लोग लोहे की दीवारों वाले मकान में कैद हैं (भूमिका-‘ललकार’) : लू शुन
Log Lohe Ki Deewaron Wale Makaan Mein Kaid Hain (Bhumika-'Lalkaar') : Lu Xun
(कहानियों के प्रथम संग्रह ‘ललकार’ की भूमिका)
लड़कपन था तो मेरे मन में भी बहुत से स्वप्न थे। उनमें से अधिकांश स्वप्नों को भूल चुका हूं। इस बात के लिए मन में कोई मलाल नहीं है। हां, कभी अतीत की याद से सुख भी होता है, पर कभी वह स्मृति मन में एक सूनापन भी भर देती है। सूनेपन से भरे अतीत की बातों की याद करते रहने से लाभ भी क्या? पर मुसीबत यह है कि अतीत को पूरी तरह भूल भी तो नहीं पाता। जो कुछ भूल नहीं सका, उसी का परिणाम ये कहानियां हैं।
चार वर्ष से भी अधिक समय तक एक ऐसी अवस्था रही कि प्राय: प्रतिदिन ही कुछ न कुछ गिरवी रख आने के लिए महाजन के पास जाना पड़ता था और फिर दवाई की दुकान की दुकान पर जाता था। ठीक–ठीक याद नहीं कि उस समय मेरी आयु कितनी थी; यह जरूर याद है कि दवाई की दुकान पर जाता तो मेरा सिर काउण्टर तक पहुंच जाता था और महाजन के यहां का काउण्टर मेरे शरीर से दूनी ऊंचाई पर था। उसके यहां जो कुछ भी कपड़ा–लत्ता या चीज–बस्त गिरवी रख आने के लिए ले जाता, उसे बांह उठाकर महाजन के हाथ में देना होता। महाजन बड़े तिरस्कार के साथ जो कुछ दे देता, मैं ले लेता और दवा खरीदने चला जाता। दवाई की दुकान पर काउण्टर ऊंचा होने की कठिनाई नहीं थी। पिता काफी अरसे से बीमार थे। उनके लिए दवाई खरीदनी होती थी। घर लौटने पर करने को बहुत कुछ होता था। एक बड़े नामी हकीम पिता का इलाज कर रहे थे। वे बहुत विचित्र–विचित्र नुस्खे और दवाइयां तजवीज करते थे : जाड़े के मौसम में खोदी हुई घीकुंवार की जड़, तीन साल तक ओस–पाले में रखा हुआ गन्ना, झींगुर की जोड़ी, अजीब गंध और महक भरी जड़ी–बूटियां…ये औषधियां प्राय: दुष्प्राप्य होती थीं। परन्तु मेरे पिता का रोग बढ़ता ही गया और वे चल बसे।
मैं समझता हूं सुख–समृद्धि के अच्छे दिन देख लेने के बाद जिन्हें दरिद्रता का जीवन बिताना पड़ता है वे संसार और समाज की वास्तविकता को खूब अच्छी तरह देख–परख सकते हैं। मैं चाहता था कि N-जाकर K-¹ स्कूल में भरती हो जाऊं। कारण शायद यह था कि मै अपने यहां के माहौल से ऊब गया था और एक नए माहौल में जाना चाहता था। मां विवश थीं। मेरी यात्रा के लिए आठ डालर जुटाकर मुझे अपने मन की कर लेने दें, इसके सिवाय उनके सामने कोई उपाय नहीं था। उस समय ग्रन्थों को पढ़कर सरकारी इम्तहान पास कर लेना ही सम्मानजनक समझा जाता था। जो कोई “विदेशी विषयों” को पढ़ता था, उसे हिकारत की नजर से देखा जाता था और यह समझा जाता था कि वह मजबूर होकर अपनी आत्मा विदेशी दरिन्दों को बेच चुका है। इस पर मां को मेरे विछोह का भी दुख था। जो हो, में N-चला ही गया और K-स्कूल [1] में दाखिल भी हो गया। वहां जाकर पहली बार मालूम हुआ कि प्राकृतिक–विज्ञान, अंक–गणित, भूगोल, इतिहास, ड्राइंग