लघुकथाएँ (21-40) : महेश केशरी

Hindi Laghu-Kathayen (21-40) : Mahesh Keshri

दर्प : (लघुकथा) : महेश केशरी

"सुनो , जी जब मैं काम पर जाती हूँ l तो लोग तरह - तरह की बातें करतें हैं l"

"कैसी बातें ?"

"लोग कहते हैं , कि जब पति के कमाने से पेट नहीं भरा तो अब ये कमाने निकली है l और भी तरह - तरह की बातें करतें हैं l"

"उनको कहने दो l तुम्हें तो पता है मीरा कि अब एक आदमी के कमाने से घर नहीं चलता है l नहीं तो मैं तुम्हें जॉब करने के लिये कभी नहीं कहता l बच्चों की पढ़ाई , घर की ई. एम. आई . , बिजली का बिल l महीने के बीस हजार रूपये भी अब कम पड़ने लगे हैं l अब अकेले के मेरे बस की बात नहीं है कि मैं घर को चला सकूँ l"

"मैनें आपको ये कब कहा कि आप अकेले ही घर चलायें l आपको , याद नहीं है l जब हमारी शादी हो रही थी l तो उस समय हमने एक दूसरे को ये वचन दिया था , कि चाहे दु:ख हो या सुख l हर हाल में हम एक दूसरे के साथ रहेंगे l आज मुझे वो वचन निभाना है l इसलिये अब मैं , आपके हर फैसले में आपके साथ खड़ी रहूँगी l और हमेशा आपका साथ दूँगी l मुझे परवाह नहीं है कि जमाना क्या कहता है !"

मीरा के चेहरे पर की दो मिनट पहले वाली वो मायूसी अचानक खत्म हो चुकी थी l उसका चेहरा दर्प से चमक रहा था l

मीरा ने बैग सँभाला और बाहर , दफ्तर के लिये निकल पड़ी l

भरोसा : (लघुकथा) : महेश केशरी

जबसे बाबूजी का देहांत हो गया था l तो गोपी अपने आपको बहुत अकेला महसूस करने लगा था l बाबूजी यधपि बूढ़े हो चले थें l लेकिन उनके होने से गोपी को बहुत संबल मिलता था l काऊँटर पर वो दो- चार घँटे बैठ ही जाते थें l तो गोपी बाहर-भीतर के काम देख आता था l अब तो बाबूजी भी नहीं रहे l उसे रक्षा बंधन की खरीददारी करने के लिये लगभग सप्ताह भर के लिये बाहर जाना था l लेकिन , किस पर वो , पूरी दुकान छोड़कर जाये , गोपी इसी कशमकश में पड़ा हुआ था l कभी-कभी उसका मन करता था , कि वो अपने बेटे ऋषभ से दुकान पर बैठने को कहे l लेकिन , फिर , ऋषभ की पढ़ाई के बारे में सोचते तो उसका दिल बैठ जाता l ऋषभ ने अभी-अभी दसवीं की परीक्षा पास की थी l उसको दुकान पर भला कैसे बैठने को कहे ? उसको अपने पढ़ाई और कैरियर की बहुत चिंता थी l खूब मन लगाकर पढ़ रहा था ऋषभ l ऊपर से परीक्षाओं का दबाव था l अभी चौदह का ही है , बेचारा ऋषभ l अभी से ऋषभ पर वो घर-गृहस्थी का बोझ नहीं डालना चाहता था ?

शालिनी अभी ग्रेजुएशन कर रही है l उसको भी वो भला क्या कह सकता था ?

श्वेता बाजार से लौटी तो देखा , गोपी अभी दुकान नहीं गये हैं l श्वेता फल और सब्जियों को फ्रिज में रखते हुए बोली - "अरे , तुम्हें तो आज दिल्ली के लिये टिकट निकलवाने स्टेशन जाना था , ना l तुम अभी तक घर पर ही बैठे हो l जाओ जाकर टिकट निकलवा लो l"

"लेकिन , दुकान बँद करके मैं दिल्ली कैसे चला जाऊँ l रक्षाबंधन की दुकानदारी है l मार्केट में दस दिन पहले से ही भीड़ पकड़ने लगती है l अब तो बाबूजी भी नहीं हैं l वो होते तो मै़ बेफिक्र होकर कहीं भी आ जा सकता था l"

पिता के अवसान पर गोपी की आँखें भर आईं थीं l

"मैं हूँ ना l साथ में दुकान के स्टाफ भी हैं l मुझे तो केवल काऊँटर पर बाबूजी की तरह बैठकर बिल बनाना है l और पैसे काटना है l तुम बिल्कुल निश्चिंत होकर बाहर जाओ l और अच्छे से खरीददारी करो l वैसे भी अभी बारिश का मौसम है l मार्केट डाऊन रहता है l मैं , आसानी से दुकान संँभाल लूँगी l अब बाबूजी नहीं हैं तो क्या हुआ ? उनका आशीर्वाद तो हमारे साथ ही है l"

गोपी , श्वेता की बुद्धिमानी और चतुराई की मन - ही -मन दाद दे रहा था l गोपी , सोच रहा था कि भला ये बात श्वेता से पहले उसे क्यों ना सूझी ? लेकिन ; वो डर भी रहा था l कि एक तो औरत जात l और उस पर इतनी बड़ी दुकान की जिम्मेदारी भला वो कैसे छोड़ सकता है ? कहीं कोई ऊँच नीच सो गई तो l एक तो महिला है l दुकान में तरह- तरह के मूडी लोग आते हैं l कहीं कोई झर - झमेला हुआ तो कैसे सँभालेगी वो भला अकेले ? वो मन ही मन टिकट निकलवाने गया l टिकट निकलवाकर वो घर लौट आया था l

करीब चार दिनों के बाद उसे दिल्ली निकलना था l लेकिन उसका किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था l खाते - पीते उसे दुकान की ही चिंता लगी रहती थी l उसके दिल में कई बार ये ख्याल भी आया कि वो टिकट कैंसिल करवा दे l आखिर , वो श्वेता को अकेले छोड़कर दिल्ली कैसे जा सकता है ?लेकिन , ये चार दिन ऐसे ही पशोपेश में बीत गये थें l

और , वो तय समय भी आ गया l जिस दिन गोपी को दुकान की खरीददारी के लिये बाहर जाना था l भारी मन से वो दिल्ली दुकान की खरीददारी करने के लिए निकला l सप्ताह भर का समय खरीददारी करते - करते यूँ ही निकल गया l माल खरीदकर वो , दोपहर के बाद किसी समय दुकान पर पहुँचा l तो देखा दुकान में बहुत भीड़ है l लेकिन श्वेता और शालिनी दोनों ने दुकान बहुत अच्छे से सँभाल रखा था l बाद में जब भीड़ कुछ कम हुई तो श्वेता ने पूछा -"हो गई खरीददारी तुम्हारी ?"

"हाँ .. "गोपी मुस्कुराते हुए , कुछ झेंपता सा बोला l

शालिनी पापा को देखते ही चहकते हुए बोली -"पापा आप आ गये l अच्छा हुआ आप जल्दी आ गये l मुझे अपने कॉलेज के प्रोजेक्ट का काम भी करना है l लेकिन ,आपकी गैर मौजूदगी में मैनें और मम्मी ने अच्छे से दुकान को सँभाले रखा था l हमने लगभग सभी ग्राहकों को आपकी गैरमौजूदगी में सामान अच्छे से बेचे l और आशीष भईया और सेवक चाचा ने हमारी खूब मदद की l"

"हाँ , बेटा , सही कह रही हो l आखिर, परिवार की नींव सहयोग की भावना पर ही रखी जाती है l वैसे भी बड़े बाबू के निधन के बाद अब दुकान तो आप लोगों को ही सँभालनी है l वैसे भी श्वेता और गोपी मेरे बच्चों की तरह हैं l और तुम मेरी पोती की तरह l पति - पत्नी तो एक ही गाड़ी के दो पहिये की तरह होते हैं , बेटा l एक के बिना गृहस्थी की गाड़ी नहीं चल सकती l "सेवक चाचा जो गोपी की दुकान के सबसे पुराने मुलाजिम थें l ये बातें गोपी बाबू और श्वेता को समझा रहे थें l

गोपी को अब ये विश्वास हो चला था कि , श्वेता के ऊपर भी वो दुकान छोड़कर कहीं भी आ जा सकता था l वो आज मन - ही - मन बहुत खुश था !

लत्तरों की हरियाली : (लघुकथा) : महेश केशरी

दुर्गा की शादी बहुत पहले हो गई थी l इस कारण बच्चे भी जल्दी हो गये थें l बच्चों की शादी भी बहुत जल्दी हो गई l इसलिये उनके भी बच्चे बहुत जल्दी हो गये l इसलिये दुर्गा पैंसठ साल की उम्र में ही नाती-पोतों और पड़पोतों वाली हो गई थी l विशाल वटवृक्ष की तरह l जिसकी लत्तरें इस छोर से लेकर उस छोर तक फैली हुई थीं l इधर कुछ दिनों से वो रोज मँदिर चली जाती थी l

एक दिन रामपरीखा ने मजाक में पूछ लिया - "चाची , आज कल रोज - रोज मँदिर जा रही हो l कोई खास बात है क्या ?"

"अरे , नहीं रे l क्या खास बात होगी भला इस उम्र में ? मेरे छुटकू नाती की परीक्षा चल रही है l और मेरी पोती इधर बीमार चल रही है l उनके लिये ही रोज मँदिर चली जाती हूँ l कभी - किसी दूर के रिश्तेदार की सलामती के लिये उपवास कर लेती हूँ l अब भगवान से इस उम्र में भला अपने लिये क्या माँगूगी ? दर असल मैं एक बूढ़ी पेंड़ की तरह हूँ l अपनी लतरों की हरियाली से ही खुश हो जाती हूँ l"

दुर्गा देवी लाठी टेकती हुई मँदिर की सीढ़ियाँ चढने लगी थीं l

रामपरीखा औरत का आज एक अनोखा रूप देख रहा था !

