लीला नन्दलाल की (कहानी) : भीष्म साहनी

Leela Nandlal Ki (Hindi Story) : Bhisham Sahni

किस्सा यह कि मेरा स्कूटर चोरी हो गया । बिल्कुल नया स्कूटर था । खरीदे दो महीने भी नहीं हुए थे और चार साल तक इत्तजार करते रहने के बाद उसे खरीद पाने का मेरा नम्बर आया था । इधर वह पलक झपकते गायब हो गया । मैं वर्षों तक बड़े चाव से उसकी राह देखता रहा था और तरह - तरह के सपने देखता रहा था कि कब स्कूटर आएगा और मैं दिल्ली की सड़कों पर फर्राटे- से घूमा करूँगा । गले में रेशमी रूमाल लहरा रहा होगा , बाल उड़ रहे होंगे, आँखों पर मोटा चश्मा होगा। दिल्ली में स्कूटर के बिना जिन्दगी का लुत्फ ही क्या है। स्कूटर पर आगे युवक पीछे युवती, युवक की कमर में हाथ डाले हुए, उसकी पीठ पर झुकी हुई, उसकी भी चुन्नी या साड़ी का पल्लू हवा में लहराता हुआ , दिल्ली की खचाखच भरी, नीरस सड़कों पर रोमांस का रंग छिटक जाता है । पर सभी अरमान धरे- के - धरे रह गए । और अब मैं सड़क के किनारे भौंचक-सा खड़ा, कभी दाएँ तो कभी बाएँ, आँखें फाड़ -फाड़कर देख रहा था कि स्कूटर गया तो कहाँ गया । मैं पीछे की ओर उस नाट्यगृह के आँगन में भी बार -बार चक्कर काट रहा था , जहाँ पर मैं एक भोंड़ा- सा प्रहसन देखता रहा था , जिस बीच स्कूटर की चोरी हुई थी । मेरी टाँगों में पानी भरता जा रहा था और गला बराबर सूखता जा रहा था । उधर दर्शकों की भीड़ छंटती जा रही थी ।

थिएटर-सिनेमा की भीड़ भी अपनी तरह की होती है। घड़ी-भर के लिए लगता है कोई गुलजार खिल उठा है, कोई नगरी बस गई है, और घड़ी - भर बाद वहाँ उल्लू बोलने लगते हैं । मैं लपक लपककर बिदा होते दर्शकों से पूछने लगा । मगर सब बेसूद । किसे क्या मालूम कि मेरा स्कूटर किसने उठाया है । सभी तो मेरी तरह नाट्य- गृह के अन्दर बैठे थे। एक मनचले ने जिस पर नाटक का प्रभाव अभी तक बना हुआ था , चहककर कहा, “गनीमत समझो कि तुम खुद उस पर सवार नहीं थे। वरना तुम्हें भी चोर उठा ले जाते ।... "

दिल्ली के लोगों की बेरुखी मुझे यों भी सालती रहती है । इस भोंडे मजाक पर मैं और भी खिन्न हो उठा ।

आखिर मन मारकर बाहर निकल आया और रास्ता पूछता हुआ इलाके के पुलिस स्टेशन की ओर चल दिया । पुलिस में रिपोर्ट तो कर दो , आगे जो होगा देखा जाएगा ।

पुलिस में रपट लिखवाने के बाद पाँव घसीटता और बसों में धक्के खाता जब मैं घर पहुँचा और घरवालों को सारा किस्सा सुनाया तो पहले तो उन्हें गहरा सदमा हुआ, फिर वे तरह तरह की टिप्पणियाँ करने लगे। पिताजी ने कहा, “मुझसे पूछो तो वहाँ पर स्कूटर ले जाना ही भूल थी । थिएटरों में दुनिया भर के उचक्के जमा होते हैं । " पत्नी बोली, "मैं तो समझती हूँ तुम जरूर ताला लगाना भूल गए होगे , स्कूटर को ताला लगा हो तो कोई कैसे उठा सकता है । " फिर सभी को सम्बोधन करके बोली, "मैं समझती हूँ स्कूटर वहीं कहीं रखा होगा, इन्होंने देखा नहीं। इनकी आँखों के सामने चीज पड़ी हो तो भी इन्हें नज़र नहीं आती। " इस पर चाचाजी बोले, “स्कूटर हमेशा किसी के सुपुर्द किया जाता है। बाहर जरूर कोई रखवाला खड़ा होगा, तुम दस पैसे बचाने की खातिर उसे न जाने कहाँ रख गए होगे । मतलब कि मेरे सम्बन्धियों को ऐसा लग रहा था जैसे स्कूटर की चोरी में ज्यादा हाथ मेरा ही रहा हो । केवल माँ एक ही वाक्य बार- बार दोहरा रही थी, "अगर भगवान के घर में न्याय है तो मेरे बेटे का स्कूटर उसे जरूर मिल जाएगा । जो चीज भगवान ने उसके लिए भेजी है, वह उसे छोड़ किसी दूसरे के पास नहीं जा सकती। "

जब मैंने बताया कि पुलिस में रिपोर्ट लिखवा आया हूँ तो चाचाजी सिर हिलाने लगे , " तुम समझते हो पुलिस तुम्हारा स्कूटर बरामद करवा देगी? अगर पुलिस इतनी चुस्त होती तो तुम्हारा स्कूटर उठता ही नहीं । अब स्कूटर को भूल जाओ और बीमा कम्पनी से अपना मुआवजा वसूल करने की कोशिश करो। बीमा तो करवाया था न ? "

इस पर पिताजी बिगड़ उठे और चाचाजी और पिताजी के बीच बहस छिड़ गई । पिताजी का मत था कि स्कूटर को बरामद करवाने की पूरी - पूरी कोशिश की जाए, जबकि चाचाजी मानो शताब्दियों के संचित अनुभव के आधार पर कहे जा रहे थे कि इससे कुछ न होगा, जल्दी से-जल्दी अपने मुआवजे की रकम बीमा कम्पनी से वसूल करो। आखिर यही फैसला हुआ कि दोनों बातों की ओर समान रूप से ध्यान दिया जाए।

चुनाँचे मैं सुबह के वक्त पुलिस स्टेशन और दोपहर के वक्त बीमा कम्पनी के चक्कर काटने लगा । पुलिस वाले बड़ी रुखाई से पेश आते। पहले दो - एक दिन तो मेरे साथ सीधे मुंह बोले, फिर झिड़क -झिड़कर बोलने लगे। “मेरे स्कूटर का कुछ पता चला? मैं दरख्वास्तियों की तरह दहलीज पर खड़े- खड़े पूछता । जवाब में या तो अन्दर चुप्पी छाई रहती, या रूखी सी आवाज में कोई इन्स्पेक्टर कहता, "मिलने पर इत्तला कर दी जाएगी । इधर रोज - रोज मत आइए । "

