लघुकथाएँ (1-20) : महेश केशरी

Hindi Laghu-Kathayen (1-20) : Mahesh Keshri

बड़ी खिड़की : लघुकथा

"खिड़की का साइज बड़ा करो l इसका डबल होना चाहिए l "पारस ने रेजा मिस्त्री को बोला l

"लेकिन, बाबूजी बड़ी खिड़की तो बड़ी बेढ़ब लगेगी l इसी साइज का रहने दीजिए , ना l"

"नहीं भाई बड़ा साइज का ही बनाओ l दरअसल बात ये है भाई कि मेरी माँ को बड़ी - बड़ी खिड़कियों वाला घर पसंद था l उसको गर्मी बहुत लगती थी l अक्सर कहती रहती थी l बेटा जब घर बनाना तो उसमें बड़ी - बड़ी खिड़कियाँ लगना l मुझे गर्मी बहुत लगती है l"

"लेकिन, भैया माँ तो अब इस दुनिया में नहीं है l फिर ? किसके लिए ये बड़ी खिड़कियों वाला घर बनवा रहे हो ? "मेहुल ने टोका l

"भाई , मेहुल , मेरी माँ बहुत गरीब थी l दूसरों के घरों में कपड़े - बर्तन करके माँ ने मुझे पढ़ाया-लिखाया l उसका एक ही अरमान था l कि उसका एक अपना पक्का घर हो l जिसकी खिड़कियाँ बड़ी - बड़ी हों l माँ के जीते जी तो मैं उसका पक्का मकान ना बनवा सका l लेकिन उसके मरने के बाद बड़ी - बड़ी खिड़कियों वाला मकान बनवा रहा हूँ l "पारस की आँखें पुराने दिनों को याद करके बरसने लगीं थीं l

ईमान : लघुकथा

"एक .. दो ... तीन.. चार.. पाँच .. छह.. l "वैभव अपने बैग गिन रहा था l

तभी किसी ने उसे पीछे से आवाज लगाई - "बाबूजी , ये सामान मैं ले , लूँ l"

"हूँ l अरे , नहीं हो जायेगा l मैं उठा लूँगा l"

"अरे इतना सामान आप कैसे उठायेंगें ? लाईये मैं आपकी मदद करता हूँ l"

"आपको तो स्टेशन जाना है ,ना l"

"हूँ..l"

वो एक अट्ठारह - बीस साल एक लड़का था l मूछों के नाम पर बस महीन सी एक लकीर भर उभरी थी l

"अरे लेकिन तुमको कैसे पता कि मुझे स्टेशन जाना है ? और तुम इतना सामान उठा पाओगे क्या ? ..नहीं - नहीं रहने दो l"

वैभव कुछ कह पाता l कि लड़के ने कुछ बैग कँधे पर और कुछ हाथों में उठा लिया l

"अरे , मैं कह रहा हूँ ना l मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं है l मैं कर लूँगा l"

"बाबूजी आपको कोई जरूरत नहीं है l लेकिन इस पेट की तो जरूरत होती है l सबकी l आपकी - हमारी l इसी पेट की खातिर तो आदमी सही- गलत करता है l तमाम तरह के अपराध जो हमारे समाज में होते हैं l वो इसी पेट की खातिर तो होते हैं l ये आदमी के ईमान पर है l कि वो कौन सा रास्ता चुनता है l आज मेरी जरूरत है l इस समय मुझे बहुत भूख लगी है , बाबूजी l आज सुबह से कुछ नहीं खाया है l"

वो लड़का रुँआसा हो गया था l

वैभव का दिल पसीज गया , बोला - "लेकिन तुम सारा नहीं ले जा पाओगे l सिर्फ तीन बैग तुम लोगे बाकी के सारे मैं ले चलूँगा l"

लड़के ने आँखों के कोर पोंछते हुए कहा -"ठीक l लेकिन, पैसे पूरे लूँगा l पचास रूपये l"

वैभव हँसते हुए बोला -"हाँ ,ठीक है , चलो l"

दु:ख : लघुकथा

रास्ते भर मनोज यही सोचता आ रहा था l कि दो बच्चों के अलावे पाँच- छ: बैग वो स्टेशन पर आखिर उतारेगा तो कैसे ?

वो इसी उधेड़बुन में खोया हुआ था l

और आखिर गाड़ी अपने निर्धारित समय पर प्लेट फॉर्म पर आकर रूक l जैसे ही ट्रेन रूकी l चढ़ने-उतरने वालों की आपा -धापी शुरू हो गई l

मनोज ने किसी तरह पहले बच्चों को उतारा l और उसके बाद सामान को l पीछे से उसकी पत्नी भी उतर गई l

"कुली - कुली ..l"

मनोज को एक कमर से झुकी हुई आवाज़ सुनाई दी l वो आवाज मरियल से एक बूढ़े की थी l एक दम पिलपिला बूढ़ा था l कमर से झुका हुआ l

मनोज ने नजर अँदाज किया l सोचा इस बूढ़े से कहना ठीक नहीं रहेगा l बेचारा पहले से ही मरियल दिख रहा है l

"बाबूजी , आपका सामान ले लूँ l"

"हूँ l"

मनोज अचानक से कुछ सोच नहीं पाया l

बूढ़ा आदमी ने झटके से सारा सामान अपने कँधे पर उठा लिया l

मनोज "अरे..अरे कहता रह गया l

बाबा , आपको इस उम्र में काम करने की क्या जरूरत आन पड़ी ? आपको तो घर पर आराम करना चाहिए था l"

बूढ़ा थोड़ा आगे जाकर और रूककर बोला -"बाबूजी , बच्चों ने घर से निकाल दिया है l और अगर काम नहीं करूँगा तो खाऊँगा क्या ?"

मनोज ने बूढ़े की दुखती रग पर जैसे हाथ रख दिया था l

स्टेशन से बाहर निकलकर मनोज ने पूछा - "आपका कितना पैसा हुआ , बाबा ?"

"सौ , रूपये "बूढ़े ने जबाब दिया l

"तुम्हें पता है l मैं दिन भर में केवल दो-तीन घँटे ही काम करता हूँ l इतने से गुजारा चल जाता है l एक पेट को भला कितना आनाज चाहिए l बच्चे अलग रहते हैं l एक बुढ़िया थी l वो भी पिछले साल चल बसी l"

बूढ़े के चेहरे पर दुख: के बादल पसर आये थे l जो आँखों से झरझर बह रहें थे l

अनोखी खुशी : लघुकथा

रूपेश ने दुबारा कॉल बेल बजाई l तब शालिनी ने आकर दरवाजा खोला l रूपेश बड़बड़ाया -"एक तो इतनी धूप है l चेहरा झुलसा जा रहा है l लेकिन तुमलोगों को क्या फर्क पड़ता है l तुम लोग तो आराम से ए. सी. में बैठी रहती हो l यहाँ बाहर गर्मी इतनी है कि लगता है आदमी बेहोश होकर गिर पड़ेगा l"

"अरे , नहीं भाई किचन से फारिग होकर l तन्मय का होम वर्क करवा रही थी l चलो अँदर तुम्हारे लिये शरबत बनाती हूँ l पी लेना तो मूड़ ठीक हो जायेगा l"

"ठीक है l "रूपेश पन्नी थमाते हुए बोला l

अभी पाँच मिनट हुए थें l कि दरवाजे की घँटी फिर बजी l

रूपेश झुँझलाया -"दोपहर में भी लोग चैन नहीं लेने देते l सबको कुछ ना कुछ इस दोपहर में भी लगा ही रहता है l"

आगे बढ़कर उसने दरवाजा खोला l सामने देखा कि मूरत चाचा हैं l रिक्शे वाले चाचा l रूपेश का गैस और साग- भाजी अक्सर दोपहर के काम से छूटते ही लाकर घर पहुँचा देते थें l पसीने से लथपथ l चेहरे पर हवाईयाँ उड़ रहीं थीं l

"चाचा इस पैंतालिस पार के पारे में आपको तीन किलोमीटर दूर रिक्शे से जाकर सिलेंडर लाने की भला क्या जरूरत थी l लू - लहर का मौसम है l कहीं लू - वू लग गया तब क्या होगा बताईये , आपको l सिलेंडर तो आप शाम को भी ला सकते थें l"

रूपेश का वात्सल्य देखकर मूरत चाचा मन ही मन मुस्कुराये l हँसते हुए बोले -"बेटा शालिनी बिटिया ने सुबह से दो बार फोन कर दिया था l कि घर में गैस खत्म हो गया है l वैसे भी मुझे धूप में ही काम करने की आदत है l और मुझे आजतक लू नहीं लगी l फिर शाम को और भागदौड़ बढ़ जाती है l इसलिए अभी खाली था l तो सोचा क्यों ना अभी ही सिलेंडर वाला काम कर लिया जाये l"

मूरत चाचा सिंलेडर काँधे पर उठाकर ऊपर सीढ़ियों पर चढ़ने लगे l तो रूपेश ने सिलेंडर हाथ से छीन लिया l और सिलेंडर लेकर खुद ही छत पर चढ़ाने लगा l

दोनों भरे सिलेंडर ऊपर पहुँचा कर नीचे लौटा तो उसकी साँसें चढ़ी हुई थीं l

"ये लीजिए शरबत l "शालिनी ने रूपेश की ओर ग्लास बढायाकर शरबत पकड़ाया l दूसरे हाथ से शरबत लेकर रूपेश ने मूरत चाचा को थमा दिया l

"लीजिये चाचा , शरबत पी लीजिये फिर जाइयेगा l"

शालिनी ने टोका- "लेकिन , शरबत तो मैंनें आपके लिये बनाई है l अब तो घर में चीनी भी खत्म हो गई है l"

"कोई बात नहीं मैं कल शरबत पी लूँगा l"

ये कहते हुए रूपेश के चेहरे पर एक अनोखी खुशी दिखाई दी !

