छोटी लाल मुर्गी : ब्रिटेन की लोक-कथा

Little Red Hen : British Folk Tale

एक छोटी लाल मुर्गी एक पहाड़ी की तलहटी में अकेली अपनी झोंपड़ी में रहती थी। हर सुबह वह अपना घर झाड़ बुहार कर, दरवाजा बन्द कर और उसकी चाभी अपने ऐप्रन की जेब में डाल कर बाजार जाया करती थी।

उसी पहाड़ी की चोटी पर एक चालाक लोमड़ा अपनी माँ के साथ जंगल में रहता था। रोज सुबह उसकी माँ एक बड़े से बरतन में पानी भरती थी और उसको उबलने के लिये रख देती थी।

उस समय वह लोमड़ा अपने होठ चाटता हुआ बोलता था — “माँ, तुम क्या बना रही हो? आज मुझे गोश्त चाहिये। मुझे दस के बराबर भूख लगी है।”

और उसकी माँ जवाब देती — “उँह, दस के बराबर भूख? तो जाओ और उस लाल मुर्गी को पकड़ कर लाओ।”

रोज रोज वह लोमड़ा यह सुनते सुनते तंग आ गया था सो एक दिन उसने सोचा कि आज वह लाल मुर्गी को पकड़ कर ही लायेगा। सो वह लोमड़ा उस लाल मुर्गी की झोंपड़ी की तरफ चल दिया।

उसने उसकी झोंपड़ी के दरवाजे का हैन्डिल इधर घुमाया उधर घुमाया, पर वह दरवाजा नहीं खुला तो वह निराश हो कर घर लौट आया और घर पर अकेले ही बैठ कर उस मुर्गी को पकड़ने के बारे में कुछ सोचने लगा।

उसने सोचा — “अगर मैं दस लोमड़ों के बराबर खाना खाना चाहता हूँ तो मुझे उस लाल मुर्गी को पकड़ कर लाना ही होगा।

कल मैं तड़के ही उठ कर उस मुर्गी के घर के बाहर उसके निकलने का इन्तजार करूँगा।”

सो अगले दिन वह सुबह तड़के ही उठा। उस समय सभी सोये हुए थे। उसने अपने साथ एक बड़ी थैली और एक छोटी रस्सी ली और सूरज निकलने से पहले ही वह लाल मुर्गी की झोंपड़ी के पास पहुँच गया और छिप कर उसके बाहर निकलने का इन्तजार करने लगा। भीतर से मुर्गी के अपने घर को झाड़ने बुहारने की आवाज आ रही थी। घर झाड़ बुहार कर जल्दी ही वह बाहर आ गयी और दरवाजा खुला छोड़ कर वह पास वाले पेड़ के नीचे से लकड़ियाँ चुनने चली गयी।

लोमड़े के लिये यह अच्छा मौका था सो वह मुर्गी के घर में घुस गया और एक आराम कुरसी पर छिप कर बैठ गया।

इतने में ही मुर्गी लकड़ियाँ चुन कर घर वापस आ गयी। वे लकड़ियाँ उसने अंगीठी के पास रख दीं और फिर उनमें आग लगाती हुई बोली — “लकड़ियों, मैं आग लगाती हूँ तुम जलो।”

इतने में ही लोमड़े को खाँसी आ गयी और वह बोला — “बहुत सुन्दर।”

मुर्गी बोली — “टुक टुक, कौन है यहाँ? टुक टुक।”

और वह डर के मारे काँप गयी। उसके सामने तो लोमड़ा खड़ा था। अब क्या था, वह इस कोने से उस कोने में भागने लगी।

लोमड़े ने भारी सी आवाज में कहा — “जब तुम चावल के साथ पकोगी तब तुम में स्वाद आयेगा।”

छोटी लाल मुर्गी चिल्लायी — “भागो, भागो यहाँ से।”

डरी हुई लाल मुर्गी उड़ कर लकड़ी के एक लठ्ठे पर बैठ गयी। वह इतनी डरी हुई थी कि लोमड़े पर से अपनी आँख नहीं हटा पा रही थी।

दाँत किटकिटाते हुए और अपनी लाल जीभ बाहर निकालते हुए लोमड़े ने उसकी तरफ घूरा और फिर धीरे से अपनी पूँछ पर बैठ कर उसने जो चक्कर काटना शुरू किया तो वह घूमता ही रहा, घूमता ही रहा, घूमता ही रहा पर उसकी आँखें मुर्गी पर ही लगी रहीं।

