लुंबा (कहानी) : प्रकाश मनु

Lumba (Hindi Story) : Prakash Manu

1

स्मृतियों का रेला थमने में ही नहीं आता। भवानीपुर के घने और बीहड़ जंगल। उनकी अजब तरह की रोमांचकारी सुंदरता और उनमें अचानक किसी अचरज की तरह मिला लुंबा। जंगल का आदमी! ओह, आज भी याद करते हैं बावनदास तो सचमुच थरथरा उठते हैं।...

मगर उससे भी बड़ा कौतुक तो आगे होता है। लुंबा उनके देखते ही देखते शीलू में बदलता है और शीलू, उनका बेटा...किसी अबूझ जादू से लुंबा में बदल जाता है। वे असहाय से यह सारा नाटक देखते हैं और पसीने-पसीने हो जाते हैं। तभी अचानक उनके भीतर के आदिम जंगल को चीरती एक कड़क आवाज सुनाई देती है—खोलो, कारा खोलो! खोलो, कारा...! एक अनहद नाद जैसी गूँजती आवाज, और इसी के साथ उनकी नींद खुल जाती है। वे दौड़े-दौड़े शीलू के कमरे में जाते हैं—शीलू ठीक से बिस्तर पर सो रहा है न! ओह, ठीक...सब ठीक है!

और वे माथे पर हाथ रखे बरबस फिर उस अतीत में खो जाते हैं जिसमें एक दिन अचानक लुंबा ने प्रवेश किया था किसी कौतुक की तरह। पर फिर इस कौतुक पर लालच की काई और झाड़ियाँ उगने लगी थीं। और फिर...वे अपने घर और हर चीज से बेगाने हो गए थे। पूरी तरह हो ही जाते, मगर...!

मगर...? फिर चौंकते हैं बावनदास। जैसे उन्होंने अपनी आँखों से फिर लुंबा को देख लिया हो और बरसों पीछे चले गए हों...

2

हाँ, कोई बारह बरस पहले की बात है। भवानीपुर के जंगलों से गुजर रहे थे सेठ बावनदास। शानदार बग्घी, जिसमें उनके अलावा पाँच-छह नौकर-चाकर थे। अंगरक्षक भी। घोड़ों की टाप और बग्घी की टिक-टिक आवाज जंगल के सन्नाटे को चीरती जा रही थी।

कभी उनका ध्यान नौकरों की बातचीत पर चला जाता और कभी प्रकृति की अपरंपार सुंदरता उन्हें अपनी ओर खींच लेती। जिस पर दिल वाकई निसार होता था। कभी-कभी कोई हिरन दौड़ता नजर आ जाता। चीता, बारहसिंघा भी। बावनदास को जंगली जानवरों से कोई डर तो था नहीं। साथ में बल्लमधारी अंगरक्षक जो थे। मजे से प्रकृति का नजारा ले रहे थे। अचानक उन्हें अजीब-सी आवाज सुनाई दी, ‘कु-कू कुक्कू...कुक्...कुक्...कू...!!’

विचित्र लगा बावनदास को। ऐसी आवाज तो किसी जंगली जानवर की ही हो सकती है। कुछ और आगे गए, तो असलियत पता चली। सामने पेड़ों के झुरमुट में एक विचित्र जीव कलाबाजियाँ खा रहा था। देखने में मनुष्य जैसा, पर पूरे शरीर पर काले, घने बाल। बावनदास समझ नहीं पाए यह गोरखधंधा। उन्होंने नौकरों से पूछा।

बिरजू उनका बड़ा पुराना नौकर था। खासा समझदार भी। बोला, “मेरा तो खयाल है साहब, यह वनमानुष है!”

बीरू उठती हुई उम्र का नया नौजवान था। थोड़ा अक्खड़ और जोशीला। बोला, “नहीं-नहीं साहब, भालू है!...”

