लज्जा और ग्लानि (निबन्ध) : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
Lajja Aur Glani (Nibandh) : Acharya Ramchandra Shukla
हम जिन लोगों के बीच रहते हैं अपने विषय में उनकी धारणा का जितना ही अधिक ध्यान रखते हैं उतना ही अधिक प्रतिबंध अपने आचरण पर रखते हैं। जो हमारी बुराई, मूर्खता या तुच्छता के प्रमाण पा चुके रहते हैं, उनके सामने हम उसी धड़ाके के साथ नहीं जाते जिस धड़ाके के साथ औरों के सामने जाते हैं। यहीं तक नहीं, जिन्हें इस प्रकार का प्रमाण नहीं भी मिला रहता है, उनके आगे भी कोई काम करते हुए यह सोचकर कुछ आगापीछा होता है कि कहीं इस प्रकार का प्रमाण उन्हें मिल न रहा हो। दूसरों के चित्त में अपने विषय में बुरी या तुच्छ धारणा होने के निश्चय या आशंका मात्र से वृत्तियों का जो संकोच होता है-उनकी स्वच्छंदता के विघात का जो अनुभव होता है-उसे लज्जा कहते हैं। इस मनोवेग के मारे लोग सिर ऊँचा नहीं करते, मुँह नहीं दिखाते, सामने नहीं आते, साफ साफ कहते नहीं, और भी न जाने क्या क्या नहीं करते। 'हम बुरे न समझे जाएँ' यह स्थायी भावना जिसमें जितनी ही अधिक होगी, वह उतना ही लज्जाशील होगा। 'कोई बुरा कहे चाहे भला' इसकी परवा करके जो काम किया करते हैं वे ही निर्लज्ज कहलातेहैं।
जिस समाज में हम कोई बुराई करते हैं, जिस समाज में हम अपनी मूर्खता, धृष्टयता आदि का प्रमाण दे चुके रहते हैं, उसके अंग होने का स्वत्व हम जता नहीं सकते, अत: उसके सामने अपनी सजीवता के लक्षणों को उपस्थित करते या रखते नहीं बनता-यह प्रकट करते नहीं बनता कि हम भी इस संसार में हैं। जिसके साथ हमने कोई बुराई की होती है उसे देखते ही हमारी क्या दशा होती है? हमारी चेष्टाएँ मंद पड़ जाती हैं। हमारे ऊपर घड़ों पानी पड़ जाता है, हम गड़ जाते हैं या चाहते हैं कि धरती फट जाती और हम उसमें समा जाते। सारांश यह कि यदि हम कुछ देर के लिए मर नहीं जाते तो कम से कम अपने जीने के प्रमाण अवश्य समेट लेतेहैं।
ऊपर जो कुछ कहा गया है उससे यह स्पष्ट हो गया होगा कि लज्जा का कारण अपनी बुराई, त्रुटि या दोष हमारा अपना निश्चय नहीं, दूसरे के निश्चय का निश्चय या अनुमन है, जो हम बिना किसी प्रकार का प्रमाण पाए केवल अपने आचरण या परिस्थिति विशेष पर दृष्टि रखकर ही कभी कभी कर लिया करते हैं। हम अपने को दोषी समझें यह आवश्यक नहीं; दूसरे हमें दोषी या बुरा समझें यह भी आवश्यक नहीं, आवश्यक है हमारा यह समझना कि दूसरा हमें दोषी या बुरा समझता है या समझता होगा। जो आचरण लोगों को बुरा लगा करता है, जिस अवस्था का लोग उपहास किया करते हैं, जिस बात से लोग घृणा किया करते हैं यदि हम समझते हैं कि लज्जित होने के लिए लोगों के देखने में वह आचरण हमसे हो गया, उस अवस्था में हम पड़ गए या वह बात हमसे बन पड़ी, तो हम लज्जित होने के लिए इसका आसरा न देखेंगे कि जिन लोगों के सामने ऐसी बात हुई है वे निंदा करें, उपहास करें या छि: छि: करें। वे निंदा करें या न करें, उपहास करें या न करें, घृणा प्रकट करें या न करें, पर हम समझते हैं कि मधुशाला उनके पास है, वे उसका उपयोग करें या न करें। यह अवश्य है कि उपयोग होने पर हमारी लज्जा का वेग या भार बहुत बढ़ जाता है, पर कभी कभी इसका उलटा भी होता है। जिसके साथ हमने कोई भारी बुराई की होती है वह यदि दस आदमियों के सामने मिलने पर मौन रहे, हमारा गुणानुवाद करने लगे, हमसे प्रेम जताने लगे या हमारा उपकार करने लगे, तो शायद हम अपने डूबने के लिए चुल्लू भर पानी ढूँढ़ने लगेंगे। वन से लौटने पर रामचंद्र कैकेयी से मिले और रामहिं मिलत कैकेयी हृदय बहुत सकुचानि। पर जब लक्ष्मण कैकेयी कहँ पुनि पुनि मिले तो वह लज्जा से धंस गई होगी। चित्रकूट में जब राम पहले कैकेयी से मिले होंगे तब उसकी क्या दशा हुई होगी?
