लापता लड़की (उड़िया कहानी) : सरोजिनी साहू
Lapata Ladki (Oriya Story) : Sarojini Sahu
"देखो, कितनी बदमाश है वह ! मेरे सामने से चली गई, फिर भी मुझे पता नहीं चला। मैं बगीचे में पानी दे रही थी, हर दिन की तरह " .
उसने कहा, “मैं जा रही हूँ।”
“हाँ, जाओ” मैने कहा।
बस, वह चली गई। उसके जाने के दो घंटे बाद मुझे पता चला, वह अपने घर नहीं गई। उसका छोटा भाई उसे खोजने आया था। उस समय शाम के सात बज रहे थे। दिसंबर की शाम, मानो रात हो गई हो। उसके भाई के जाने के बाद मुझे लगा जैसे मेरे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई हो। मेरे अंदर अस्थिरता इतने जोर- जोर से दौड़ने लगी, ऐसा लग रहा था मानो शरीर फट जाएगा। मैने भागकर फोन का रिसीवर उठाया और अमिय को खबर करने लगी। फिर उसी क्षण मुझे याद आया, सात बज चुके हैं अमिय अब ऑफिस में नहीं होगा, वह रास्ते में होगा। मैने बेचैनी से मिसेज चौधरी को फोन लगाया। उसको मिश्री के भागने की खबर सुना दी। मिश्री के भागने की खबर मेरे लिए जितनी चिंताजनक थी, उतनी ही आश्चर्य का विषय भी थी। मिसेज चौधरी को मेरी बात सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ,बल्कि कहने लगी- “मुझे मालूम था। मेरी कामवाली को उसने अपने भागने के इरादे के बारे में बता दिया था।”
“अरे, आपने मुझे पहले नहीं बताया?
“मैने इस बात को ज्यादा महत्व नहीं दिया था।”
फिर मिश्री के भागने की बात कहकर जोर से हंसने लगी। हंसी रुकने के बाद कहने लगी, “अरे देखिए, घर से क्या- क्या चीजें गायब है?” कहते- कहते फिर एक बार हंसने लगी।
“मैं रखती हूं।” कहते हुए मैने रिसीवर रख दिया। मिसेज चौधरी की बात सुनकर मेरा कलेजा कांप उठा। मैं चार बजे के आस-पास घर लौटी और अलमारी खोलने गई तो देखा अलमारी खुली पड़ी थी। हर दिन घर से निकलने से पहले मैं अलमारी में ताला लगाती थी, पर्स, चाबी लेकर जाती और लौटकर पर्स, साड़ी रखने के लिए अलमारी खोलती थी। छुट्टी के दिन जब मैं घर में रहती थी तो ताला नहीं लगाती थी। ऑफिस जाने की जल्दबाजी और अन्यमनस्कता के कारण ताला नहीं लगाया, सोचकर चार बजे उस बात को महत्त्व नहीं देने से मन शंकित हो उठा था। अचानक मिश्री के भाग जाने की घटना के बाद अलमारी के खुले होने की बात को मैं सहज ग्रहण नहीं कर पाई थी। मेरा दिल धड़कने लगा। मैने लॉकर खोलकर अपने सारे जेवरात देख लिए। मुझे, पता नहीं क्यों, याद नहीं आ रहा था, कौन- कौन से गहने मैने बैंक के लॉकर में रखे थे और कौन से घर में? मेरे कान के कितने फूल घर में थे, उस समय हिसाब नहीं कर पाई। तब ऐसा लग रहा था सब ठीक- ठाक है। एक दिन पहले अमिय ने बैंक से दस हजार रुपए निकाले थे। रुपयों की बात याद आते ही मैं और नर्वस हो गई थी। अलमारी के अंदर छोटे स्टील बॉक्स में मैने दस- दस के दो बंडल और पांच रुपयों के कुछ बंडल देखे थे। रूपए गिनने का धैर्य मुझमें और नहीं था। उनमें से कितने अमिय ने लिए हैं और कितने मिश्री ने, मुझे पता नहीं था। फिर भी सारे रूपए दस हजार होंगे, मुझे नहीं लग रहा था। अमिय के आने का इंतजार करने के अलावा मेरे पास कोई उपाय नहीं था। अपनी गलती की वजह से ताला नहीं लगाकर जाने से मैं अपने आपको दोषी मान रही थी। ऐसे लग रहा था जैसे मैं अच्छी तरह से ताला लगाकर जाती हूं, मगर कई दिनों से उस लड़की ने अवश्य ही डुप्लीकेट चाबी बनाकर रखी होगी। छि ! छि!, किसका विश्वास करेंगे? हैंगर पर लटक रही सारी साड़ियों को मैने एक- एक करके देखा। आजकल साड़ियों की कीमत सोने से भी ज्यादा है। समेटकर रखने पर पहाड़ की तरह लगने लगती है। इतनी साड़ियों में से कौन सी साड़ी ले गई होगी, कैसे पता चलेगा?
अमिय अभी तक नहीं लौटा था। बच्चें ट्यूशन चले गए थे। मैं अपनी बेचैनी पर और काबू न कर सकी। मिसेज बनर्जी को मैने फोन लगाया, मिसेज बनर्जी ने मिश्री के बारे में मुझे जो कुछ बताया, वे सारी बातें मुझे पहले से पता नहीं थी। मैं घर पर नहीं रहती हूं इसलिए मुझे उन बातों की जानकारी नहीं है, ऐसा उनका कहना था। उसी समय अमिय के पहुंचने की आवाज सुनकर मैने फोन रख दिया। अमिय के गैरेज में अपनी गाड़ी रखते-रखते मैं वहां पहुंच गई। अपने जूते खोलते-खोलते उसको मैने संक्षिप्त में सारी बातें बता दी, “सुन रहे हो? मिश्री भाग गई।” अमिय बात को नहीं समझ पाया और उस बात को दोहराने लगा, “मिश्री भाग गई?”