भेंड़िये : (लघुकथा) : महेश केशरी

संभव रात से ही उस खबर को लेकर बहुत उधेड़बुन में था l जो उसने टी. वी. पर कल रात देखी थी l एक छ: महीने की बच्ची को रेप करके उसको चाकूओं से गोद-गोद कर मार दिया गया था l एक सप्ताह बाद उस बच्ची की लाश पॉलीथीन में बँद एक नदी के किनारे से एक बियाबान जँगल में मिली थी l

"चलो हम लेट हो रहे हैं l शाम तक हम लौट आयेंगें l डॉक्टर के यहाँ आज मेरी अप्वॉइंटमेट है l तुम्हें तो पता है l डॉक्टर साहब के यहाँ अप्वॉइंटमेंट , मिलना ही कितना मुश्किल है l महीने में केवल एक दिन ही बैठते हैं l"

सरिता ने पाँव में सैंडल डालते हुए कहा l

"लेकिन ऋद्धि को हम किसके पास छोड़कर जायेंगें ? अगर रात हो ग ई तो वो कहाँ रूकेगी ? "संभव ने पूछा l

"अरे .. तब तक उसके मामा मुकुल तो लौट ही आयेंगें l"

"और अगर , अगर मुकुल नहीं लौटा तो l"

संभव के दिल में संशय कुछ और गहराया l ऋद्धि घर में अकेली l फिर मुकुल भी अकेला .... l छ: महीने की वो लड़की थी.. l कल जिसकी लाश पॉलीथीन में मिली थी l छ: साल की ऋद्धि ... l कहीं...मुकुल ने. अगर ...l नहीं..नहीं..मुकुल ऐसा नहीं करेगा l ...लेकिन..कहीं ...!

"नहीं ...तुम अकेली चली जाओ ... डॉक्टर के पास l"

"मुझे कार चलाना नहीं आता l अगर मुकुल नहीं आया तो हमारे पड़ौसी मिस्टर वर्मा जी के यहाँ ऋद्धि रूक जायेगी l जब मिस्टर वर्मा की बेटी कृतिका मिस्टर वर्मा के नहीं रहने पर हमारे घर में रूकती है l तो ऋद्धि भी तो उनके यहाँ रूक ही सकती है l मैनें मिस्टर वर्मा, और मिसेज वर्मा से बात कर रखी है l फिर , मिस्टर दलाल , मिस्टर सिन्हा भी तो हमारे पड़ौस में ही तो हैं l किसी के यहाँ रूक जायेगी , ऋद्धि l सब अपने लोग ही तो हैं l फिर , हम लोग तीन चार घँटे में तो लौट ही आयेंगे l "सविता , ने संभव को जैसे आश्वस्त करना चाहा l

लेकिन, संभव के चेहरे पर असंतुष्टि के भाव पहले की तरह ही तैर रहें थें l

सविता ने फिर से संभव को जैसे आश्वस्त करना चाहा - "और अगर... ऋद्धि के एग्जाम ना होते , तो उसे स्कूल ही नहीं जाने देती , आज l अपने साथ डॉक्टर के पास लेकर चली जाती l"

नहीं .. तुम अकेली चली जाओ ...l ऐसा कहकर संभव को अफसोस होने लगा था l किसके भरोसे वो सविता को बाहर भेज दे ? छ: महीने की बच्चियों से लेकर साठ - सत्तर साल की महिलाओं को भी तो रेप किया जा रहा है l

बाहर भी तो , आदमी की शक्ल में भेड़िये ही बैठे हैं l उनका वो क्या करेगा ? अगर सविता को उन भेड़ियों ने नोंच लिया तो ? इसकी कल्पना से ही संभव सिहर गया l सविता की टुकड़ों में कटी लाश उसे भी शहर के किसी बियाबान में प्लास्टिक में भरी मिलेगी l वो भी सड़ जाने के बाद l जब दुर्गंध बहुत दूर - दूर तक फैल जायेगी !

आज कल डॉक्टरों का भी कोई भरोसा नहीं है l भेडियों के कितने प्रकार वो गिनवाये , वॉचमैन , ड्राईवर , शोफर , क्लीनर, माली , दुकानदार, शराबी , पुलिस वाले , नौकरशाह , नेता l

सब के सब भेंड़िये ही तो हैं !

वायरल : (लघुकथा) : महेश केशरी

नव्या एक घरेलू महिला थी l वो ज्यादा तर अपना वक्त घरेलू काम काज में बीताती थी l इस कारण उसकी सास मंजरी उसे बहुत मानती थी l और घर परिवार के लोग उसकी तारीफ करते नहीं थकते थें l लेकिन, इधर उसे रील बनाने का चस्का लग गया था l जब से उसे बटन वाले फोन की जगह एंड्रॉयड फोन मिला था l वो दिन भर अपने फोन में ही घुसी रहती थी l और रील बनाती रहती थी l उसकी एक दोस्त थी , नरगिस l जब वो रील बनाती तो उसको ढ़ेरों लाइक्स और कमेंट मिलते l जबकि, नव्या को नरगिस की बनिस्बत कम लाइक्स और कमेंट मिलते थें l इससे नव्या के अंदर हीन भावना या कुँठा ने घर कर लिया था l नरगिस जब भी कोई गाने पर डाँस करती और ढ़ेरों लाइक्स और कमेंटस आते नव्या जल-भूनकर रह जाती l एक बार नव्या ने सस्ती लोकप्रियता पाने के लिये एक कम कपड़ों में रील बनाई तो , वो रातों रात वायरल हो गई l धीरे -धीरे नव्या की हिम्मत बढ़ती गई l और वो रील पर रील बनाती चली गई l धीरे - धीरे वो वायरल होती चली गई l अब उसका घर के किसी काम - काज में बिल्कुल भी मन नहीं लगता था l एक दिन उसकी रील पर किसी ने बहुत भद्दा कमेंट किया था l चूँकि , नव्या एक घरेलू महिला थी और उसे इस तरह के भद्दे कमेंट की बिल्कल भी अपेक्षा नहीं थी l वो जब -जब उस कमेंट को पढ़ती तो रोने लगती l उस रात उसने अपने पति देवेंद्र को जब ये घटना बताई तो उसके पति देवेंद्र ने पहले तो उसे बहुत बुरी तरह से डपटा l लेकिन, जब उन्होंने नव्या की आँखों मे़ आँसू देखें तो देवेंद्र को नव्या पर दया आ गई l उन्होंने नव्या को समझाया कि देखो नरगिस और कॉलोनी की और महिलाओं की देखा देखी भूलकर भी मत करो l अच्छे घरों की महिलायें ऐसी भद्दी और घटिया रील्स नहीं बनातीं l सूचना क्राँति का इस्तेमाल हमें समाज की भलाई के लिए करना चाहिए l ना , कि भद्दे रील्स बनाने के लिये l ना तुम भद्दे रील्स बनाती ना ही तुम्हें लोग भद्दे कमेंट करते l ना ही तुम आज दु:खी होती l पति की बातें सुनकर नव्या की आँखें खुल गईं थीं l

दूसरा घर : (लघुकथा) : महेश केशरी

घनश्याम ने अपनी कार वृद्धा-आश्रम के गेट पर एक छायादार पेंड़ के नीचे लाकर रोक दी l वो हर महीने एक बार वृद्धा-आश्रम से अपनी माँ को घर लेकर जाता है l और अगले दिन वापस वृद्धा-आश्रम छोड़ कर चला जाता है l उसका बेटा आरव नहीं मानता l बार - बार कहता है l दादी माँ से मिलना है , दादी माँ से मिलना है l अब बच्चे को रोज- रोज वृद्धा-आश्रम तो नहीं ला सकता ना l आखिर , वो भी तो सबकुछ देख रहा है l आखिर , उसके बालमन पर इसका कितना बुरा प्रभाव पड़ेगा l आरव की नजरों में वो खलनायक से कमकर क्यों लगने लगा होगा ? सब , सुरेखा के कारण हो रहा है l वो , घर में कलह नहीं चाहता है , इसीलिये चुप है l समय आने पर वो सुरेखा को जरूर सबक सिखायेगा l उसका खुद का मन नहीं हैं , कि वो माँ को वृद्धा-आश्रम में रहने दे l लेकिन , अपनी पत्नी के हाथों मजबूर है l घनश्याम के मुँह से एक भद्दी सी गाली निकली l

"दादी वो देखो , गुलगुलिया का बच्चा l "आरव चहकते हुए बोला l

घनश्याम ने कार के शीशे से झाँका l एक गुलगुलिया सी दिखने वाली महिला ने अपने छोटे से बच्चे को एक साड़ी से लपेटकर अपने पेट से बाँधकर लटकाया हुआ था l जहाँ-जहाँ माँ जाती l बच्चा भी साथ - साथ जाता l इस तरह पेट पर साड़ी से बँधा बच्चा माँ की छाती से चिपटा हुआ था l जैसे कँगारू अपने बच्चे को अपनी छाती से चिपटाये रहती है l ठीक उसी तरह का कुछ दृश्य था l मातृत्व का इतना उदात्त रूप घनश्याम ने कभी नहीं देखा था l उसका दिल डोलने लगा था l दिल जार - जार रो रहा था l