पर एक दिन जब मैं इसी तरह डरता - सा पुलिस स्टेशन के दफ्तर की दहलीज तक पहुँचा तब इन्स्पेक्टर कुर्सी पर से उठकर मेरी ओर बढ़ आया । मेरी टाँगें तो थर्रा गईं , पर उसके चेहरे पर फैली मुस्कान को देखकर मैं द्विविधा में पड़ गया । क्या मालूम स्कूटर मिल ही गया हो जो यह मुस्करा रहा है ? उसने मेरे साथ हाथ मिलाया, मुझे दफ्तर के अन्दर ले जाकर कुर्सी पर बैठाया , अर्दली को आवाज देकर मेरे लिए ठण्डा पानी का गिलास मँगवाया और उसी तरह मुस्कराते हुए बोला, " आप इत्मीनान रखिए । हमें आपके स्कूटर की बड़ी फिक्र है । उसे बरामद करने की पूरी कोशिश की जा रही है। मिलने पर मैं खुद आकर आपको इत्तला करूँगा। "

मैं हवा में उड़ता- सा घर पहुँचा । स्कूटर मिल जाने की खुशी शायद इतनी नहीं होती जितनी इन्स्पेक्टर के आत्मीयता-भरे आश्वासन से ।

“मीठा क्यों नहीं बोलेगा । उसे ऊपर से जूत पड़ा होगा।" पिताजी बोले। बात मेरी समझ में नहीं आई । बाद में पता चला कि जब से स्कूटर खो गया था , पिताजी जगह- जगह चिट्ठियाँ लिख रहे थे और उनमें से एक चिट्ठी निशाने पर चोट कर गई थी । यह चिट्ठी उन्होंने मेरे बहनोई के छोटे भाई द्वारा उसके ससुर को लखनऊ लिखवाई थी , जो लखनऊ में पुलिस का बड़ा अफसर था । ऐसी चिट्ठियाँ वह न जाने और कहाँ- कहाँ लिखवा रहे थे ।

पर इस आश्वासन के बावजूद स्कूटर कहीं प्रगट होता नजर नहीं आ रहा था । स्थिति वैसी की - वैसी थी । केवल मेरे प्रति पुलिसवालों का रुख बदल गया था ।

इधर बीमा कम्पनी वाले पैरों पर पानी नहीं पड़ने दे रहे थे। पुलिस स्टेशन में कम - से-कम वे मेरे साथ बोलने तो लगे थे, यहाँ तो मैं हेड-क्लर्क के सामने दिन -भर बैठा रहता, कोई मुझे पूछता ही नहीं था । मैं बात उठाता तो वह तरह- तरह की तहकीकात की बात करता और फिर से अपनी फाइलों में खो जाता । इस तरह पूरा एक महीना गुजर गया ।

"इस तरह भी कभी दुनिया के काम हुए हैं ? " एक दिन पिताजी ने चाचाजी को डाँटते हुए कहा, "दफ्तरी कार्रवाइयों के सहारे बैठे रहोगे तो तुम्हें मुआवजा मिल चुका। "

फिर मेरी ओर देखकर बोले, “डिब्बे में से घी निकालना हो तो टेढ़ी उँगली से निकालते हैं । सीधी उँगली से घी नहीं निकलता। "

दूसरे दिन, चाचाजी के साथ-साथ चलता हुआ मैं अजमेरी गेट की ओर जा रहा था । वहाँ से एक सज्जन हमारे साथ हो लिए और हम आसफ अली रोड के एक बड़े दफ्तर में जा पहुंचे। वहाँ पर एक सज्जन ने हमें एक खत लिखकर दिया । इस खत को लेकर हम तीनों दरियागंज की ओर रवाना हो गए। तभी मेरे दिल में से आवाज उठने लगी कि कुछ होने जा रहा है, जरूर कुछ होने जा रहा है। मेरे अन्तःकरण से जब कभी ऐसी आवाज आने लगे तो कोई -न- कोई घटना घटती है ।

उसके बाद हम एक बड़े दफ्तर में बैठे थे और हमारे सामने बड़ी - सी मेज के पीछे एक मोटा- सा आदमी बैठा था । यही मोटा नन्दलाल था जिस के लिए हम चिट्ठी लाए थे।

मोटे नन्दलाल ने चिट्ठी पढ़ी, और फिर अपनी बड़ी -बड़ी नमदार आँखों से सामने की ओर देखा, “ उनकी ऐसी- की - तैसी, मुआवजा कैसे नहीं देंगे। "

उसने ऐसे ढंग से कहा कि मेरा दिल बैठ गया। मोटे नन्दलाल ने हाथ बढ़ाकर टेलीफोन का चोंगा उठाया पर मेरे चाचाजी झट से बोल उठे “टेलीफोन पर कहने के बजाय अगर आप तकलीफ करके हमारे साथ चले चलें तो बेहतर होगा । आप जानते हैं बीमा कम्पनी वाले... "

"उनकी ऐसी की तैसी.... " मोटे नन्दलाल ने फिर से कहा, और फिर से मेरा दिल बैठ गया । पर उसने चोंगा रख दिया, और मेरी ओर देखकर बोला, “ तुम कल मेरे पास आ जाओ। मैं तुम्हें बीमा कम्पनी के दफ्तर में ले चलूँगा। "

दूसरे दिन मोटा नन्दलाल मेरे आगे- आगे बीमा कम्पनी के दफ्तर की तीन मंजिला इमारत की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था और मेरा दिल धक्-धक् कर रहा था कि न जाने अब कौन - सा सीन होगा, कहीं मेरा बनता काम बिगड़ तो नहीं जाए । यह आदमी अक्खड़ किस्म का जान पड़ता है और कम्पनियों के अफसर अपनी जगह बड़े बददिमाग होते हैं ।

हम ऊपर पहुँचे। जहाँ मैं हेडक्लर्क की मेज के सामने दिन -भर बैठा गिड़गिड़ाता रहता था , वहाँ मोटा नन्दलाल सीधा डायरेक्टर के कमरे का दरवाजा खोलकर अन्दर चला गया और सीधा उसकी मेज पर दोनों हथेलियां टिकाकर - जैसे भालू हमला करने के पहले अपने पांव तोलता है - खड़े- खड़े ही बोला, “ यह क्या तमाशा है । इनका स्कूटर चोरी हो गया । सारी बात साफ है । आप इन्हें मुआवजा क्यों नहीं देते ? "

डायरेक्टर कुर्सी पर से उठ खड़ा हुआ। पर वह अभी अपना मुँह भी नहीं खोल पाया था कि मोटे नन्दलाल ने कहा, "मैं साल में पाँच लाख का बिजनेस आपको देता हूँ और इधर आप मेरे भाई साहब को महीने -भर से परेशान कर रहे हैं ?"