“ओह, हमारी मिश्री, किसी लड़के के साथ भाग गई है।”
“किस लड़के के साथ? क्या, नहीं शेखर? वह भाग गई, तुम्हे कैसे पता? जाने दो, दो दिन के बाद फिर लौट आएगी।” अमिय ने हंसते-हंसते कहा।
“नहीं, इस बार वह लौटेगी नहीं। इस बार वह शेखर के साथ नहीं गई है। कहीं किसी आटा चक्की पर काम करने वाले लड़के के साथ गई है। मुझे लग रहा है, अपने यहां से कुछ पैसे भी चुरा ले गई है। जरा देखो तो?”
मिश्री के संबंध में मुझसे सारी नई बातें सुनकर अमिय गंभीर हो गया और सीधे जाकर अलमीरा खोलने लगा। वह हतप्रभ रह गया, लगभग हजार रुपये गायब थे अर्थात् हजार रुपयों का हिसाब उसे नहीं मिल रहा था। मैं सिर पर हाथ रखकर बैठ गई, लड़की हजार रुपए लेकर भाग गई? मैने उसे अपनी बेटी की तरह रखा था। आखिर में उसे ऐसा करना था?
अमिय वातावरण को हल्का करने के लिए कहने लगा, “आज के जमाने में इतने पैसों से चाय भी नहीं मिलती है।”
वास्तव में इस अनहोनी घटना से मैं बुरी तरह टूट चुकी थी। मेरे घर से हजार रुपए की चोरी हुई है, जानने के बाद मेरे हाथ-पांव लकडी की तरह सुन्न हो गए। उठकर कुछ भी काम करने की इच्छा नहीं हो रही थी। अमिय मेरी हालत देखकर कहने लगा, "जो भी हो, हमारे लिए वह लड़की बहुत अच्छी थी"।
“अच्छी थी !”
“अच्छी नहीं होती तो हमारे बारे में नहीं सोचती और पूरे दस हजार रुपए लेकर चंपत हो जाती।”
वास्तव में, वह लड़की चाहने से सारे पैसे और सोना लेकर भाग सकती थी। वह जानती थी, ऐसे घर में दस हजार रुपए रखने वाले सेठ आदमियों की तरह हम नहीं थे। दो दिन के बाद इस दस हजार रुपयों से बच्चों के स्कूल की फीस, ट्यूशन के पैसे, दूधवाले, अखबार वाले, महीने का सामान इत्यादि खर्चों का भुगतान किया जाएगा। महीने के अंत में वही खस्ता हालत। एक लंबे समय तक लगभग चौदह वर्ष हमारे घर काम करने के कारण घर का चप्पा - चप्पा उसे मालूम था। अगर वह ये सारे पैसे ले जाती तो हमारे घर का बजट इधर- उधर हो जाता। यह बात उसको मालूम थी।
अमिय ने कहा, “एक हजार रुपया वह रास्ते में अपने खर्च के लिए लेकर गई है, कब,क्या परेशानी आ जाएगी?। रुपए लेने से मुझे खराब नहीं लगा, मगर इतनी भयंकर सर्दी की रात में वह गई कहां? कहीं जाने का ठिकाना बताया था?”
“क्या पता? शाम के समय कोई ट्रेन थी क्या? लडका राजपूत जाति का है। बिहार का रहने वाला है, मिसेज बनर्जी बता रही थी।”
उस शाम सारा समय केवल मिश्री के बारे में बातें करते-करते बीता। अमिय के लिए चाय बना रही ही थी कि मिसेज चौधरी, मिसेज प्रसाद, मिसेज बनर्जी सभी मुझे सांत्वना देने के लिए पहुंच गए थे। कामवालियों का गुप्त प्रणय, मिसेज फर्नांडीस के जी.एम के साथ डेटिंग की खबर बताते हुए वे परिवेश को यथेष्ट मुखरित करते हुए चली गर्इं। मिश्री के चालचलन के बारे में जिस तरह उपहास करके वे लोग गईं, मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। मगर मिश्री क्या दूसरी कामवालियों की तरह थी? आठ वर्ष की उम्र में वह हमारे घर को आई थी, लिंफी को संभालने के लिए। नाक बहता था। पेंट मोड़कर गांठ बांधकर पहनती थी, उसी कारण बार-बार कमर से पेंट खिसक जाती थी। जंघाओं के ऊपर एक मैला फ्रॉक पहनती थी। इस तरह था उसका पहनावा। मैने नाक साफ की थी। यह लड़की तो खुद इतनी गंदी है, मेरी बेटी को कैसे संभालेगी? किंतु मेरे पास भी कोई चारा नहीं था। मुझे ऑफिस जाना पड़ता था, कुछ घंटे लिंफी को संभालने के लिए किसी न किसी की जरूरत थी। उसके लिए तेल, साबुन, नए कपड़े लाने पर भी उसमें कोई खास अंतर नहीं आया था। तितली के लार्वे की तरह वह लड़की खाती थी। कभी- कभी लगता था, मिश्री का पेट तो नहीं फट जाएगा?