बावनदास ने गौर से देखा। समझ गए, यह जानवर न वनमानुष है और न भालू ही है। यह तो कोई आदमी है जो वर्षों से जंगल में, जंगली जानवरों के बीच रहते-रहते ऐसा हो गया है। उन्होंने इस तरह के किस्से सुने तो थे, लेकिन देखा आज ही था। बावनदास ने कौतुक भाव से बग्घी उसी ओर मुड़वा दी।

पेड़ों के झुरमुट के पास बग्घी रुकी, तो बिरजू और बीरू दोनों बल्लम लेकर कूदे। जंगली युवक भी तनकर खड़ा हो गया था। जैसे ही ये पास आए, उसने छलाँग लगाई। पैरों की ठोकर से उन्हें जमीन पर गिराकर भाग गया। बावनदास की आँखें क्रोध से लाल हो गईं। चिल्लाकर बोले, “पकड़ लो। भागने न पाए।”

अब बिरजू, बीरू, रामबहादुर, भोला सभी दौड़े। सबके पास बल्लम और लाठियाँ। कुछ दूर जाकर उन्होंने उस जंगली युवक को घेर लिया। वह बुरी तरह हाँफ रहा था। इतने लोगों से टक्कर लेने में कठिनाई आ रही थी। था भी निहत्था। अचानक लाठी की चोट खाकर वह जमीन पर गिरा। फिर तड़ातड़ और लाठियाँ पड़ीं। सारा शरीर लहूलुहान। बावनदास के नौकरों ने उसे पकड़ा। रस्सी से बाँधकर बग्घी में डाल दिया।

बावनदास की आँखों में चमक आ गई। सोचने लगे, “शहर में किसी ने न देखा होगा ऐसा विचित्र जीव। लोग दंग रह जाएँगे।”

3

घर आए, तो बावनदास ने अपने बेटे शीलू को बुलाया। वनमानुष जैसे दीख रहे, जंगली युवक को देख, शीलू खुशी के मारे तालियाँ बजाने लगा। लेकिन फिर कुछ और आगे आने पर उसने जंगली युवक के शरीर पर जगह-जगह खून के धब्बे देखे। शीलू उदास हो गया। बोला, “इसे बाँधा क्यों पिताजी?”

बावनदास हो-हो करके हँसे, “अरे, यह तो खिलौना है मेरे बेटे के लिए। जंगल में देखा, तो सोचा, शीलू खुश होगा इसे देखकर। सो ले चलूँ। मगर बगैर बाँधे यह आता कैसे? बड़ा ताकतवर है...!”

शीलू ने फिर कुछ और नहीं कहा।

बावनदास ने जंगली युवक के लिए लाल झँगोला सिलवाया। एक बड़ा-सा पिंजरा बनवाया। पिंजरे में बंद जंगली युवक को देखने के लिए आसपास के बच्चों की भीड़ लग गई। बावनदास ने उस जंगली युवक का राम रखा—लुंबा।

जल्दी ही पूरे शहर में चर्चा फैल गई कि इस बार बावनदास अपने साथ एक अनोखा जीव लाए हैं जो आदमी है मगर दिखता जानवर जैसा है। दिनोंदिन लुंबा को देखने वालों की भीड़ बढ़ती गई। आखिर बावनदास के मन में खयाल आया, “यह तो कमाई का बढ़िया धंधा है!”

अगले दिन लुंबा को देखने वालों के लिए उन्होंने पाँच रुपए का टिकट लगा दिया। रोज सैकड़ों लोग देखने आते। दिन भर में खूब कमाई हो जाती।

बावनदास को ऐसी उम्मीद न थी। खुश होकर उन्होंने लुंबा की खुराक बढ़ा दी। लेकिन लुंबा दिनोंदिन दुबला होता जा रहा था। उसके चेहरे पर उदासी साफ नजर आती। हाँ, अगर उसके चेहरे पर कभी चमक आती, तो केवल शीलू को देखकर। शीलू को भी लुंबा को देखे बगैर चैन न मिलता। कोई भी खाने-पीने की चीज हाती, तो वह दौड़कर लुंबा के लिए ले जाता। लुंबा को केले और अमरूद सबसे ज्यादा पसंद थे। शीलू चुपके से केले, अमरूद और मिठाइयाँ लुंबा को लाकर देता। फिर देर तक लुंबा को खाते देखता। लुंबा को खुश देख, उसे भी खुशी होती।