गुलगुलिया अपने बच्चे को अपने हाथ से कुछ खिला रही थी l अब तक घनश्याम ने माँ के प्रेम को केवल किस्सों-कहानियों में पढ़ा था l लेकिन, आज माँ के इस निस्वार्थ और उदात्त प्रेम को देखकर घनश्याम का दिल मोम की तरह पिघलने लगा था l आज उसे अपनी जिंदगी बहुत बेकार लगने लगी थी l उसको अपने ऊपर बहुत गुस्सा आ रहा था l उसने अपनी माँ के लिये पत्नी से विरोध क्यों कर नहीं किया ? लानत है उस पर l

"दादी -माँ , दादी - माँ ये गुलगुलिया ने अपने बच्चे को छाती से क्यों चिपटाया हुआ है ? क्या ये अपने बच्चे को इसी तरह हर समय , हर जगह साथ लेकर घूमती रहती है , अपने साथ l"

"हाँ .. बेटा .. ये माँ का प्रेम है l माँ , अपने बच्चे को अपने से कभी दूर नहीं करती l सोते-जागते माँ , जहाँ भी रहती है l अपने बच्चे को हमेशा साथ रखती है l लेकिन , बच्चे जब बहुत बड़े हो जाते हैं l तब अपना फायदा नुकसान देखने लगते हैं l माँ ,पेंड़ की तरह होती है , बेटा l इस दुनिया को केवल देती जाती है , देती जाती है l कभी माँगती नहीं है बेटा l देखो , वो जो कुछ खा रही है l अपने बच्चे को भी खिला रही है l" घनश्याम अपनी माँ से आँखें नहीं मिला पा रहा था l वो फूट-फूटकर रोने लगा था l बिल्कुल बच्चों की तरह l अचानक वो माँ की गोद में गिर पड़ा और बहुत जोर - जोर से रोने लगा l

उसके मुँह से आवाज निकली -"माँ , मुझे माफ कर दो l मुझसे बहुत बड़ी गलती हो ग ई है , माँ l आज से तुम मेरे साथ रहोगी l आज ही मैं , तुम्हारे लिये किराये का एक दूसरा घर लेता हूँ l आरव , मैं और तुम एक साथ रहेंगें l"

प्रेरणास्त्रोत : (लघुकथा) : महेश केशरी

बाबू के लिये व्यापार ही सबकुछ था l बाबू व्यापार में हमेशा फायदे नुकासन और जोड़-तोड़ की सोचता l हमेशा उसकी एक ही चाहत होती कि वो थोड़े और पैसे जोड़ ले l इस तरह बाबू ने सालों मेहनत करके ढ़ेर सारा पैसा कमा लिया था l अब बाबू एक खुशहाल जीवण जी रहा था l तन पर अच्छे कपड़े आ गये थें l देह भी मुटाने लगी थी l लेकिन पैसे कमाने की उसकी सनक कहीं से भी कम नहीं होती थी l वो , जितना रूपया कमाता l उसे लगता और पैसे कमाये l वो पैसे कमाता जाता था l वो धनवान पर धनवान होता जा रहा था l ऐशो - आराम के लगभग सारे संसाधन उसने जुगाड़ लिये थें l लेकिन, उसे लगता कहीं कुछ कमी है l

बाबू मेले में खिलौने बेचता था l एक दिन वो ऐसे ही मेले में खिलौने बेच रहा था , कि एक साधारण सा दिखने वाला आदिवासी युवक अपनी पत्नी और बच्ची को लेकर उसकी दुकान पर आया l ये परिवार दिखने में बेहद ही साधारण सा था l उस आदिवासी की एक बेटी थी l वो बार - बार एक मँहगी गुड़िया अपनी माँ से लेने के लिये कह रही थी l लेकिन , चूँकि वो देहाती आदिवासी युवक काफी गरीब था l जिसकी माली हालत बेहद खराब थी l ऐसा उनके हावभाव और पहनावे को देखकर लग रहा था l लड़की की माँ का मन गुडिया खरीदने का नहीं था l लेकिन जब बच्ची नहीं मानी और जिद करने लगी l तो आखिर कार आदिवासी युवक ने वो कीमती गुड़िया खरीदकर अपनी बेटी को दे दिया l बाबू इस घटना को बड़े ही गौर से देख रहा था l उसने देहाती आदिवासी युवक से पूछा -"बाबू आपने इतनी मँहगी गुड़िया अपनी बेटी को खरीदकर दे दिया l जबकि आपकी पत्नी उसे बार - बार खरीदने को ना कह रही थी l ऐसा क्यों?"

आदिवासी युवक, बाबू की ओर देखकर मुस्कुराते हुए बोला -"भाई जी मैं बहुत काम- धाम और खेती किसानी करने वाला आदमी हूँ l साल भर में बहुत कम दिन ही ऐसा होता है कि मैं अपने परिवार को समय दे पाऊँ l आज मेला देखने आया हूँ l और मेरी बच्ची ने गुड़िया की जिद की तो मैंने खरीद दी l आखिर , ये पैसा -कौड़ी किस दिन के लिये होता है l जब इसे हम अपने परिवार और बच्चों पर खर्च ही ना कर सकें l बाबूजी इस जिंदगी का क्या भरोसा है l आज है , कल नहीं रहेगी l इसलिये मुझे जब भी मौका मिलता है l अपने बच्चों के साथ घूमने निकल जाता हूँ l"

आज बाबू को एक देहाती आदिवासी लड़का जीवण की एक अनमोल और बेशकीमती सीख देकर चला गया था l

बाबू ने सामान समेटा और घर की तरफ चल पड़ा l अपने परिवार को मेला घूमाने !

आड : (लघुकथा) : महेश केशरी

"मयंक बाबू , चाय पियेंगें ? "बहादुर ने पूछा l

"हाँ , बनाओ ना..l "मयंक कस्टमर पर से नजर हटाते हुए बोला l

कस्टमर से फारिग हुआ तो उसका दोस्त शेखर , मयंक से बोला - "यार मैं एक बात नोटिस करता हूँ , कि ये जो लड़का है l अक्सर , इस बगल वाली दुकान में आता है l और , जब भी आता है l तुमसे अक्सर यही पूछता है l बाबूजी चाय पियेंगें ? और , तुम चाय मँगवा लेते हो l जबकि सुबह से मैं देख चुका हूँ , कि तुम तीन - चार बार चाय तो पी ही चुके हो l इतनी चाय सेहत के लिये ठीक नहीं होती l आज घर जाऊँगा तो भाभीजी से तुम्हारी शिकायत करूँगा l कि इस तपते हुए गर्मी के दिन में भी ,तुम दस कप चाय पी जाते हो l"

शेखर , मयंक को धमकाते हुए बोला l

"नहीं , यार इस लड़के के साथ बात कुछ और है l दर असल ये जो लड़का है l पहले इसी होटल में काम करता था l लेकिन जब से मँहगाई बढ़ी है l ये और इसका परिवार कोलयरी के अवैध खदानों से कोयला निकालकर बेचता है l किसी तरह चार - पाँच बोरी कोयला निकल ही आता है l और किसी तरह कोयला बेच - बाचकर ही ये अपने बच्चों का पेट पालता है l अब इस होटल का मालिक उसकी जान- पहचान का है l कई साल इसने इस होटल में काम किया है l इसको चाय की बहुत तलब होती है l अब इस मँहगाई के दौर में दस रूपये प्याली की चाय खरीदकर कोई मजदूर आदमी कैसे पी सकता है ? इसलिये , ये जब भी मेरे पास आता है l मेरी आड लेकर दुकान में जाकर चाय बनाता है l खुद भी पीता है l और मुझे भी पिलाता है l इसलिये मैं इसको रोक नहीं पाता l"

तभी बहादुर आकर चाय पकडा गया - "लीजिए भैया , चाय ..l"

"तुमने पी ली ..l"

"हाँ , भईया ..l"

मयंक के चेहरे पर इस भारी गर्मी में भी राहत की एक मुस्कान तैर गई l

दरकते रिश्ते : (लघुकथा) : महेश केशरी

"अरे .. रे.. रे...! कुर्सी वहाँ मत लगाईये , मंँगेश भाई , दीवार से सटाकर l दीवार का पेंट खराब हो जायेगा l इंपोर्टेड पेंट लगाया है , बेटे ने दीवार पर l जरा खिड़की से साईड होकर बैठिये l "और , सुजाता जी ने मँगेश बाबू को कुर्सी किनारे करके बैठने को कहा l

मँगेश भाई को ऐसा लगा मानों किसी ने उन पर घड़ों पानी उझल दिया हो l लगा किसी ने उन्हें सरेराह बेइज्जत कर दिया हो !