फौरन चैक बन गया । अभी मोटा नन्दलालकुर्सी पर बैठा भी नहीं था, और डायरेक्टर के इसरार का जवाब भी नहीं दे पाया था कि ठण्डा पिएगा या गर्म, चाय-कॉफ़ी लेगा या शर्बत शिकंजी कि वही हेडक्लर्क जिसकी मेज के सामने दिन भर बैठा रहा था , चैक , फार्म और रजिस्टर लेकर अन्दर दाखिल हुआ और दफ्तर में प्रवेश करने के ऐन दस-मिनट बाद में और मोटा नन्दलाल दफ्त्तर की सीढ़ियाँ उतर रहे थे। चैक मेरी जेब में था और मोटा नन्दलाल कह रहा था ,

" इनकी ऐसी की तैसी। मुआवजा कैसे नहीं देते...। "

जिसे सुनकर मेरा दिल गुदगुदा उठा। उसकी मोटी गर्दन और मोटे-मोटे कूल्हों और भालू जैसी लम्बी- लम्बी बाँहों को देख-देखकर मैं श्रद्धा से पुलक रहा था ।

उस रोज घर में घण्टों मोटे नन्दलाल की चर्चा रही ।

"रख -रखाव से ही काम बनते हैं । " पिताजी कह रहे थे। फिर पिताजी, एक - एक करके , उन तीनों आदमियों का गुणगान करने लगे - एक, जो अजमेरी गेट से हमारे साथ हो लिया था ; दूसरा जो अजमेरी गेट से आसफ अली रोड तक हमारे साथ गया था ; तीसरा ,जिसने पत्र दिया था । पर इन सबमें मोटा नन्दलाल तो साक्षात देवता था ।

इस पर चाचाजी बोले, “है तो आदमी टेढ़ा, पर न जाने कैसे काम करवा दिया है। "

" सब नन्दलाल की लीला है, " माँ बोलीं ।

"मोटे नन्दलाल की , माँ ?" मैंने कहा ।

पर माँ इतनी गद्गद हो रही थीं कि उन्होंने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया और अपनी बात कहती गईं , " सब भगवान की लीला है । उन्हें मेरे बेटे को रुपया दिलवाना है, तो नन्दलाल को निमित्त बनाकर भेज दिया । "

बीमा कम्पनी के दफ्तर की सीढ़ियाँ उतरते हुए मोटे नन्दलाल की गर्दन और मोटे-मोटे हाथ देख -देखकर मेरा रोम -रोम पुलक रहा था , केवल भगवान के दर्शन से ही ऐसी पुलकन भक्तों के तन -तन में उठती होगी ।

माँ ने ठीक ही कहा था , क्योंकि इसके बाद भी जो कुछ हुआ उसे नन्दलाल की लीला का ही नाम दिया जा सकता है ।

कुछ दिन तो बड़े आराम से कट गए । जेब में पैसे आ गए थे। हौसले बढ़ गए थे। पहले स्कूटर को ले पाने के लिए चार बरस तक चुपचाप इन्तजार करना पड़ा था । अब मोटे नन्दलाल की कृपा हुई तो दूसरे दिन नया स्कूटर मिल जाएगा । लेकिन घर के लोग इस हक में नहीं थे कि मैं स्कूटर लूँ।

"जिसका एक स्कूटर चोरी हो सकता है, उसका दूसरा स्कूटर भी चोरी हो सकता है । तुम बस में ही आया- जाया करो। तुम इसी लायक हो । " पिताजी कहते ।

मैं खुद भी दूसरा स्कूटर लेने के हक में नहीं था । मेरे दिल का सारा रोमांस एक ही स्कूटर ने खत्म कर दिया था । धक्के तो बस में भी पड़ते हैं , पर जो धक्के स्कूटर खो जाने पर पड़ते हैं , उन्हें देखते हुए बसों में चढ़ना ही बेहतर है। पर पत्नी गुमसुम रहने लगी। शाम को मैं उससे कहीं चलने को कहता तो वह ठण्डी साँस भरकर कहती कि उसका कहीं भी जाने को मन नहीं है। मैं समझ गया कि इसके मुंह को स्कूटर की सवारी का खून लग गया है, इसे अब बसों में चढ़ना हिमाकत जान पड़ने लगा है। पत्नियाँ आमतौर पर रात के अंधेरे में अपने दिल की बात कहती हैं । पर ठण्डी साँस भरकर बोली, “ जब से तुम्हारे घर में आई हूँ, मेरी हालत बद से बदतर होती जा रही है। " और फिर सिर - दर्द का बहाना करके मेरी ओर पीठ फेर ली ।

स्कूटर को खोए लगभग छह महीने बीत चुके थे, और मैं फिर से दिल्ली की सड़कों पर पाँव घसीटने लगा था ।

अचानक पुलिस स्टेशन की ओर से एक विचित्र - सा पत्र प्राप्त हुआ। लिखा था , " आपका स्कूटर नं. डी. एल. बरामद कर लिया गया है। इस समय श्यामनगर की सड़क नम्बर चार के बाड़ा दयाराम में रखा है। जाकर शिनाख्त कर लीजिए और हमें इत्तला कीजिए कि आप उसे वापस लेना चाहते हैं या नहीं। "

मेरी बाछें खिल गईं । स्कूटर मिल गया, कमाल हो गया । इसके खो जाने पर इतना अफसोस नहीं हुआ था जितना इसके मिल जाने पर खुशी । दिल्ली में स्कूटर के बिना लुत्फ ही क्या है ।

घरवालों को खबर हुई तो सबकी प्रतिक्रिया अलग - अलग थी । माँ ने दुपट्टे के नीचे हाथ जोड़ते हुए, “ भगवान के घर में देर है, अँधेर नहीं। मैंने पहले ही कहा था कि मेरे बेटे का स्कूटर मिल जाएगा । " पत्नी भी चहक उठी । उसने मेरी ओर यों देखा जैसे उसकी नजर में फिर मेरी कीमत कुछ-कुछ बहाल होने लगी है । पर पिताजी में तनिक भी उत्साह नहीं था । कहने लगे , " अब वह चोरी का माल है, जिस चीज को चोर का हाथ लग जाए उसमें कोई बरकत नहीं रह जाती । फिर छह महीने बाद मिल रहा है । स्कूटर का रह ही क्या गया होगा, उसकी हड्डी - पसली हिल गई होगी । " इस पर चाचाजी ने सहमति में सिर हिलाया और मेरा दिल धक् से रह गया । पिताजी और चाचाजी सहमत हो रहे थे, यह शगुन अच्छा नहीं था । उनके बीच झगड़ा चलता रहे तो लगता है जीवन स्वाभाविक गति से चल रहा है ।

" तुम स्कूटर वापस ले ही कैसे सकते हो ? तुम तो बीमा कम्पनी के मुआवजा वसूल कर चुके हो । "

"मुआवजे का क्या है वह तो लौटाया भी जा सकता है । "

" अगर बीमा कम्पनीवाले इनकार कर दें तो ? "

" मोटा नन्दलाल जो है , उसके रहते वह इनकार नहीं करेंगे । " मैने बड़े साहस से कहा।

आखिर फैसला हुआ कि स्कूटर की शिनाख्त करके पहले अच्छी तरह से दिखवा लेना चाहिए । फैसला बाद में करेंगे कि वापस लेंगे या नहीं ।

दूसरे दिन पुलिस की चिट्ठी जेब में रखे मैं श्यामनगर की ओर चला जा रहा था । मन फिर से स्कूटर की सैर के सपने देखने लगा था । पत्नी भी खुश हो जाएगी, स्कूटर के खो जाने से घर में जो मायूसी छा गई थी , वह दूर हो जाएगी ।

देर तक मुझे श्यामनगर की सड़कों की खाक छाननी पड़ी । वह बाड़ा मुझे नहीं मिल रहा था जिसका पता पुलिसवालों ने मुझे दिया था । स्कूटर को बाड़े में रखने में क्या तुक थी , पुलिस स्टेशन में उसे क्यों नहीं रखा गया ? फिर सोचा कि शायद बाड़ा भी पुलिस का ही होगा जहाँ पुलिस चोरी का बरामदी माल रखती है, एक तरह का गोदाम बना रखा होगा ।

