लिफ्ट (कहानी) : महीप सिंह
Lift (Hindi Story) : Maheep Singh
वह बस से रेसकोर्स के पास उतरा। तपी हुई जमीन पर पैर रखते ही उसे अनुभव हुआ जैसे आग उसकी चप्पलों को भेदकर ऊपर चढ़ आएगी। अपने सूखे गले से थूक निगलते हुए सामने देखा। तारकोल की सड़क धूप की रोशनी में किसी नागिन की पीठ की तरह चमक रही थी। एक सड़क बाईं ओर गई थी, जिस पर से अभी उसकी बस आगे चली गई थी। सड़क पर मोटे टायरों के निशान उभर आए थे, मानो नंगी पीठ पर कोड़ों के निशान पड़े हों। दाहिनी ओर चहारदीवारी के ऊपर रेसकोर्स का बोर्ड लगा हुआ था।
तेज लू के कई थपेड़े उसे लगे। मुंह झुलस गया। आंखों को जैसे किसी ने तेज शीशे से काट दिया। मुंह की लार सूखकर गाढ़ी झाग बन गई, वह हांफने लगा- ठेले से जूते भैंसे की तरह।
सड़कें तप रही थीं। हवा तपी हुई थी और उससे अधिक उसका शरीर तप रहा था, तपा हुआ था।
पैरों को घसीटता वह एक पेड़ के नीचे आ खड़ा हुआ। जेब से एक कागज निकालकर उसने पता देखा-
'जे ब्लाक, जार बाग रोड, अलीगंज, नई दिल्ली-3।'
सामने की सड़़क से थोड़ा आगे दो सड़कें दाएं-बाएं गई थीं। वह आगे बढ़ा। बाईं ओर पेड़ के नीचे एक सायकिल वाला एक पहिए में हवा भर रहा था। एक सायकिल की ट्यूब पंचर लगाने के लिए खुली पड़ी थी और उसके पास ही गंदे पानी की बाल्टी। पानी। उसे लगा, वह उस बाल्टी को उठाकर मुंह से लगा ले। उसने सायकिल वाले की ओर देखा। वह हवा भरे जा रहा था, माथे से पसीने की बहती हुई धार से उसके होंठ तर हो रहे थे। कितना गम्भीर था उसका मुंह। कितनी गम्भीर थीं उसकी आंखें। वह भयभीत सा उसकी ओर देखता रहा।
सायकिल वाला हवा भर चुका। पैसे लेकर उसने कमीज की आस्तीन से मुंह का पसीना पोंछ डाला और खुली हुई सायकिल के पास आ बैठा। उसने ट्यूब बाल्टी में डाल दी, पानी से भरी हुई बाल्टी में सूखी ट्यूब तर हो गई।
वह एकटक देखता रहा। उसका गला और सूख गया। सायकिल वाला घुमा-घुमाकर ट्यूब को पानी में डुबो रहा था। उसका गला और सूखता जा रहा था। हवा तेज चलने लगी, सर्र् सर्र्। सड़क के दोनों ओर धूल उड़ी और आंखों घुसने लगी। धूल भी तप गई थी। आंखों की ठंडी कोठरी में वह भी विश्राम करना चाहती थी। उसने सिर झुका कर दाहिनी बांह से आंख को ढंक लिया। सायकिल वाले ने ट्यूब के साथ ही अपना मुंह भी बाल्टी में छुपा लिया। पेड़ के नीचे खड़े ग्राहक ने सिर झुकाकर हैट की आड़ कर ली। धूल सिर के ऊपर से निकल गई।
हवा हल्की हो गई। पत्तों की तेज खड़खड़ाहट भी हल्की हो गई। सायकिल वाला ट्यूब को फिर पानी में डुबोने लगा। ट्यूब फिर तर होने लगी, उसका गला फिर सूखने लगा।
'थोड़ा पीने का पानी मिल सकता है?' उसने सायकिल वाले से पूछा। सायकिल वाले ने बिना नजर उठाए पीछे की ओर इशारा किया, 'बंगले में नल लगा है।'
उसने बंगले में झांककर देखा। दरवाजे के बाईं ओर पेड़ की घनी छाया में पहाड़ी पड़ा सो रहा था। सामने सीमेंट का बंगला। दरवाजे चारों ओर से बंद। खिड़कियों के शीशों में झांकते हुए गहरे हरे रंग के पर्दे, चारों ओर शांति-गहरी निस्तब्धता। दाईं ओर पेड़ के नीचे था, पानी का नल।
उसने दरवाजा खोला। पहाड़ी ने करवट बदली। वह ठिठक गया। उसने घूमकर सायकिल वाले से पूछा- 'अंदर चला जाऊं?'