निंदा का भय लज्जा नहीं है, भय ही है और कई बातों का, जिसमें लज्जा भी एक है। हमें निंदा का भय है; इसका मतलब है कि हमें उसके परिणामों का भय है-अपने कुढ़ने, दु:खी होने, लज्जित होने, हानि सहने इत्यादि का भय है।
विशुद्ध लज्जा अपने विषय में दूसरे की ही भावना पर दृष्टि रखने से होती है। अपनी बुराई, मूर्खता, तुच्छता इत्यादि का एकांत अनुभव करने से वृत्तियों में जो शैथिल्य आता है, उसे 'ग्लानि' कहते हैं। इसे अधिकतर उन लोगों को भोगना पड़ता है जिनका अंत:करण सत्व प्रधन होता है, जिनके संस्कार सात्तिवक होते हैं, जिनके भाव कोमल और उदार होते हैं, जिनका हृदय कठोर होता है, जिनकी वृत्ति क्रूर होती है, जो सिर से पैर तक स्वार्थ में निमग्न होते हैं, उन्हें सहने के लिए संसार में इतनी बाधाएँ, इतनी कठिनाइयाँ, इतने कष्ट होते हैं कि ऊपर से और इसकी भी न उतनी जरूरत रहती है, न जगह। मन में ग्लानि आने के लिए यह आवश्यक नहीं कि जो हमारी बुराई, मूर्खता, तुच्छता आदि से परिचित हों, या परिचित समझे जाते हों, उनका सामना हो। हम अपना मुँह न दिखाकर लज्जा से बच सकते हैं, पर ग्लानि से नहीं। कोठरी में बंद, चारपाई पर पड़े पड़े लिहाफ के नीचे भी लोग ग्लानि से गल सकते हैं। चित्रकूट में भरत राम के मिलाप के स्थान पर जब जनक के आने का समाचार पहुँचा तब सुनत जनक आगमन सब हरखेउ अवधा समाज। पर गरइ गलानि कुटिल कैकेयी।
ग्लानि में अपनी बुराई, तुच्छता आदि के अनुभव से जो संताप होता है वह अकेले में भी होता है और दस आदमियों के सामने प्रकट भी किया जाता है। ग्लानि अंत:करण की शुद्धि का एक विधन है। उससे इसके उद्गार में अपने दोष, अपराध, तुच्छता बुराई इत्यादि का लोग दु:ख से या सुख से कथन भी करते हैं-उनमें दुराव या छिपाव की प्रवृत्ति नहीं रहती है। अपने दोष का अनुभव, अपने अपराध का स्वीकार, आंतरिक अस्वस्थता का उपचार तथा सच्चे सुधार का द्वार है। 'हम बुरे हैं' जब तक यह न समझेंगे तब तक अच्छे नहीं हो सकते। 'हम बुरे हैं' दूसरों के कान में पड़ते ही इसका अर्थ उलट जाता है।
दूसरों को हम अच्छे नहीं लगते, यह समझकर हम लज्जित होते हैं। अत: औरों को अच्छी न लगनेवाली अपनी बातों को केवल उनकी दृष्टि से दूर रखकर ही बहुत से लोग न लज्जित होते हैं, न निर्लज्ज कहलाते हैं। दूसरों के हृदय में अज्ञान की प्रतिष्ठा करके वे उसकी शरण में जाते हैं। पर अज्ञान, चाहे अपना हो चाहे पराया, सब दिन रक्षा नहीं कर सकता। बलि पशु होकर ही हम उसके आश्रय में पलते हैं। जीवन के किसी अंग की यदि वह रक्षा करता है तो सर्वांग भक्षण के लिए। अज्ञान अंधकार स्वरूप है। दीया बुझाकर भागनेवाला यदि समझता है कि दूसरे उसे देख नहीं सकते, तो उसे यह भी समझ रखना चाहिए कि वह ठोकर खाकर गिर भी सकता है।
