माँ और बेटा (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण

Maan Aur Beta (English Story in Hindi) : R. K. Narayan

जब वह आधा खाना खा चुका, रामू की माँ ने शादी का विषय फिर उठाया। रामू ने इतना ही कहा, 'तुम फिर यही बात करने लगीं?'

वह गुस्से से ज्यादा मजा ले रहा लगता था। इसलिए माँ ने एक-एक कर लड़की के अच्छे गुण गिनाये : उसके भाई की बेटी अब चौदह की हो रही है, देखने में अच्छी है और भाई अच्छा दहेज देने को तैयार है, वह खुद बूढ़ी हो रही है और घर की देखभाल के काम से छुट्टी चाहती है, वह कभी भी ऊपर जा सकती है और उसके पीछे रामू के लिए कौन खाना पकायेगा और कौन उसकी देखभाल करेगा? और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तर्क यह था : शादी के बाद आदमी का भाग्य पलटता है। 'फसल उस हाथ पर निर्भर नहीं करती जो हल पकड़ता है, उस पर करती है जो हॉडी पकड़ता है।'

शाम को पहले रामू की माँ ने तय किया था कि अगर रामू अब भी शादी से इनकार करता है या शादी की बात सुनते ही मुँह फुला लेता है, तो वह उसे अपने भाग्य पर छोड़ देगी। अगर वह चलती ट्रेन के आगे खड़ा हो जाता है, तो भी वह उसे वहीं अकेला छोड़ देगी। इसके बाद वह कभी उसके मामलों में दखल नहीं देगी। वह सोचने लगी कि वह कितने मजबूत किस्म की औरत थी, और लोगों को ऐसा ही होना चाहिए। यह सब तो ठीक है कि माँ का दिल बहुत मुलायम होता है, वगैरह, वगैरह. लेकिन माँ की भावनाओं की भी एक सीमा होती है। अगर रामू सोचता है कि वह माँ है, इसलिए वह जो चाहे कर सकता है, तो वह दिखा देगी कि उसका यह सोचना गलत है। अगर वह उसके फैसले को अनदेखा करता है और उसकी भावनाओं की कद्र नहीं करता, तो वह उसे दिखा देगी कि वह उसकी कितनी उपेक्षा कर सकती है।

इतनी सब तैयारी के बाद उसने शादी का विषय उठाया था और उसके पक्ष में बहुत से मजबूत कारण गिनाये थे। लेकिन रामू ने वे सब ठुकरा दिये और उसकी भतीजी की शक्ल की भी आलोचना की थी। इस पर उसने कह दिया, 'यह आखिरी बार है जब मैं यह चर्चा कर रही हूँ। इसके बाद तुम मेरी बला से! अगर मैं तुम्हें डूबते देखेंगी तो भी नहीं पूछूगी कि क्या बात है। समझ गये न?'

'हाँ 'रामू सोचता हुआ-सा बोला। वह चौथी दफा भी इन्टर की परीक्षा पास नहीं कर सका था, अब तक कोई नौकरी, बीस रुपये की भी, ढूँढ़ नहीं सका था। और यह माँ उसे हमेशा परेशान करती रहती थी। और चाचा की लड़की से ही! उसका आगे निकला दाँत देखकर कोई भी दहल जायेगा। वह इस लड़की से शादी करेगा, यह सोचना भी गलत है। वह चाहता था कि जब कभी शादी करे तो रजिया जैसी लड़की से, जिसे उसने हिन्दी की दो-तीन फिल्मों में देखा था। उसकी जिन्दगी परेशान और बेकार-सी चल रही थी, वह हर समय उदास और दुखी रहता, इधर-उधर घूमता या सोता रहता, या लायब्रेरी में बैठा पुराने अखबार देखता रहता था।

इस समय वह खाने के पते पर बैठा सोच रहा था। माँ उसे कुछ देर देखती रही, फिर बोली, 'मुझे तुम्हारे चेहरे से नफरत है। हर उस आदमी से नफरत है जो ऐसा चेहरा लिये पते के सामने बैठता है। दस दिन पहले विधवा हुई औरत का चेहरा भी तुमसे ज्यादा खुश नजर आता है।'

उसने जवाब दिया, 'तुम ये सब बातें इसलिए कह रही हो, क्योंकि मैंने तुम्हारे भाई की बेटी से शादी करने से मना कर दिया है।'

'मुझे तुम्हारी परवाह नहीं है। वह बड़ी भाग्यवान् लड़की है और उसे बहुत अच्छा पति मिलेगा।" रामू की माँ को उसका चिड़चिड़ा चेहरा पसंद नहीं था। ऐसा किसी का भी चेहरा उसे पसंद नहीं आता था। उसे उदासी अच्छी नहीं लगती थी। यह उसे असह्य थी। वह देर तक बोलती रही, तो लड़के ने कहा, 'अब बंद करो यह बकवास !'