'चले जाओ-चले जाओ।' सायकिल वाले ने उसी तरह ट्यूब पर नजर गड़ाए उत्तर दिया।
उसने धीरे से दरवाजा खोला। वह पहाड़ी को जगाना नहीं चाहता था। वह उसी की ओर देखता नल तक चला गया।
पानी की धार हाथ पड़ते ही वह तिलमिला उठा, जैसे किसी भट्ठी से उबलकर निकल रहा हो। उसका गला और सूख गया, उसने पानी की धार को बहने दिया।
'क्या करता है?' जैसे पीछे से किसी ने कचोट लिया। उसने देखा, पहाड़ी उसे जलती हुई आंखों से घूर रहा है।
'पानी पीऊंगा।'' उसने कहा
'फिर पीता क्यों नहीं?' जैसे चाबुक चली।
'गरम बहुत है।' और पहाड़ी के कुछ कहने से पहले ही उसने अपना हाथ पानी की धार से पीछे डाल दिया। पानी अब उतना गर्म नहीं था। उसने दो-चार चुल्लू मुंह में उंड़ेलकर नल बंद कर दिया।
गला फिर भी सूखा था। पेट में गुड़गुड़ सी हो रही थी। जैसे उसने जुलाब लिया हो।
बाहर बड़ी तपिश थी। लू के तेज झोंके थपेड़ों से लग रहे थे। चारों ओर सांय-सांय हो रही थी। इक्का-दुक्का सायकिल सवार किसी कपड़े से मुंह को ढंके हुए निकल जाता था या फिर कोई मोटर बड़ी-सी लम्बी-सी सर्र करती हुई।
आगे बढ़कर उसने देखा, दाएं-बाएं दोनों ओर जाने वाली लम्बी- सीधी सड़क पर लिखा था- जार बाग रोड। उसने फिर पता निकाला-
जे ब्लाक, जैर बाग रोड, अलीगंज, नई दिल्ली-3।
वह भ्रम में पड़ गया। दाएं-बाएं दोनों ओर जाने वाली सीधी सड़क है-जार बाग रोड। वह किस ओर जाए। किसी से पूछने के लिए उसने इधर-उधर देखा। तेज लू के झोंकों से झर्र् झर्र् करती हुई पेड़ों की पत्तियां एक-दूसरे से टकरा रही थीं। उसे कोई आता-जाता न दिखाई दिया। उसकी दृष्टि सायकिल वाले पर जा पड़ी। वह एक पुरानी-सी, गन्दी-सी सायकिल में हवा भर रहा था। पास ही एक गंदा-सा आदमी खड़ा था। गंदे कपड़े, गंदा चेहरा और एक पैर से लंगड़ा। दाहिनी बगल के नीचे उसने बैसाखी दबा रखी थी।
वह सायकिल वाले के पास फिर आ गया- 'अलीगढ़ किस तरफ है?'
