लिहाज का लिहाफ : मंगला रामचंद्रन

Lihaj Ka Lihaf : Mangala Ramachandran

कहते हैं, पश्चाताप के आंसू किए गए पाप का प्रायश्चित्त कर देते हैं। पर इस उम्र में बच्चों की राह देखते -देखते पथराई हुई , शुष्क आंखों में किसी आई drop से भी आंसू निकलने की संभावना कहां है! वैसे भी बच्चों के क‌ई बार विष बुझे तीर की तरह किए गए चुभते सवालों ने कानों को ही नहीं हृदय को भी स्तंभित,पथराया और सुन्न सा कर दिया है। दिन भर इसी विषय पर सोचते - सोचते स्वयं का बच्चों के लिए कुछ कर ना पाना सही लगने लगा है। अपनी नाकाबिलयत और सदा बने रहे धन के अभाव का ख्याल आ आकर दिमाग में ऐसा तांडव मचाता कि लगता सिर के अंदर ज्वालामुखी फूट कर लावा बह चला हो।अपनी नाकामी और बच्चों के दिल में जो दर्द का बहता सैलाब है, दोनों संयुक्त रूप से मिलकर छाती का दर्द बढ़ा देता हैं। अपनी उन दिनों की परिस्थितियों से जन्मी असमर्थता और अक्षमता को किस तर्क से सही ठहराये ये भी नहीं जानती। वैसे भी कठघरे में तो सुधा स्वयं को खड़ा देख रही है, कठघरे के बाहर खड़े बच्चों को अधिक तर्कसंगत, समझदार और महत्वाकांक्षी पाती है। सुधा ने ईमानदारी से बच्चों से क‌ई बार स्वीकार किया है कि वो सब अपने माता-पिता से अधिक बुद्धिमान एवं समझदार हैं। यही नहीं स्वयं उसने उनसे क‌ई बातें सीखीं है।ये कथ्य भावनाओं में बहकर व्यक्त नहीं की गई थी वरन् सुधा इस बात को पूरी तरह से समझती और स्वीकार करती थी।

पर बच्चों को उन दिनों की अपनी विकट परिस्थितियों का, तसल्ली से किस तरह विश्लेषण पेश करे ये सुधा समझ नहीं पाती। बच्चों के पास समय काअभाव और बात सेंकडों में करके समाप्त करने वाली नहीं थी। कैसे समझाए कि विकट परिस्थितियों में जूझ कर जिस तरह दोनों बच्चों को शिक्षित किया, सास -ससुर, ननद और देवर को शिक्षित करने और घर बसाने में मदद की उसकी तो समाज में भी प्रशंसा होती है। सुधा और अजय कितने प्रसन्न और संतुष्ट हो गए थे कि उनका संघर्ष और परिश्रम सार्थक हो गया। अजय तो यूं भी अल्प - संतोषी थे, माता-पिता के सुपुत्र बने रहने के अलावा मानों कोई और इच्छा ही ना हो ,सो उसी रूप में कर्तव्यों को पूरा करने पर जीवन को सफल मान बैठे। पर सुधा को सदैव ही लगता था कि कुछ दूरदर्शिता और सोच से बच्चों का जीवन और बेहतर बन सकता था। पर मात्र मेहनत और कोशिश से मनचाही मंज़िल कहां मिल जाती है? कभी सोच , कोशिश और की गई मेहनत पर्याप्त नहीं होती तो कभी परिस्थितियां विपरीत हो जाती थी। उसके बाद भी जब अपनी संतानों को स्वयं से अधिक अच्छी परिस्थितियों, अधिक सफल एवं अधिक सक्षम देख पाते हैं तो मान लेते हैं कि उनके किए त्याग और तपस्या सार्थक हो गए। प्रयास और परिश्रम भी तो परिस्थितियों का आकलन करने वाले के पुरूषार्थ पर निर्भर करता है।ये सारे आदर्शपूर्ण लगते शब्द जब कर्म में उतरते हैं तो व्यक्ति के व्यक्तिगत क्षमता के अनुरूप ढलते जातें हैं। क्षमता की सीमा हर व्यक्ति के व्यक्तिगत गुणों, दृष्टिकोण, दूरदर्शिता के साथ ही एक प्रमुख घटक पारिवारिक परिवेश और परिस्थितियों का भी होता है।

