लाला तिकड़मीलाल (कहानी) : भगवतीचरण वर्मा

Lala Tikdamilal (Hindi Story) : Bhagwati Charan Verma

1

उस दिन एक विराट् कवि-सम्मेलन था, और कवि सम्मेलन के सभापति थे ठाकुर नामकमावनसिंह । ठाकुर नामकमावनसिंह एक बहुत बड़े जमींदार थे- अगाध सम्पत्ति के स्वामी और पूरे कलाकार । संगीत और चित्रकला से उन्हें रुचि थी, अन्य कलाओं से भी अनुराग था। एक दिन हिन्दी कवियों के भाग्य खुल गए। ठाकुर नामकमावनसिंह ने यह तय किया कि और-और बातों पर जहाँ लाखों रुपया खर्चा हो जाता है, वहाँ कुछ थोड़ा सा साहित्य पर भी खर्च होने में कोई हर्ज नहीं । साहित्यकारों के हाथ में ख्याति की बागडोर है - उनकी खातिरदारी से लाभ ही हो सकता है।

ठाकुर नामकमावनसिंह ने पत्रों में सूचना निकाल दी कि हिन्दी में कविता की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक लिखनेवाले को वे पाँच सौ रुपए का पुरस्कार देंगे। प्रत्येक पुस्तक की सात-सात प्रतियाँ आनी चाहिए। पुस्तकें पहुँचने लगीं और पुस्तकों के साथ-साथ पहुँचने लगे कवि | कवियों में ठाकुर नामकमावनसिंह को प्रसन्न करने की होड़ लग गई। किसी ने नामकमावन - बावनी का निर्माण किया और किसी ने नामकमावन-वन्दना बनाई। किसी ने ठाकुर नामकमावनसिंह की कुबेर से उपमा दी और किसी ने ठाकुर नामकमावनसिंह को नवयुग का प्रवर्तक कह डाला। ठाकुर नामकमावनसिंह के चित्रों के साथ उनके जीवन-चरित्र पत्रों में प्रकाशित हुए, उनकी प्रशंसाएँ लिखी गईं, और उनका गुण गाया गया। अन्त में कवियों ने मिलकर उन्हें कवि सम्मेलन का सभापति भी बना दिया ।

मंच पर सभापति महोदय विराजमान थे और उनको घेरे हुए तथा उनकी खुशामदें करता हुआ कवि-समाज भी बैठा था । कविताओं का पाठ हो रहा था और कविगण ठाकुर नामकमावनसिंह को अपना चमत्कार दिखला रहे थे । सभा भवन दर्शकों से ठसाठस भरा था- एक समाँ बँधा था ।

एक कोने में लाला तिकड़मीलाल बैठे हुए कविताओं का आनन्द ले रहे थे । लाला तिकड़मीलाल करीब तीस वर्ष के गोल-मटोल जवान थे। लाला तिकड़मीलाल के मित्र उनकी उपमा फुटबाल से देते हैं और उनके शत्रु - जिनमें अधिकांश वे लोग हैं जिनसे लाला तिकड़मीलाल अपने पिता द्वारा दिए गए सौ रुपए के बदले में पाँच सौ रुपए वसूल कर चुके हैं और अब जिन पर हजार रुपए की डिगरी लदी हुई है - उन्हें भैंसासुर का अवतार मानते हैं। मालूम होता है कि जिस समय ब्रह्मा लाला तिकड़मीलाल को गढ़ने की सोच रहे थे, उनको सामने आबनूस का एक मोटा सा कुन्दा मिल गया था। उनका मारकीन का कुरता अपने सैकड़ों मुखों द्वारा उनसे गिड़गिड़ाकर प्रार्थना कर रहा था- "मालिक, अब तो हम पर दया करो और शान्तिपूर्वक हमें मरने दो। अब हममें शक्ति नहीं है, जो हम तुम्हारी सेवा कर सकें। बारह गंडे देकर सूद-दर- सूद सहित दस | रुपए का काम हमसे करवा चुके हो। अब हम समाप्त हो चुके ।"

उस कवि-सम्मेलन से तिकड़मीलाल प्रभावित हुए, जीवन का दूसरा पहलू उन्हें देखने को मिला। रुपए के साथ प्रतिष्ठा भी कुछ वस्तु होती है, लाला तिकड़मीलाल इस नतीजे पर पहुँच गए।