कोई बात ऐसी है जिसके प्रकट हो जाने के कारण हम दूसरों को अच्छे नहीं लगते हैं। यह जानकर अपने को और प्रकट होने पर अच्छे नहीं लगेंगे, यह समझकर उस बात को, थोड़े बहुत यत्न से उसके दृष्टिपथ से दूर करके भी जब हम समय पर अपना बचाव कर सकते हैं, यही नहीं, अपने व्यवधन कौशल पर विश्वास कर सदा बचते चले जाने की आशा तक-चाहे झूठी ही क्यों न हो-कर सकते हैं, तब हमारा केवल यह जानना या समझना सदा सुधार की इच्छा ही उत्पन्न करेगा, कैसे कहा जा सकता है? दूसरों का भय हमें भगा सकता है, हमारी बुराइयों को नहीं। दूसरों से हम भाग सकते हैं, पर अपने से नहीं। जब अपने को हम अच्छे न लगेंगे तब सिवा इसके कि हम अच्छे हों या अच्छे होने की आशा करें, आत्मग्लानि से बचने का और कोई दूसरा उपाय न रहेगा। पर जिनके अंत:करण में अच्छे संस्कारों का बीज रहता है, ग्लानि उन्हीं को होती है।
संकल्प या प्रवृत्ति हो जाने पर बुराई से बचानेवाले तीन मनोविकार हैं-सात्तिवक वृत्तिवालों के लिए ग्लानि, राजसी वृत्तिवालों के लिए लज्जा और तामसी वृत्तिवालों के लिए भय। जिन्हें अपने किए पर ग्लानि नहीं हो सकती वे लोक लज्जा से, जिनमें लोक लज्जा का लेश नहीं रहता वे भय से, बहुत से कामों को करते हुए हिचकते हैं। प्राय: कहा जाता है कि बहुत से लोग इच्छा रखते हुए भी बुरे काम लज्जा के मारे नहीं करते। पर लज्जा का अनुभव एक प्रकार के दु:ख का ही अनुभव है, अत: यह नहीं कहा जा सकता है कि कर्म न करने पर भी अपनी इच्छा मात्र पर उन्हें यह दु:ख होता है; क्योंकि यदि ऐसा होता तो वे इच्छा रखते ही क्यों? सच पूछिए तो उन्हें उस दु:ख की आशंका मात्र रहती है जो लोगों के धिक्कार, बुरी धारणा आदि से उन्हें होगा। वास्तव में उन्हें लज्जा की आशंका रहती है, इस बात का डर रहता है कि कहीं लज्जित न होना पड़े। लज्जा का अनुभव तो तभी होगा जब वे कुकर्म की ओर इतने अग्रसर हो चुके रहेंगे कि यह समझ सकें कि लोगों के मन में बुरी धारणा हो गई होगी। उस समय उनका पैर आगे नहीं बढ़ेगा।
आशंका अनिश्चयात्मक वृत्ति है। इससे लज्जा ही हो सकती है; जिसका संबंध दूसरों की धारणा से होता है। ग्लानि की आशंका नहीं हो सकती। क्योंकि उसका संबंध अपने से कहीं बाहर की बुरी धारणा से तो होता नहीं, अपनी ही बुरी धारणा से होता है जिसमें अनिश्चय का भाव नहीं रह सकता। जिससे बुराई की जितनी ही अधिकतम संभावना होती है उसे रोकने का उतने ही पहले से उपाय किया जाता है। जिन्हें अपने किए पर ग्लानि हो सकती है उनके लिए उतने पहले से प्रतिबंध की आवश्यकता नहीं होती जितने पहले से उनके लिए होती है, जो केवल यही समझकर दु:खी होते हैं कि 'लोग बुरा समझते हैं' यह समझकर नहीं कि 'हम बुरे हैं'। जो निपट निर्लज्ज होते हैं, दूसरों की बुरी धारणा की भी तब तक परवा नहीं करते जब तब उससे किसी उग्र फल की आशंका नहीं होती, उनके कर्म प्राय: इतने बुरे, इतने असह्य हुआ करते हैं कि दूसरे उन्हें बुरा समझकर ही नहीं रह जाते, छि: छि: करके ही संतोष नहीं कर लेते, बल्कि मरम्मत करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं, जिससे उन्हें कभी भयभीत होना पड़ता है, कभी सशंक।