कुछ दिनों में लुंबा और शीलू की इतनी गहरी दोस्ती हो गई कि दोनों बगैर कुछ कहे, एक-दूसरे के मन की बात समझ जाते। वैसे भी लुंबा को तो जंगली बोली के सिवा कोई और भाषा आती ही नहीं थी। शीलू ने कुछ शब्द सिखा दिए थे। लुंबा अटपटे ढंग से उन्हें दोहराता, तो उसकी हँसी छूट जाती।

बावनदास ने जब देखा, शीलू दिन भर लुंबा के पास ही रहता है, तो उनको बेहद गुस्सा आया। उन्होंने शीलू को मना किया। न मानने पर डाँटा-फटकारा। फिर भी शीलू को लुंबा के पास जाए बगैर चैन न पड़ता। लुंबा के आगे भी एक नई ही दुनिया खुल रही थी। उसने पहली बार जाना था, इतना प्यार, ऐसी दोस्ती!

बहुत मना करने पर भी शीलू ने लुंबा के पास जाना कम नहीं किया, तो एक दिन बावनदास गुस्से से आगबबूला हो उठे। उन्होंने शीलू को कमरे में बंद करके ताला लगा दिया। चाबी पत्नी योगमाया को दे दी। कहा, “आज इसके खाने-पीने की छुट्टी। दिन भर कमरे में बंद रहेगा, तो होश ठिकाने आ जाएँगे। शाम से पहले मत खोलना।”

उसी दिन शीलू को बुखार आ गया। शाम को योगमाया ने दरवाजा खोला, तो उसका बदन तप रहा था। तुरंत डाक्टर आया। दवाई दे गया। कई दिनों तक शीलू चारपाई पर पड़ा रहा। इस बीच लुंबा ने न कुछ खाया, न पिया।

कुछ दिनों बाद ठीक हुआ शीलू, तो सबसे पहले लुंबा को देखने गया। लुंबा के चेहरे पर दुख की गहरी छाया थी। देखकर शीलू की आँखें भीग गईं। लेकिन वह चाहकर भी लुंबा को अपनी मजबूरी समझा नहीं सकता था। लुंबा भी बगैर भाषा जाने आखिर कैसे समझ पाता उसकी बात?

तभी शीलू के मन में एक विचार आया, ‘क्यों न लुंबा को आदमियों की तरह बोलना सिखाया जाए?’ स्कूल से पढ़कर आता, तो सीधा लुंबा के पास भागता। बावनदास को गुस्सा आता, लेकिन लाचार थे। समझते थे, शीलू को मार-पीटकर ठीक नहीं किया जा सकता। इधर शीलू की जिद भी बढ़ती ही जा रही थी, “पिताजी, लुंबा भी तो हमारी तरह मनुष्य है न! यह क्या नुमाइश के लिए है? पिंजरा खोलकर इसे बाहर निकालिए न, जिससे यह भी हमारी तरह घूम-फिर सके।”

“वाह! यह तो कमाई का जरिया है। कैसे छोड़ दूँ?” बावनदास ने मुँह बिचकाया।

लेकिन वह समझ गए, अब कुछ करना होगा। उन्होंने अपने एक मित्र से बात की। यह तय हुआ, लुंबा को बेच दिया जाए।

4

उन्हीं दिनों एक विदेशी सर्कस आया भवानीपुर में। उसमें तमाम जंगली जानवर थे। वे तरह-तरह के करतब दिखाते। भवानीपुर के सर्कस की खासी धूम थी। अच्छी-खासी आमदनी हुई।