कवि सम्मेलन समाप्त हुआ और लाल तिकड़मीलाल घर पहुँचे। अपनी धर्मपत्नी को उन्होंने सारा किस्सा बतलाया। धर्मपत्नी कुछ समझी और कुछ नहीं समझी। पर लाला तिकड़मीलाल पर नाम कमाने की धुन सवार हो गई ।

रात-भर लाला साहब ने सपने देखे । कवि सम्मेलन का दृश्य उनकी आँखों के आगे था और सभापति स्वयं लाला तिकड़मीलाल थे। कविगण उनको घेरे बैठे थे और चारों ओर उनकी प्रशंसा हो रही थी। दूसरे दिन सुबह उठकर लाला तिकड़मीलाल ने साबुन लगाकर अपना शरीर साफ किया, कपड़े बदले और शीशे में मुँह देखा। इसके बाद वे फटीशजी के घर पहुँचे ।

फटीशजी हिन्दी के एक सुविख्यात कवि हैं। उन्होंने एक बार लाला तिकड़मीलाल से दस रुपए लिये थे, जिसे लौटाने का उन्होंने कभी नाम न लिया। जहाँ लाला तिकड़मीलाल ने रुपए माँगे, वहीं फटीशजी ने उन चुने हुए शब्दों में, जिनका प्रयोग साहित्यकारों ने कुँजड़िनों तथा भटियारिनों के लिए ही छोड़ दिया है, लाला तिकड़मीलाल का गुणगान करना शुरू कर दिया; और लाला तिकड़मीलाल नालिश की धमकी देते हुए घर लौटे।

फटीशजी अपनी बैठक में बैठे हुए भंग घोट रहे थे। उन्होंने सड़क पर लाला तिकड़मीलाल को देखा और लपककर उन्होंने बैठक का दरवाजा बन्द कर लिया ।

तिकड़मीलाल ने आवाज दी- "फटीशजी !”

फटीशजी ने उत्तर दिया- " घर पर नहीं हैं।"

तिकड़मीलाल का मुख क्रोध से लाल हो गया; पर अपने क्रोध को दबाते हुए उन्होंने कहा - "बोल तो रहे हो और कहते हो घर पर नहीं हैं !"

कुछ देर तक चुप रहने के बाद फटीशजी ने उत्तर दिया- "हैं तो, लेकिन तुमसे नहीं मिलेंगे।"

“अरे भाई, रुपया माँगने नहीं आया हूँ,” तिकड़मीलाल ने कहा ।

"अच्छा तो फिर मिल सकते हैं; लेकिन भंग थोड़ी ही है, भंग न माँगना,” यह कहते हुए कविवर फटीश ने द्वार खोला ।

कमरे-भर में कागज और अखबार बिखरे पड़े थे। बीच में एक चटाई पड़ी थी, जिस पर फटीशजी डटे थे। लाला तिकड़मीलाल ने अपने कपड़ों को देखा और फिर धूल जमी हुई चटाई को । फटीशजी लाला तिकड़मीलाल के मनोभावों को ताड़ गए । मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा - " मालूम होता है, हरिजन मूवमेंटवालों ने तुम्हें भी देख लिया ।"

और उन्होंने अपने अँगोछे से चटाई की धूल पोंछ दी। लाला तिकड़मीलाल बैठ गए।

भाँग छानकर फटीशी सुव्यवस्थित हुए। उन्होंने तिकड़मीलाल से पूछा - "कहिए लालाजी, कैसे कष्ट उठाया ?”

तिकड़मीलाल ने मुस्कुराने का प्रयत्न करते हुए कहा- "यों ही, सोचा कुछ आपसे साहित्य के विषय में बातचीत करूँ ।"

"साहित्य !” फटीशजी ने अपनी आँखें फाड़कर कहा - " साहित्य ! तुमसे और साहित्य से क्या सम्बन्ध ?”

सकपकाते हुए तिकड़मीलाल ने कहा- “भाई, मैं सोच रहा हूँ कि साहित्य की सहायता करना हर एक आदमी का धर्म है। आप साहित्य के धुरन्धर विद्वान् हैं - आपसे बढ़कर मुझे कोई ऐसा आदमी नहीं दिखलाई देता, जिससे कुछ सलाह लूँ । इसीलिए आपकी सेवा में आया हूँ ।"

फटीशजी ने अपनी छाती फुलाई, मत्था ऊँचा किया। खाँसा और खँखारा और फिर बोले - "खैर, आपने अच्छा किया कि आप मेरे यहाँ चले आए। लोग साहित्य को समझते ही नहीं - तमीज हो तो समझें। मैंने तो लोगों की तबीयत ठीक कर दी है। ये बड़े-बड़े आचार्य और विद्वान सब-के-सब मूर्ख हैं हाँ, तो आप क्या चाहते हैं ?"

