लघु-कथाएँ : प्रकाश मनु
Laghu-Kathayen : Prakash Manu
संस्कृति
छुट्टी का दिन। गरमियाँ...और तंग कमरे की भभक। ‘घर से दूर इस कंकरीट के शहर में छुट्टी का दिन काटना किसी जेलखाने से कम तो नहीं। पर नौकरी जो न कराए सो कम। साली जिंदगी भी क्या चीज है...!’ बुदबुदाए सत्येन बाबू।
अलबत्ता किसी तरह अँधेरी सुरंग टाइप इस कमरे में गरमियों की दोपहर काटने के बाद, उन्हें शाम के वक्त कहीं बाहर घूमने की इच्छा हुई। ताकि थोड़ा थोड़ा बाहर की जिंदगी भी देख लें।
लेकिन इस अपरिचित शहर में वे जाएँ तो जाएँ कहाँ? यहाँ तो बस मकानों पर मकान हैं। दफ्तर हैं, बसों की कान फोड़ने वाली आवाजें और धुआँ है। आसपास कोई पार्क भी नजर नहीं आ रहा। फिर भी सड़क पर जिधर भी उनका मन आता, मस्ती में टहल रहे थे। एक सड़क से दूसरी सड़क। दूसरी से तीसरी। तीसरी से चौथी। बेमतलब। बेमजा।
“वाह जी वाह, एक फुकरे की ऐश...!” उन्होंने अपने आप से कहा और अकेले में हँसने की कोशिश की, मगर होंठ सिकुड़े ही रहे। माथा भी।
तभी राह चलते हुए पान की दुकान देखकर उनके पाँव अचानक ठिठक गए, “चलो, एक ठो पान ही खा लिया जाए, सत्येन बाबू। कहिए, क्या खयाल है आपका?” उन्होंने खुद को बड़े आदर से संबोधित किया और खरामाँ-खरामाँ पान वाली दुकान की ओर बढ़ गए।
“एक सादा पान और दो ठो पनामा सिगरेट।” एक ही साँस में बोलने के बाद उनकी निगाहें दुकान का नजारा लेने को उत्सुक हो उठीं।
सामने टँगे रंग-बिरंगे पोस्टरों में अलग-अलग पोज और बाँकी अदाओं में मौजूद माधुरी दीक्षित, सलमान, शाहरुख और करिश्मा कपूर...! एक से एक नजारे। देखकर वे चौंक गए। आहा, क्या ठसका है, क्या बाँकपन। जैसे आँखों-आँखों में बहती देशी शराब!
ठीक ऐसे ही फोटो उनके शहर में मुरली पान की दुकान पर भी थे, जहाँ वे रोज बिला नागा पान खाया करते थे। बिल्कुल यही पोज, यही रंग, अंदाज...!
“अरे, कौन कहता है यार, कि मैं किसी नई जगह पर आ गया हूँ। आखिर तो भारत एक है!” उन्होंने खुद को समझाया, “देख लो ये तस्वीरें...! हमारी एक ही सभ्यता, एक ही सस्कृति की प्रतीक। गोरखपुर हो, दिल्ली या कलकत्ता, वही लीक अलबत्ता....हा-हा-हा।”
कहकर सत्येन बाबू ठठाकर हँसे और इस हल्की सी तुकबंदी के साथ ही वे निश्चंतता से पान चबाते हुए आगे बढ़ गए।
संदर्भ
वे बीस थे और खूब खाए-पिए, घाघ, टेरिकाट-पोलिएस्टर सभ्यता के चमकदार प्रतिनिधि। वह अकेला, दुबला-पतला, सींकिया—मैले कपड़ों में। वे कई साल से डटे थे, वेतन से ज्यादा रिश्वत के कौर पर कौर तोड़े जा रहे थे। वह कई भूखे साल गुजारने के बाद, कई बेचैन अर्जियों की नाकामयाबी से होते हुए मर-खप के कुछ महीनों का काम पा सका था उस दफ्तर में। सो भी पार्ट-टाइम।
वह आया तो चूँकि बेमेल-सा था, इसलिए वे हँसे। वह चुप रहा। न घबराया, न डरा, न गुस्सा हुआ और इधर-उधर सतर्क निगाहों से देखने-परखने लगा।
वे हँसते रहे लगातार। वह उस हँसी को भीतर तक परखता, बीड़ियाँ फूँकता और ईमानदारी से अपना काम करता रहा।
कोई हफ्ता भर यह चला।...फिर वे सहमे। डरे। चौंके, कि “यह कोई अफलातून है क्या?”