और शारीरिक व्यायाम आदि विद्याओं का भी अस्तित्व है। स्कूल में शरीर–विज्ञान की शिक्षा नहीं दी जाती थी, परन्तु “मानव–शरीर–रचना का नया कोर्स” और “रसायन–विज्ञान तथा स्वास्थ्य–रक्षा पर लेख” जैसी रचनाएं, जो लकड़ी के ब्लाकों से छपी होती थीं, हमारे हाथों में पड़ ही जाया करती थी। उससे पूर्व सुनी वैद्यों ओर हकीमों की बातों और उनके नुस्खों को याद करके तथा नई पढ़ी पुस्तकों से उनकी तुलना करके मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि वे लोग या तो अज्ञानी लाल–बुझक्कड़ थे अथवा धूर्त थे। ऐसे हकीम–वैद्यों के हाथ पड़ने वाले रोगियों और उनके परिवारों पर मुझे दया आती। इतिहास की पुस्तकों के कुछ अनुवाद भी पढ़े। मालूम हुआ कि जापान में भी सुधारों का आरम्भ बहुत हद तक उस देश में पश्चिमी चिकित्सा–शास्त्र का परिचय पहुंचने से ही हुआ।
इन विचारों से प्रभावित होकर मैं जापान चला गया और एक प्रान्तीय मेडिकल कालेज में भर्ती हो गया। उस समय कल्पना थी कि चीन में मेरे पिता की ही तरह लाखों अभागे ऐसे हैं जो उचित इलाज नहीं पा रहे। लौटकर उनका उचित इलाज कर सकूंगा। यदि युद्ध आरम्भ हो गया तो सेना में डाक्टर के रूप में सेवा कर सकूंगा और साथ ही अपने देशवासियों में सुधार की प्रेरणा का प्रचार करने का यत्न करता रहूंगा।
नहीं मालूम कि आजकल चिकित्सा–शास्त्र के स्कूल–कालेजों में सूक्ष्म–जीव विज्ञान पढ़ाने के लिए किस प्रकार के नये–नये साधन उपयोग में लाये जा रहे हैं। जब मैं चिकित्सा– विज्ञान पढ़ रहा था तो सूक्ष्म–जीवों का परिचय विद्यार्थियों को लालटेन– स्लाइडें दिखाकर दिया जाता था। कभी व्याख्यान समय से पहले समाप्त हो जाता तो अध्यापक समय पूरा करने के लिए प्राकृतिक दृश्यों अथवा समाचारों की स्लाइडें दिखा देते थे। उन दिनों रूस–जापान युद्ध चल रहा था, इसलिए युद्ध की फिल्में काफी आती रहती थीं। मुझे भी दूसरे विद्यार्थियों के साथ बड़े उत्साह से लेक्चर–हाल में तालियां बजानी पड़ती थीं और हर्षनाद करना पड़ता था। बहुत दिन से अपने किसी देशवासी को नहीं देखा था। एक दिन एक फिल्म में कुछ चीनी दिखाई दिये। एक चीनी की मुश्कें बंधी हुई थीं और दूसरे कई चीनी उसे घेरे हुए खड़े थे। ये लोग काफी तगड़े जवान थे, परन्तु उनके चेहरे बिल्कुल भावशून्य नजर आ रहे थे। बताया गया कि मुश्कें बंधे चीनी पर रूसियों का जासूस होने का आरोप था। जापानी सैनिक इस चीनी की गर्दन काटने के लिए उसे मैदान में लाये थे। यह दण्ड दूसरे चीनियों को चेतावनी देने के लिए मैदान में दिया जा रहा था, जबकि बाकी चीनी यह तमाशा देखने के लिए आ जुटे थे।