पहचान : लघुकथा

दिप्ती - "माँ , देखो ना निमंत्रण पत्र आया है l और इस पर बाबूजी का नाम लिखा है , गोपेश प्रसाद l"

"हाँ ये तो है l लेकिन , इसमें नया क्या हो रहा है ? शुरू से ऐसा ही होता आ रहा है l तेरे बाबूजी से पहले तेरे दादाजी का नाम लिखा होता था l "सितारा देवी आँचल सीधा करते हुए बोलीं l

"दादा जी का नाम क्या था , माँ ?"

"जमुना प्रसाद l"

"उनके बाबूजी का नाम ?"

"गोपाल प्रसाद l"

"उनके बाबूजी का नाम ?"

"जानकी प्रसाद l"

"उनके बाबूजी का नाम l"

"दिमाग मत खा मेरा l नहीं पता मुझे l भुका मत ज्यादा l"

"माँ , मैं निमंत्रण पत्र पर अपना नाम देखना चाहती हूँ l"

"हाँ , देखना l लेकिन जब तुम्हारी शादी होगी तब तुम्हारा और तुम्हारे दूल्हे का नाम निमंत्रण पत्र पर छपेगा l"

"तुम समझी नहीं , माँ l मैं चाहती हूँ कि निमंत्रण पत्र पर बाबूजी की तरह तुम्हारा नाम हो l"

"हूँ l लेकिन इसकी क्या जरूरत है ?"

"जरूरत है माँ ,अपनी पहचान के लिये l"

"पहचान से भला क्या , होता है ?"

"हमारा कोई ,अभिलेख नहीं है l कहीं भी l अतीत में ना वर्तमान में l"

"आखिर हम हैं क्या ? रेत का कोई कण l हवा का बुलबुला ! जो आज हैं और कल नहीं हैं l सदियों से समाज ने हमारे महत्व को नकारा है l आखिर हम जिंदा हैं l साँस लेते हैं , बोलते हैं , गाते हैं , हँसते हैं रोते हैं l फिर हमारे वजूद का कोई अंश या हिस्सा किसी अभिलेख में क्यों दर्ज नहीं है ? लड़ाई इसी बात को तो लेकर है , माँ l अच्छा माँ ,एक बात बताओ मेरे ननिहाल में जो निमंत्रण पत्र आता था l उसमें किसका नाम होता था ,निमंत्रण पत्र पर ?"

"तेरे नानाजी जगदीश प्रसाद का और किसका ?"

"अच्छा माँ , ननिहाल में मेरी नानी का क्या नाम था l"

"लक्ष्मी देवी l"

"उनकी माँ का क्या नाम था l"

"दुर्गा देवी ..l"

"उनकी माँ का नाम ?"

"इकतारा देवी l"

"किसी का नाम कभी निमंत्रण पत्र पर कभी छपा था , माँ ?"

"पहले निमंत्रण पत्र नहीं होता था l हम सब स्लेट या खडिया या भोजपत्र पर लिखा करते थें l वैसे इन फिजूल की बातों का क्या मतलब है ? ना कोई सिर , ना कोई पैर इन बातों का l हमेशा तू बिना सिर पैर की बातें करती रहती है l इतिहास की बातों से भला हमें क्या मतलब ?"

"वही तो माँ तुम्हें समझाना चाहती हूंँ , माँ l हमें इतिहास नहीं होना है ? बल्कि इतिहास में मौजूद कोई शिलालेख बन जाना है l हमारे होने की मुनादी कम - से - कम हो सके l इसीलिये हमें अपने नाम की लड़ाई लड़नी होगी l वरना हम इतिहास की धूल में मिल जायेंगे l आखिर पिता की तरह हमारी पहचान क्यों ना बने ? क्यों हम अपने वजूद की लड़ाई ना लड़े ? निमंत्रण पत्र पर हमारा नाम भी पिता के नाम के नीचे लिखा होना चाहिए l नीचे क्यों बल्कि बराबर में लिखा होना चाहिए l"

कैलेंडर : लघुकथा

आज कैलेंडर बहुत उदास था l दीवारों और हवाओं ने पूछा -"उदास क्यों हो , कैलेंडर भाई ?"

कैलेंडर मायूस स्वर में बोला - "यार लोग तारीखों को भी बाँटने लगे हैं l अपने पहले से बँटे होने का रंज तो था ही , मुझे l लोग तारीखों और महीनों को भी अब बाँटने लगे हैं l पहले साल में एक ही बार नववर्ष आता था l अब साल में दो - दो नववर्ष आने लगे हैं l आदमी- आदमी से में बँटता जा रहा है l "इतना कहकर कैलेंडर जोर जोर से रोने लगा l

हवा भी कैलेंडर को देखकर सिसकने लगी , बोली -"भाई , तुम इतने से परेशान हो l हवाओं में भी अब नफरत मिलाई जा रही है l लोगों को एक दूसरे से दूर करने की एक कवायद सी चल पड़ी है l इंसानी रिश्ते तार - तार हो रहें हैं l"

रँगों ने अपना दुखड़ा रोया -"भाई तुम लोग सही कह रहे हो l अब रंगों को भी बाँटने में लगे हैं , ये लोग l सोचो बिना रँगों और त्योहारों के कैसा होगा आदमी का जीवण l सचमुच खाई बढ़ाने की ये एक अनोखी कवायद सी चल पड़ी है l"

तीनों भविष्य की ओर ताक रहें थें l

दीवार बोला - "आदमी जब टुकड़ों में बँट जायेगा तो बचेगा क्या ?"

तीनों लोग मायूस होकर दीवार को ताकने लगे !

बदलाव : लघुकथा

"बेटा , जरा पानी का ग्लास देना l "मीरा देवी ने कुणाल को आवाज दी l

कुणाल पन्नी से दवाईयाँ निकाल रहा था -"हाँ माँ , अभी देता हूँ l"

कुणाल दवाई देने से पहले दवाई की एक्सपायरी डेट चेक करने लगा l

"बेटा जरा , पानी का ग्लास देना l "मीरा देवी ने दुबारा कुणाल को आवाज लगाई l

कुणाल की नजर दवाईयों पर ही टिकी थीं l

तभी वहाँ खड़ी नर्स मरिया ने आगे बढकर पानी का ग्लास मीरा देवी की तरफ बढ़ाया l लेकिन मीरा देवी तुरंत पीछे हट गईं l जैसे उन्हें किसी बिच्छू ने डंक मारना चाहा हो l

इस अप्रत्याशित घटना पर मरिया चौंक गई l उसका चेहरा फक्क से सफेद पड़ गया था l वो यकायक कुछ समझ नहीं पाई l

मारिया ने ग्लास वापस टेबल पर रख दिया l

"क्या , हुआ माँ तुमने मरिया के हाथ से पानी का ग्लास क्यों नहीं लिया ? अभी - अभी तो तुम पानी माँग रही थी l"

मीरा देवी पहले सकुचाई , फिर बोली -"ये , मरिया कौन जात है , पता नहीं l आजकल नान्ह जात वाले जात के साथ साथ धर्म भी बदल ले रहें हैं l मैं ऐसे किसी के हाथ से पानी नहीं पी सकती l जा ग्लास धोकर दूसरा पानी का ग्लास भरकर ले आ l"

"धत् इतनी सी बात माँ , इससे क्या होता है l आजकल जात पात कौन मानता है l ये सब पुरानी बातें हैं l है तो आखिर वो भी इंसान l हमें इतना नहीं सोचना चाहिए l छूआ - छूत और जात - बिरादरी से हम बहुत आगे निकल चुके हैं l किसी के बारे में इतना गलत तरीके से नहीं सोचना चाहिए l और फिर तुम्हारा जो इलाज कर रहें हैं , डॉक्टर साहब वो भी तो मुसलमान हैं l"

"क्या ,डॉक्टर साहब मुसलमान हैं ?"

"हाँ , और क्या l देखती नहीं कितना बढ़िया से वो इलाज करतें हैं l मरीजों का आधा - आधा घँटे तक देखते हैं l तुम्हारा हाल चाल भी आकर पूछते रहतें हैं l कितने मृदु भाषी हैं , डॉक्टर रहमान l"

"मैं तो उनका नाम भी नहीं जानती थी l बड़ा भला मानस आदमी है , डॉक्टर रहमान l हमेशा हँसता रहता है l भगवान् उसको लंबी उम्र दे l तुम ठीक कहते हो बेटा , दुनिया बहुत आगे निकल गई है l"

इस घटना के बाद मरिया अवाक होकर मीरा देवी की बातें सुन रही थी l उसे अपने किये का अफसोस भी हो रहा था l कि नाहक ही उसने पानी का ग्लास मीरा देवी की ओर बढ़ाया था l लेकिन, मीरा देवी की आँखें कुणाल की बातें सुनकर खुल गईं थी l

"बेटी , मरिया मुझे माफ कर दो l "और मीरा देवी ने दोनों हाथ मरिया के आगे जोड़ दिये थे l

मरिया अवरद्ध कँठ से बोली - "अरे नहीं माँ जी आप तो उम्र में मुझसे बहुत बड़ी हैं l मुझे शर्मिंदा मत कीजिए l"

ए. आई. : लघुकथा

"मालिक एक बात पूछें l"

"हूँ l"

संगम ने कपड़ों के गठ्ठर लपटते , बिज्जू की ओर देखा l

"छोट बाबू आजकल बड़ा उदास -उदास से रहते हैं ? क्या बात है ?"

