लकटकिया : बुंदेली लोक-कथा
Laktakiya : Bundeli Lok-Katha
बुढ़िया को एक मोड़ा हतो बाको नाम थो “लकटकिया”। बो गाँओं पटेल के ढोर चरात थो। एक बार बो ढोर चरा रओ थो, भई से कछु लोग नरबदा नहान जा रए थे। लकटकिया ने पूछी, “काय भइयाहुन तुम काँ जा रए हो ?” बिनने कई, "हम नरबदा नहान जा रए हैं।" लकटकिया ने कई, "मोहे भी ले चलो।" सबने कई, “चले चल ।” बो सब ढोरों हे लेके उनके संगे चल दओ ।
नरबदाजी पोंहोचके सब जनों ने इसनान करो। इसनान के बाद पण्डज्जी ने सबके टीका लगाओ, सबने बिन्हें दक्षणा दई । अब लकटकिया की जेब तो खाली हती। बो बड़े सोच में पड़ गओ पण्डज्जी हे का दऊँ । इत्ते में पण्डज्जी जी ने बाहे टीका लगाओ। बाने ढोरों में से एक बछड़ा लाके दान कर दओ । पण्डज्जी खुसी से फूले नई समाए ओर बाकी बड़ाई करन लगे । इत्ते में दूसरे पण्डत आके सबके टीका लगान लगे। लकटकिया ने आओ देखो न ताओ ओर सबे एक-एक ढोर दान करन लगो । सबई पण्डत बाकी जय-जयकार करन लगे। बोले, “हमने इत्तो बड़ो दानी पहले कबहूँ नईं देखो।” लकटकिया के संगबारों ने कई, "तू बड़ो मूरख हे, ऐसे दान कर रओ हे जैसे तू कहीं को पटेल हे ?” लकटकिया हे पटेल की याद आ गई, बाने सोची अब में मरो। बिना ढोरों के घर जेहूँ तो पटेल तो मेरी जान ले लेहे। बाने सोची, अब में घरई नई जेहूँ । जो तो बड़ो खूँतो हो गओ हे। बो भई रेता मूढ़ पकड़ बेठ गओ । दिन डूबे सब लोग अपने-अपने घर चले गए। रात हो गई, लकटकिया हे भूँक लग आई। जब भूँक सहन न भई तो बाने अपने घर की गेल पकड़ी।
उते गाँओं में पटेल अगल परेसान हो रओ थो कि अभे तक ढोर बापस नई आए। लकटकिया की बूढ़ी माँ ने तो चिन्ता - फिकर में रोटी भी नई खाई। बा सोचे, "इत्ती देर तो कभ्भऊँ नई भई, राम जाने का हो गओ ?” इत्ते में हाँपत-हाँपत भूँको-प्यासो लकटकिया अपने घर पोंहचो । बुढ़िया ने पूछी, “इत्ती देर केंसे भई ओर ढोर किते हैं ?” लकिया ने बुढ़िया है पूरी बात बता दई । बुढ़िया के काटो तो खून नईं, भुनसारे पटेल न जाने का करहें। बाने सोची रातों-रात गाँओं छोड़बे मेई भलो हे। बाने लकटकिया हे झल्दी-झल्दी रोटी खिलाई ओर अपने सामान की पुटरिया बाँध लई । लकटकिया ने अपनी गुलेल साथ में रख लई । दोई घर से निकर पड़े। रस्ते में घनो जंगल थो। लकटकिया रस्ते में से कंकड़-पथ्थर बीनके अपनी गुलेल से इते - उते मारत चल रओ थो, कायसे कोई जंगली जानबर जोरे न आए।
चलत-चलत भुनसारे दोई एक गाँओं में पोंहचे। लकटकिया के हाथ में एक पथ्थर बच गओ थो। बुढ़िया ने लकटकिया से कई, “जा बेटा कछु खाबे काजे लिआ ।” बुढ़िया भईं बेठ गई । लकटकिया एक दुकान पे गओ ओर बाने गुड़-फुटाने मंगे। दुकानदार ने जाके हाथ में पथ्थर देखो। बो हीरा हतो। दुकानदार ने बाहे पकड़ो ओर सीधो राजा के गओ । राजा ने बासे पूछी, “जो हीरा काँ से लाओ हे ?" लकटकिया ने कई, "रात में जंगल में, ऐसे भोत से पथ्थर इते-उते फेंके हैं।” राजा ने कई, “तू ऐंसई एक ओर पथ्थर लेके आ, नई तो तोहे फाँसी चढ़बा देहों ।"