मनुष्य लोकबद्धा प्राणी है, इससे वह अपने को उनके कर्मों के गुण दोष का भी भागी समझता है जिनसे उनका संबंध होता है, जिनके साथ में वह देखा जाता है। पुत्रा की अयोग्यता और दुराचार, भाई के दुर्गुण और असभ्य व्यवहार आदि का ध्यारन करके भी दस आदमियों के सामने सिर नीचा होता है। यदि हमारा साथी हमारे सामने किसी तीसरे आदमी से बातचीत करने में भारी मूर्खता का प्रमाण देता है, भद्दी और ग्राम्य भाषा का प्रयोग करता है, तो हमें भी लज्जा आती है। मैंने कुत्तो के कई शौकीनों को अपने कुत्तो की बदतमीजी पर शरमाते देखा है। जिसे लोग कुमार्गी जानते हैं, उसके साथ यदि हम कभी देवमंदिर के मार्ग पर भी देखे जाते हैं तो सिर झुका लेते हैं या बगलें झाँकते हैं। बात यह है कि जिसके साथ हम देखे जाते हैं, उसका हमारा कितनी बातों में कहाँ तक साथ है, दूसरों को इसके अनुमन की पूरी स्वच्छंदता रहती है, उनकी कल्पना की कोई सीमा हम तत्काल बाँधा नहीं सकते।
किसी बुरे प्रसंग में यदि निमित्त रूप से भी हमारा नाम आ जाता है तो हमें लज्जा होती है-चाहे ऐसा हमारी जानकारी में हुआ हो, चाहे अनजान में। यदि बिना हमें जताए हमारे पक्ष में कोई कुचक्र रचा जाए तो उसका वृत्तांत फैलने पर हमें लज्जा क्या ग्लानि तक हो सकती है। लज्जा का होना तो ठीक है क्योंकि वह दूसरों की धारणा के कारण होती है, अपनी धारणा के कारण नहीं। पर ग्लानि कैसे होती है, 'हम बुरे या तुच्छ हैं', यह धारणा कहाँ से आती है, यही देखना है। अपमन होने पर यदि क्रोध के लिए स्थान हुआ तो क्रोध का, नहीं तो अपनी तुच्छता का अनुभव होता है। दूसरों के चित्त में हमारे प्रति जो प्रेम या प्रतिष्ठा का भाव रहता है, उसका हास किसी कुचक्र के साथ अपना नाम मात्र का संबंध समझकर भी, हम समझे बिना नहीं रह सकते। जब स्थिति ऐसी होती है कि इस हास का न समाधन द्वारा निराकरण कर सकते हैं, न क्रोध द्वारा प्रतिकार तो, सिवा इसके कि हम अपनी हीनता का अनुभव करें, और कर ही क्या सकते हैं? भरत को इसी दशा में पाकर राम ने उन्हें समझाया था कि-
तात जाय जनि करहु गलानी।
ईस अधीन जीव-गति जानी॥
तीनि-काल त्रिभुवन मत मोरे।
पुन्यसलोक तात तर तोरे॥
उर आनत तुम पर कुटिलाई।
जाइ लोक परलोक नसाई॥
जिसने इतनी बुराई की वह मेरी माता है, इस भावना से जो लज्जा भरत की थी उसे दूर करने के लिए ही आगे का वचन है-
दोष देहिं जननिह जड़ तेई।
जिन गुरु-साधु-सभा नहिं सेई॥