"हाँ , नौकरी की तलाश में है l नौकरी मिल नहीं रही है l इसलिये उदास - उदास सा रहता है , रोहित l"

"पढ़ाई तो छोटे बाबू ने बहुत की है l पर उनको नौकरी काहे नहीं मिल रही है l"

"नौकरी मिल रही है l लेकिन वो पच्चीस तीस हजार की नौकरी करेगा ही नहीं l"

"हाँ , छोटे मालिक तो पहले से कहत रहें कि पढ़ाई करने के बाद पँद्रह बीस लाख सालाना का तो पैकेज आसानी से मिल जायेगा l"

"तुम नहीं समझोगे बिज्जू l अभी ए. आई. का जमाना है l ए. आई . यानी कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का समय आ गया है l आदमी के दिमाग से भी ज्यादा तेज काम करने वाली मशीनें आ गईं हैं l जो आदमी का काम आदमी से बहुत बेहतर तरीके से कर दे रहीं हैं l जैसे किसी सॉफ्टवेयर को बनाना , उसको डेवलप करने का काम पहले आदमी करता था l उस समय उसको पँद्रह बीस लाख का पैकेज बड़ी आसानी से मिल जाता था l लेकिन अब ये काम दक्ष मशीनें कर रहीं हैं l यही नहीं सॉफ्टवेयर बनाने से लेकर डेवलप करने के साथ-साथ उसमें और क्या सुधार हो सकता है l इस काम को भी ए. आई. ही कर रही है l छोटे बाबू को जो पैकेज मिल रहा है l वो पच्चीस-तीस हजार रुपये महीने का मिल रहा है l और छोटे बाबू इतने कम सैलरी में काम करने को तैयार नहीं हैं l उनके मँसूबे बहुत बड़े - बड़े थें l लेकिन, ए. आई. ने सब पर पानी फेर दिया है l इसलिए छोटे मालिक उदास - उदास से रहते हैं l

सोच रहा हूँ , रोहित को कल से टेंट वाले काम पर यहीं दुकान पर बुला लेता हूँ l मदद की मदद भी हो जायेगी l और लड़का कुछ काम- काज भी सीख लेगा l"

"धत् मरदे एतना पढ़ने- लिखने के बाद भी छोटे बाबू ये काम करेंगे ? टेंट वाला ? फिर , एतना पढ़ने लिखने का क्या फायदा ?"

बिज्जू ने अपने मन की बात कही l

"क्यों नहीं करेगा ? अपना काम तो इस सॉफ्टवेयर वाले काम से बढ़िया ही है , ना l शादी- ब्याह का , टेंट का , खाने- पीने का एक काम भी आ गया तो पाँच - छह लाख रूपये तो आ ही जाता है l अगर साल भर में दस-बीस काम भी पकड़ लेगा तो क्या खराब है ?"

"ए , मालिक कल को ई ए. आई . टेंट पंडाल लगाने के लिए गढ्ढा भी खोदेगा का , और बाँस में काँटी भी ठोकेगा क्या , कपड़ा भी बाँधेगा का , खाना - ओना भी पकायेगा का ?"

"हाँ , भाई आने वाले टाइम में ऐसा भी होगा ?"

"मालिक ई ए. आई. किसने बनाया , आदमी ने ?"

"हूँ l"

"ससुरा , ई आदमी जो है , ऊ कालीदासे है l जिस डाली पर बैठा है l उसी को काट रहा है l जब ए. आई. के आने से उसका वजूदे खुदे खत्म हो जायेगा l तो वो ऐसी बेकार की चीज़ें बनाता ही क्यों है l लगता है इस आदमी का मुँहें नोच लें l ससुरा बेकार की चीजें बनाता है l अब छोटे मालिक जैसों को बेरोजगार को दिया l आदमी को बाल - बच्चा को पढ़ाने में कम पइसा लगता है का l तब तो छोटे मालिक से हमीं लोग बेहतर हैं l काला अक्षर भैंस बराबर l इसीलिये सुदीपवा को हम नहीं पढ़ाये l और कमाने डिल्ली भेज दिये l और मालिक आपके आशीवाद से बीस - बाईस हजार ऊ भी कमा ही लेता है l आज के डेट में पढल - लिखल और अनपढ़ सब बराबरे हो गया है ना l अच्छा मालिक कल को अगर ई ए. आई. टेंट का काम माँगने आयेगा तो हमको आप हटा दीजियेगा l"

संदीप ने टाला - "उसमें टाइम है अभी l इतनी जल्दी नहीं आयेगा l टेंट लगाने वाला ए. आई. l"

लेकिन, संदीप को झुरझुरी सी आई l कल को उसके वजूद पर भी तो खतरा था !

पँखों को परवाज़ चाहिए : लघुकथा

"मम्मी , मम्मी देखो ना यहाँ खेल की दुकान है l मुझे एक क्रिकेट का बैट खरीद दो ना l "पल्लवी ने अनुनय कर अपनी मम्मी अंतरा से कहा l

"तुम , बैट का क्या करोगी , पल्लवी ? भईया का प्लास्टिक वाला बैट है l तुम , उससे ही खेलना l तुम्हें कौन सा क्रिकेटर बनना है l क्रिकेटर तो लड़के बनते हैं l धोनी , विराट , चहल ये सब लड़कों के नाम हैं l और इन पुरूष चेहरों को ही सब कोई जानता है l ये सब लड़कों के खेल हैं , बेटी l लड़कियाँ क्रिकेट नहीं खेलतीं l तुमने सुना है किसी महिला क्रिकेटर का नाम l वैसे भी इस खेल को खेलने के लिए बहुत ताकत चाहिए होती है l तुम तो पहले से ही कमजोर हो , बेटी l "अंतरा ने पल्लवी को समझाया l

"मम्मी , भईया अपना प्लास्टिक वाला बैट मुझे नहीं देता है l और वो बैट लुचपुच भी है l बॉल खेलते समय बैट मुड़ जाता है l मुझे लकड़ी की बैट चाहिए l बढ़िया वाली l जिससे मैं लँबे - लँबे छक्के लगा सकूँ l मैं अपने देश के लिए खेलना चाहती हूंँ , मम्मी l रणजी मैचेस l फिर नेशनल - इंटरनेशनल मैचेस भी l मैं भी ट्रॉफी जीतूँगी मम्मी, भईया की तरह l जैसे भईया स्कूल में ट्रॉफी जीतता है l"

"ले , दो ना एक बैट , मम्मी l पल्लवी एक , बैट ही तो खरीदने को कह रही है , बेचारी l कौन सा खजाना माँग रही है l" पँद्रह साल का नकुल भी बहन को फेवर करने लगा l

"अरे क्या करेगी बैट लेकर , पल्लवी l कल को तो इसे दूसरे के घर ही तो ब्याहना है l कल को वो , अपने घर चली जायेगी l तब बैट -बॉल का क्या करना है l चूल्हा - चौका ही तो जाकर करना है l क्या अपने ससुराल वालों को बैट बॉल पकाकर खिलायेगी ? वैसे भी औरत को चूल्हा- चौका करना ही शोभा देता है l ये समाज बाहर , निकलकर काम करने वाली औरतों को आवारा कहकर ही पुकारता है l लड़की जात को घर में ही रहना चाहिए l कल को कुछ ऊँच-नीच हो गई तो ?"

"मम्मी जब पल्लवी की शादी होगी , तब होगी l अभी तो एटलीस्ट उसे खेलने दो l कंजर्वेटिव होना कहीं से भी ठीक नहीं है , मम्मी l हरमन प्रीत कौर "भुल्लन", स्मृति श्रीनिवास वँदना , सिमरन बहादुर ,दीप्ती शर्मा ,पूजा वास्ट्रेकर ,वास्तिका भाटिया ये सब हमारी महिला क्रिकेट टीम की सदस्या हैं l जिनको एक बड़ा फेम हासिल है l आज की तारीख में l

अगर , मिथाली राज के पापा ने उसे बैट खरीदकर नहीं दिया होता l तो क्या आज वो इतनी बड़ी क्रिकेटर बन पाती ? नहीं ना l और झूलन गोस्वामी की तरह उनके माँ- बाप ने या उसके कोच ने उसको सपोर्ट ना किया होता l तो आज भारतीय क्रिकेट की महिला टीम कभी बन ही ना पाती l बन भी जाती तो अधूरी टीम ही रहती l खैर , आप तो खुद एक महिला हैं l आपका तो कम-से-कम पल्लवी को मोरल सपोर्ट एक महिला होने के नाते मिलना ही चाहिए l"

"आँए , महिलायें भी अब क्रिकेट खेल रहीं हैं l"

"हाँ , तो और क्या ?"

"क्या नाम बताया तुमने उनका ?"

"हरमन प्रीत कौर "भुल्लन", झूलन गोस्वामी, मिथाली राज ... मिथाली राज तो कप्तान भी थीं l हरमन प्रीत कौर भी कप्तान हैं l"

पल्लवी उत्साहित होकर बोली l जैसे मिथाली राज या हरमीत कौर "भुल्लन" वही हो l

अंतरा - "तब तो , आज ही एक नया बैट खरीदना होगा l"

अंतरा , पल्लवी और नकुल तीनों दुकान में पहुँचे l

"भैया , एक बैट दिखाना l"

"ये लो बहन जी l चार सौ का है l"

"ये तो बहुत छोटा है l बड़ा दिखाओ l"

"मँहगी होगी , बड़ी वाली l"

"ये लीजिये बहन जी , ये तेरह सौ का है l टेनिस बॉल से खेलना के लिए है l"

"नहीं , डियूज बॉल की दिखाओ l"

"वो , तो मँहगी आयेगी l चार - पाँच हजार की एक आयेगी l दिखा दूँ ?"