आखिर मैंने बाड़े के अन्दर कदम रखा। बड़ा - सा आंगन था और आंगन के पीछे एक छोटा सा बंगला था । आँगन में सात - आठ मोटरें और चार-पाँच स्कूटर खड़े थे। क्या यह सब बरामद माल है ? क्या मैं किसी गलत जगह पर तो नहीं आ गया ? यह तो किसी अमीर आदमी का बंगला जान पड़ता है । मैं कहाँ आ पहुँचा हूँ ? मैंने पुलिस की चिट्ठी निकालकर पता ध्यान से पढ़ना चाहा, तभी बंगले की ओर से एक सज्जन आते दिखाई दिए, सफेद नाइलॉन की कमीज और टेरीकोट की पतलून पहने हुए थे।

"माफ कीजिए, मुझसे भूल हुईं। मैं किसी दूसरे बाड़े की तलाश में हूँ । "

और मैंने पुलिस का पर्चा अनायास ही उनके हाथ में दे दिया ।

उन्होंने सरसरी नजर से पर्चे की ओर देखा और एक ओर को हाथ का इशारा करते हुए बोले, " वहाँ स्कूटर रखे हैं , उनमें से अपना स्कूटर पहचान लीजिए। "

मैंने उन सज्जन को सिर से पाँव तक देखा। क्या यह पुलिस के अफसर हैं, जिन्होंने अपने बंगले में ही बरामद का माल रख लिया है ? पुलिस के बड़े अफसर घर पर वर्दी नहीं पहनते , इसीलिए यह नागरिक वेश में हैं । पर पुलिस के अफसर इतनी ज्यादा अंगूठियाँ भी अँगुलियों में नहीं पहनते जितनी इन्होंने पहन रखी हैं । पर क्या मालूम पहनते ही हों । वर्दी पहनी तो अंगूठियाँ उतार दी , वर्दी उतारी तो अंगूठियाँ चढ़ा लीं ।

मुझे अपना स्कूटर देखने की उत्सुकता थी । मैं बिना कुछ कहे उस ओर घूम गया जहाँ स्कूटर रखे थे।

मैं एक ही नजर में पांचों स्कूटरों को देख गया, लेकिन इनमें मेरा स्कूटर मुझे नजर नहीं आया। फिर मैं बड़े ध्यान से एक- एक स्कूटर को देखने लगा। एक स्कूटर कुछ-कुछ मेरे स्कूटर से मिलता- जुलता था, लेकिन उस पर बढ़िया- सा शीशा लगा था और हैण्डल के पास ही रेडियो के ऐरियल की छड़ ऊपर को उठ रही थी, उसमें सचमुच लाउडस्पीकर लगा था । यह स्कूटर मेरा कैसे हो सकता है ?

तभी वह सज्जन मेरे पास आ गए ।

" पहचान लिया ? यही आपका स्कूटर है ना ! उन्होंने कहा और मेरे स्कूटर के हैण्डल को सहलाते हुए बोले, “इसे तो मैंने खास खयाल से रखा है। इसे कहीं आँच तक नहीं आई। "

" आपने ? क्या मतलब? "

"इस स्कूटर को तो मैं केवल अपने लिए इस्तेमाल करता था । मुझे इसकी सवारी बड़ी पसन्द है। "फिर बड़े चाव से स्कूटर पर लगे एरियल को छूते हुए बोले , "यह एरियल मैंने लगवाया है। मैकेनिक कहने लगा, स्कूटर पर एरियल नहीं लग सकता। मैंने कहा, ऐसी की तैसी, लगता कैसे नहीं। " वह भी उसी लहजे में बोल रहे थे जिसमें मैंने मोटे नन्दलाल को बोलते सुना था । क्या वे सभी लोग जिनकी अँगुलियों में अंगूठियाँ दमकती हैं , एक - जैसे ही लहजे में बोलते हैं , सभी की ऐसी की तैसी करते फिरते हैं ?

आखिर यह आदमी कौन है ? मेरे स्कूटर के बारे में इतने अधिकार से कैसे बात कर रहा है ? " क्या यह सब बरामदी का माल है ? "

" और क्या ? "उसने तनिक ऐंठ के साथ कहा, मानो कह रहा हो कि हम उठाएंगे तो क्या एक ही स्कूटर उठाएँगे ? "

" क्या आप ही ने...? " मैं इतना ही कह पाया । यों भी सूट- बूटवाले आदमी का मुझ पर रोआब छा जाता है । यहाँ तो इसके दोनों हाथों की अँगुलियों पर नगीने चमक रहे थे, और नाइलॉन की कमीज के नीचे सोने की चेन थी ।

मेरा सिर चकरा रहा था । यह आदमी चोर कैसे हो सकता है ? न इसकी बगल में छुरा , न दाढ़ी- मूंछों के बीच चमकते खूंखार दाँत, पर दिन -दहाड़े अपने मुँह से मुझे कह रहा है कि तुम्हारा स्कूटर मैंने उठाया है । क्या चोर ऐसे होते हैं ? अलीबाबा का भाई कासिम चोरों की गुफा में गया था , और वहाँ से जिन्दा लौट नहीं पाया था । मैं इसके बाड़े में खड़ा हूँ और यह इस तरह मेरे साथ बतिया रहा है जैसे मेरा मौसेरा भाई हो ! आखिर यह माजरा क्या है ?

" क्या ये सभी मोटरें और स्कूटर आप ही के हाथ की सफाई... ” मैंने बेतकल्लुफी से कहा।

" और क्या - " उसने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा, और फिर से मेरे स्कूटर को सहलाने लगा, "यह शीशा तो इस पर मैंने बाद में लगवाया था जब मैं वैष्णोदेवी की यात्रा करने जा रहा था । इलाका पहाड़ी है न, पीछे से आनेवालों की खबर रहनी चाहिए। बड़े तीखे मोड हैं । घर के लोग बहुत कहते रहे, हम तुम्हें स्कूटर पर नहीं जाने देंगे, पर मैं नहीं माना। मैंने कहा, देवी की कृपा होगी तो कुछ नहीं होगा। "

" आप वैष्णोदेवी की यात्रा पर गए थे ?" मैं बुदबुदाया ।

"मैं हर साल जाता हूँ । और कहीं जाऊँ या नहीं जाऊँ , पर वैष्णो देवी के दर्शन करने जरूर जाता हूँ। "

उसने धर्मपरायण व्यक्ति की तरह तनिक गद्गद होकर कहा, "साल में एक बार तो देवी का प्रसाद मिलना ही चाहिए। "

"बेशक, मैंने कहा, “ मेरे स्कूटर पर और भी कोई तीर्थ-यात्रा की है ? मैंने पूछा। पर वह सुना- अनसुना करके स्कूटर को फिर से सहलाने लगा ।

" इसे तो मैंने बड़े चाव से रखा है । इसे केवल अपने इस्तेमाल के लिए रखता था ...हालाँकि स्कूटर की सवारी ज्यादा पसन्द नहीं करता। "

"बेशक, "मैंने फिर कहा, “जिसके पास इतनी मोटरें हों, वह स्कूटर की सवारी क्यों करेगा। "मुझे लगा जैसे मैं उसकी चापलूसी करने लगा हूँ। पुलिसवालों ने पूछा है कि मैं अपना स्कूटर वापस लेना चाहता हूँ या नहीं, आप क्या सोचते हैं ?

