लालटेन (कहानी) : सआदत हसन मंटो
Lalten (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto
मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उस की सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उन के हर लम्हा की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है। जो भुलाये न भूलेगी......... क्या दिन थे!......... बार-बार मेरे दिल की गहिराईयों से ये आवाज़ बुलंद होती है और मैं कई कई घंटे इस के ज़ेर-ए-असर बे-खु़द मदहोश रहता हूँ। किसी ने ठीक कहा है कि इंसान अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी के खंडरों पर मुस्तक़बिल की दीवारें उस्तुवार करता है। इन दिनों मैं भी यही कर रहा हूँ यानी बीते हुए अय्याम की याद को अपनी मुज़्महिल रगों में ज़िंदगी बख़्श इंजैक्शन के तौर पर इस्तिमाल कर रहा हूँ।
जो कल हुआ था उसे अगर आज देखा जाये तो उस के और हमारे दरमयान सदीयों का फ़ासिला नज़र आएगा और जो कल होना ही है उसके मुतअल्लिक़ हम कुछ नहीं जानते और न जान सकते हैं। आज से पूरे चार महीने की तरफ़ देखा जाये तो बटोत में मेरी ज़िंदगी एक अफ़साना मालूम होती है। ऐसा अफ़साना जिस का मुसव्वदा साफ़ न किया गया हो। इस खोई हुई चीज़ को हासिल करना दूसरे इंसानों की तरह मेरे बस में भी नहीं। जब में इस्तिक़बाल के आईना में अपनी आने वाली ज़िंदगी का अक्स देखना चाहता हूँ तो इस में मुझे हाल ही की तस्वीर नज़र आती है और कभी कभी इस तस्वीर के पस-ए-मंज़र में माज़ी के धुँदले नुक़ूश नज़र आ जाते हैं। इन में बाअज़ नक़्श इस क़दर तीखे और शोख़ रंग हैं कि शायद ही उन्हें ज़माना का हाथ मुकम्मल तौर पर मिटा सके।
ज़िंदगी के इस खोए हुए टुकड़े को मैं इस वक़्त ज़माना के हाथ में देख रहा हूँ जो शरीर बच्चे की तरह मुझे बार बार उस की झलक दिखा कर अपनी पीठ पीछे छुपा लेता है......... और मैं इस खेल ही से ख़ुश हूँ। इसी को ग़नीमत समझता हूँ।
ऐसे वाक़ियात को जिन की याद मेरे ज़ेहन में अब तक ताज़ा है मैं आम तौर पर दुहराता रहता हूँ, ताकि उन की तमाम शिद्दत बरक़रार रहे। और इस ग़र्ज़ के लिए मैं कई तरीक़े इस्तिमाल करता रहता हूँ। बाअज़ औक़ात में ये बीते हुए वाक़ियात अपने दोस्तों को सुना कर अपना मतलब हल कर लेता हूँ। अगर आप को मेरे इन दोस्तों से मिलने का इत्तिफ़ाक़ हो तो वो आप से यक़ीनन यही कहेंगे कि मैं क़िस्सा गोई और आप बीतियां सुनाने का बिलकुल सलीक़ा नहीं रखता। ये मैं इस लिए कह रहा हूँ कि दास्तान सुनाने के दौरान में मुझे सामईन के तेवरों से हमेशा इस बात का एहसास हुआ है कि मेरा बयान ग़ैर मरबूत है। और मैं जानता हूँ कि चूँकि मेरी दास्तान में हमवारी कम और झटके ज़्यादा होते हैं इस लिए मैं अपने महसूसात को अच्छी तरह किसी के दिमाग़ पर मुंतक़िल नहीं कर सकता और मुझे अंदेशा है कि मैं ऐसा शायद ही कर सकूं। इस की ख़ास वजह ये है कि मैं अक्सर औक़ात अपनी दास्तान सुनाने सुनाते जब ऐसे मुक़ाम पर पहुंचता हूँ जिसकी याद मेरे ज़ेहन में मौजूद न थी और वो ख़यालात की रो में ख़ुद-बख़ुद बह कर चली आई थी तो मैं ग़ैर इरादी तौर पर इस नई याद की गहराईयों में गुम हो जाता हूँ और इस का नतीजा ये होता है कि मेरे बयान का तसलसुल यक-लख़्त मुंतशिर हो जाता है और जब मैं इन गहराईयों से निकल कर दास्तान के टूटे हुए धागे को जोड़ना चाहता हूँ तो उजलत में वो ठीक तौर से नहीं जुड़ता।