"कोई बात नहीं दिखाओ l बिटिया को रणजी और इंटरनेशनल मैच खेलनें हैं l चिंडियाँ की उडान जब लँबी हो तो चिंड़ियाँ के पँखों को मजबूत करना होता है l और पँजो में मजबूती नियमित अभ्यास से ही आती है l"

"ये देखो दीदी , सबसे मजबूत कैन हेंडल वाली बैट छ: हजार की आयेगी l सबसे बढ़िया वाली है l इसमें देखो मिताली के ऑटो ग्राफ भी हैं l दे दूँ l"

पल्लवी चहक उठी - "हाँ , यही वाली बैट लेनी है , मुझे l यही वाली बैट लेनी है l"

अंतरा -"पैक कर दो इसे भईया l ये नन्हीं चिंडियाँ जब तक मेरे पास है l इसे उड़ने दो !"

सीख : लघुकथा

एक बार एक अमीर आदमी ,एक कीमती गाड़ी से गाँव की तरफ से गुजर रहा था l रास्ते में उसे एक किसान और उसके साथियों का एक जत्था दिखाई पड़ा l वो , होली पर अपने साथियों के साथ बैठकर फाग गा रहें थें l अमीर आदमी ने अपने ड्राईवर से गाड़ी रोकने को कहा l गाड़ी रूकी और अमीर आदमी गाड़ी से नीचे उतरकर उस जत्थे के पास जाकर रूका l

वो , किसानों के उस सरदार से मुखातिब होकर बोला - "मैं , जान सकता हूँ , तुम्हारी इस खुशी का राज क्या है ? मुझे देखो मेरे पास रूपया , पैसा , धन , दौलत , हीरे- पन्ने , गाड़ी - घोड़ा , दुनिया के सारे संसाधन मौजूद हैं l लेकिन चैन नहीं है l इतना कुछ होने के बावजूद भी मुझे लगता है l कुछ कमी है l मेरे पास इतना वैभव , ऐश्वर्य है l कि मैं जो चाहूँ l वो क्षण भर में प्राप्त कर सकता हूँ l लेकिन चैन नहीं है l"

किसान ,कुछ देर चुप रहा l फिर बोला - "आपको अधिक चाहिए l शायद आप इसीलिये परेशान हैं l अब मुझको देखिए l कल की ही बात है l कल देर रात तक बारिश होती रही l मेरी खेतों में खड़ी फसल खराब हो ग ई l लेकिन, फसल है l खराब हो गई तो क्या किया जा सकता है l ये सब मालिक की मर्जी है l उसमें कोई क्या कर सकता है ? आदमी को संतोष करना चाहिए l इतनी उम्र हो गई l क ई बार अकाल , बाढ़ आये l लेकिन मैं , आज भी जिंदा हूँ l आदमी , जिंदगी में अपनी परेशानियों से लड़ता है l अंत में जो बचेगा वही अपना है l दोपहर का समय था l खाना खाने का समय हो गया था l

किसान के और साथी भी खाना खाने चले गये थें l किसान ने अपनी पोटली निकाली और उसे चौकी पर रख दिया l आईये सेठजी दोपहर का समय हो गया है , कुछ जलपान कर लीजिए l किसान को बहुत तेजी से भूख लग आई थी l उसने दरवाजे पर आये अमीर आदमी को भोजन के लिए पूछना उचित समझा l किसान ने पोटली खोली l जिसमें कुछ रोटियाँ, प्याज के कुछ टुकड़े और , और सालन -आचार था l"

अमीर आदमी संकोच वश कछ नहीं कह पाया l लेकिन, अमीर आदमी को भी जोरों की भूख लग आई थी l वो ज्यादा देर तक किसान की बात को अनदेखा नहीं कर सका l

दुबार किसान ने फिर जोर दिया तो अमीर आदमी खाने लगा l

दोनों लोग जब खाना खा चुके चुके तो अमीर आदमी चलने को हुआ l उसने जेब से पैसे निकालकर किसान की तरफ बढ़ाया l

लेकिन किसान ने पैसे लेने से मना कर दिया l

किसान बोला - "आप मेरे अतिथि हैं l आपको खाना खिलाकर भला मैं पैसे लूँगा ? आप मुझे लज्जित ना करें ? क्षमा चाहता हूँ , महाशय मैं आपसे पैसे नहीं ले सकता l"

अमीर आदमी अपने व्यहवार पर बहुत लज्जित हुआ l वो , अपने रेस्टोरेंट में खाना खाने वाले हर आदमी से पूरे पैसे लेता था l उस आदमी का सीधा सा हिसाब था l "घोड़ा घास से दोस्ती कर लेगा तो खायेगा क्या ? "l यहाँ तक कि दो तीन बार सालन माँगने वाले ग्राहक पर वो अलग से बिला वजह चार्ज कर देता था l किसान का व्यहवार देखकर आज उसे अपने छोटे पन का एहसास हो आया था l

गर्म कोट : लघुकथा

चारों तरफ शादी- ब्याह का शोर था l अरूण के छोटे भाई प्यारे लाल की आज शादी थी l

अरूण , बाहर बारात का इंतजार कर रहा था l वो स्टेज की तरफ मुड़ने ही वाला था l कि उसकी नजर एक बूढ़े पर पड़ी जो इस ठंड में भी अपने हाथों से बैंड का ड्रम बजाये जा रहा था l चारों तरह शोर था l लेकिन उस ड्रम मास्टर का शर्ट आधे से ज्यादा ऊपर से खुला था l बूढ़ा ड्रम मास्टर बीच - बीच में ड्रम बजाते - बजाते ठंड से काँपने लगता था l अरूण को अंदर कोट -पैंट पहनने के बावजूद ठंड लग रही थी l फिर , उसने बूढ़े को देखा l लाल - सफेद मारकीन की शर्ट उसकी गरीबी का खूब बखान कर रही थी l

वो ,बूढ़े के पास गया और बूढ़े से बोला - "बाबा , आपकी शर्ट फटी हुई है l"

"जी , बाबूजी घर पर बढ़िया शर्ट थी l लेकिन धुली हुई नहीं थी l इसलिए हड़बड़ी में यही पहन कर निकल गया l आपको कोई ऐतराज तो नहीं है , बाबूजी l"

"फिर , भी ठंड बहुत है l"

"आपको तो कोई उज्र नहीं होगा , बाबूजी l"

"नहीं , ऐसे ही पूछ लिया ..l"

"सच कहो , घर में सचमुच कपड़े हैं ?"

बूढ़ा बगलें झाँकने लगा l

सींकिया सा दिखने वाला वो बूढ़ा ठंड से काँप रहा था l

"गौरी बाबू को दो सौ रूपये मिलते हैं l एक शादी में जाने के लिए l घर में खाना- पीना बहुत मुश्किल से जुटता है l गर्म कपड़े बेचारे कहाँ से खरींदेंगे ? बेटा बात भी नहीं पूछता l "एक अधेड सा दिखने वाला आदमी जो शायद उसी बैंड पार्टी से था , बोला l

"तुम कौन ?"

"मैं , देहाती हूँ l चचा के घर के बगल में ही रहता हूँ l" अधेड़ ने कहा l

अरूण ने देहाती को देखा - "हूँ ..l"

"चचा ,ये आपके पैरों से तो खून रिस रहा है l"

"हाँ , बेटा ठंड में पैर , फट जाते हैं l"

पता नहीं अरूण को क्या सूझा l चचा जरा इधर आना l अरूण ने अपना कोट निकाला l और बूढ़े को पहना दिया l

बूढ़ा अरे बाबूजी, अरे बाबूजी कहता रह गया l

तब तक अरूण अपने जूते भी उतार चुका था l उसने बूढ़े का पैर पकड़ कर जूते पाँव में डाल दिये l

शादी में आये सारे लोग अरूण को ही ताक रहें थें l

अरूण ने झेंपते हुए बारातियों से कहा l आपलोग जयमाला करवाइये l मैं अभी आता हूँ l

सींकियाँ , बूढ़े की आँखों में कृतज्ञता के भाव थें l

अरूण बूढ़े की आँखों में देखते हुए बोला - "दर असल मेरे पिता जी भी बैंड बजाते थें l उनकी मौत भी ठंड लगने से ऐसे ही ठंड के महीने में हो गई थी l मैं नहीं चाहता कि कोई दूसरा बाप भी ठंड से वैसे ही मर जाये l"

बूढ़े ने अरूण को गले से लगा लिया था l

आखिरी प्लेट : लघुकथा

मनोज ने मँटू को पुकारा -"भाई , खाने की ये आखिरी प्लेट बची है l तुम्हारे लिये लगवा दिया है l आकर खा लो l"

"हाँ , आता हूँ ,भाई l"

तभी मँटू की नजर एक बुढ़िया पर पड़ी l जो , ठंड में जूठे प्लेटों को साफ कर रही थी l

वो , बुढ़िया के पास जाकर बोला - "माई आपने कुछ खाया पीया या नहीं l ठंड भी तो बहुत है l आपको ठंड लग जायेगी l चलिये उठिये यहाँ से l"

बुढिया ने कहा -"नहीं बेटा ठीक है l ये तो मेरा रोज का काम है l जाने दो l अब तो सीधे घर ही जाना है l"

अब मँटू से नहीं रहा गया l मँटू ने बुढ़िया को हाथ पकड़कर उठाया l और वहीं पास में रखी , कुर्सी पर ले जाकर जबजस्ती बिठा दिया l

बुढ़िया , ठंड से काँप रही थी l

मँटू दौड़कर कॉफी वाले लड़के के पास गया l और एक कॉफी लाकर बुढ़िया माई को दिया l

साँवली सी वो बुढ़िया ,मरियल से चेहरे वाली थी l बुढ़िया के शरीर पर एक पुराना स्वेटर जो कि रद्दी हो गया था l वो उसके शरीर से झूल रहा था l

मँटू ने फिर पूछा -"कुछ खाना- वगैरह , खाया माई आपने ?"