" ले लो , ले लो, इसका इन्जन अच्छा है, और मैंने इसे बड़ी हिफाजत से रखा है। " उसने बड़े भाइयों की तरह मुझे मशविरा देते हुए कहा।

" लेकिन अब मुझे मिलेगा कैसे ? "

“ इसकी सुपुर्दगी तो पुलिस वाले ही करेंगे। " वह बोला, " आपने तो बीमा कम्पनी से मुआवजा ले लिया है ना ? "

" आपको कैसेमालूम है कि मैंने मुआवजा ले लिया है? "

"इतनी खबर तो रहती ही है ना, भाई साहब! " उसने उस्तादाना मुस्कराहट के साथ कहा ।

बाड़े में से लौटते हुए मैं मन - ही -मन सोच रहा था, यार, यह माजरा क्या है ? यह आदमी अपने मुंह से कह रहा है कि इसने स्कूटर चोरी किया है, पुलिस ने पर्चा देकर मुझे इसके घर भेजा है, पर इसकी पेशानी पर शिकन नहीं। कभी चोर भी लोगों के सामने कबूल करते हैं कि उन्होंने चोरी की है ?

दूसरे दिन जब मैं पुलिस स्टेशन पहुंचा तो मुझसे न रहा गया। मैंने पुलिस - इन्स्पेक्टर से पूछ ही लिया, “ एक बात समझाइए, इन्स्पेक्टर साहब, जिस आदमी के बाड़े में मेरा स्कूटर रखा था उसने मेरे सामने कबूल किया है कि स्कूटर उसी ने उठाया था । बल्कि और भी बहुत- सी गाड़ियाँ और स्कूटर उसी ने उठाए थे। फिर उसे पकड़ा क्यों नहीं गया? "

पुलिस अफसर ने मुझे इस नजर से देखा जैसे बाप अपने नन्हे से बेटे का बचकाना सवाल सुनकर उसे देखता है, “ आपसे खुद कहा था कि उसने चोरी की है? "

" जी । "

" कोई गवाही है आपके पास ? "

"मगर मैं जो कह रहा हूँ कि उसने खुद मुझसे कहा है। "

" आप सच बोल रहे हैं , मगर कोई गवाही है आपके पास? "

" पुलिस भी तो जानती है कि उसी ने गाड़ियाँ चुराई हैं , वरना आप मुझे उसके बाड़े में क्यों भेजते ? "

"हमने उसी के यहाँ गाड़ियाँ बरामद की हैं । "

"फिर उसे पकड़ा क्यों नहीं गया? "

“ पकड़ा था , लेकिन जमानत पर रिहा कर दिया गया है । अब मुकदमा चलेगा । "

मैं चुपचाप सुन रहा था । वह मुझे समझाते हुए बोले, "पुलिस पकड़ सकती है मगर सजा तो नहीं दे सकती! सजा देना तो अदालत का काम है। अब अदालत में मुकदमा पेश होगा? "

इस पर इन्स्पेक्टर हँस पड़ा, " आप तो पढ़े-लिखे आदमी जान पड़ते हैं , स्कूटर चलाते हैं । कानून कभी ऐसे भी चलता है? कानून, कानून है साहब । कानून में उस वक्त तक वह आदमी बेकसूर है जिस वक्त तक उसका कसूर साबित नहीं हो जाता । " और मुस्कराते हुए, गहरे आत्मविश्वास के साथ मेज पर उँगलियों के पपोटे बजाने लगा, और अपने इस विलक्षण वाक्य का प्रभाव मेरे चेहरे पर आँकने लगा ।

" अदालत में आपको भी बुलाया जाएगा। आपकी भी गवाही होगी, बल्कि आपको अपना स्कूटर भी वहाँ पेश करना होगा। बाकायदा मुकदमा चलेगा, अदालत तहकीकात करेगी , पुलिस अपनी जानिब से मुकदमे की पैरवी करेगी । कानून , कानून है, साहब । यह नादिरशाही तो नहीं कि बादशाह ने जिसका सिर चाहा कलम करा दिया । कानून , कानून है। "

पुलिस स्टेशन से निकला तो मुझे लगा जैसे मैं किसी मन्दिर में से निकल रहा हूँ। सिर झुका हुआ, दोनों हाथ पीठ पर और दिमाग के अन्दर न्यायप्रियता और प्रजातन्त्र का जैसे संगीत बज रहा था । उस वक्त तक वह आदमी बेकसूर है जिस वक्त तक उसका कसूर साबित न हो जाए । वाह, वाह , मैं अश- अश कर उठा। पर सड़क पर चलते-चलते मेरी आँखों के सामने उस आदमी का वैष्णोदेवी के उस भक्त का चेहरा घूम गया, और फिर मैं असमंजस में पड़ गया । यह क्या कैफियत है यार ? पुलिस इससे माल बरामद करती है और कहती है यह चोर है, चोर खुद निराले में कह रहा है कि उसने चोरी की है। पर अदालत कहती है कि साबित करो कि इसने चोरी की है ।

खैर, तो कुछ दिन बाद, मैंने बीमा कम्पनी को मुआवजे की रकम वापस कर दी और स्कूटर को घर ले आया । फिर से गले में रेशमी रूमाल बाँधा, आँखों पर काला चश्मा लगाया , बीवी को पीछे बैठाया और फिर से दिल्ली की सड़कों पर सैर करने निकल आया । मारो गोली, कानून जाने, कानून का बाप! हमारी चीज हमें मिल गई, अब कानून अपना इंसाफ करता फिरे। लगभग छह महीने बाद कूल्हों के नीचे स्कूटर उड़ रहा था । उसकी सुरताल में कोई विशेष अन्तर नहीं आया था । तीर्थयात्री ने सचमुच इसकी अच्छी देखभाल की थी । वह सचमुच ज्यादा सहज , धीर-गम्भीर गति से चलने लगा था, उसे जैसे सुकून मिल गया हो, तैरता - सा चलता था । पत्नी की नजर में भी मेरा दर्जा हल्के -हल्के ऊँचा उठने लगा, हालाँकि अब कभी-कभी मुझे महसूस होता कि मेरा दर्जा अब स्कूटर के मालिक का न होकर एक ड्राइवर का - सा हो गया है जैसे मैं अपनी बीवी को कहीं पहुँचाने के लिए स्कूटर चला रहा हूँ । अब वह मेरी कमर में हाथ भी डालती तो प्यार के कारण नहीं, संभलकर बैठ पाने के लिए, और बात करती तो लगता हुक्म दे रही है ।

पर वह सुख क्या जो दिल्ली में दो दिन से ज्यादा निर्विघ्न चलता रहे ।

एक और पर्चा आया। अब की बार अदालत की ओर से था कि अमुक दिन, प्रातः दस बजे, तीसहजारी में हाजिर हो जाओ। साथ में स्कूटर का आना जरूरी है । अब तक स्कूटर लेने के बाद लगभग नौ महीने का वक्त बीत चुका था । मेरे मन में खीझ उठी। जिन दिनों स्कूटर मिला था , उन दिनों मेरी दिलचस्पी चोर में , अदालत में और इंसाफ में थी , पर अब तो स्कूटर भी वैष्णोदेवी की चढ़ाई भूल चुका है, अब मुझे क्या लेना - देना ।

पर फिर भी मैं हाजिर हो गया। मेरी दिलचस्पी इंसाफ में न हो , अदालत की दिलचस्पी तो इंसाफ में है ।

कचहरी में पहुंचा तो वहाँ आदमी- ही - आदमी थे, सीढ़ियों पर आदमी, दीवारों से चिपके आदमी, फर्श पर बैठे, लेटे, अधलेटे आदमी, दरवाजों में, खिड़कियों में आदमी-ही - आदमी, और उनके बीच रेंगते -से, काले कोट-वाले वकील, हर दस आदमियों के पीछे एक रेंगता वकील । मैंने किसी मेले-ठेले में, किसी जलसे-जुलूस में इतने आदमी नहीं देखे थे, जितने वहाँ मौजूद थे।

और सभी किसी की राह देख रहे थे, किसी का इन्तजार कर रहे थे। ये किसकी राह देख रहे थे ? इंसाफ की ?