उस उम्र में छोटी-मोटी चोरी करने का उसका अभ्यास था। फ्रिज से फल या मिठाई खा जाना, पेंटी या समीज चुराकर ले जाना, कभी-कभी खुचरा पैसे उठा लेना.... हर बार वह पकड़ में आ जाती थी और मैं उसको डांटती थी। वह गुस्से से उसके घर काम करने नहीं आती थी। अमिय उसकी बस्ती में जाकर उसको बुला लाता था।
जैसे- तैसे करके मेरे सामने मिश्री बड़ी होकर शादी योग्य हुई। फ्रॉक छोड़कर सलवार कमीज पहनने लगी। उसके घर से वह अपने आप साफ-सुथरा होकर जाने लगी। एक दिन ऑफिस से लौटकर मैने देखा, उसने अपने बाल छोटे-छोटे कटवा लिए थे और बाल गूंथकर दो डिजायनदार चोटियां बनाई थी। पूछने पर वह कहने लगी, उसने अपने आप बनाई हैं। और एक दिन ऑफिस से आने के बाद लिंफी ने भी कहा था, मिश्री मेरी साड़ी पहनकर, मेरी लिपिस्टिक लगाकर मेरे बिस्तर पर सोते हुए फेमिना के फोटो देख रही थी। लिंफी के मना करने पर उसने उसे हॉल में बंद कर दिया था। और एक दिन मुझे सुनने को मिला कि आजकल मिश्री कमल के फूल की तरह महक रही है। और एक दिन डॉक्टर महांति घर पर चाय पीते हुए कह रहे थे, देखिए, एक न एक दिन आपका घर रेड लाइट एरिया बन जाएगा।
मैं उनकी यह बात सुनकर हतप्रभ रह गई थी। उस आदमी को बात करने की तमीज नहीं है। मेरे कुछ कहने से पहले ही वह अपनी बेसिर पैर की बातों के लिए शर्मिंदगी व संकोच अनुभव कर रहे थे। उसके बाद कहने लगे, आपकी नौकरानी का चाल- चलन ठीक नहीं है। डॉक्टर महांती एक उम्रदराज आदमी थे। मेरा मन कह रहा था, वह झूठ क्यों बोलेंगे। उसके बाद बच्चों से मुझे पता चला कि हम दोनो के घर नहीं रहने पर कोई भईया घर के चारो तरफ चक्कर लगाते हैं और मिश्री दीदी उसको देखकर हंसती है। मैने मिश्री की मां को बुलवाया और कहा, “देखो, मैं घर पर नहीं रहती हूं। तुम्हारी लड़की के बारे में उल्टा-पुल्टा सुनने को मिल रहा है। क्या करुँ, बताओ?” उसकी मां भी मेरी तरह लाचार थी। मुंह सुखाकर वह कहने लगी, “हे बहिन ! इस लड़की को संभालना दुखदायी हो गया है। लड़के को देखते ही छटपटाने लगती है। उसकी सहेली लिटी ने उसको बिगाड़ दिया है। लिटी के तो मां-बाप नहीं हैं, उसके चक्कर में पड़कर मिश्री बर्बाद हो गई। मिश्री की बड़ी बहिन बहुत अच्छी थी। उसकी बदनामी कभी नहीं सुनाई पड़ी।
“जो हो गया,सो हो गया, अब क्या करना है, बोलो?”
“क्या करेंगे बहिन जी,हमारा जीवन तो उस पियक्कड़ ने खत्म कर दिया।”
मिश्री की मां की लाचारी के बारे में मुझे पता था। मिश्री का बाप खदान में एक चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी था, जो सारे पैसों को दारु में उड़ा देता था। न केवल उसके घर में बल्कि कंपनी में भी वह सरदर्द था। महीने में पंद्रह दिन काम नहीं करता था। बाकी पंद्रह दिनों की पगार वह घर नहीं लाता था। क्योंकि उसके बाप की बैंक पासबुक दारु के दुकानवाले के पास गिरवी रखी हुई थी। पगार मिलने के दिन उसका बाप पासबुक लेने जाता था, दारु की दुकान वाला उसके साथ आता था और पैसा निकालने के तुरंत बाद उसके बाप से सारा पैसा और पासबुक लेकर चला जाता था। पगार मिलने के दिन वह अवश्य भरपेट पीकर घर लौटता था। पैसों के बारे में कुछ पूछने पर सभी को डंडे से पीटकर घर से भगा देता था। मिश्री के बडे भाई ने अपनी मर्जी से शादी कर ली थी और वह घर से अलग रहता था, और दो छोटे भाई बेरोजगार थे। इसलिए मिश्री का उसके घर में काम करना निहायत जरुरी था।
इधर मेरा भी कम दुख नहीं था। साठ रुपए से बढाकर दौ सो रुपये देने पड़ रहे थे मिश्री को। दो सौ रुपये में मुझे कोई दूसरी नौकरानी मिल जाती, मगर वह मेरे बच्चों के लिए दीदी नहीं बन सकती थी। मेरे ऑफिस जाने के बाद वह बच्चों को खाना-वाना खिलाकर स्कूल बस में बिठाकर आती थी। किसके स्कूल यूनिफॉर्म का रंग छूट गया है, किसका जूता कट गया है, कौन टिफिन नहीं खाकर घर ऐसे ही आ गया है, किसने चड्ढी में पतली दस्त कर दी है, इन सारी बातों की मुझे भनक तक नहीं लगती थी। इन सारी चीजों की जानकारी मिश्री रखती थी। दोनो बच्चें मिश्री को बड़ी बहिन समझते थे, मिश्री बेटे के हाथ पर राखी बांधती थी। केवल इतना ही नहीं, मिश्री मेरे लिए अलाद्दीन का चिराग थी। पैखाना साफ करने से लेकर ओवरहेड टंकी तक वह साफ करती थी। बालू सीमेंट मिलाकर मेसन मिस्त्री के काम से लेकर बगीचे में माली की भूमिका तक अदा करती थी।सप्ताह में एक बार मेरा फेशियल करने से लेकर सर्दी जुकाम होने पर सरसों के तेल से मेरी मालिश भी कर देती थी। इसलिए उसकी इतनी खूबियां देखकर मैं उसे छोड़ नहीं पा रही थी।