इस प्रकार दोष देनेवाले से दोषोद्भावना द्वारा अनधिकार का आरोप करके माता के दोष का परिहार किया गया है।
उत्तम कोटि के मनुष्यों को अपने दुष्कर्म पर ग्लानि होती है और मध्यमम कोटि के मनुष्यों को अपने दुष्कर्म के किसी कड़घए फल पर। दुष्कर्म के अनेक अप्रिय फलों में से एक अपमन है, जिसे सहकर अपनी तुच्छता का अनुभव किए बिना लोग प्राय: नहीं रहते। जिन्हें अपने किसी कर्म की बुराई का ध्याछन अपने आप नहीं होता उन्हें ध्या न कराने का श्रम उसकी बुराई का विशेष अनुभव करनेवाले, अपनी बुराई का सब ध्यायन, अपने हाथ का सब धंधा छोड़कर उठाते हैं। इस श्रम से दूसरों के लिए उनकी बुराई का फल पैदा किया जाता है। उसकी नीरसता और कटुता कभी कभी अत्यंत ग्लानिकारिणी होती है पर ऑंख खुलने पर जो ऑंख खोलनेवालों को देख सकें, उनकी ऑंख की दुरुस्ती में बहुत कसर समझनी चाहिए। अपमन या हानि की ही ग्लानि जो उस अपमन या हानि ही तक ध्याऔन को ले जाए-उसके कारण तक न बढ़ाए-वह बुराई के मार्ग पर चल चुकनेवालों का थोड़ी देर के लिए पैर थाम या बल तोड़ सकती है, पर उसका मुँह दूसरी ओर मोड़ नहीं सकती। अपमन का जो दु:ख केवल इन शब्दों में व्यक्त किया जाता है कि 'हा! हमारी यह गति हुई?' उससे अपमन करनेवालों का काम तो हो जाता है पर दु:ख करनेवालों का कोई मतलब नहीं निकलता। जो ग्लानि हमसे यह कहलाए कि 'यदि हमने ऐसा न किया होता तो हमारी यह गति क्यों होती?' यही पश्चािताप की ग्लानि है जिससे हमारा हृदय पिघलकर किसी नए साँचे में ढलने के योग्य हो सकता है। अत: कोई ऐसी बुराई करके जिससे चार आदमियों को कष्ट पहुँचा हो, हम यह समझने में कि 'हमने बुरा किया' जितनी ही जल्दी करते हैं उतने ही मजे से रहते हैं क्योंकि बहुधा ऐसा है कि जिन्हें कष्ट पहुँचा रहता है वे हमारी इस समझ का पता पाकर संतुष्ट हो जाते हैं। अपनी किसी बुराई को बंधया मनकर मन का खटका छुड़ानेवाले धोखा खातेहैं।
अपमन से जो ग्लानि होती है वह दो भावों के आधार पर-'हम ऐसे तुच्छ हैं' और 'हम ऐसे बुरे हैं'-इन दोनों भावों को कभी कभी लोग बड़ी फुरती और सफाई से रोकते हैं। अपनी तुच्छता का भाव अधिकांश में अपनी असामर्थ्य और दूसरे के सामर्थ्य का भाव है। हम इतने असमर्थ हैं कि दूसरे हमारा अपमन कर सकते हैं, इस भाव से निवृत्ति तो लोग चट अपनी सामर्थ्य का परिचय देकर-अपमन करनेवाले का अपमन करके-कर लेते हैं। रहा अपने दोष या बुराई का भाव, उससे छुटकारा लोग दोष देनेवालों में दोष ढूँढ़कर कर लेते हैं। इस प्रकार अपनी सामर्थ्य और दूसरे के दोष की भावना मन में भरकर वे अपनी तुच्छता और बुराई के अनुभव के लिए कोई कोना खाली ही नहीं छोड़ते। ऐसे लोग चाहे लाख बुराई करें, एक की दस सुनाने को सदा तैयार रहते हैं। अपने को ऐसा ही कल्पित करके तुलसीदासजी कहते हैं-
जानत हू निज पाप जलधि जिय,