अदालत के कमरे के पास से गुजरा तो पीछे से किसी की ऊंची- सी आवाज सुनाई दी ।

" मूलराज वल्द हुक्मचन्द! "

और दीवार से चिपककर बैठा कोई मूलराज हड़बड़ाकर उठा, और भागता हुआ , आदमियों की गाँठ को चीरता हुआ अदालत के कमरे में जा पहुँचा। आदमियों की गाँठ फिर बन्द हो गईं । जिस जगह पर मूलराज बैठा था , उस जगह पर अब कोई दूसरा मूलराज चिपककर बैठ गया था ।

मैं भी उचक -उचककर, कमरों के नम्बर पढ़ता, आखिर कमरा नं .- के बाहर पहुँचा। दरवाजे के पास ही उस दिन के मुकदमों की सूची लगी थी । मैंने ध्यान से सूची को पढ़ा। सूची में मेरा नाम नहीं था । पहले तो दिल को धक्का - सा लगा । जब भी कभी किसी सूची में मेरा नाम न हो , मेरे दिल को धक्का लगता है, मैं सोचता हूँ, इस काबिल नहीं समझा गया कि सूची में मेरा नाम देख पाने की ललकी उत्तरोत्तर बढ़ती रही है, भले ही चोरों की सूची ही क्यों न रही हो ,नाम तो होना ही चाहिए। फिर मन में विचार उठा, सूची में मुजरिमों का नाम होगा, मेरा क्यों होगा, पर मन माना नहीं। नाम देने में क्या हर्ज है, जिसका स्कूटर चुराया गया, क्या वह कम महत्त्व का आदमी है ? चोर - चकार का नाम दिया जा सकता है, मेरा नहीं दिया जा सकता ?

मुझे बुलावा भी नहीं आया । कुछ देर बाहर डोलने के बाद मैंने भीड़ में इधर-उधर आँखें दौड़ाईं। वह चोर महाशय तो जरूर यहीं पर होंगे । आखिर, इस बारात के दूल्हा तो वही हैं । पर वह सज्जन कहीं दिखाई नहीं दिए । साहस बटोरकर मैं मुवक्किलों-मुद्दइयों की गाँठ को चीरकर अदालत के कमरे में जा पहुँचा। वहाँ लकड़ी के ऊँचे- से चबूतरे पर, एक लम्बी- चौड़ी मेज के पीछे, काला कोट पहने और आँखों पर मोटा- सा चश्मा लगाए मजिस्ट्रेट साहब बैठे थे। उनके सामने नीचे, फर्शपर, दस -बारह आदमी खड़े थे, जिनमें से दो -तीन काले कोटवाने वकील थे, दो तीन पुलिस की वर्दीमें थे। चोर वहाँ पर भी नहीं था । मेज पर फाइलों का अम्बार लगा था ।

" यह आदमी कौन है ? इधर क्यों घूम रहा है ? "

मजिस्ट्रेट साहब की कड़ी आवाज थी और इशारा मेरी ओर था ।

मैं मजिस्ट्रेट साहब के सामने जा खड़ा हुआ ।

" युअर एक्सिलेसी! " मैंने कहा, “ मेरा स्कूटर चोरी हो गया था । और उस सम्बन्ध में आज मुझे यहाँ बुलाया गया है। "

युअर एक्सिलेन्सी कहने का सचमुच लाभ हुआ । किसी जमाने में मुझे एक बुजुर्ग ने नसीहत की थी कि सिपाही को सिपाही कहकर मत बुलाओ, हवलदार कहकर बुलाओ, और हवलदार को थानेदार इससे हाकिम नर्म पड़ जाता है । मैंने भी युअर एक्सिलेन्सी कहा तो मजिस्ट्रेट के चेहरे की मांसपेशियाँ ढीली पड़ गईं ।

" कौन- सा मुकद्दमा है यह ? " .

"हूजूर! " सरकारी वकील बोला, “यह मोटरों की चोरीवाला केस है। मगर हुजूर आज वह मुकद्दमा पेश नहीं होगा। मुजरिम के वकील ने दूसरी तारीख दी जाने की दर्खास्त दी है। "

" क्यों ? "

" गवाह पेश नहीं किए जा सके हजूर! "

" हाँ हाँ ! " मजिस्ट्रेट ने कहा, फिर मुझे सम्बोधन करके बोले , " आज आप तशरीफ ले जाइए। अगली तारीख की आपको इतला कर दी जाएगी । " और फिर अपने काम की ओर मुखातिब हो गए ।

मैंने चैन की साँस ली । बात टल जाए तो मैं चैन की साँस लेता हूँ, विशेषकर जब कोई सरकारी मामला हो । पर तभी मुझे खयाल आया कि अगली तारीख को मुझे फिर अदालत में पेश होना पड़ेगा । इसमें क्या तुक है। कुछ देर तक वहीं डोलते रहने के बाद, यह सोचकर कि मुमकिन है मजिस्ट्रेट साहब को गलतफहमी हुई हो , मैं फिर उनके सामने जा खड़ा हुआ । मजिस्ट्रेट के चहरे की मांसपेशियां तन गईं ।

" युअर एक्सिलेन्सी, दरअसल मेरा स्कूटर चुराया गया था । मुझ पर कोई मुकद्दमा नहीं है । इसलिए... "

“मैं जानता हूँ। "हिज एक्सिलेन्सी बोले, “ आपको भी इस मुकद्दमे में बयान देना है । "

" बयान तो हुजूर मैं दे चुका हूँ। मैंने पुलिस को पहले दिन ही बयान लिखा दिया था । "

" वह पुलिस को दिया गया था । तुम्हें अदालत में बयान देना होगा । "

" युअर एक्सिलेन्सी, अगर आज ही मेरा बयान ले लिया जाए... "

“मैं और काम छोड़ दूँ? " मजिस्ट्रेट गुस्से से बोले, “ आज यह मुकद्दमा पेश नहीं होगा। "

मैं कुछ कहने जा ही रहा था कि किसी ने मेरी आस्तीन खींची । नाटे- से कद का एक गोरा सा आदमी मेरी बगल में खड़ा था, वह मुझे इशारे से एक ओर ले गया, “मजिस्ट्रेट से जिरह नहीं करते । आप अगली तारीख को आ जाइए, मैं आपको जल्दी फारिग करवा दूंगा। "

मैं बाहर आ गया , स्कूटर को किक लगाई और घर के लिए रवाना हो गया ।

अगली तारीख तीन महीने के बाद आई। मैं दफ्तर से छुट्टी लेकर स्कूटर दौड़ाता फिर पहुँच गया । उस रोज भी चोर महाशय मौजूद नहीं थे। पता चला कि आज वह किसी दूसरे मुकद्दमे में पेश होने गए हैं, वक्त पर आ गए तो यहाँ उनका मुकद्दमा पेश होगा, वरना नई तारीख दे दी जाएगी ।

मैं डोलता हुआ फिर हिज एक्सिलेन्सी के सामने जा खड़ा हुआ। मेरी टाँगें लरजने लगी थीं, क्योंकि मुझे डर था कि वह फिर मुझे डाँट देंगे ।

" युअर एक्सिलेन्सी मेरा स्कूटर चोरी हो गया था , उस सिलसिलेमें मैं हाजिर हुआ हूँ । " उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा ।

" यह क्या मामला है ? "

सरकारी वकील ने फिर केस का हवाला दिया और बताया कि आज मुलजिम किसी दूसरे मुकद्दमे में पेश हो रहा है ।...