मँगेश बाबू ने कमरे पर एक नजर फिराई l आज हर एक चीज आज नवीण बाबू के घर में नई थी l कीमती सोफा , कीमती फर्नीचर, चमचमाती हुई दीवारें l मेहमानों के स्वागत में बिछाया गया मँहगा कार्पेट l

ये सारी चीजें नवीण बाबू के नये घर में जैसे चार चाँद लगा रहें थें l नवीण बाबू घर आये मेहमानों के स्वागत में पलक - पाँवड़े बिछाये हुए थें l मँगेश बाबू तो खैर , घर के आदमी थें l

पहले सुजाता जी और नवीण बाबू का घर इतना शानदार नहीं था l एक साधारण सा घर था l मिट्टी का खपरैल वाला घर l मिट्टी का घर होने की वजह से घर ठंडा भी बहुत रहता था l और मँगेश बाबू अक्सर उनके घर आते -जाते रहते थें l लेकिन , नवीण बाबू का लड़का अब इंजीनियर हो गया था l और , उसकी कमाई से ही नवीण बाबू ने ये शानदार घर बनाया था l

लेकिन , इधर घर को लेकर एक ठसक सी आ गई थी , सुजाता जी और नवीण बाबू में l दिन भर वो घर की बाबत ही सोचते l घर पर एक खरोंच भी जैसे उनकी आत्मा को लहुलूहान कर देती l वो , किसी बच्चे की तरह घर को प्रेम कर रहें थें l लेकिन जब हम दुनियावी चीजों से बहुत प्रेम करने लगते हैं l और अपने आत्मिक संबंधों को अनदेखा करने लगते हैं l तो , हमारे मानवीय रिश्ते कब टूट जाते हैं l हमें पता भी नहीं चलता l

इस घर से मँगेश भाई को बहुत प्रेम था l अपने दोस्त नवीण बाबू और सुजाता भाभी के भी वे चहेते थें l जब नवीण बाबू का घर खपरैल का था l और बहुत छोटा भी था l तो इन लोगों को मँगेश भाई से प्रेम भी बहुत था l लेकिन , यहाँ अब भौतिकवादी युग की इस अँधी दौड़ में रिश्त अब बे- मानी से लगने लगे थें l यही सुजाता भाभी थीं l जो , घर में कहीं भी बैठ जाओ l कहीं भी लेट जाओ l कुछ ना कहतीं थीं l दोपहर को मँगेश भाई पहुँचते तो चाय के कई -कई दौर चलते l जिस दिन वे लोग पत्ते खेलते l रात में मँगेश भाई वहीं ठहर जाते l

मँगेश भाई को अब ये समझते देर नहीं लगी , कि अब यहाँ रूकना अपनी इज्जत को दाँव पर लगाना है l वे उठे और , दरवाजे की तरफ मुड़े l तभी नवीण बाबू ने टोका - "अरे भाई कहाँ चल दिये ? अभी -अभी तो आये हो l खाना खाकर ही जाना l"

"नहीं भाई अभी - अभी घर से बहुत जरूरी फोन आया है , जाना होगा मुझे बहुत जरूरी हे l लेकिन , तुमसे वादा करता हूँ l आधे घंटे में लौट जाऊँगा l"

"तब ठीक है l मैं तुम्हारा इंतजार करूँगा , जल्दी आना l"

मँगेश बाबू ने एक झूठ बोला था l लेकिन, पता नहीं उन्हें ऐसा क्यों लग रहा था , कि ये झूठ उन्होनें नवीण बाबू से नहीं जैसे अपने आप से बोला हो !

गाँठ : (लघुकथा) : महेश केशरी

पारा ब्यालीस डिग्री के पार जा रहा था l गर्मी की हालत ऐसी थी कि , कुदरत की बनाई हर चीज तप रही थी l पशु- पंक्षी सब धूप और गर्मी से परेशान थें l जर्रा - जर्रा जवालामुखी के लावे की तरह तप रहा था l ट्रेन किसी स्टेशन पर खड़ी थी l एक पचास साला अधेड़ हॉकर पटरियों को पार करता l कभी इस ट्रेन के कंपार्टमेंट में , तो कभी उस ट्रेन के कंपार्टमेंट में घुस- घुसकर पानी की बोतलें बेच रहा था l वो बिना अपनी जान की परवाह किये l इस पटरी से उस पटरी पर आ जा रहा था l और इस ट्रेन से उस ट्रेन में पानी बेच रहा था l

सहसा हमारे कंपार्टमेंट में भी उसकी आवाज उभरी - "पानी - बोतल , पानी - बोतल l"

एक यात्री ने पूछा - "ठंडा है ? कितने का दिया ?"

"जी , बाबूजी ठंडा है l बीस रूपये की एक बोतल l"

"लीजिए l "यह कहकर उसने पानी का बोतल यात्री की ओर बढ़ाया l

"अरे , पंद्रह रूपये की एम. आर. पी. लिखी हुई है l और तुम बीस रूपये माँग रहे हो l ठगते हो l वीडियो बनाऊँ तुम्हारा ?

अंदर चले जाओगे अभी , छह: महीने के लिये l उपभोक्ता न्यायालय में अगर केस कर दिया l"

"देते हो पँद्रह की , या बनाऊँ वीडियो ? अभी वायरल कर दूँगा l"

"बाबूजी , हमारे यहाँ आजकल लाईट नहीं रहती l सुबह पाँच बजे भोर में उठकर बर्फ की सिल्ली खरीदने पाँच किलोमीटर तक जाता हूँ l कभी बर्फ मिलती है l कभी नहीं भी मिलती l जिस दिन बर्फ नहीं मिलती l उस दिन पानी की बोतलें ठंडी नहीं कर पाता l और बोतलें भी नहीं बिकती l सबको ठंडा पानी ही चाहिये l जिस दिन बर्फ नहीं मिलती l उस दिन भाड़ा भी जाया जाता है l फिर , इसी धूप में बर्फ को कभी - कंँधे पर तो कभी साइकिल पर ढोकर स्टेशन तक लाता हूँ l तब जाकर आपकी पानी कहीं ठंडी हो पाती है l इतनी मेहनत करके ग्राहकों से पाँच रूपये माँगता हूँ , तो ग्राहकों की बातें भी सुननी पड़ती हैं l सब कुछ मँहगा हो गया है ,बाबूजी l पाँच रूपये ज्यादा लेने पर भी मेरा घर अब बहुत मुश्किल से चल पाता है l आटा - नून जुटाने में ही सुबह से शाम निकल जाती है l"

हॉकर ने अपने चेहरे का पसीना गमछे से पोंछा l कुछ देर रूका l फिर अपने टी - शर्ट के नीचे कँधे पर उग आये सूजन और गाँठ को दिखाते हुए बोला -"बाबूजी , अब तो ठंडा पानी ढोते- ढोते कँधे पर गाँठ भी पड़ गई है l"

यात्री ने बिना चूँ - चपड़ किये ही धीरे से बीस का एक नोट निकालकर हॉकर के हाथ मे रख दिया था l

भोग : (लघुकथा) : महेश केशरी

कामिनी श्रीधर बाबू की छोटी बहू थी l अभी दो दिन पहले ही शादी हुई थी l घर में आज पहली बार उसने खीर बनाया था l मेवे और इलायची की सुगंध पूरी रसोई में फैली हुई थी l

श्रीधर बाबू ने अपनी थाली में से खीर को एक चम्मच से निकालकर छोटी बहू कामिनी की ओर बढ़ाया और बोले - "बहू जा भगवान को भोग लगा दे l इधर श्रीधर बाबू का पैर टूटा हुआ था l चल फिर नहीं पाते थें l बहू ने प्लेट और चम्मच उठाया और भगवान को भोग लगाने के लिये , भगवान के तस्वीर की ओर बढ़ी l"

तभी श्रीधर बाबू की बड़ी बहू सुगंधा ने कामिनी को टोका - "किसे भोग लगाने जा रही हो , बहू l तस्वीर वाले भगवान जी को नहीं l हमारे जीवित भगवान को भोग लगाओ l तस्वीर वाले भगवान का नंबर बाद में आता है l ये खीर का भोग अम्मा जी की सास यानी दुर्गावती जी और हमारे बाबूजी के बाबूजी प्रेमप्रकाश जी को लगानी है l बाबूजी और हमारी सास अपने माँ , बाबूजी को बहुत मानते थें l घर में जब भी कोई स्वादिष्ट पकवान बनता l तो अम्मा जी सबसे पहले अपने सास - ससुर को ही भोग लगाती थीं l तब जाकर पूरे परिवार के लोग खाते थें l भगवान की कृपा से उनका आशीर्वाद इस घर पर आज भी बना हुआ है l उनके संस्कार ही हैं कि हम इतनी उन्नति कर रहें हैं l"

"जी , भाभी मैं अभी - अभी नई - नई आयी हूँ , ना l इसलिये मुझे पता नहीं था l गलती हो गई , भाभी l"

"कोई बात नहीं , बेटा जा मेरे अपने भगवान को भोग लगा दे , बेटा l "श्रीधर बाबू मुस्कुराते हुए बोले l दिवंगत , प्रेमप्रकाश जी और दुर्गावती देवी तस्वीर से मंद - मंद मुस्कुरा रहें थें l मानों पूरे परिवार को आशीर्वाद दे रहें हों l

पेट की बात : (लघुकथा) : महेश केशरी

जेठ की दुपहरी पूरे शबाब पर थी l घर से बाहर निकलते लगता की आदमी बेहोश होकर गिर जायेगा l कुदरत की बनाई हर चीज , हर जर्रा-जर्रा तप रहा था l लेकिन बुलकिया को दम मारने की भी फुर्सत नहीं थी l वो सुबह से ही लगी हुई थी l ईंटा ढोने में l सोचती है बस एक खेप और l बस एक खेप और फेंकेगी l और बच्चे को दूध पिला आयेगी l बीच - बीच में बच्चा उठता है l थोड़ी - देर रोता है l फिर सो जाता है l लू और झरख चल रही है l पेट की बात नहीं होती तो वो निकलती भी नहीं l

उसने कंखियों से ताका l कजरा जो साल भर का था l नीम के पेंड़ के नीचे पड़ा हुआ था l पेंड़ अब ठूँठ ही बचा था l पेंड़ की शाखों पर नाम मात्र की पत्तियाँ ही बची थीं l बुलकिया को तेज भूख लग आई थी l लेकिन, वो ईंटों को ढ़ोने में लगी हुई थी l

आधी दोपहर निकल ग ई है l वो भी बेचारी क्या करे l रामसूरतवा साल भर पहले विदेश चला गया था l पैसा कमाने , दुबई l किसी तरह कर्जा- पैंचा करके उसने भेजा था l बैंक के दलालों की मदद से l