जल-सीकर सुनत लरौं।
रज सम पर-अवगुन सुमेरु करि,
गुन गिरि सम ते निदरौं॥
अकारण अपमन पर जो ग्लानि होती है वह अपनी तुच्छता, अपनी सामर्थ्यहीनता पर ही होती है। लोक मर्यादा की दृष्टि से हमको इतना सामर्थ्य संपादन करना चाहिए कि दूसरे अकारण हमारा अपमन करने का साहस न कर सकें। समाज में रहकर मन मर्यादा का भाव हम छोड़ नहीं सकते। अत: इस सामर्थ्य का अभाव हमें खटक सकता है। उसकी हमें ग्लानि हो सकती है। जो संसारत्यागी या आत्मत्यागी है उनका विगतमन होना तो बहुत ठीक है, पर लोकव्यवहार की दृष्टि से अनिष्ट से बचने बचाने के लिए इष्ट यही है कि हम दुष्टों का हाथ थामें और धृष्टों का मुँह-उनकी वंदना करके हम पार नहीं पा सकते हैं। इधर हम हाथ जोड़ेंगे, उधर वे हाथ छोड़ेंगे। असामर्थ्य हमें क्षमा या सहनशीलता का श्रेय भी पूरा पूरा नहीं प्राप्त करने देगी।
मन लीजिए कि एक ओर से हमारे गुरुजी और दूसरी ओर से एक दंडधारी दुष्ट, दोनों आते दिखाई पड़ें। ऐसी अवस्था में पहले हमें उस दुष्ट का सत्कार करके तब गुरुजी को दंडवत् करना चाहिए। पहले उस दुष्ट द्वारा होनेवाले अनिष्ट का निवारण कर्तव्या है, फिर उस आनंद का अनुभव जो गुरुजी के चरण स्पर्श से होगा। यदि हम पहले गुरुजी को साष्टांग दंडवत् करने लगेंगे तो बहुत संभव है कि वह दुष्ट हमारे अंगों को फिर उठाने लायक ही न रखे। यदि हममें सामर्थ्य नहीं है तो हमें बिना गुरुजी को प्रणाम दंडवत् किए ही भागना पड़ेगा जिसकी शायद हमें बहुत दिनों तक ग्लानि रहे।
लज्जा का हल्का रूप संकोच है जो किसी काम को करने के पहले ही होता है। कर्म पूरा होने के साथ ही उसका अवसर निकल जाता है; फिर तो लज्जा ही लज्जा हाथ रह जाती है। सामान्य से सामान्य व्यवहार में भी संकोच देखा जाता है। लोग अपना रुपया माँगने में संकोच करते हैं, साफ साफ बात कहने में संकोच करते हैं, उठने बैठने में संकोच करते हैं। लेटने में संकोच करते हैं, खाने पीने में संकोच करते हैं यहाँ तक कि एक सभा के सहायकमंत्री हैं जो कार्य विवरण पढ़ने में संकोच करते हैं, सारांश यह कि एक बेवकूफी करने में लोग संकोच नहीं करते और सब बातों में करते हैं। इससे उतना हर्ज भी नहीं क्योंकि बिना बेवकूफ हुए बेवकूफी का बुरा लोग प्राय: नहीं मनते। इतनी क्रियाओं का प्रतिबंधक होने के कारण संकोच शील का एक प्रधन अंग, सदाचार का एक सहज साधन और शिष्टाचार का एकमात्र आधार है। जिनमें शील संकोच नहीं, वह पूरा मनुष्य नहीं। बाहरी प्रतिबंधों से ही हमारा पूरा शासन नहीं हो सकता-उन सब बातों की रुकावट नहीं हो सकती जिन्हें हमें न करना चाहिए। प्रतिबंध हमारे अंत:करण में होना चाहिए। यह आभ्यंतर प्रतिबंध दो प्रकार का हो सकता है-एक विवेचनात्मक जो प्रयत्नसाध्यह होता है, दूसरा मनप्रवृत्यात्मक जो स्वभावज होता है। बुद्धि द्वारा