कभी कभी मैं ये दास्तानें रात को सोते वक़्त अपने ज़ेहन की ज़बानी ख़ुद सुनता हूँ, लेकिन इस दौरान में मुझे बहुत तकलीफ़ उठाना पड़ती है। मेरे ज़ेहन की ज़बान बहुत तेज़ है और उस को क़ाबू में रखना बहुत मुश्किल हो जाता है। बाअज़ औक़ात छोटे छोटे वाक़ियात इतनी तफ़सील के साथ ख़ुद-बख़ुद बयान होना शुरू हो जाते हैं कि तबीयत उकता जाती है और बाअज़ औक़ात ऐसा होता है कि एक वाक़िया की याद किसी दूसरे वाक़िया की याद ताज़ा कर देती है और इसका एहसास किसी दूसरे एहसास को अपने साथ ले आता है और फिर एहसासात-ओ-अफ़्क़ार की बारिश ज़ोरों पर शुरू हो जाती है। और इतना शोर मचता है कि नींद हराम हो जाती है। जिस रोज़ सुबह को मेरी आँखों के नीचे स्याह हलक़े नज़र आएं आप समझ लिया करें कि सारी रात में अपने ज़ेहन की क़िस्सा गोई का शिकार बना रहा हूँ।
जब मुझे किसी बीते हुए वाक़िए को उस की तमाम शिद्दतों समेत महफ़ूज़ करना होता है तो मैं क़लम उठाता हूँ और किसी गोशे में बैठ कर काग़ज़ पर अपनी ज़िंदगी के उस टुकड़े की तस्वीर खींच देता हूँ। ये तस्वीर भद्दी होती है या ख़ूबसूरत, इसके मुतअल्लिक़ मैं कुछ नहीं कह सकता और मुझे ये भी मालूम नहीं कि हमारे अदबी नक़्क़ाद मेरी इन क़लमी तस्वीरों के मुतअल्लिक़ क्या राय मुरत्तब करते हैं। दरअसल मुझे उन लोगों से कोई वास्ता ही नहीं। अगर मेरी तस्वीरकशी स्कीम और ख़ाम है तो हुआ करे मुझे इस से किया और अगर ये उन के मुक़र्रर करदा मेआर पर पूरा उतरती है तो भी मुझे इस से क्या सरोकार हो सकता है। मैं ये कहानियां सिर्फ़ इस लिए लिखता हूँ कि मुझे कुछ लिखना होता है। जिस तरह आदी शराब ख़ूरदन ढले शराब ख़ाना का रुख़ करता है ठीक उसी तरह मेरी उंगलियां बेइख़्तियार क़लम की तरफ़ बढ़ती हैं और मैं लिखना शुरू कर देता हूँ मेरा रू-ए-सुख़न या तो अपनी तरफ़ होता या उन चंद अफ़राद की तरफ़ जो मेरी तहरीरों में दिलचस्पी लेते हैं। मैं अदब से दूर और ज़िंदगी के नज़दीक तर हूँ।
ज़िंदगी......... ज़िंदगी......... आह ज़िंदगी!!!
मैं ज़िंदगी ज़िंदगी पुकारता हूँ मगर मुझ में ज़िंदगी कहाँ?......... और शायद यही वजह है कि मैं अपनी उम्र की पिटारी खोल कर उस की सारी चीज़ें बाहर निकालता हूँ और झाड़ पोंछ कर बड़े करीने से एक क़तार में रखता हूँ और उस आदमी की तरह जिस के घर में बहुत थोड़ा सामान हो उन की नुमाइश करता हूँ। बाअज़ औक़ात मुझे अपना ये फ़ेअल बहुत बुरा मालूम होता है। लेकिन मैं क्या करूं। मजबूर हूँ। मेरे पास अगर ज़्यादा नहीं है तो इस में मेरा क्या क़सूर है। अगर मुझ में सुफ़्ला पन पैदा होगया है तो इस का ज़िम्मेदार मैं कैसे होसकता हूँ। मेरे पास थोड़ा बहुत जो कुछ भी है ग़नीमत है। दुनिया मैं तो ऐसे लोग भी होंगे जिनकी ज़िंदगी चटियल मैदान की तरह ख़ुश्क है और मेरी ज़िंदगी के रेगिस्तान पर तो एक बार बारिश हो चुकी है।
गो मेरा शबाब हमेशा के लिए रुख़स्त हो चुका है मगर मैं उन दिनों की याद पर जी रहा हूँ जब मैं जवान था। मुझे मालूम है कि ये सारा भी किसी रोज़ जवाब दे जाएगा और इस के बाद जो कुछ होगा, मैं बता नहीं सकता। लेकिन अपने मौजूदा इंतिशार को देख कर मुझे ऐसा महसूस होता कि मेरा अंजाम चश्म-ए-फ़लक को भी नमनाक कर देगा। आह ख़राबा फ़िक्र का अंजाम!