माँ ने जवाब दिया, 'मेरी जिन्दगी खत्म हो रही है। बहुत जल्द अब मेरा बोलना बंद हो जायेगा। अब तुम मुझसे कहते हो, बकवास बंद करो। यह नौबत आ गयी है।'

'मैंने तो सिर्फ यह कहा है कि मुझे खा लेने का वक्त दो।'

'हाँ हाँ अब तुम्हें काफी समय मिलने लगेगा। जब मैं चली जाऊँगी तो तुम्हारे पास समय-ही-समय हो जायेगा, बेटा।'

रामू कुछ नहीं बोला। चुपचाप खाता रहा। माँ कहने लगी, 'मैं सिर्फ यह चाहती हूँ कि खाते समय तुम जरा ज्यादा आदमी दिखायी दिया करो।'

'यह खाना खाकर कैसे आदमी दिखा जा सकता है?'

'क्या कहा ?' माँ चीखकर बोली, 'इतने अच्छे हो तो और आदमियों की तरह कुछ कमाकर लाओ। पैसा फेंको और कहो कि क्या खाओगे। निकम्मे रहकर अच्छा खाना माँगते शरम नहीं आती!'

खाना खत्म करके रामू चप्पल पहनने लगा। माँ ने पूछा, 'कहाँ जा रहे हो?'

'बाहर... ' सूखा-सा जवाब देकर रामू दरवाजा छोड़कर घर से निकल गया।

माँ का दिन का काम निबट गया था। उसने रसोई धो डाली थी, बर्तन माँजकर करीने से लगा दिये थे और छोटी-सी झाड़ कोने में रखकर रसोई की खिड़की बंद कर दी थी।

फिर दरवाजा बंद करके, लालटेन हाथ में लेकर वह बाहर कमरे में आयी। सड़क का दरवाजा चौपट खुला था। लड़के की लापरवाही से उसे गुस्सा आया। यह इतना गैर-जिम्मेदार है कि घर का मुख्य दरवाजा खुला छोड़कर चला गया। यहाँ वह है कि रात-दर-रात रसोई और घर की घिस-घिसकर सफाई करती मरी जाती है। उसे यह सब नहीं चाहिए तो वही क्यों कर-करके मरती रहे ? अब इतना बड़ा हो गया है कि जिन्दगी की जिम्मेदारियों को समझ सके।

उसने अपना छोटा-सा लकड़ी का डिब्बा निकाला और उसमें से एक लौंग, एक इलायची और एक सुपारी का टुकड़ा निकालकर मुँह में रख लिया। इन्हें चबाते हुए उसे कुछ शांति का अनुभव हुआ। फिर दरवाजा उढ़काकर जमीन पर लेट गयी और सोने की कोशिश करने लगी।

रामू कहाँ गया होगा? यह सोच-सोचकर उसे परेशानी होने लगी। उठकर उसने चटाई लपेटी, बाहर आयी और वहीं चटाई बिछाकर लेट गयी। मन में भगवान् राम का नाम लेना शुरू कर दिया जिससे परेशानी कम हो। वह जपती जाती थी, 'सीता राम, सीता राम.।' लेकिन अचानक राम का नाम भूलकर रामू का नाम लेने लगी। उसकी फिक्र फिर लौट आयी थी। जाने से पहले उसने कहा क्या था ? 'मैं जरा टहलने जा रहा हूँ। फिक्र मत करना। जल्दी लौट आऊँगा..।" नहीं, यह नहीं कहा था उसने। वह यह कहने वाला लड़का नहीं है। यह लड़का अपने आनेजाने के बारे में कुछ बताता क्यों नहीं है? उसके इस व्यवहार से डर लगने लगता है। लेकिन, उसकी अपनी जबान भी तो बड़ी कड़वी और गुस्सा बड़ा तेज है। खाने के समय उसने जो बातें कहीं, वे अच्छी नहीं थीं। जिन्दगी में वह अपने इस स्वभाव से दुखी रही थी। उसे जब गुस्सा चढ़ता तो वह सब कुछ भूल जाती थी। वह जानती थी कि यदि वह कुछ कम बोलती तो उसका पति भी कुछ ज्यादा साल जिन्दा रह सकता था।. रामू ने खाने के बारे में कुछ कहा था। कल से वह सब्जियाँ ज्यादा बनायेगी और ज्यादा ध्यान देकर खाना पकायेगी।