मिश्री की खातिर मैं मेरा सुंदर बंगला बदलकर कॉलोनी में अपेक्षाकृत एक छोटे क्वार्टर में रहने आई थी, मगर उसको छोड़ नहीं पाई। मैं सोच रही थी, कॉलोनी में रहने से मिश्री के ऊपर पास-पड़ोसियों की निगरानी रहेगी और वह पहले की तरह लड़के को देखकर इधर- उधर नोकझोंक नहीं कर पाएगी। मिश्री को उसके टीन-एज में संभालना वास्तव में मेरे लिए कष्टप्रद हो रहा था।
कभी-कभी रास्ते में मिश्री की मां मिलने से मुझे कहती थी, “बहिन जी, आप और किसी को रख लीजिए, मैं मिश्री की शादी कर देती हूं।”
मिश्री की शादी की बात सुनकर मेरा दिल धड़कने लगा था। फिर नए सिरे से किसी की खोज। मेरे घर के कायदे कानून के अनुकूल ढालना। वह मिश्री की तरह आज्ञा मानेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं, मिश्री की वजह से मैं घर के सारे कामों से लगभग मुक्त थी। यहां तक कि मेरी तबीयत खराब होने पर वह रसोई भी बना देती थी। उसके दो दिन नहीं आने पर मुझे अंधेरा नजर आने लगता था।
ऐसे समय में जब मैं उसके ऊपर पूरी तरह निर्भर कर रही थी, एक दिन अकस्मात ऐसी अनहोनी घटना घट गई। जहां तक याद आ रहा है, जुलाई का महीना था। मिश्री की मां रोते-रोते सूजी आंखो के साथ मेरे घर पहुंची थी।
“मैं लुट गई, बहिनजी” कहते हुए वह जमीन पर बैठ गई।
पहले से मैं उसके घर के सभी लोगों की बीमारी की हालत में दवाइयां देकर सहायता करती थी। इसलिए सोच रही थी कि शायद उनके घर में कोई बीमार पड़ा होगा।
“कल रात हम में से कोई सो नहीं पाया। मिश्री ने गले में रस्सी तानने के लिए भीतर से दरवाजा बंद कर दिया था। दरवाजा तोड़कर उसे बाहर निकाला गया।”
“क्यों, ऐसा क्या हुआ कि वह आत्महत्या करना चाहती थी? कल तो हमारे घर से बहुत खुश होकर जा रही थी। तुम्हारे घर में झगड़ा हुआ क्या?”
“नहीं बहिन जी, क्या कहूंगी उसके शर्मलाज की बात। बहुत गड़बड कर दी है उसने। पता नहीं, तुम्हारे घर से कब निकली। रिमझिम बारिश हो रही थी न? मैं सोचने लगी, कहीं रुक गई होगी। शाम ढलकर रात होने पर मन में चिंता होने लगी। उसकी सहेलियों लीटी और सुनीता के घर जाकर पूछा। वे कहने लगी, हमने नहीं देखा। कुछ समय बाद भीगे कपडों में वह कांपती- कांपती घर लौटी।”
“कहां पर थी अब तक?” पूछने पर वह इधर- उधर का जबाव देने लगी। मुझे गुस्सा आ गया, मैं तड़ातड आंख बंद करके उसे डंडे से पीटने लगी। वह पैरों में पड़कर कहने लगी, भूल हो गई, अब वह ऐसा नहीं करेगी। उस लड़के ने उसको खा लिया। नालायक उसे पास के जंगल में ले गया। पीटने पर “भूल हो गई, और ऐसा नहीं करुंगी,” कहने लगी। पड़ोसी जानने लगेंगे और अगर उसके पियक्कड़ बाप को पता चल गया तो टेंटुआ दबाकर मार डालेंगा, सोचकर मैं चुप रही। इतने में, भीतर दरवाजा बंदकर फांसी लगाने जा रही थी। इधर -उधर ताक झांक नहीं कर पाएगी।
मिश्री आएगी या नहीं, उसकी मां ने कुछ नहीं कहा। मैं भी साहस करके कुछ पूछ नहीं सकी। उसके बाद अगले दिन काफी सामान्य होकर जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो, मिश्री ने आकर काम करना शुरु कर दिया। उसको देखकर मैं मन ही मन खुश हुई। किंतु उस क्षण प्रचंड घृणा भाव भीतर ही भीतर पैदा हो गया था। मेरे पास से गुजरते समय घृणा से मेरा शरीर भर चुका था। मिश्री के इस शरीर ने एक शादीशुदा औरत की अभिज्ञता को ग्रहण कर लिया था। बारिश से भीगा, मिट्टी से लथपथ, कामवासना से जर्जर उसका शरीर मेरे सामने और अश्लील नजर आने लगा था। जैसे शरीर से उसके एक इत्र की खुशबू निकलकर मेरे अस्तित्व को छिन्न-भिन्न कर रही थी। नफरत के कारण मैने उसे दो दिन आटा गूंथने भी नहीं दिया।