"बाद में खा लूँगी , बेटा अभी तो बहुत काम है l"

"बाद , में कब खाओगी माई ? खाना , तो अब खत्म हो चुका है l"

मँटू आगे बढ़ा और अपने लिए सजाई गई प्लेट को उस बुढ़िया के हाथ में रख दिया l

"लेकिन, बेटा तुम क्या खाओगे ? ये तो आखिरी प्लेट है l"

"माई , मैंने शाम को बाहर ही बहुत कुछ खा लिया था l पेट भरा - भरा लग रहा है , अभी तक l"

बुढ़िया, पूरियों का कौर को तोड़कर धीरे- धीरे खाने लगी थी l

खाते - खाते बुढ़िया बोली - "बेटा एक बात कहूँ l इतने सारे लोगों में सिर्फ तुम्हारा ही ध्यान इस ओर गया था , कि मुझे ठंड लग रही है l याकि मैं भूखी हूँ l बाकी सब लोग तो जैसे अपने में व्यस्त थें l किसी ने मेरी बात भी नहीं पूछी l लगता है , तुम किसी जन्म के देवता हो बेटा l"

"नहीं माँ l मेरी माँ , बहुत ही गरीब थी l रोड़ी- बजरी , रोड़ पर बिछाती थी l मैं जब आठ साल का था l तो मेरी माँ मर गई l इसलिए हर बूढ़ी औरत मेरी माँ की तरह मुझे दिखती है l"

बुढ़िया का खाना खत्म हो चुका था l

बुढ़िया जाने को हुई l

मँटू ने टोका - "रूको माई , मेरा कोट लेती जाओ l इससे तुम्हें ठंड से राहत मिलेगी l"

मँटू ने अपना कोट उतारा l और बुढ़िया के शरीर पर डाल दिया l

बुढ़िया की आँखें भींगनें लगी थी l उसने मँटू को गले से लगा लिया l

अनमोल चीज : लघुकथा

तन्मय बदहवास सा भागता हुआ ,मँगत लाल की दुकान पर पहुँचा था l साँसों को किसी तरह व्यवस्थित करता हुआ , बोला - "मेरे घर से अभी - अभी रद्दी लेकर तुम्हीं आये थे ना , चाचा l उसमें एक साड़ी थी l बहुत पुरानी l तुमने देखी थी ,वो साड़ी ? जुली ने लापरवाही वश आनन- फानन में बिना देखे ही रद्दी तुम्हें बेच दिया था , चाचा l उससे बहुत बड़ी भूल हो गई l मैं होता तो बगैर जाँचे तुम्हें रद्दी नहीं बेचता l मैं तो बाजार चला गया था , सौदा लाने l"

तन्मय जैसे सफाई देता हुआ बोला l

मँगत राम किसी की आई हुई पुरानी रद्दी तौल रहा था l रद्दी तराजू पर चढ़ाते हुए बोला -"बहुत कीमती साड़ी थी , क्या बेटा ? उसमें सोना चाँदी तो नहीं जड़ा था ?"

"नहीं सोना-चाँदी तो नहीं जड़ा था l ताँत की सफेद साड़ी थी l साईड में ब्लू रंग का पाढ़ था l आपने देखी थी क्या ?"

मँगत लाल कुछ नहीं बोला l

"वो रद्दी कहाँ रखी है आपने ?"

मँगत लाल बोला - "वो , देखो कोने में रखी हुई है l सफेद वाले बोरे में l"

तन्मय ने तेजी से बोरा खोला l और रद्दी खँगलाने लगा l बोरे में बहुत नीचे वो ब्लू पाढ़ वाली सफेद साड़ी झाँक रही थी l तन्मय की खुशी का कोई ठिकाना ना रहा l

"मँगत चाचा , मिल गई l"

मँगतलाल ने साड़ी को हाथ में लेकर देखा l सफेद रंग की साड़ी जगह - जगह से फटी हुई थी l उस पर जगह - जगह जलने के निशान भी मौजूद थें l जो शायद चूल्हे पर खाना बनाते समय जल गये थें l रद्दी में कोई पाँच रूपये भी ना देता उस साड़ी के l

"पाँच सौ रूपये लगेंगे , बेटा l इस फटी हुई साड़ी के l "मँगतलाल ने मजाक में कहा l

तन्मय ने बटुए से पाँच सौ रूपये का नोट निकालकर बेहिचक मँगत लाल के हाथ पर रख दिया l

फिर बोला - "चाचा , आपने बहुत कम पैसे इस साड़ी के माँगे थें l अगर आपने पाँच हजार रूपये भी माँगे होते तो मैं खुशी - खुशी दे देता l ये मेरी माँ आखिरी निशानी है l"

वो साड़ी लेकर आगे बढ़ने को हुआ l तो मँगत लाल ने टोका -"सुनो बेटा , मैनें अभी बहू को रद्दी के पैसे दिये नहीं हैं l ये पाँच सौ रूपये का नोट वापस लेते जाओ l बड़ी अजीब , बात है l कोई , इतनी , मामूली , चीज के कोई पाँच सौ रूपये दे देगा l मालूम ना था l"

"आपके लिए ये मामूली होगी , मँगत चाचा l मेरे लिए तो ये मेरी माँ की आखिरी निशानी है l"

दवाई : लघुकथा

"ये इतनी बी. पी. और शूगर की दवाईयाँ एक साथ क्यों लेकर आये हो l दुकान खोलनी है क्या ? बाजार कौन सा बँद होने वाला है ? "रमावती देवी टेबल पर पड़ी पन्नी को देखते हुए बोलीं l

गौरव कुछ नहीं बोला l

तो , रमावती देवी फिर बोलीं - "ये , सारी दवाईयाँ तो मेरी हीं हैं l लेकिन , इतनी सारी दवाईयाँ मैं समझ नहीं पा रही हूँ l"

"माँजी , आप न्यूज नहीं देख रहीं हैं l बाहर कोरोना बढ़ रहा है l कहीं फिर , लँबा लॉकडाउन लगा तो l आपकी दवाईयाँ कैसे आ पायेंगी ? इसलिए इन्होंने एक साथ पाँच - पाँच पत्ते लाकर रख दिया है l अगले पाँच महीनों के लिये l लॉकडाउन कहीं फिर लँबा लगा तो ? "ऋचा पानी का गिलास गौरव को थमाते हुए बोली l

"फिर , भी घर में और जरूरी सामान भी तो लाना पड़ता है l इससे तो और जरूरी काम रूक जायेंगे l भला क्या जरूरत थी l इतनी दवाओं की ? घर में इतने छोटे-छोटे बच्चे हैं l उनके पढ़ने - लिखने और खाने पीने की चीजें घर में आनी चाहिए थीं l तुमने बेकार ही पैसे खर्चे l "रमावती देवी बोलीं l

"वैसे , भी मुझ बुढ़िया का क्या है ?अब तब में गई l"

"ऐसा , ना कहो माँ , पिताजी के जाने के बाद तुमने ही मुझे पाल पोसकर बड़ा किया है l अब तो तुम्हारी सेवा करने का सौभाग्य मुझे मिला है l पिता को खो चुका हूँ , माँ l अब तुम्हें नहीं खोना चाहता l माँ ,तुम्हारे लिये दवाईयाँ जरूरी हों ना हों l l लेकिन, मेरे लिए माँ बहुत जरूरी है l"

रमावती देवी का भी गला भर्रा आया था l गौरव को उन्होनें अपने गले से लगा लिया l

आउटडेटेड : लघुकथा

"मेरी मानो तो इस पुराने आउटडेटेड कंप्यूटर को मत बनवाओ , बेटा l ये बहुत मँहगा पड़ेगा l संभव है , ना भी बने l ये सरासर बेवकूफी ही होगी l आप कोई नया कंप्यूटर या लैपटॉप ले लो बेटा l आज कल मार्केट में तो बढ़िया - बढ़िया , कंप्यूटर आ गये हैं , बेटा l

"कंप्यूटर मैकेनिक पुराने गँदे कंप्यूटर पर नजर फिराते हुए बोला l

"नहीं ,पैसे की कोई बात नहीं है l आप प्लीज इसे किसी तरह चालू कर दीजिए l"

मैकेनिक -"इसे सरासर बेवकूफी ही कहेंगें बेटा जी l खैर ; इसे छोड़ जाईये मेरे पास l देखता हूँ l बना तो ठीक नहीं तो ..l"

"नहीं - तो मत ही कहियेगा. .l ये कहिये कि जरूर बन जायेगा l "युवक मिन्नत करते हुए बोला l

"इस शहर में सबसे पुरानी आपकी ही दुकान है l आपका लोग बड़ा नाम लेते हैं l"

"आखिर , ऐसा क्या है ? इस कंप्यूटर में ? "मैकेनिक चश्मे के पीछे से झाँकते हुए बोला l

"दर असल ये कंप्यूटर मेरी माँ ने गिफ्ट किया था , मुझे l और ऐसे समय में मुझे गिफ्ट किया था l जिस समय मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था l उस समय मैं कुछ भी नहीं था l मेरी माँ ने पाई - पाई जोड़ कर ये कंप्यूटर खरीदा था l ये मेरी माँ की दी हुई सबसे अनमोल निशानी है l मेरी माँ दोने बनाती थी l उसी पैसे से ये कंप्यूटर मेरे लिये खरीदा था l

इसलिए , ये मेरे लिये दुनिया की सबसे कीमती चीज है l"

बूढ़े कंप्यूटर मैकेनिक के पैर काँपने लगे l दुनिया में ऐसे - ऐसे भले लोग भी हैं l मैकेनिक को अपने बहू की गालियाँ सुनाई पड़ने लगीं -

".. ये बूढ़ा डस्टबिन है ..इसको कब निकालकर बाहर फेंक रहे हो ?"

"बन जायेगा ना l "युवक ने आश्वस्त होना चाहा l

"जान लगा दूँगा बेटा l अपनी उम्र का जितना तजर्बा है l सब लगा दूँगा l अब भला इतने प्यार करने वाले लोग कहाँ मिलतें हैं ?"