रुपयों का तकाजा कर-करके लाला तिकड़मीलाल फटीशजी की प्रकृति से यथेष्ट परिचित हो गए थे। उन्होंने कहा - " मैं हिन्दी में एक पुरस्कार देना चाहता हूँ।"

"कैसा पुरस्कार ?”

"हिन्दी कविता की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक पर मैं पाँच सौ रुपए का पुरस्कार देना चाहता हूँ ।"

फटीशजी ने लाला तिकड़मीलाल को गौर से कुछ देर तक देखा। उसके बाद बोले - "लाला, डॉक्टर से अपने दिमाग की परीक्षा करवा आए थे कि नहीं ?"

फटीशजी के इस प्रश्न पर लाला तिकड़मीलाल को बुरा नहीं लगा। मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा- "मैं पागल नहीं हूँ, फटीशजी । अब आप यह बतलाइए कि किस प्रकार काम किया जाय ?"

फटीशजी ने मुँह बनाते हुए कहा - " हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कविता - पुस्तक कौन है, इसका निर्णय कौन करेगा ? हिन्दी में जितने निर्णायक हैं, वे सब-के-सब परले सिरे के बेईमान, ढोंगी और बेवकूफ हैं। और अगर नहीं भी हैं तो भी समझे तो जाते ही हैं । लेकिन इससे क्या ? तुम्हारे ऐसे मक्खीचूसों की टेंट से अगर पाँच सौ निकलकर किसी बेचारे कवि को मिल जायँ, तो इसमें प्रसन्नता की ही बात होगी।"

उसी दिन पत्र में पुरस्कार की सूचना भेज दी गई। कवियों से उनकी पुस्तकों की दस-दस प्रतियाँ माँगी गईं। पत्रों ने लाला तिकड़मीलाल के दान की प्रशंसा में कॉलम रँगे, सम्पादकों के पत्र लाला तिकड़मीलाल के चित्रों के लिए आए और कवियों ने उनके घर के चक्कर काटने आरम्भ कर दिए।

2

लाला घासीराम ने नमक की पुड़िया बाँधने के लिए रद्दी में खरीदे हुए अखबार का एक | टुकड़ा फाड़ा ही था कि उनकी दृष्टि उस टुकड़े पर छपे हुए एक वाक्य पर पड़ गई । वाक्य इस प्रकार का था - 'लाला तिकड़मीलाल की दानशीलता।' लाला घासीराम नमक देना भूलकर उस खबर को पढ़ने लगे। ग्राहक ने जल्दी मचाई, और कागज का दूसरा टुकड़ा फाड़कर उन्होंने नमक बाँधा। इसके बाद वे अपने पुत्र दमड़ीलाल को दूकान पर | बिठलाकर तिकड़म के घर को चल दिए । तिकड़मीलाल अपनी बैठक में गावतकिए के | सहारे बैठे थे और उनको कवियों का समूह घेरे बैठा था। एक सुकवि 'तिकड़म-पचीसी' का पाठ कर रहे थे और अन्य कवि वाह वाह कर रहे थे। लाला घासीराम ने जो यह दृश्य देखा, तो सन्नाटे में आ गए। घासीराम के प्रवेश करते ही तिकड़मीलाल उठ खड़े हुए और उन्होंने बड़े आदर के साथ कहा - " आइए चाचाजी !”

'चाचाजी' का उग्र रूप देखकर कवि समाज सकपकाया। तिकड़मीलाल ने आँख का | इशारा किया और कवि लोग एक-एक करके खिसकने लगे। जब मैदान साफ हो गया, तब लाला घासीराम ने कहा - "क्यों तिकड़म ! अब क्या घर-बार फूँकने की सोची है ?"

"नहीं तो, आपसे यह किसने कह दिया ?"