अब तो मुर्गी इतनी ज़्यादा डर गयी कि वह लोमड़े के सामने ही जा गिरी और लोमड़े ने तुरन्त ही उसे पकड़ लिया और बोला — “अहा, पकड़ लिया। मैंने तुम्हें पकड़ लिया। अब मैं तुम्हें थैली में बन्द करूँगा और फिर उसे रस्सी से बाँधूंगा।

मुझे दस के बराबर भूख लगी है, ओ लाल मुर्गी। मेरी माँ तुझे पकायेगी और पका कर तुम्हें गरम गरम मेरे सामने परोसेगी। चावल तो अच्छे होते ही हैं परन्तु तुम्हारा स्वाद तो निराला है।”

सो लोमड़े ने उसे एक थैली में बन्द किया और थैली का मुँह रस्सी से बाँध कर अपने घर चल दिया।

वह कहता जा रहा था — “मेरे इस बड़े थैले के अन्दर लाल मुर्गी है। मैं उसे अपने घर ले जा रहा हूँ। जब मैं घर पहुँचूँगा तो बोलूँगा कि मैं शाम का खाना ले आया हूँ।”

इस विचार से लोमड़े को और भी ज़्यादा भूख लग आयी कि शाम को उसे यह मुर्गी खाने को मिलेगी और वह और ज़्यादा तेज़ तेज़ चल दिया।

परन्तु पहाड़ी की चढ़ाई बहुत ऊँची थी और धूप भी बहुत तेज़ थी सो वह बहुत जल्दी ही हाँफने लगा। आखिर वह बीच रास्ते में बैठ गया और पानी पीने के बारे में सोचने लगा।

उसने थैली कन्धे से उतारी और एक गड्ढे में छिपा दी और पानी की खोज में जंगल में चल दिया।

थैली के अन्दर से मुर्गी सब सुन रही थी। वह बड़ी खुश हुई। जब लोमड़ा चला गया और उसके कदमों के आने की आवाज आनी बन्द हो गयी तो अपने ऐप्रन की जेब में कैंची ढूँढी।

कैंची उसकी जेब ही थी। कैंची के साथ साथ उसने सुई धागा भी उसने निकाल लिया।

बड़ी होशियारी से उसने उस कैंची से थैली में एक छेद किया और फिर कैंची से उस छेद को बड़ा किया और इधर उधर झाँका पर लोमड़े का कहीं पता नहीं था। सो वह उस छेद में से बाहर निकल आयी।

बाहर निकल कर उसने एक बड़ा पत्थर उठा कर उस थैली में डाल दिया और छेद को सुई धागे से सिल दिया। छेद सिलने के बाद वह तुरन्त ही उलटे पैरों अपने घर की तरफ भाग ली और अन्दर घुस कर दरवाजा बन्द करके ताला लगा लिया।

लोमड़ा भी जल्दी ही वापस लौट आया। उसे ठंडा पानी मिल गया था सो वह बहुत खुश था। उसने गड्ढे में से थैली निकाली, कन्धे पर डाली और आगे बढ़ चला।

वह अभी भी गा रहा था — “मेरे इस बड़े थैले के अन्दर छोटी लाल मुर्गी है मैं उसे अपने घर ले जा रहा हूँ।”

बीच बीच में वह यह भी कहता जा रहा था “लगता है इस र्गी की हड्डियाँ बहुत तेज़ धार के समान हैं बहुत चुभ रही हैं ये मुझे।”

घर पहुँच कर लोमड़ा माँ से बोला — “माँ ! मेरी कमर बहुत दुख रही है। यह इतनी भारी होगी यह मुझे पता ही नहीं था। मैं तो थक गया। यह लो। क्या तुमने पानी उबाल रखा है? मुझे दस के बराबर भूख लगी है।”

माँ ने पूछा — “क्या तुम दस के बराबर भूखे हो? क्या तुमको छोटी लाल मुर्गी मिल गयी?

लोमड़े ने जवाब दिया — “हाँ माँ, मैं उसे ले आया हूँ। आज मैं उसके घर में घुस गया था और उसे पकड़ लाया। देखो यह है वह।”

कह कर लोमड़े ने उस थैली का मुँह पानी के बरतन के ऊपर खोल दिया।

फड़ाक़ अरे यह क्या? पानी में तो बजाय मुर्गी के पत्थर गिर गया। साथ ही वह उबलता पानी उसके और उसकी माँ के ऊपर गिर गया।

लोमड़ा डर के मारे चीखता चिल्लाता दरवाजे की तरफ भाग लिया और पीछे पीछे उसकी माँ भी “रुको रुको” की आवाज लगाती दौड़ी। सो आगे आगे बेटा और पीछे पीछे माँ। और अभी भी वे एक दूसरे के पीछे दौड़ रहे हैं।

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