यह सोचते-सोचते उसे नींद आ गयी। दूर कहीं एक बजे का घंटा बजा। अरे, एक बज गया! वह जागकर उठ बैठी और 'रामू रामू' पुकारने लगी।

उसे यह सोचते हुए डर लगने लगा कि रामू ने क्या किया होगा! फिर उसे विश्वास हो आया कि खाने के समय उसके शब्दों को सुनकर रामू ने आत्महत्या कर ली होगी। वह बैठ गयी और रोने लगी। रोना बढ़ता गया और हिस्टीरिया जैसा हो आया। भीतर भर रहे आँसुओं को निकालने के लिए आँखें बंद की तो कुकन हल्ली टैंक में रामू की लाश दिखायी देने लगी। उसकी धारीदार कमीज और मिल की धोती गीली होकर बदन से चिपक गयी थी। उसके चप्पल तालाब की सीढ़ी पर पड़े थे। चेहरा फूलकर कुप्पा हो गया था और पता नहीं चल रहा था कि किसका है!

वह जोर से चीखी और उठकर खड़ी हो गयी। फिर ओल्ड अग्रहार स्ट्रीट पर इधर-से-उधर तक दौड़ना शुरू कर दिया। सड़क खाली पड़ी थी। थोड़ी-थोड़ी दूर तक बिजली की बत्तियाँ चमक रही थीं। बहुत दूर एक तांगा खड़खड़ करता चला आ रहा था। तांगेवाला गाना गाता चल रहा था। तभी पुलिसवाले ने सीटी बजायी और वह चौंककर रुक गयी। उसे ख्याल आया कि यह उसकी कल्पना भी हो सकती है। हो सकता है, रामू नाटक देखने गया हो, जो सवेरे तीन बजे से पहले खत्म नहीं होता। उसने फिर तेजी से राम का नाम जपना शुरू कर दिया, जिससे रामू के ख्यालात आने बंद हो जायें।

उसकी सारी रात बेचैनी में बीती। वह सो जाती, फिर उठ बैठती, फिर आँख लग जाती और जब-जब घंटा बजता, चौंककर बैठ जाती। सवेरा हो गया, तीखी ठंड थी, और छह का घंटा बजा।

आँखों में आँसू भरे वह कुकन हल्ली तालाब की ओर चलने लगी। मैसूर शहर जागने लगा था। दूध वाले अपनी गायों को लिये धीरे-धीरे जा रहे थे। म्युनिसपैलिटी के भंगी लम्बी-लम्बी झाडुएँ लिये सड़कों की सफाई कर रहे थे। एक-दो साइकिलें भी उसके पास से गुजरी।

वह तालाब पर पहुँच गयी लेकिन पानी की तरफ देखने की हिम्मत न कर सकी। किनारे देखा तो पाया कि रामू एक बेंच पर पड़ा सो रहा है। एक सेकेंड के लिए उसने सोचा कि कहीं यह उसकी लाश तो नहीं है। उसने उसे पकड़कर जोर से हिलाया और चीखी, 'राम!" वह हिला, तो उसे तसल्ली हो गयी।

रामू उठकर बैठ गया और आँखें मलने लगा। बोला, 'तुम यहाँ क्यों आयीं, माँ?"

'तू यहाँ क्यों सो रहा है?"

'मुझे नींद आ गयी थी, 'उसने कहा।

'घर चलो।" वह उसका हाथ पकड़कर चलने लगी। लेकिन वह तालाब की सीढ़ियों की तरफ बढ़ा। माँ ने पूछा, 'कहाँ जा रहे हो?'

'मैं जरा हाथ-मुँह धोलूँ, " रामू ने कहा।

उसने रामू का हाथ कसकर पकड़ लिया और बोली, 'नहीं, पानी के पास मत जाओ।"

रामू ने उसकी आज्ञा मान ली, यद्यपि उसे माँ का यह आग्रह अजीब-सा लगा।

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