लेकिन, साल भर , बाद भी वो नहीं लौटा l दुबई में कहीं टावर पर चढकर काम कर रहा था l एक बार नीचे गिरा तो कभी उठ ना सका l लाश भी नहीं देख पाई वो रामसूरतवा की l बैंक से दो लाख का कर्जा लेकर गया था , रामसूरतवा l साल भर पहले l उसका ही वो मय ब्याज चुका रही है l रामसूरतवा अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गया है l मिंटुआ और कजरा को l मिंटुआ तो खैर बड़ा हो गया है l बड़ा भी भला क्या हुआ है l दस साल का है l अट्ठारह घंटे चूड़ी फैक्ट्री में काम करता है l तब जाकर वो पाँच हजार कमा पाता है l उसकी कमाई से ही घर चलता है l

पेंड़ के नीचे कजरा बहुत देर से पड़ा था l धूप की किरणें काँच की किरचें की तरह उसके चेहरे पर चुभी रहीं थीं l अचानक से वो जोर- जोर से रोने लगा था l

सुरेखवा से नहीं रहा गया तो सुरेखवा वहीं से झूड़ी फेंककर चिल्लाई - "अरे बहन सुबह से ही बच्चे को धूप में सुता रखा है l कम - से - कम उसे छाया में तो रख l उसे कुछ खिला- पिला दे l तु भी तो कुछ खा- पी ले l इतनी धूप में क्यों काम कर रही है l थोड़ा सुस्ता ले , बहिन l काहे जान देने पर तुली है ? बचेगी तो बहुत काम होगा l जा कुछ खा ले l यहाँ तो ऐसे- ऐसे महानुभाव हैं l जो ठंडे और बंद ए. सी. कमरों में पड़े हुए हैं l एक हमारा नसीब है l धूप और लू में भी काम करना पड़ रहा है l सब अपने - अपने भाग्य की बात है l" रामानंद ठेकेदार उधर से गुजरा तो उसने भी टोका - "ऐ , बुलकिया तुझे और तेरे बच्चे को धूप नहीं लग रही है क्या ? जा थोड़ा सुस्ता ले l"

बुलकिया , के मन में आया कि कह दे -"बाबू , भूख के आगे धूप कहाँ लगती है l"

बाबूजी का बटुआ : (लघुकथा) : महेश केशरी

"रूचि मैं एक बात सोच रहा हूँ l "दीपक ने जूते के तस्मे बाँधते हुए कहा l

"क्या ?"

"यार , पिताजी को चाय पीने और पान खाने की बहुत आदत है l पेंशन और पी. एफ. का लगभग सारा पैसा उन्होनें घर बनाते समय ही खर्च कर दिया था l आज जो हमारा शहर में इतना बड़ा घर है l वो , पिताजी के पी. एफ. और पेंशन के पैसों से ही तो बना है l नहीं तो इस मँहगे शहर में सिर ढँकने की जगह भी हमें नहीं मिलती l इस घर को बनाने में उन्होनें अपने जीवण भर की कमाई लगा दी l अपने मोटा- झोटा खा- पहनकर रहा l लेकिन हम बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाया l बहुत किया है , उन्होनें हमारे लिये l अब हमें भी उनके लिये कुछ करना चाहिये l मुझे बचपन में याद है l मैं जब स्कूल जाता था l तो वो मुझे , रोज पचास पैसे देते थें l ये लो पचास का एक नोट , उनको दे देना l आखिर , इस उम्र में भला किससे माँगेंगे ?"

"तुम सही कह रहे हो l लेकिन , बाबूजी बहुत स्वाभिमानी हैं l हमसे रूपये नहीं लेंगें l"

"फिर , क्या किया जाये ? रूपये तो उनको रोज देने ही हैं l तुम ही कोई उपाय बताओ ?"

"उपाय है l तुम रोज पचास रुपये का नोट मुझे दे देना l और , मैं , बाबूजी के बटुए में वो नोट रख दूँगी l"

भृगु जी आज नहा धोकर फिर से चौक की तरफ जाने को हुए l और अपना बटुआ संभाला l आज फिर से बटुए में पचास का नोट पड़ा था l

"दीपक , मैं इधर दस दिनों से रोज देख रहा हूँ l कि मैं रोज शाम को बाजार जाता हूँ l और पूरे पैसे खर्च करके आ जाता हूँ l लेकिन , रोज सुबह मेरे जेब में पचास रूपये का एक नोट रखा मिलता है l क्या तुम मेरे बटुए में ये नोट रख जाते हो ?"

"नहीं तो बाबूजी मैं नहीं रखता l मुझे तो इस बारे में कुछ भी नहीं पता l "और दीपक तेजी से ऑफिस के लिये निकल गया l

"बहू , क्या तुम रख देती हो , मेरे बटुए में पचास रूपये का नोट ?"

भृगु बाबू को याद आया l दीपक जब स्कूल जाता था l तो ऑफिस जाते हुए वो रोज याद से पचास पैसे का एक सिक्का दीपक को देते थें l लेकिन , पचास रूपये के नोट का रहस्य अब भी बना हुआ था l लेकिन , तभी रूचि की हँसी छूट गई l

भृगु बाबू ने पूछा - "बहू , तुम हँसी क्यों ?"

"ऐसे ही , आपके पचास पैसे के सिक्के अब बड़े होकर आपके पास लौट रहें हैं l"

अपने - अपने मोर्चे : (लघुकथा) : महेश केशरी

गरीश और अज्जू अच्छे दोस्त थें l दोनों में दाँत काटी दोस्ती थी l बचपन के लंगोटिया यार l गिरीश को कोई मार दे तो अज्जू लड़ने साथ आ जाता l अज्जू को कोई कुछ कहता तो गिरीश लोहा लेने लगता l

आज बहुत दिनों के बाद गिरीश और अज्जू मिले थें l अज्जू का लड़का रोहित बीमार था l और वो गन्ने का रस लेने गिरीश की दुकान पर पहुँचा था l हाल- चाल जानने के बाद गिरीश बोला - "आज कल मेरे दिन बहुत ही खराब चल रहें हैं l"

"क्यों क्या हुआ ?"

"अरे , हम ठेले वाले को कोई कुछ समझता ही नहीं , भाई l ऐसा लगता है l जैसे हमारी कोई इज्जत ही नहीं है l गन्ने का रस सबको अच्छा लगता है l लेकिन , कचड़ा किसी को नहीं भाता l हर कोई हमें खुजली वाला कुत्ता समझता है l कल मेरे बगल वाला दुकानदार कह रहा था l गन्ने का छिलका यहाँ मत फेंका करो l"

मैनें पूछा - "क्यों ?"

"बोला तो यहाँ नहीं फेंकना है l मतलब नहीं फेंकना है l तुम गन्ने का कचड़ा फेंकते ही नहीं बल्कि उसमें आग भी लगा देते हो l"

"लेकिन , मैनें आग नहीं लगाई l"

"जो भी हो l कल से कचड़ा यहाँ मत फेंकना l"

"साला.. लगता है , जैसे सारी जगह उनकी ही है l"

"कल कचड़ा मैनें वहाँ , नहीं फेंका l बल्कि अपने घर के बगल में फेंका l मेरा पड़ौसी मुझ पर पिल पड़ा l अंट- शंट बकने लगा l मुझे बहुत भला - बुरा कहने लगा l छठ पूजा में प्रसाद बनाने के लिये लोग इसी चेपुआ ( गन्ने से निकले कचरे को ईंधन के रूप में प्रयोग करते हैं ) को माँग- माँगकर ले जाते हैं l तब इनकी तबीयत नहीं बिगड़ती है l आदमी का चरित्र भी कितना दोमुँहा होता है l"

अज्जू के , मुँह से अनायास निकला - "क्या करोगे दोस्त l आदमी अवसरवादी होता ही है l"

कोई और मौका होता तो अज्जू उससे झगड़े आदमी को सबक सिखा देता l लेकिन आज उसका खुद का लड़का बीमार था l

अज्जू और गिरीश आज अपने - अपने मोर्चे पर अकेले लड़ रहें थें l

थामने का रिवाज : (लघुकथा) : महेश केशरी

एक साठ साला बूढ़ा सिर पर सूटकेस उठाये , कँधे पर बैग टाँगे , बड़ी मुश्किल से चिलचिलाती हुई घूप में बढ़े जा रहा था l पसीने से तर-बतर l ये बूढ़ा कोई सामान्य बूढ़ा नहीं था l पहनावा उसका अंग्रेजी सा था l काम करने का अंदाज बता रहा था l कि , बेवक्त भी उसे पैसों की जरूरत आन पड़ी है l दुकान की देहरी तक आते - आते वो लड़खड़ाया l लगा अब गिरा की तब गिरा l

लेकिन , तभी उस दुकान के मालिक ने उन्हें गिरने से बचाते हुए , थाम लिया l

"अभी गिर जाते आप l संभलकर चलिये , आईये l "- दुकान के मालिक ने सूटकेस को बाहर ही साइड में रख दिया , और उनका हाथ पकड़कर अंदर ले गया l

बूढ़ा भीतर आकर बैठ गया था l

दुकान के मालिक ने ठंडा पानी निकालकर बूढ़े को दिया l फिर , बोला - "इस उम्र में आप काम क्यों कर रहें हैं ? आपको तो घर पर आराम करना चाहिए l"

बूढ़ा कुछ देर चुप रहा l फिर बोला - "ऐसा तुम ही क्यों सोचते हो ? मेरे बच्चे क्यों नहीं सोचते , इस तरह से ? आराम करता लेकिन , बुढ़िया के खाने-पीने और दवाईयों के लिये काम नहीं करूँगा तो कैसे चलेगा ? बच्चे हैं , लेकिन सब लापरवाह हैं l सब अपने - अपने काम में व्यस्त l माँ- बाप से उनको कोई मतलब नहीं है l"

