माँ की जगह (निबंध) : केदारनाथ सिंह
Maan Ki Jagah (Hindi Nibandh) : Kedarnath Singh
कुछ दिन पहले माँ पर एक कविता पढ़ रहा था - किसी नए कवि की। कुछ पंक्तियाँ अच्छी लगीं बल्कि कहूँ तो छू गईं। पर मैं सोचने लगा कि यह माँ जो इधर की कविता में अक्सर दिखाई पड़ती है, वर्तमान समाज में उसकी जगह कहाँ है ? समाज नामक इस विराट इमारत में वह कौन-सा कमरा है, जो माँ का अपना कमरा है ? क्या ऐसा कोई कमरा है, या सिर्फ बरामदे या बाल्कनी का कोई छोटा-सा कोना है, जिसे एक वृद्धा माँ अपना घर समझती है। मैंने अपनी माँ समेत गाँव से लाई जाकर शहर में रहनेवाली अनेक माँओं को देखा है और पाया कि वे घर की सारी दिनचर्या से अलग एक कोने में बैठी आसमान देख रही हैं या बाहर उड़ती किसी चिड़िया को देखकर यह अन्दाज लगाने की कोशिश कर रही हैं कि दुनिया में आजकल हो क्या रहा है। यह हिला देनेवाला दृश्य होता है - कहीं गहरे तक मथनेवाला। पर कई बार मुझे लगता है कि यह 'हिलने' की क्षमता भी हम धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। एक वृद्धा माँ का घर के किसी कोने में इस तरह होना महज एक अति परिचित दृश्य है-जैसे मेज है या दीवार घड़ी। यह एक तकलीफदेह वास्तविकता है, पर है और इस तरह है कि उस पर अलग से सोचने-विचारने की जरूरत भी कम ही महसूस की जाती है।
आज से कोई दस-बारह साल पहले माँ को जब दिल्ली लाया था तो मन में एक अजब-सा उत्साह था कि माँ दिल्ली देखेंगी। तब से लगातार वह मेरे साथ है और मैं पाता हूँ कि उसकी चारपाई ही उसकी दिल्ली है और वह खिड़की ही उसकी दुनिया, जिस पर वह सबसे अधिक भरोसा करती है। अनजान उसके लिए कोई नहीं मिल जाने पर वह उड़िया, बंगाली या मद्रासी से भी उसी तरह बात करती है-अपनी ठेठ पुरबिहा भोजपुरी में - जैसे गाँव के किसी पड़ोसी से करती थीं। मुझे आश्चर्य तब होता है, जब लोग उसकी बात समझ भी लेते हैं। उसे विश्वास है कि सारी दुनिया भोजपुरी जानती है और एक दिन जब मैंने इसका खंडन किया तो उसने मुझे इस तरह देखा जैसे मैं झूठ बोल रहा होऊँ। अपनी बोली पर यह अगाध और नीरन्ध्र विश्वास सिर्फ एक माँ के पास होता है - वही माँ जिसकी स्थिति आधुनिक शहरी समाज में निरन्तर विडम्बनापूर्ण होती जा रही है। अकेली वह अपने गाँव के सुपरिचित परिवेश में भी हुई है, पर वहाँ पास-पड़ोस नाम की एक चीज अब भी जिन्दा है बहुत कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाने के बाद भी। इसलिए वहाँ अकेलापन शायद उतना भयावह नहीं होता।
मैं जब भी माँ की इस विडम्बनापूर्ण स्थिति के बारे में सोचता हूँ तो मुझे एक छोटी-सी घटना याद आती है। पिछली अमरीका- यात्रा में एक विचित्र आदमी से भेंट हुई - एक टिपिकल अमरीकी व्यवसायी, बहुत कुछ उस तरह का कटा छँटा और चौकोर, जिसे कुछ समाजशास्त्री 'स्क्वायर' कहते हैं। संयोगवश वह व्यक्ति विमान में मेरी बगल में बैठा था। देर तक वह अपने कुछ कागजों को उलटता-पलटता रहा और बीच में अपने गिलास से एक-आध 'सिप' भी ले लेता था। जब थोड़ा-सा अवकाश मिला तो मैंने उससे बातचीत शुरू की। उसने बताया कि वह शिकागो से आ रहा है और बोस्टन के रास्ते में है। आगे उसने यह भी जोड़ा जैसे बात का कोई जरूरी हिस्सा छूटा जा रहा हो - कि वह सीधे अपनी माँ को दफनाकर आ रहा है और उसके पास इतना भी समय नहीं था कि वह उपरान्त संस्कारों को पूरा करने के लिए रुक सके। यहाँ मुझे अचानक कामू का 'आउट साइडर' उपन्यास याद आया और मैं चकित था कि गल्प यथार्थ के कितना निकट हो सकता है! मैंने जब दबे स्वर में पूछा कि रुके नहीं तो उसने निहायत ठंडे स्वर में कहा - 'बिजनेस डज नाट वेट' (व्यवसाय इन्तजार नहीं करता)। आगे उसने स्पष्टीकरण दिया कि अगली सुबह ईरान से कालीनों की नई खेप आनेवाली है और यदि वह नहीं पहुँचा तो सब अस्त-व्यस्त हो जाएगा। उसे ईरान से आनेवाली कालीन और माँ के संरकार के बीच चुनना था और उसने कालीन को चुना। अपने व्यवसाय से उसका कितना गहरा जुड़ाव था, इसका पता मुझे तब चला जब उसने मेरी राष्ट्रीयता के बारे में पूछा। जब मैंने भारत का नाम लिया तो उसने लगभग चीखते हुए कहा - 'ओ ! भदोही... भदोही...' मुझे दुख हुआ और बेशक आश्चर्य भी कि मेरा इतना बड़ा देश और इतने सारे शहर और उनमें मछली की आँख की तरह सिर्फ उसे याद है 'भदोही' - वह भी इसलिए कि वहाँ कालीनें बनती हैं।
पर यही आदमी है, जिसे कमोबेश सारी दुनिया के बड़े शहरों में पूँजीनिष्ठ आधुनिक समाज ने रचा है। यह आदमी मछली की आँख की तरह सिर्फ 'भदोही' को देखता है। और हरेक का अपना एक अलग भदोही है और यदि नहीं है तो वह कहीं न कहीं उसकी तलाश कर रहा है। निजी लक्ष्य की ऐसी अचूक केन्द्रिकता शायद इससे पहले किसी समाज में नहीं थी और एक ऐसे समाज में वृद्धा माँ अगर कालीन से कमतर चीज़ होकर रह जाए तो इसमें आश्चर्य क्या ?