पर मजिस्ट्रेट को केस याद आया और उन्होंने इस बात की इजाजत दे दी कि मैं अपना बयान लिखवा दूँ। मुलजिम का वकील मेरे पास ही खड़ा था । यहाँ मुझसे एक भूल हो गई। मैं चोर को चोर कह बैठा। अपने बयान में मैं यह भी कह बैठा कि चोर ने खुद मुझसे कहा है कि उसने मेरा स्कूटर उठाया था ।

इस पर चोर का वकील तड़प उठा, "हुजूर, यह आदमी मेरे मुवक्किल को चोर कैसे कह सकता है । "

मजिस्ट्रेट साहब ने अपनी तर्जनी उठाते हुए मुझे चुप रहने को कहा, “ तुम तथाकथित मुलजिम कह सकते हो। ”

"युअर एक्सिलेन्सी, मैं यह सब अपनी तरफ से नहीं जोड़ रहा हूँ । चोर ने सचमुच मुझे बताया है, वह मेरे स्कूटर पर वैष्णोदेवी भी गया था । "

चोर का वकील चिल्लाया : “माई लार्ड, यह अदालत की तौहीन है ! "

इस पर मजिस्ट्रेट को भी गुस्सा आ गया , अब की बार अपनी तर्जनी को पिस्तौल की तरह मेरी छाती पर दागते हुए बोले, “मैं तुम्हें अदालत की तौहीन के जुर्म में हवालात में बन्द कर सकता हूँ। तुम सीधे-सीधे अपना बयान लिखवाओ। "

तभी मेरी कुहनी पर फिर किसी ने झटकारा दिया । ठिगने कद का गोरा मुंशी था । " आप लिखवाइए साहब, वरना लेने के देने पड़ जाएँगे। "

मैं घबरा गया । और इसी घबराहट में मैं भूल गया कि वह तारीख कौन - सी थी , जब मेरा स्कूटर उठाया गया था ।

" पुलिस को उस रात मैंने बयान दिया था । वह जरूर यहाँ फाइल में मौजूद होगा । उसमें तारीख लिखी है। "

" आप फाइल नहीं देख सकते। " वकील चिल्लाया ।

" माई लार्ड, गवाह को फाइल नहीं दिखाया जा सकता । "

नाटे मुंशी ने फिर कुहनी को दबाया ।

"लिखाइए , साहब लिखाइए । " वह फुसफुसाया । मैं डर रहा था कि अगर मैंने तारीख गलत लिखवा दी तो मेरा सारा बयान गड़बड़ा जाएगा ।

खैर, जैसे- तैसे मैंने बयान लिखवाया । पर लिखवाते -लिखवाते मेरा पसीना छूट गया । यही डर बना रहा कि कहीं कोई गलत- बयानी हो गई तो मुझे ही हवालात में न भेज दें ।

आखिर बयान पर मैंने दस्तखत किए और चैन की साँस ली । चलो, छुट्टी हुई , अब कभी अदालत का मुँह नहीं देखूँगा ।

मैंने झुककर बड़े अदब से कहा " युअर एक्सिलेन्सी , मैंने बयान लिखवा दिया है । "

"स्कूटर लाए हो ? " मजिस्ट्रेट ने पूछा ।

“ जी , बाहर रखा है । "

" अगली पेशी पर भी ले आना। "

" अगली पेशी ? वह किसलिए युअर एक्सिलेसी ? मैंने अपना बयान तो लिखवा दिया है। "

इस पर मजिस्ट्रेट ने फिर तर्जनी दागते हुए कहा, "हर पेशी पर स्कूटर को पेश किया जाना जरूरी है। उन्होंने फर्माया, फिर तनिक ढीले पड़कर बोले, “ तुम खुद नहीं आ सकते तो किसी ड्राइवर के हाथ भेज दो । "

"हुजूर, स्कूटरों के ड्राइवर नहीं होते । केवल मोटरों के ड्राइवर होते हैं । "

"स्कूटर का यहाँ पेश किया जाना जरूरी है । " उन्होंने दृढ़ता से कहा, “ और सुनो, जब तक मुकदमे का फैसला नहीं हो जाता, तुम अदालत की इजाजत के बगैर उसे बेच नहीं सकते। "

फिर सरकारी वकील से बोले - "अगली पेशी की तारीख इसे अभी से बता दो, बल्कि इससे लिखवा लो कि इसका स्कूटर यहाँ पहुँचाया जाएगा। "

अगली तारीख 11 जून रखी गयी थी ।

11 जून आयी। मैं अदालत में पहुँचा। फिर 15 अक्तूबर आयी, मैं स्कूटर लेकर अदालत में मौजूद था । फिर 3 फरवरी आयी, मैं अदालत में मौजूद था । और इसके बाद पेशियों का ऐसा ताँता शुरू हुआ कि थमने में नहीं आया। पेशियाँ अभी तक बराबर चल रही हैं । हर तीसरे -चौथे महीने पेशी होती है । एक बार अदालत में पहुँचा तो मजिस्ट्रेट बदल चुके थे। दूसरी बार पहुँचा तो अदालत बदल चुकी थी, तीस हजारी के स्थान पर मुकद्दमे की पैरवी पार्लियामेण्ट स्ट्रीट की अदालत में होने लगी थी । पर तथाकथित मुलजिम केवल एकाध बार ही देखने को मिला, एक बार पता चला कि वह किसी दूसरी कचहरी में शहादत देने गया है । दूसरी बार पता चला कि शहर में नहीं है, वैष्णोदेवी की यात्रा पर गया है ! नाटे मुंशी ने बताया उसका यहाँ रहना इतना जरूरी नहीं कि जितना उसके वकील का रहना जरूरी है, या फिर मेरे स्कूटर का ।

मुकद्दमा बराबर अभी भी चल रहा है। इस बीच मेरी कनपटियों के बाल सफेद हो चुके हैं । इस बीच मेरी पत्नी दो बच्चों की मां बन चुकी है । मुकद्दमे में तीन मजिस्ट्रेट बदले जा चुके हैं । दो सरकारें बदल चुकी हैं , लेकिन मेरे स्कूटर के चोर का अभी तक सही तौर पर पता नहीं चल पाया , तहकीकात बराबर जारी है ।