बूढ़े ने ग्लास का पानी खत्म किया फिर वो बोला -"साहेब , थोड़ी देर में आयेंगें l"

"कौन साहब "

"वही , जो आपके यहाँ l कपड़े लाकर देते हैं l"

"तो , आप बटुक बाबू के यहाँ काम करतें हैं l"

"हाँ , यही कोई आठ हजार पाता हूँ l"

"आप कोई आराम वाला काम क्यों नहीं करते ? कहीं बैठकर l"

"नहीं , मैं नहीं कर सकता l बैठने वाला काम l बुढ़िया की तबीयत अब बहुत ज्यादा खराब रहती है l पास में किसी का होना जरूरी होता है l फिर समय पर दवाईयाँ भी देनी होतीं हैं l बुढ़िया थोड़ी अडियल भी है l बच्चों का रवैया देखकर कहती है l कहीं तुम भी तो बच्चों की तरह मुझे छोड़कर नहीं चले जाओगे ? बुढ़िया बहुत ही उदासीन है बच्चों की तरफ से l"

बूढ़ा थोड़ा रूककर बोला - "और , आजकल कौन काम देता है , बूढ़ों को l यहाँ नौजवान तो फाँके कर रहें हैं l"

"एक बात पूछूँ ?"

"हूँ l"

"क्या , तुम ऐसे ही हर गिरने वालों को हर बार थाम लेते हो ? जैसे अभी तुमने बाहर मुझे थाम लिया था l अब तो थामने का चलन गुजर गया है l लोग एक - दूसरे को गिराने में लगे हुए हैं l तुम्हें पाकर तुम्हारे माँ- बाप कितने धन्य समझते होंगें अपने आप को l खूब तरक्की करो l चलता हूँ l सैंपल और जगह भी दिखाने जाना है l"

ठंडा खाना : (लघुकथा) : महेश केशरी

संदेश मोटरसाईकल चलाते हुए किसी तरह कैलाश अपार्टमेंट पहुँचा था l रात के बारह बज गये थें l एक तो इतनी रात और ऊपर से ठंड़ जैसे संदेश की गरीबी और बेकारी की परीक्षा ले रहें थें l बहुत मजबूरी में आजकल वो फूड़ आऊटलेट की एक कंपनी "डीलिशिस "में काम कर रहा था l किसी तरह घिच- घाच कर वो ग्रेजुऐशन कर पाया था l लेकिन , घर की माली हालत तो मैट्रिक करते -करते खराब होने लगी थी l बूढ़े - होते माँ-बाप , की जिम्मेदारी l और , बहन की शादी में लिये कर्ज को चुकाने की जिद l ये जो डीलिशिस वाला काम था l कम- से -कम बेरोजगारी से तो एक बेहतर स्थिति में तो लाकर खड़ा कर ही देता था l लेकिन , ये नौकरी भी भला कोई नौकरी है l साढ़े तीन सौ की दिहाड़ी रोज पाता है , वो "डीलिशिस "से l चाहे गर्मियों की चिलचिलाती घूप हो या सर्दियों के ठंड़ भरे दिन l उसे हर हाल में डिलीवरी करनी होती है l आदमी के अंदर क्रूरता इतनी भरी हुई है कि , दरवाजा खोलने के बाद लोग मुस्कुराकर स्वागत करना तो दूर l एक ग्लास पानी के लिये भी नहीं पूछते l पैकेट लेते हैं l "कितना हुआ "जैसे जुमलों के साथ ही दरवाजे को मुँह पर भेड़ने की कवायद सी चल पड़ी है l उनके साथ संदेश का केवल इतना भर संबंध होता है l और , धड़ाम से एक दरवाजे के मुँह पर बंद होने का शोर सुनाई देता है l किसी तरह संदेश सीढ़ियाँ चढ़कर बी -56 के कमरे में पहुँचा - "सर , ट्रैफिक थोड़ा , ज्यादा था l इसलिये खाने का पार्सल लाने में थोड़ी देरी हो गई l नहीं तो हम हमारे ग्राहकों को समय पर डिलीवरी देने का प्रयास करते हैं l"

संदेश ने जैसे सफाई देनी चाही l और वो भी समय पर ट्रैफिक के कारण नहीं पहुँच पाया l इसका कारण बताना चाहा l

"ये तुम वापस ले जाओ l दर असल तुम्हें ऑर्डर करने के बाद मेरे दोस्त बाजार से चीज़- पनीर और ढे़र सारे पिज्जा लेकर आ गये थें l और मुझे इसका अंदाजा तब हुआ l जब वे लोग सारा सामान लेकर मेरे घर पहुँचे l तब तक मैं तुम्हें ऑर्डर कर चुका था l मेरे दोस्तों ने दरअसल आज जमकर पार्टी की l दर असल आज मेरे एक दोस्त भिखू का जन्म दिन था l इसलिए वो एक केक लेकर यहाँ घर पर ही आ गया था l घर में इंतजाम करने में ही मेरा सारा समय निकल गया l लिहाजा , तुम्हारे लगाये ऑर्डर को मैं कैंसल नहीं कर पाया l

अभी मैं , वो ऑर्डर कैंसिल कर देता हूँ l नाहक ही तुम्हें इतनी ठंड में परेशानी उठानी पड़ी l" लेकिन तभी उसे अपने कुत्ते होलो का ख्याल आया l

"पार्टी के कारण लगता है , मेरा कुत्ता भूखा ही सो गया l पार्टी के कारण उसकी ओर मेरा ध्यान ही नहीं गया l"

"होलो- होलो ....कहाँ हो तुम ? "टैरिस ने अपने पालतू कुत्ते को आवाज लगाई l

"ठंड़ भी बहुत पड रही है l लगता है , मेरा होलो भी ठंड़ के कारण बहुत जल्दी सो गया l "टैरिस , संदेश से बोला l

तभी होलो धीरे - धीरे पूँछ डुलाता हुआ बॉलकॉनी में आ गया l

"हे ,मेरा बच्चा अभी सोया नहीं l "टैरिस कुत्ते को पुचकारते हुए बोला l

बदले में होलो कुँकियाया l

टैरिस ने मेज पर पड़ा , खाने का पैकेट उठाया l और , पैकेट खोला l

कुछ तो देरी के कारण l और कुछ ठंड के कारण l खाना ठंडा पड़ गया था l टैरिस ने खाना होलो की तरफ बढ़ाया l

कुछ देर होलो खाने के पास ही खड़ा रहा l उसके बाद उठकर बॉलकानी में कहीं चला गया l

टैरिस के मुँह से निकला - "नॉटी , ब्यॉय l"

टैरिस , संदेश से बोला - "दर असल मेरी तरह मेरा कुत्ता भी ठंडा खाना नहीं खाता l उसे भी गर्म खाना खाने की आदत है l मेरा ऑवेन भी अभी खराब है l मैं ऑर्डर कैंसल कर रहा हूँ l नहीं तो कंपनी तुम्हारी जेब से पैसे काट लेगी l मेरे लिये अब ये खाना बेकार है l जाते हुए इस खाने को बाहर डस्टबिन में डालते हुए जाना l"

संदेश ने खाना वापस डब्बे में भरा l और , सीढ़ियों से नीचे उतर आया l दिन भर की भाग-दौड़ से संदेश बहुत थक गया था l उसे बहुत भागदौड़ के कारण अब भूख भी लग आई थी l वहीं जमीन पर बैठकर सोचने लगा की अब क्या किया जाये l घर पहुँचने में भी अभी आधे घंटे का वक्त लगेगा l

तभी उसके मोबाईल पर उसको मिले ऑर्डर के कैंसिल होने का मैसेज मिला l

उसने चैन की साँस ली l और , मन- ही - मन टैरिस को शुक्रिया अदा किया l

खाने के पैकेट पर जब ध्यान गया l तो सोचा l इसे डस्टबिन में क्यों डालूँ l

मारे भूख के उसके पेट में चूहे दौड़ रहें थें l खाने की पैकेट से खाना निकालकर वो धीरे - धीरे खाने लगा था l

इंसानियत की आँखें : (लघुकथा) : महेश केशरी

आज फिर से अलमारी झाड़ते हुए शोभा ने अनिकेत से पूछा -"तुम बहुत सारी बेकार की चीज़ें घर में जमा करके रखते हो l कभी कुछ फेंकने को कहती हूँ l तो फेंकना नहीं चाहते l इन पुराने ऊनी कपड़ों में माँ

जी का पुराना स्वेटर भी है l स्वेटर किसी माँगने वाले या किसी जरूरतमंद को दे दूँगी l तो तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा ना ?"