मगर मिश्री उस घटना के बाद बुरी तरह अन्यमनस्क रहने लगी। काम करने में पहले जैसी निपुणता नहीं रह गई थी। उस पर मुझे गुस्सा आने लगा था। मगर ज्यादा दिन नहीं हुए होंगे, केवल पन्द्रह दिन ही बीते होंगे, मिश्री अपने उसी हरिजन प्रेमी के साथ कहीं भाग गई थी, दूसरी कामवालियों से मुझे यह खबर मिली थी। उस लड़की को और रखना खतरनाक है, मन ही मन मैं सोच रही थी। अगर इस बार लौट आई तो मैं उसे निकाल दूंगी। और रखना मेरे लिए संभव नहीं था। कितनी कामुक लड़की थी वह ! उसके लिए हम व्यर्थ में बदनाम होंगे अलग से।
मिश्री की मां चार दिन के बाद आई थी। कहने लगी थी, “बहिन जी, और मैं नहीं संभाल पाऊंगी। मैं काम पर जाऊंगी या उसकी निगरानी करती रहूंगी। गांव भेज दिया है। लड़की बर्बाद हो गई। उसकी वजह से मैं बस्ती में मुंह नहीं दिखा पा रही हूं। और मिश्री नहीं लौटी। सारे काम का बोझ मेरे कंधे पर आ गया। काम करते- करते मैं थक जाती थी। शरीर के अंदर छिपे सारे रोग दो चार दिन में नजर आने लगे। मुझे नई कामवाली भी नहीं मिल पा रही थी। बहुत कोशिश करने के बाद, लगभग पंद्रह दिन के बाद, मैं नई कामवाली को खोज पाई थी। मगर इस नई कामवाली से मैं संतुष्ट नहीं थी। इसकी किसी भी प्रकार से मिश्री के साथ तुलना नहीं की जा सकती थी। मशीन की तरह एक घंटा पैंतालीस मिनट में काम करके वह चली जाती थी। केवल मैं नहीं, हमारे घर के सभी लोग भूल नहीं पा रहे थे। जो भी हो, इस संसार में कोई भी चिरकाल तक नहीं रहता है, यही सोचकर मैने नई परिस्थितियों के साथ समझौता कर लिया था।
मिश्री को मेरे घर से काम छोड़े हुए दो वर्ष हो गए थे। मैं इसी बीच तीन-चार नौकरानी बदल चुकी थी। नौकरानियों ने महीने में पंद्रह दिन अनुपस्थित रहकर मेरे नाक में दम कर दिया था। मुझे अपनी नौकरी अभिशाप लगने लगी। मैं बुरी तरह चिड़चिड़ी और तुनक मिजाजी हो गई थी। मेरी हालत देखकर अमिय मिश्री की मां को बुलाकर लाया। मिश्री की मां मेरा दुख समझने के बाद भी कैसे मेरी सहायता करती, समझ नहीं पा रही थी। अक्सर उसकी मां रेजाकुली के रुप में या जंगल से लकड़ी काटकर अपना गुजर बसर कर रही थी। क्वार्टर में काम करने की जानकारी नहीं होने की वजह से उसने अपनी अक्षमता जाहिर की थी। मैने उसे मिश्री के बारे में पूछा था, उसकी शादी हो गई या नहीं? वह अब कहां है? मिश्री की मां दुख से भर गई, उस घटना के बाद वह उसको गांव से नहीं ला पाई। इसी बीच दो साल बीत गए और रिश्तेदार के घर रखना ठीक नहीं है, उसने कहा। लोग उस पर भी छींटाकशी करने लगे। रिश्तेदार भी क्या सोचेंगे? लड़की को छोड़कर चली गई, पूरी तरह से भूल गई।
“तुम उसे ले आओ।” मैं कहने लगी, “मुझे भी काफी दिक्कतें हो रही हैं।”
“मिश्री को लाने में चार सौ रुपयों की जरुरत पड़ती है। मेरे पास इतने रुपए कहां से आएंगे?” बड़े ही कुंठित भाव से उसने जानकारी दी।
मैंने उसको चार सौ रुपए दिए, “जाओ, जाओ उसे लेकर आओ।”
कुछ दिनों के बाद वास्तव में उसकी मां मिश्री को ले आई। मैं मिश्री को देखकर हाथ से चांद पकड़ने जैसी खुशी से झूम उठी। उसकी कामुकता, उसकी बदनामी सभी उस क्षण मैं भूलना चाहती थी। इसी बीच उसके अंदर काफी परिवर्तन आ गए थे। वह अपेक्षाकृत ज्यादा गंभीर और उत्तरदायी दिखने लगी थी। उसका स्वास्थ्य इतना कमजोर हो गया था कि एक महीना, पंद्रह दिन उसको बिठाकर खिलाने-पिलाने का मन हो रहा था। मैने उसको उसके गांव की खबर पूछी। वह वहां पत्थर काटने का काम कर रही थी, कहने लगी। सूर्योदय से पहले पखाल खाकर पहाड़ जाना पड़ता था उसको और सूर्यास्त के समय घर लौटती थी। पहाड़ ज्यादा दूर नहीं था। वह जिस गांव में रहती थी, उसके चारो तरफ पहाड़ थे, बीच में एक छोटी सी समतल भूमि जिसका दूसरे गांवों से कोई संपर्क नहीं था। पत्थर काटने वाले झोंपड़ी बनाकर रहते थे, धीरे-धीरे स्थायी भाव से रहना शुरु कर देते थे। उस गांव में जाने के लिए जंगल में सात मील की दूरी तय करनी पड़ती थी। वे सुबह-शाम पत्थर के छोटे- छोटे टुकड़े काटकर रखते थे - एक झोडी पत्थर के पांच रुपए मिलते थे। कांट्रेक्टर आकर हिसाब किताब करके पैसे दे जाता था। उसने अपने हाथ दिखाए, पत्थर काटने के कारण उसकी हथेलियों में फोफले पड़ गए थे। चमड़ी निकलकर घाव भी पड़ गए थे। उसकी हथेलियां देखकर मुझे भयंकर कष्ट होने लगा। दया भी आने लगी। आह ! बेचारी लड़की को इतना दंड मिला, केवल प्रेम की खातिर?