शिक्षा–सत्र समाप्त होने से पहले ही मैं टोकियो चला गया, क्योंकि उक्त घटना के बाद मुझे लगा चिकित्सा– विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है। पिछड़े हुए और निर्बल राष्ट्र के लोगों के शरीर चाहे कितने ही बलवान और स्वस्थ क्यों न हों, उनका उपयोग दण्ड देने के लिए अथवा दण्ड देने का तमाशा देखने के लिए ही किया जा सकता है; अगर ऐसे लोग रोग से घुल–घुल कर मर भी जायें, तो भी कोई अधिक दुखदाई बात नहीं। सबसे महत्वपूर्ण बात तो है लोगों की भावना को बदलना। तब यही जान पड़ा कि इस प्रयोजन के लिए साहित्य ही सबसे अधिक उपयोगी हो सकता है। इस विचार से मैंने एक साहित्यिक आन्दोलन आरम्भ करने का निश्चय कर लिया। उस समय टोकियो में बहुत से चीनी विद्यार्थी थे। वे कानून, राजनीति–शास्त्र, भौतिक–विज्ञान और रसायन–शास्त्र पढ़ रहे थे, कुछ पुलिस के काम की अथवा इंजीनियरिंग की शिक्षा भी ले रहे थे, परन्तु साहित्य और कला का अध्ययन कोई भी नहीं कर रहा था। इस प्रतिकूल परिस्थिति में भी भाग्यवश मुझे अपनी भावना से सहमत कुछ लोग मिल गये। हमने कुछ और लोगों को भी, जिनकी हमें जरूरत थी, अपने साथ मिला लिया और आपस में विचार–विमर्श करने के बाद एक पत्रिका आरम्भ करने का निश्चय कर लिया। सोचा, पत्रिका के नाम से नये जीवन का बोध होना चाहिए। उस समय हमें लोगों की साहित्यिक रुचि में प्राचीनता के प्रति झुकाव था, इसलिए पत्रिका का नाम रखा गया “शिन शङ” (नवजीवन)।
जब इस पत्रिका को छपवाने का समय आया तो हमारे कई सहयोगी खिसक गये। जो धनराशि हमने जमा की थी वह भी कम हो गई। अन्तत: हम तीन ही ऐसे साथी रह गये जिनके पास पैसा–वैसा बिल्कुल नहीं था। पत्रिका का आरम्भ ही कुछ अशुभ घड़ी में हुआ था, अपनी असफलता के लिए भला किसे दोष देते। कुछ दिन बाद किस्मत ने हम तीनों को भी एक साथ नहीं रहने दिया। हमारे भावी सपने साकार नहीं हो सके और “नवजीवन” के प्रकाशन के प्रयत्न गर्भ में ही समाप्त हो गये।
कुछ समय बीतने के बाद ही मुझे अपने उत्साह की निस्सारता अनुभव होने लगी; इससे पहले दरअसल मैं कुछ नहीं समझ पाता था। बाद में यह बात समझ में आने लगी कि लोग हमारे प्रयत्न का समर्थन करें तो उत्साह पाना स्वाभाविक ही है। यदि लोग हमारे विचार का विरोध करें तो हम उनसे लोहा लेने के लिए आगे बढ़ सकते हैं। परन्तु जब हम समाज में कोई बात उठायें और लोग न उसका समर्थन करें न विरोध ही करें, चारों ओर उपेक्षा ही हो, तो आदमी क्या करे? तब ऐसा लगता है मानो हम किसी निस्सीम बियाबान में खड़े व्यर्थ ही चिल्ला रहे हों, कुछ कर सकने का कोई उपाय न हो। मैं अपने आपको निस्सहाय अनुभव करने लगता।
एकाकीपन की यातना दिन पर दिन बढ़ती ही गई। लगता था एकाकीपन का विषैला अजगर मुझे चारों ओर से जकड़ता जा रहा है। मन पर भारी बोझ था, पर क्रोध किस पर करता, क्योंकि इस अनुभव से मैंने यह देख लिया था कि मुझमें शौर्य का अभाव है, अपनी पुकार पर असंख्य लोगों को गोलबन्द कर सकने की क्षमता का अभाव है। एकाकीपन की यह अनुभूति मुझे बहुत यातना दे रही थी, इसलिए इससे मुक्ति पाना मेरे लिए आवश्यक था। किसी बात की चिन्ता न करने और अपने