वो शख़्स जिसे अंजाम कार अपने वज़नी अफ़्क़ार के नीचे पिस जाना है ये सुतूर लिख रहा है और मज़े की बात ये है कि वो ऐसी और बहुत सी सतरें लिखने की तमन्ना अपने दिल में रखता है।
मैं हमेशा मग़्मूम-ओ-मलूल रहा हूँ। लेकिन शब्बीर जानता है कि बटोत में मेरी आहों की ज़रदी और तपिश के साथ साथ एक ख़ुशगुवार मुसर्रत की सुर्ख़ी और ठंडक भी थी। वो आब-ओ-आतिश के इस बाहमी मिलाप को देख कर मुतअज्जिब होता था और ग़ालिबन यही चीज़ थी जिस ने उस की निगाहों में मेरे वजूद को एक मुअम्मा बना दिया था। कभी कभी मुझे वो समझने की कोशिश करता था और इस कोशिश में वो मेरे क़रीब भी आजाता था। मगर दफ़अतन कोई ऐसा हादिसा वक़ूअ-पज़ीर होता जिस के बाइस उसे फिर परे हटना पड़ता था और इस तरह वो नई शिद्दत से मुझे पुर-असरार और कभी पुर-तसन्नो इंसान समझने लगता।
इकराम साहब हैरान थे कि बटोत जैसी ग़ैर आबाद और ग़ैर दिलचस्प देहात में पड़े रहने से मेरा क्या मक़सद है। वो ऐसा क्यों सोचते थे? उस की वजह मेरे ख़याल में सिर्फ़ ये है कि उन के पास सोचने के लिए और कुछ नहीं था। चुनांचे वो इसी मसले पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करते रहते थे।
वज़ीर का घर उन के बंगले के सामने बुलंद पहाड़ी पर था और जब उन्हों ने अपने नौकर की ज़बानी ये सुना कि मैं इस पहाड़ी लड़की के साथ पहरों बातें करता रहता हूँ। तो उन्हों ने ये समझा कि मेरी दुखती हुई रग उन के हाथ आगई है और उन्हों ने एक ऐसा राज़ मालूम करिलिया है जिस के इफ़्शा पर तमाम दुनिया के दरवाज़े मुझ पर बंद हो जाऐंगे। लोगों से जब वो इस मसले पर बातें करते थे तो ये कहा करते थे मैं तअय्युश पसंद हुँ और एक भोली भाली लड़की को फांस रहा हूँ और एक (दिन) जब उन्हों ने मुझ से बात की तो कहा। “देखिए ये पहाड़ी लौंडिया बड़ी ख़तरनाक है। ऐसा न हो कि आप इस के जाल में फंस जाएं।”
मेरी समझ में नहीं आता था कि उन्हें या किसी और को मेरे मुआमलात से क्या दिलचस्पी हो सकती थी। वज़ीर का करेक्टर बहुत ख़राब था और मेरा करेक्टर भी कोई ख़ास अच्छा नहीं था। लेकिन सवाल ये है कि लोग क्यों मेरी फ़िक्र में मुब्तला थे और फिर जो उनके मन में था साफ़ साफ़ क्यों नहीं कहते थे। वज़ीर पर मेरा कोई हक़ नहीं था और न वो मेरे दबाओ में थी। इकराम साहब या कोई और साहब अगर उस से दोस्ताना पैदा करना चाहते तो मुझे इस में क्या एतराज़ हो सकता था। दरअसल हमारी तहज़ीब-ओ-मुआशरत ही कुछ इस क़िस्म की है कि आम तौर पर साफगोई को मायूब ख़याल किया जाता है। खुल कर बात ही नहीं की जाती और किसी के मुतअल्लिक़ अगर इज़हार-ए-ख़याल किया भी जाता है तो ग़िलाफ़ चडा कर।
मैंने साफगोई से काम लिया और उस पहाड़ी लौंडिया से जिसे बड़ा ख़तरनाक कहा जाता, अपनी दिलचस्पी का एतराफ़ किया। लेकिन चूँकि ये लोग अपने दिल की आवाज़ को दिल ही में दबा देने के आदी थे इस लिए मेरी सच्ची बातें उन को बिलकुल झूटी मालूम हुई और उन का शक बदस्तूर क़ायम रहा।