बो डरके मारे बापस जंगल में जाके बेंसई पथ्थर ढूँढन लगो, पर बाहे फिर बे पथ्थर नई मिले। रात हो गई, जंगली जानबर बोलन लगे तो डरके मारे बो एक पेड़ पे चढ़ गओ । कछु देर बाद भाँ एक परी आई। बा पेड़ के नीचे बेठके बाँसुरी बजान लगी। लकटकिया बाहे देखके पेड़ के नीचे उतर आओ, परी ने लकटकिया हे देखो। परी हे बरदान हतो, जो कोई आदमी बाहे देख लेहे परी हे बासेई ब्याओ करनो पड़हे। परी ने लकटकिया हे सारी बात बता दई ।
लकटकिया बाहे घर लेके आ गओ । लकटकिया ने परी हे अपनो हाल बताओ। परी ने कई, “इत्ती सी बात !”
अपने जादू से हीरा ला दओ । भुनसारे लकटकिया हीरा लेके राजा के जोरे पोंहचो। राजा भोत खुस भओ, बाने लकटकिया हे इनाम देके बिदा करो। बाद में राजा ने सोची हो सकत हे जा पे अबे ओर भी हीरा हों। जा से राजा ने अपने चतुर चालाक नाई हे जासूसी करने काजे लकटकिया के घर भेजो। दूसरे दिना नाई ने आके राजा के कान में कई, “महाराज लकटकिया की ओरत तो परी जेंसी खपसूरत हे! तुम बाहे रख लेनो, में तुमरी एक रानी हे रख हूँ।” राजा नाई की बात मान गओ ।
अब नाई ने लकटकिया हे मारबे की सोची। नाई ने राजा से लकटकिया हे आदेस दिलबा दओ कि तू सुरग जाके हमरे आजे-पराजे की खबर लेके आ । लकटकिया ने राजा से पूछी, “राजा साब में सुरग केंसे जाऊँगो ?” राजा साब बोले, "हमने एक कुआ खुदबाओ हे। बा में तोहे बिठाके, लकड़ी डारके आगी लगा देहें । तू धुँआ के संगे सीधो सुरग पोहोंच हे।” लकटकिया ने जा बात बाकी ओरत हे बताई । घरबारी तो परी थी, बाने लकटकिया हे कुआ में से जादू के जोर से अन्दरई - अन्दर घर ले आई।
नाई जा बात पता चली तो बाने तुरतई जाके राजासाब हे खबर करी। राजा ने अपने सेनिक भेजके लकटकिया हे बुलबाओ ओर बासे पूछी, "सुरग में हमरे आजे- पराजे कैसे हैं ?" लकटकिया ने कई, “सबरे मजे से हें महाराज, पर सबके जटा- जूट खूब बढ़ रए हें काय से उते भोत मेंघाई हे। भाँ को नाई एक दाढ़ी बनाने के सो रुपैया ओर कटिंग के पाँच सो रुपैया लेत हे।” नाई ने सोची इत्ती मेंघी दाढ़ी-कटिंग ? बाने राजा साब से कई, “में सुरग जाऊँगो ओर सबकी दाढ़ी-कटिंग बनाके लोट आऊँगो ।” राजा साब बाई कुआ में डरबाके आग लगबा दई ।
जब भोत दिना हो गए तो राजा साब ने लकटकिया से पूछी, “नाई अबे तक सुरग से नई आओ ?” लकटकिया बोलो, “लगत हे नाई लालच में पड़ गओ हे, अब बो नई आए। बेंसे भी सुरग जाके कोन बापस आनो चाहेगो।” राजा समझ गओ जो बड़ो चतुर चालाक है। बाने लकटकिया हे अपनो मंत्री बनाओ।
(साभार : प्रदीप चौबे, महेश बसेड़िया)