“किसने कह दिया ! अरे, अखबारों में जो कुछ निकला है वह हमने भी पढ़ा है। इसी तरह से रुपया बाँटोगे तो कंगाल हो जाओगे, कंगाल ! भइया ने कौड़ी-कौड़ी करके जो माल-मता जोड़ा है, वह तुम साल-दो साल में खतम करके भीख माँगोगे । बनिया का लड़का इतना गावदी निकला - राम-राम !”

तिकड़मीलाल मुस्कुराए । घासीराम के चरण छूकर उन्होंने कहा - "चाचा, तुम | निसाखातिर रहो, मैं एक पैसा -कौड़ी किसी को नहीं देने का। मैंने तो वह काम किया | है कि नाम का नाम हो और रुपया भी पैदा करूँ।"

“यह कैसे ?” लाला घासीराम के चेहरे पर स्पष्ट आश्चर्य की मुद्रा आ गई थी ।

“तो सुनिए। मैंने पाँच सौ रुपया देने को कहा है और हरएक कवि से दस-दस किताबें मँगवाई हैं। सत्तर कवियों ने किताबें भेजी हैं। इस तरह करीब सात सौ किताबें मेरे पास इकट्ठी हो गई हैं। इन सात सौ किताबों का दाम औसतन बारह सौ रुपया होता है। मैं किताबों के एजेंट से बातचीत कर रहा हूँ-छह सौ रुपया में किताबें बिक जाएँगी। इसमें मान लीजिए कि पाँच सौ रुपया दे भी दिया, तो सौ रुपया बच जाएगा।"

यह कहकर लाला तिकड़मीलाल ने अपने चाचा को किताबों से भरी अलमारियाँ दिखलाई - और एजेंट से पत्र-व्यवहार दिखलाया ।

लाला घासीराम की आँखों में अश्रु उमड़ पड़े, उन्होंने अपने भतीजे के सिर पर हाथ रखते हुए कहा - "बेटा, तुम कुल उजागर पैदा हुए। तुम हमारे कुल का नाम चलाओगे, हमें मालूम हो गया। और देखो, दमड़ी को भी अपने साथ लेकर कुछ ऐसे ही करतब सिखलाओ।" और अपना आशीर्वाद देकर लाला घासीराम दूकान की ओर चल दिए ।

3

अगर श्रीयुत टेवप्रसाद टेव का कहना था कि वे देव से बढ़कर हैं, तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। उन्होंने काफी रुपया पैदा किया था और मुक्तहस्त से हिन्दी में कवियों तथा लेखकों को रुपया बाँटकर उन कंगाल कवियों तथा लेखकों पर काफी एहसान करते थे ।

एहसान के बोझ से लदे हुए कवियों ने श्रीयुत टेवप्रसाद के नाम से कविताएँ लिखीं और लेखकों ने उनके नाम से लेख लिखे और एक दिन टेवप्रसाद 'महाकवि टेव' बन गए। महाकवि 'टेव' का दावा था कि उन्होंने साहित्य का निर्माण किया, कवियों तथा लेखकों को उन्होंने प्रोत्साहन दिया और हिन्दी साहित्य में उन्होंने वह किया, जो किसी दूसरे ने नहीं किया । 'टेवजी' ने एक दिन अपनी कविताओं का संग्रह प्रकाशित कराया और उसका नाम रखा 'टेव - शतक'। 'टेव शतक' की चारों ओर आलोचनाएँ हुईं। लोगों ने (लोगों से प्रयोजन टेवजी के एहसान से लदे हुए साहित्यिकों से है ) फतवा दे दिया कि 'टेवजी' 'देवजी' से बढ़ गए हैं।

'तिकड़म - पुरस्कार' में टेवजी ने भी अपनी 'टेव-शतक' भेज दी। इधर हिन्दी-संसार में धूम मची हुई थी कि देखें 'तिकड़म पुरस्कार' इस बार किसको मिलता है और उधर 'टेव - शतक' पर यह विवाद उठ खड़ा हुआ था कि हिन्दी में 'टेव' बड़े हैं या 'देव' । कुछ लोगों ने टेवजी का विरोध किया। इन विरोधियों में वे थे, जिन्हें 'टेवजी' ने कभी कुछ नहीं दिया था, और टेवजी ने कमर कस ली कि तिकड़म पुरस्कार लेकर ही छोड़ेंगे।

टेवजी ने एक दिन लाला तिकड़मीलाल को अपने यहाँ आमन्त्रित किया । स्वादिष्ट भोजन हुए, बिजली के पंखे के नीचे दोनों आदमी बैठे। 'टेवजी' ने बात आरम्भ की, " तिकड़मीजी, इस बार आपने निर्णायक कौन-कौन लोग रखे हैं ?"