मैं उन्हें कैसे यक़ीन दिलाता कि मैं अगर वज़ीर से दिलचस्पी लेता हूँ तो इस का बाइस ये है कि मेरा माज़ी-ओ-हाल तारीक है। मुझे उस से मोहब्बत नहीं थी इसी लिए मैं उस से ज़्यादा वाबस्ता था। वज़ीर से मेरी दिलचस्पी उस मोहब्बत का रीहरसल थी जो मेरे दिल में उस औरत के लिए मौजूद है जो अभी मेरी ज़िंदगी में नहीं आई......... मेरी ज़िंदगी की अँगूठी में वज़ीर एक झूटा नगीना थी लेकिन ये नगीना मुझे अज़ीज़ था इस लिए कि उस की तराश, उस का माप बिलकुल उस असली नगीना के मुताबिक़ था जिस की तलाश में मैं हमेशा नाकाम रहा हूँ।
वज़ीर से मेरी दिल-बस्तगी बेग़र्ज़ नहीं थी इस लिए मैं ग़र्ज़मंद था। वो शख़्स जो अपने ग़म-अफ़्ज़ा माहौल को किसी के वजूद से रौनक बख्शना चाहता हो। उस से ज़्यादा ख़ुद-ग़र्ज़ और कौन हो सकता है?......... इस लिहाज़ से मैं वज़ीर का ममनून भी था और ख़ुदा-गवाह है कि मैं जब कभी उस को याद करता हूँ तो बे-इख़्तियार मेरा दिल उस का शुक्रिया अदा करता है।
शहर में मुझे सिर्फ़ एक काम था......... अपने माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल के घुप अंधेरे को आँखें फाड़ फाड़ कर देखते रहना और बस!......... मगर बटोत में इस तारीकी के अंदर रोशनी की एक शुआ थी। वज़ीर की लालटैन!
भटयारे के यहां रात को खाना खाने के बाद में और शब्बीर टहलते टहलते इकराम साहब के बंगले के पास पहुंच जाते। ये बंगला होटल से क़रीबन तीन जरीब के फ़ासले पर था। रात की ख़ुनुक और नीम मरतूब हवा में इस चहल-क़दमी का बहुत लुत्फ़ आता था। सड़क के दाएं बाएं पहाड़ों और ढलवानों पर मकई के खेत रात के धुँदलके में ख़ाकसतरी रंग के बड़े बड़े क़ालीन मालूम होते थे। और जब हवा के झोंके मई के पौदों में लरज़िश पैदा करदेते तो ऐसा मालूम होता कि आसमान से बहुत सी परियां इन क़ालीनों पर उतर आई हैं और हौलेहौले नाच रही हैं।
आधा रास्ता तै करने पर जब हम सड़क के बाएं हाथ एक छोटे से दो मंज़िला चोबी मकान के क़रीब पहुंचते तो शब्बीर अपनी मख़सूस धुन में ये शेअर गाता है
हर क़दम फ़ित्ना है क़ियामत है
आसमान तेरी चाल किया जाने
ये शेअर गाने की ख़ास वजह ये थी। इस चोबी मकान के रहने वाले इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला थे कि मेरे और वज़ीर के तअल्लुक़ात अख़लाक़ी नुक़्त-ए-निगाह से ठीक नहीं, हालाँकि वो अख़लाक़ के मआनी से बिलकुल ना-आशना थे। ये लोग मुझ से और शब्बीर से बहुत दिलचस्पी लेते थे और मेरी नक़ल-ओ-हरकत पर खासतौर पर निगरानी रखते थे। वो तफ़रीह की ग़र्ज़ से बटोत आए हुए थे और उन्हें तफ़रीह का काफ़ी सामान मिल गया था। शब्बीर ऊपर वाला शेअर गा कर उन की तफ़रीह में मज़ीद इज़ाफ़ा किया करता था। उस को छेड़छाड़ में ख़ास लुत्फ़ आता था। यही वजह है कि उन लोगों की रिहाइश-गाह के ऐन सामने पहुंच कर उस को ये शेअर याद आजाता था और वो फ़ौरन उसे बुलंद आवाज़ में गा दिया करता था। रफ़्ता रफ़्ता वो इस का आदी होगया था।
