लघु-कथाएँ : शकुंतला अग्रवाल शकुन
Hindi Laghu-Kathayen : Shakuntala Agrwal Shakun
बारिश की बूँद (लघु-कथा) : शकुंतला अग्रवाल शकुन
निशा,अपने पति की गलत आदतों से, बहुत परेशान है, लेकिन किसी से जिक्र तक नहीं करती। अपने माता-पिता को भी हवा नहीं लगने दी।
पर किसी से उनको पता लग गया तो.....।
आकर, निशा से पूछने लगे,"सब ठीक, है बेटा?"
"हाँ, पापा!"
"अरे! पगली,अपने पापा से ही, झूठ बोलने लगी। तेरे श्वसुर जी ने सब कुछ बतला दिया है। मैं, दामाद जी से, बात करता हूँ।"
"पापा!आप, उनसे कोई बात नहीं करोगे।"
"क्यों?"
"जो अपने पिता की बात ही नहीं मान रहे, तो आपकी क्या मानेंगे?
"तो! तू मेरे साथ चल, बेटा,तलाक दिलवा कर दूसरी शादी कर दूँगा।"
"नहीं, मुझे तलाक नहीं लेना।"
"जमाना बदल गया है, बहुत सी लड़कियों का जीवन, तलाक के बाद सुधर गया है।"
"पतझड़ के बाद बसंत आता है, यह प्रकृति का दस्तूर है। पापा! मेरे जीवन में भी बसंत अवश्य आएगा, और न भी आये, तो न सही, मुझको तलाक नहीं लेना।"
"बेटे!एक बार फिर सोच लो।"
"अच्छी तरह सोच लिया, पापा! मैं तो बारिश की वो बूँद हूँ, जो जहाँ गिरी, वहीं की होकर रह गयी।"
चोरी (लघु-कथा) : शकुंतला अग्रवाल शकुन
सुकेश शादी के कुछ महिनों बाद ही, घर पर देर से आने लगा, अंजलि कुछ भी पूछती तो, काटने को दौड़ता।
सुकेश बाथरूम जाते समय भी अपना मोबाइल साथ लेकर जाता हैं, पर आज भूल गया। अचानक किसी का फ़ोन आता है...,।
"हैलो-हैलो"
सामने से जवाब नहीं पाकर, अंजलि फ़ोन काट देती है।
फिर फोन बजता है।
"हैलो - हैलो"
कोई नहीं बोलता तो, अंजलि के दिमाग में, शक का कीड़ा कुलबुलाने लगता है। वो वाट्स एप खोलकर देखती है, चैट पढ़कर, दंग रह जाती है।
सुकेश का, एक लड़की के साथ चक्कर चल रहा है, यह देखकर उर्वशी सोच रही होती है इतना बड़ा धोखा।
तभी सुकेश आ जाता है।
"क्या देख रही हो मोबाईल में? मेरे मोबाइल को, तुमने हाथ क्यों लगाया?" सुकेश चिल्लाया।
"चिल्लाओ मत, हाथ लगाने से, चोरी पकड़ में आ जाएगी, यही डर है न?"
"कौन सी चोरी?"
"मैने कोई चोरी नहीं की, तो डरूँगा क्यों"?
"जिसके साथ चक्कर चला रखा है, ये लड़की कौन है?"
"कौन सी लड़की?"
"सच बोल रहे हो या नहीं।" अंजलि दहाड़ते हुए।
चिल्लाने की आवाज सुनकर सासू माँ आ गयी।
"क्या हुआ, सुकेश"?
"ये क्या बताएंगे? मैं, बताती हूँ, बाहर गुलछर्रे उड़ाते फिरते हैं, इसलिए घर आने में देर हो जाती है।"
"बहू! बेकार में क्यों परेशान होती हो? पुरुष कहीं भी जाए, दुम हिलाता हुआ आएगा तो बीवी के पास ही।"
"मुझे कुत्ता नहीं , इन्सान चाहिए।" कहकर अंजलि सूटकेश में कपड़े जमाने लगी।
आईना (लघु-कथा) : शकुंतला अग्रवाल शकुन
राजेश ने जैसे ही घर में कदम रखा, शालिनी ने शिकायतों का पुलिंदा खोल दिया......