सुधा शायद पिछले संघर्षों को भूल चुकी थी या दिलो-दिमाग के किसी कोने में दफन कर चुकी थी। क्योंकि उसे यही लगता रहा कि उसने और पति अजय ने अपने सामर्थ्य के अनुरूप तथा अपने दूरदर्शिता को जितनी उड़ान प्राप्त हो सकती थी उसके दायरे में रहते हुए पर्याप्त किया है। अपने स्वयं के माता-पिता के संघर्ष और प्रयत्नों की साक्षी रही है और दिल में हमेशा एक जज्बा हुआ करता था कि वो उनके प्रयासों को सफलता दिलाने में सहायक हो। सुधा के मन में उसके अलावा कोई और विचार या खुद के लिए ऐसा हो या ये मिल जाए, ना कभी आया और ना ही कभी किसी प्राप्ति के लिए लालायित रही। सुधा के माता-पिता तो यही कहते रहे कि हम बच्चों के लिए जितना करना चाहते थे नहीं कर पाए, पर तुम बच्चों ने अभावों में रह कर भी स्वयं के काबिलियत को साबित ही नहीं किया,वरन् हम बुजुर्गों को समाज में गर्व से सिर उठाकर जीने का हौसला दिया।समाज में सुधा और उसके दोनों भाईयों को आदर्श उदाहरण माना जाता था। तीनों बच्चे आज तक अपने माता-पिता के परिश्रम को याद करते हैं। कभी तीनों बच्चों में से किसी ने ये नहीं कहा कि दूसरे बच्चों के पास कितना कुछ है या उनके पास तो कुछ भी नहीं है। तीनों में ही एक ठहराव और समझदारी सी थी कि उनके माता-पिता उनके लिए संभावित श्रेष्ठ विकल्प ही चुनेंगे। इस मनोदशा और सोच ने तीनों बच्चों को एक समर्पित तथा ईमानदार प्रयास में सतत् लगे रहने की आश्वस्ति भी दी और प्रेरित भी करती रही। तीनों घर के कार्यों में भी अपना योगदान देते रहे बल्कि सहयोग करने का मौका छोड़ते नहीं थे। कदाचित अपने माता-पिता को दादा- दादी के अलावा समय समय पर परिवार से जुड़े अन्य लोगों की मदद और सहयोगी व्यवहार ने मानों बच्चों को प्राकृतिक रूप से आदर्श बच्चों और आदर्श परिवार की परिभाषा सिखा दी। सुधा के मन में ये संस्कार अच्छी आदतों के रूप में घुल गए थे। अपने बच्चों को भी उसने इसी विचार के साथ बड़ा किया था। सुधा को लगा करता था कि धन की कमी को किसी तरीके से संभाल लिया जा सकता है पर अच्छी आदतों को व्यवहार से जुड़ने और ढलने में समय भी लगता है और अतिरिक्त प्रयत्नों की भी आवश्यकता होती है।

सुधा कहां जानती थी कि पूरा का पूरा विश्व बाजारमय हो जाएगा, पूरी तरह सौदेबाजी और व्यापार पर टिका हुआ। यहां तक कि धर्म, शिक्षा, न्याय- प्रक्रिया का स्वरूप भी व्यावसायिक हो जाएगा! अब पारस्परिक रिश्ते - नाते भी ऐसी स्थिति को पहुंच चुके हैं , ऐसी सोच विकसित हो गई है कि कुछ करने से पहले प्रमुख मुद्दा होता है कि आप इससे लाभान्वित होंगे या नहीं। आपकी क्रिया उचित या अनुचित है इस पर सोचने का तनिक भी प्रयास नहीं होता है। सुधा वर्तमान के परिदृश्य से पूरी तरह अवगत है और जिस प्रतियोगिता तथा प्रतिस्पर्धा की वर्तमान में जोर-शोर से चर्चा होती रहती है उससे भी वाकिफ है। हर युग, हर समय की अलग-अलग प्रकार के संघर्ष और उनसे जूझने की युक्ति हुआ करती है। कोई भी आते जाते ये कैसे कह देता है कि ' आप तो पुराने समय के हो, आपके समय में सब कुछ बड़ा सहज और सरल था, आप हमारे संघर्ष के बारे में कुछ नहीं जानते। आपके समय में इतनी समस्याएं भी तो नहीं थी।'