मैंने घर में रखे हुए आयरन कैप्सूल और विटामिन्स की गोलियां खोजकर उसे दी थी। कुछ ही दिनों में वह पहले जैसी दिखने लगी थी। पहले की तुलना में अधिक मन लगाकर काम करती थी, हमें और अधिक अपना आत्मीय समझने लगी। हमारे घर के सुख-दुख, अभाव असुविधा को अपना समझने लगी। यहां तक कि मेरे बच्चे परीक्षा में अच्छे नम्बर लाते तो उसे खुशी होती, खराब नंबर आने पर उसे दुख लगता। हमारे शत्रु उसके शत्रु थे, हमारे दोस्त उसके दोस्त। काम करते समय बीच- बीच में मैं उससे बातें करती थी। उसका कहीं से शादी का प्रस्ताव आया या नहीं, उसकी बहिन उसके लिए कहीं देख रही है या नहीं या उसके पिता नौकरी करने जाते हैं या नहीं, ये ही सारी बातें।
मेरे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देते समय वह हंसती थी। एक विचित्र सूखी हंसी। एक करुणा की लहर उठ जाती थी मेरे दिल में। वह कहती थी, “मेरी शादी और नहीं होगी?”
“क्यों, तुम्हारे मां-पिताजी देख नहीं रहे हैं?”
“हमारे घर कौन आएगा? जिस गांव में पत्थर काटती थी उसी गांव का लड़का देखने आया था। वह जिस दिन आया था, उस दिन मेरे मां-पिताजी दोनो दारु पीकर लड़ाई कर रहे थे। मेरे पिताजी ने गुस्से में आकर मेरी मां का टेंटुआ दबा दिया था। जब वह लड़का हमारे घर में दरवाजे तक पहुंचा ही था कि मेरी मां ने जोर से मेरे पिता को धक्का दिया कि वह उस लड़के की गोद में जा गिरा।” घटना का वर्णन करते हुए वह हंसने लगी। मैं भी हंसने लगी। “फिर बात आगे नहीं बढ़ी?”
“कैसे बढ़ती। मेरे पिताजी नशे में धुत्त, मां से मार खाकर उस लड़के की गोद में जा गिरे। ऐसे घर में कौन रिश्तेदारी करेगा?”
कभी कहीं से उसकी मां आने पर मैने मिश्री की शादी की बात पूछी। “कहीं से कोई प्रस्ताव आया है?”
उस बार बहुत दुख के साथ वह कहने लगी," कई रिश्ते आए मगर आजकल तो सभी को पैसे चाहिए। मुझे कहां से पैसे मिलेंगे, कहो? हीरा की शादी के समय उसके पिताजी नौकरी पर जाते थे, जो अर्जी लिखकर कुछ पैसे उठा लिए थे । अब तीन साल से नौकरी पर नहीं जा रहे हैं। हम मां- बेटी जो कमाते हैं, वह भी वह दारु में उड़ा देते हैं।
“उसको देती क्यों हो?”
“देगा कोई? नहीं देने पर जो तो मुंह में आता है, बकता है, डंडा लेकर मारने दौड़ता है। झूठ बोलता है कि तुम दोनो बाहर काम करने जाती हो तो लोग मुझे देखकर हंसते हैं। कहते हैं औरत की कमाई उड़ा रहा है घर बैठे।”
मैं उसकी बात सुनकर हंसने लगी। वह मुझे हंसते हुए देख कहने लगी, “झूठ नहीं कह रही हूं, हर दिन कोई न कोई केस लगाकर आता है। कोई उसके बारे में बोले या न बोले, मगर उसे लगता है कि उसी के बारे में वह बोल रहा है। दो आदमी अगर उसके सामने बातचीत करेंगे, जबरदस्ती उनके पास जाकर कहने लगेगा, मेरे बारे में बात कर रहे हो? फिर उन लोगों से लड़ाई -झगड़ा करके घऱ लौटता है? घर आकर हम दोनों को उल्टा पुल्टा बकेगा। तुम दोनो बाहर क्या धंधा करती हो, मुझे क्या पता नहीं है। गंदी- गंदी गालियां देगा। मैं तो बूढ़ी हो गई हूँ, इस लड़की की चिंता है। जाति हो या परजाति, किसी के साथ भाग जाती मिश्री।”
उसका अंतिम वाक्य सुनकर मैं चकित रह गई। मगर उस समय मैं उसके दुख को समझ रही थी। प्रति वर्ष श्रावण के सोमवार का निष्ठापूर्वक व्रत रखती थी मिश्री। महीने के किसी एक सोमवार को बोलबम कांवरियों के दल के साथ शिवलिंग पर पानी चढ़ाने जाती थी। रविवार को ट्रेन या बस पकड़कर निर्दिष्ट जगह पर पहुंच जाती थी।
वहां नदी से पानी लेकर लगभग चौबीस- पच्चीस किलोमीटर के रास्ते पर सारी रात नंगे पांव पैदल चलती थी वह। सुबह- सुबह शिवलिंग पर पानी चढ़ाकर वह लौट आती थी। हर बार उसके जाने के हेतु मैं उसको रुपए देती थी और कहती थी “देख, दो दिन से तीन दिन मत लगाना। मुझे दिक्कत होगी।” मगर कभी उसके पांव में काँच या कांटा चुभ जाता था तो कभी सारी रात वर्षा में भीगने से ज्वर हो जाता था। इसलिए दो दिन की छुट्टी लंबी हो जाती थी। उसके आने समय मैं गुस्सा हो जाती थी।
“इतना कष्ट देखकर तुम क्यों जाती हो, कहो?”
“ऐसे ही।”
“नहीं तो...”
“तब क्यों जाती हो? भगवान् कहां तुम्हारे लिए अच्छा लड़का मिला देते हैं?”
वह हंसकर कहने लगी, “मेरी और शादी नहीं होगी।” उसकी बात सीने को चुभने लगी, लड़की की उम्र बढ़ रही है, वास्तव में क्या उसकी और शादी नहीं हो पाएगी? इस तरह जिंदगी भर अपने मां, भाई और शराबी बाप को पालती रहेगी?