मैकेनिक की आँखें छलछला आईं थीं l

अनोखा उपहार : लघुकथा

एक चौक पर एक लँगड़ी बुढ़िया भिक्षाटन करके अपनी जीविका चलाती थी l दीपावली का दिन था l उसकी तबीयत उस दिन खराब थी l बावजूद इसके किसी तरह वो लँगड़ाती हुई अपने नियत स्थान के चौक पर पहुँची l लेकिन सुबह से शाम हो गयी कोई भीख देने वाला उसको उस दिन नहीं आया l लोग बाजार तो आते l लेकिन, लँगड़ी बुढ़िया की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता l सब लोग कँदीले , दीये , और मोमबत्तियाँ खरीदने में मशगूल थें l कोई पटाखे , खरीद रहा था l तो कोई मिठाई l तो कोई कपड़े l बुढ़िया की उम्र बहुत हो चुकी थी l करीब सत्तर- अस्सी की रही होगी बुढ़िया l उसको अपने खाने पीने पहनने की कोई चिंता नहीं थी l उसकी चिंता तो बैजू को लेकर थी l बैजू वैसे तो उसका कुछ भी नहीं था l लेकिन बहुत कुछ था l दर असल बैजू को बुढ़िया ने एक ट्रेन में लावारिस पाया था l बुढ़िया ने ही उसको पाल- पोसकर बड़ा किया था l एक तरह से बैजू उसके पोते की उम्र का था l दोनों में बड़ा स्नेह था l बुढ़िया का क्या था l खाती , खाती l ना खाती , ना खाती l पहनती , पहनती , ना पहनती ना पहनती l लेकिन, बच्चों को नये कपड़े , और मिठाई ना मिले l तो उनकी दीपावली कैसे मनती ?

बुढ़िया, इसी चिंता में डूबी थी l अब शाम होने को हो आई थी l सूरज भगवान डूबने वाले थें l चाँद भी आकाश में थोड़ा - थोड़ा दिखाई देने लगा था l लँगड़ी बुढ़िया ने

चौक से उसने अपना फटा बोरा और कटोरा उठाया l और घर की ओर बड़े दु:खी मन से चलने को हुई l तभी उसे एक सज्जन आदमी जो वेशभूषा से कोई बड़ा सेठ लग रहा था l उसकी ओर आता दिखाई दिया l

ये सज्जन आदमी बुढ़िया के पास बहुत पहले भी कई बार आ चुका था l लेकिन इस बार वो उस बुढ़िया के पास बहुत सालों के बाद आया था l

ये सज्जन अपने बेटे से बहुत परेशान रहता था l दर असल उसका बेटा विदेश में जाकर बस गया था l सेठ के घर में अकूत धन - संपत्ति थी l लेकिन संतान का सुख नहीं था l वो अक्सर बुढ़िया के पास आता था l और अपनी दीनता की कहानी कहता l बुढ़िया उसे दिलासा देती l कि ईश्वर पर विश्वास रखो l एक दिन तुम्हरा बेटा जरूर तुम्हारे पास लौट आयेगा l

सज्जन व्यक्ति के चेहरे पर प्रसन्नता साफ झलक रही थी l वो , बुढ़िया के पास आकर बोला l माई आज जानती हो मेरे साथ क्या हुआ ? आज मेरा बेटा विदेश से अपने परिवार के साथ लौटा आया है , हमारे घर में l हमारे साथ मेरे पोते के साथ l और कह रहा था l कि अब वो हमारे साथ ही हमेशा यहीं रहेगा l मैंने माता से मन्नत माँगी थी l कि अगर मेरा बेटा का मन फिर गया l और वो हमारे साथ विदेश से आकर रहने लगेगा l तो मै आपको प्रसाद चढाऊँगा l मैं , पूरे सालों भर तक मँदिर जाता रहा l रोज नियम से भगवान् को जल चढ़ाता रहा था l मैंने भगवान को वचन दिया था l कि जिस दिन मेरा बेटा विदेश छोड़कर यहाँ रहने के लिए लौट आयेगा l उस दिन मैं ग्यारह भूखे लोगों को खाना खिलाऊँगा l ईश्वर की भक्ति जीवण भर करूँगा l

लेकिन माई इसमें तुम्हारी भी कुछ सिद्धी है l तुम्हारा भी आशीर्वाद है l तभी मेरा बेटा लौट आया है l आज मैं इतना खुश हूँ l इतना खुश हूँ l कि अगर आज तुम मेरी पूरी दौलत भी माँग लो l तो मैं खुशी - खुशी दे दूँ l

बोलो , माई क्या माँगती हो ?

बुढ़िया, अपने पेशे से बहुत ईमानदार थी l वो भिक्षा में मिले अपने आनाज और रेजगारी पैसों से ही संतुष्ट थी l उसे बाहर से मिले किसी उपहार की कोई खास चाह नहीं थी l

बुढ़िया बोली -"बेटा रहने दो l तुम्हारा बेटा लौट आया यही मेरे लिये बहुत है l मुझे कुछ नहीं चाहिए l साईं का आशीर्वाद तुम्हारे घर पर बना रहे l मेरी भगवान् से बस यही कामना है l"

सज्जन आदमी ने अनुरोध किया -

"नहीं माई मेरे बेटे के लौटने में तुम्हारा आशीर्वाद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर जरूर है l इसलिए तुम्हें कुछ ना कुछ तो लेना ही होगा l"

"बेटा , तुम्हारी जो इच्छा हो l"

सज्जन, आदमी ने अपनी कार का दरवाजा खोला l और उसमें से मिठाईयों का एक बड़ा कार्टून l कपड़ों की थैली l पटाखों का एक पैकेट l दीयों की लड़ियाँ l और बैजू के लिये सोनपापड़ी का पैकेट निकाल कर बुढ़िया की झोपड़ी में रख आया l और फिर बुढ़िया माई के हाथ पर पाँच सौ रुपये के चार नोट रख दिये l बुढ़िया ने बैजू को जब पटाखे और कपड़े दिखाये l तो बैजू भी खुशी से मचल उठा l

बुढ़िया, ने आज दीपावली पर सालों से वीरान अपनी झोपड़ी में दीये जलाये l तो वो , झोपड़ी दीपों की रौशनी से जगमगा उठी l बुढ़िया, माई ने नहा - धोकर नई साड़ी पहनी l

और माता लक्ष्मी की पूजा की l आखिर, एक कार्टून मिठाई कौन खाता l मिठाई और फाजिल कपड़ों को उसने आस पड़ौसी के लोगों में बाँट दिया l

पतरकी ने पूछा -"माई , आज तेरी कोई लॉटरी लगी है , क्या ?"

बुढ़िया मुस्कराते हुए बोली -"आज साक्षात् भगवान् के दर्शन हुए हैं l नहीं तो आज उपवास करना पड़ता l और हमारी दीपावली फीकी - फीकी ही रहती l आज साक्षात साईं हमारे दरवाजे पर आये थें l सब उनकी ही कृपा हैl"

पतरकी को कुछ समझ नहीं आया l लेकिन ,नये कपड़ों और मिठाईयों से उसकी दीपावाली भी जगमगा उठी थी !

परिवार के साथ दीपावली : लघुकथा

बच्चू , हरगोविंद का छोटा भाई था l लेकिन, काफी धूर्त किस्म का आदमी था l वो , अपने भाई हरगोविंद से ईर्ष्या रखता था l हरगोविंद सीधा - साधा और मिलनसार स्वभाव का आदमी था l मुहल्ले के सारे लोग , हरगोविंद और मीनाक्षी की नेकनीयती की तारीफ करते ना थकते थें l इनके व्यहवार से मिली प्रसिद्धी के कारण बच्चू और मेघा उनसे मन - ही- मन जलते रहतें थें l बच्चू अपनी पत्नी की बात में आकर अलग मकान में रहने लगा था l

इस घटना के बाद दोनों भाईयों में जब कभी भी आमना - सामना होता, तो कोई बातचीत नहीं होती थी l बहुत लँबे समय से उनमें बातचीत बँद थी l धीरे - धीरे परिवार के दोनों भाईयों में दूरियाँ इतनी बढ़ीं की दोनों भाई एक - दूसरे की शक्ल देखना तक पसंद नहीं करने लगे l

दोनों भाईयों का गल्ले का व्यापार था l हरगोविंद की किस्मत ने जहाँ उसका बहुत साथ दिया था l और , वो दिन- दोगुनी और रात चौगुनी की रफ्तार से तरक्की कर रहा था l

वहीं बच्चू की तकदीर उसकी बीबी की तरह दगा दे गई थी l दर असल बच्चू की पत्नी मेघा को कैंसर हो गया था l और कैंसर से ही उसकी मौत हो गई थी l व्यापार तो इधर ठप था ही l रही - सही कसर बच्चू की बीबी की बीमारी ने पूरी कर दी थी l महाजनों का बहुत लंबा चौड़ा बकाया बच्चू पर चढ़ आया था l उसका घर भी बिक गया था l वो , कहीं किराये के घर में रहता था l महाजनों से भागता फिरता था l

मेघा की मौत ने बच्चू को तोड़कर रख दिया था l बच्चू , डूबते व्यापार और अपनी पत्नी की मौत से एकदम से सदमे में था l इधर दीपावली नजदीक आ गयी थी l लेकिन बच्चू की दुकान बँद - बँद रहती थी l ये बात हरगोविंद को उसके बेटे मनोहर ने बताई थी l

इधर कई सालों से हरगोविंद और बच्चू में कोई बात नहीं हुई थी l लेकिन बच्चू था , तो उसका भाई ही l

रात का समय था l बिस्तर पर लेटे - लेटे ही हरगोविंद ने मीनाक्षी से पूछा -

"मनोहर , इधर कह रहा था l कि बच्चू की दुकान बँद - बँद रहती है l ना हो तो उसे चलकर देख आते हैं l"

"हमारे बारे में वो उल्टा ही सोचेगा l "मीनाक्षी करवट बदलते हुए बोली l

"मेरे ख्याल से देख आना चाहिए l सुना है , बहुत बीमार है l"

"तुम ठीक कहते हो l कितना भी है l लेकिन है , तो हमारा अपना ही देवर l सुना है , बीमार भी है l"

"हूँ , तो कब चलना है ?"