अंग्रेज़ी में भले ही इतना सब सुना दें पर क्या सही में उनके समय में सारी परिस्थितियां अनुकूल थी ; या उनकी पीढ़ी ने किसी तरह का कोई संघर्ष या प्रयास किया ही नहीं? क्या वे लोग परिस्थितियों से बिना लड़े सब कुछ कर पाए, उनकी पीढ़ी के तमाम लोगों ने वास्तव में कोई श्रम, प्रयत्न , जीवन का स्तर बेहतर करने के लिए कुछ नहीं किया? प्रतिदिन की दिनचर्या सुचारू रूप से प्रतिपादित करते हुए, छोटी होती चादर को विस्तार देते, पति- पत्नी स्वयं की आवश्यकताओं को सीमित करने की होड़ में लगे हुए अपने से बुजुर्गों और अपनी अगली पीढ़ी को भी हैसियत से अधिक देने की कोशिश में लगे रहते। इसके लिए जो प्रयास होते थे उसकी तुलना उस नट से की जा सकती है जो ऊंची बंधी रस्सी पर चलता है ।

सुधा और आज की पीढ़ी में एक बहुत बड़ा मूल भूत अंतर है। पहले चादर के हिसाब से आवश्यकताओं की वरियता को क्रम दिया जाता था । अब आवश्यक तथा अनावश्यक आकांक्षाएं, अनंत महत्वाकांक्षाएं, जायज- नाजायज इच्छाओं का सम्पूर्ण कोलाज दिमाग पर हावी हो जाता है कि उन्हें पूरा करना ही होगा। उसकी पूर्ति के रास्ते भले सही ना हों, कदम गलत दिशा में जाएं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। तनाव और उससे उपजते तमाम मानसिक अवसाद, शारीरिक रोगों को न्यौतते हुए जीवन की एक विशिष्ट शैली बना लेते हैं।

पति की मृत्यु के बाद सुधा नितांत अकेली ही तो हो गई है। इस एकाकीपन के अनेक अनंतकालों में ना चाहते हुए भी उसका दिलो-दिमाग पीढ़ियों के स्वभाव गत् अंतर की तुलना में लंबा समय गुजार देता है। करे भी तो क्या? बुढ़ापे में मात्र जीभ ही लपलपाती है क्योंकि वही एक अस्थि विहिन होता है। शरीर के तीन पदार्थों, कठोर,कोमल और द्रव्य में कठोर तो अस्थियां ही होती है जो समस्त शरीर में विभिन्न आकार और नाप की होती हैं और शरीर को संभालते हुए शरीर का संचालन करवाती है। जीभ में अस्थि होती ही नहीं है सो नियंत्रण में भी नहीं रह पाती।कभी स्वाद के लिए तो कभी वार्तालाप में अनियंत्रित हो जाती है। वैसे सुधा को इन दोनों ही तरह की कोई आशंका नहीं है, बच्चों ने उसका खाना टिफिन वाले से तय कर रखा है। मीठा निषेध, अल्प नमक इन दो निषेध नियमों के साथ डिब्बे में जो भी आ जाए। जितना खाते बने का लो वरना जो आवारा कुत्ता रात को घर के बाहर पड़ा रहता है बाई उसके सामने डाल देती। जीभ की वार्तालाप वाली आशंका तो स्वत: ही खारिज हो जाती है क्योंकि सुधा अधिकांश समय तो अकेली ही रहती है। जरूरत भर वार्तालाप करने से जीभ फिसलती भी नहीं है। सुधा बच्चों की विवशता, समय की मांग और उनके सैकड़ों दायित्वों को पूरा करने के उत्तरदायित्व को भी समझती है। उसी के अनुकूल रह कर स्वयं अपने क्रियाकलापों को इस तरह तय कर लेती है कि वो प्राकृतिक रूप से प्रसन्न रह सके।