अपनी एक आँख दबाए हुए तिकड़मीलाल ने कहा - "टेवजी, मुझे दुख है कि मैं आपको निर्णायकों के नाम न बतला सकूँगा; क्योंकि ऐसे मामलों में निर्णायकों के नाम बहुत अधिक गुप्त रखे जाने चाहिए। आप जो कुछ चाहें, मुझसे बातें कर लें।"

'टेवजी' ने देखा कि मौका अच्छा है। वे बोले-“हाँ तिकड़मीजी, आप ही सब कुछ हैं, आपने 'टेव- शतक' पर निकली हुई समालोचनाएँ तो पढ़ी होंगी।”

तिकड़मीलाल मुस्कुराए -“हाँ साहब, समालोचनाएँ तो पढ़ डालीं और बड़ी अच्छी हैं; पर लोगों का कहना है कि आपके पक्ष में निकली हुई समालोचनाएँ निष्पक्ष भाव से नहीं लिखी गईं।"

टेवजी आवेश में काँपने लगे, गरजकर बोले- “ऐसा कहनेवाले लुच्चे हैं, शोहदे हैं, नमकहराम हैं। मेरे यहाँ से इतना रुपया पाया है और मेरी ही निन्दा करते हैं। उनकी बातों का आप विश्वास क्यों करते हैं ?"

"विश्वास तो नहीं करता; पर अविश्वास ही क्यों किया जाय ? निर्णायकों के हाथ में पुस्तकें हैं, वे अपना निर्णय दे देंगे। आप साफ-साफ कहिए कि आप क्या चाहते हैं ?"

टेवजी ने साहस किया - " मैं यह चाहता हूँ कि वह पुरस्कार मुझको मिले ।”

तिकड़मीलाल ने अपने मत्थे पर हाथ लगाया, "यह तो बड़ी मुश्किल बात है; लेकिन अगर आप एक बात मान लें तो शायद मसला हल हो जाय !"

"वह बात ?" उत्सुकतापूर्वक टेवजी ने पूछा।

"वह बात यह है कि पुरस्कार आपको मिल जाएगा; लेकिन पाँच सौ रुपए आपको न मिलकर निर्णायकों में सम्मति देने के लिए बाँट देने पड़ेंगे।”

"स्वीकार है !" तपाक के साथ टेवजी ने कहा।

4

उस दिन एक विराट् कवि-सम्मेलन था और सम्मेलन के सभापति थे श्रीमान् लाला तिकड़मीलाल। संयोजक श्रीयुत टेव थे और टेवजी ने बड़े परिश्रम के साथ बाहर से बड़े-बड़े कवियों को आमन्त्रित किया था ।

मंच पर लाला तिकड़मीलाल विराजमान थे और वे फूलों से लदे हुए थे । उनको घेरे हुए बैठा था कवि समुदाय । कवि सम्मेलन आरम्भ हो गया ।

कवि सम्मेलन के समाप्त हो जाने के बाद सभापति महोदय उठे। उन्होंने कहा - "सज्जनो, इस वर्ष का तिकड़म पुरस्कार हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि कविसम्राट् 'टेवजी' को दिया जाता है।" चारों ओर से करतल ध्वनि होने लगी और लोगों ने लाला तिकड़मीलाल की जय के नारे लगाए।

एकाएक कवि सम्मेलन में सन्नाटा छा गया। मंच पर एक हाथ से लाला तिकड़मीलाल का हाथ पकड़े हुए और दूसरे हाथ में चप्पल लिये हुए कविवर फटीशजी आसीन थे और ऊँचे स्वर में कह रहे थे - “भाइयो, इस तिकड़मीलाल ने कवियों से किताबें मँगाकर छह सौ रुपए में बेच ली हैं, और टेवजी को इसने एक पैसा नहीं दिया । यह बड़ा धूर्त और जालिया है। जिस एजेंट के हाथ इसने किताबें बेची हैं, वह मय इसके पत्रों के यहाँ पर मौजूद है ।"

फिर क्या था, अगर पुलिस पाँच मिनट और देर कर देती तो लाला तिकड़मीलाल घासीराम से रात का किस्सा एक महीने तक न कह पाते ।

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