इस बार उसके श्रावण महीने में जाते समय मैने कहा, “मुझे जो भी परेशानी होनी हो, होएं, मगर तुम्हारी शादी हो जानी चाहिए।” मन ही मन सोच रही थी कांवरिया दल के किसी एक लड़के को पसंद कर ले अच्छा रहे। भगवान ने मेरे मन की मुराद को पूरा किया। और वह लड़की वास्तव में धोखा देकर चली गई। हर साल दुर्गा पूजा पर मैं उसको एक नई पोशाक खरीदकर देती थी। इस बार उसने सलवार कमीज लेने से इंकार कर दिया और कहने लगी “मैं साड़ी लूंगी।”
“साड़ी ?” मुझे आश्चर्य हुआ। “ठीक है, अगर तुम साड़ी लेना चाहती हो तो साड़ी लाकर दूंगी। अब से उसे साड़ी इकट्ठा करना जरुरी है।”
मै उसके लिए थोड़ी जरीदार साड़ी और वेलवेट का ब्लाऊज खरीदकर लाई। उस समय मुझे सीधे तरीके से मालूम नहीं था, आगामी एक दो महीने में मिश्री के घर छोड़कर भागने की योजना है। और एक बार पुराने अखबार बेचने का प्रस्ताव भी दिया था मिश्री ने। कहां बेचोगी पूछने पर वह कहने लगी, “वह एक लड़के को जानती है और उसके कहने पर वह घर आकर ले जाएगा।”
वास्तव में छुट्टी के दिन पतला-सा, काले रंग का पच्चीस, छब्बीस साल का लड़का साइकिल लेकर घर पहुंचा। मिश्री ने खुद आकर कागजों का थोक बनाकर वजन करवाया और प्लास्टिक बस्ते में डालकर साइकिल पर बांध दिया।
बाद में पता चला, वह लड़का उसके घर के पास किसी आटे की चक्की पर काम करता था। उस समय भी मुझे कोई संदेह नहीं हुआ कि इसी लड़के के साथ मिश्री का कोई चक्कर है। वास्तव में जैसे मिश्री ने अखबार बेचने के बहाने उस लड़के को मुझे दिखा दिया था।
घर छोड़ने के दो चार दिन पहले मिश्री ने कहा, वह गांव जाएगी। उसके मौसे की मौत हो गई है।
“तुम्हारे घर जाने से मेरा घर कैसे चलेगा? आजकल फिर से मेरा शरीर ठीक नहीं रह रहा है। इन सर्दी के दिनों में मुझे परेशान करना था? मैने उसको सीधा इंकार कर दिया। अपनी मां को भेज दे, तुझे जाने की जरुरत नहीं है।”
“मेरी मां अकेली कैसे जाएगी? मेरी मां चली जाने पर मैं अकेली कैसे रहूंगी?” ऐसे कई बहाने बनाए थे मिश्री ने।
“जाने पर तुम लौटोगी कब?”
“मैं कैसे कहूंगी? जब वे लोग मुझे छोडेंगे, तब आऊंगी।” बड़े ही हल्के लहजे में मिश्री ने कहा।
“मतलब?” मुझे भयंकर गुस्सा आया। लड़की का बिल्कुल भी मेरे ऊपर लगाव नहीं है। मैं कैसे सर्दी के दिनों में इतना काम करूंगी ! स्वार्थवश मन ही मन सोचने लगी, “दांत क्यों दिखा रही हो, मेरे लिए तुम्हारी जगह किसी का जुगाड़ करके जाना।”
”मैं कहां से जुगाड़ करुंगी?”
”जा, तुम्हारी इच्छा, जहां जाना है जाओ।” कहकर गुस्से में मैं रसोईघर के अंदर चली गई। उस दिन ऑफिस जाने से पहले मैने उसको पूछा, “तुम कब जाओगी?”
“सोमवार को जाऊंगी।”
“आज शनिवार, मतलब परसो।”
“मुझे मेरे पैसे दे देते?” मिश्री अपनी पगार मांग रही थी।
मैं थोड़ी आश्चर्य चकित हो गई, गत चौदह साल में मिश्री ने कभी भी अपनी पगार नहीं मांगी थी। सप्ताह या दस दिन ऊपर हो जाने पर भी नहीं। एक बार तो पूरा एक महीने की पगार देना ही मैं भूल गई थी, महीने के अंत में एक साथ दी थी।
इस बार भी उसने मुंह खोलकर नहीं मांगा था। इस बार शायद उसके मौसे के मर जाने की वजह से पैसों की जरुरत होगी। मैने उसे उसी दिन उसको पैसे दे दिए।
और देखते-देखते ठीक सोमवार को वह चली गई। मगर अपने मौसे के घर नहीं बल्कि उस आटा चक्की वाले लड़के के साथ। वह मुझे कहकर तो जा सकती थी, मैं तो खुद चाहती थी कि उसका घर बस जाए। मैं उसको चांदी की पायल देना चाहती थी। सोने की पॉलिश किया मंगलसूत्र भी। मोतियों से जड़ी नथनी कब से उसके लिए सोचकर रखी थी। मेरे पास से साड़ी या रूपए कुछ तो ले जाती। ऐसे छुपकर चली गई कि मुझे जरा भी भनक नहीं लगी।
मिश्री के इस बार भी जाने के पीछे क्या पहले जैसी कामुकता थी? उसको देखकर मन में आ रहा था बांध टूटकर नदी में बह गया हो जैसे। नहीं, शायद नहीं।