आपको भुला देने के बहुत यत्न किये। कभी अपने आपको सामयिक परिस्थिति के अनुकूल बना लेना चाहा, कभी अपने राष्ट्र के अतीत में खो जाना चाहा। बाद में मुझे और भी अधिक एकाकीपन और सूनापन अनुभव होने लगा। उन सबको याद करने से क्या लाभ, बेहतर यही होगा कि ये स्मृतियां मेरे ही साथ काल के मुंह में चली जायें। फिर भी मन के उस बोझ को भुला देने का प्रयत्न असफल न रहा-मैं यौवन के उत्साह और स्फूर्ति से वंचित हो चुका था।
होस्टल में तीन कोठरियां थीं। आंगन में एक बबूल का पेड़ था। लोग कहते थे कि उस मकान में कोई औरत रहती थी, जो आंगन के पेड़ की डाल से फांसी लगाकर मर गई थी। अब पेड़ इतना ऊंचा हो गया था कि उसकी डालियों को छू पाना आसान नहीं था। मगर मकान खाली पड़ा था। कुछ वर्षों तक मैं इसी मकान में रहा और पुराने शिलालेखों की प्रतिलिपियां बनाता रहा। बहुत कम लोग मुझसे मिलने आते। उन पुराने शिलालेखों में राजनीतिक समस्याओं अथवा मामलों का कोई प्रसंग नहीं हो सकता था। बस यही इच्छा थी कि शेष जीवन इसी प्रकार चुपचाप बीत जाए। गर्मियों में रात के समय इतने मच्छर हो जाते कि उनसे बचने के लिए एक पंखा हाथ में लेकर बबूल के पेड़ के नीचे बैठ जाता, और घने पेड़ के बीच से जहां–तहां दिखाई देते आकाश की ओर टकटकी लगाये रहता। पेड़ की डालियों और पत्तियों से बर्फ जैसी ठण्डी सुंडियां सहसा मेरी गर्दन पर टपक पड़ती थीं।
चिन शिन–ई, जो मेरा पुराना मित्र था, कभी–कभी मिलने या बातचीत करने आ जाता। चिन आता तो अपना बड़ा–सा बस्ता टूटी मेज पर रख देता और अपना लम्बा चोगा उतारकर मेरे सामने बैठ जाता। पीछा करते कुत्तों के भय से उसकी सांस उखड़ी–उखड़ी लगती थी।
एक दिन शाम के वक्त पुराने शिलालेखों की मेरी बनाई प्रतिलिपियों को देखकर चिन कौतूहलवश पूछ बैठा, “ये प्रतिलिपियां बनाने से लाभ क्या है?”
“कुछ भी नहीं।”
“तो फिर इसमें समय क्यों बर्बाद करते हो?”
“समय काटने के लिए।”
“इससे तो अच्छा है तुम स्वयं कुछ लिखो…।”
चिन का अभिप्राय मैं समझ गया। वह कुछ लोगों के साथ मिलकर एक पत्रिका “नया नौजवान”¹ निकाल रहा था। पत्रिका की ओर लोगों ने विशेष ध्यान नहीं दिया था, न उसका समर्थन किया था न विरोध। मुझे लगा कि वे लोग भी एकाकीपन अनुभव कर रहे हैं, सहयोग चाहते हैं। कुछ सोचकर मैंने कहा :
“कल्पना करो, लोहे की मोटी दीवारों वाला मकान है। न कोई दरवाजा है और न खिड़की या रोशनदान। वायु के लिए कोई मार्ग नहीं है। दीवारें बिल्कुल दुर्भेद्य हैं। मकान में बहुत से लोग बेसुध सोये हुए हैं। निश्चय ही वे लोग दम घुटकर मर जायेंगे। परन्तु बेसुधी से मरेंगे इसलिए उन्हें कोई कष्ट अनुभव नहीं होगा। तुम चीख–चिल्लाकर उन्हें जगाना चाहो तो संभव है कुछ एक की नींद उचट भी जाये। दम घुटने से उनकी मृत्यु निश्चित है। यदि कुछ अभागे जाग जायें और निश्चित मृत्यु की यातना अनुभव करें तो इससे उनका क्या भला होगा?”