शोभा जानती है l कि ये स्वेटर अनिकेत की माँ यानि उसकी सास की अंतिम निशानी है l और अनिकेत की भावनाएँ इस स्वेटर के साथ बहुत ही गहराई से जुड़ी हुईं हैं l चाहती तो वो भी नहीं है कि वो माँ जी की इस अंतिम निशानी को किसी गरीब या किसी जरूरतमंद को दे दे l लेकिन , क्या करे ? अनिकेत के बार- बार के इधर - उधर की ट्राँसफर से वो बहुत परेशान है l आखिर, कितना सामान लेकर वो एक शहर- से दूसरे शहर घूमे l

लेकिन , हर बार की तरह इस बार भी अनिकेत बिना कुछ बोले ही दफ्तर के लिये निकल गया l

रोज शाम को अनिकेत दफ्तर से लौटने के बाद एक तो शौक से और कुछ दफ्तर के थकान को कम करने के लिये चौक पर चाय पीने चला जाता है l वहाँ , रोज वो एक बुढ़िया को देखता है l जो रोज शायद भठ्ठी में जल रही आग तापने के लिये ही आती है l अनिकेत के घर के पास ही एक झोपड़ी थी l शायद बुढ़िया वहीं रहती थी l होटल के बंद होने तक वो वहाँ रहकर आग तापती है l उसके पास गर्म कपड़ों के नाम पर बस एक धोती थी l जिसे बुढ़िया पहने रहती l अनिकेत बुढ़िया की मज़बूरी अच्छे से समझ रहा था l लेकिन वो बुढ़िया से कुछ पूछते हुए डरता था l कि कहीं उसे बुरा ना लग जाये l कभी- कभी कोई दयालु व्यक्ति बुढ़िया को चाय पिला देता l बुढ़िया चाय को फूँक मारकर पीने लगती l

पता नहीं अचानक एक दिन अनिकेत के मन में क्या आया l उसने शोभा से पूछा -"शोभा , जरा वो माँ का स्वेटर लेते आना l"

शोभा को आश्चर्य हुआ l कि आज अचानक अनिकेत को क्या हो गया है ? वो स्वेटर क्यों माँग रहा है ? दिल्लगी करते हुए बोली -"आज माँ के स्वेटर की अचानक तुम्हें कैसे याद आ गई ? आज तो सूरज जैसे लग रहा है l पश्चिम से उगा है l"

अपनी आदत के मुताबिक , अनिकेत कुछ नहीं बोला l बस , स्वेटर लेकर निकल पड़ा l

बुढ़िया होटल में चूल्हे के पास खड़ी आग ताप रही थी l अनिकेत बुढ़िया के तरफ स्वेटर बढ़ाते हुए बोला - "लो , माँ , तुम्हारे लिये मैं एक स्वेटर लाया हूँ l तुम ठंड से बचने के लिये ही तो आग के पास खड़ी रहती हो , ना l ये मेरी माँ का स्वेटर है l जो मेरे पास उनकी आखिरी निशानी के रूप में थी l तुम भी मेरी माँ की तरह ही हो l ये , स्वेटर ठंड में तुम्हारी हिफाजत करेगी l"

बुढ़िया के मुँह से निकला -"कौन हो तुम ?"

अनिकेत , सवाल का जबाब ना देकर , बुढिया से प्रतिप्रश्न करते हुए बोला - "तुम्हें बहुत ठंड लगती है ना , माँ ?"

"तुम्हें कैसे मालूम ..? "बुढ़िया विस्फारित नेत्रों से अनिकेत को ताकते हुए बोली l

अनिकेत मुस्कुराते हुए बोला - "इंसानियत की आँखें दु: ख को पढ़ लेती हैं , माँ l"

"क्या , तुम मुझे जानते हो बेटा ?"

अनिकेत मुस्कुराते हुआ बोला - "नहीं l"

"फिर , क्यों तुम मेरी मदद कर रहे हो ?"

अनिकेत के मुँह से बस इतना ही निकला - "बस , ऐसे ही माँ l"

सधे हुए कदमों से अनिकेत , धीरे - धीरे घर की तरफ चल पड़ा l

पुनर्जन्म : (लघुकथा) : महेश केशरी

राघव ने समय का अनुमान लगाया l हाँ , ये वक्त ठीक रहेगा l अभी सुबह का वक्त है l सब लोग अपने- अपने कामों में व्यस्त हैं l लेकिन , इधर भाई की हालत भी तो खराब है l हालाँकि , राघव की पत्नी मुन्नी के आँखों में माधव काँच के किरचें की तरह चुभता है l वो उसको फूटी आँख नहीं सुहाता l लेकिन , माधव की पत्नी तारा भी कहाँ दूध की धुली है l इन , दोनों के कारण ही राघव और माधव में सालों से बोलचाल बंद है l घर की देहरी या आँगन में दीवार खड़ी हो गई है l अब तो सालों हो गये l उन दोनों भाईयों में बात चीत हुए l एक ही घर है आना - जाना भी एक ही दरवाज़े से होता है l लेकिन , दोनों भाईयों में बातचीत सालों से बंद है l जब तक रामकिशुन बाबू जिंदा थे l दोनों भाईयों में इलाज या दवा - दारू के बहाने ही या कहीं बाप को डॉक्टर - वैध के पास लाने , ले जाने के बहाने बातचीत हो ही जाती थी l लेकिन , पिता के चले जाने के बाद वो पुल भी टूट गया l जिसके बहाने से वे मिलते थें l इस बीच जो बात माधव ने कभी कही भी नहीं थी l उसमें घर की औरतें अपने - अपने मर्दों को उल्टा - सीधा पट्टी पढ़ाकर गलतफहमी पैदा करतीं रहीं l

तभी मुन्नी पास से गुजर रही थी l कहीं बाहर से सौदा - सुलफ लाने गई होगी l

राघव को टोका -"ऐत बेर , अबेर नहीं हो रही है का ? सूरज छत पर चढ़ गया जायेगा l तब जाकर काम पर जाओगे का ..?"

मुन्नी मुई है ही नक चढ़ी l जब भी बात करेगी l टेढा ही करेगी l

"हाँ-हाँ जा रहा हूँ l जरा दम तो मारने दिया कर कर l"

इधर , माधव की बेटी की शादी है l हालाँकि , माधव कभी अपने मन - से मदद की बात नहीं कहेगा l आज के भाई तो वे हैं , नहीं l जन्मजात भाई हैं l एक ही माँ के पेट के जने l क्या अपनी औरत मुन्नी की बात में आकर वो अपने भाई की मदद नहीं करेगा ? क्या किसी और घर से आईं दो औरतों के कारण वो अपने भाई से बिलगाव करेगा ? क्या , राघव , अपनी औरत मुन्नी की बातों में आकर अपना भ्राता-धर्म भूल जायेगा ?

नहीं वो इतना अधम नहीं है l नेकी अपने साथ तो बदी दूसरे के साथ वो क्यों करे ? आदमी का धरम क्या होता है ? अपने भाई की मदद करना l फिर , कौन लेकर आया है ? और कौन लेकर जायेगा ? द्वेष में आकर आदमी को किसी सद्कर्म से वंचित क्यों होना चाहिए ? फिर , ऊपर वाले की इजलास में जाकर वो क्या मुँह दिखायेगा ? कहते हैं कि एक दिन कयामत भी आयेगी l ऊपर जाकर अपने माँ- बाप को वो क्या जबाब देगा ?

चाहता तो ये पचास हजार रूपये l अपने लड़के मिंटू के हाथों ही भिजवा देता l लेकिन , मुन्नी को पता चलेगा तो घर में महाभारत हो जायेगा l मुन्नी तो दुष्ट प्रवृत्ति की है l तभी तो वो माधव की मदद करने नहीं देती l

तभी गली में माधव दिखा l राघव ने उसे इशारे से बुलाया l

पास आकर दोनों भाईयों में दुआ- सलाम हुआ l

बहुत दिनों के बाद दोनों में बात हुई थी l

राघव , माधव से बोला - "कैसा है रे ..?"

"ठीक हूँ , भईया .."माधव बोला l

"बड़ा झटक गये हैं , भईया l भाभी खाना नहीं देतीं क्या ? "माधव हँसी में बोला l

"ले इधर आ l "( हाथ के इशारे से किनारे बुलाकर ) राघव कहता है l

"ले ये लिफाफा रख ..l"

"क्या , है इसमें... ?"

"अरे कुछ नहीं ..l सुनीता बिटिया के लिये कुछ खरीद लेना .. l आखिर, मैं भी तो उसका बाप ही हूँ l"

माधव लिफाफा खोलकर देखता है - "अरे, इसमें तो पैसे हैं ? ..ये किसलिये ..?.."

"रख .. लो काम आयेंगें l आखिर , लड़की का मामला है l और शादी- विवाह , काज- परोजन में तो पैसे पास होने ही चाहिये l"

"नहीं- मैं नहीं लूँगा ..l भाभी गालियाँ देंगी l फिर , आपकी भी तो दो- दो बेटियाँ हैं l"

"तब की तब देखी जायेगी l अभी जो सिर पर पड़ी है , उसको देखो l"

"..और भाभी से कहेगा कौन ?"