अमिय के साथ एक दिन घर छोड़कर जाना चाहती थी मैं। उस समय क्या मेरे अंदर कोई कामुकता थी? अथवा अलग से एक दुनिया बसाने का नशा? अपनी दुनिया? मेरा तो मिश्री के जैसा परिवेश नहीं था। पिता तो प्रभावशाली आदमी थे। अच्छे- अच्छे देखने वाले आ रहे थे। उनको देने के लिए पिताजी के पास काफी धन भी था। मिश्री की तरह कभी भी शादी नहीं होने का दुख और खालीपन मेरी आंखों में नहीं था। उस समय क्या मुझे मेरे सारे गहने, बर्तन और सामान प्रभावित कर पाए थे? मां- बाप, भाई -बहिन और मेरा प्रिय शहर कितना तुच्छ लग रहा था उस समय। मैं क्या सोच रही थी उस समय, अमिय पेड़ के नीचे ले जाकर रखेगा या एस्बेस्टॉस की छत के नीचे। उस समय अमिय ही मेरे लिए छत, दीवार और फर्श था। अलग होने की अदम्य भावना के अलावा मेरे पास और कोई संबल नहीं था। अनेक दिनों से शायद मर गया था आवेग और धारहीन मन। प्रेम को समझ नहीं पाई थी पता नहीं कब से। मिश्री जैसे मुझे हाथ पकड़कर पदमपोखरी के किनारे ले गई हो।
मिश्री के जाने के बाद पता नहीं क्यों मैं इतनी विचलित हो गई थी? क्यों ऐसा लग रहा था मानो पांवों के नीचे की धरती खिसक गई हो ! क्या वास्तव में मैं नहीं चाह रही थी उसकी शादी हो? उसके मां-बाप और बेरोजगार भाई का पालन पोषण करने के लिए जैसे मेरी दासी बनकर हमेशा रहे, क्या यही थी मेरे मन की गुप्त अभिलाषा? मिश्री वास्तव में हजार रुपए लेकर गई न दुकानदार की उधारी चुकाने के लिए, न बच्चे की ट्यूशन फीस अदा करने के लिए, न गहने खरीदने के लिए, न ही कार में तेल भरने के लिए, जूते खरीदने के लिए, या चिट फंड के लिए....?
उसके दूसरे दिन मैं मिश्री की मां के आने का इंतजार करने लगी। मगर वह नहीं आई थी। कॉलोनी में जो कोई मिलता, सभी मिश्री के बारे में पूछते और मेरे प्रति सहानुभूति जताने के लिए मिश्री की निंदा करते। ऑफिस में मैने मिश्री के भागने की खबर सुना दी थी। मेरे साथी, मिश्री ने ठीक किया या गलत, इस बारे में तर्क वितर्क करने लगे। मगर मिश्री मुझमें समाई हुई थी।
मिश्री के जाने के दो दिन बाद किरण नाम की कामवाली लड़की गेट के पास मुझे देखकर कहने लगी, “तुम्हारी मिश्री घर वापस आ गई है?”
“अपने आदमी के साथ?”
“नहीं, अकेली।”
“नहीं।” मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। मुझे चारों तरफ अंधेरा नजर आने लगा।
“हे भगवान, तू सही कह रही है किरण?”
"सुबह ही तो आई है "।
“ओह !” मुझे जोर- जोर से रोना आ रहा था। मैं दौड़कर घर के अंदर आई और अमिय को कहने लगी, “जाइए ना, थोड़ा मिश्री के घर जाकर देखकर आते, वह लौट आई है, अभी- अभी एक लड़की कह रही थी।”
“पागल हो गई हो, मैं जाऊंगा मिश्री के घर? ऐसी हालत में? उसका शराबी बाप मुझे उल्टा- पुल्टा नहीं कहेगा? मैं नहीं जाऊंगा। तुम मिश्री की कहानी भूल जाओ।”
अमिय की टेड़ी बातें सुनकर मेरा और कुछ भी कहने का साहस नही हुआ। मैं अपना सारा काम पीछे छोड़कर दरवाजे की तरफ दौड़ी। यही कामवालियों के आने का समय था। मगर किसको पूछने से पता चलेगा, सही माजरा क्या है? लड़की की तकदीर क्या इतनी खराब है? किसी बस स्टेंड या स्टेशन पर बैठाकर भाग गया वह आदमी। पांच मिनट के बाद मिश्री की सहेली सुनीता को आते मैने देखा। उत्कंठा से गेट खोलकर आगे जाकर मैने पूछा, “मिश्री क्या वापस आई है?”
सुनीता कहने लगी, “नहीं, मुझे तो पता नहीं, अगर ऐसा होता तो हल्ला हो जाता।
“किरण कह रही थी।”
“किरण तो झूठी है। होने से हो भी सकता है।”
“मैं तो और उसके घर की तरफ नहीं जाती हूं।” कहकर सुनीता चली गई थी, मेरी जिज्ञासा को नजर अंदाज करके।
मैने सुनीता को पीछे से आवाज दी। “मिश्री जिस लड़के के साथ भागी है, उसको तुम जानती हो? कैसा लड़का है वह? अच्छा लड़का है न? वह उसको रखेगा तो?”
“हां, अच्छा लड़का है।” सुनीता ने कहा। “उसे रखेगा या नहीं रखेगा, मुझे कैसे पता चलेगा?” सुनीता खीं -खीं करके हंसने लगी। शायद वह मेरी मूर्खता का मजाक बना रही थी।
वह चली गई। गेट के पास खड़ी रही मैं। कहां से मिलेगी मिश्री की खबर? क्या बार -बार इस तरह घर छोड़कर लौट आना ही उसकी नियति है। मिश्री का घर नहीं बस पाने का दुख जैसे मेरा अपना दुख हो। बेचैन और व्याकुल होकर गेट की लोहे की छड़ों पर मुंह रखकर देखने की कोशिश करने लगी और कोई कामवाली आ रही है या नहीं। किसको पूछने से पता चलेगी, मिश्री की सही-सही खबर।
(अनुवादक : दिनेश कुमार माली)