ये शेअर किसी ख़ास वाक़िए या तअस्सुर से मुतअल्लिक़ न था। मेरा ख़याल है कि उसे सिर्फ़ यही शेअर याद था, या हो सकता है कि वो सिर्फ़ उसी शेअर को गा सकता था, वर्ना कोई वजह न थी कि वो बार बार यही शेअर दुहराता।
शुरू शुरू में अंधेरी रातों में सुनसान सड़क पर हमारी चहल-क़दमी चोबी मकान के चोबी साकिनों पर (वो ग़ैर-मामूली तौर पर अजडा और गंवार वाक़्य हुए थे) कोई असर पैदा न कर सकी। मगर कुछ दिनों के बाद उन के बालाई कमरे में रोशनी नज़र आने लगी। और वो हमारी आमद के मुंतज़िर रहने लगे और जब एक रोज़ इन में से एक ने अंधेरे में हमारा रुख़ मालूम करने के लिए बैट्री रोशन की मैंने शब्बीर से कहा। “आज हमारा रोमान मुकम्मल होगया है।” मगर मैंने दिल में उन लोगों की काबिल-ए-रहम हालत पर बहुत अफ़सोस किया, क्योंकि वो बेकार दो दो तीन तीन घंटे तक जागते रहते थे।
हस्ब-ए-मामूल एक रात शब्बीर ने उस मकान के पास पहुंच कर शेअर गाया और हम आगे बढ़ गए। बैट्री की रोशनी हस्ब-ए-मामूल चमकी और हम बातें करते हुए इकराम साहब के बंगले के पास पहुंच गए। उस वक़्त रात के दस बजे होंगे, हू का आलम था, हर तरफ़ तारीकी ही तारीकी थी, आसमान हम पर मर्तबान के ढकने की तरह झुका हुआ था और मैं ये महसूस कर रहा था कि हम किसी बंद बोतल में चल फिर रहे हैं। सुकूत अपनी आख़िरी हद तक पहुंच कर मुतकल्लिम हो गया था।
बंगले के बाहर बरामदे में एक छोटी सी मेज़ पर लैम्प जल रहा था और पास ही पलंग पर इकराम साहब लेटे किसी किताब के मुताला में मसरूफ़ थे। शब्बीर ने दूर से उन की तरफ़ देखा और दफ़अतन साधुओं का मख़सूस नारा मस्ताना अलख निरंजन बुलंद किया।
इस ग़ैर मुतवक़्क़े शोर ने मुझे और इकराम साहब दोनों को चौंका दिया। शब्बीर खिलखिला कर हंस पड़ा। फिर हम दोनों बरामदे में दाख़िल हो कर इकराम साहब के पास बैठ गए। मेरा मुँह सड़क की जानिब था। ऐन उस वक़्त जब मैंने हुक़्क़ा की नै मुँह में दबाई। मुझे सामने सड़क के ऊपर तारीकी में रोशनी की एक झलक दिखाई दी। फिर एक मुतहर्रिक साया नज़र आया और इस के बाद रोशनी एक जगह साकिन हो गई। मैंने ख़याल किया कि शायद वज़ीर का भाई अपने कुत्ते को ढूंढ रहा है। चुनांचे उधर देखना छोड़कर मैं शब्बीर और इकराम साहब के साथ बातें करने में मशग़ूल हो गया।
दूसरे रोज़ शब्बीर के नारा बुलंद करने बाद फिर अखरोट के दरख़्त के अक़ब में रोशनी नुमूदार हुई और साया हरकत करता हुआ नज़र आया। तीसरे रोज़ भी ऐसा हुआ। चौथे रोज़ सुबह को मैं और शब्बीर चश्मे पर ग़ुसल को जा रहे थे कि ऊपर से एक कंकर गिरा, मैंने बयक-वक़्त सड़क के ऊपर झाड़ीयों की तरफ़ देखा। वज़ीर सर पर पानी का घड़ा उठाए हमारी तरफ़ देख कर मुस्कुरा रही थी।