सब कुछ सामान्य गति से चल रहा है, केवल एक बात पहले की - सी नहीं रही। अब स्कूटर वह स्कूटर नहीं रहा, अब वह बुढ़ाने लगा है । सड़क पर चलते- चलते खाँसने छींकने लगता है । कभी-कभी चलते-चलते खड़ा हो जाता है । किक पर किक मारो, चलने का नाम नहीं लेता । मैं अब गले में रुमाल बाँधकर स्कूटर पर हवाखोरी के लिए नहीं जाता। पत्नी ने स्कूटर की सवारी करना छोड़ दिया है ।

परसों अदालत में पेशी थी । स्कूटर ने जाने से इनकार कर दिया । मैं घण्टा भर किकें जमाता रहा, दो हमसायों से धक्के मरवाए, पर उसने ऐसी जिद्द पकड़ी कि दो गज दूर तक चलने का नाम नहीं लिया । एक मैकेनिक के पास ले गया तो बोला, “साहब , गाड़ी ओवरहाल माँगती है , मैंने पहले भी कहा है। रोज की ठक-ठक से क्या फायदा ? इस वक्त ठीक कर भी दूं तो इसका कोई भरोसा नहीं । मैंने कचहरी का वास्ता डाला। वहाँ वक्त पर नहीं पहुंचा तो मुकद्दमे की कार्रवाई शुरू नहीं हो पाएगी। इस पर मैकेनिक हँस दिया, “ साहब, हर बार आप यही कहते हैं ।

मैं एन वक्त पर कचहरी पहुँच गया । मतलब कि मैं और स्कूटर दोनों कचहरी पहुंच गए । स्कूटर अपती मशीन के बल पर भले ही चलने से इनकार कर दे, अकेले जाने पर सचमुच चलने लगता है। चुनाँचे फिल्मिस्तान सिनेमाघर से लेकर कचहरी तक का रास्ता हम दोनों ने साथ साथ चलकर ही तय किया ।

मैंने मजिस्ट्रेट साहब को पसीना पोंछते हुए सलाम किया ।

" स्कूटर ले आए?"

“ जी ! "

यह पाँचवें मजिस्ट्रेट हैं जो इस मुकद्दमे की देखभाल कर रहे हैं । बार-बार कचहरी आने के कारण मुझे पहचानने लगे हैं , इस कारण मेरे साथ मेहरबानी से पेश आते हैं । कचहरी में पहुँचने । के घण्टे -भर के अन्दर ही मेरी हाजिरी लगाकर मुझे अगली तारीख दे देते हैं ।

अगली तारीख मिल जाने पर मैंने बड़ी विनप्रता से कहा, "हुजूर, मेरा स्कूटर इस हालत में नहीं है कि अदालत तक पहुँच सके । "

उन्होंने पलकें उठाईं “ आज मैं स्कूटर को पैदल धकेलकर लाया हूँ । " मैंने बड़ी आजिजी से कहा ।

मजिस्ट्रेट सोच में पड़ गए, फिर सिर हिलाकर बोले, "किसी छकड़े-टाँगे पर रखकर ले आया करो । छकड़े पर तो स्कूटर आसानी से रखा जा सकता है। " उन्होंने कहा और तीन महीने आगे की तारीख दे दी ।

मैं चुप हो गया । कहता भी तो क्या । उसी रोज मैंने एक छकड़े पर मरे हुए भैंसे की लाश को ले जाए जाते देखा था । अगर मरे हुए भैंसे को लादा जा सकता है तो स्कूटर को भी लादा जा सकता है ।

फिर भी मैंने साहस बटोरकर कहा, “ युअर एक्सिलेन्सी, मुझे एक बात का डर है। अगर इस बीच मेरे स्कूटर ने दम तोड़ दिया तो इस तहकीकात का क्या होगा ? "

मजिस्ट्रेट ने क्षण -भर के लिए सोचा, फिर बोले, "तहकीकात जारी रहेगी! "

मैं बाहर आया। यार्ड में खड़े स्कूटर का नाक -मुँह पोंछा, पुचकारा, फिर किक लगाई । जवाब नदारद । फिर किक लगाई, फिर भी जवाब नदारद । फिर एक - के - बाद एक किकें लगाने लगा। कभी पेट्रोल खोलता, कभी बन्द करता। जवाब नदारद।

इस बची अदालत लंच के लिए उठ गई । फर्राटे से एक कार मेरे पास से गुजरी। मैंने पसीना पोंछते हुए, आँख उठाकर देखा, मजिस्ट्रेट साहब की कार थी । वह पीछे की सीट पर बैठे थे और उन्होंने पीछे की ओर मुड़कर मेरी ओर देखा भी । इसके कुछ देर बाद एक स्टेशन बेगन पास से गुजरी । वह भी फर्राटे- से गुजर गई। उसमें से भी कुछ लोगों ने घूमकर मेरी ओर देखा। वह पुलिस की जीप थी, मैंने पुलिस इन्स्पेक्टर और नाटे मुंशी को पहचान लिया । मुंशी ने मुझे देखकर हाथ हिलाया ।

फिर मेरी किकें जारी रहीं। मन में आया फिर इसे धकेलकर ले चलूँ । लेकिन स्कूटरवाले के दिल में इस बात की आशा सदा बनी रहती है कि अगली किक पर स्कूटर का इंजन चलने लगेगा ।

तभी एक कार आई और पास आकर रुक गई। काले रंग की चमकती फिएट कार थी । “ कहिए भाई साहब , स्कूटर चल नहीं रहा है ? परेशान कर रहा है ? "

अरे, यह तो दयाराम था ! मेरे स्कूटर का चोर ! नहीं, नहीं तथाकथित चोर , इन वर्षों में केवल दो - एक बार ही कचहरी में इसकी झलक मिली थी । कार में बैठे- बैठे ही बोला, “ इसकी क्या हालत बना रखी है यार। इतना बढ़िया स्कूटर हुआ करता था । "

वह बड़ी सद्भावना से स्कूटर की ओर देखता रहा, मानो इसके साथ बड़ी सुखद स्मृतियाँ जुड़ी हों ।

" वैष्णोदेवी की पूरी चढ़ाई यह स्कूटर चढ़ गया था । यह मशीन है आखिर। मशीन का ध्यान नहीं करोगे तो मशीन तुम्हारी खिदमत नहीं करेगी। "

मैं हाँफ रहा था । उसकी नसीहत सुनकर मुझे बढ़ी कोफ्त हुई पर उसके हाथ की अंगूठियों की ओर नजर गई तो सहसा एक विचार मेरे मन में कौंध गया । मैं स्कूटर को छोड़कर उसके पास चला गया ।

"एक परेशानी है, दयारामजी। "

"कहो, हुक्म करो । क्या बात है? "

" हर पेशी पर मुझे स्कूटर लाना पड़ता है। यह छठा साल चल रहा है । इस लाश को उठाकर लाना अब मेरे लिए बहुत मुश्किल है। "

" वाह, इतनी- सी बात के लिए परेशान हो रहे हो ? पहले क्यों नहीं कहा । चिन्ता नहीं करो । हो जाएगा, कोई-न -कोई तरकीब निकल आएगी। इनकी ऐसी- की - तैसी। " कहते हुए उसने मेरा कन्धा थपथपाया। उसके हाथ की अनगिनत अंगूठियाँ चमक उठीं। “ हो जाएगा। " उसने कहा और कार चला दी और फर्राटे से वहाँ से निकल गया ।

मैं अभिभूत - सा खड़ा रह गया और ठीक तरह से अपना आभार भी प्रकट नहीं कर पाया ।

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