माता-पिता बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि वो कक्षा में प्रथम अथवा द्वितीय स्थान प्राप्त करें ,उच्च शिक्षा प्राप्त कर उच्च पद प्राप्त करें । ये अपेक्षा इतने स्वाभाविक तरीके से बिना अधिक सोचे विचारे एक यांत्रिक प्रक्रिया की तर्ज़ पर चल पड़ती है। बड़ा होकर बच्चा जो भी बन जाए, जिस पद पर भी हो उसे उसकी नियति मान कर माता-पिता स्वीकार भी कर लेते हैं और संतुष्ट भी हो जाते हैं। दूसरी ओर कुछ बच्चे अतिरिक्त और कुछ बहुत अधिक महत्वाकांक्षी होते हैं और हर प्राप्ति के पश्चात भी असंतुष्ट रहते हैं। आशाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने में सतत् प्रयास के बाद भी सदैव सफलता की कोई गारंटी तो होती नहीं। पर इन हालातों में बच्चों को माता-पिता में ही दोष नजर आता है। सोचते सोचते सुधा के होंठों पर अपने प्राकृतिक स्वभाव के अनुरूप मुस्कान फैल रही थी और होंठ बुदबुदा उठे ''पंचिंग बैग '। आजकल एकांतवास करते हुए उसका दिमाग कुछ अधिक ही सक्रिय हो जाता है। सदैव किसी विषय पर विचार करते, विश्लेषण करते हुए उसका समय आसानी से कट जाता है, यही नहीं कभी इन मंथनों से नवनीत भी प्राप्त हो जाता है। विचारों के सही मंथन से लाभप्रद मख्खन अर्थात फल प्राप्त होता है ; हां अगर हम इस प्रक्रिया को अपने पक्ष में करने के हिसाब से ना लेकर तटस्थ भाव से रह सकें।

अब तो सुधा किसी घटना या किसी के व्यवहार से पहले की तरह उद्वेलित नहीं होती, शायद उम्र के साथ परिपक्वता आ गई हो या एकांत ने आत्मनिरीक्षण का मौका दे दिया है। लोगों के किसी ख़ास व्यवहार के पीछे छुपे कारणों को जांचने परखने का मौका मिला है। बैठे-बैठे गणित के प्रमुख चार क्रिया चिन्हों, जोड़- घटाव,गुणा- भाग करते हुए लगता मानों क‌ई रहस्यों से पर्दा उठ रहा हो। पर इस तरह वो स्वयं को ही अधिक दुखी कर रही है, क्योंकि उसे बच्चों के लगाए आरोप सही लगने लगते हैं। बच्चों के लिए उचित प्रकार से कुछ ठोस ना कर पाने के दुःख से व्यथित और व्याकुल हो उठती है तथा अजय और स्वयं को दोषी मान नाकाबिलयत के अंधे कुएं में धंसती चली जाती है। शर्मिंदगी और अवसाद में जब गहरे चली जाती है तभी कुछ ऐसी सकारात्मक परिस्थितियों का निर्माण होता है कि वो महसूस करने लगती है कि सब भला चंगा तो हो रहा है यूं ही विशाद से भरी जा रही थी।

अब तो सुधा ने मन को समझाने, शांत करने और बैचेनी को छुपाने या दूर करने की कला भी मानों सीख लिया। अतीत में हमेशा समय की कमी से त्रस्त रहती थी और अब तो सुधा को अवकाश और समय इफरात में मिली हुई है। इतनी अधिक कि दिन के पूरे चौबीस घंटों में से मनचाहे घंटे में उसके सान्निध्य में बैठ सकती है , बिना कुछ किए, सुन्न, एकदम शांत मुद्रा में, अथवा अतीत की गहराइयों में डूबी रह सकती है। प्रारंभ में यह अवकाश, समय का इतना वृहत् भंडार उसे काटने को दौड़ता था, पर अब वही ईश्वरीय वरदान लगने लगा है। इस प्राप्ति के सहारे तो वो अपने समस्त जीवन की पड़ताल कर पा रही है और अनेक सत्य पर से आवरण हटा पा रही है , जो पहले " लिहाज़ के लिहाफ" से ढंके हुए थे। अतीत को खंगालते हुए आजकल सुधा यदा- कदा समुद्र मंथन की तरह न‌ए मुहावरे रूपी मोती पा जाती है और उसके होंठ मुस्कुराते हुए दोहराते हैं ' लिहाज़ का लिहाफ '।