"सुनो जी!"
"बोलो! सुन रहा हूँ"।
"केवल सुनते ही हो? करते-धरते तो कुछ हो नहीं।"
"क्या करना है बोलो?"
"मम्मी जी को थोड़े दिन मायके भेज दीजिए, मैं तो इनसे परेशान हो गयी, कुछ दिन चैन से तो जीऊँगी।"
"क्यों! अब ऐसा क्या हो गया?, जो तुम मम्मी को घर से ही निकाले पर तुल गयी।"
"नाक में दम कर रखा है, कभी कहती है, ये मत करो।कभी वो मत करो। ये मत खाओ, वो मत खाओ। अठाहरवीं सदी की बुढ़िया!"
"बस करो, अपनी हद में रहो। कुछ बोलने से पहले तनिक स्वयं को भी आईने में देख लो, इक्कीसवीं सदी.....।"
मूली (लघु-कथा) : शकुंतला अग्रवाल शकुन
"भैया वो वाली, साड़ी दिखाना?"
"कौन सी? ये?
"ये नही? वो"
बीच में कोई बोला..... "आवाज जानी पहचानी लगी तो मालिनी ने पलट कर देखा!"
दीपक को देख भौंचक्की रह गयी!
"तुम?"
"हाँ मै!कोई शक है क्या?"
"नही-नही वो इतने बरसों बाद अचानक?
"देखा ,तो एकदम यक़ीन नहीं हो पाया।"
"हाँ वो तो है,,,।"
"तुम्हे एतराज नही हो तो,एक कप कॉफी साथ पी ली जाये।"
"ओके!"
दूकान वाले का हिसाब करके दोनों कॉफी -हाउस पहुँच गए।
कॉफी का आर्डर दे दिया गया
दोनों के बीच पसरे सन्नाटे को तोड़ते हुए दीपक बोला....."एक बात पूँछू? बुरा न मानो तो"
"हाँ! पूँछो।"
"तुम बिना कुछ कहे -सुने ही,,,?
दीपक के आशय को समझते हुए मालिनी बोली-
"मम्मी-पापा को दुखी करके मुझे खुशियाँ नही बटोरनी थी। कहने सुनने के लिए कुछ था ही क्या?"
"छोडो इन बातों को । यह बताओ कैसी चल रही है, तुम्हारी जिंदगी?"
"अच्छी चल रही है।"
"तुम सुनाओ ,तुम्हारी कैसी चल रही है?"
"एक फक्कड़ की जैसी चलती है, वैसी चल रही है।"
"क्या?"
"सही कह रहा हूँ, मैं तुम्हारे जिस्म से दूर हूँ,, मगर आत्मा से नही।फिर किसी ओर से शादी का औचित्य ही कहाँ?"
"आज के दौर में कौन इतना सोचता है? पल में रिश्ते बदलते है। कौन किससे बंध कर रहता है? सबको अपने -अपने सुख की पड़ी है, तू नही तो कोई और सही, का जमाना है। और तुम हो की....।"
"मालिनी ! वो रिश्ते जिस्म के होते है, आत्मा के नही।"
"सही कह रहे हो दीपक!मै भी तो बोझ ही ढो रही हूँ", मन ही मन बुदबुदाई, मालिनी....
फिर अचानक आत्मविश्वास से बोली,
"चलती हूँ दीपक! अब अपना मिलना नहीं होगा?, एक दफा टूटकर बड़ी मुश्किल से जुडी हूँ, अब टूटी तो बिखर जाऊँगी।
दुनिया ने सीता जी को भी नही बख्शा? मैं! किस खेत की मूली हूँ?"
सच्ची निष्ठा (लघु-कथा) : शकुंतला अग्रवाल शकुन
"क्या हुआ पूजा?"
"कुछ नहीं"!
"कुछ तो है? सुस्त लग रही हो,थकी-थकी सी"।मयंक ने चिंता जतायी।
"हाँ !काम की थकान तो हो ही जाती है, आप तो जानते ही हो। घर और नौकरी की दोहरी जिम्मेदारी है सिर पर। ऊपर से इनकी भी। इसी चक्कर में पूरा ध्यान भी कहाँ रख पाती हूँ?" पूजा थके हुए से स्वर मे बोली।
"जानता हूँ! एक्सीडेंट में राकेश का पाँव कटने से, तुम्हारा काम बहुत बढ़ गया है। बस कोल्हू के बैल तरह पिली रहती हो "।
"नहीं मयंक! ऐसा कुछ नही है, यह तो मेरा परिवार और मेरी जिम्मेदारी है। माँ,बाबूजी व इनका ध्यान और कौन रखेगा?"