अभी दो दिन पहले ही लौटा हूँ-माँ को गाँव में छोड़कर। वह दिल्ली से दो महीने पहले गई थी और जब मैंने दिल्ली चलने का आग्रह किया तो बोली नहीं, अभी नहीं जाऊँगी-अभी बहुत से काम हैं। काम कोई नहीं है, यह मैं अच्छी तरह जानता था । फिर भी मैंने उसे वहाँ छोड़ दिया। एक बड़े से पुराने घर में उसे अकेले छोड़ना अपराध जैसा लग रहा था। फिर मैंने सोचा- उसे अपने सहज परिवेश से हटाकर दिल्ली में रखना भी तो अपराध ही है। और ऐसा अपराध हम करते हैं और कई बार इस तरह करते हैं जैसे वृद्धा माँ या वृद्ध पिता को गाँव से निकालकर एक उच्चतर जीवनलीला के परिसर में प्रवेश दिला रहे हों। जब माँ को गाँव में छोड़कर चौखट से बाहर निकल रहा था तो ये सारी बातें मेरे दिमाग में घूम रही थीं। पर अपने जाने-पहचाने चेहरों और अपनी बोली-बानी के बीच तो रहेगी। जानता हूँ, महीने दो महीने बाद जाऊँगा और उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध इस तरह उठा लाऊँगा जैसे किसी श्रवण कुमार-धर्म का निर्वाह कर रहा हूँ। पर यह करना ही होगा क्योंकि सौभाग्य से मैं या बृहत्तर भारतीय मानस के विकास (?) के उस स्तर तक नहीं पहुँचा है, जहाँ उसे 'भदोही' से परे कुछ दिखाई ही न पड़े। फिर भी यह कचोटता हुआ तथ्य तो रह ही जाता है कि माँ यदि लौटकर यहाँ आ भी गई तो उससे क्या समस्या का समाधान हो जाएगा ? फिर विकल्प क्या है ? जिस ढाँचे में हम डाल दिए गए हैं, उसमें सचमुच क्या कोई विकल्प है ?
यह सब लिखते हुए मुझे माँ पर लिखी असंख्य कविताएँ याद आ रही हैं। एक कवि ने तो यहाँ तक कहा था कि माँ पर कविता लिखी ही नहीं जा सकती और शायद उसने गलत नहीं कहा था। फिर भी माँ पर कविताएँ लिखी जाती हैं और लिखी जाती रहेंगी। पर आनेवाला पाठक ऐसी तमाम कविताओं को पढ़कर आनन्दित होने के बजाय, आधुनिक (या उत्तर आधुनिक ) समाज में एक उम्र की आँच में पकती हुई माँ की अनिश्चित जगह के कारण एक तीखे विडम्बना-बोध से विचलित होता रहेगा या इस विचलित होने की क्षमता को भी खोता जाएगा। यह तो माँ की स्थिति का बखान हुआ एक अन्य का जो इतना अभिन्न है। पर स्वयं माँ की दृष्टि में बेटे की तस्वीर क्या हो सकती है, इसका एक मार्मिक चित्र रूसी कवि रसूल हम्जातोव की एक छोटी-सी कविता में मिलता है। कविता का ठीक-ठीक पाठ मेरे सामने नहीं है। पर स्मृति के आधार पर उसका एक निकटतम पाठ यहाँ प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा हूँ। कविता माँ की ओर से बेटे का बखान है जो कुछ इस तरह है-
वह जब छोटा था
उसे बोलना नहीं आता था
वह सिर्फ तुतलाता था
और मैं उसकी हर बात समझ लेती थी
अब वह बड़ा हो गया है
और बहुत बोलता है
पर उसकी एक भी बात
मेरी समझ में नहीं आती
माँ का यह सीधा-सादा बयान आज की दुनिया में उसकी स्थिति पर एक तल्ख टिप्पणी है और शायद उस कारण की ओर इशारा भी, जिसके चलते वह और उसके द्वारा रची गई उसकी अपनी ही सृष्टि, दोनों लगभग अबोलेपन की हद तक अलग-थलग जा पड़े हैं।
('कब्रिस्तान में पंचायत' में से)