घर की इज्जत, बड़े बुजुर्गों की इज्जत, आदर्श पति-पत्नी बने रह कर जीवन की प्रमुखतम उपलब्धि का तमगा जो अक्सर जीवन में खीझ और ऊब की कगार पर प्राप्त होता है, इतना सब कर लिया मानो जीवन धन्य हो गया। इन सब के नीचे अक्सर ही सत्यता तथा प्रगतिशील विचारों की बलि चढ़ जाती है। पर ऊपरी तौर पर घर में अमन-चैन की बांसुरी बजती रहती है, उसकी मीठी तान में बेसुध हो गए तो सुखी मान लें और संतोषी जीव बन जाएं । फिर वही चक्र , संतोषी बन कर खुशहाल रहो या किसी न‌ई विचारधारा की सोच के तहत् जोखिम उठा कर बैचेन रहो। अतीत का वो समय जब आर्थिक परिस्थितियां भी जोखिम उठाते कदमों को हिचकिचाहट से भर देतीं थी।

सुधा की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि वह चाह कर भी अपने दिमाग को सोचते और विश्लेषण करते हुए रोक नहीं पाती, ना थकती है। परिस्थितियों को क्रमवार खंगालते, मंथन करते-करते उसे दुर्लभ मोतियों को पा जाने का एहसास सा होता है। पुरानी घटनाओं का धुंधलका मानों छंट कर दृश्यों को साफ नज़र आने दे रहा है। एक परिदृश्य जो किन्हीं भी कारणों या हालातों में बदल नहीं सकता है वो है हमारा बीता हुआ अतीत। पर फिर भी उन पति-पत्नी ने भी तो मन की कितनी ही इच्छाओं- अकांक्षाओं को दबा कर रखा था जो पहले से भी अधिक साफ उभर कर नज़र आ रही है। बड़ों के लिहाज में, आदर में,संकोच में, और भी कई कारणों से आकांक्षाएं पूरी नहीं हो पाती, मन में दबी रह जाती और फ़ुर्सत ही फुर्सत के इस मनोदशा और माहौल में अधिक निखर कर दिख रही है। क‌ई बार लगा भी होगा कि हमने तो कितना त्याग किया था, जो कि वास्तविकता में परिस्थितियों से जन्मी क्रियाएं हैं और प्रत्येक व्यक्ति, हर युग में, क‌ई तरह से करता है। इतना सब सोचते हुए, विश्लेषण करते हुए सुधा को मानों संतुष्टि और मानसिक ठहराव का एहसास हुआ।

वर्तमान में बच्चे स्पष्टवादी हैं, कुछ पूछने और कहने में संकोच नहीं करते जो कि सही में एक अच्छा तथा महत्वपूर्ण गुण माना जाता है। उनके प्रश्नों में सच्चाई का अंश होने को सुधा भी तभी महसूस कर पा‌ई जब विवेचना करने की इतनी फुरसत मिल पाई। लिहाज का लिहाफ ढंका ही रहता और सारी शंकाएं आवरण में ही छुपी रहतीं तो यथार्थ सामने आता ही नहीं। डांटने वाला मुंह ही प्रशंसा भी करता है यह उक्ति कितनी सटीक है। बच्चों को उनकी भूल पर माता-पिता डांटते हैं और भूल सुधार कर लेने पर शाबाशी की थपकी भी तो वही देते हैं। इसी तरह संतानें जब स्नेह आदर से आपका ख्याल रखती है तो सही प्रश्नों को रखने या पूछने पर बिदकने की क्या आवश्यकता है! वैसे भी आजकल अनुमति कौन मांगता है? अब किसी रिश्ते को साबित करने के लिए ना तो किसी आवरण की जरूरत या दरकार होती है ना कर्तव्यों और त्याग के नाम पर इच्छाओं की बलि वेदी। संवेदना और मानवीयता इंसान के प्रमुख गुण हैं, वो शेष रह जाएं तो ठीक।

खिलाड़ी अपनी मुठ्ठी को ताकतवर बनाने के लिए पंचिंग बैग पर बार बार प्रहार करता है, वह पंचिंग बैग ही तो उनका विश्वस्त साथी है। हर काल, हर पीढ़ी में मानवीय समाज में पारिवारिक रिश्तों के ताने बाने में हर रंग का मेल होता है। तमाम गिले शिकवे, शिकायत, एक दूसरे पर दोषारोपण करते हुए भी स्नेह- दुलार की अजस्र धारा सतत् प्रवाहित होती रहती है। अंततः मंथन की प्राप्ति भी होती है। अब जब सब कुछ स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो सकता है तो लिहाज के लिहाफ की आवश्यकता कहां रह गई?

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