उनमें से कुछ ने कहा, “हमारे साथ आओ, हम देंगे तुम्हें स्तर।”
दूसरी तरफ भी थे कुछ घाघ, कुछ महाघाघ। बत्तीसी फाड़े। वे उसका हाथ पकड़कर अपनी तरफ ले गए, “हम तुम्हें असलियत बताएँगे और ठाटदार बातें करेंगे।”
वह न इधर गया, न उधर। जो भी दोनों-तीनों तरफ से लोग बोले, गौर से सुना। उसमें से कुछ पास रखा, ज्यादातर एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया और चुप संलाप करता रहा बीड़ियों और माथे की ऊबड़-खाबड़ बेचैन लकीरों से।
“यहाँ बहुत लड्डू हैं, हम तुम्हें फोड़ना सिखाएँगे। तुम आखिर इतने बेचैन क्यों हो?” एसोसिएशन के प्रेजीडेंट चित्रगुप्त ने महँगी विदेशी सिगरेट के छल्ले उड़ाते हुए, यारबाश लहजे में कहा। सेक्रेटरी ने हा-हा की। हू-हू किया। उसने उन्हें घूरा नफरत की नजर से, और चुपचाप अपनी फाइल में जुट गया।
अब वे सब एक हो गए फिर से। और वह अकेला और चुप—वैसा ही।
“बड़े बनते हैं लाट साब, तो चले आए क्यों यहाँ? बने रहें ऐम्मे...ऐम्मेसी, पी.एच-डी.। कौन पूछता है? आदमी जाना तो अपने काम से जाता है।” उसके पीछे अकसर ऐसी बातें होतीं। उसे कई दफे सुनाई दे जाता यह। सुनाकर कही जाती भी थी बात, पर वह बीड़ी के धुएँ के साथ निकाल देता। निर्लिप्त।
फिर उसका कार्यकाल खत्म हुआ और वह जाने लगा।
“भई, जाते-जाते भी तुम अपना रहस्य खोलोगे कि नहीं?” आखिर एक ने सीधी-सादी भाषा में पूछा।
“कोई रहस्य नहीं।” वह पहली दफे मुसकराया, “मेरे लिए तुम और तुम्हारे लिए मैं सही संदर्भ नहीं हैं। बस, इतनी-सी बात है।”
“क्या मतलब...?”
“मतलब यह...कि तुम लोग मेरे लिए उपन्यास में चित्रित पात्र जैसे हो, सो उतना ही नाता है तुमसे।” वह गंभीर हुआ एक क्षण, फिर मुसकराया, “मैं तुम लोगों पर कहानी लिखूँगा कोई, और भेजूँगा।”
फिर वह उन खाए-पिए, घाघ लोगों पर एक संपूर्ण दृष्टि डालकर, और उसके बाद अपनी मैली, सफेद कमीज और बेतरह घिसी हुई सलेटी पेंट को देखता हुआ, धीरे-धीरे सामने की तपती काली सड़क की ओर बढ़ गया।
जाने से पहले उसने जल्दी-जल्दी बीड़ी के तीन-चार कश लिए थे और उसे वहीं फेंककर चला गया था। जलता हुआ वह बीड़ी का टुकड़ा उन सबके चेहरों पर प्रश्नवाचक चिह्न बनकर दहकने लगा था।