"वो सब मुझे नही पता! मैं तो इतना जानता हूँ,कि अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? कब तक खपोगी? कैसे काटोगी पूरी जिंदगी? मयंक के ठीक होने की संभावनाएं लगभग खत्म सी हैं। अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारा... "
"खबरदार!तुमने ऐसा सोचा भी कभी।कोई और होता तो, मुँह नोंच लेती इसी समय। लेकिन तुमने मेरी बहुत मदद की है, इसलिए मेहरबानी करके यहाँ से तुरंत दफा हो जाओ। फिर कभी अपनी मनहूस सूरत मत दिखाना?" तमतमाती पूजा बोली.....
यह वार्तालाप अचानक बाबूजी ने सुना। वे पत्नी से बोले....
"सुनती हो भाग्यवान! हमारे घर में तो सतयुग की सावित्री आयी है।"
बधाई (लघु-कथा) : शकुंतला अग्रवाल शकुन
पूजा व दीपक एक ही कॉलेज मे पढते है।
दोनों में खूब पटती भी है।आपसी सहमती से, कमरा किराया लेकर साथ ही रहते भी है।
धीरे-धीरे दोनों,हर बात और हर काम साझा करने लगे,जिससे रिश्ते में प्रगाढ़ता गहरी होती गयी।
आज सवेरे उठते ही दीपक ने घोषणा कर डाली..."पूजा!आजतो तुम्हारा जन्मदिन है।"
"हाँ,तो?"
अनायास ही दीपक पूजा के अधरों को चूमकर...
"जन्मदिन की बधाई हो, पूजा"
"ये, क्या कर रहे हो?" दीपक को परे धकेलते हुए पूजा चिल्लाई, "डोंट टच मी।"
"अरे!यार बुरा मान गयी,मैने,ऐसा भी क्या कर दिया?,दोस्ती में इतना तो चलता है,अठारवीं सदी नहीं,ये इक्कीसवीं सदी है।"
"अठारवीं हो या इक्कीसवीं, ये सब तुम्हारे चलता होगा,मेरे नहीं," बोलकर, पूजा गर्ल्स हॉस्टल में कमरे के लिए, फोन करने लगी।
नाली का कीड़ा (लघु-कथा) : शकुंतला अग्रवाल शकुन
कलावती कुछ घरों में पौंछा-बर्तन करके, अपने परिवार का पेट पालती है। क्या करे?
ख़सम तो कुछ कमाता-धमाता है नहीं, ऊपर से पीकर, मारपीट करता है। वो अलग से.....।
आज तो हद ही हो गई!
छगनु ने जब कलावती से पैसे माँगे तो, कलावती ने मना कर दिया।
"तेरी दारू के लिए मेरे पास कुछ नहीं है।"
यह सुनते ही छगनु कलावती की ठुकाई करने लगा।
"तू कितना भी मार ले? मैं पैसे नहीं दूँगी। कल बन्नो की स्कूल की फीस भरनी है"। कलावती दृढ़ निश्चय से बोली।
"ऐसे नहीं मानेगी मालजादी!"?
एक और धौल मारते हुए छगनु बड़बड़ाने लगा।
"क्या? बोला रे तू।" एक कड़कती हुई आवाज जब कान के पर्दे फाड़ती हुई अंदर घुसी तो.....
"कुछ नहीं माई"।
"कुछ तो है?"
"यह पैसे नहीं दे रही तो।".....
"तो क्या? तू इसे मालजादी बोलेगा? औलाद पैदा तो कर ली, इसको पढ़ाएगा कौन? तेरे बच्चों को यह ही पाल रही है। साथ ही तुझे और तेरी माँ को भी।
खबरदार! जो आज के बाद बहू को ऐसे शब्द बोला तो।
तेरा दोष नहीं है। नाली का कीड़ा, नाली की ही सोचेगा"।