम के सज्जन थे, जिन्होंने हम सबको आश्रय दिया। अगर वे सहारा न देते तो सारी सम्पत्ति कोई और हड़प ले जाता। बच्चों की भलाई के लिए मैंने उनकी हर एक बात मानी और उनके वश में हो गयी।

इन सब बातों को मैं तुम्हें कैसे बताऊँ ? इतने दिन मैने यह रहस्य छिपा कर रखा है। मेरे मरने के बाद ही तुम यह चिट्ठी पढ़ पाओगे। तब चाहे तुम मुझे कितना ही भला-बुरा कहो, मैं न जानूँगी और न देखूँगी। इसीलिए लिख रही हूँ। सोमसुन्दर के कारण मैं एक बार और माँ बनी। उन्होंने उस नन्हीं-सी जान को इस दुनिया में आने से रोकना चाहा। लेकिन मैं न मानी। गाँव के लोगों में इस बात के बारे में चर्चा होने लगी। हमारे परिवार को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया। उस गाँव में रहना मुश्किल हो गया।
इसीलिए सारी सम्पत्ति को बेचकर इस सुदूर प्रान्त में आकर बस गयी। तुम्हारे पिता के मरने के बाद जन्मे इस शिशु का क्या करें ? यही प्रश्न मेरे सामने था। न मैं उसे छोड़ सकती थी न रख सकती थी। दो बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने वाले इन हाथों से अपनी तीसरी सन्तान के प्राण न ले सकी। नन्हीं-सी बच्ची, हाथ-पैर हिलाते उस नादान जीव को लेकर मैं दिन रात सोच-सोचकर सन्तप्त होने लगी।...

लेकिन मेरे लिए उसे छोड़ना अनिवार्य हो गया। एक ओर सारा समाज राक्षस के समान मुझे खा जाने की ताक में था, दूसरी ओर तुम और तुम्हारी दीदी बड़े हो रहे थे। बड़े होने के बाद इस बात को जानकर तुम दोनों पता नहीं क्या सोचोगे, तुम्हें कितनी पीड़ा होगी और तुम्हारा भविष्य कैसा मोड़ लेगा-इन बातों को सोचकर मैं डर गयी। इसीलिए मैंने माँ की ममता का गला घोंट दिया। अपने बड़े दो बच्चों के भविष्य लिए तीसरी को अनाथ कर डाला। एक पिशाचिनी की तरह मैंने बर्ताव किया। किसी के मुख से मैंने आनन्दस्वामी का नाम सुना। एक दिन बड़े सवेरे ही जाकर उनके आश्रम के द्वार पर उस बच्ची को छोड़ आयी।

अभी तुम्हारी वह छोटी बहन उस आश्रम में ही है। हर वर्ष उसे मैं कुछ भेंट भेजती रही। लेकिन इस वर्ष मैं कुछ भी भेज न सकी। अन्तिम बार उसे देखने की इच्छा भी पूरी न हुई।...इस जीवन में अब यह सम्भव भी नहीं है। अपनी बेटी को इन हाथों से बड़ा करने का सौभाग्य मुझे न मिला। दुनिया और समाज के सामने मैं डर गयी और अपने दिल के टुकड़े को अनाथ कर डाला।...अब मैं उस अनाथ का—तुम्हारी अपनी छोटी बहन का भार—मैं तुम्हें सौंप रही हूँ। तुम चाहो तो बनाओ या बिगाड़ो, तुम्हारी मर्जी। मैंने गलती की है। फिर भी मुझे क्षमा कर देना।—तुम्हारी माँ।

पत्र पढ़ते ही प्रसाद थर-थर काँपने लगा और ‘माँ’ कहकर जोर से कमरे में चीख उठा। कमरे की चारों दीवारें गूँज उठीं।
‘‘दीदी ! दूसरे ही दिन में रवाना हुआ। आनन्दस्वामी को मैंने वह पत्र दिखाया। उन्होंने शकुन्तला को मेरे साथ भेज दिया। इतने वर्षों के बाद अपने को मिली—इस छोटी बहन को तुम्हें दिखाने के लिए लाया था और सोचा था कि इस आनन्द में तुम भी भागीदार बनोगी। शकुन्तला को यहाँ लाया। लेकिन तुमने मुझे गलत समझा। दीदी..माँ ने अपने बारे में सब कुछ बता दिया है। उन पर अब कलंक लगाना ठीक नहीं है। अपने ही बच्चे अपने को कोसें—किसी भी माँ के लिए यह असहनीय है। माँ ने अगर गलती की होगी तो भी तुम्हें उसे क्षमा करना ही होगा। वरन उसकी आत्मा तिलमिला उठेगी।’’ प्रसाद ने रुँधे हुए स्वर से अपना कहना पूरा किया।
सुभद्रा तो अब पागल जैसी चीखने लगी। ‘‘माँ तो बहुत अच्छी थी। मेरे भाई ! बहुत अच्छी।’’ कहती हुई, रोती हुई उसने अपना मुख अपने छोटे भाई के कन्धे पर रखा और हिचकियाँ लेती हुई बोली—‘‘माँ, कितनी अच्छी थी। इतनी अच्छी कि मेरे दोष को उसने अपने सिर पर उठा लिया। माँ, तुम अच्छी...बड़ी अच्छी माँ हो,” कहती हई सुभद्रा बिलखने लगी।

(अनुवाद : आर० सुमनलता)

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