"दीपावली के बाद चलते हैं l"

"तुमने भी बहुत ठीक कही l दीपावली तो हमारा इतना बड़ा त्योहार है l क्या हम इसे अकेले ही मनायेंगे ? देवर जी के साथ मनाना ठीक रहेगा दीपावली ? भला वहाँ कौन होगा ? उनके साथ दीपावली मनाने के लिये l"

"अकेले , बोर होता होगा बच्चू l"

"हाँ , उनके यहाँ तो कोई बोलने बतियाने वाला भी नहीं है l"

"तुम ठीक कहती हो l दीपावली के बाद जाने का कोई फायदा नहीं होगा l चलना है , तो दीपावली पर ही चलते हैं l"

"कुछ नेग ले लेंगे l मिठाई और कपड़े भी l"

"हाँ , ये ठीक रहेगा l ये तुमने ठीक सुझाया l"

"सुना है , बच्चू पर महाजन भी चढ़ आये हैं l"

"कोई , बात नहीं मनोहर को उसके गल्ले पर बिठाऊँगा l धीरे - धीरे सारा कर्जा उतर जायेगा l"

"ये , तुमने ठीक कहा l"

हरगोविंद को लगा था l कि मीनाक्षी नहीं मानेगी l और आसानी से चलने को राजी नहीं होगी l लेकिन, मीनाक्षी तुरंत राजी हो ग ई थी l

दीपावली के दिन , हरगोविंद, मीनाक्षी लक्ष्मी और मनोहर बच्चू से मिलने उसके घर पहुँचे l तो देखा बच्चू बिस्तर पर लेटा हुआ है l बच्चू के बाल बडे़ - बड़े हो गये थें l दाढ़ी बढ गई थी l उसका शरीर पहले से बहुत दुबला लग रहा था l घर की हालत बहुत बुरी थी l कपड़े गँदे हो गये थें l तीस का बच्चू कोई बूढ़ा सा लग रहा था l हरगोविंद उसको सहारा देकर बाथरूम तक ले गया l उसको नहलाया - धुलाया l सैलून ले जाकर दाढ़ी - बाल बनवाया l घर आकर नये कपड़े पहनाया l मीनाक्षी ने देखा , कि मेघा के गुजरने के बाद घर कितना गँदा और अस्त-व्यस्त हो गया था l उसने झाडू उठाया और पूरे घर को साफ किया l बिस्तर को झाड़ा l कपड़ों को धोया l और आँगन में सूखने के लिये डाल दिया l मीनाक्षी के साथ उसकी बेटी लक्ष्मी भी आई थी l गाय के गोबर से लक्ष्मी ने धूरे और आँगन को लीप दिया था l मीनाक्षी ने दोपहर के समय घर के चबूतर पर बहुत खूबसूरत रँगोली बनाई l और रात को बहुत सारे दीये जलाये l सचमुच दीयो से वो अँधेरा घर जगमगा उठा था l फिर सब लोगों ने रात में लक्ष्मी पूजन किया l मनोहर और लक्ष्मी ने ईको - फ्रेंडली पटाके फोड़े l आज बहुत दिनों के बाद बच्चू के घर में हँसी - ठहाके सुनाई पड़ रहें थें l फिर , पूजा के बाद हरगोविंद ने अपने भाई को लड्डू खिलाया l भाई - भाभी , भतीजे - भतीजी के घर में आ जाने से घर में एक नई रौनक आ गयी थी l उसे एक बारगी मेघा की याद आ गयी l लेकिन उसकी जो कमी थी l वो उसके परिवार के लोगों से पूरी हो रही थी l

बच्चू ने शीशे में अपने चेहरे को देखा l कुर्ता- पायजामा और रोली- टीके के कारण उसका चेहरा दमक रहा था l

भाभी ने मजाक में छेड़ा - "बच्चू , भैया आप तो फिर से जवान हो गये हैं l"

लेकिन , बच्चू की आँखों से पश्चाताप के आँसू बह रहे थें l

वो , अचानक से अपने बड़े भाई के पैरों पर गिर पड़ा l रोते हुए हरगोविंद से बोला -"भईया , मैंने आपके साथ कितना छल किया l लेकिन, आप मेरे लिये क्या सोचते थें l आपके कारण ही आज की मेरी ये दीपावली एक यादगार दीपावली बन गई l आप ना होते तो , मेरी सुध लेने वाला भला कौन होता ? ओह ! मैं और मेघा आपके बारे में कितना बुरा सोचते थें l लेकिन, आप तो महात्मा निकले l मैंने आपके साथ छल किया l मैं , सचमुच में बड़ा पापी हूँ l और वो जोर - जोर से रोने लगा l सचमुच परिवार के होने और ना होने का महत्व क्या होता है ? इसका मुझे आज पता चला है l"

हरगोविंद ने बच्चू को अपने सीने से लगा लिया l और उसके आँसू पोंछते हुए बोला -"कोई बात नहीं ,बच्चू l तुमने तो वो कहावत सुनी ही होगी l देर आये दुरूस्त आये l तुम्हें अपनी गलती का पछतावा हो रहा है l यही मेरे लिए बहुत है l पिताजी के गुजरने के बाद मेरा ये फर्ज है कि मैं तुम्हारी देखभाल अपने बेटे की तरह करूँ l मनोहर ने जबसे तुम्हारी हालत मुझे बताई थी l मीनाक्षी और मेरे मन में एक ऊहा-पोह सी मची थी l तुम्हें देखा तो संतुष्टि हुई l एक बात कहना चाहता हूँ l तुम्हारी तबीयत आजकल ठीक नहीं रहती है l इस तरह मैं , और तुम्हारी भाभी रोज - रोज यहाँ आ जा नहीं सकते l बेहतर होगा तुम हमारे साथ फिर से हमारे पुराने घर में चलकर रहो l इस तरह तुम्हारी देखभाल भी होती रहेगी l और तुम्हें परिवार का साथ भी मिलेगा l अकेले रहोगे तो और बीमार पड़ जाओगे l इसलिए तुम मेरे साथ चलो l"

बच्चू की आँखों से केवल आँसू बह रहें थें l जो खुशी के आँसू थें !

खर जितिया : लघुकथा

आज खर जितिया पर्व था l हर साल की तरह आस-पास की महिलायें अपने बच्चों की खुशहाली और तरक्की के लिये जितिया पर्व कर रहीं थीं l लेकिन डब्बू की माँ पिछले साल ही चल बसी थी l लंबी बीमारी के बाद ! अंत तक यानि कि पिछले साल तक , माँ ने बीमार रहते हुए भी डब्बू की सलामती के लिये खर जीतिया पर्व रखा था l डॉक्टर की तमाम तरह की बँदिशों और डाँटने - फटकारने के बाद भी l तभी उनके हालात बिगड़ने लगे थें l लेकिन , डॉक्टरों ने दो महीने में उनको रिकवर कर लिया था l लेकिन आज माँ नहीं थीं !

डब्बू सोच रहा था l दुनिया में माँ के अलावे कौन अपने बच्चों से इतना प्यार करता है ? माँ बीमार थीं फिर भी उसके लिये व्रत रखा था ! डब्बू के दिल में एक हूक सी उठी l उसका दिल भींगने लगा l आँखों के कोर से आँसू बहने लगे l डब्बू को इस दुनिया में सबसे प्यारी उसकी माँ लगती थी l

उसे जौ की रोटी और गुड की बहुत याद आ रही थी l जो माँ उसके लिये हर खर जितिया पर बनाती थी l

अब माँ नहीं है l अब , कौन बनायेगा उसके लिये जौ की रोटी और गुड ?

"बाबूजी , गूँथ दिया आपका जितिया l"

"कितना हुआ , कैलाश चाचा ?"

"तीस , रूपये बाबूजी l"

उसने पचास रूपये कैलाश चाचा के हाथ पर धर दिया l

लाल डोरी में सोने का ये वही जितिया था l जो माँ हर साल उसके गले में पहनाती थी ! उसका दिल फिर से भींगने लगा था l

उसने स्कूटर स्टार्ट कर दिया l कैलाश चाचा कहते रह गये l बेटा बाकी के पैसे तो लेते जाओ l

लेकिन , डब्बू बिना पैसे लिये ही चल पड़ा l उसे डर था , कहीं कैलाश चाचा उसके चेहरे का भाव ना देख लें l

बैठक में आकर वो मोबाईल देखने लगा l मोबाईल पर मन नहीं लगा तो , टी. वी. खोलकर न्यूज देखने लगा l थोड़ी देर बाद अन्नू कमरे में आई l दोनों बच्चों के साथ l विपुल और मोहित दोनों उसके ही बच्चे हैं l एक आठ साल का और दूसरा दस साल का l

"सुबह ऑफिस जाते समय तुम्हें जितिया दिया था l गुँथवाने के लिये l लेकर आये हो , या नहीं ?"