प्रवृत्ति जबरदस्ती रोकी जाती है, पर लज्जा, संकोच आदि की अवस्था में प्राप्त होकर प्रवर्तक मन आप से आप रुकता है, चेष्टाएँ आप से आप शिथिल पड़ती हैं, यही रुकावट सच्ची है। मन की जो वृत्ति बड़ों की बात का उत्तर देने से रोकती है, बार बार किसी से कुछ माँगने से रोकती है, किसी पर किसी प्रकार का भार डालने से रोकती है, उसके न रहने से भलमनसाहत भला कहाँ रहेगी? यदि सबकी धड़क एकबारगी खुल जाय तो एक ओर छोटे मुँह से बड़ी बड़ी बातें निकलने लगें, चार दिन के मेहमन तरह तरह की फरमाइशें करने लगें, उँगली का सहारा पानेवाले बाँह पकड़कर खींचने लगें; दूसरी ओर बड़ों का बहुत कुछ बड़प्पन निकल जाए, गहरे गहरे साथी बहरे हो जाएँ या सूखा जवाब देने लगें; जो हाथ सहारा देने के लिए बढ़ते हैं वे ढकेलने के लिए बढ़ने लगें-फिर तो भलमनसाहत का भार उठानेवाले इतने कम रह जाएँ कि उसे लेकर चल ही न सकें।
संकोच इस बात के ध्यारन या आशंका से होता है कि जो कुछ हम करने जा रहे हैं वह किसी को अप्रिय या बेढंगा तो न लगेगा, उससे हमारी दु:शीलता या धृष्टाता तो न प्रकट होगी। इस बात का जिन्हें कुछ भी ध्याहन नहीं रहता उनका दस आदमियों का साथ नहीं निभ सकता और जिन्हें अत्यंत अधिक ध्या न रहता है उनके भी कामों में बाधा पड़ती है। मनोभावों की परस्पर अनुकूल स्थिति होने से ही संसार के व्यवहार चलते हैं। यदि एक इस बात का ध्याअन रखता है कि दूसरे को कोई बात खटके न, बुरी न लगे और दूसरा उसकी हानि, कठिनाई आदि का कुछ भी ध्याकन नहीं रखता है तो वह स्थिति व्यवहारबाधक है। ऐसी स्थिति में भी संकोच करनेवालों के काम देर से निकलते हैं या निकलते ही नहीं। पर इससे यह न समझना चाहिए कि जितने 'अपने संकोची स्वभाव' की शिकायत के बहाने अपनी तारीफ किया करते हैं वे सब अपनी भलमनसाहत से ही दु:ख भोग करते हैं। ऐसे लोगों में संकोच का तो नाममात्र न समझना चाहिए। जिन्हें यह कहने में संकोच नहीं कि 'हम बड़े संकोची हैं' उनमें संकोच कहाँ? उन्हें यह कहते देर नहीं कि अमुक बड़ा निर्लज्ज है, बड़ा दुष्ट है'।
लज्जा या संकोच यदि बहुत अधिक होता है तो उसे छुड़ाने की फिक्र की जाती है क्योंकि उससे कभी कभी आवश्यकता से अधिक कष्ट उठाना पड़ता है तथा व्यवहार तो व्यवहार, शिष्टाचार तक का निर्वाह कठिन हो जाता है। सुख से रहने का सीधा रास्ता बतलानेवाले ने तो 'आहार और व्यवहार' में लज्जा का एकदम त्याग ही विधोय ठहराया है। पर मुझे तो यहाँ यह देखना है कि बात बात में लज्जा करनेवालों की मनोवृत्ति कैसी होती है, उनके चित्त में समायी क्या रहती है। कोई क्रिया या व्यापार किसी को बुरा, बेढंगा या अप्रिय न लगे यह ध्यान तो निर्दिष्ट और स्पष्ट होने के कारण कुछ विशिष्ट व्यापारों का ही अवरोध करता है क्योंकि जो जो काम लोगों को