सर्कस का मालिक था, माइकेल। खूब गोरा और लंबा अंग्रेज। चेहरे पर चालाकी और गर्वीलापन। आँखें छोटी-छोटी, नीली। उसे किसी ने लुंबा के बारे में बताया, तो वह खुशी से उछल पड़ा। दौड़ा-दौड़ा गया बावनदास के पास। आँखों में चमकती खुशी और काइयाँपन के साथ कहा, “आप लुंबा को बेच दीजिए। मुँह माँगी कीमत देने को तैयार हूँ। उसे मैं तमाम करतब सिखाऊँगा। और...!” वाकई माइकेल की प्रसन्नता छिप नहीं रही थी।

उसी समय वह लुंबा के पिंजड़े के पास गया। कोड़ा फटकारते हुए दो-एक इशारे किए। वह गौर से लुंबा के चेहरे का हाव-भाव देख रहा था। फिर अचानक उछल पड़ा, “हमारे बहुत काम का है यह।...मुझे हर हाल में लुंबा चाहिए सेठ जी! आप...आप तो यह बताइए, चेक पर कितनी रकम लिखूँ? आप जो बताएँगे, वही...!”

बावनदास तो यह चाहते ही थे। उन्होंने पचास हजार रुपए कीमत लगाई। माइकेल फौरन मान गया। तय हुआ, दो दिन बाद आकर माइकेल लुंबा को ले जाएगा।

दरवाजे के बाहर खड़ा शीलू भी यह सुन रहा था। उसे माइकेल के आने पर ही शंका हुई थी। और अब तो उसका शक सच में बदल गया था। उसका हृदय जैसे फटा जा रहा था। भूख-प्यास सब खत्म हो गई। एक ही धुन थी, “जैसे भी हो, लुंबा को बचाना होगा। वरना...”

वह लुंबा के पिंजरे के पास गया, तो लगा, लुंबा की आँखें प्रार्थना कर रही हैं, “मुझे बचा लो...मुझे बचा लो! सर्कस वाले मुझ पर अत्याचार करेंगे, मुझे आजादी चाहिए! फिर से जंगल में लौटना चाहता हूँ मैं...”

उसी दिन शाम के समय पिता बाहर गए, तो शीलू ने कमरे की एक-एक चीज खँगाल डाली। आखिर उसे चाबी दिखाई दी। अलमारी के ऊपर वाले खाने में पड़ी थी। उसने चुपके से चाबी उठा ली। रात को पिता आए, खाना खाकर सो गए। लेकिन शीलू को नींद कहाँ? आधी रात को उठा। दबे पाँव लुंबा के बाड़े की ओर बढ़ा। लुंबा शीलू के पैरों की आहट पहचान गया, लेकिन समझ नहीं पा रहा था, “शीलू यहाँ—इतनी रात गए, क्यों?”

तब तक शीलू ने पास आकर झट से, पिंजड़े का दरवाजा खोल दिया। हाथ के इशारे से कहा, “भाग जाओ, जल्दी...!”

लुंबा की आँखों में अचरज था। अचरज और खुशी एक साथ। अवर्णनीय खुशी।...जाने से पहले लुंबा देर तक एकटक शीलू को देखता रहा। फिर तेज कदमों से चलता हुआ गायब हो गया।

लौटकर शीलू ने चाबी फिर से पिता के कमरे में रख दी। चुपचाप अपनी चारपाई पर आकर सो गया।

सुबह बावनदास उठे तो पता चला, लुंबा गायब हो गया। लेकिन कहाँ, कैसे? कुछ भी पता न चला। पिंजरे में पहले की तरह ताला लगा हुआ था। चाबी भी अलमारी में रखी थी। तो फिर? समझ न पाए, क्या गड़बड़झाला है। उन्होंने पत्नी योगमाया से पूछा। नौकरों से भी जवाब-तलबी हुई, लेकिन कुछ पता नहीं चला।

अचानक बावनदास को खयाल आया, ‘शीलू कह रहा था, लुंबा को छोड़ने के लिए। कहीं उसने ही तो...!’

वह धमधमाते हुए शीलू के कमरे में गए। चिल्लाकर पूछा, “सच-सच बताओ, लुंबा कैसे भाग गया?”