सायकिल वाले ने पम्प के हैंडल से बिना हाथ उठाए, सामने दाहिनी ओर जाने वाली सड़क की ओर थोड़ा सा मुंह उठाकर आंखों से इशारा किया- 'सीधे चले आओ।'
वह उस ओर बढ़ गया। गर्म हवा के तेज झोंके उसके मुंह पर लग रहे थे। उसने दोनों हाथों से अपने कानों को ढंक लिया।
वह एक पेड़ के नीचे आकर खड़ा हो गया। बार-बार थूक निगलकर वह गले को तर कर रहा था। उसे हंफनी आ रही थी। लग रहा था, जैसे बुखार होता जा रहा है। किसी सवारी के लिए उसने इधर-उधर देखा।
इतने में एक मोटर निकल गई, सरर् से। उसके मस्तिष्क में कौंध गया, लिफ्ट। उसे याद आया, उसने सुना था, दिल्ली में मोटर वाले लिफ्ट दे देते हैं।
उसे दूसरी मोटर आती दिखाई दी। पीछे की सीट पर कोई आदमी अधलेटा-सा था। वह गहरे ऊहापोह में पड़ गया और जैसे ही वह पास आई, वह पूरी ताकत लगाकर चिल्ला पड़ा। 'लिफ्ट प्लीज'।
हवा के तेज झोंके उसकी आवाज को उड़ा ले गए। मोटर सरर् करती हुई निकल गई।
उसका गला और सूख गया। थूक निकलना कठिन हो रहा था उसे। एक अन्यमनस्कता उसके चेहरे पर छा गई। वह खोया-सा इधर-उधर ताकने लगा।
'कहां जाना है?'
उसने देखा वही गंदा सा आदमी अपनी गन्दी सी सायकिल पर सवार एक पैर फुटपाथ पर टिकाए और हाथ में बैसाखी को जमीन पर टिकाए पूछ रहा है।
'अलीगंज कितनी दूर है यहां से।'
'ज्यादा दूर नहीं है, काफी दूर भी है।' गंदे आदमी ने दार्शनिक सा उत्तर दिया।
'मतलब?'
'मतलब यही कि वैसे तो बहुत दूर नहीं है। पर इस धूप और लू में बहुत दूर है।'
उसने सामने देखा। सीधी, लम्बी, साफ सड़क चली गई थी, अलीगंज की ओर। हवा का हर झोंका सड़क पर धूल की भंवर-सी बनाता और फिर उसे उड़ा ले जाता। सड़क और साफ हो जाती, और चमकीली हो जाती।
'आइए।' उसने देखा वह आदमी बुला रहा है।
'क्या?' उसने कुछ समझा नहीं।
'अलीगंज जाइएगा न?'
'हां।'
'तो आइए न।'
वह फिर भी कुछ नहीं समझा और उजबक-सा उसके मुंह की ओर ताकता रहा- एकटक।
'आइए, बैठ जाइए।' उसने सायकिल के पीछे लगे गंदे-से कैरियर की ओर इशारा किया।
'नहीं, नहीं, आप जाइए, मैं पैदल चला जाऊंगा।' उसके प्रस्ताव को सुन उसे घबराहट सी हुई, संकोच सा हुआ।
'अरे आइए भी। इस धूप में तो पैदल कबाड़़ा हो जाएगा।' गंदा आदमी अपनी पगड़ी के छोर से कैरियर की धूल झाड़ता हुआ बोला- 'आइए बैठ जाइए, इस समय कोई सवारी थोड़े ही मिलेगी आपको।'
दो क्षण वह स्तम्भित खड़ा रहा, फिर आगे बढ़ आया। गंदे आदमी ने मुस्कराते हुए उसकी ओर देखा और सायकिल पर ठीक से बैठकर अपनी बैसाखी को हैंडल पर रखने लगा।
'ऐसा कीजिए, वह बोला-आप पीछे बैठ जाइए। मैं चला ले चलूंगा।'
'नहीं, नहीं, आप बैठिए।'
'मगर, आप मुझे बैठाकर कैसे चला सकेंगे?' उसकी दृष्टि अनायास उसके कटे हुए पैर की ओर चली गई। उस आदमी ने भी उस ओर देखा और मुस्कराया-
'आप चिन्ता न कीजिए, मैं एक पैर से ही चला ले चलूंगा।'
'नहीं नहीं, आप पीछे बैठिए...बैठिए तो मैं चला ले चलूंगा' उसने सायकिल का हैंडल पकड़ लिया। वह आदमी अपनी बैसाखी को संभालता नीचे उतर आया और कैरियर पर बैठ गया। वह सायकिल बढ़ा ले चला।
तेज धूप से सड़क की तारकोल पिघल गई थी। सायकिल के टायर उस पर चरर् की आवाज करते हुए चले जा रहे हैं। उसने बात चलाई-
'आपका यह पैर कैसे...?'