“अगर कुछ की नींद उचट सकती है, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि उस लौह–कारागार को तोड़ने की कोई आशा नहीं है?”
यह सच है कि मैं आशा छोड़ चुका था, परन्तु यह कैसे कह देता कि आशा थी ही नहीं! आशा तो भविष्य होती है, उसके विषय में कैसे इंकार कर देता? अपनी निराशा का उदाहरण देकर उसकी आशा पर कुठाराघात नहीं कर सका। मान लिया, लिखूंगा। परिणाम हुआ मेरी पहली कहानी “पागल की डायरी”। तब से लिखता ही गया। जब भी मित्र कहते, छोटी–मोटी कहानी लिख डालता। इस तरह बारह से अधिक कहानियां लिख डालीं।
जहां तक मेरा अपना सम्बन्ध है, अभिव्यक्ति की या कुछ लिखने की उमंग अब नहीं आती, परन्तु शायद अतीत में सहे हुए एकाकीपन के दुख को पूरी तरह भुला नहीं पाता। इसलिए जो साहसी और बांकुरे सहयोग और सहायता की परवाह न कर एकाकीपन के बियावान में भी सरपट चले जा रहे हैं, उनका साहस बढ़ाने के लिए पुकार उठता हूं कि वे बियावान से घबराकर हिम्मत न हार बैठें। मेरी इस पुकार में ललकार है अथवा क्रन्दन, वह घिनौनी है अथवा हास्यास्पद, इसकी मुझे चिन्ता नहीं। परन्तु यह ललकार जरूर है, इसलिए मुझे अपने सेनानी के आदेश पर चलना है। यही कारण है कि मैं अक्सर वक्रोक्ति का प्रयोग करता हूं। उदाहरण के लिए, मैंने “औषधि” कहानी में बेटे की कब्र पर बिना किसी आधार के फूल रखे हुए दिखा दिये हैं और “कल” कहानी में यह स्पष्ट नहीं किया कि चौथे शान की पत्नी स्वप्न में अपने बेटे का देख पाई या नहीं, क्योंकि उन दिनों हमारे नेता निराशावाद के विरोधी थे। मैं स्वयं निराश और निरुत्साह की यातनाओं का अनुभव कर चुका था तथा उमंग और साहस भरे सुखदस्वप्न देखने वाले नवयुवकों के उत्साह पर तुषारापात नहीं करना चाहता था। ऐसे स्वप्न मैं अपने यौवन–काल में बहुत देख चुका था।
यह स्पष्ट है कि मेरी कहानियां कला की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकेंगी। फिर भी यह मेरा सौभाग्य है कि लोग इन्हें कहानियां मान लेते हैं और इनका संग्रह भी प्रकाशित हो सका है। हालांकि मुझे अपने इस सौभाग्य पर स्वयं संकोच होता है, तो भी यह अच्छा लगता है कि कम से कम अभी तक लोग इन कहानियों को पढ़ना चाहते हैं।
अब मेरी कहानियां संग्रह के रूप में फिर से प्रकाशित हो रही हैं। उपर्युक्त परिस्थितियों को ध्यान में रखकर इस संग्रह के लिए मुझे “ना हान” (ललकार) ही उचित शीर्षक जंचता है।
3 दिसम्बर 1922, पीकिङ
[1] नानकिङ में च्याङनान नौसेना अकादमी