बुरे, बेढंगे या अप्रिय लगा करते हैं, उनकी एक छोटी या बड़ी सूची सबके अनुभव में रहती है। पर जो यही अनिश्चित भावना रखकर संकुचित होते हैं कि कोई बात 'लोगों को न जाने कैसी लगे' उन्हें न जाने कितनी बातों में संकोच या लज्जा हुआ करती है। उन्हें बात बात में खटका होता है कि उनका बैठना न जाने कैसा मालूम होता हो, बोलना न जाने कैसा मालूम होता हो, हाथ पैर हिलाना न जाने कैसा मालूम होता हो, ताकना न जाने कैसा मालूम होता हो, यहाँ तक कि उनके ऐसे आदमी का होना-वे कैसे हैं चाहे वे कुछ भी न जानते हों-न जाने कैसा मालूम होता हो। न जाने कैसे लगने का डर उन्हें लोगों के लगाव से दूर दूर रखता है। यह आशंका इतनी अव्यक्त होती है, लज्जा और इसके बीच का अंतर इतना क्षणिक होता है कि साधारणत: इसका लज्जा से अलग अनुभव नहीं होता।
कुछ लोगों के मुँह से लज्जा या संकोच के मारे आदर सत्कार के आवश्यक वचन नहीं निकलते, बहुत से लड़कों को प्रणाम करने में लज्जा मालूम होती है, ऐसी लज्जा किसी काम की नहीं समझी जाती। बच्चों को अपनी तुच्छता, बुराई या बेढंगेपन की भावना बहुत कम होती है। वे अपनी क्रियाओं में स्वभावत: स्वच्छंद होते हैं। पर विशेष स्थिति में पड़कर वे इतने भीरु और लज्जालु हो जाते हैं कि नए आदमियों के सामने नहीं आते, लाख पूछने पर कोई बात मुँह से नहीं निकालते। ऐसी दशा अधिकतर उन बच्चों की हो जाती है जो बात बात पर, उठते बैठते, हिलते डोलते, डाँटे, धिक्कारे या चिढ़ाए जाते हैं। लोग अकसर प्यार से बच्चों को किसी भद्दे, बेढंगे या बुरे आदमी का ध्याढ़न कराकर उन्हें चिढ़ाते हैं कि 'तुम वही हो'। इस प्रकार उन्हें सहमने, संकोच करने, लज्जित होने आदि का अभ्यास कराया जाता है जो बढ़ते बढ़ते बहुत बढ़ जाता है।
अपनी त्रुटि, बेढंगेपन, धृष्टचता इत्यादि का परिचय दूसरों को-विशेषत: पुरुषों को न मिले इसका ध्यागन स्त्रियों में बहुत अधिक और स्वाभाविक होता है, इसी से उनमें लज्जा अधिक देखी जाती है। वे सदा से पुरुषों के आश्रय में रहती हैं, इससे हम धृष्ट या अप्रिय न लगें, इसकी आशंका उनमें चिरस्थायिनी होकर लज्जा के रूप में हो गई है। बहुत सी स्त्रियाँ ऐसी होती हैं-विशेषत: बड़े घरों की-जिनके काम धांधो के रूप में भी लोगों के सामने हाथ पैर हिलाने की धड़क नहीं खुली रहती, अत: उनका अधिक लज्जाशील होना ठीक ही है। लोग लज्जा को स्त्रियों का भूषण कह कहकर उनमें धृष्टाता के दूषण से बचने का ध्या न और भी पक्का करते रहे। धीरे धीरे उनके रूप रंग के समन उनकी लज्जा भी पुरुषों के आनंद और विलास की एक सामग्री हुई। रस कोविद लोग मुग्धा और मधया की लज्जा का वर्णन कान में डालकर रसिकों को आनंद से उन्मत्ता करने लगे।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, दिसंबर 1918 ई.)
(चिन्तामणि)