'पिछले दंगों में कट गया था।'
'आप करते क्या हैं?'
'लोधी रोड में सोडा-वाटर की दुकान है मेरी।'
वह सायकिल चलाता जा रहा था। वह हांफने लगा। उसे मिचली आने लगी। लग रहा था, उल्टी हो जाएगी। गर्म हवा के तेज झोंके फरर्-फरर् उसके मुंह पर लग रहे थे। हैंडल पर उसके हाथ कांपने लगे, पैरों का बोझ मन-मन भर का हो गया। उसने फुटपाथ से लगाकर एक पेड़ की छाया में सायकिल खड़ी कर दी।
'आप जाइए, मैं पैदल चला जाऊंगा।'
'क्यों?' उस आदमी के चेहरे पर आश्चर्य झलकने लगा।
वह जोर-जोर से सांस ले रहा था।
'और सायकिल नहीं चलेगी मुझसे।' उसने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
वह आदमी अपनी बैसाखी लेकर उसके पास आ गया-'आपको बुखार-सा हो रहा है।' उसने उसके माथे और बांह को छू कर देखा।
'आइए पीछे बैठ जाइए, मैं चला ले चलूंगा।' उसने हैंडल पकड़ लिया।
'आप कैसे चलाएंगे?'
'आप बैठिए भी। देखिए मैं कैसे चलाता हूं।'
वह पीछे बैठ गया। वह आदमी सायकिल चलाने लगा। एक पैर से वह कैसे सायकिल चला रहा था, यह उसने नहीं देखा। उसका शरीर तप रहा था और आंखें आप ही आप बंद होती जा रही थीं।
'किस ब्लाक में जाना है?'
'जे ब्लाक में।'
'कौन है आपका वहां?'
'मेरे सम्बन्धी है।'
फिर निस्तब्धता छा गई। पीछे बैठा सुन रहा था, टायरों की चरर्-चरर्, पत्तों की खड़-खड़ और हवा की झरर्-झरर्। कभी-कभी सर्र् से कोई मोटर निकल जाती तो उसकी आंखें खुल जातीं और वह कुछ देर सड़क पर उसके टायरों के निशान देखता रहता।
'क्यों जी, जे ब्लाक कौन सा है?' गन्दे आदमी ने किसी राहगीर से पूछा।
'वह सामने वाला'
'लीजिए, आपका जे ब्लाक आ गया।' गन्दे आदमी ने सायकिल रोक दी। वह उतर पड़ा। उस पर नशा-सा चढ़ा हुआ था।
'पानी पीजिएगा।'
'नहीं-नहीं, अब घर जाकर ही पीऊंगा।'
'अच्छा...।' गंदा आदमी अपनी बैसाखी संभालने लगा।
'बड़ी मेहरबानी आपकी।'
वह गंदा आदमी हंस दिया, छोटी-सी दाढ़ी के धूल से सने खिचड़ी बाल चेहरे की झुर्रियों के साथ इधर-उधर सिकुड़ गए।
'आप इस धूप में आए कैसे?' सम्बन्धी महोदय ने शर्बत का गिलास उसके सामने रखते हुए पूछा।
'रेसकोर्स तक तो बस से आया और आगे...'
'आगे...?'
'आगे लिफ्ट मिल गई।'
सम्बन्धी महोदय हंस दिए और प्रफुल्ल होकर बोले, 'दिल्ली के मोटर वालों में यही अच्छाई है। वे लिफ्ट फौरन दे देते हैं।'
'जी।' उसने शर्बत से गले को तर करते हुए कहा।