"दीवार के भी कान और आँख होते हैं l कहीं लड़ाई- झगड़े में कभी आपके मुँह से ही निकल गया तो l तारा भी मुझे ही भला बुरा कहेगी l"

"अपनी मरी माँ की कसम खाता हूँ l मेरे मुँह से कभी ना निकलेगा l"

तभी , माधव की पत्नी तारा उधर से गुजरी l और दोनों भाई अपने - अपने रास्ते चल पड़े l

माधव रास्ते भर सोचता जा रहा था l भईया तो देवता आदमी हैं l वो उनके बारे में कितना गलत सोचता था l

उधर राघव को अपने भाई की मदद करके बहुत आत्मिक खुशी हो रही थी l

आज गलतफहमी की एक काली रात का अंत हो गया था l और दोनों भाईयों का जैसे पुर्नजन्म हुआ था l

संवादों का पुल : (लघुकथा) : महेश केशरी

पूनम घर की बड़ी बहू थी l और छाया छोटी l छाया की शादी अभी हाल में ही हुई थी l छाया दर असल आलसी स्वभाव की महिला थी l छाया को ज्यादा काम करने से कोफ्ता होती थी l वो , बात- बेबात अपनी सास पुष्पा देवी और जेठनी , पूनम से झगड़ती रहती थी l पुष्पा देवी को भी हर घर की कहानी पता थी l वो जानतीं थीं कि एक में बहुत दिनों तक निबाह नहीं हो सकता था l लेकिन , उनके ऐसा कहने से पहले ही एक दिन छाया ने अपनी सास से अलग होने की मँशा जाहिर की l पुष्पा देवी ने खुशी- खुशी इसकी मंजूरी दे दी l

लेकिन , पूनम को ये बात नागवार गुजरी l उसने विरोध करना चाहा l लेकिन उसकी एक ना चली l और , अंतत: छाया , अपना खाना अलग पकाने लगी l लेकिन , इससे घर का माहौल बहुत हद तक शाँत रहने लगा l अब घर में क्लेश नहीं होता था l

दिन बितने लगे l पुष्पा देवी हमेशा अपनी बहू के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर ही रखतीं l ये बात उनकी बेटी और ,बड़ी बहू पूनम को बहुत ही नागवार लगती l पुष्पा देवी जब भी कुछ अच्छा पकातीं छाया को भी खाने को देतीं l लेकिन इस बात से छाया की ननद पारूल और पूनम को बहुत दु:ख होता l वो सोचतीं की जब चूल्हा अलग - अलग जल रहा है l और , खाना भी अलग - अलग पक रहा है l और , छाया हमारे साथ भी नहीं रहती , तो हम खुद से खटकर और कुछ बनाकर छाया और उसके पति को क्यों दें ?

पूनम और पारूल को ये बात समझ ही नहीं आती थी l

एक दिन की बात है l पुष्पा देवी ने खीर पकाई l वो पूर्णमासी का दिन था l लोग कार्त्तिक की पूर्णमासी के दिन गँगा स्नान करके दान-पुण्य का कार्य कर रहें थें l पूर्णमासी होने के कारण पुष्पा देवी ने घर में खीर बनाई थी l

उन्होंने पूनम से कहा - "लो , पूनम ये कुछ पूरियाँ , और खीर छाया को दे आओ l आज कार्तिक की पूर्णमासी है l आज कुछ मीठा खाना और पकाना चाहिए l "ये कहकर उन्होंने खाने की थाली पूनम की ओर बढ़ाई l

लेकिन , पूनम आज आर-पार के मूड़ में थी l सास से बोली - "माँ , जी आप जब भी कोई अच्छी चीज पकातीं हैं l खासकर मीठी चीज , या कोई और बढ़िया पकवान तब वो आप छाया को देने को कहतीं हैं ? आखिर , जब हम अलग हो गये हैं l और हमारा खाना भी अलग- अलग बनता है l तो ऐसी क्या बात है कि आप ऐसा करतीं हैं ? छाया तो हमें कुछ अच्छा पकाने पर लाकर नहीं देती l तब आप ऐसा क्यों करतीं हैं ? मुझे ये बात समझ नहीं आती l"

पुष्पा देवी ने तब पूनम को समझाते हुए कहा था -"बहू , मैं जो कुछ भी अच्छा पकाती हूँ l वो छाया और विवेक को इसलिये दे देती हूँ l ताकि हमारे संबंधों में एक ऊष्मा बनी रहनी चाहिये l अलग होकर हमारे बीच पहले से ही एक दूरी बन चुकी है l अगर मैं उन्हें कुछ अच्छा पकाने पर ना भेजूँ l तो मेरा मन बहुत दु:खी होगा l हमें अपने आचार - व्यहवार में सदा निष्कपट बने रहना चाहिये l लेने - देने से हमारे बीच की बातचीत तो कम - से- कम चालू है l ये संवाद का जो पूल है l अगर , ये टूट जाता है l तो हम तहस - नहस हो जाते हैं l इसलिये संवादों का पुल कभी टूटने मत देना बेटी l"

और पुष्पा देवी ने पूनम के सिर पर प्यार से हाथ फिराया था l

और , इस तरह से उन्होंने लेन- देन और मदद करना जारी रखा l बहुत सालों के बाद छाया का हृदय परिवर्तन हुआ और वो घर के कामों में हाथ बँटाने लगी थी l

मदद करने वाले हाथ : (लघुकथा) : महेश केशरी

बुढ़िया , बीमार तो नहीं है l हाँ , दिनभर तो ठीक ही दिखती है l काम धाम भी समय से कर लेती है l हाँ , लेकिन , इधर कुछ दिनों से ज्यादा ही खाँस रही l रात - बिरात बुढ़िया जब ज्यादा खाँसने लगती है l तो चंदन की नींद उचट जाती है l और तब उसे सारी रात नींद नहीं आती l बुढ़िया को चंदन परोक्ष रूप में बुढ़िया कहता है l सामने से जब भी मिलती है l तो , वो , उनको माई ही कहकर संबोधित करता है l खाँय- खाँय की आवाज से चंदन की नींद खराब हो जाती है l इसके चलते वो नहीं चिढ़ता l बल्कि उसकी चिंता कुछ दूसरे किस्म की है l वो , पेशे से कामगार है l कंपनी की होर्डिंग लिखता है l शहर - शहर घूमकर l पिछले साल राजस्थान में था l उस समय एक ऐसी ही बुढ़िया माई उसे मिली थी l इसी बुढ़िया माई की तरह l फर्क सिर्फ इतना था कि वो दूसरे मजहब की थी l मुसलमानी l लेकिन , चेहरे - मोहरे में इसी बुढ़िया माई की तरह थी l नाम था रजिया l एक दम बुढ़िया माई की तरह ही गोरी - चिट्टी और दुबली - पतली l लेकिन ,काम करने में फरहर ( तेज ) थी l

उसे साल भर पहले की बात अच्छी तरह याद है l जब वो बाड़मेर में फँस गया था l तब कोविड़ की दूसरी लहर चल रही थी l बहुत ही भयंकर समय था l आदमी - आदमी से नफरत करने लगा था l तब , बुढ़िया रजिया ने उसे दसियों दिन खाना खिलाया था l उसे भी वो रजिया चाची ही कहता था l

चंदन ने तो मजाक - मजाक में एक बार कहा भी था -"रजिया चाची , मैं दूसरे धर्म का हूँ l मेरे रोटी खाने से धर्म नहीं बिगड़ जायेगा l"

तब रजिया चाची ने कहा था - "रोटी का कौनों धरम होता है क्या बेटा ? इंसान मुसीबत में हो तो वो धरम नहीं देखता l फिर , भूख का भी तो कोई धरम नहीं होता l क्या तुम्हारी और क्या मेरी भूख ? सबकी भूख तो एक जैसी ही है l हमको तो अक्षर ज्ञान भी नहीं है , बेटा l ज्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं हूँ l लेकिन , धरम सियासतदानों के लिये है l और वे हमें आपस में लड़वाने के लिये ही इसका इस्तेमाल करते हैं l"

और , अंतत: चंदन ने उसी रात ही ये तय कर लिया था l कि कल सुबह वो बुढ़िया माई के लिये एक खाँसी का सिरप लेकर आयेगा l लेकिन , क्या वो खाँसी का सिरप उससे लेगी l इस निष्ठुर दुनिया में बुढ़िया माई का कोई नहीं था l बच्चों ने बुढ़िया माई को घर से निकाल दिया था l बुढ़िया माई , दूसरों के घरों में झाड़ू - बर्तन करके किसी तरह गुजारा करती थी l

अगले दिन वो खाँसी का सिरप लेकर आया तो मँजू चौंक पड़ी l और चंदन से पूछा - "ये खाँसी की सिरप किसके लिये लेकर आये हो ?"

"बुढ़िया माई के लिये l "चंदन कुर्सी पर सिरप रखते हुए बोला l

"बुढ़िया माई , से क्या तुम्हारा कोई रिश्ता है ? "मँजू आश्चर्य से चंदन की ओर ताकते हुए बोली l

अचानक से चंदन को रजिया चाची याद आ जाती l वो रजिया चाची के बारे में सोचता है l तो ,उसे बुढ़िया माई याद आ जाती है l क्या इन दोनों में कोई संबध है ?

फिर वो धरम- करम करम से ऊपर उठकर सोचता है l तो उसे एक ही बात समझ आती है l धरम - जाति तो इंसान अपनी कुँठा के कारण गढ़ता है l नफरत करने के लिये l जब वो मूढ़ हो जाता है l नितांत स्वार्थी l समाज और देश से परे अपना अस्तित्व समझने लगता है l

फिर ये सियासतदानों का काम है l मदद करने वाले हाथ का कोई धरम नहीं होता l उसका तो बस एक धरम होता है l इंसानियत का धरम l रजिया से चंदन का कोई रिश्ता था क्या ? जो रजिया ने परदेश में चंदन की मदद की l फिर , बुढ़िया माई से उसका क्या कोई रिश्ता है ? अगर कोई रिश्ता नहीं है l तो वो क्यों जब कोई अच्छी चीज पकाती है l तो उसके और मँजू के लिये ले आती है l

चंदन ने सिरप उठाया l और ,बुढ़िया माई के घर चल पड़ा l

बुढ़िया माई घर पर ही मिल गई l

"बुढ़िया माई , ये खाँसी की सिरप तुम्हारे लिये लेकर आया हूँ l दो- दो चम्मच रोज पीना l खाँसी जड़ से खत्म हो जायेगी l "चंदन मुस्कुराते हुए बोला l

बुढ़िया माई एक अनचिन्हें और नये रिश्ते को ताक रही थी l उसके अपने बच्चों ने उसे घर से निकाल दिया था l लेकिन , ये चंदन तो उसका अपने सगे रिश्ते से भी बड़ा निकला l

बुढ़िया माई के हृदय से जैसे आशीर्वाद का सोता फूट पड़ा था l

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