वो अपने मख़सूस अंदाज़ में हंसी और शब्बीर से कहने लगी। “क्यों जनाब, ये आप ने क्या वतीरा इख़्तियार किया है कि हर रोज़ हमारी नींद ख़राब करें।”
शब्बीर हैरतज़दा हो कर मेरी तरफ़ देखने लगा। मैं वज़ीर का मतलब समझ गया था। शब्बीर ने उस से कहा “आज आप पहलियों में बात कर रही हैं।”
वज़ीर ने सर पर घड़े का तवाज़ुन क़ायम रखने की कोशिश करते हुए कहा। “मैं इतनी इतनी देर तक लालटैन जला कर अख़रोट के नीचे बैठी रहती हूँ और आप से इतना भी नहीं होता कि फूटे मुँह से शुक्रिया ही अदा कर दें। भला आप की जूती को क्या ग़र्ज़ पड़ी है .... ये चौकीदारी तो मेरे ही ज़िम्मे है .... आप टहलने को निकलें और इकराम साहब के बंगले में घंटों बातें करते रहें और मैं सामने लाल टेशन लिए ऊँघती रहूं।”
शब्बीर ने मुझ से मुख़ातब हो कर कहा। “ये क्या कह रही हैं। भई मैं तो कुछ न समझा, ये किस धुन में अलाप रही हैं?”
मैंने शब्बीर को जवाब न दिया और वज़ीर से कहा। “हम कई दिनों से रात गए इकराम साहब के यहां आते हैं। दो तीन मर्तबा मैंने अखरोट के पीछे तुम्हारी लाल टेशन देखी, पर मुझे ये मालूम नहीं था कि तुम ख़ास हमारे लिए आती हो .... इस की क्या ज़रूरत है .... तुम नाहक़ अपनी नींद क्यों ख़राब करती हो?”
वज़ीर ने शब्बीर को मुख़ातब कर के कहा। “आप के दोस्त बड़े ही नाशुकरे हैं एक तो मैं उन की हिफ़ाज़त करूं और ऊपर से यही मुझ पर अपना एहसान जताएं। उन को अपनी जान प्यारी न हो पर .... ” वो कुछ कहते कहते रुक गई और बात का रुख़ यूं बदल दिया। “आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि यहां उन के बहुत दुश्मन पैदा हो गए हैं। फिर आप उन्हें क्यों नहीं समझाते कि रात को बाहर न निकला करें।”
वज़ीर को वाक़ई मेरी बहुत फ़िक्र थी। बाअज़ औक़ात वो मुझे बिलकुल बच्चा समझ कर मेरी हिफ़ाज़त की तदबीरें सोचा करती थी, जैसे वो ख़ुद महफ़ूज़-ओ-मामून है और मैं बहुत सी बलाओं में घिरा हुआ हूँ। मैंने उसे कभी न टोका था इस लिए कि मैं नहीं चाहता था कि उसे उस शगल से बाज़ रखों जिस से वो लुत्फ़ उठाती है, उस की और मेरी हालत बैऐनिही एक जैसी थी। हम दोनों एक ही मंज़िल की तरफ़ जाने वाले मुसाफ़िर थे जो एक लक-ओ-दक़ सहरा में एक दूसरे से मिल गए थे। उसे मेरी ज़रूरत थी और मुझे उस की। ताकि हमारा सफ़र अच्छी तरह कट सके। मेरा और उस का सिर्फ़ ये रिश्ता था जो किसी की समझ में नहीं आता था।
हम हर शब मुक़र्ररा वक़्त पर टहलने को निकलते। शब्बीर चोबी मकान के पास पहुंच कर शेअर गाता, फिर इकराम साहब के बंगले से कुछ दूर खड़े हो कर नारा बुलंद करता, वज़ीर लालटैन रोशन करती और उस की रोशनी को हवा में लहरा कर एक झाड़ी के पीछे बैठ जाती। शब्बीर और इकराम साहब बातें करने में मशग़ूल हो जाते। और में लालटैन की रोशनी में इस रोशनी के ज़र्रे ढूंढता रहता जिस से मेरी ज़िंदगी मुनव्वर हो सकती थी। वज़ीर झाड़ीयों के पीछे बैठी ना जाने क्या सोचती रहती ।