"हाँ लाया हूँ l ये लो .. l "उसने जेब में हाथ डालकर जितिया निकाला और अन्नू के हाथ पर धर दिया l

फिर अन्नू ने बारी - बारी से विपुल और मोहित को जितिया पहनने को दिया l

सहसा उसे फिर से माँ की याद आ गई l बचपन में माँ , डब्बू और टुन्नी दीदी को बारी - बारी से ऐसे ही जितिया पहनाती थी l

अन्नू ने उसे और बच्चों को खाने की मेज पर बुलाया l

हाथ धोकर डब्बू खाने की मेज पर पहुँचा l जहाँ बच्चे पहले से मौजूद थें l टेबल पर वही जौ की रोटी और गुड थाली में मौजूद था l

अन्नू ने बच्चों के लिये और डब्बू के लिये जौ की रोटी और गुड बनायी थी l

डब्बू को ये देखकर आश्चर्य हो रहा था l वही , पकवान , वही पर्व l

माँ आज नहीं थी l लेकिन , माँ के रूप में अन्नू अपने बच्चों के लिये जितिया पर्व मना रही थी l सचमुच अन्नू के रूप में माँ की भावनायें उसके आस पास ही थीं l माँ कहाँ मरती है l माँ की केवल देह वहाँ नहीं थी l लेकिन माँ के भावना और विचार अब अन्नू के रूप में मौजूद थें l जो अपने बच्चों के लिये खुशहाली और लँबी आयु की कामना कर रहे थें !

मोम का दिल : लघुकथा

आज लक्खी को दम मारने की भी फुर्सत नहीं थी l कल अंबष्ट के बोस खाने पर आये थें l रात के खाने के बाद बर्तनों का हुजूम बिखरा पड़ा था l उसने बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजा l पति को नाश्ता देकर और कामों को जल्दी - जल्दी निपटाने लगी l तभी लक्खी की सास ख्याली ने लक्खी को आवाज लगाई l

"बहू जरा , चाय दे l"

"हाँ ; माँ जी देती हूँ , लेकिन, कोई कप खाली नहीं है l अभी धोकर लाती हूँ l "लक्खी रसोई से निकल कर हाथ पोंछती हुई बोली l

"ये तो पड़ा है , कप टेबल पर l इसमें ही दे दो l"

"लेकिन, माँ जी ये तो जूठा कप है l"

"किसका जूठा है , ये ?"

"माँ , जी ये सुबह मैनें जो प्याली पी थी l वही पड़ी हुई है l"

ख्याली ने दोबारा बर्तनों के हुजूम पर नजर फिराई l इतने बर्तनों को साफ करने में तो घँटे भर लग जायेंगे l ख्याली के दिल में लक्खी के लिये ममता उभर आई l उसे याद है l नलिनी और माजो की शादी हुए एक अरसा हो गया l वे दोनों तो पर्व-त्योहारों पर घर आतीं हैं l छोटे बेटे अनिल, ने जान्हवी के साथ अलग चूल्हा जोड़ लिया था l कभी बात भी नहीं पूछता है l अम्मा ठीक हो या नहीं l बारह बरस से अलग रह रहा है , अनिल , जान्हवी के साथ l लक्खी , ख्याली की बहू नहीं अब बेटी की तरह है l उसने ख्याली की तरह ही घर को संभाल रखा है l हर , तिल को तिल की तरह l रेशे को रेशे की तरह l कभी ख्याली की बात नहीं काटती l

ख्याली का दिल भी पत्थर का थोड़े ही था l ख्याली का दिल मोम होने लगा l

"बहू , इस जूठे कप में ही चाय दे दे l"

ख्याली को लगा वो सपना देख रही है l उसने खुद को चिकोटी काटी l

नहीं , ये सपना नहीं था l

"क्या , कहा माँ जी आपने ? आप इस जूठे कप में चाय पियेंगी l लेकिन, आप मेरे जूठे कप में कैसे चाय पी सकतीं हैं ? आप तो , मेरी सास हैं l आज तक इन बीस सालों में आपने कभी मेरे जूठे बर्तन में चाय नहीं पी ...l आज कैसे ..?"

"बेटा मैनें सब रिश्तों को देख लिया l जो , मेरी बेटियाँ थीं l वो अब मुझसे बहुत दूर हैं l दो , बेटों मे़ एक बेटा पास है l एक अलग रह रहा है l तू मेरी बहू नहीं बेटी है l" ख्याली का गला दु:ख से भर्राने लगा था l आज लक्खी को इतनी बड़ी खुशी मिल रही थी ; कि वो किसी को बता नही सकती थी l उसको लग रहा था , जैसे वो आकाश में पंख लगाकर उड़ रही हो !

और , घर मुस्कुरा पड़ा : लघुकथा

मँगत बाबू , मोती बाबू के पुराने मुलाज़िमों में से एक थें l मोती बाबू का देहांत इधर हाल ही में हो गया था l मोती बाबू ने अपने इसी छोटे से गल्ले की दुकान से अपने दोनों बच्चों को पढ़ाया -लिखाया था l जहाँ मँगत बाबू काम करतें थें l और आज मोती बाबू के दोनों बच्चे अंकित और अजय ऊँची जगह पर किसी बड़ी कंपनी में काम कर रहें थें l मोती बाबू के जाने के बाद मँगत बाबू अब इस घर में अकेले बुजुर्ग बचे थें l बचपन से लेकर जवानी और यहाँ तक की लगभग पूरा बूढ़ापा भी उन्होनें इसी परिवार की सेवा में काट दिया था l अंकित और अजय को वो बचपन से ही बड़े होते देख रहें थें l घर में अब अंकित , अजय और उनकी पत्नियाँ दर्शी और प्रीति रहते थें l मोती बाबू की पत्नी सरला देवी अक्सर बीमार रहतीं थीं l चूँकि मोती बाबू की दुकान अब बँद हो ग ई थी l इसलिए मँगत बाबू की जरूरत अब उस दुकान पर नहीं रह गई थी l लेकिन, मँगत बाबू ने शादी नहीं की थी l और उनका कोई बच्चा भी नहीं था l मँगत बाबू ने इधर सालों से अपने रिश्तदारों से भी कोई संपर्क नहीं साधा था l वो बड़ी दुविधा में थें l कि उनका तो कोई घर भी नहीं है l और भला अब इस बुढ़ापे में वो आखिर कहाँ जायेंगें ?और इस उम्र में आखिर एक बूढ़े नौकर को भला कौन रखेगा ? किसी तरह दस दिनों तक वे रूके रहे l जब मोती बाबू के सारे मेहमान विदा हो गये l तो एक दिन वो भी चलने को हुए l दो - जोड़ी कपड़े और कुछ जरूरत के सामान ट्रँक में रखकर वो घर से बाहर निकलने को हुए l लेकिन, सरला देवी और अजय , अंकित को बताना भी तो जरूरी था l कि वो जा रहें हैं l लेकिन उन्हें ये बातें कहते हुए झिझक भी हो रही थी l लगभग चालीस साल का संबंध ऐसे ही खत्म थोड़े होता है l उन्होंने छड़ी , धोती और ट्रँक सँभाला और बैठक में आ गये l

और अंकित से बोले -"अच्छा अंकित , बाबू अब आज्ञा दीजिए l परमात्म की कृपा से मैनें जीवण में मोती बाबू और आप लोगों की बहुत सेवा की l अब मोती बाबू नहीं रहे l और दुकान भी बँद रहती है lअब मेरी जरूरत इस दुकान में नहीं है l इसलिये मुझे अब आज्ञा दीजिये अंकित बाबू l गाँव जाकर वहीं कोई खेती बाड़ी या कोई दूसरा छोटा - मोटा काम करूँगा l"

अंकित दफ्तर के लिये निकलने वाला था l मँगत बाबू की बात सुनी तो वहीं रूक गया l और आश्चर्य से मँगत बाबू का सामान हाथ से लेकर जमीन पर रखते हुए बोला -"आप इस उम्र में भला कहाँ जायेंगें , मँगत चाचा ? आप कहाँ जाकर रहेंगें ? चालीस साल तक आपने हमारी सेवा की l और , अब अचानक ही ऐसे -कैसे चले जायेंगें ? आपका तो गाँव पर कोई घर भी नहीं है l आखिर , आप कहाँ जाकर रहेंगें ? किसी ने घर में आपसे कुछ कहा है क्या ?"

अंकित ने वहीं से अपनी पत्नी और माँ को आवाज दी l दर्शी और सरला देवी अंकित की आवाज सुनकर बैठक में आ गईं l तब अंकित ने माँ और दर्शी को मँगत चाचा के घर से जाने की बात बताई l अंकित की बात सुनकर सभी लोग सकते में आ गये l प्रीति भी काम छोड़कर अंकित की बात सुनने के लिये बैठक में आ गई l

अजय मार्केट गया हुआ था l कोई सामान लाने l उसने भी ये बात सुनी l तो सकते में आ गया l

"आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है , मँगत चाचा l जैसे आप हमारे घर में पहले से रहते आ रहें थें l वैसे ही अब आप आगे भी रहेंगें l बाबूजी हमारे साथ रहते थें , तो हमें बहुत हिम्मत थी l उनके आशीर्वाद से इस घर में अब कोई कमी नहीं है l लेकिन एक पिता की कमी इस घर में है l लेकिन , आज से आप इस घर में हमारे चाचा नहीं पिता की हैसियत से रह सकते हैं l आप उनकी जगह लेकर इस घर की और हम बच्चों की देखभाल पहले की तरह करतें रहें l ये आपसे हमारी एक विनती है l"

"हाँ , अजय ठीक कह रहा है , मँगत जी आप यहीं रहें l और बच्चों की देखभाल करें l बिना बुजुर्गों के घर सूना - सूना सा लगता है l "सरला देवी आँखों के कोर पोंछती हुई बोलीं l

मँगत चाचा की आँखें अब भींगने लगीं थीं l कहाँ तो वे ये सोच रहें थें l कि वो कहाँ और किसके पास जाकर और रहेगें ?और कहाँ तो उन्हें इतना प्यार मिल रहा था l और , भला इतना प्यार पाकर कोई कहाँ जा सकता था l

दर्शी और प्रीति ने मँगत चाचा का ट्रँक और छाता हाथ से ले लिया l और उनके कमरे में रख आईं l

ऐसा होते देख घर भी मुस्कुरा पड़ा !

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