एक क्षण के लिए शीलू के चेहरे पर डर की छाया दिखाई दी। लेकिन फिर गायब हो गई। शांत स्वर में बोला, “पिताजी, मैंने भागा दिया उसे। उसका कष्ट नहीं देखा जा रहा था। मैं नहीं चाहता था, आप उसे विदेशी सर्कस कंपनी को बेचें। इसलिए...!”

“तुम...! तुम्हारी यह मजाल?” गुस्से के मारे बावनदास थर-थर काँपने लगे। पता नहीं, कब उनका हाथ छड़ी पर गया और फिर—“सड़ाक!...सड़ाक!!”

शीलू की पीठ पर नीले-नीले निशान उभर आए। लेकिन आश्चर्य! वह चुप था। एकदम चुप। मुँह से सी तक नहीं।

5

बावनदास का क्रोध और बढ़ा। फिर से छड़ी उठाने वाले थे कि पीछे से योगमाया ने आकर रोक दिया, “अब बस भी कीजिए। पैसे के लोभ ने आपको अंधा कर दिया है। आप शीलू के मनबहलाव के लिए ही तो लाए थे लुंबा को। फिर उसने लुंबा को छोड़ दिया, तो इतना गुस्सा क्यों?”

बावनदास के चेहरे पर एक रंग आ रहा था, एक जा रहा था। उन्हें लगा, ‘हाँ, सच ही तो। लुंबा को नुमाइश के चीज बनाने के लिए थोड़े ही लाया था मैं जंगल से। यह तो मुझे बाद में सूझा और फिर...’

योगमाया ने फिर कहा, “आपने जिस जंगली बालक की आजादी छीन, नुमाइश की चीज बना दिया, उसे शीलू ने आदमी बनाने की कोशिश की, ढेर-सा प्यार देकर। आपसे यह भी बर्दाश्त नहीं हुआ। आपकी बेशुमार धन-दौलत किस काम की, अगर वह आदमी को आदमी नहीं बना पाती? और फिर आप खुद भी तो कितने बदल गए! अपने ही बेटे को बेरहमी से पीटते हुए तकलीफ नहीं हुई...?”

बावनदास की आँखों के आगे से जैसे परदा हट गया। मन ग्लानि से भर गया।

उन्होंने शीलू की ओर देखा, चेहरे पर दर्द की रेखाएँ, लेकिन शांत। जैसे कुछ हुआ ही न हो। रुँधे गले से बोले, “बेटे, मैं अपनी मनुष्यता भूल गया था। जंगली बालक को आदमी तो बना नहीं सका, उलटे मैं खुद जानवर बन गया!” कहते-कहते उन्होंने शीलू को छाती से लगा लिया।

6

उस दिन के बाद बावनदास जब-जब जंगल से गुजरते हैं, उन्हें लगता है, झाड़ियों की ओट से कोई छाया-आकृति उन्हें देख रही है। और फिर किलकारी जैसी आवाज सुनाई देती है, जैसे लुंबा उन्हें धन्यवाद दे रहा हो। लेकिन बावनदास अब रुकते नहीं हैं। तेज कदमों से आगे बढ़ जाते हैं।

हालाँकि वह पीछा कहाँ छोड़ता है! जिद्दी, महा जिद्दी है लुंबा। फिर-फिर वह सपने में आता है और फिर...?

अचानक सपना देखते-देखते वह ठिठके। फिर कोई छायाकृति है, जो बार-बार आँखों के आगे से गुजरती है। घबराकर उन्होंने आँखें खोल दी।

आँख खुली तो सामने शीलू! शीलू न जाने कहाँ से आकर वहाँ खड़ा हो गया था और उन्हें अचरज से देख रहा है। उन्होंने उठकर शीलू का कंधा थपथपाया और बाहर आँगन की ओर निकल गए।

शीलू कुछ समझा कुछ नहीं, पर उसके होठों की मुसकान कह रही है कि जीत उसकी हुई है। उसकी नहीं, लुंबा की!

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