लघु-कथाएँ : भगवान अटलानी

Laghu-Kathayen : Bhagwan Atlani

अचूक

फोन किया, "आपको याद होगा, मैंने एक निवेदन किया था।"

"कैसा निवेदन?"

"आपकी पत्रिका में कहानी छपी थी मगर मुझे प्रति नहीं मिली। पाठकों के पत्रों से जानकारी मिली।"

"मुझसे क्या चाहते हैं?"

"पिछली बार मैंने प्रति दोबारा भेजने का अनुरोध किया था।"

"तो भेज दी होगी।"

"ज़रूर भेजी होगी। मगर बीस दिनों के बाद भी अब तक मुझे नहीं मिली है।"

"आप कहें तो मैं ख़ुद लेकर आ जाऊँ," क्रोध मिश्रित व्यंग्य स्पष्ट था।

आक्रोश ने फन फैलाया। मगर हतप्रभ हुए लेखक तुरन्त सँभले। उत्साहपूर्वक बोले, "आप स्वयं आयेंगे तो सचमुच मज़ा आ जायेगा। मेरे जीवन का अविस्मरणीय अवसर बन जायेगा आपका आना।"

किंचित मौन। "आप मज़ेदार आदमी हैं . . . और चतुर भी।" हल्केपन में सनी हँसी के स्वर, "रजिस्टर्ड डाक से भेज देते हैं। ठीक है?"

अधीरता

वरिष्ठ लेखक ने समाचार पत्र के साहित्य परिशिष्ट के सुपरिचित अपेक्षाकृत युवा प्रभारी सम्पादक को व्हाट्सएप पर संदेश भेजा, "रचना प्रकाशित हुए चार महीने हो गये हैं। लगता है, पारिश्रमिक अब तक नहीं भेज पाये हैं!"

उत्तर नहीं आया मगर अगले दिन चैक मिल गया। सौजन्यवश व्हाट्सएप पर जानकारी और धन्यवाद लिख भेजा। तुरन्त जवाब आया, "अधीरता मुबारक हो!"

सौजन्य प्रदर्शन ग़लत था या तक़ाज़ा, लेखक महोदय समझ नहीं पा रहे हैं।

घोषणा पत्र

वृद्धाश्रम में किसी प्रकार की असुविधा नहीं थी। सेवानिवृत्त उच्चाधिकारी व आर्थिक दृष्टि से समृद्ध वृद्धाश्रम के आवासी पूरा भुगतान करते थे और इसलिये ठसक से रहते थे। वहाँ कार्यरत कर्मियों, नौकरों, चाकरों को पैसे के ज़ोर पर ख़ुश रखने की कला में सब पारंगत थे। भौतिक रूप से वह सब कुछ था वहाँ, जिसके होने को सुखमय जीवन कहते हैं।

दो महीनों से यहाँ हैं। खाना-पीना, मौज-मस्ती, हँसी-ठट्ठा सब कुछ है मगर दुख-सुख बाँट सकें ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिला है उन्हें। फ़ेस बुक फ़्रैन्ड हर एक है, फ़्रैन्ड एक भी नहीं है। आत्मीय स्पर्श का अहसास कहीं से भी नहीं मिलता है।

बेटे-बहू में से किसी ने घर छोड़ने के लिये नहीं कहा था मगर मोटी पेन्शन का अन्दर बैठा घमण्ड, सम्पत्ति के किराये का अहंकार, सम्पन्नता के नागफन पर बैठा दर्प उन्हें समझौते करने से रोकता था। कहते नहीं थे मगर व्यवहार से साफ़ था, बेटे-बहू को उनका हस्तक्षेप पसन्द नहीं था। इसलिये घर छोड़ आये। 

ख़ूब सोचा। मंथन किया। फ़ैसले पर पहुँचे कि घर लौटेंगे। निश्चय किया कि स्टाम्प पेपर पर बाक़ायदा घोषणा पत्र तैयार करेंगे और बेटे-बहू को दिखायेंगे। लिखेंगे कि भविष्य में हर काम को अनदेखा करते हुए सिर झुकाकर घर में रहेंगे। न किसी को रोकेंगे, न किसी से कुछ कहेंगे। यथासम्भव घर के हर काम में सहयोग देंगे।

घोषणा पत्र टाइप हो गया। दो लोगों को गवाह के रूप में हस्ताक्षर करने थे। वृद्धाश्रम में रहने वाले अनेक लोगों को घोषणा पत्र के सभी सोलह बिन्दु पढ़ाये। हर एक ने पढ़े ज़रूर मगर घोषणा पत्र पर गवाह के रूप में हस्ताक्षर करने से सब कन्नी काट गये।

वे समझ नहीं पा रहे हैं, निर्णय ग़लत है या सही?

मुनासिब

राष्ट्रीयकृत बैंक के प्रबन्धक का कमरा। मेज़ के उस तरफ यूनियन का नेता कुर्सी पर बैठा है। प्रबन्धक के होंठों पर मुस्कराहट और नेता के तेवरों पर बल है।

"मैनेजर साहब, अगर आपका यही रवैया रहा तो मेरा कोई भी आदमी कल से बैंक के काम से बाहर नहीं जायेगा।"

"लेकिन मैंने बिल का भुगतान करने से मना कब किया है?"

"दो सौ की जगह पचास रुपये देकर आप हमारे ऊपर अहसान कर रहे हैं?"

"मुनासिब भुगतान देने से मैंने कभी मना किया है?"

"मुनासिब, ग़ैर-मुनासिब हम कुछ नहीं जानते। हमारा आदमी पैदल गया हो चाहे टैक्सी से, उसने मेहनत की है। बैंक का काम किया है।"

"आप समझिये, मुझे भी जवाब देना पड़ता है।"

"उद्घाटनों, ऋण मेलों और दूसरे समारोहों पर आप लाखों रुपये ख़र्च कर सकते हैं। तब जवाब नहीं देना पड़ता है आपको?"

"छोटी सी बात पर इतने नाराज़ क्यों होते हैं? आप कहते हैं तो लाइये, बिल पास कर देता हूँ।"

श्राद्ध

"इस बार आपके पिताजी को छोड़कर मैं किसी का श्राद्ध नहीं करूँगी," पत्नी ने घोषणा की।

हतप्रभ पति ने पूछा, "क्यों?"

"आपके पिताजी को मैंने देखा है। जिनको देखा ही नहीं, उनका श्राद्ध नहीं करूँगी।"

पति सोच रहे थे, बेटे की शादी होने से पहले अगर मेरी मृत्यु हो गई तो ऐसी ही घोषणा उसकी वधू कर सकती है। 

अगले दिन उन्होंने अपनी वसीयत पंजीकृत कराई, "मेरी मृत्यु के बाद श्राद्ध न कराया जाये।"

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